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महापुराणम् अदृष्टपारमोभ्यम् असंहार्य मनुत्तरम् । सिद्धालयमिव व्यक्तम् अव्यक्तममृतास्पदम् ॥७॥ क्वचिन्महोपलच्छाया धृतसन्ध्याभूविभूमम् । कृतान्धतमसारम्भं क्वचिन्नीलाश्मरश्मिभिः ॥९॥ हरिन्मणिप्रभोत्सः क्वचित्सन्दिग्ध शैवलम् । क्वचिच्च कौडाकुमी कान्ति तन्वानं विद्रुमाङकुरैः MEET क्वचिच्छुक्तिपुटोभेदसमुच्चलितमौक्तिकम् । तारकानिकराकोणं हसन्तं जलभृत्पथम् ॥१०॥ वेलापर्यन्तसम्मू ईत्सर्वरत्नांशुशीकरः । क्वचिदिन्द्रधनुर्लेखां लिखन्तमिव खाडगणे ॥१०१॥ रथाङ्गपाणिरित्युच्चैः सम्भूतं रत्नकोटिभिः। महानिधिमिवापूर्वम् अपश्यन्मकराकरम् ॥१०२॥
से भरा हुआ था इसलिये नदीन अर्थात् दीन नहीं था यह उचित था (पक्षमें 'नदी इन' नदियोंका स्वामी था)परन्तु अप्राण अर्थात् प्राण रहित होकर भी चिरजीवित अर्थात् बहुत
य तक जीवित रहनवाला था, समुद्र अर्थात् मुद्रा सहित होकर भी उन्मुद्र अर्थात् मुद्रारहित था और झषकेतु अर्थात् मछलीरूप पताकासे सहित होकर भी अमन्मथ अर्थात् कामदेव नहीं था यह विरुद्ध बात थी किन्तु नीचे लिखे अनुसार अर्थमें परिवर्तन कर देनेसे कोई विरुद्ध बात नहीं रहती। वह प्राणरहित होनेपर भी चिरजीवित अर्थात् चिरस्थायी रहनेवाला था अथवा चिरकालसे जल सहित था, समुद्र अर्थात् सागर होकर भी उन्मुद्र अर्थात् उत्कृष्ट आनन्दको देनेवाला था (उद्-उत्कृष्टां मुदं हर्ष राति-ददातीति उन्मुद्रः) और झषकेतु अर्थात् समुद्र अथवा मछलियोंके उत्पातसे सहित होकर भी अमन्मथ अर्थात् काम नहीं था। अथवा वह समुद्र स्पष्ट ही सिद्धालयके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार सिद्धालयका पार दिखाई नहीं देता है उसी प्रकार उस समुद्रका भी पार दिखाई नहीं देता था-दोनों ही अदृष्टपार थे,जिस प्रकार सिद्धालय अक्षोभ्य है अर्थात् आकुलता-रहित है उसी प्रकार समुद्र भी अक्षोभ्य था अर्थात् क्षोभित करनेके अयोग्य था उसे कोई गँदला नहीं कर सकता था, जिस प्रकार सिद्धालयका कोई संहार नहीं कर सकता उसी प्रकार उस समूहका भी कोई संहार नहीं कर सकता
प्रकार सिद्धालय अनुत्तर अर्थात् उत्कृष्ट है उसी प्रकार वह समुद्र भी अनुत्तर अर्थात् तैरनेके अयोग्य था, जिस प्रकार सिद्धालय अव्यक्त अर्थात् अप्रकट है उसी प्रकार वह समुद्र भी अव्यक्त अर्थात अगम्य था और सिद्धालय जिस प्रकार अमतास्पद अर्थात अमत (मोक्ष)का स्थान है उसी प्रकार वह समुद्र भी अमृत (जल) का स्थान था। कहीं तो वह समुद्र पद्मरागमणियों से संध्या कालके बादलोंकी शोभा अथवा संदेह धारण कर रहा था और कहीं नील मणियोंकी किरणोसे गाढ़ अन्धकारका प्रारम्भ करता हुआ सा जान पड़ता था। कहीं हरित मणियोंकी कान्तिके प्रसारसे उसमें शेवालका संदेह हो रहा था और कहीं वह मूंगाओंके अंकुरोंसे कुंकुम की कान्ति फैला रहा था। कहीं सीपोंके संपुट खुल जानेसे उसमें मोती तैर रहे थे और उनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओके समूहसे भरे हुए आकाशकी ओर हँस ही रहा हो। तथा कहींपर किनारेके समीप ही समस्त रत्नोंकी किरणों सहित जलकी छोटी छोटी बंदें पड़ रही थों उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशरूपी आंगनमें इन्द्रधनुषकी रेखा ही लिख रहा हो। इस प्रकार जो ऊँचे तक करोड़ों रत्नोंसे भरा हुआ था ऐसे उस समुद्रको चक्रवर्तीने अपूर्व महानिधिके समान देखा ।।६८-१०२॥
१ अविनाश्यम्। २ न विद्यते उत्तरः श्रेष्ठो यस्मात् स तम् । ३ सलिलपीयूषनिवासम् । पक्षे अभयस्थानम् । 'सुधाकरयज्ञशेषसलिलाज्यमोक्षधन्वन्तरिविषकन्दच्छिन्नसहायदिविजेष्वमृत' इत्यभिधानात्। ४ पद्मराग- माणिक्य । ५ लिप्त । सन्देहविषयीकृत। ६ समुत्सर्पन्नानारत्नमरीचियुतशीकरैः। ७ -संकरैः प०। ८ मकरालयम् ल० ।
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