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महापुराणम्
स्वच्छं स्वं हृदयं स्फुटं प्रकटयन्मुक्ताफलच्छद्मना स्वं चान्तर्गतरागमाशु कथयन्नुद्यत्प्रवालाङकुरैः । सर्वस्वं च समर्पयनुपन' यन्त्रन्तर्वणं दक्षिणो वारां राशिरमात्यवद्विभुमसौ निर्व्याजमाराधयत् ।। १६८ ।। श्रास्थाने जयदुन्दुभीनन नदन् प्राभातिके मङगले गम्भीरध्वनितैर्जयध्वनिमिव प्रस्पष्टमुच्चारयन् । सुव्यक्तं स जलाशयोऽप्यजल' धोर्वाराम्पतिः श्रीपति निर्ऋ त्य ' स्थितिरन्वियाय सुचिरं शक्रो यथाद्यं जिनम् इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण सङग्रहे दक्षिणार्णवद्वारविजयवर्णनं नामैकोनत्रिंशं पर्व ।
भरतने वैजयन्त नामक समुद्र के द्वारसे वापिस लौटकर अनेक प्रकारके तोरणोंसे सुशोभित किये गये अपने शिबिर में प्रवेश किया ॥ १६७॥ उस समय वह दक्षिण दिशाका लवणसमुद्र ठीक मंत्री की तरह छलरहित हो भरतकी सेवा कर रहा था, क्योंकि जिस प्रकार मंत्री अपने स्वच्छ हृदयको प्रकट करता है उसी प्रकार वह समुद्र भी मोतियों के छलसे अपने स्वच्छ हृदय ( मध्यभाग) को प्रकट कर रहा था, जिस प्रकार मंत्री अपने अन्तरङ्गका अनुराग (प्रेम) प्रकट करता है उसी प्रकार वह समुद्र भी उत्पन्न होते हुए मूंगाओं के अंकुरोंसे अपने अन्तरङ्गका अनुराग (लाल वर्ण) प्रकट कर रहा था, जिस प्रकार मंत्री अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है उसी प्रकार समुद्र भी अपना सर्वस्व (जल) समर्पण कर रहा था, जिस प्रकार मंत्री अपना गुप्त धन उनके समीप रखता था उसी प्रकार वह समुद्र भी अपना गुप्त धन ( मणि आदि ) उनके समीप रख रहा था, और जिस प्रकार मंत्री दक्षिण ( उदार सरल ) होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी दक्षिण ( दक्षिण दिशावर्ती ) था ।। १६८ ।। अथवा जिस प्रकार इन्द्र दास होकर अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मी के स्वामी प्रथम जिनेन्द्र भगवान् वृषभदेवकी सेवा करता था उसी प्रकार वह समुद्र भी दास होकर राज्यलक्ष्मी के अधिपति भरत चक्रधरकी सेवा कर रहा था, क्योंकि जिस प्रकार इन्द्र आस्थान अर्थात् समवसरण सभामें जाकर विजय-दुन्दुभि बजाता था उसी प्रकार वह समुद्र भी भरतके आस्थान अर्थात् सभामण्डपके समीप अपनी गर्जनासे विजय- दुन्दुभि बजा रहा था, जिस प्रकार इन्द्र प्रातःकालके समय पढ़े जानेवाले मंगल- पाठके लिये जय जय शब्दका उच्चारण करता था उसी प्रकार वह समुद्र भी प्रातःकालके समय पढ़े जानेवाले भरतके मंगल- पाठके लिये अपने गंभीर शब्दोंसे जय जय शब्दका स्पष्ट उच्चारण कर रहा था, जिस प्रकार इन्द्र जलाशय ( जडाशय ) अर्थात् केवल ज्ञानकी अपेक्षा अल्प ज्ञानी होकर भी अपने ज्ञानकी अपेक्षा अजलधी ( अजड़धी ) अर्थात् विद्वान् (अजड़ा धीर्यस्य सः ) अथवा अजड (ज्ञानपूर्ण परमात्मा) का ध्यान करनेवाला ( अजड़ं ध्यायतीत्यजडधी: ) था उसी प्रकार वह समुद्र भी जलाशय अर्थात् जलयुक्त होकर भी अजलधी अर्थात् जल प्राप्त करने की इच्छासे ( नास्ति जले धीर्यस्य सः ) रहित था, इस प्रकार वह समुद्र चिरकाल तक भरतेश्वरकी सेवा करता रहा ।। १६९॥
इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके भाषानुवाद में दक्षिण समुद्र के द्वारके विजयका वर्णन करनेवाला उनतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।
१ प्रापयन् । २ अन्तर्जलम् । ३ समवसरणे । ४ सदृशं ध्वनन् । ५ पटुबुद्धिः । ६ भृत्यवृत्तिः ।
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