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क्षपणासार
गाथा १४ ]
[ १९ काण्डकघात जघन्यसे पल्योपमका संख्यातवांभाग और उत्कृष्ट से सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण होता है। इसीप्रकार असयत, सयतासंयत व संयतके अनन्तानुबन्धीकी विसयोजनासम्बन्धी अपूर्वकरणका प्रथमस्थितिकाण्डकघात जघन्यसे पल्योपमका संख्यातवांभाग और उत्कृष्ट सागरोपमपृथक्त्व होता है, किन्तु चारित्रमोह क्षपणाके अपूर्वकरणसम्बन्धी प्रथमस्थिति काण्डकघात जघन्य और उत्कृष्ट दोनो ही पल्योपमका सख्यातवांभागप्रमाण होकर भी जघन्यसे उत्कृष्ट का प्रमाण सख्यातगुणा है ।
क्षपकश्रेणि अपूर्वकरणमें दो व्यक्तियोने एक साथ प्रवेश किया। उनमें एकके स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है और दूसरेका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन है। जिसके स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन है उसके प्रथमस्थितिकाण्डकसे, सख्यातगुणे स्थितिसत्कर्मवालेका प्रथमस्थितिकाण्डकघात संख्यातगुणा है । एक तो दर्शनमोहका क्षपण करके उपशमश्रेणि चढकर पुनः क्षपकश्रेणिसम्बन्धी प्रथमसमयवति अपूर्वकरण हुआ और दूसरा उपशमश्रेणि चढा पुनः वहांसे उतरकर दर्शनमोहका क्षयकरके क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हो प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण हुआ, इनमेसे पहलेकी अपेक्षा दूसरे व्यक्तिका स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा हीन है । अथवा एक दर्शनमोहका क्षयकरके क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ हुआ और दूसरा दर्शनमोहका क्षयकर उपशमश्रेणीपर चढ़कर क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ हुआ; प्रथमकी अपेक्षा द्वितीयका स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणाहीन है और प्रथमका सख्यातगुणा है, क्योंकि इसके उपशमश्रेणिसम्बन्धी स्थितिघातका अभाव है। जिसके स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा हीन है उसके प्रथमस्थिति काण्डकघातसे दूसरेका प्रथमस्थितिकाण्डकघात सख्यातगुणा है, क्योकि स्थितिसत्कर्म के अनुसार स्थितिकाण्डकघातकी प्रवृत्ति होनेमे कोई बाधा उपस्थित नही होती । इसीप्रकार, द्वितीय, तृतीयादि अपूर्वकरणके चरमस्थितिकाण्डकतक जघन्यसे उत्कृष्ट संख्यातगुणा जानना चाहिए। यदि स्थितिसत्कर्म एक दूसरेसे विशेषहीन व विशेष अधिक है तो अपूर्वकरणमें स्थितिकाण्डकघात भी विशेष हीन व विशेष अधिक होता है ।
अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें पल्यके सख्यातवेंभाग प्रमाणवाला स्थितिकाण्डकघात, अप्रशस्तप्रकृतियोंका अनन्तबहुभागवाला अनुभागकाण्डकघात और पल्यके संख्यातवेंभाग प्रमाणवाला स्थितिबन्धापसरण होता है । अधःप्रवृत्तकरणके चरमस्थितिबन्धसे अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे अन्य स्थितिबन्ध पल्यके संख्यातवेभाग हीन होता है। अपूर्व
१. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७४१ सूत्र ४७ । जयधवल मूल पृ० १६४६ ।