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क्षपणासार
[ गाथा १५
२० ]
करणके प्रथमसमयमे परिणाम विशेषके कारण असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण द्रव्यका अपकपंगकर उदयावलिसे बाहर अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय और क्षोण
पायके कालोसे विशेष अधिककालमें गुणश्रेणिरूपसे निक्षेप करता है न बधनेवाले अअगस्त कर्मों का गुणसक्रमण होता है । अपूर्वकरणके द्वितीयादि समयोमें गुणश्रेणि अगन्यानगुणो है, क्योकि जितने द्रव्यका प्रथमसमय में अपकर्षण किया था; द्वितीयादि ममयों में असत्यात गुणेक्रमसे द्रव्य का अपकर्षणकर; शेष-शेष (गलितावशेष) गुणश्रेणि मायाममे निक्षेर करता है, विशुद्धि भी प्रति समय अनन्तगुणे क्रमसे बढती है, प्रथमसमयमें अन्य कोई विशेषता नही है । यह क्रम प्रथम अनुभागकाण्डकके समाप्त होने तक है । अनन्तर अगले समय में शेष अनुभागका अनन्त बहुभाग घातने के लिए अन्य अनुभागकापनकको प्रारम्भ करता है इसप्रकार प्रथमस्थितिकाण्डक कालके भीतर अन्य अन्य सत्यातहजार अनुभागकाण्डकघात होते हैं ।
'आउगवज्जाणं ठिदिघादों पढमादु चरिमठिदिसंतो। ठिदिवंधो य अपुन्चे होदि हु संखेज्जगुणहीणो ॥१५॥४०६।।
अर्थः-आयुकर्म विना शेप सातकर्मोका स्थितिकाण्डकायाम, स्थितिसत्त्व और स्थितिबन्ध ये तीनो अपूर्वकरण के प्रथमसमयमे जो पाये जाते हैं उनसे अपूर्वकरणके चरमसमय मे सत्यात गुणे कम होते हैं ।
विशेषार्थः-प्रत्येक स्थितिकाण्डकघातमे स्थितिसत्कर्म हीन होता जाता है। स्थिति काण्डकायाम (एकस्थितिकाण्डकघातके द्वारा जितनी स्थितिका घात होता है वह स्थितिकाण्डकायाम है) स्थितिसत्त्वका अनुमरण करने वाला है। स्थिति काण्डकघात हाग स्थितिसत्कर्मकी हानि होनेपर स्थितिकाण्ड कायाम भी होन होता जाता है । प्रत्येक स्थितिवन्यापसरणके द्वारा स्थितिबन्ध घटता जाता है । अपूर्वकरणकालमे हजारो स्थितिकाण्डकघात व स्थितिबन्धापसरण होते हैं अतः अपूर्वकरणके चरमसमयमें इन हमारो स्थितिकाण्डकघात द्वारा स्थिति सत्कर्म का घात होकर सख्यातगुणा होन रह जाता है, स्थिति सत्कर्मका अनुसरण करनेवाला स्थिति काण्डकायाम भी संख्यातगुणा
। पर विचार जययवल मूल पृ० १६८८-१९५२ के आधारसे लिखा गया है । २. वन दूर १३ १९५० । यह गाथा लब्धिसारको गाथा ७८ के समान है।