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गाथा २० ] क्षपणांसार
[ २३ विशेषार्थः-हजारों स्थितिबन्धापसरणके व्यतीत हो जानेपर अपूर्वकरणके सातभागोमेसे प्रथमभाग समाप्त होता है उस समय निद्रा और पंचलाकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । यह कथन अनुत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा है, किन्तु उपपादातुच्छेदकी अपेक्षा प्रथमभागके अन्तसमय में निद्रा-प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । प्रथमभागके समाप्त होते ही निद्रा और प्रचलाका गुणसंक्रमण होने लगता है, क्योंकि क्षपक या उपशमश्रेणिमे जिन अप्रशस्तप्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है उनकी गुणसंक्रमणके अतिरिक्त अन्य पर्याय सम्भव नही है । अपूर्वकरणकालके सातभागोंमेसे छह भाग व्यतीत हो जाने पर परभवसम्बन्धी प्रकृतियोकी बन्धसे व्युच्छित्ति हो जाती है ।
शंका:-परभवसम्बन्धी प्रकृतियां कौन-कौनसी हैं ?
समाधानः-देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क (अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास) प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर ये तीस प्रकृतियां परभवसम्बन्धी हैं ।
शंकाः--इनकी परभविक संज्ञा क्यों है ?
समाधान:--परभवसम्बन्धी देवगतिके साथ बन्धको प्राप्त होती हैं, अतः इनकी परभविक संज्ञा है। यशस्कोतिका बन्ध भी देवगतिके साथ होता है और उसकी भी परभविक सज्ञा है, किन्तु उसकी बन्धव्युच्छित्ति यहा नही होती, क्योकि यशस्कीतिके बन्धके साथ ऊपरितन विशुद्धिका विरोध नहीं है । यशस्कीतिका बंध सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके अन्तसमयपर्यन्त होता है उससे आगे इसके बन्धका अभाव है।
उसके बाद हजारों स्थितिबन्धापसरण हो जानेपर अपूर्वकरणका चरमसमय प्राप्त होता है । अपूर्वकरणके चरमसमयमें स्थित हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है उसी समय छह नोकषायकी उदयव्युच्छित्ति हो जाती है । उसके अनन्तर समयमे बादरसाम्पराय अर्थात् अनिवृत्तिकरणको प्राप्त हो जाता है ।
अब आगे अनिवृत्तिकरणका कथन करते हैं-- अणियदृस्स य पढमे अण्णं ठिदिखंडपहुदिमारवई । उवसामणा णिधत्ती णिकाचणा तेत्थ वोछिएणी ॥२०॥४११॥