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विकृतिविज्ञान साथ ही साथ उतियों में कुछ आघात होने से और कुछ शूल के कारण अंग की क्रियाशक्ति का ह्रास भी रहता है। इसी को चरक ने निम्न शब्दों में अभिव्यक्त किया है :
सगौरवं स्यादनवस्थितत्वं सोत्सेधमूष्माथ सिराततत्वम् ।
सलोमहर्षाङ्गविवर्णता च सामान्यलिङ्गं श्वयथोः प्रदिष्टम् ॥ (च.चि. अ. १२-१०) अर्थात् जिस स्थान पर शोथ होता है वहाँ १. गुरुता ( heaviness ), २. शोथ की अनवस्थितता (variability of oedema), ३. उत्सेध (swelling), ४. ऊष्मा ( heat ), ५. सिराव्याप्ति (जिसके कारण अंग का अधिक लाल हो जाना redness ), ६. अङ्ग में रोमहर्ष, ७. अङ्ग का विवर्ण होना (प्रकृतवर्ण का अभाव) ये ७ लक्षण दिखने पर उसे शोथ के तथा व्रणशोथ के भी लक्षण मान लेना चाहिए। चरक ने आगन्तु और निज दोनों शोथों के ये लक्षण दिये हैं। नवीनों के ५ लक्षण और प्राचीनों के ७ लक्षण दोनों ही एक दूसरे के पूरकानुपूरक हैं और दोनों के ज्ञान से विज्ञान का विकास ही होता है। इसके विपरीत विचार रखने वाला व्यक्ति निस्सन्देह दोनों ही शास्त्रों का शत्रु और संकीर्णतावादी है।
विशेष लक्षण-यद्यपि नवीन विचारक उपरोक्त ५ लक्षण देकर आगे बढ़ जाते हैं और फिर विविध ऊतियों में होने वाले शोथ के विविध लक्षण बतलाने लगते हैं । प्राचीन विचारकों ने अपने को त्रिदोष से सम्बद्ध कर लिया है अतः उन्होंने व्रणशोथ के निम्न भेद किए हैं :
१. वातिक शोफ-वातशोफोऽरुणः कृष्णो वा परुषो मृदुरनवस्थितास्तोदादयश्वान वेदना विशेषा भवन्ति-इसमें अरुणता (redness), कृष्णता (darkness) होती है तथा यह परुष ( rough ), मृदु ( tender ), अनवस्थित, तोदादि विशेष वेदना ( pain ) से युक्त होता है। ____२. पैत्तिक शोफ-पित्तशोफः पीतो मृदुः सरक्तो वा शीघ्रानुसायौंषादयश्चात्र वेदनाविशेषा भवन्ति-इस शोफ में शोथस्थल का वर्ण पीत ( yellow ) होता है तथा यह मृदु ( tender ), सरक्त ( hyperaemic )। शीघ्र बढ़ने वाला, ओष चोषदाह आदि वेदना ( burning pain) से युक्त होता है। _____३. श्लैष्मिक शोफ-कफशोफः पाण्डुः शुक्लो वा कठिनः शीतः स्निग्धो मन्दानुसारी कण्डवादयश्चात्र वेदना विशेषा भवन्ति-इस शोफ का वर्ण पाण्डु ( pale ) या शुक्ल ( white ) होता है यह कठिन ( hard ) शीतल ( cold ) स्निग्ध ( unctuous ), शनैः शनैः बढ़ने वाला ( slowly progressing ) होता है तथा इसमें कण्डू आदि वेदनाएँ विशेष मिलती हैं।
४. सान्निपातिक शोफ-सर्ववर्णवेदनः सन्निपातजः-इसमें सभी प्रकार के वर्ण और वेदनाएँ होती हैं । इसके लिए कश्यप ने लिखा है:
नीलपीतारुणाभासः सिराजालोपसन्ततः॥ . अनेकोपद्रवस्रावः सर्वरूपसमन्वितः । सुतीव्रवेदनोऽमाध्यः श्वयथुः सान्निपातिकः ।।
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