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महापुराणम् 'प्रताप्र्सीत् प्रणतानेष समताप्सीद् विरोधिनः । शमप्रतापी मां जेतुः पार्थिवस्योचितौ गुणौ ॥३६॥ प्रसन्नया दृशैवास्य प्रसादः प्रणते रिपौ । भू भडगेणास्फुटत् कोपः सत्यं बहुनटो नृपः ॥३७॥ 'अङगान्मणिभिरत्यङगः वडगांस्तुडागर्मत डागजः। तैश्च तैश्च कलिडगेशान सोऽभ्यनन्ददुपानतान्।३८। 'मागधायितमेवास्य स्फुटं मागधिक पैः । कीर्तयद्भिर्गुणानुच्चः प्रसादमभिलाषुकः ॥३६॥ कुरूनवन्तीन् पाञ्चालान् काशींश्च सह कोसलैः । वैदर्भानप्यनायासाद् आचकर्ष चम्पतिः ॥४०॥ १२वजन् मद्रांश्च कच्छांश्च चेदीन् वत्सान् ससुह्मकान् । पुण्ड्रानोण्ड्रांश्च गौडांश्च मतमश्रावयद् विभोः।४१। दशार्णान् कामरूपांश्च काश्मीरानप्युशोनरान् । मध्यमानपि भूपालान् सोऽचिराद् वशमानयत् ॥४२॥ ददुरस्मै नृपाःप्राच्यकलिङगाङगारजान्" गजान् । गिरीनिव महोच्छ्रायान् "प्रश्चोतन्मदनिर्भरान् ॥४३॥ "दशार्णकवनोद्भूतानपि चेदिककशजान्"। दिड नागस्पधिनो नागान् “प्रादुर्नाग वनाधिपाः ॥४४॥) विभोर्बलभरक्षोभम् प्रासहन्तीव दुःसहम् । सुषवेऽनन्तरत्नानि गभिणीव वसुन्धरा ॥४५॥
दृष्टि डालकर अपना प्रेम प्रकट किया था ॥३५॥ उन्होंने नम्रीभूत राजाओंको संतुष्ट किया था और विरोधी राजाओंको अच्छी तरहसे संतप्त किया था सो ठीक ही है क्योंकि पृथिवीको जोतनेके लिये शान्ति और प्रताप ये दो ही राजाओंके योग्य गुण माने गये हैं ॥३६॥ राजा भरत नमस्कार करनेवाले पुरुषपर अपनी प्रसन्न दृष्टिसे प्रसन्नता प्रकट करते थे और साथ ही शत्रुके ऊपर भौंह टेढ़ी कर क्रोध प्रकट करते जाते थे इसलिये यह उक्ति सच मालूम होती है कि राजा लोग नट तुल्य होते हैं ।।३७॥ उत्तम उत्तम मणियोंको भेंट कर नमस्कार करते हुए अंग देशके राजाओंपर, ऊंचे ऊंचे हाथियोंको भेंट कर नमस्कार करते हुए वंग देशके राजाओं पर और मणि तथा हाथी दोनोंको भेंट कर नमस्कार करते हए कलिंग देशके राजाओंपर वह भरत बहुत ही प्रसन्न हुए थे ।।३८।। भरतेश्वरके प्रसादकी इच्छा करनेवाले मगध देशके राजा उनके उत्कृष्ट गुण गा रहे थे इसलिये वे ठीक मागध अर्थात् बन्दीजनोंके समान जान पड़ते थे ॥३९॥ भरत महाराजके सेनापतिने कूर, अवंती, पांचाल, काशी, कोशल और वैदर्भ देशोंके । राजाओंको बिना किसी परिश्रमके अपनी ओर खींच लिया था अर्थात अपने वश कर लिया था ॥४०॥ मद्र, कच्छ, चेदि, वत्स, सह्म, पूण्ड, औण्ड और गौड़ देशोंमें जा जा कर सेनापतिने सब
महाराजकी आज्ञा सनाई थी॥४॥ उसने दशार्ण, कामरूप, काश्मीर, उशीनर और मध्यदेशके समस्त राजाओंको बहुत शीघु वश कर लिया था ।। ४२।। वहां के राजाओं ने जिनसे मदके निर्भरने भर रहे है ऐसे, पूर्व देशमें उत्पन्न होनेवाले तथा कलिंग और अंगार देशमें उत्पन्न होनेवाले, पर्वतोंके समान ऊंचे ऊंचे हाथी महाराज भरतके लिये भेंटमें दिये थे ॥४३।। जिनमें हाथी उत्पन्न होते हैं ऐसे वनोंके स्वामियोंने दिग्गजोंके साथ स्पर्धा करनेवाले, दशार्णक वनमें उत्पन्न हुए तथा चेदि और कसेरु देशमें उत्पन्न हुए हाथी महाराजके लिये प्रदान किये थे ॥४४॥ उस समय भरतेश्वरको पथिवीपर जहां तहां अनेक रत्न भेंटमें मिल रहे
इसलिये ऐसा जान पडता था मानो गभिणीके समान पथिवीने चक्रवर्तीकी सेनाके बोझसे उत्पन्न हुए दुःसह क्षोभको न सह सकनेके कारण ही अनन्त रत्न उत्पन्न किये हुए हों ।।४५।।
१ तर्पयामास । २ सन्तापयति स्म । ३ जेतुं ल०, इ०, अ०, प०, स० । ४ व्यक्तो बभूव । ५ नटसदृशः । ६ अङगदेशाधिपान् । ७ अनपॅः । ८ आनतान् । ६ मागधीयित -प०, इ० । स्तुतिपाठका इवाचरितान् । १० मगधाधिपः । ११ स्वीकृतवान् । १२ गच्छन् । १३ शासनम्, आज्ञामित्यर्थः । १४ प्राक्दिकसम्बन्धिकलिङगदेशाङगारजान् । १५ गलत् । १६ दशार्ण देशसम्बन्धि । १७ चेदिकसेरुजान् ल०, द०। १८ दधति स्म । १६ गजवन । २० गर्भस्थ शिशुरिव ।
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