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अष्टाविंशतितमं पर्व
दृष्ट्वाऽथ तं महाभागः कृतधीर्धीरनिःस्वनम् । दृष्टचैवातुलयच्चक्री गोष्पदावज्ञयार्णवम् ॥१०३॥ ततोऽभिमतसंसिद्ध्यं कृतसिद्धनमस्त्रियः । रथं प्रचोदयेत्युच्चैः प्राजितारमचोदयत् ॥१०४॥ विमुक्तप्रवाहः ऊयमानो मनोजवैः । लवणाब्धौ द्रुतं 'प्रायाद यानपात्रायितो रथः ॥ १०५॥ रथो मनोरथात पूर्व रथात् पूर्वं मनोरथः । इति सम्भाव्यवेगोऽसौ रथो वाधिं व्यगाहत ॥१०६ ॥ जलस्तम्भः प्रयुक्तो नु जलं न स्थलतां गतम् । स्यन्दनं यदमी वाहा जले निन्युः स्थलास्थया ॥१०७॥ तथैव चक्रचीत्कारः तथैवोच्चैः प्रधौरितम्' । यथा बहिर्जलं पूर्वम् श्रहो पुण्यं रथाङगिनः ॥ १०८ ॥ महद्भिरपि कल्लोलः 'शोक्यमानास्तुरङ्गमाः । रथं निन्युरनायासात् प्रत्युतैषां स विश्रमः ॥ १०६॥ रथचक्रस" मुत्पीडाज्जलोत्पीडः त्वमुत्पतन् । न्यधाद् ध्वजांशु के जाड्यं जलानामीदृशी गतिः ॥ ११० ॥ नागरागस्तुरङ्गाणाम् श्रादितः श्रमघमतः । क्षालितः खुरवेगोत्थैः केवलं शीकरैरपाम् ॥ १११ ॥ क्षणं रथाङ्गसङ्घट्टाज्जलमयेद्विधाऽभवत् । व्यभावि भाविनां वर्त्म चक्रिणामिव सूत्रितम् ॥ ११२ ॥ रथोऽस्याभिमतां भूमि प्रापत्सारथि चोदितः । मनोरथोऽपि संसिद्धि पुण्यसारथिचोदितः ॥११३॥
तदनन्तर-महाभाग्यशाली बुद्धिमान् भरतने गम्भीर शब्द करते हुए उस समुद्रको देखकर, दृष्टि मात्र से ही उसे गायके खुरके समान तुच्छ समझ लिया ॥ १०३॥ और फिर अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार कर 'शीघ्र ही रथ बढ़ाओ' इस प्रकार सारथिके लिये जोरसे प्रेरणा की || १०४ || जिनकी रास ढीली कर दी गई है और जिनका वेग मनके समान है ऐसे घोड़ोंके द्वारा ले जाया जानेवाला वह रथ लवणसमुद्रमें जहाजकी नाई शीघ्रताके साथ जा रहा था ।। १०५ ॥ मनोरथसे पहले रथ जाता है अथवा रथसे पहले मनोरथ जाता है इस प्रकार जिसके वेगकी सम्भावना की जा रही है ऐसा वह रथ समुद्र में बड़े वेगके साथ जा रहा था ।। १०६ ।। क्या वह जलस्तम्भिनी विद्यासे थंभा दिया गया था अथवा स्थलपनेको ही प्राप्त हो गया था क्योंकि चक्रवर्तीके घोड़े स्थल समझकर ही जलमें रथ खींचे लिये जा रहे थे ।। १०७ ।। जिस प्रकार जलके बाहर पहियों का चीत्कार शब्द होता था उसी प्रकार जलके भीतर भी हो रहा था और जिस प्रकार जलके बाहर घोड़े दौड़ते थे उसी प्रकार जल के भीतर भी दौड़ रहे थे, अहा ! चक्रवर्तीका पुण्य भी कैसा आश्चर्यजनक था ! ॥ १०८॥ वे घोड़े बड़ी बड़ी लहरोंसे सींचे जानेपर भी बिना किसी परिश्रमके रथको ले जा रहे थे । उन लहरोंसे उन्हें कुछ दुःख नहीं होता था बल्कि उनका परिश्रम दूर होता जाता था ।। १०९ ।। रथके पहिये के आघातसे आकाशकी ओर उछलनेवाले जलके समूहने ध्वजाके वस्त्र में भी जाड्य अर्थात् भारीपन ला दिया था सो ठीक ही है क्योंकि जलका ऐसा ही स्वभाव होता है । भावार्थसंस्कृत काव्योंमें ड और ल के बीच कोई भेद नहीं माना जाता इसलिये जलानाम् की जगह जडानाम् पढ़कर चतुर्थ चरणका ऐसा अर्थ करना चाहिये कि मूर्ख मनुष्योंका यही स्वभाव होता है कि वे दूसरोंमें भी जाड्य अर्थात् मूर्खता उत्पन्न कर देते हैं ।। ११० ।। घोड़ोंके शरीर पर लगाया हुआ अंगराग (लेप) परिश्रमसे उत्पन्न हुए पसीनेसे गीला नहीं हुआ था केवल खुरोंके वेगसे उठे हुए जलके छींटोंसे ही धुल गया था ।। १११।। रथके पहियोंके संघट्टनसे क्षण भरके लिये जो समुद्रका जल फटकर दोनों ओर होता जाता था वह ऐसा मालूम होता था मानो आगे होनेवाले सगर आदि चक्रवर्तियोंके लिये सूत्र डालकर मार्ग ही तैयार किया जा रहा हो ।। ११२ ।। सारथिके द्वारा चलाया हुआ चक्रवर्तीका रथ उनके अभिलषित स्थानपर पहुंच
१ महाभागं ल० । २ सारथिम् । ३ त्यक्तरज्जुभिः । ४ अगच्छत् । ५ स्थलमिति बुद्ध्या । ६ गतिविशेषाक्रान्तम् । ७ जलाद् बहिः । स्थल इत्यर्थः । ८ सिच्यमानाः । सेचनविधिः । १२ जलसमूहः । जलानां जडानामिति ध्वनिः । १३ स्वेदः ।
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१० श्रमहरणकारणम् । ११ समुत्पीडनात् ।
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