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२६ ] क्षपणासार
[ गाथा २३-२४ द्वितीयादि अनुभागकाण्डक भी सदृश होते हैं, क्योंकि द्वितीयादि अनुभागकाण्डकमें नानापन असम्भव है। प्रथमस्थितिकाण्डकके नाश होनेपर अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश हुए तुल्यकाल हुआ है उन सबका स्थितिसत्कर्म तुल्य होता है और एकका द्वितीयस्थितिकाण्डक अन्य सब सामान्यकालवालोके द्वितीयस्थितिकाण्डकके समान होता है उसके आगे तृतीयादि स्थितिकाण्डक तृतीयादि स्थितिकाण्डकोके तुल्य होते हैं ।
उदधिसहस्सपुधत्तं लक्खपुधत्तं तु बंध संतो य ।
अणियट्टीसादीए गुण सेढीपुव्वपरिसेसा ॥२३॥४१४।।
अर्थः-पूर्व में जो स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोडीसागरप्रमाण था वह अपूर्वकरण मैं होनेवाले संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरणोसे घटते हुए अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमे स्थितिबन्ध पृथक्त्वहजारसागरप्रमाण हो जाता है तथा पूर्वमे जो अन्तकोड़ाकोडीसागरप्रमाण स्थितिसत्त्व था वह अपूर्वकरणमे होनेवाले सख्यातहजार स्थितिकाण्डकघातोके द्वारा घटते हुए पृथक्त्व लक्षसागर प्रमाण हो जाता है । जघन्य या उत्कृष्ट परिणामोके कारण जो जघन्य या उत्कृष्ट गुणश्रेणोनिक्षेप अपूर्वकरणमे प्रारम्भ किया था वह गुणश्रेणिआयाम अपूर्वकरणका काल व्यतीत होनेके पश्चात् जितना शेष रहा वही यहां जानना । समय-समयप्रति असख्यातगुणे क्रमसहित पूर्ववत् गुणश्रेणी और गुणसक्रमण वर्तता है । ये सब प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणके आवश्यक हैं । तदनन्तरकालमे ये उपर्युक्त ही आवश्यक होते हैं, विशेषता केवल यह है कि यहां गुणश्रेणि असंख्यातगुणो होती है, शेष-शेष (गलितावशेष) मे निक्षेप होता है, विशुद्धि अनन्तगुणी वृद्धिरूप है।
आगे स्थितिबन्धापसरणका कम कहते हैं-- 'ठिदिबंधसहस्सगदे संखेज्जा बादरे गदा भागा। तत्थासणिणस्तढिदिसरिसं ठिदिबंधणं होदि ॥२४॥४१५॥
१. जयधवल मूल पृ० १९५४ । २. जयधवल मूल पृष्ठ १६५५ । क० पा० सु० पृष्ठ ७४३-४४ सूत्र ७५ से ७७ । ३. यह गाया ल० सा० गाथा २२८ के समान है । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४४ सूत्र ८१।