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गाथा २५ ]
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अर्थः--इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जानेपर अनिवृत्तिकरणकाल के संख्या बहुभाग तो व्यतीत हो जाते है तथा एकभाग शेष रहने के अवसर में असज्ञी - ञ्चेन्द्रियकी स्थिति के समान स्थितिबन्ध होता है ।
क्षपणासार
विशेषार्थ:- उपर्युक्त आवश्यकोका पालन करते हुए अन्तर्मुहूर्तकाल व्यतीत हो जानेपर प्रथमअनुभागकाण्डक निर्लेपित होता है तथा शेष अनुभाग के अनन्तबहु भागको घा करनेवाला अन्य अनुभागकाण्डक होता है अवशिष्ट आवश्यकोमे कोई अन्तर नही होता । संख्यातहजारअनुभागकाण्डको के व्यतीत हो जानेपर प्रथम स्थितिकाण्डक व प्रथमस्थितिबन्घापसरण व अन्य अनुभागकाण्डक एकसाथ समाप्त होते है । इसप्रकार अनुक्रम लीये एक स्थितिबन्धा पसरण द्वारा स्थितिबन्ध घटने से एक स्थितिबन्ध होता है ऐसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर अनिवृत्तिकरण के कालका सख्यात बहुभाग व्यतीत होनेपर एक भाग अवशेष रहा वहां असज्ञीपञ्चेन्द्रियके समान स्थितिबन्ध होता है, वह इस - प्रकार है - एक हजारसागरके वां भागमात्र मोहनीयका, वां भाग ज्ञानावरणादि चारकर्मोका और 3 वां भाग नाम गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध होता है। चालीस, तीस व बीस कोड़ाकोड़ीसागर स्थितिकी अपेक्षा चारित्रमोहको चालीसीय, ज्ञानावरणादि चारकर्मोको तीसीय एव नाम - गोत्रको वीसिय जानना चाहिए' ।
ठिदिबंध सहस्सगदे पत्तेयं चरतियविएइंदी | ठिदिबंधसमं होदि ह ठिदिबंध मरणुक्कमेणेव ॥ २५ ॥ ४१६॥ हु
अर्थः- पूर्वोक्तक्रम लीये सख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर अनुक्रमसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके समान स्थितिबन्ध होता है । इनमें चतुरिन्द्रियके समान तो १०० सागर, त्रीन्द्रियके समान ५० सागर, द्वीन्द्रियके समान २५ सागर, एकेन्द्रियके समान एकसागरका वां भाग मोहनीयका, वां भाग ज्ञानावरणादि चार तीसीय कर्मोंका, भागमात्र नाम गोत्र बीसिय कर्मोका स्थितिबंध होता है ।
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीके ७० कोड़ाकोड़ीसागर स्थितिवाले मिथ्यात्वकर्मका क्रमसे एक, पचीस, पचास, सी और एकहजार सागरका
१. जयघवल मूल पृ० १६५६ ।
२. यह गाथा ल० सा० गाथा २२६ के समान है, किन्तु 'सहस्स' के स्थानपर 'पुधत्त' पाठ है । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४४ सूत्र ८२-८३ ।