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क्षपणासार
। गांथा २१-२२ अर्थः-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें अन्य ही स्थितिखण्डादिक प्रारम्भ करता है उनमे अपूर्वकरणके अन्तिम समयवर्ती स्थितिकाण्ड कायामसे भिन्न ही स्थितिकाण्डकायाम, इसके पश्चात् अवशिष्ट जो अनुभाग उसका अनन्तबहुभागमात्र अन्य ही अनुभागकाण्डक होता है और अपूर्वकरणके अन्तिमसमयके स्थितिबन्धसे पत्यके सख्यातवें. भागमात्र घटता हुआ अन्य ही स्थितिबन्ध यहां होता है तथा यही अप्रशस्तोपशम, निधत्ति व निकाचनारूप तीन कर णोकी व्युच्छित्ति भी हुई है । अतः अब सर्व कर्म उदय, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण करने योग्य हुए हैं ।
निवृत्तिः व्यावृत्ति:-परिणामोकी विसदृशता; इसरूप निवृत्ति जिसमे न हो वह अनिवृत्ति कहलाता है । नानाजीवोके एकसमयसम्बन्धी परिणामोंमे व्यावृत्तिका अभाव होनेसे प्रतिसमय एक-एक परिणाम होता है वह अनिवृत्तिकरण है'।
बादरपढसे पडमं ठिदिखंडं विसरिसं तु विदियादि । ठिदिखंडपं समाणं सव्वस्स समाणकालम्हि ॥२१॥४१२॥ पल्लस्ल संखभागं अवरं तु वरं तु संखभागहियं । घादादिम ठिदिखंडो सेसा सव्वस्स सरिसा हु ॥२२॥४१३॥
अर्थः-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें जो प्रथमस्थितिखण्ड है सो तो विस है, नानाजीवोके समान नही है तथा जो द्वितीयादि स्थितिखण्ड हैं वे समानकालमें स जीवोके समान हैं । प्रथम स्थितिखण्ड जघन्यसे तो पल्यका सख्यातवांभाग तथा उत्कृ इससे सख्यातवाभाग अधिक है और अवशेष द्वितीयादि स्थितिखण्ड सभी जीवं समाव हैं।
विशेषार्थः---त्रिकालसम्बन्धी समानसमयवर्ती सर्व अनिवृत्तिकरणवालोंके पा णाम सहश होते हैं इसलिए प्रथमस्थितिकाण्डकघात सदृश ही होता है ऐसा निश्चय न करना चाहिए, किन्तु प्रथमस्थितिकाण्डकघातमे जघन्य व उत्कृष्टके भेदसे विसदृश सम्भव है । किन्हीके विसदृश होता है और किन्हीके सदृश होता है । जघन्य प्रथ स्थितिकाण्डकघातसे उत्कृष्ट प्रथमस्थितिकाण्डकघात सख्यातवेभाग अधिक है।
१. जयधवल मूल पृष्ठ १६५३ व १९५५ ।