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एकोनत्रिंशत्तम पर्व दृष्टापदानानन्यांश्च तत्र तत्र व्यु दुत्थितान् । जयसैन्यैरवस्कन्ध सेनानीरनयद् वशम् ॥१६॥ ते च सत्कृत्य सेनान्य पुरस्कृत्य ससाध्वसम् । चक्रिणं प्रणमन्ति स्म दूरादूरीकृतायतिम् ॥७॥ करग्रहेण सम्पीड्य दक्षिणाशां वधूमिव । 'प्रसभं हृततत्सारो दक्षिणाब्धिमगात् प्रभुः ॥१८॥ लवङागलवलीप्रायम् एलागुल्मलतान्तिकम् । वेलोपान्तवन पश्यन् महतीं धृतिमाप सः ॥६६॥ तमासिषेविरे मन्दमान्दोलितसरोजलाः । एलासुगन्धयः सौम्या वेलान्तवनवायवः ॥१०॥ मरुदुद्धतशाखाग्रविकीसुमनोऽञ्जलिः । ननं प्रत्यगृहीदेनं वनोद्देशो विशाम्पतिम् ॥१०१॥ पवनाधूतशाखाप्रैः व्यक्तषट्पदनिःस्वनैः । विश्रान्त्य सैनिकानस्य व्याहरनिव' पादपाः ॥१०२॥ अथ तस्मिन वनाभोगें सैन्यमावासयद् विभुः । वैजयन्तमहाद्वारनिकटेऽम्बुनिधेस्तटे ॥१०३।। सन्नागं१० बहुपुन्नागर सुमनोभिरधिष्ठितम् । बहुपत्ररथं जिष्णोः बलं तद्वनमावसत्" ॥१०४॥
देशके राजाओंको और जिन्होंने प्रतिकूल खड़े होकर अपना पराक्रम दिखलाया है ऐसे अन्य देशके राजाओंको सेनापतिने अपनी विजयी सेनाके द्वारा आक्रमण कर अपने आधीन किया था ॥९१-९६॥ उन राजाओंने सेनापतिका सत्कार कर तथा भयसहित कुछ भेंट देकर जिन्होंने उनका भविष्यत्काल अर्थात आगे राजा बना रहने देना स्वीकार कर लिया है ऐसे चक्रवर्तीको दूरसे ही प्रणाम किया था ॥९७।। जिस प्रकार पुरुष करग्रह अर्थात् पाणिग्रहण संस्कार से किसी स्त्रीको वशीभूत कर लेता है उसी प्रकार चक्रवर्ती भरतने करग्रह अर्थात् टैक्स वसलीसे दक्षिण दिशाको अपने वश कर लिया था और फिर जबरदस्ती उसके सार पदार्थों को छीनकर दक्षिण समुद्रकी ओर प्रयाण किया था ॥९८॥ वहां वह चक्रवर्ती, जिनमें प्रायः लवंग और चन्दनकी लताएं लगी हुई हैं तथा जो इलायचीके छोटे छोटे पौधोंकी लताओंसे सहित है ऐसे किनारे के समीपवर्ती वनको देखता हुआ बहुत भारी संतोषको प्राप्त हुआ था ॥९९।। जो तालाबोंके जलको हिला रहा है, जिसमें इलायचीकी सुगन्धि मिली हुई है और जो सौम्य है ऐसे किनारेके वनकी वायु उस चक्रवर्तीकी सेवा कर रही थी ॥१००। वायुसे हिलती हुई शाखाओंके अग्रभागसे जिसने फूलोंकी अंजलि बिखेर रखी है ऐसा वह वनका प्रदेश ऐसा जान पडता था मानो इस चक्रवर्तीकी अगवानी ही कर रहा हो ॥१०॥ वक्षोंकी शाखाओं के अग्रभाग वायुसे हिल रहे थे और उनपर भूमर स्पष्ट शब्द कर रहे थे, जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे वृक्ष हाथ हिला हिलाकर भमरोंके शब्दोंके बहाने पुकार पुकारकर विश्राम करनेके लिये भरतके सैनिकोंको बुला ही रहे हों ॥१०२॥
__ अथानन्तर-चक्रवर्तीने उस वनके मैदानमें समुद्रके किनारे वैजयन्त नामक महाद्वारके निकट अपनी सेना ठहराई ॥१०३।। वह वन और भरतकी सेना दोनों ही समान थे क्योंकि जिस प्रकार वन सनाग अर्थात मोथाके पौधौंस सहित था उसी प्रकार सेना भी सनाग अर्थात् हाथियोंसे सहित थी, जिस प्रकार वन बहुपुन्नाग अर्थात् नागकेशरके बहुत वृक्षोंसे सहित था उसी प्रकार सेना भी बहुपुन्नाग अर्थात् अनेक उत्तम पुरुषोंसे सहित थी, जिस प्रकार वन सुमन अथोत् फलोस सहित था उसी प्रकार वह संना भी सुमन अथोत् दव अथवा अत्छ हृदयवाले पुरुषोंसे सहित थी, और जिस प्रकार वन बहुपत्र रथ अर्थात् अनेक पक्षियोंसे सहित होता
१ दृष्टसामर्थ्यात् । 'अपदानं कर्मणि स्यादतिवृत्तेऽवखण्डन ।' इत्यभिधानात् । २ अभ्युत्थितान् । ३ आक्रम्य । ४ अङगीकृतसम्पदम् । ५ बलात्कारेण । ६ चन्दनलता। ७ 'तताङकितम्' इत्यपि क्वचित् । ततं विस्तृतम् । ८ आह्वयन्ति स्मेव। ६ विस्तार। १० प्रशस्तगजम् । सुनागवृक्षं च । ११ पुरुषश्रेष्ठ नागकेसरं च । १२ देवः कुसुमैश्च । १३ बहुवाहनस्यन्दनम् बहुलविहगञ्च । 'पतत्रिपत्रि पतगपतत्पत्र रथाङगजाः' इत्यभिधानात् । १४ एवंविधं बलमेवंविधं वनमावसत् ।
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