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महापुराणम् भाति यः शिखरस्तुङगैः दूरव्यायतनिर्भरैः । सपताकविमानौघः विश्रमायेव संश्रितः ॥६६॥ यः पूर्वापरकोटिभ्यां विगाह्याम्बुनिधि स्थितः । ननं दावत्रयात् सख्यम् अमुना प्रचिकीर्षति ॥६७ नयन्ति निर्शरा यस्य शश्वत्पुष्टि तटदुमान् । स्वपादाश्रयिणः पोष्याः प्रभुणेतीव शंसितुम् ॥६॥ तटस्थपुट पाषाणस्खलितोच्चलिताम्भसः। नदीवधूः कृतध्वानं निरहंसतीव यः ॥६६॥ वनाभोगमपर्यन्तं यस्य दग्धुमिवाक्षमः । भृगुपाताय' दावाग्निः शिखराण्यधिरोहति ॥७०॥ ज्वलद्दावपरीतानि यत्कूटानि वनेचरैः । चामीकरमयानीव लक्ष्यन्ते शचि सन्निधौ ॥७॥ समातङग' वनं यस्य सभुजङग परिग्रहम् । विजाति कण्टकाकीर्ण क्वचिद्धत्तेऽतिकष्टताम् ॥७२॥ क्षीब कुञ्जरयोगेऽपि क्वचिदक्षीबकुञ्जरम् । विपत्रमपि सत्पत्रपल्लवं भाति यद्वनम् ॥७३॥
था, जिस प्रकार आप पृथुवंश अर्थात् विस्तृत-उत्कृष्ट वंश (कूल) को धारण करनेवाले थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी पृथवंश अर्थात् बड़े बड़े बाँसके वक्षोंको धारण करनेवाला था, जिस प्रकार आप धतायति अर्थात् उत्कृष्ट भविष्यको धारण करनेवाले थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी धृतायति अर्थात् लम्बाईको धारण करनेवाला था, और जिस प्रकार आप दूसरोंके द्वारा अलंघ्य अर्थात अजय थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी दूसरोंके द्वारा अलंध्य अर्थात् उल्लंघन न करने योग्य था ॥६५॥ जिनसं बहुत दूरतक फलनवाल झरनं झर रह ह एस ऊच ऊचं शिखरा से वह पर्वत ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो पताकाओंसहित अनेक विमानोंके समह ही विश्राम करने के लिये उसपर ठहरे हों ।।६६।। वह पर्वत अपने पूर्व और पश्चिम दिशाके दोनों कोणोंसे समुद्र में प्रवेश कर खड़ा हुआ था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो दावानलके डरसं समुद्रके साथ मित्रता ही करना चाहता हो ॥६७॥ उस विन्ध्याचलके झरने 'स्वामीको अपने चरणोंका आश्रय लेनेवाले पुरुषोंका अवश्य ही पालन करना चाहिये' मानो यह सूचित करने के लिये ही अपने किनारेके वृक्षोंका सदा पालन-पोषण करते रहते थे ।।६८। वह पर्वत शब्द करते हुए निर्भरनोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो अपने किनारेके ऊँचे नीचे पत्थरों से स्खलित होकर जिनका पानी ऊपरकी ओर उछल रहा है ऐसी नदीरूपी स्त्रियोंकी हँसी ही कर रहा हो ॥६९।। उस पर्वतकी शिखरोंपर लगा हुआ दावानल ऐसा जान पड़ता था मानो उसके सीमारहित बहुत बड़े वनप्रदेशको जलानेके लिये असमर्थ हो ऊपरसे गिरकर आत्म
के लिये ही उसके शिखरोंपर चढ रहा हो ॥७०॥ आषाढ महीनेके समीप जलती हुई दावानलसे घिरे हुए उस पर्वतके शिखर वहांके भीलोंको सुवर्णसे बने हुएके समान दिखाई देते थे ॥७१॥ उस पर्वतका वन कहीं कहीं मातंग अर्थात् हाथियोंसे सहित था अथवा मातंग अर्थात् चांडालोसे सहित था, भुजंग अर्थात् साँके परिवारसे युक्त था अथवा भुजंग अर्थात् नीच (विटगुंडे) लोगोंके परिवारसे युक्त था और अनेक प्रकारके काँटोंसे भरा हुआ था अथवा अनेक प्रकारके उपद्रवी लोगोंसे भरा हुआ था इसलिये वह बहुत ही दुःखदायी अथवा शोचनीय अवस्थाको धारण कर रहा था ॥७२॥ उस पर्वतपरका वन क्षीबकुंजर अर्थात् मदोन्मत्त हाथियोंसे युक्त होकर भी अक्षीबकुंजर अर्थात् मदोन्मत्त हाथियोंसे रहित था, और विपत्र अर्थात् पत्तोंसे रहित होकर भी सत्पत्रपल्लव अर्थात् पत्तों तथा कोंपलोंसे सहित
१ इव। २ मित्रत्वम् । ३ समुद्रेण । ४ कर्तमिच्छति । ५ तटनिम्नोन्नत । ६ प्रपातपतनाय । 'पपातस्त्वतटो भगु' इत्यभिधानात् । ७ ग्रीष्म । ८ सगजं पक्षे सचाण्डालम् । ६ ससर्प, पक्षे सविट् । १० पक्षिताति, पक्षे नीच जाति । ११ मत्तगज। १२ अक्षीवं समुद्रलवणम् 'सामुद्रं यत्त लवणमक्षीब वशिरञ्च तत्'। कुञ्जो गुल्मगुहान्ती रातीति ददातीति । १३ वीनां पत्राणि पक्षाणि यस्मिन् सन्तीति, अथवा विगताश्वम् ।
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