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त्रिंशत्तमं पर्व
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कालिङ्ग केगंजरस्य मलयोपान्त भूधराः । तुलयद्भिरिवोन्मानम् श्राक्रान्ताः स्वेन वर्ष्मणा ॥ ३६ ॥ दिशां प्रान्तेषु विश्रान्तैदिग्जयेऽस्य चमूगजैः । दिग्गजत्वं स्वसाच्चक्रे शोभायं तत्कथान्तरम् ॥३७॥ ततोऽपरान्तमारुह्यं सह्याचलतटोपगः । पश्चिमार्णववेद्यान्त पालकानजयद् विभुः ॥ ३८ ॥ जयसाधनमस्यान्धेः आरातीरे व्यजृम्भत । महासाधनमप्युच्चैः परं पारमवाष्टभत् ॥३१॥ उपसिन्धु रिति व्यक्तम् उभयोस्तीरयोर्बलम् । दृष्ट्वास्य साध्वसात्क्षुभ्यन्निवाभूदाकुलाकुलः ॥४०॥ ततः स्म बलसङ्क्षोभाद् इतो वाधिः प्रसर्पति । इतः स्म बलसङ्क्षोभात् ततोऽब्धिः प्रतिसर्पति ॥४१॥ हरिन्मणिप्रभोत्सर्वैः ततमब्धेर्बभौ जलम् । चिराद् विवृत्तमस्यैव" सशैवलमधस्तलम् ॥४२॥ पद्मरागांशुभिभिन्नं क्वचनान्धेर्व्यभाज्जलम् । क्षोभादिवास्य हृच्छोर्णम् " उच्चल " च्छोणितच्छटम् ॥४३॥ सह्येोत्सङ्गे" लुठन्नब्धिः नूनं दुःखं न्यवेदयत् । सोऽपि सन्धारयन्नेनं बन्धुकृत्यमिवातनोत् ॥४४॥
सहयैर्बल सङ्घट्टः सहयः “ सह्यतिपीड़ितः । शाखोद्धारमिव व्यक्तम् श्रकरोद् रुग्णपादपैः ॥४५॥ इन तीन राजाओंको एक साथ जीता और एक ही साथ उनसे प्रणाम कराया ||३५|| जो अपने शरीरसे मानो मलय पर्वतकी ऊँचाईकी ही तुलना कर रहे हैं ऐसे कलिंग देशके हाथियोंने मलय पर्वतके समीपवर्ती अन्य समस्त छोटे छोटे पर्वतोंको व्याप्त कर लिया था ||३६|| दिग्विजयके समय दिशाओं के अन्त भाग में विश्राम करनेवाले भरतके हाथियोंने दिग्गजपना अपने आधीन कर लिया था अर्थात् स्वयं दिग्गज बन गये थे इसलिये अन्य आठ दिग्गजोंकी कथा केवल शोभा के लिये ही रह गई थी ||३७|| तदनन्तर पश्चिमी भागपर आरूढ़ होकर सह्य पर्वतके किनारे के समीप होकर जाते हुए भरतने पश्चिम समुद्र के किनारेके राजाओं को जीता ||३८|| भरत की वह विजयी सेना समुद्र के समीप किनारे किनारे सब जगह फैल गई थी और वह इतनी बड़ी थी कि उसने समुद्रका दूसरा किनारा भी व्याप्त कर लिया था ।। ३९ ।। उस समय हवासे लहराता हुआ उपसमुद्र ऐसा जान पड़ता था मानो दोनों किनारेपर भरतकी सेना देखकर भयसे ही अत्यन्त आकुल हो रहा हो ||४०|| उस किनारेका उपसमुद्र सेनाके क्षोभसे इस किनारे की ओर आता था और इस किनारेका उपसमुद्र सेनाके क्षोभसे उस किनारेकी ओर जाता था ।।४१।। ऊपर फैली हुई हरे मणियोंकी कान्तिसे व्याप्त हुआ वह समुद्रका जल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इस समुद्रका शेवाल सहित नीचेका भाग ही बहुत समय बाद उलटकर ऊपर आ गया हो ||४२ || कहीं कहीं पर पद्मराग मणियोंकी किरणोंसे व्याप्त हुआ समुद्रका जाल ऐसा जान पड़ता था मानों सेनाके क्षोभसे समुद्रका हृदय ही फट गया हो और उसीसे खूनकी छटाएँ निकल रही हों ||४३|| सह्य पर्वतकी गोदमें लोटता हुआ ( लहराता हुआ ) वह समुद्र ऐसा जान पड़ता था मानो उससे अपना दुःख ही कह रहा हो और सहय पर्वत भी उसे धारण करता हुआ ऐसा मालूम होता था मानो उसके साथ अपना बन्धुभाव ( भाईचारा ) ही बढ़ा रहा हो ||४४|| सेनाके असह्य संघटनोंसे अत्यन्त पीड़ित हुआ वह सह्य पर्वत अपने टूटे हुए वृक्षोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो अपने मस्तकपर लकड़ियों का गट्ठा रख१ कलिङगवने जातैः । कलिङगवनजाता उन्नतकायाश्च । उक्तञ्च दण्डिना देशविरोधप्रतिपादनकाले 'कलिङगवनसम्भूता मृगप्राया मतङ्गजाः ' इति । २ मलयदेशसमीपस्थपर्वताः । ३ गुणयद्भिः - अ०, इ०, स० । ४ दिग्गजाः सन्तीति कथाभेदः । ५ अपरदिग्भागम् । ६ व्याप्य । ७ वेलान्त - इत्यपि क्वचित् । ८ प्रभुः ल० । विजृम्भितम् ल० । १० - मत्युच्चैः द०, ल०, अ०, प०, स० । ११ अपरतीरम् । १२ अशिश्रियत् । १३ उपसमुद्रः । १४ परिणतम् । चिरकालप्रवर्तितम् । १५ हृत् हृदयम् शीर्णं विदीर्णं सत् । १६ - मुच्छ्वल- ल०, द० 1 १७ सह्यगिरिसानौ । १८ पश्चिमार्णवपर्वतः । १६ पल्लवं गृहीत्वा आक्रोशम् । २० भुग्न । 'रुग्णं भुग्ने' इत्यमरः । भुग्न -ल० ।
भग्न-द० ।
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