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[ गाथा १८ - १६
अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डकका अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत हो जानेपर तदनन्तर समय में अन्य अनुभागकाण्डक प्रारम्भ हो जाता है जिसके द्वारा पूर्वघातित शेष अनुभाग के अनन्त बहुभागका घात होता है । प्रथमस्थितिकाण्डक कालके भीतर पुन. पुनः संख्यातहजार अनुभागकाण्डक के पतन के साथ अपूर्वकरणके प्रथमस्थितिकाण्डकका और प्रथम स्थितिबन्धापसरणका भी पतन होता है । इसप्रकार तीनोका पतन एक साथ होता है अर्थात् तीनोका पतन समकालीन है' ।
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क्षपणासार
असुहाणं पयडीणं अतभागा रसस्स खंडाणि ।
सुहपयडीणं णियमा स्थित्ति रसस्स खंडाणि ॥ १८ ॥ ४०६॥
अर्थः--अशुभ प्रकृतियोके - अनुभाग काण्डका प्रमाण अनन्तबहुभागमात्र है तथा प्रशस्तप्रकृतियोका अनुभागखण्ड नियमसे नही होता है, क्योंकि विशुद्धपरिणामोके द्वारा शुभप्रकृतियोका अनुभागघात सम्भव नही है |
विशेषार्थ :- पूर्वमे जो अनुभाग था उसको अनन्तका भाग देनेपर उसमे से बहुभागमात्र प्रथम अनुभागकाण्डकमे घटाता है अवशेष एकभागमात्र अनुभाग रहता है उसको अनन्तका भाग देनेपर उसमे से बहुभाग द्वितीय अनुभागकाण्डक में घटाता है, अवशेष एकभागप्रमाण अनुभाग रहता है, यह क्रम अन्तिम अनुभागकाण्डक पर्यन्त क्रम जानना । इसप्रकार अप्रशस्त प्रकृतियोका अनुभागखण्ड करणविशुद्धि के द्वारा यहा होता है | अनुभागकाण्डक सम्बन्धी अल्पबहुत्व इसप्रकार है- एकप्रदेश गुण हा निस्थान में स्पर्घक स्तोक है, अतिस्थापना अनन्तगुणी है, निक्षेप अनन्तगुणे, अनुभाग काण्डकके द्वारा घाता जानेवाला अनुभाग अन्तगुणा है' |
पढमे छठे चरिमे भागे दुग तीस चदुर वोच्छिण्णा ।
बंधे अपुव्वरस य से काले बाद होदि ॥ १६ ॥ ४१० ॥
अर्थः- अपूर्वकरणके प्रथमभागमे दो प्रकृतियां, छठे भाग में ३० प्रकृतियां और अन्तिमभागमे ४ प्रकृतिया बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं । अपूर्वकरणसे अनन्तर समय में वादर साम्पराय होता है ।
१. जयधवल मूल पृ० १९५२ । २. जयघवल मूल पृ० १९४८ ।