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महापुराणम्
आपो धनं धृतरसाः सरितोऽस्य दाराः पुत्रीयिता' जलचराः सिकताश्च रत्नम् । इत्थं विभूति' लवदुर्ललितो विचित्रं धत्ते महोदधिरिति प्रथि' मानमेषः ॥ १७४॥ निःश्वासधूममलिनाः फणमण्डलान्तः सुव्यक्तरत्नरुचयः परितो भ्रमन्तः । व्यायच्छमानतनवो रुषितं रकस्माद् प्रत्रोल्मुकश्रियममी दधते फणीन्द्राः ॥ १७५ ॥ पादैरयं जलनिधिः शिशिरैरपीन्दोः श्रास्पृश्यमानसलिलः सहसा खमुखम् । रोषादिवोच्चलति मुक्तगभीरभाषो वेलाछलेन" म महान् सहतेऽभिभूतिम् ॥ १७६ ॥ नाकौकसां धृतरसं सहकामिनीभिः प्राक्रीडनानि " " सुमनोहरकाननानि । द्वीपस्थलानि रुचिराणि सहस्रशोऽस्मिन् सन्त्यन्तरीपमिव दुर्गनिवेशनानि ॥ १७७॥ अनेक लहरें ये सब चारों ओरसे एक दूसरे को धक्का देते हुए एक ही साथ इस समुद्र में निवास कर रहे हैं ॥१७३॥ हे प्रभो, इस समुद्रके जल ही धन हैं, रस अर्थात् जल अथवा शृङ्गार या स्नेहको धारण करनेवाली नदियां ही इसकी स्त्रियां हैं, मगरमच्छ आदि जलचर जीव ही इसके पुत्र हैं और बालू ही इसके रत्न हैं इस प्रकार यह थोड़ी सी विभूतिको धारण करता है तथापि महोदधि इस भारी प्रसिद्धिको धारण करता है यह आश्चर्यकी बात है । भावार्थइस श्लोक कविने समुद्रकी दरिद्र अवस्थाका चित्रण कर उसके महोदधि नामपर आश्चर्य प्रकट किया है । दरिद्र अवस्थाका चित्रण इस प्रकार है । हे प्रभो, इस समुद्र के पास आजीविका के योग्य कुछ भी धन नहीं है। केवल जल ही इसका धन है अर्थात् दूसरोंको पानी पिला पिलाकर ही अपना निर्वाह करता है, इसकी नदीरूप स्त्रियोंका भी बुरा हाल है वे बेचारी रस-जल धारण करके अर्थात् दूसरेका पानी भर भरकर ही अपनी आजीविका चलाती हैं । पुत्र हैं परन्तु वे सब जलचर अर्थात् ( जडचर) मूर्ख मनुष्यों के नौकर अथवा सूर्ख होनेसे नौकर हैं अथवा पानी में रहकर शेवाल बीनना आदि तुच्छ कार्य करते हैं, इसके सिवाय कुल परम्परा से आई हुई सोना-चाँदी रत्न आदिकी संपत्ति भी इसके पास कुछ नहीं है - बालू ही इसके रत्न हैं, यद्यपि इसमें अनेक रत्न पैदा होते हैं परन्तु वे इसके निजके नहीं हैं उन्हें दूसरे लोग ले जाते हैं इसलिये दूसरे के ही समझना चाहिये इस प्रकार यह बिलकुल ही दरिद्र है फिर भी महोदधि ( महा + उ + दधि * ) अर्थात् लक्ष्मीका बड़ा भारी निवासस्थान इस नामको धारण करता हैं यह आश्चर्य की बात है । आश्चर्यका परिहार ऊपर लिखा जा चुका है || १७४॥ जो निःश्वासके साथ निकलते हुए धूमसे मलिन हो रहे हैं, जिनके फणाओंके मध्यभागमें रत्नोंकी कान्ति स्पष्ट रूपसे प्रकट हो रही है, जो चारों ओर गोलाकार घूम रहे हैं, जिनके शरीर बहुत लम्बे हैं, और जो अकस्मात् ही क्रोध करने लगते हैं ऐसे ये सर्प इस समुद्र में अलातचक्रकी शोभा धारण कर रहे हैं ।। १७५ ।। इस समुद्रका जल चन्द्रमाके शीतल पादों अर्थात् पैरों से (किरणों से) स्पर्श किया जा रहा है, इसलिये ही मानो यह क्रोधसे गम्भीर शब्द करता हुआ ज्वारकी लहरोंके छलसे बदला चुकानेके लिए अकस्मात् आकाशकी ओर उछल कर दौड़ रहा है सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुष सिरस्कार नहीं सह सकते ।। १७६ ।। इस समुद्रके जलके
१ पुत्रा इव आचरिताः । २ विभूतेश्वर्यस्य लवो लेशस्तेन दुर्ललितो दुर्गवः । लवशब्दोऽत्र विचित्रकारणम् । ३ प्रसिद्धताम् । ४ फणमण्डलमध्ये | ५ सुप्रकट । ६ दीर्घभवच्छरीराः । ७ रोषः । ८ अलातशोभाम् । किरण : चरणैरिति ध्वनिः । १० दिवोच्छ्वलति ल० । ११ जलविकारव्याजेन । 'अन्ध्यम्बुविकृता वेला' इत्यभिधानात् । १२ पराभवम् । १३ क्रियाविशेषणम् । मतिरसं द० । प्रतरसां ल० । १४ आसमन्तात् क्रीडनानि येषु तानि । १५ समनोहर इत्यपि क्वचित् पाठः । १६ अन्तर्द्धापमिव । 'द्वीपोsस्त्रियामन्तरीपं यदन्तर्बारिणस्तटम् ।' इत्यभिधानात् । १७ महाद्वीपमध्यवर्तीनि गिरिदुर्गादिनिवेशनानि च सन्तीत्यर्थः । * 'दधि क्षीरोतरावस्थाभाषे श्रीवास सर्जयोः' इति मेदिनी
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