Book Title: Bhavi Jineshwar Amamswami Charitra Mahakavya Part 02
Author(s): Muniratnasuri, Vijaykumudsuri
Publisher: Manivijay Ganivar Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू० पंन्यास मणिविजयजीगणिवरग्रन्थमाला नं. 9 श्रीमदाचार्य मुनिरत्नसूरि विरचित प्राचीन ताडपत्रीय भाविजिनेश्वर श्रीअममस्वामिचरित्र महाकाव्ये द्वितीयो विभागः। संशोधक : आचार्यमहाराजश्रीविजयकुमुदसूरिः / प्रकाशिका : पंन्यासमणिविजयजी गणिवर ग्रन्थमाला / -18 पानकोरनाका निकटवर्तिनि श्रीशारदामुद्रणालये तदधिपतिना हीरालालेन अमदावादनगरे मुद्रितम् छवीरसंवत् 2469 सार्द्धरुप्यकत्रयम् विक्रमसंवत् 1999 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T // 2 // नि वे द न. . आ ग्रन्थना प्रथम विभागमा प्रस्तावना आपेली छे तेथी आ बीजा विभागमा आपेल नथी, पण अनुक्रमणिका, शुद्धिपत्र अने कतिचित् कठिन शब्दकोष आपेल छे. आ विभागमा पेटलाद श्रीसंघना ज्ञान खाता तरफथी रु. 101) नी कागळ खरीदवामां मदद तथा एक गुप्त नामवाला महाशय तरफथी रु. 100) नी मदद मली छे तेथी ते बन्नेनो सहर्ष आभार मानवामां आवे छे, तेमज जेओए प्रथम विभाग खरीदेल होय तेओने नम्र विज्ञप्ति छे के आ बीजो विभाग मंगावी लई ग्रंथ पुरो करी लेवो. ___हर्षनी वात छे के आवा सख्त मोघवारीना टाइममां पण टुंक समयमां आ ग्रंथ पुरो थयो ते पू० पा० आचार्यदेवना परिश्रमनु | | परिणाम छे, एज.... श्रीसंघ कुशलाकांक्षी, मु. लीच. (वाया महेसाणा) ) मास्तर न्हालचंद ठाकरसी. (दश गुजरात) व्यवस्थापक, पं० मणिविजयजी ग्रंथमाला.. ता. 15-4-1943 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका विषयः // 3 // 293-334 335-348 / विषयः सप्तमसमें श्रीनेमिनाथ पूर्वभव वर्णनं जन्म महोत्सव प्रदर्शनं च अष्टमसगै कंसवध द्वारकारचना कृष्णराज्याभिषेकादि स्वरूपम् नवमसगै क्मिण्यादिविवाहः पाण्डवद्रौपदीस्वयंवर प्रद्युम्न शाम्ब चरित्र प्रदर्शनं च दशमसर्गे जरासन्धवधो वासुदेवदिग्विजयो द्वारकाप्रवेश महोत्सवो वासुदेवपदाभिषेकः तद् ऋद्धिवर्णनं च एकादशसमें द्रौपद्यानयन सागरचन्द्राख्यान बाणवधप्रदर्शनम् 410-422 ... द्वादशसमें राज़िमतिशरीवर्णनं श्रीनेमिनाथकौमारक्रीडादीक्षा-केवलोत्पत्तिः संघस्थापना दशार्हाणां धर्मप्राप्तिश्च 423-445 प्रयोदशसर्गे गजसुकुमारचरित्रं सागरचन्द्रस्वरूपं मेरीवैद्य वीरकचरित्रं श्रीकृष्णस्य पुण्योपार्जनं दण्ढणऋषिकथा रथनेमिप्रतिबोधः शाम्बपालकस्वरूप प्रदर्शनं च चतुर्दशसर्गे द्वीपायनकृत द्वारकादाहस्वरूपं कृष्णविपत्तिः कालं कृत्वा तृतीयापृथ्वीगमनं व 458-468 349-386 // 3 // 387-109 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः ** अनुक्रम णिका ** // 4 // ** 532 पञ्चदशसर्गे बलदेवस्वरूपं पाण्डवशेषकथा श्रीनेमिनाथ मुक्तिप्राप्तिश्च 469-475 षोडशसर्गे अवसर्पिण्युत्सर्पिणीभावप्रदर्शनम् 476-487 सप्तदशसर्गे आगामिकालभावि श्रीअममजिनेशच्यवनजन्मबाल्यादिवयोवर्णन-विवाह-यौवराज्य राज्याभिषेकप्रदर्शनं संमतिभूपदीक्षा च 488-502 अष्टादशसर्गे सहस्रनृपैस्सह दीक्षा केवलोत्पत्ति-समवसरणसभास्वरूपं धर्मदेशनां कर्ता व 503-508 सम्यक्त्वोपरि कथयिष्यमाणसरराजदृष्टान्त निरूपणे बौद्धधर्मिलक्ष्मसेनस्य शक्रेन्द्रप्रेषितसेनापतिकृतपराभवप्रदर्शनं सूरराजस्य साक्षा-.. दिन्द्रमिलनं तत्कृततद्गुणस्तुतिश्च / विषयः धर्मोपरि राजपुत्र पुष्पसार मैत्रिपुत्र क्षेमंकर दृष्टान्ते सुरप्रभमुनिदेशना-पुष्पसारदीक्षा देवकृतपरीक्षा मुक्तिगमनं च 521-527 क्षेमंकरमंत्रिपदं तदुपरि नृपतिरोषः क्षेमंकर धर्मप्रभाषः दीक्षा स्वीकर्ता च 528-531 अममस्वामिगणधरादिवर्णनम् एकोनविंशसमें तत्कालीय सुन्दरबाहुवासुदेव-वज्रजंघप्रति वासुदेववर्णनम् 533-539 विंशसमें नमस्काराराधनोपरि अरिमर्दन कथा 540-543 अममस्वामिपरिधारकथनं निर्वाणमहोत्सव वर्णनं कृष्णभ्रातृबलदेवमुक्तिकालनिवेदनं च 544-547 प्रशस्तौ श्रीमुनिरत्नमरिपरंपराप्रदर्शनं बालकवि जगद्देवबुद्धिवर्णनं च 548-550 ***80 // 4 // *60804 509-520 बास ... Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म : 1929 : कपडवंज : स्वर्गवास : 1978 कार्तिक सुदी 3 : त्रापज : . .. Kinninin lion .. . पन्यासपदोपस्थापना : 1970 कारतक वदी 2: छाणी: दीक्षा: 1945 : कासींद्रा: वडी दीक्षा : 1946 महा सुदी 5: राजनगर : जन्म: 1937 फागण सुदी 5: खडसलीया दीक्षा : 1958 कार्तिक वदी 2 अमदावाद. गणिपद : 1976 : सुरत: पन्यासपद: 1978 वैशाख सुदी 3: पालीताणा: " . . . .... . .. ... .. . ... आचार्यपद : 1992 वैशाख सुदी 4: पालीताणा: उपाध्यायपद : 1991 चैत्र वदी 5. कदंबगिरि: Page #6 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII शुद्धिपत्रम् III अशुद्ध चाम्बुदम् - अशुद्ध कीण शुद्ध वाम्बुदम् चतस् शंखो कीणे अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ श्लोक विनादित्याः जिनादित्या. 