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त्रिंशत्तमं पर्व स्फुरत्परुषसम्पातपवनाधूननोत्थितः । तालीवनेषु' तत्सैन्यः शुश्रव मर्मर ध्वनिः ॥१५॥ समं ताम्बुलवल्लीभिः अपश्यत् क्रमुकान् विभुः । एककार्यत्वमस्माकमितीव' मिलितान्मिथः ॥१६॥ न पस्ताम्बुलवल्लीनाम् उपघ्नान् क्रमुकद्रुमान् । निध्यायन वेष्टि"तांस्ताभिः 'मुमुदे दम्पतीयितान् ॥१७॥ स्वाध्यायमिव कुर्वाणान् बनेष्वविरतस्वनान् । बीन्मनीनिव सोऽपश्यद् यत्रास्त मितवासिनः ॥१८॥ पनसानि म दून्यन्तः कण्टकीनि बहिस्त्वचि । सुरसान्यमतानीव जनाः 'प्रादन् यथेप्सितम् ॥१६॥ नालिकेररसः पानं पनसान्यशनं परम् । मरीचान्य पदंशश्च बन्या० वृत्तिरहो सुखम् ॥२०॥ सरसानि मरीचानि किमप्यास्वाद्य विष्किरान् । रुवतः१ प्रभुरद्राक्षी गलवश्रुविलोचनान् ॥२१॥ विदश्य मञ्जरीस्तीक्ष्णा मरीचानां सशङकितम् । शिरो विधुन्वतोऽपश्यत् प्रभुस्तरुणमर्कटान् ॥२२॥ वनस्पतीन् फलानमान् वीक्ष्य लोकोपकारिणः । जाताः कल्पद्रुमास्तित्वे निरारकास्तदा जनाः ॥२३॥ लतायुवतिसंसक्ताः प्रसवाढया वनद्रुमाः । करदा' इव तस्यासन प्रीणयन्तः फलैर्जनान् ॥२४॥
नालिकेरासवैमत्ताः किञ्चिदा"णितेक्षणाः । यशोऽस्य जगुरामन्द्रकुहर सिंहलाडागनाः ॥२५॥ से निकला हुआ रस खूब पिया था ॥१४॥ वहां भरतकी सेनाके लोगोंने ताड़ वृक्षोंके वनों में वायुके हिलनेसे उठी हुई बहुत कठोर सूखे पत्तोंकी मर्मर-ध्वनि सुनी थी ॥१५॥ वहां सम्राट भरतने हम लोगोंका एक ही समान कार्य होगा यही समझकर जो पानकी बेलोंके साथ साथ परस्परमें मिल रहे थे ऐसे सुपारीके वृक्ष देखे ॥१६॥ जो पानोंकी लताओंके आश्रय थे तथा जो उनके साथ लिपटकर स्त्री-पुरुषके समान जान पड़ते थे ऐसे सुपारीके वृक्षोंको बड़े गौरके साथ देखकर महाराज भरत बहुत ही प्रसन्न हुए थे ॥१७।। उन वनोंमें सूर्यास्तके समय निवास करनेवाले जो पक्षी निरन्तर शब्द कर रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो सर्यास्तके समय निवास करने वाले तथा स्वाध्याय करते हुए मुनि ही हों उन्हें भरतने देखा था ॥१८॥ जो भीतर कोमल हैं तथा बाहरी त्वचापर कांटोंसे युक्त हैं ऐसे अमृतके समान मीठे कटहलके फल सेनाके लोगोंने अपने इच्छानसार खाये थे ।।१९।। वहां पीनेके लिये नारियलका रस, खानेके लिये कटहलके फल और व्यंजनके लिये मिरचे मिलती थीं, इस प्रकार सैनिकों के लिये वनमें होने वाली भोजनकी व्यवस्था भी सुखकर मालूम होती थी ॥२०॥ जो सरस अर्थात् गीली भिरचे खाकर कुछ कुछ शब्द कर रहे हैं और जिनकी आंखोंसे आंसू गिर रहे हैं ऐसे पक्षियोंको भी भरतने देखा था ॥२१॥ जो तरुण वानर बहुत तेज भिरचोंके गुच्छोंको निःशंक रूपसे खाकर बादमें चरपरी लगनेसे शिर हिला रहे थे उन्हें भी महाराजने देखा ॥२२॥ उस समय वहां फलोंसे झुके हुए तथा लोगोंका उपकार करनेवाले वृक्षोंको देखकर लोग कल्पवक्षोंके अस्तित्वमें शंकारहित हो गये थे ॥२३॥ जो लतारूप स्त्रियोंसे लिपटे हुए हैं और अनेक फलोंसे युक्त हैं ऐसे वनके वृक्ष अपने फलोंसे सेनाके लोगोंको संतुष्ट करते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो भरतके लिये कर ही दे रहे हों ॥२४॥ जो नारियलकी मदिरा पीकर उन्मत्त हो रही हैं और इसीलिये जिनके नेत्र कुछ कुछ घूम रहे हैं ऐसी सिंहल द्वीपकी स्त्रियां वहां गद्गद
१ तालवनेषु । २ शुष्कपर्णध्वनिः । 'अथ मर्मरः, स्वनिते वस्त्रपर्णानाम्' इत्यभिधानात् । ३ पर्णक्रमुकमेलनादेककार्यत्वमिति । ४ आश्रयभूतान । 'स्यादुपघ्नान्तिकाश्रये' इत्यमरः । ५ विध्याय वे-ल० । ६ -स्वनम् ल०। ७ विहगान । ८ यत्र रविरस्तं गतस्तत्र वासिनः । ६ भक्षयन्ति स्म । भक्षितवन्तः इत्यर्थः । १० बनवासः । ११ रवं (रत्नं) कुर्वतः । १२ भक्षयित्वा । १३ निस्सन्देहाः । १४ कर सिद्धायं ददतीति करदाः, कुटुम्बिजना इवेत्यर्थः। 'आलस्योपहतः पादः पादः पाषण्डमाश्रितः । राजानं सेवते पादः पादः कृषिमुपागतः ॥' १५ प्रचलायित । १६ गम्भीरगहरं यथा भवति यथा । गद्गदसहितकम्पनं कुहरशब्देनोच्यते ।
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