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महापुराणम् चलत्सत्त्वो गुहारन्ध: विमुञ्चन्नाकुलं स्वनम् । महाप्राणोऽद्रिरुत्क्रान्तिम् इयायेव बलक्षतः ॥४६॥ चलच्छाखी चलत्सत्त्वः चलच्छिथिलमेखलः । नाम्नवाचलतां भेजे सोऽद्विरेवं चलाचलः ॥४७॥ गजतावन सम्भोगैः तुरङगखुरघटनैः । सहोत्सङगभुवः क्षुण्णाः स्थलीभावं क्षणाद् ययुः ॥४८॥ आपश्चिमार्णवतटाद् प्रा च मध्यमपर्वतात् । पातुङगवरकादद्रेः तुङगगण्डोपलाडाकितात् ॥४६॥ तं कृष्णगिरिमुल्लङघच तं च शैलं समन्दरम् । मुकुन्दं चाद्रिमुदप्ता जयभास्तस्य बभमः ॥५०॥ तत्रा परान्तकान् नागान् ह्रस्वग्रीवान् परान् रदैः। युक्तान् पीनायतस्निग्धैः श्यामान् स्वक्षा न मदुत्वचः ५१ 'महोत्सङगानु दग्राडागान् रक्तजिह्मोष्ठतालुकान् । मानिनो दीर्घवालोष्ठान् पद्मगन्धमदच्युतः ॥५२॥ सन्तुष्टान् स्वे वने शूरान् दृढपादान् सुवर्षणः । स भेजे तद्वनाधीशः ससम्भममुपाहृतान्० ॥५३॥ बनरोमावलीस्तुङगतटारोहार बहूनदीः । पूर्वापराब्धिगाः सोऽत्यत् सह्याद्रेर्दहितृरिव ॥५४॥
सञ्चरभीषणग्राहैः भीमां भैमरथी नदीम् । नचक्रकृतावतरवेणां च दारुणाम् ॥५५॥ कर भरतके प्रति अपनी पराजय ही स्वीकृत कर रहा हो (पूर्व कालमें यह एक पद्धति थी कि पराजित राजा शिरपर लकड़ियोंका गट्ठा रखकर गले में कुल्हाड़ी लटकाकर अथवा मुखमें तण दबाकर विजयी राजाके सामने जाते थे और उससे क्षमा मांगते थे।) ॥४५॥ वह पर्वतरूपी बड़ा भारी प्राणी सेनाके द्वारा घायल हो गया था, उसके शिखर टूट-फूट गये थे, उसका सत्त्व अर्थात् धैर्य विचलित हो गया था-उसके सब सत्त्व अर्थात् प्राणी इधर-उधर भाग रहे थे, वह गुफाओंके छिद्रोंसे व्याकुल शब्द कर रहा था और इन सब लक्षणोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो बहुत शीघू मरना ही चाहता हो ।।४६।। उस पर्वतके सब वृक्ष हिलने लगे थे, सब प्राणी इधर-उधर चंचल हो रहे थे--भाग रहे थे और उसके चारों ओरका मध्यभाग भी शिथिल होकर हिलने लगा था इस प्रकार वह पर्वत नाममात्रसे ही अचल रह गया था, वास्तवमें चल हो गया था ॥४७॥ लोगोंकी बनक्रीड़ाओंसे तथा घोड़ोंके खुरोंके संघटनसे उस सह्य पर्वतके ऊपरकी भूमि चूर चूर होकर क्षण भरमें स्थलपनेको प्राप्त हो गई थी अर्थात् जमीनके समान सपाट हो गई थी ॥४८॥ चक्रवर्ती भरतके मदोन्मत्त विजयी हाथी, पश्चिम समुद्रके किनारे से लेकर मध्यम पर्वत तक और मध्यम पर्वतसे लेकर ऊंची ऊंची चट्टानोंसे चिह्नित तुंगवरक पर्वत तक, कृष्ण गिरि, सुमन्दर तथा मुकुन्द नामके पर्वतको उल्लंघन कर, चारों ओर घूम रहे थे ॥४९-५०।। जिनकी गर्दन कुछ छोटी है, जो देखने में उत्कृष्ट हैं, मोटे लम्बे और चिकने दाँतोंसे सहित हैं, काले हैं, जिनकी सब इन्द्रियाँ अच्छी है, चमड़ा कोमल है, पीठ चौड़ी है, शरीर ऊँचा है, जीभ, ओंठ और तालु लाल हैं, जो मानी हैं, जिनकी पूछ और ओंठ लम्बे हैं, जिनसे कमलके समान गंधवाला मद झर रहा है, जो अपने ही वनमें संतुष्ट है, शूरवीर है, जिनके पैर मजबूत हैं , शरीर अच्छा है और जिन्हें उन वनोंके स्वामी बड़े हर्ष या क्षोभके साथ भेंट देने के लिये लाये हैं ऐसे पश्चिम दिशामें उत्पन्न होनेवाले हाथी भी भरतने प्राप्त किये थे ॥५१-५३।। वन ही जिनकी रोमावली है और ऊंचे किनारे ही जिनके नितम्ब हैं ऐसी सह्य पर्वतकी पुत्रियोंके समान पूर्व तथा पश्चिम समुद्रकी ओर बहनेवाली अनेक नदियां महाराज भरतने उल्लंघन की थीं--पार की थीं ॥५४॥ चलते-फिरते हुए भयंकर मगरमच्छोंसे भयानक भीमरथी नदी, नाकुओंसे समहसे की हुई आवतॊसे भयंकर दारुवेणा नदी, किनारे
१ गुह्मरन्ध्रेः ल० । २ सिंहादिसत्त्वरूपमहाप्राणः । 'प्राणो हृन्मारुते चोले काले जीवेऽनिले बले।' इत्यभिधानात् । ३ मरणावस्थाम् (मृतिम्) । ४ जनता ल०, द० । ५ पश्चिमदिवसमीपान् । ६ कुब्जस्कन्धोत्कृष्टान् । ७ पीनायित-ल० । ८ सुनेत्रान् । ६ बृहदुपरिभागान् । १० उपायनीकृतान् । ११ नितम्बाः । १२ अगात् । १३ पुत्रीरिव । १४ भीमरथीं ल० ।
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