________________
महापुराणम् (प्रभा'समजयत्तत्र प्रभासं व्यन्तराधिपम् । प्रभासमूहमर्कस्य स्वभासा तर्जयन्प्रभुः ॥१२३॥ जयश्रीशफरीजालं' मुक्ताजालं ततोऽमरात् । लेभे सान्तानिकों' मालां हेममालाञ्च चक्रभुत् ॥१२४॥ इति पुण्योदयाज्जिष्णुः व्यंजेष्टामरसत्तमान् । तस्मात् पुण्यधनं प्राज्ञाः शश्वदर्जयतोजितम् ॥१२॥
शार्दूलविक्रीडितम्
(त्वङग तुङग तुरङगसाधनखुरक्षुण्णा महोस्थण्डिलाद्
___ उद्भूत रगरे गुभिर्जलनिधेः कालुष्यमापादयन् । सिन्धुद्वारमुपेत्य तत्र विधिना जित्वा प्रभासामरं
तस्मात्सारधनान्यवापदतुलश्रीरग्रणीश्चक्रिणाम् ॥१२६॥ लक्ष्म्यान्दोल'लतामिवोरसि दधत् सन्तानपुष्पस्रजं
मुक्ताहेममयेन जालयुग लेनालडाकृतोच्चस्तनुः । लक्ष्म्द्वाह गृहादिवाप्रतिभयो२ निर्यन्निधेरम्भसां
लक्ष्मीशो रुरुचे भृशं नववरच्छायां परामुदहन ॥१२७॥
जिसने दिव्य अस्त्र धारण किये हैं ऐसे भरतने पहलेके समान रथपर चढ़कर गोष्पदके समान तुच्छ समझते हुए लवण समुद्र में प्रवेश किया ॥१२२।। अपनी प्रभासे सूर्यकी प्रभाके समहको तिरस्कृत करते हुए भरतने वहां जाकर अतिशय कान्तिमान् प्रभास नामके व्यन्तरोंके स्वामी को जीता ॥१२३॥ तदनन्तर चक्रवर्तीने उस प्रभासदेवसे जयलक्ष्मीरूपी मछलीको पकड़ने के लिये जालके समान मोतियोंका जाल, कल्पवृक्षके फूलोंकी माला और सुवर्णका जाल भेंट स्वरूप प्राप्त किये ॥१२४॥ इस प्रकार विजयी भरतने अपने पुण्यकर्मके उदयसे अच्छे अच्छे देवोंको भी जीता इसलिये हे पण्डित जन. तम भी उत्कृष्ट फल देनेवाले पण्य
पूण्यरूपी धनका सदा उपार्जन करो ॥१२५।। अनुपम लक्ष्मीके धारक भरत, उछलते हुए बड़े बड़े घोड़ोंकी सेना के खुरोंसे खुदी हुई पृथिवीसे उड़ती हुई रथकी धूलिके द्वारा समुद्रको कलुषता प्राप्त कराते हुए (गॅदला करते हुए) सिन्धुद्वारपर पहुंचे और वहां उन्होंने विधिपूर्वक प्रभास नामके देवको जीतकर उससे सारभूत धन प्राप्त किया। ॥१२६॥ जो अपने वक्षःस्थलपर लक्ष्मीके झूला की लताके समान कल्पवृक्षके फूलोंकी माला धारण किये हुए है, जिसका ऊँचा शरीर मोती और सुवर्णके बने हुए दो जालोंसे अलंकृत हो रहा है, जो निर्भय है और लक्ष्मीका स्वामी है ऐसा यह भरत लक्ष्मीके विवाहगृहके समान समुद्रसे निकल रहा है और नवीन वरकी उत्कृष्ट कान्तिको धारण करता हुआ अत्यन्त सुशोभित हो रहा है ।।१२७।। इस प्रकार समुद्र-पर्यन्त पूर्व दिशाके राजाओंको, वैजयन्त पर्वत तक दक्षिण दिशाके राजाओंको और पश्चिम समुद्र
१ प्रकृष्टदीप्तिम्। २ जयश्रीरेव शफरी मत्सी तस्या जालम् पाशः । ३ कल्पवृक्षजाताम् । ४ वल्गत् । ५ चूर्णीकृतात् । ६ शर्करापायप्रदेशात् । ७ सङगरपांशुभिः। ८ सम्पादयन् । ६ लक्ष्म्या : प्रेडखोलिकारज्जुम् । १० मालायुग्मेन । ११ विवाह। १२ भयरहितः । १३ नुतनवरशोभाम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org