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एकत्रिंशत्तम पर्व इति सत्त्वा वनस्येव प्राणाः प्रचलिता भृशम् । प्रत्यापत्ति' चिराद् ईयुः सैन्यक्षोभे प्रसेदुषि ॥३१॥ "प्रयायानुवनं किञ्चिद् अन्तरं तदनन्तरम् । रूप्याद्रेमध्यमं कूटं सन्निकृष्य स्थितं बलम् ॥३२॥ ततस्तस्मिन् वने मन्दं मरुतां दोलितदुमे । नपाज्ञया बलाध्यक्षाः स्कन्धावारं न्यवेशयन् ॥३३॥ स्वैरं जगहरावासान् सैनिकाः सानुमत्तटे । स्वयं गलत्प्रसनौष घनशाखि घने वने ॥३४॥ सरस्तीरतरूपान्तलतामण्डपगोचराः। रम्या बभूवुरावासाः सैनिकानामयत्नतः ॥३५॥ वनप्रवेशम् उन्मुग्धाः प्राहुर्वैराग्यकारणम् । तत्प्रवेशो यतस्तेषाम् अभवद् रागवृद्धये ॥३६॥ अथ तत्र कृतावासं ज्ञात्वा सनियमं प्रभुम् । अगाम्मागधवत् द्रष्टुं विजया धिपः सुरः ॥३७॥ तिरीटशिखरोवप्रो लम्बप्रालम्बनिर्भरः । स भास्वस्कटको२ रेजे राजताद्रिरिवापरः ॥३८॥ सितांशुकधरः स्रग्वी हरिचन्दनचचितः। स बभौ धृत्तरत्ना? निधिः शङख इवोच्छितः ॥३६॥
ससंभमं च सोऽभ्येत्य प्रसतामगमत्प्रभोः । ससत्कारं च तं चक्री भद्रासनमलम्भयत् ॥४०॥ के भीतर ही जा ठहरे थे ॥३०॥ इस प्रकार वनके प्राणोंके समान अत्यन्त चंचल हुए प्राणी सेनाका क्षोभ शान्त होनेपर बहुत देरमें अपने अपने स्थानोंपर वापिस लौटे थे ॥३१॥ तदनन्तर वह सेना वन ही वन कुछ दूर जाकर विजया पर्वतके पाँचवें कूटके समीप पहुँचकर ठहर गई ॥३२।। सेनाके ठहरनेपर सेनापतियोंने महाराजकी आज्ञासे, जिसके वृक्ष मन्द मन्द वायुसे हिल रहे थे ऐसे उस वनमें सेनाके डेरे लगवा दिये थे ॥३३॥ जिसमें अपने आप फूलोंके समूह गिर रहे हैं और जो घने घने लगे हुए वृक्षोंसे सघन हैं ऐसे विजयाध पर्वतके किनारके वनमें सैनिक लोगोंने अपने इच्छानुसार डेरे ले लिये थे ॥३४॥ सरोवरोंके किनारेके वृक्षोंके समीप ही जो लतागृहों के स्थान थे वे बिना प्रयत्न किये ही सेनाके लोगोंके मनोहर डेरे हो गये थे ॥३५॥ 'वनमें प्रवेश करना वैराग्यका कारण है, ऐसा मूर्ख मनुष्य ही कहते हैं क्योंकि उस वनमें प्रवेश करना उन सैनिकोंकी रागवृद्धिका कारण हो रहा था। भावार्थ-वनमें जानेसे सेनाके लोगोंका राग बढ़ रहा था इसलिये वनमें जाना वैराग्यका कारण है ऐसा कहनेवाले पुरुष मूर्ख ही हैं॥३६॥
__ अथानन्तर-महाराज भरतको वहाँ नियमानुसार ठहरा हुआ जानकर विजया पर्वतका स्वामी विजया नामका देव मागध देवके समान भरतके दर्शन करने के लिये आया ॥३७॥ उस समय वह देव किसी दूसरे विजया पर्वतके समान सुशोभित हो रहा था, क्योंकि जिस प्रकार विजयाध पर्वत शिखरसे ऊंचा है उसी प्रकार वह देव भी मुकुटरूपी शिखरसे
जिस प्रकार विजयाई पर्वतपर झरने झरते हैं उसी प्रकार उस देवके गलेमें भी झरनों के समान हार लटक रहे थे और जिस प्रकार विजया पर्वतका कटक अर्थात् मध्यभाग देदीप्यमान है उसी प्रकार उसका कटक अर्थात् हाथोंका कड़ा भी देदीप्यमान था ।।३८।। जो सफेद वस्त्र धारण किये हुए हैं, मालाएँ पहिने है, जिसके शरीरपर सफेद चन्दन लगा हुआ है और जो रत्नोंका अर्थ धारण कर रहा है ऐसा वह देव खड़ी की हुई शंख नामक निधिके समान सुशोभित हो रहा था ॥३९॥ उस देवने बड़ी शीघताके साथ आकर चक्रवर्तीको नमस्कार किया और
१ पुनस्तत्प्राप्तिम् पूर्वस्थितिमित्यर्थः । २ जग्मुः । ३ प्रशान्ते सति । ४ गत्वा । ५ रौप्याद्रः प०, द०, ल०। रूपानेः अ० स० द०। ६ समीपं गत्वा । ७ अद्रिसानौ । ८ 'निष निमित्तसमारोहपरिणाहघनोद्घनाघनोपघ्ननिघोग्घसंघामूर्त्यत्यादानाङगासन्ननिमित्तप्रशस्तगणा' इति सूत्रेण निमित्तार्थ्य निघशब्दो निपातितः निमित्तशब्दः समारोहपरिणाहे वर्तते ऊर्ध्वविशालतायां वर्तते इत्यर्थः । समारोहपरिणाह 'परिणाहो विशालता' उत्सेधः विशालः इत्यर्थः । अस्मिन्नर्थे घनोद्घनापघनोपध्ननिघद्घ संघा मूर्त्यत्यादानाङगासन्ननिमित्तप्रशस्तगणा इति निपातनात् सिद्धिः । ६ जडाः । १० यस्मात् कारणात् । ११ ऋजुलम्बिहारः । १२ करवलयः एव सानु ।
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