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महापुराणम् धुनी वैतरणों माषवती च समहेन्द्रकाम् । सैनिकः सममुत्तीर्य ययौ शुष्कनदीमपि ॥४॥ सप्तगोदावरं तीर्वा' पश्यन् गोदावरी शुचिम् । सरो मानसमासाद्य मुमुदे शुचिमानसः ॥८॥ सुप्रयोगां नदी तीर्वा कृष्णवेणां च निम्नेगाम् । सन्नीरां च प्रवेणी च व्यतीयाय समं बलः ॥८६।। कुब्जां धैर्या च चूर्णी च वेणां सूकरिकामपि । 'अम्बेणां च नदी पश्यन् दाक्षिणात्यानशुश्रुवत् ॥७॥ महेन्द्रादि समाक्रामन् विन्ध्योपान्त च निर्जयन् । नागपर्वतमध्यास्य प्रययौ मलयाचलम् ॥८॥ गोशीर्ष दर्दुरादि च गिरि पाण्डयकवाटकम् । स शीतगुहमासीदन्" अगं श्रीकटनाह्वयम् ॥८६॥ श्रीपर्वत च किष्किन्धं निर्जयञ्जयसाधनः । तत्र तत्रोचिताभः अवर्धत चमूपतिः ॥१०॥ कर्णाटकान् स्फुटाटो पविकटोद्भट वेषकान् । हरिद्राञ्जनताम्बूलप्रियान् प्रायो यशोधनान् ॥१॥ प्रान्धान २०हन्द्रप्रहारेषु कृतलक्षान् कदर्यकान् । पाषाणकठिनानङगैः न परं हृदयरपि ॥२॥ कालिङगकान् गजप्रायसाधनान् सकलाधनान् । प्रायेण तादृशानोडान् जडानुड्ड"मरप्रियान् ॥३॥ चिोलिकानालिकप्रायान् प्रायशोऽनजचेष्टितान् । केरलान् सरलालापान कलागोष्ठीषु चुञ्चकान्
पोण्डधान् प्रचण्डदोर्दण्डखण्डितारातिमण्डलान् । प्रायो गजप्रियान् धन्विकुन्तभूयिष्ठसाधनान् ॥६॥ ॥८३॥ तथा वैतरणी, माषवती और महेन्द्रका इन नदियोंको अपने सैनिकोंके साथ पार कर वह शुष्क नदीपर जा पहुंचा था ।।८४॥ सप्तगोदावर नामके तीर्थ और पवित्र गोदावरीको देखता हुआ वह पवित्र हृदयवाला सेनापति मानस सरोवरको पाकर बहुत प्रसन्न हुआ ॥८५।। तदनन्तर उसने सेनाओंके साथ साथ सप्रयोगा नदीको पार कर कृष्णवर्णा, सन्नीरा और प्रवेणी नामकी नदीको पार किया ।।८६।। तथा कुब्जा, धैर्या, चूर्णी, वेणा, सूकरिका और अम्बर्णा नदीको देखते हुए उसने दक्षिण दिशाके राजाओंको चक्रवर्तीकी आज्ञा सुनाई ॥८७॥ फिर महेन्द्र पर्वतको उल्लंघन कर विन्ध्याचलके समीपवर्ती प्रदेशोंको जीतता हुआ नागपर्वतपर चढ़कर वह सेनापति मलय पर्वतपर गया ।।८८।। वहांसे अपनी सेनाके साथ साथ गोशीर्ष, दर्दर, पाण्ड्य, कवाटक और शीतगह नामके पर्वतोंपर पहंचा तथा श्रीकटन, श्रीपर्वत और किष्किन्ध पर्वतोंको जीतता हआ वहांके राजाओंसे यथायोग्य लाभ पाकर वह सेनापति अतिशय वृद्धिको प्राप्त हुआ ।।८९-९०। प्रकट रूपसे धारण किये हुए आडम्बरोंसे जिनका वेष विकट तथा शूरवीरताको उत्पन्न करने वाला है, जिन्हें हल्दी, तांबूल और अंजन बहुत प्रिय हैं, तथा जिनके यश ही धन है ऐसे कर्णाटक देशके राजाओंको, जो कठिन प्रहार करने में सिद्धहस्त हैं जो बड़े कृपण हैं और जो केवल शरीरकी अपेक्षा ही पाषाणके समान कठोर नहीं हैं किन्तु हृदय की अपेक्षा भी पाषाणके समान कठोर हैं ऐसे आंधू देशके राजाओंको, जिनके प्रायः हाथियों की सेना है और जो कला-कौशल रूप धनसे सहित हैं ऐसे कलिङ्ग देशके राजा कलिङ्ग देशके समान हैं, मूर्ख हैं और लड़नेवाले हैं ऐसे ओण्ड देशके राजाओंको, जिन्हें प्रायः झूठ बोलना बहुत प्रिय है और जिनकी चेष्टाएं कुटिल हैं ऐसे चोल देशके राजाओंको, मधुर गोष्ठी करने में प्रवीण तथा सरलतापूर्वक वार्तालाप करनेवाले केरल देशके राजाओंको, जिनके भुजदण्ड अत्यन्त बलिष्ठ हैं, जिन्होंने शत्रुओंके समूह नष्ट कर दिये हैं, जिन्हें हाथी बहुत प्रिय हैं और जो यद्धमें प्रायः धनष तथा भाला आदि शस्त्रोंका अधिकतासे प्रयोग करत हैं ऐसे पाण्ड्य
१ तीर्थं अ०, स०, ल०। २ 'सुप्रवेगाम्' इत्यपि क्वचित् । ३ कृष्णवर्णी ल०। ४ अभ्य) ल०। ५ श्रावयति स्म। ६ नागपर्वते स्थित्वा । ७ आगमत् । ८ गर्व । ६ मनोहरः । 'विकटः सुन्दरे प्रोक्तो विशालविकरालयोः' इत्यभिधानात् । १० दुःख । ११ कृतव्याजान् । 'व्याजोडपदेशो लक्ष्यं च' इत्यमरः। १२ कृपणान् । 'कदर्ये कृपणे क्षुद्रकिपचानमितंपचः' इत्यमरः । १३ करिबहलसेनान् । १४ युद्ध । १५ द्राविडान् । १६ अलीक अनृत । १७ वक्रवर्तनान् । १८ कलगोष्ठीष चञ्चुरान् ल०, द०। १६ प्रतीतान् ।
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