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त्रिशतमं पर्व
नीरा तीरस्थवानीर' शाखाग्र स्थगिताम्भसम् । मूलां कूलङकर्षरोधः उन्मूलिततटद्रुमाम् ॥ ५६ ॥ बाणामविरताबाणां केत म्बामम्बुसम्भृताम् । करीरित' तटोत्गां करीरों सरिदुत्तमाम् ॥५७॥ प्रहरां " विषमग्राहैः दूषितामसतीमिव । मुररां कुररैः सेव्याम् अपपङका सतीमिव ॥ ५८ ॥ पारां पाजलं कूजत्क्रौञ्चकादम्ब सारसाम् । "दमनां समनिम्नेषु समानामस्खलद्गतिम् ॥५॥ मदश्रुतिमिवाबद्ध वेणिकां" सह्यदन्तिनः । गोदावरीमविच्छिन्नप्रवाहामतिविस्तृताम् ॥ ६०॥ करीरवण संरुद्धतटपर्यन्त भूतलाम् । तापीमातपसन्तापात् कवोष्णा बिभूतीमपः ॥ ६१॥ रम्यां तीरतरुच्छायासं सप्तमृगशावकाम् । खातामिवापरान्तस्य " नदीं लाङ्गलखातिकाम् ॥ ६२ ॥ सरितोऽम् समं सैन्यैः उसतार चमूपतिः । तत्र तत्र "समाकर्षन्मदिनो वनसामजान् ॥ ६३॥ प्रसारित सरिज्जिह्मो योऽब्धिं पातुभिबोद्यतः । सह्याचलं तमुल्लङ्घय विन्ध्याद्रि प्राप तद्द्बलम् ॥६४॥ भूभृतां पतिमुत्तुङ्गं पृथुवंशं धृतायति । परैरलङचमद्राक्षीद् विन्ध्याद्रि स्वमिव प्रभुः ॥ ६५ ॥
पर स्थित बेतोंकी शाखाओंके अग्रभागसे जिसका जल ढका हुआ है ऐसी नीरा नदी किनारे को तोड़नेवाले अपने प्रवाहसे जिसने किनारेके वृक्ष उखाड़ दिये हैं ऐसी मूला नदी, जिसमें निरन्तर शब्द होता रहता है ऐसी बाणा नदी, जलसे भरी हुई केतवा नदी, जिसके किनारे के प्रदेश हाथियोंने तोड़ दिये हैं अथवा जिसके किनारे के प्रदेश करीर वृक्षोंसे व्याप्त हैं ऐसी करीरी नामकी उत्तम नदी, विषमग्राह अर्थात् नीच मनुष्योंसे दूषित व्यभिचारिणी स्त्रीके समान विषम ग्राह अर्थात् बड़े बड़े मगरमच्छों से दूषित प्रहरा नदी, सती स्त्रीके समान अपंका अर्थात् कीचड़रहित, ( पक्ष में-कलंकरहित ) तथा कुरर पक्षियोंके द्वारा सेवा करने योग्य मुररा नदी, जिसके जलके किनारे पर क्रौञ्च, कलहंस ( बदक) और सारस पक्षी शब्द कर रहे हैं ऐसी पारा नदी, जो समान तथा नीची भूमिपर एक समान जलसे भरी रहती है तथा जिसकी गति कहीं भी स्खलित नहीं होती है ऐसी मदना नदी, जो सह्य पर्वतरूपी हाथी के बहते हुए मदके समान जान पड़ती है, जो अनेक धाराएं बांधकर बहती है, जिसका प्रवाह बीचमें कहीं नहीं टूटता, और जो अत्यन्त चौड़ी है ऐसी गोदावरी नदी, जिसके किनारे के समीपकी भूमि करीर वृक्षोंके वनों से भरी हुई है और जो धूपकी गरमी से कुछ कुछ गरम जलको धारण करती है ऐसी तापी नदी, तथा जिसके किनारे के वृक्षोंकी छायामें हरिणों के बच्चे सो रहे हैं और जो पश्चिम देशकी परिखाके समान जान पड़ती है ऐसी मनोहर लांगलखातिका नदी, इत्यादि अनेक नदियों को सेनापतिने अपनी सेनाके साथ साथ पार किया था । उस समय वह सेनापति मदोन्मत्त जंगली हाथियों को भी पकड़वाता जाता था ।। ५५-६३ || जो अपनी नदियाँरूपी जीभोंको फैलाकर मानो समुद्रको पीने के लिये ही उद्यत हुआ है ऐसे उस सहय पर्वतको उल्लंघन कर भरतकी सेना विन्ध्याचलपर पहुँची || ६४ ॥ चक्रवर्ती भरतने उस विन्ध्याचलको अपने समान ही देखा था क्योंकि जिस प्रकार आप भूभृत् अर्थात् राजाओं के पति थे उसी प्रकार विन्ध्याचल भी भूभृत् अर्थात् पर्वतोंका पति था, जिस प्रकार आप उत्तुंग अर्थात् अत्यन्त उदार हृदय थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी उत्तुंग अर्थात् अत्यन्त ऊँचा
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१ वेतस । २ प्रवाहैः । ३ अविच्छिन्नविश्वग्वाणाम् । अविरतः आबाणो यस्यां सा । ४ केतवा -ल० । ५ गजप्रेरित | ६ विषमकर:, पक्ष नीचग्रहणैः । ७ पक्षिविशेषैः । ८ अपगतकर्दमाम् । पक्षे अपगतदोषपङकाम् । ६ तीरजले । १० कलहंस | ११ मदनां ल०, द० । १२ समानप्रदेशेषु । निम्नदेशेषु च । १३ जलेन समानाम् । १४ मदस्रवणम् । १५ प्रवाहाम् । कुल्याम् वा । १६ वेणुवन । १७ खातिकाम् । १८ पश्चिमदेशस्य । १६ स्वीकुर्वन् । २० राज्ञां गिरीणां च । २१ महान्वयं महावेणु च । २२ धृतधनागमम् । घृतायामं च । 'आयतिर्दीर्घतायां स्यात् प्रभुतागामिकालयोः ।'
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