1 1 प्रति० 297 76 प्रश्नां प्रनां 298 98 299 22 श्रावक 300 46 पृष्ठ श्लोक૨૮ 68 359 89 पृष्ठ श्लोक 329 80 332 42 333 60 335 प्राति // 5 // चत द्विजो द्विजो शखो शुनक्या च्छ घों दुर्घषों मेषो दुर्धर्ष 361 335 336 यदि त्वेन 364 शुनक्यः प्रछ (रपि) त्वेनाs केटुम् 366 10 वर! 303 97 धावता कर प्रभोना मेष धावताम् क्रूर प्रभोर्ना धिताम् द्यापि ASAN धितम् 354 द्यावि वनि ततो त्वया मत्या 340 94 | कटु 344 72 श्रुत्वे स्वसेव 345 83 | सखाः पार्श्वस्य सहित 35488 शृंग 314 6 317 69 324 99 328 76 / स्वसेवः सा 380 सखा पार्श्वश्च 384 सहितः त्वय्या मत्याः धौ // 5 // afell बभौ सज्जन सर्जन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमम० अशुद्ध - पृष्ठ श्लोक शुद्धि पत्रो सूति शुची 492 // 6 // तस्यिरे शीर धुनान् शिक्षयेतं 401 49 6468* *888**68* * कंस की शुद्ध पृष्ठ श्लोक | अशुद्ध 392 90 रंगतत्स तस्थिरे 393 15 किं त्व शर 306 66 न कोपि धुनानः भक्त्वा शिक्षयेऽहं 104 तुट् कंसः 404 कर्ती विष्णुर्म ૪ર૭ 436 39 मै भीष्ट 438 77 अंक तेऽप व्यधु 446 2 देनताः 451 100 ववोमि 455 64 स्मादुः 456 72 वन्क्षि 44 34 838 183% 466 क्षोणी चन्द्रा 49 वर्त्य सुदुर्भ त्येष वेद विद पृष्ठ श्लोक | अशुद्ध रंगत्स 458 5 सूत्ति 462 9. शुची कोपि 463 94 | शोणी भक्त्वा 465 36 चान्द्रा 465 44 48 63 वत्स्य 471 50 471 52 त्येप 474 7 बुग्म 475 30 सैन्येः देवताः पश्चान्मु इवोमि 483 29 | तत्रे स्माद्दुः 484 54 शाह्मिण वक्षि विंश शैल 489 20 / विष्णुम कौतुको भीष्ट 945 509 प्रे 510 च्यधु धीर पश्चात्सु धीर तत्रै 532 तुङ्गों शानि ***680**88* *Hat प्यर्जिता प्यर्थिता // 6 // आकण्पये आकण्य Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन शब्दकोष अर्थ अर्थ // 7 // अर्थ बेडावृक्ष अग्लानबुद्धि विष्णु युद्धप्रयोग शब्द अक्षवृक्ष अतान्तधी अधोक्षज अभिचार अकृष्ण अन्ववाय अनूप अपराध अत्याहित अध्याम अर्द्धवैशर्स अलकायोषित चन्द्र अवहित्थ अरुन्तुद अवस्कन्द अवहित अवलगा अभिपन्न अरीण आनन्दथु आति आयून इरिमंदिर इश्वास आकारगोपन मर्मपीडक चोरधाड सावधान सेवा अपराधि खसेलनहि सुख एकपक्षी पेटभरो-बेशरमो जंगली बकरो सुगंधी द्रव्य मश्करो उपवास नीरोगी महत्यकारतु प्रतिष्ठित इडिक उशीर उत्प्रास उपवस्त्र उल्लाघता -उलूलु उत्ताल उर्व उशनस् उपदेहिका उद्घात उद्गूर्ण वंश जलमयस्थान स्खलित अनर्थ अमलिन अर्द्धकरता वक्रकेशीस्त्री ऋषि उधेह * ठोकर उंचु करेल धनुष Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** अमम० शब्द शब्द शब्दकोष * कुसूति कुरबक // 8 // ऋक्थ पकामिष कीश कल कम्र कुठेर **48* * अर्थः / वसुदेव योद्धो घास वादलु हीम बख्तर गुड कशिपु कर्मीर कर्कन्धु कपोत कोटीर अर्थ वारसा धन पकमलामांस वानर वीर्य मनोहर अन्नवस्त्रादि व्याप्त बोरडीवृक्ष होलोपक्षि मुकुट लाकडानो टुकडो कुतुहल नरकासुर दैत्य अग्नि पक्षिमाळो अर्थ दुराधरणी एक वृक्ष वनतुलसी हस्ति बखतर निर्गन्ध कमल राजमार्ग मत्त अस्तावल, स्वनिंदक अग्नि तिकाल स्नान सत्वरज तमोगुणा संताप फुवाराग्रह यमपत्वी द्रुपदपुत्र ने, नेत्रमल * * गर्दभाब्ज घण्टापथ क्षीब चरमाद्रि चर्चा जुहास्यक त्रिषवण त्रैगुण्य दवथु धारामवन' धूमोर्णा धृष्टद्युम्न * नासीर नल नभोधूमी नीहार नीचोलक नीव नेत्रदृषिका निषादि निषंगी परिपण प्रवयण प्रत्याहार प्रतिश्रव प्रच्छाय प्रतिहस्त किलिञ्च * **** कुतुक कुज कृष्णतुंड कुलाय मावत धनुर्धर मूलधन परोणो फेलावो प्रतिक्षा गाढ छायो प्रतिनिधि // 8 कृषि पृथ्वी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमम० अर्थ शब्दकोष फेला // 9 // शब्द पाउल प्रत्यादेश पत्रद्धा पारिप्लव पुष्पवडु प्रह प्रभंजन प्रगीव पल्लीश पूरण प्रधि पुंस्कोकिल पलित प्रतिसर प्रद्युम्न प्रसर अर्थ जलकण बेडावृक्ष वेश्या परिचित योगिन क्रूर बाह्मण विदृषक शब्द उच्छिष्टान्न फेलहिलायिता अनादरणीयता फाल्गुन अर्जुन वांकु थयेल भीमल भयंकर भूफ्रेंस नाटकीयो मौर्वी धनुषदोरी याप्ययान पालखी योग्या शस्त्राभ्यास रेवन्त सूर्यपुत्र रुक्म सुवर्ण मुर सुन्दर वाहस अजगर विष्णुदैवत श्रवण नक्षत्र विरञ्च बह्मा शब्द वमथु विभीतक वैशिक वातिकेन्द्रा वैशस पाडव वैहासिक विशेषक विप्रतीप वासकसजा बा नि बान्यपि वारी वैवधिक गुलाबी रंगवालु आज्ञा पगरखा चपल माली नम्र महावायु झरुखो गरोलो वर्षाद रथनाभि कोयल पलीयु नाई प्रकर्षबली अंकुश घा तिलक विरुद्ध नायिका जलपात्र शुष्क फलभोगी सांकल मोदी मच्छ हस्ती वल्गु EL // 9 // शत्री Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अर्थ अर्थ अर्थ शक . वर्ण्य केशर हसन्तिका दया आलसु वायु सेंथो रात्रियुद्ध समीप साटु ब्राह्मण सगडी हर्यक्ष হা सौप्तिकं सदेश सत्याकृति सूत्रकण्ठ संगर स्मरहर सव्यसाची व्याकोश सिंह पक्षि हारीत शीक सदागति सीमन्त सौहित्य संगर संश्रव तृप्ति // 10 // अश्व वेचनार प्रयत्न * *489* *69-8-8488- 8488-869- 8 समीक्षा प्रतिक्षा प्रतिक्षा निर्विषसर्प शीव अर्जुन विकस्वर राजिल // 10 // 89-1 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० पू० पन्यासमणिविजजीगणिवरग्रन्थमाला नं. 9 संक्षिप्त // 293 // नेमिजिन भाविजिनेश्वरश्रीअममस्वामिचरित्रे सप्तमः सर्गः / चरित्रम् आमूलमसंख्यैरपि कविभिः खच्छन्दचर्वितरसानि / नेमेरद्यापि जयन्त्यऽचुम्बितानीव चरितानि // 1 // भुवःखःशिवस्खाम्यपत्रला श्रीजिनाभिधाम् / कृष्णो लेभे यतस्तस्य नेमेश्चरितमुच्यते // 2 // आधद्वीपस्य भरते सरसीव रसाश्रये / श्रियोऽस्ति पबवत्सब नामाऽचलपुरं पुरम् // 3 // सप्तभूमैः सार्वभूमैश्वर्याणां यत्र वेश्मभिः / मध्यान्हे सूर्यरथ्यानां क्रियते मन्दुराभ्रमम् // 4 // : खर्गायत्र वृत्रहत्याक्षितेशात ध्रुवं श्रियः। आयान्त्यास्तेनिरे हस्तालम्बं देवगृहा ध्वजैः॥५॥ विक्रमैकधनस्तत्र श्रीविक्रमधनो नृपः। आसी| हासीमिव प्रीणन् सङ्गरैविजयश्रियम् // 6 // कीर्तिगंगा नवा यस्माद्भूधरेन्द्राद् व्यजृम्भत / न वाहिनीशानऽस्तापानऽपि या चकमे कचित् / / 7 // विशुद्धोभयपक्षाऽस्य वसन्ती मानसेऽनिशम् / बभूव राजहंसीव धारिणी सहचारिणी // 8 // रूपामोदरसै रम्यैरधिको मे समोऽपि वा। डमो यद्यस्ति युष्मासु रेरे तब्रूत पादपाः॥९॥ मञ्जरीतर्जनीरित्थमृीकृत्य फलेग्रहीन् / भ्रमद्धमरझङ्कारैराक्षिपन्तमिव दुमान् // 10 // खमे मनोहराकारं सहकारं महातरुम् / अरुणोदयवेलायामन्यदा सा व्यलोकयत् // 11 // त्रि०वि०॥ हस्तस्थितेन ||293 // Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 294 // तेनोचे कोऽपि दिव्यः पुमानिति / रोप्यतेऽसौ मया नन्दभृतश्रुतस्तवाङ्गणे // 12 // कियतोऽपि पुनः कालादन्यत्रारोपयिष्यते / एवं जिनेशशालेरिर्वतस्य परा स्फातिभविष्यति // 13 // शाखिनो नवकृखोऽस्याऽन्यत्रान्यत्राधिरोपणात् / फलं भविष्यत्युत्कृष्टोत्कृष्टोरुरसपेश- * चरित्रम् / | लम् // 14 // कल्याणपाठकैः पेठे तदेति नृपमङ्गलम् / चूतवत्तनुतात्प्रातःक्षणस्तेऽरुणपल्लवः // 15 // साऽथ प्रबुद्धा तं स्वप्नं राज्ञेऽशं नेमिनाथ प्रथमभवे सदऽसावपि / विज्ञैर्व्यचारयत् तेऽपि व्याख्युः पुत्रजनि शुभाम् // 16 // नवकृत्वस्तु चूतद्रोरन्यत्रान्यत्र रोपणे / न जानीमः फलं धनधनवती वेत्ति केवलं केवली यदि // 17 // श्रुत्वेति धारिणी देवी मजन्तीव सुधाहृदे / स्फीतेनानन्दभारेण समं गर्भ बभार सा // 18 // ततो | स्वरूपम् नवसु मासेषु दिनेष्वर्द्धाष्टमेषु च / धारिण्यसूत तनयं कल्पद्रुमिव देवभूः॥१९॥ ततो निर्मुक्तनिःशेषबन्धनस्थितमानवम् / दीयमा| नमहादानं निदानं हर्षसम्पदः॥२०॥ मानादिवृद्धिभिः साधु दशाहावधि विस्तृतम् / सुतस्य कारयामास राजा जन्ममहोत्सवम् // | // 21 // दशाहेऽथ व्यतिक्रान्ते पुण्याहे गणकोदिते / वस्त्राभरणरत्नाद्यैः कुलजाखऽर्चितासु च / / 22 / / हास्यते मद्गुणैर्नायं मत्वेतीव पिता व्यधात् / स्वनामपल्लवोद्भूतां धन इत्यभिधां शिशोः // 23 // पित्रोः सार्द्ध प्रमोदेन तत्राऽवर्द्धिष्ट स क्रमात् / आशाः प्रकाशाः |* कुर्वाणः शुक्लपक्ष इवोडुराट् // 24 // गुरुनऽखेदयन्नेव श्रुतं प्राचीव जन्मनि / कलाकलापशास्त्राणां तत्त्वं निरचिनोदसौ // 25 / / विष्वग सगे-७ * विस्मेरपुन्नाग पौरस्त्रीगमधुव्रतम् / स्मरलीलावनं प्राप यौवनं च क्रमाद् धनः // 26 / / इतश्चानेकपापाङ्गभङ्गकर्मणि कर्मठः। राजाभूत्कुसुमपुरे सिंहः सिंह इवोत्कटः॥२७॥ गङ्गेव विमला तस्य विमला प्राणवल्लभा। आसीत् पट्टमहादेवी देवीव भुवमागता॥२८॥ // 294 // कन्या धन्या धनवतीत्यस्यां बहुसुतोपरि। सिंहस्याऽभूद् भृरिरनोपरीव श्रीमहोदधेः॥२९॥ सा द्वितीयेन्दुलेखेव लावण्येनापराः स्त्रियः। तारा इव निरस्यन्ती ववृधेऽथाग्रहीत्कलाः॥३०॥ खसौभाग्येन साजैषीद् रतिप्रीती सभर्तृके / तदादर्शी यत्कपोलौ दधे Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *4 // 295 // धनचित्रदर्शनेन जातानुरागिणी धनवती स मकरध्वजः // 31 // वर्षाकलुषिताः पाथोनिधेः कान्ताः तरंगिणीः। प्रसादयन्ती दूतीवदऽन्यदा शरदागमत् // 32 // तत्राऽन्यदा वयस्याभिर्देवीभिरिव संयुता / साक्षाल्लक्ष्मीरिवोद्यानं द्रष्टुं धनवती ययौ // 33 // प्रविशन्त्याः श्रियो देव्याः सरसीपद्मसद्मसु / बन्दिनामिव हंसानां मधुरध्वनिबन्धुरे // 34 // सत्कवेर्वचसीवोद्यजातिसौरभ्यशालिनि / तस्मिन्नुद्याने देवीव स्वैरं विहरति स सा| | // 35 / / युग्मम् / प्रतिवृक्षं भ्रमन्ती सा द्वेधा चित्रकरं नरम् / तत्राशोकतले चित्रपट्टिकाहस्तमैक्षत // 36 // धनवत्याः सखी तस्मा| दऽकस्मात् चित्रपट्टिकाम् / अग्रहीत्कमलिन्याख्या किमत्रास्तीति कौतुकात् // 37 // रूपमप्रतिरूपं सा तत्रालोक्याऽतिविस्मिता / तमूचे रम्यमालेखि ? कस्य रूपमिदं त्वया // 38 // यद्वा सुरासुरनरेष्वेतद्रूपमसम्भवि / खबुद्ध्यैव त्वयाऽलेखि मन्ये व्यक्तुं खकौशलम् / | // 39 // त्रिजगजनतासृष्टिकष्टखिन्नस्य वेधसः। जरया जर्जरस्येदृक् रूपशिल्पं क वा भवेत् ? // 40 // कमलिन्यैवमुक्तोऽथ सित्वा चित्रकरोऽभ्यधात् / नात्र मे कौशलं किश्चिद् यथादृष्टं व्यलेखि नु // 41 // प्रति वीक्ष्य मयाऽलेखि रूपेणाप्रतिमो धनः / एषोऽच| लपुराधीशश्रीविक्रमधनात्मजः॥४२॥ यस्तं प्रत्यक्षमीक्षित्वा चित्रे चित्रेण वीक्ष्यते / चित्रकर्मणि मामज्ञमुद्भावयति स ध्रुवम् // 43 // भद्रे! त्वं तमदृष्वा तु नेत्रयोरमृताञ्जनम् / चित्रे चित्रीयसेवापि तद्रूपलवदर्शिनि // 44 // नेत्रोत्सवं मन्यमानास्तदालोकं सुराङ्गनाः। आवासं त्रिदशावासे चिन्तयन्तीव वञ्चनाम् // 45 // विनोदाय व्यलेखीदं स्वस्य दृग्मनसोर्मया / रूपं सौन्दर्यधनस्य श्रीधनस्य यथामति // 46 // धनवत्यपि पार्श्वस्था तदोषीद्ददर्श च / अवाध्यत हृदब्जे च समं स्मरशिखीमुखैः // 47 // उवाच कमलिन्येवं दृशो रेतद्रसायनम् / कुशलेन कृतं साधु चित्रं चित्रनिधे! त्वया // 48 // उक्त्वा वक्रोक्तिभंग्येति काम्यं कमलिनीवचः। अग्रतो गन्तुमा* रेमे मारेभेनेव संज्ञिता // 49 // धनवत्यपि तत्कालं धनं प्रत्यनुरागिणी / क्रीडां पीडां विचिन्त्येव कथञ्चिद् गृहमागमत् // 50 // // 295 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / [ विवाहार्थ प्रेषितो दूतः सिंहराज्ञा // 296 // | ध्याने धनस्यैकताना योगिनीव परात्मनः / साऽद्राक्षीत्तन्मयं विश्वं चित्रं मुकुलितेन्द्रिया // 51 // कौतुकं प्राप्तरूपापि विमुच्यैकं धनं च सा। मेने विश्वमिदं क्लीबमथवा स्त्रीमयं हृदि // 52 // धनस्य सुमनोज्येष्ठस्याश्चर्य ध्यानतोऽपि सा / देवीत्वमाप प्रक्षीणनि| द्राक्षुत्तर्षवेदना // 53 // कमलिन्यन्यदोचे तामाधिना व्याधिनाऽथ किम् / नीताऽसि ? काश्य वं कृष्णपक्षेन्दोस्तनूरिव // 54 // कुत्रिमा क्रुधमादाऽवदद् धनवती ततः। एवं पृच्छसि मामालि! वं बाह्यजनवत् किमु // 55 // जीवितव्यं ममासि वं द्वितीयं यदिवा वपुः। नवं वयस्यामात्रं मे तत् त्वत्प्रश्नो हिये मम // 56 // ततः कमलिनी वाचमुवाच ननु मानिनि / त्वया युक्तमुपालब्धाऽस्म्यहं ते जानती मनः // 57 // आलेख्यदर्शनात्तस्मात्तस्याश्चित्रकरस्तुतेः। धने बद्धाभिलाषाऽसि क्षोणी नवपुरन्दरे // 58 // अजानत्येव पृष्टाऽसि यन्मया कार्यकारणम् / क्षमस्व तत्सखि ! ख मे नर्मचापलचेष्टितम् / / 59 / / स्थानेऽनुरक्तां त्वां ज्ञात्वाप्राक्षं | दैवज्ञमादृता / अस्या मम वयस्यायाः किं? भावी चिन्तितो वरः॥