________________
७६
महापुराणम्
हृत्वा सरोऽम्बु करिणो निजदानवारि संवधितं रविनिमयादनणाश्च सन्तः । तद्वीचिहस्तजनितप्रतिरोधशङका व्यासगिनो नु सरसः प्रसभं निरीयुः ॥१४४।। आधोरणा मदमषीमलिनान करीन्द्रान् निर्णेक्तु मम्बु सरसामवगाहयन्तः । शेकुन केवलमपामुपयोगमात्रं "तीरस्थिताननु नयस्तदचीकरन्त ॥१४॥ स्वैरं नवाम्बुपरिपीतमयत्नलभ्यतीरमेषु न कृतः कवलग्रहोऽपि । छायास्वलम्भि न तु विश्रमणं प्रभिन्नः स्तम्बरमैर्बत मदः खलु नात्मनीन: ॥१४६॥ नाध्वा द्रुतं गुरुतरैरपि नातियातो युद्धेषु जातु न किमप्यपराद्धमेभिः । भारक्षमाश्च करिणः सविशेषमेव बद्धास्तथाप्यनिभृता० इति दिक्चलत्वम् ॥१४७॥ बध्नीथ नः किमिति हन्त विनापराधात् जानीत भोः१३ प्रतिफलत्यचिरादिदं वः । इत्युच्चलत्सृणि' विधूय शिरांसि बन्धे वैरं न यन्तष गजाः स्म विभावयन्ति ॥१४८॥ प्राघातुको५ द्विरदिनः सविशेषमेव गात्रापरान्तकर वालधिष न्ययोजि ।।
बन्धेन सिन्धरवरास्त्वितर तथा नो गाढीभवत्यविरतान्न८ परत्र बन्धः ॥१४६।। के समीप आ गये थे, यद्यपि वहां उनके बाँधनेका स्थान नियत था तथापि क्रीड़ासे उत्पन्न हुए अतिशय संतोषसे उन्हें उसका कुछ भी ज्ञान नहीं था ॥१४३॥ हाथियोंने तालाबोंका जो पानी पिया था उसे मानो अपना बदला चुकाने के लिये ही अपने मदरूपी जल से बढ़ा दिया था,
स प्रकार प्यास रहित हो सखकी साँस लेते हए वे हाथी, 'ये तालाब अपनी लहरेंरूपी हाथोंसे कहीं हमें रोक न लें' ऐसी आशंका कर तालाबोंसे शीघ ही बाहर निकल आये थे ।।१४४।। मदरूपी स्याहीसे मलिन हए हाथियोंको निर्मल करने के लिये तालाबोंके जलमें प्रवेश कराते हुए महावत जब उन्हें जलके भीतर प्रविष्ट नहीं करा सके तब उन्होंने केवल जल ही पिलाना चाहा परन्तु बहुत कुछ अनुनय विनय करनेपर भी वे किनारे पर खड़े हुए उन हाथियोंको केवल जल भी पिलाने के लिये समर्थ नहीं हो सके थे। भावार्थ---मदोन्मत्त हाथी न तो पानीमें ही घुसे थे और न उन्होंने पानी ही पिया था ॥१४५॥ मदोन्मत्त हाथियोंने न तो अपने इच्छानुसार बिना यत्नके प्राप्त हुआ पानी ही पिया था, न किनारेके वृक्षोंसे कुछ तोड़कर खाया ही था, और न वृक्षोंकी छायामें कुछ विश्राम ही प्राप्त किया था, खेद है कि यह मद कभी भी आत्मा का भला करनेवाला नहीं है ।।१४६।। इन हाथियोंने शरीर भारी होनेसे शीघ्र ही मार्ग तय नहीं किया यह बात नहीं है अर्थात् इन्होंने भारी होनेपर भी शीघू ही मार्ग तय किया है, इन्होंने युद्ध में भी कभी अपराध नहीं किया है और ये भार ढोनेके लिये भी सबसे अधिक समर्थ हैं फिर भी केवल चंचल होनेसे इन्हें बद्ध होना पड़ा है इसलिये इस चंचलताको ही धिक्कार हो ॥१४७।। तुम लोग इस प्रकार बिना अपराधके हम लोगोंको क्यों बांध रहे हो? तुम्हारा यह कार्य तुम्हें शीघ ही इसका बदला देगा यह तुम खूब समझ लो इस प्रकार बांधने के कारण महावतोंमें जो वैर था उसे वे हाथी अंकुशको ऊपर उछालकर मस्तक हिलाते हुए स्पष्ट रूपसे जतला रहे थे ॥१४८॥ जो हाथी जीवोंका घात करनेवाले थे वे शरीरके आगे पीछे तथा सूड और पूंछ आदि
१नै मेयात् । परिदानं परीवर्त नैमेयनियमावपि' इत्यभिधानात् । २ --दतणाः श्वसन्तः ल० । -दनृणाः श्वसन्तः द० । ३ शुद्धान् कर्तुम् । ४ तीरे स्थितान्- ल०। ५ कारयन्ति स्म। ६ नैव । ७ मत्तः । 'प्रभिन्नो जितो मत्तः' इत्यभिधानात् । ८ आत्महितम् । ६ नानुयातो प०, ल० । १० चञ्चलाः। ११ बन्धनं कुरुथ । १२ लोट् । १३ भोः यूयम् । १४ उच्चलदंशं यथा भवति तथा । 'अंकशोऽस्त्री . सणिः स्त्रियाम्' इत्यभिधानात् । १५ हिंस्रकः । 'शरारुर्घातुको हिस्रः' इत्यभिधानात् । १६ अपरगात्रान्त । शरीरापरभाग। 'द्वी पूर्वपश्चाद्जङघादिदेशौ गात्रापरे ऋमात्' इति रभसः । गात्रे इत्युक्ते पूर्वजङघा, अपरे इत्युक्ते हस्तिनः अपरजघा, अन्त इत्युक्ते हस्तिनो मध्यप्रदेशः, कर इत्युक्ते हस्तिनो हस्तः, वालधिरित्युक्ते पुच्छविशेषः । शरीरमध्य। १७ अघातुकाः। १८ असंयतात् । अनतिकादित्यर्थः । १६ संयते ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org