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। गाथा १४ क्षपणासार १८ ] घातकी अपेक्षा उत्कर्षण सम्बन्धी जघन्यअतिस्थापना ये दोनो परस्परतुल्य होते हुए भी पूर्वसे विशेष अधिक हैं, क्योकि वे दोनो आवलिप्रमाण है और समय अधिक आवलिके विभाग प्रमाण पूर्वसे विशेष अधिक है। (५) उत्कर्णसम्बन्धी उत्कृष्ट अतिस्थापना संख्यातगुणी है, क्योकि इसका प्रमाण समयाधिक आवलिकम उत्कृष्ट आबाधा है । (६) व्याघातकी अपेक्षा अपकर्णणसम्बन्धी उत्कृष्टअतिस्थापना असख्यातगुणी है, क्योकि वह एकसमयकम उत्कृष्टस्थितिकाण्डकप्रमाण है। (७) उत्कर्षणसम्बन्धी उत्कृष्टनिक्षेप विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर है, क्योकि इसका प्रमाण समय अधिक आवली और उत्कृष्ट आबाधासे हीन ४० कोडाकोड़ी सागरोपममात्र उत्कृष्टस्थिति है । (८) अपकर्षणविषयक उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण सख्यांतावलि हैं, क्योकि यहापर एकआंवलिसे हीन उत्कृष्ट आबाघाका प्रवेश सम्मिलित हो जाता है । (8) उत्कृष्टस्थिति एकसमयअधिक दोआवलिप्रमाण विशेष अधिक है, क्योकि समयाधिक अतिस्थापनावलिके साथ बन्धावलि भी सम्मिलित हो जाती है।
पल्लस्स संखभागं वरं पि अबरादु संखगुणिदं तु । पडमे अपुव्वखवगे ठिदिखंडपमाणयं होदि ॥१४॥४०५॥
अर्थः-क्षपक अपूर्वकरणके प्रथमस्थितिखण्ड अर्थात् स्थितिकाण्डकायामका जंघन्य और उत्कृष्टप्रमाण यद्यपि पल्यके सख्यातवेंभागमात्र है तथापि जघन्यसे उत्कृष्टका प्रमाण सख्यातगुणा है।
विशेषार्थ:-जिसके स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन है उसके जघन्य स्थितिकाण्डकघात होता है और सख्यातगुणे स्थितिसत्कर्म वालेके उत्कृष्टस्थितिकाण्डकघात होता है । यद्यपि जघन्यस्थितिकाण्डकघातसे उत्कृष्टकाण्डकघात सख्यातगुणा है तथापि दोनोंका प्रमाण पल्योपमका सख्यातवाभाग है । जिसप्रकार दर्शनमोहकी उपशामनामें, दर्शनमोहकी क्षपणा तथा कषायोपशामनामें (उपशमश्रेणी) अपूर्वकरणका प्रथमस्थिति
१. जयधवल मूल पृ० २०१२ । २. देखो ववल पु० ६ पृष्ठ ३४४, जयघवल मूल पृ० १६४६, ० पा० सु० पृष्ठ ७४१-४२ । ३. क. पा० सुत पृष्ठ ७४१ सूत्र ४६ ।