६०॥ सोऽपि सप्रत्ययोऽशंसदऽवश्यं भवितेत्यतः। त्वं धैर्य भज कातयं त्यज सन्देहमुत्सृज // 1 // तयेत्याश्वासिता लेमे स्वास्थ्यं धनवती तदा। मातृमत्रितशृंगारा पितरं वन्दितुं ययौ। // 2 // वरान्वेषणचिन्ताब्धौ राज्ञि मजति धीवरः / आगात् प्राक् प्रेषितो दूतः श्रीविक्रमधनाम्तिकात् // 63 // स राजकार्यमाख्याय | तूष्णीम्भावं स्थितः स्वयम् / किं ? तत्र चित्रमद्राक्षीरित्युक्तो भृभुजाऽवदत् // 64 // विद्याधरेष्वसुरेषु सुरेष्वपि न यत्प्रतिः। अद्राक्षं | विक्रमधनसूनोस्तद्रूपमद्भुतम् // 65 // तदैवाऽचिन्तयं तं च धनवत्यास्तुल्यं वरम् / औचितीचतुरः स्रष्टाऽप्यनयोरस्तु योजनात् // 66 // | तुष्टो राजाऽवदत्साधु स्वयं दूत ! त्वया कृतम् / वरान्वेषणभारो मे हेलयैवोदतारि यत् // 67 / सुधीस्त्वमेव तद्गच्छ श्रीविक्रमधनान्तिकम् / धनं कुमारं वरय वरं धनवतीकृते // 68 // नृपं नमन्ती धनवत्यऽनुजा चन्द्रवत्यदः। तदा श्रुत्वा द्रुतं गत्वा हृष्टा तस्यै सर्ग-७ // 296 // Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 297 // धनोपरि धनवत्या प्रेषितं पत्रम् न्यवेदयत् // 69 // प्रत्येति स्म धनवती न तद्वाक्यमसावृजुः / कार्यान्तरेऽपि प्रहितं मदर्थ मन्यते स्म तु॥७०|| ततः कमलिनी प्रोचे दूतोऽद्याप्यत्र विद्यते / तं पृच्छाहाय्य हस्तस्थे कंकणे दर्पणेन किम् // 71 // भावज्ञा तत्र तं दूतं साऽऽनिनाय विचक्षणा / आकर्ण्य | तन्मुखात्सर्व मुदं धनवती दधौ // 72 // विलिलेख ततो लेख कौङ्कुमेन रसेन सा / प्रापयाऽमुं धनस्येति साकूतं दूतमादिशत् // 73 // दूतोऽचलपुरे शीघ्रं प्राप्तः श्रीविक्रम नृपम् / उपतस्थेऽन्तरास्थानस्थितं द्वाःस्थनिवेदितः॥७४॥ प्रपच्छ राजा भोः क्वचित् कुशलं सिंह| भूपतेः। विकल्पैराकुलं चेतः शीघ्रं भूयस्त्वदागमात् // 75 / / | कुशलं देव! देवो मामिह प्रतिष्ठिपत्पुनः। धनाय त्वत्कुमाराय दातुं धनवती सुताम् // 76 // रूपादिभिर्गुणैर्यद्वत्त्वत्सुतो धन| वत्यपि / तद्वदुत्कृष्यते युक्तोऽनयोयोगः समानयोः // 77 // स्नेहो वा पूर्वरूढोऽयमितोऽपत्यसमागमात् / नितरां वृद्धिमायात जलसे| कादिव द्रुमः // 78|| ओमित्युक्त्वाऽथ सत्कृत्य विसृष्टः पृथिवीभुजा / जगामोपकुमारं स प्रतिहारनिवेदितः // 79 // नमस्कृत्योपविष्टः स शंसित्वागमकारणम् / प्रेषि वोऽयं धनवत्येत्युदित्वा लेखमार्पयद् // 8 // भित्त्वा मुद्रां धनः स्वेन पाणिना तमवाचयत् / पुष्पायुधनरेन्द्रस्य प्रत्यक्षमिव शासनम् // 81 // परिभूतो भवन्मूर्त्या स्मरवीरो जगजयी / त्वय्यप्रभूष्णुर्वैरं च वहन् गत्वाऽऽततायिताम् // 8 // | हृदयं त्वन्निवासं मे तथाग्नेयेषुणाऽदहत् / बाष्पाम्बुना यथा नेत्रैः सिक्तमप्यशमन्नहि / / 83 // तत्वं नाथ घनप्रेखदृष्टिपीयूषवृष्टिभिः / | निर्वाप्य खं दयावीर मां च त्रायख सत्वरम् // 84 // त्रि०वि०॥ तस्याश्छेकोक्तिवैदुष्या धनो दध्यौ चमत्कृतः। प्रमोत्कर्षमहो भंग्या मयि साऽऽख्यत् खचित्तगम् // 85 // कुमारोऽपि प्रतिलेखं लिलिखेति विशेषतः / मृगनाभिरसेनाशु शृंगारेणेव देहिना // 86 // ममोरसि त्वां दधतो रतिरूपविजित्वरीम् / चेतो रतिपतिः कोपात्प्रहरत्यनिशं शरैः // 87 // आवामेनं मिलित्वा तत्करबन्धविधानतः। // 297 // Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 298 // जिनेशचरित्रम्। धनप्रेषितौ लेखहारौ द्वयोर्लमोरसवश्व साधयिष्यावहे शीघ्रमतः सुभ्र! धृता भव // 88 // युग्मम् // इत्थं लेख दत्तमुद्राशृङ्गारं हारमप्यथ / गुणववृत्तमुक्ताभिरामं कामं |* |दृशोः प्रियम् // 89 // धनो धनवतीतुष्टथै समर्प्य खयमादरात् / सत्कृत्य कृत्यविद्द्तं तं वस्त्राद्यैर्व्यसञ्जयत् // 10 // युग्मम् // दूतोऽपि | शीघ्रमागत्याऽकथयत्सिंहभूभुजः / श्रीविक्रमधनेनार्थ कृतिनाङ्गीकृतं मुदा // 91 // आपैयद्धनवत्याश्च लेखहारौ कृतानतिः / आख्यच्च | | ते धनेनेतौ स्वपाणिलिखितापितौ // 92 // आदाय पाणिना हारं कुमारमिव सद्गुणम् / उन्मुद्यावाचयल्लेखं सोल्लेख धनवत्यपि // 13 // |* | तदुक्त्या सुभगाग्रण्या खं तेनाऽङ्गीकृतं हृदि / ज्ञात्वा कदम्बमुकुलोपमेयं सा वपुर्दधे // 14 // अयं हारः स्फारमुक्तासारः स्वभुजयोरिव / / | तेन प्रजिध्ये मूतिमत्कण्ठाश्लेषत्वरावतोः // 95 // चिन्तयित्वेति तं हारं न्यस्य स्वे कण्ठकन्दले / पारितोषिकदानेन सा तं दूतं व्यस यत् // 96 // सिंहराजोऽथ पुण्याहे सहितां वृद्धमंत्रिभिः / प्राहैषीदऽचलपुरे परमर्द्धिबलान्वितैः // 97 // वत्सला विमलापीति कृताप्रश्नां निजा सुताम् / उपदेशमणिमालां निर्मला पर्यधापयत् / / 98 // भयाः श्वशुरयोभक्ता भर्तृश्चित्तानुवतिनी / परिच्छदे दक्षिणा च सपत्नीष्वपि वत्सला // 99 // पत्युः प्रसादेऽनुत्सित्ताऽपमानेऽप्यविकारिणी / स्निग्धा बन्धुजने नित्यं तन्मित्रेषु सनर्मवाक् // 10 // युग्मम् / सलेहमनुशिष्यैवं माता साश्रुविलोचना / भूयोभूयः परिरम्भं सृजन्ती व्यसृजत्सुताम् // 1 // पादोपपीडमानम्य धनवत्यपि मातरम् / चचाल याप्ययानस्था चामरच्छत्रशोभिनी // 2 // साश्चर्यमीक्षिता पौरैः प्रापाञ्चलपुरं क्रमात् / धनस्य मूर्तिभागलक्ष्मीरायातेव स्वयंवरा // 3 // निवेश्य शिविरं तस्थौ बहिरुद्यान एव सा / प्रावर्तत शुभे लग्ने महोद्वाहमंगलम् // 4 // रजन्येव सुधामूर्तिः पौलोम्येव पुरन्दरम् / नवोढया तया रेजे कुमारो नवयौवनः // 5 // रत्येव धनवत्या स रूपेण मकरध्वजः। रममाणोऽनयत्कालं बहुमेकमुहर्त्तवत् // 6 // स विक्रमयमाणोऽश्व दोलत्काञ्चनकुण्डलः। मूर्तिमानिव रेवन्तः प्रापदुद्यानमन्यदा // 7 // चतुर्ज्ञानधरं सर्ग-७ // 298 // Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 299 // चतुर्जानिमुनिपार्श्व पृष्टो विक्रमधनेन स्वमार्थः तत्र मुनि नाम्ना वसुन्धरम् / धर्म दिशन्तमद्राक्षीत्पदपूतवसुन्धरम् // 8 // युवराजस्तं प्रणम्य यथास्थानं निषद्य च / श्रोतुं प्रववृते धर्म शर्मनिर्माणशिल्पिनम् // 9 // धर्मश्रुतिपरतन्त्रं श्रुत्रा मेधाधनं धनम् / श्रीविक्रमधनोऽप्यागाद् भारिणी धनवत्यपि // 10 // | राजा सपरिवारोऽपि संशयच्छेदविस्मितः। रोमाञ्चकञ्चुकं बिभ्रन्मुनेः शुश्राव देशनाम् // 11 // समाप्तदेशनं साधु सोाक्षीद् | गर्भगे धने / स्वमे चूतद्रुमद्राक्षीन्मातोत्कृष्टफलोदयम् // 12 // कोऽप्याख्यत्तत्र नवसु स्थानकेष्वऽस्य रोपणम् / कुमारजन्मनाज्ञायि | तस्यान्योऽर्थो मया प्रभो // 13 // नवस्थानरोपणस्य कथयाऽर्थ प्रसय मे। मनसा केवली पृष्टो दूरस्थो मुनिनाऽप्यथ // 14 // केवलज्ञानतो ज्ञात्वा केवल्यप्यथ साधते / शशंस नेमेश्चरितं भवैवभिरन्वितम् // 15 // मुनिरप्यज्वधेत्विा मनःपर्यायतोऽपि च / सर्व तद्भूभुजेऽशंसदऽसंशयं महाशयः // 16 // गमिष्यति नवोत्कृष्टोत्कृष्टानेष भवास्तव / भवेनानेन तनुजो युवराजो महानृपः // 17 // नवमे च भवेऽरिष्टनेमि न्ना भविष्यति / द्वाविंशो भरतक्षेत्रे यदुवंशजनिर्जिनः // 18 // मुनेर्वचो निशम्येति सर्वे मुमुदिरे हृदि / नृपादयोऽधिकं जैने धर्मे च स्थर्यमादधुः॥१९॥ नत्वा साधु नृपः सौधं ययौ साई धनादिभिः / अन्यत्रानियतस्थायी विजह च वसुन्धरः // 20 // ग्रीष्मेऽन्यदा जलक्रीडां कर्तुं भद्र इव द्विपः। जगाम क्रीडासरसि धनवत्या समं धनः // 21 // दीर्घाध्वभ्रमणश्रान्तो | रसः शान्त इवाङ्गभृत् / क्रान्तो धर्मोमिभिः क्लान्तस्तृषा ताल्वौष्ठशोषवान् / / 22 / / स्फुटत्पदक्षरद्रक्तसिक्तभूर्भूतले पतन् / तत्राऽशोकतरोमले मूर्च्छया व्याकुलो मुनिः // 23 // कृपावत्या धनवत्या संभ्रमोद्भ्रान्तचेतसा / वने विचरतः खैरं धनस्याऽदर्शि कार्यभार // 24 // त्रि०वि०॥ संभ्रान्तमानसौ तत्र तावुपेत्याशु तं मुनिम् / स्फीतैर्विदधतुः शीतैरुपचारैः सचेतनम् // 25 // भक्त्या प्रणम्य तं खंस्थं * धनोऽवादीत्कृताञ्जलिः / धन्यमूर्दाभिषिक्तोऽसि कृतकृत्योऽसि सर्वथा // 26 // मयाऽद्य निर्द्धनग्रामे वसतेव महानिधिः / स्वामिन् / // 29 // Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 30 // ददृशिषेऽशेषः पुण्यैः प्राच्यैः पचेलिमैः // 27 // पर्यन्तदेशे वसतां मादृशां त्वादृशः सह / मेलापो दुर्लभः स्वादुजलैर्मरुनृणामिव | जिनेश॥२८॥ पृच्छामि भगवन् ! कस्मादीदृशी ते दशाऽभवत् / आख्याहि यदि नो खेदो गोप्यं वाऽस्ति न किञ्चन // 29 // उवाच साधुः चरित्रम् / खेदो मे भववासेन तत्त्वतः / शुभोदर्कस्तु खेदोऽय विहारेण जिनोदितः // 30 // मुनिचन्द्राभिधानोऽहं गच्छवासी तपोधनः / श्रि- मुनिवैयातोऽध्वानमनगारा यदुद्यतविहारिणः // 31 // इतश्च ततश्च दिग्मूढः सार्थाद्धीनो वने भ्रमन् / आगामिह तृषाक्रान्तो मूर्च्छया चापतं | वृस्यं भुवि // 32 // युवयोरूपचारैश्चाऽपमूच्र्छश्चेतना पुनः / प्रापं प्रत्युपकाराय धर्मलाभोऽस्तु सम्प्रति // 33 // मूर्च्छया गतसंज्ञोऽहमक धनधनवती दीक्षा च स्मादभवं यथा / भवेत्र तादृशं सर्व तद् धर्मः शरणं नृणाम् // 34 // यथाहि विपदोमुष्या युवाम्यामुद्धृतोऽस्म्यहम् / धर्मस्तथापदम्भोधौ निमनं त्रायते जगत् // 35 / / तस्माच्च साधोराख्यतवतो धर्म द्विमेदतः / सम्यक्त्वमूलं गृहिणामाददे सप्रियो धनः // 36 // | प्रत्यलाभि गृहे नीत्वा भक्तपानैर्द्धनेन सः। मासं यावदवास्थापि सम्यग् धर्म च शिक्षितुम् / / 37 // पूर्णे कल्पे विहृत्याथ साधुर्ग| च्छस्य सोऽमिलत् / निपुणौ श्राद्धधर्मे चाभूतां धनवतीधनौ // 38 // पुराऽप्यनन्यसामान्यं तयोः प्रेम किमप्यऽभूत् / पुनर्विशेषि धम्मॆक्यात्सुवर्णमिव सौरभात् // 39 // पित्रा न्यवेशि स्वे राज्ये धनो निधनयायिना / अपालयच्च सुश्राद्धधर्मास्थित्या समं महीम् | // 40 // उद्यानपालस्तस्याऽऽख्यदऽन्यदेति वसुन्धरः / आयातपूर्वी देवाऽगादुद्याने त्वद्गुरुर्मुनिः // 41 // धनवत्या सह धनो राजा गन्ना * * ननाम तम् / शुश्राव भववैराग्यकरी तस्माच्च देशनाम् // 42 // संसारवासादुद्विमो धनो धनवतीभवम् / सुतं जयन्तं पुण्येऽन्हि निज राज्ये न्यवीविशत् // 43 // वसुन्धरान्मुनेर्दीक्षां धनराजः सहप्रियः। धनदत्तधनदेवभ्रातृभ्यामन्वितोऽग्रहीत् // 44 // तं राजर्षि तपो- // 30 // | निष्ठं द्विधा शिक्षाविचक्षणम् / दृष्टपारं श्रुताम्भोधेस्थित्सरिपदे गुरुः // 45 // स प्रबोध्य बहून् राज्ञो यतिश्रावधर्मयोः / भ्रातृभ्यां सर्ग-७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 * द्वितीयभवे * // 301 // * * धनवत्या च सहाऽनशनमाददे // 46 // मासस्यान्ते समाप्यायुः सौधर्मे भ्रातरौ सुरौ / धनो धनवती चास्तां शक्रसामानिको पुनः // 47 // अत्रैव भरते रूप्यगिरेरुत्तरपंक्तिगे / सुरतेजःपुरे विद्याधरेन्द्रः सुर इत्यभूत् // 48 // परोपकारिणः सर्वजगत्तापापहारिणः / | तस्य विद्युत्धनस्येवाजनि विद्युन्मती प्रिया // 49 // धनजीवश्युतः स्वर्गात्तस्याः कुक्षौ सरोजवत् / जज्ञे चित्रगतिर्नाम्ना हंसचित्रगतिः सुतः // 50 // शनै ल्यमतिक्रामन् स कलाभिः सुधांशुवत् / चक्रे चकोरचक्रस्य हर्षवर्षमनारतम् // 51 // इतश्चास्यैव रूप्याद्रेर्दक्षिण श्रेणिभूषणे / अनंगसिंहो राजासीत् पुरे श्रीशिवमन्दिरे॥५२॥ शशिप्रभायास्तत्पत्न्याः कुक्षौ मणिरिवाकरे। अवातारीद्धनवतीजीवः | सौधर्मतश्युतः // 53 // साऽभूत विबुधानन्दकन्दकन्दलनक्षमाम् / सम्पूर्ण समये पुत्री सुधामिव शशिप्रभा // 54 // बहुपुत्रोद्मजातेति | | साभृत्पित्रोरतिप्रिया। दत्तरत्नवतीत्याख्या लतेवाऽनूपजाबृधत् // 55 // कलाश्च सकलाः शीघ्र जग्राह स्त्रीजनोचिताः। सा क्रमाद् | | यौवनं प्राप्ता संभृतं मण्डनं तनोः // 56 // कुमुद्वत्या इवास्याः कः पुत्र्याः स्यादिन्दुवद्वरः। पित्रेति पृष्टो दैवज्ञः कथयामासिवानिति // 57 // योऽसिरनं तवाच्छेत्ता दिव्या यस्य च मूर्द्धनि / सिद्धचैत्यस्तुतिकृतः पुष्पवृष्टिभविष्यति // 58 // स एव भूप! त्वत्पुत्रीमिमां | रत्नवतीं वरः / शुद्धपक्षद्वयो हंस इव हंसी विवक्ष्यति // 59 // युग्मम् // इति विद्याधराधीशः श्रुत्वा तुष्टमनाः स्वयम् / संप्रीण्य प्रीति* दानेन निमित्तझं व्यस यत् // 60 / / इतश्चात्रैव भरते पुरे चक्रपुरे नृपः। सुग्रीवोऽभूनमदीवरमित्रैरपि संश्रितः॥६॥ पत्न्यां तस्य || यशस्वत्यां सुमित्रोऽभूत्तनुद्भवः / पद्मनामा तु भद्रायामग्रजावरजौ च तौ // 62 // तयोः सुमित्रः श्रीजैनशासनस्थः कृपापरः / गम्भीरो | विनयी दक्षोऽवरजस्तद्विपर्ययः॥६॥ जीवत्यस्मिन्न मत्स्नो राज्यं स्यादिति जानती / नाम्नैव विष्टिवद् भद्रा सुमित्राय विषं ददौ || // 64 // संचारिते तमखिन्या तयाशु ध्वान्तवद् विषे / सुमित्रे व्यसनं प्राप्ते चित्रं पदो व्यकास्थत // 65 // मूर्छया लुठिताद भमौ तृतीयभवे खेचरेन्द्र पुत्रचित्रगतिर्नाम्ना अन्याऽनङ्ग सिंहपुत्री रत्नवती नाना * * * * // 301 // * * * Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेश // 302 // चरित्रम् / |चित्रगतेः सुग्रीवपुत्र सुमित्रस्य विषोत्ता सुमित्राद् वारिधेरिख / विषस्य प्राणनाशिन्यो लहर्यःप्रासरन् भृशम् // 66 // सुग्रीवराजः संभ्रान्तस्तत्रागान्मत्रिभिः सह। अचीकरतत्रमत्रान् विषवेगोपशान्तये // 67 // नोऽशाम्यन् विषवेगास्तु भूयोभिरपि तैः कृतैः। ददौ भद्रा विषमिति प्रवादोऽयमभूत्पुरे // 68 // सा पलाय्य गता काऽपि स्वापराधेन बिभ्यती / शान्तिकाय नृपोऽकार्षीजिनस्नात्रार्चनादिकम् // 69 // स्मारं स्मारं सुमित्रस्य स्वपुत्रस्य गुणान्नृपः / मुक्तकण्ठं विललाप समं सामन्तमत्रिभिः // 70 // तदा तेजस्विनां नाथे सुमित्रे म्लानिमीयुपि / जज्ञे चक्रपुरस्यान्तर्युक्तं दुःखं सुदुःसहम् / / 71 // तदानीं च चित्रगतिः कौतुकेन भ्रमन् दिवि / तत्र प्राप्तो विमानेन सशोकं पुरमैक्षत // 72 // विज्ञाय विषवृत्तान्तं विमानादवतीर्य च विद्याभिमत्रितस्तोयैः सुमित्रमसिञ्चत्ततः॥७३॥ पृच्छन् किमेतदित्युच्चैः सुमित्रः स्फारितेक्षणः / स्वस्थचेताः समुत्तस्थावहो मत्रमहोऽधिकम् // 7 // राजाऽऽख्यद्वत्स ते माता भद्राऽदात् विषमं विषम् / महाप्रभावेणाऽनेनाऽशाम्यऽकारणबन्धुना // 75 / / जगन्नेत्रे श्रीसुमित्रे पुनः प्राची दिशं श्रिते / अस्तोकश्चक्रलोकस्याऽभूत्प्रमोदमहोत्सवः // 76 // सर्वाशाः पूरयत्यत्र खप्रभाप्रसरैः पुनः। पद्मो मुकुलितश्चित्रं मुंग्येवाऽत्याजि भद्रया॥७७॥ उत्थाय प्राणदातारं तदा तारं स्वकीर्तिभिः। नत्वा खेचरमानन्दी बन्दीवोवाच संस्तुवन् // 78 // कुलादिसर्व विज्ञातं परोपक्रिययैव ते / तथापि खान्वयाख्यानात् स्वामिन्ननुगृहाण माम् // 79 // सखा चित्रगतमत्रिपुत्रः स सहचरस्ततः / शशंस वंशनामादि सर्वेषां हर्षवर्षकत // 80 // सुमित्रोऽथाऽभ्यधान्मित्रोपकी विषदापि मे / विमाताऽभूत्त्वया सार्द्ध संगमः स्यात्कुतोऽन्यथा // 81 // त्रातोऽहमेककृती न मित्रात्रैव त्वया भवे / मृत्योः किन्तु बहुकृत्वः प्रेत्याप्याराधनोज्झितः // 82 // लोके नवाम्बुदस्येवार्कस्येव कमलाकरे। किं? ते प्रत्युपकृत्य स्यामतुल्योपकृतोऽनृणः // 83 // ऊचे तमिति जल्पन्तं चित्रं चित्रगतिर्वचः / पुण्यक्रियैव ते शश्वन्ममास्तु प्रत्युपक्रिया // 84 // आनन्दाश्रुजलैत्रकलशप्रसूतैस्ततः / सुतः पदा // 3 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 303|| न्तप्रणतः पितृभ्यामभ्यषिच्यत // 85 // ताभ्यां चाभ्यधिकस्नेहाखेचरः परिरभ्य सः। दिव्यालंकृतिवत्राद्यैरनिच्छन्नपि सत्कृतः॥८६॥ सुयश के आपप्रच्छे श्रीसुमित्रं मित्रं गन्तुं निजे पुरे। सतां न स्याजनिस्थानोत्कण्ठा कुण्ठा कथश्चन // 87 // सुमित्रोऽप्यवदन्मित्र! सुयशाः वलिदेशना केवली मुनिः / आसन्नो विहरन्नत्राऽप्यागमिष्यति निश्चितम् / / 88 // ततस्तमागतं नत्वा ख सखे गन्तुमर्हसि / सुखेन गमयस्वेह तेषामा| गमनावधिम् // 89 // तथा चके चित्रगतिः कियद्भिर्वासरैरथ / सुयशाः केवली साधुस्तत्रोद्याने समाययौ // 10 // सिक्त्वा गन्धोदक मि खर्णाजे स्थापिते सुरैः। मुनिनिषेदिवान् साक्षाद् ब्रह्मेव चतुराननः॥११॥ कौतुकेन चित्रगतिसुमित्रौ तत्र चागतौ। कल्पद्रुमिव तं | दृष्ट्वा नत्वा चाग्रे निषेदतुः // 92 // देवकोलाहलाद् ज्ञात्वा श्रीसुग्रीवनृपोऽपि तम् / एत्यानमदमीषां च सोपि धर्ममुपादिशत् // 13 // | द्वावेव मागौं गन्तूनां जन्तूनां मोक्षपत्तने / प्राञ्जलौ साधुसुश्राद्धधम्मौ शौचदायकौ // 14 // द्वैतीयीकः स्तोकवनोऽप्यवक्रोग्रेतनस्य * यत् / मिलित्वा प्रापयत्येव भव्यान्मुक्तिमहापुरीम् // 95 // कल्पद्रुकामधुचिन्तामणिप्रभृतयः खलु / अनन्तसौख्यदस्याहद्धर्मस्य / * पदपांशवः // 16 // इति चित्रगतिः श्रुत्वा जगाद ज्ञानिनां वरः / त्वयाऽस्मि बोधितः साधुर्मोहदारित्र्यबाधितः // 97 // इयत्कालं कुला-ING यातमप्यहं गृहिणां यतः। निधिवनाबुधं धर्म निर्भाग्यैकशिरोमणिः // 98 // मित्रं सुमित्र एवायमतुल्योपतिर्मम / यस्त्वामदर्शयज्ज्ञाननिधिं दौर्गत्यवारणम् ॥१९॥