________________
एकोनत्रिंशत्तम पर्व
प्रापाण्डरगिरिप्रस्थात् प्रा च वैभारपर्वतात् । आशैलाद गोरथादस्य विचे रुर्जयकुञ्जराः ॥४६॥ वडगाङगपुण्डमगधान् मलदान् काशिकौसलान् । सेनानीः परिबभ्राम जिगीषुर्जयसाधनैः ॥४७॥ कालिन्दकालकूटौ च किरातविषयं तथा । मल्लदेशं च सम्प्रापन्म तादस्य' । चमूपतिः ॥४८॥ धुनों सुमागधों गङगां गोमती च कपीवतीम् । रथास्फा' च नदी तीर्वा मुरस्य चमूगजाः ॥४हा गम्भीरामतिगम्भीरां कालतोयां च कौशिकीम् । नदी कालमहीं तानाम् अरुणां निचुरामपि ॥५०॥ तं लौहित्य समुद्रं च कम्बुकं च महत्सरः। चम्मतङगजास्तस्य भेजुः प्राच्य वनोपगाः ॥५१॥ दक्षिणेन नदं शोणम् उत्तरेण च नर्मदाम् । बीजानदीमुभयतः परितो मेखलानदीम् ॥५२॥ विचेरुः स्वखुरोद्धृतधूलीसंरुद्धदियखाः । राजविनोऽस्य स्फुरत्प्रोथार जयसाधनवाचिनः ॥५३॥ औदुम्बरों१३ च पनसां तमसा प्रमशामपि । "पपुरस्य द्विपाः शुक्तिमती च यमुनामपि ॥५४॥ चेदिपर्वतमुल्लङघच चेदिराष्ट्र विजिग्यिरे । पम्पा"सरोऽम्भोऽतिगमा विभोरस्य तुरङगमाः॥५॥ तनुष्यमूकमाक्रम्य कोलाहलगिरि श्रिताः। प्राङमाल्यगिरिमासेदुः जयिनोऽस्य जयद्विपाः ॥५६॥ नागप्रियाद्रिमाक्रम्य १"कुतपावज्ञया विभोः । सेनाचराः स्वसाच्चक्रुः गजांश्चेदिककूशजान् ॥५७॥ नदी वृत्रवती क्रान्त्वा वन्येभक्षतरोधसम्" । भेजुश्चित्रवतीमस्य चमूवीरास्तुरङगमः ॥५॥
हिमवात् पर्वतके निचले भागसे लेकर वंभार तथा गोरथ पर्वत तक सब जगह भरत महाराज के विजयी हाथी घूम रहे थे ॥४६॥ सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाला भरतका सेनापति अपनी विजयी सेनाके साथ साथ बंग, अंग, पुंड, मगध, मालव, काशी और कोशल देशों में सब जगह घूमा था ॥४७।। भरतकी संमतिसे वह सेनापति कालिंद,कालकूट, भीलोंका देश, और मल्ल देशम भी पहुंचा था ॥४८॥ उनकी सेनाके हाथी सुमागधी, गंगा, गोमती, कपीवती और रेवस्या नदीको तैरकर जहां-तहां घूम रहे थे ॥४९॥ पूर्व दिशाके पास पास जानेवाले उनकी सेनाके हाथी अत्यन्त गहरी गंभीरा, कालतोया, कौशिकी, कालमही, ताम्रा, अरुणा और निधुरा आदि नदियों तथा लौहित्य समुद्र और कंबुक नामके बड़े बड़े सरोवरोंमें घूमे थे ॥५०-५१॥ जिन्होंने अपने खुरोंसे उठी हुई धूलिसे समस्त दिशायें भर दी हैं, जो बड़े वेगशाली हैं और जिनके नथने चंचल हो रहे हैं ऐसे महाराज भरतकी विजयी सेनाके घोड़े शोण नामक नदकी दक्षिण ओर, नर्मदा नदीकी उत्तर ओर, वीजा नदीके दोनों ओर और मेखला नदीके चारों ओर घूमे थे ॥५२-५३।। भरतके हाथियोंने उदुम्बरी, पनसा, तमसा, प्रमशा, शक्तिमती और यमुना नदीका पान किया था ॥५४॥ चक्रवर्तीके घोड़ोंने पम्पा सरोवरके जलको पार किया था तथा चेदि नामके पर्वतको उल्लंघन कर चेदि नामके देशको जीता था ॥५५॥ सबको जीतनेवाले भरतके विजयी हाथी ऋष्यमक पर्वतको उल्लंघन कर कोलाहल पर्वत तक जा पहुंचे थे और फिर माल्य पर्वतके पूर्व भागके समीप भी जा पहुंचे थे ॥५६।। भरतकी सेनाके लोगोंने लीलापूर्वक नागप्रिय पर्वतको उल्लंघन कर चेदि और कसेरु देशमें उत्पन्न हुए हाथियोंको अपने आधीन कर लिया था ॥५७। उनकी सेनाके वीर पुरुष घोड़ोंके द्वारा क्षत्रवती नदीको पार कर जिसके किनारे जंगली हाथियोंसे खूदे गये हैं ऐसो चित्र
१ चरन्ति स्म । २ मलयान् इ०, अ० । मालयान् प० । मालवान् ल०, द० । ३ आज्ञातः । ४ चक्रिणः । ५ रथस्यां अ०। रेवस्यां प०, ट० । रवस्थां द०। ६ अवतीर्य ! ७ निधुरामपि ल० । ८ लौहित्यसमुद्रनामसरोवरम् । ६ पूर्व । १० शोणनदस्य दक्षिणस्यां दिशि । ११ वेगिनः । १२ नासिका । १३ उदुम्बरी स०, इ०, अ०, ५०, द०, ल०। १४ 'ययुः' इत्यपि पाठः । यानमकुर्वन् । १५ चेदिदेशम् । १६ जयन्ति स्म। १७ पम्पासरोजलमतिक्रान्ताः। १८ देहली। १६ -सेरुजान ल०, द०। २० वेत्रवतीं इ०। छत्र वतीं प० । वृत्तवतीं अ०, स० । २१ वनगजक्षुण्णतटाम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org