ज्ञानिनाऽस्य मनःस्थाने सिक्तो बोधामृतस्ततः / न्यस्तः सम्यक्त्वकल्पद्रुर्ब्रतशाखामनोहरः // 20 // प्रणम्य ज्ञानिनं राजापाक्षीदस्य सुतस्य मे / विषं दत्वा नाममात्रभद्रा भद्राऽगमक्क सा ? // 1 // मुनिराख्यदितो नंष्ट्वा प्रयान्ती तस्करै| वने / आच्छिद्याऽलंकृतीः पल्लिखामिने सा समपिता // 2 // तेनापि वणिजः पार्श्वे व्यकीयत ततोप्यथ / नष्टा दवाग्निना दग्धा सा // 303 // ययौ प्रथमावनीम् // 3 // तबृता च चाण्डाली भवित्री गर्भिणी च सा / हता सपल्या कलहे तृतीयां भुवमाप्स्यति // 4 // तन्नि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASSदाय यथारमा पन्तमिति सह तेनाथ पुत्रस्य पानी जो कालाखेचर्घा 3 श्रीअममजागता च तिर्यक्ष्वुत्पद्य सा संसृतौ चिरम् / भ्रमिष्यति भवत्सूनोविपदानाजितांहसा // 2 // तनिशम्य नृपो दध्यौ पापं सा यत्कृतेऽ जिनेशकृत / सोऽत्रास्ते नरके सा तु प्राप्ता वत्सलता हहा // 6 // संसारः सत्यमुग्रोऽयं यद्विषेण जनन्यपि / विनिहन्ति सूतं क्रूराशया त्या- | चरित्रम् / // 304 // ज्यः सतां ततः // 7 // भवोद्विग्नो सुमित्रोऽथ पितरं प्रोचिवानिति / कर्मबन्धकरं धिधिग् मां मातुरपि पापिनम् // 8 // तत्प्रसीदा- विपदात्रीऽनुमन्यस्व प्रव्रज्यामधमपिणीम् / ताताऽऽदाय यथात्मानं विशुद्धानां धुरं नये / / 9 / / श्मशान इव संसारे तिष्ठेत्कोत्र भयंकरे / नन्ति भद्रास्वरूपं यस्मिन् जनन्योऽपि शाकिन्य इव निःकृपाः // 10 // जल्पन्तमिति सुग्रीवः प्रग्रीवः प्रशमश्रियः / प्रतिषिध्याज्ञया पुत्रं पात्रं विनय सुग्रीव दीक्षा च सम्पदः॥११॥ राज्ये निवेश्य जग्राह स्वयं केवलिनोऽन्तिके। संयम सह तेनाथ विजहार तपश्चरन् // 12 // पं० कु० // प्रवेश्याथ * चक्रपुरे सुमित्रं नृपमुत्सवात् / आपृच्छ्य त्वगमच्चित्रगतिः सूरपुरे चिरात् // 13 // भद्रापुत्रस्य पद्मस्य ग्रामान कत्यप्यदान्नृपः / दुर्बु| द्विस्तैस्त्वसंतुष्टः स निर्गत्य क्वचिद्ययौ // 14 // इतो रत्नवतीभ्राता कमलोऽनंगसिंहभूः / सुमित्रभगिनी जडू कलिङ्गक्ष्मापगेहिनीम् / 15 / / ज्ञात्वा चित्रगतिमित्रं सुमित्रं दुःखितं चरैः। आनेष्येऽन्विष्य ते जामि निजदूतमुखादिति / / 16 / / आश्वास्य खेचरैर्बुद्धा क मलेन हृतां च ताम् / वेगादगात् सर्वसैन्यनगरे शिवमन्दिरे॥१७॥ चाटुकारं तत्र मित्रस्वसुर्दीनमुखश्रियः / उद्यानेऽभापयच्चित्रगतिः सर्ग-७ * कमलमाकुलम् // 18 // अनंगसिंहः स्वसुतपराभवरुषाऽगमत् / सैन्यैरदैन्यैर्युद्धाय श्रीचित्रगतिना सह // 19 // स्फूर्जन्महाः सहानेन | युद्धं चित्रगतिय॑धात् / चक्रे प्रहृतसर्वास्त्रं क्रमेणाऽनंगभूपतिम् // 20 // रणे चित्रगतिं ज्ञात्वाऽनंगसिंहोऽथ दुर्जयम् / जिगीपुश्चास्मरत // 304 // खड्गरत्नं देवतयार्पितम् / / 21 / / ज्वालाकरालमुत्तालं कालवत्रासकृद् द्विपाम् / खड्गरत्नं क्षणात्तस्याऽलंचक्रे दक्षिणं करम् // 22 // स खरं नर्तयन्नूचे नश्य रे रे शिशो द्रुतम् / खण्डयिष्यामि ते मौलिमन्यथा बिशकाण्डवत् // 23 // सर्ग Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 305 / / *38* युद्धे जित्वाऽपिता सुमित्रस्य | भगिनी चित्रगतिना *45 स्मित्वा चित्रगतिः प्रोचे लोहखण्डबलेन भोः / किं ? दृप्तोऽसि विगुप्यन्ति युद्धे निजबलोज्झिताः॥२४॥ उक्त्वेति विद्यया चक्रे स तत्रान्ध्यकरं तमः / तद्येन तमपश्यन्तो निश्चेष्टत्वं द्विपो ययुः॥२५।। अलक्ष्यो देवगतिवत्खड्गं चित्रगतिद्रुतम् / अनंगहस्तादाच्छिद्यादाय मित्रसहोदराम् // 26 // नीत्वा चक्रपुरे शुद्धशीलां निर्व्याजसौहृदः / सुमित्रस्याऽपयित्वा च वैताढयेगात्स्वपत्तने // 27 // | युग्मम् / / मायाध्वान्ते प्रशान्तेऽथानंगोऽद्राक्षीन्न हस्तगम् / खड्गरत्न (स्वविद्विपं) पुरश्चित्रगतिं च तम् // 28 // क्षणं विषादकलुपो ज्ञानि| वाक्स्मृतिपूर्णतः / स प्रासीदत् खड्गहरं भाविजामातरं विदन् / / 29 / / कथमज्ञातनामान्ववायः स ज्ञास्यतेऽथवा / सिद्धचैत्यपुष्पवृष्टिस्तं वदित्रीत्यगाद् गृहम् // 30 // अग्रेप्यासीत्सनिर्वेदः संसृतौ कुसृताविव / सुमित्रो जामिहरणवैधुर्यात्वऽभवद् भृशम् // 31 // राज्ये न्यस्य | * सुतं चित्रगतिमाह्वाय्य चाग्रहीत् / व्रतं सुमित्रः सुयशःसाधोगत्वान्तिके मुदा // 32 // स राजपिस्तप्यमानस्तीबं गुर्वन्तिके तपः।। प्रज्ञालः किश्चिदूनानि पूर्वाण्यधिजगे नव // 33 // गुर्वादेशादसावेको विहरन्नवनीतले / मगधेषु गतो ग्रामादहिः प्रतिमया स्थितः N // 34 // वैमात्रेयेण पब्रेन दैवात्तत्रेयुषेक्षितः / स साम्यरम्यसद्ध्यानलीनो मेरुवि स्थिरः // 35 // कृष्ट्वा बाणासनाद् बाण सोऽवधीत्तं o मुनि हृदि / मिलनायोत्सुको मन्ये स्वमातुनरकं गमी // 36 // मां निघ्नतापि नाघाति धर्मोऽनेन ममेत्यतः / कारिजयसाहाय्या| दुपकार्यप मित्रवत् // 37 // अपाकारि मयैवास्याऽदायि राज्यं पुरा न यत् / सर्व तत् क्षमतामेप शेपजन्तुगणश्च मे // 38 / / इत्थमारा धनां कुर्वन् संस्मरन् पंचमंगलम् / मृतः सुमित्रोऽभूद् ब्रह्मलोके सामानिकामरः // 39 // पद्मस्त्वगात्सप्तमोर्त्यां दष्टो दुष्टाहिना पुनः / | कालेन कुपितेनाहौ स मृत्वाऽकृष्यत ध्रुवम् // 40 // ज्ञात्वा मृत्यु सुमित्रस्याऽशोचीचित्रगतिभृशम् / चकार चाष्टमद्वीपचैत्ययात्रां विविक्तधीः // 41 // चत्रे यात्रोद्यमानन्दी नन्दीश्वरवरे तदा / विद्याधरगणोऽप्येत्याहत्पूजोत्सवमातनोत् // 42 // पुच्या समं रत्नवत्या A-ARPRASHAP // 305 // Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 306 // जिनेशचरित्रम् / देवपुष्पवृष्टिः / पतिता चित्रगति मस्तके ऽनंगसिंहोऽपरेऽपि च / खेचराः सत्वरास्तत्राजग्मुः कृतजगन्मुदः // 43 // तत्र चित्रगतिः कृत्वा विचित्रां शाश्वताहताम् / द्रव्यतो भावतश्चार्चा चक्रे वाचाऽर्थचित्रया // 44 // धन्याः पश्यन्ति ते नाथ ! श्रेयोवाट्यामुख सुखम् / यद्वीक्षणाक्षणादेव देव! नश्यति | कल्मपम् // 45 // यदस्ति यदभूद्यच्च भावि मे जन्म तन्मया / पुण्यवन्नाथ ! निश्चित्ये प्राप्य त्वदर्शनोत्सवम् // 46 // लक्षणस्याप्यगम्योऽयमर्थः स्यान्मध्यमोऽपि यत् / उत्तमः पुरुषो युष्मत्पदयोगेन सर्वथा // 47 // मन्ये मर्दाभिषिक्तोऽहं मानां त्वमदीदृशः। यल्लोचनसुधावर्ति मूर्ति स्वामीदृशस्य मे // 48 // कल्पद्रुकामधुचिन्तामणिभ्योऽप्यतिदुर्लभाम् / त्वत्पादसेवामेवाहमर्थये सर्वथा प्रभो! // 49 // कृतैः कैः सुकृतैर्लक्ष्मीमीदृक्षामहमासदम् / इति दध्यौ ब्रह्मलोके श्रीसुमित्रसुरस्तदा // 50 // प्रेमस्थेमाविस्मृतस्य तदा | तस्य हृदि स्मृतः / मित्रं चित्रगतिर्दिव्यश्रीप्राप्तेर्मूलकारणम् // 51 // तं नन्दीश्वरचैत्यान्तः कुर्वाणं स तदा मुदा / द्वेधाऽप्यों निरीक्ष्याऽगाद् वेगात्प्रेम्णातिनिर्भरः॥५२॥ मूनि चित्रगतेः स्तोत्रं पटतस्तोपवानऽयम् / विद्याधरेषु पश्यत्सु पुष्पवृष्टिं विनिर्ममे // 53 // नेमे चित्रगतिः सर्वैविंगर्वैः खेचरैस्ततः। निश्चिक्येऽनङ्गसिंहेनाप्ययमात्मसुतावरः // 54 // सुरश्चित्रगति स्माहोपलक्षयसि मां किमु / सोऽप्य वे वेभि देवं त्वां जात्या व्यक्त्या पुनर्नहि // 55 / / सुमित्ररूपिणं देवं प्रेक्ष्य चित्रगतिः पुनः / आलिंग्योचे मया प्रापि *धम्मोऽयं त्वत्प्रसादतः // 56 // देवोऽप्यूचेऽनुग्रहाते दिव्या श्रीभुज्यते मया। विपाा मे मृतस्य स्यादन्यथा मर्यतापि न // 57 // कृतज्ञयोस्तयोरिन्थमन्योन्यमाप्रशंसतोः। श्रीसूरचक्रवामुमुदे खेचरेश्वरः // 58 // चित्रं चित्रगतेदेहे लावण्यामृतनिर्भरे / | तृप्ति रत्नवतीदृष्टिलेभे मरुमृगीव न // 59 / / एतां च निर्दयः पंचशरः शवरवत्तदा / हृदये ताडयामास शैरराकर्णपुखितः // 6 // अनंगसिंहस्तां वीक्ष्य विधुरामिति दध्यिवान् / आख्यातं सत्यमेवाद्य जज्ञे ज्ञानिनाऽखिलम् / / 61 // जहे सौ खड्गरनं मे पुष्पवृष्टि सर्ग-७ // 30 6 // Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 307 // चित्रगतिरत्नवत्यो लग्नम् | मथान्वभूत् / राग जागरयामास मत्पुत्र्याश्चाशु दर्शनात् // 62 // वरोऽयं रत्नवत्याश्चानुरूपो ज्ञानिनौच्यत / विश्वऽप्यनेन जामात्राऽभवं मात्राधिको नृषु // 63 / / वक्तुं युक्तं न सम्बन्धादिकं देवगृहेऽधुना / ध्यात्वेत्यनंगसिंहोगात्स्वस्थानं सपरिच्छदः // 64 // सुमित्रदेवं सम्भाष्य व्यसाक्षीत् खेचरानपि / पित्रा समं चित्रगतिरपि स्वास्पदमागमत् // 65 // अनंगसिंहः श्रीसूरचक्रिण निजमंत्रिणा / विनीतेनेत्यभाषिष्ट विशिष्टप्रणयान्वितः // 66 // देव ! चित्रगतिश्चित्रगतिरूपादिभिगुणैः। लोकोत्तरैः सुतस्तेऽसौ चित्राय धुसदामपि // 67 / इयं च पुत्री मे रत्नवती रत्नवती भुवं / अनाहार्यस्य कुरुते स्वसौन्दर्यस्य लीलया // 68 // रत्नयोरनयो| योगं कुरु विज्ञाग्रणीरसि / ईशिपे च विवाहाय त्वमेवेहाद्रियस्व तत् // 69 / / शूरोऽपि प्रतिपद्याशु तद्वचो गणकार्पिते / तयोः सुलग्ने | वीवाहमुत्सवेन विनिर्ममे // 70 // तया साद्धं सम्मिण्या धर्मकामावसेवत / पुष्टोऽप्यर्थेन सख्येव शश्वचित्रगतिः सुखम् // 71 // मनोगतिचपलगत्याख्यौ तौ तस्यैव चानुजौ / जातौ च्युत्वा धनदेवधनदत्तसुरौ दिवः // 72 / / पूर्णपार्श्वः स ताभ्यां च रत्नवत्या च | निर्ममे / महेन्द्रवरखेचरोऽयं यात्रां नन्दीश्वरादिपु / 73 / / असौ विदेहभरतैरावतेष्वर्हदन्तिके / धर्म शुश्राव बन्धुभ्यां प्रेयस्या चा|न्वितः सुधीः / / 74 // सूरश्चक्री न्यस्य राज्येऽन्यदा चित्रगतिं सुतम् / प्राज्यं संयमसाम्राज्यं प्रपद्यागात्परं पदम् // 75 / / बह्वीः | विद्याः साधयित्वा द्वेधा शूर इवौजसा / अनेकान् खेचरपतीन् पत्तींश्चक्रे स हेलया // 76 / / मणिचूडे स्वसामन्ते मृते राज्यामिपेच्छया। | तस्य पुत्रौ शशिसूगै सवेरी पक्षिवन्मिथः // 77 / / विभिद्य दत्वा तच्चक्रवर्ती चित्रगतिः स्वयम् / धर्म्यवासिः प्रबोध्याऽतिष्ठिपत्सु रुवत्पथि // 78 // युग्मम् // तौ करिण्यामिवैकस्यां लक्ष्म्यां लुब्धौ तथापि धिक् / मत्ती बनेभवद् युद्धा मिथोऽन्येधुर्व्यनश्यताम् // 79 / / वार्ती चित्रगतिः श्रुत्वा तयोस्तामतिदुःश्रवाम् / इत्थं शमकृतारोग्यं वैराग्यं हृदि शिश्रिये // 80 // लक्ष्मीरुत्पादिता पित्रा 30 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 308 // यदि तद्भगिनी नृणाम् / आत्मना चेत्तनूजा तत्परस्त्री त्वन्ययोगिनी // 81 // अस्यास्तत्सर्वथा त्याग एव युक्तः सतामिह / क्षणिका-* जिनेश| क्षणिकयोस्तु नैव भोगः कथञ्चन // 82 // युग्मम् / / स्वयंकृताभ्यां दारिद्रयैश्वर्याभ्यां त्यागयोगतः / विडम्बयति याऽधर्मिसंगादिव | चरित्रम् / चला जगत् // 83 // सोदरा कालकूटस्य हन्ति स्वार्थिनो जनान् / प्रापयत्यपि पाथोधिपाथोऽभ्यस्तामधोगतिम् / / 84 // पण्यस्त्रियः दीक्षां प्रपाश्रिय इव तस्याः पापात्मनः कृते / हा हारयन्ति दुःप्रापं मर्त्यवं मूर्खशेखराः // 85 // यथा तृणाय मन्यन्ते देहं लक्ष्मीकृते जडाः / ल्य माहेन्द्र चित्रगति तथा चेन्मुक्तये न्यूनं तदा स्याद्देहिनां किमु ? // 86 // विमृश्येति स्थिरं बिभ्रद्वैराग्यं प्रातरिन्दुवत् / संसाराद् भैरवाद्विभ्यद् द्वेधा वोजातः विषयनिस्पृहः // 87 / / पुत्र पुरन्दरं नाम्ना ज्येष्ठं रत्नवतीभवम् / राज्ये सुलग्ने संस्थाप्य महोत्सवपुरसरम् // 88 // सोदराभ्यां समं ताभ्यां रत्नवत्यापि चाग्रहीत् / खेचरेन्द्रश्चित्रगतिः सूरेदमधराद् व्रतम् // 89 // स०कु० // तपस्तत्वा चिरं कृत्वा खड्गधाराशित व्रतम् / पादपोपगमं चान्ते श्रित्वा चित्रगतिर्मुनिः // 90 // मृत्वा महर्द्धिर्माहेन्द्रे कल्पे समभवत्सुरः / प्रापुस्तत्रैव देवत्वं भ्रातरौ रत्नवत्यपि // 91 / / इतश्च प्रत्यग्विदेहसरोलंकारकारणम् / विजयः पद्म इत्यास्ते राजहंसविलासभूः // 92 // पुरं सिंहपुरं तस्मिन्नस्ति वैरीभभंगकृत् / उपान्ते केशरैर्विद्युत्पिञ्जरैरभिभासुरम् // 13 // हरिणन्दीति तत्रासीद् दासीकृतरिपुर्नृपः / यत्प्रतापप्रदीपस्य नभः कपरवद् बभौ // 94 // तस्य प्रिया स्मराभीष्टदर्शना प्रियदर्शना / ययाऽऽस्यनिर्जितो दास्यमंकयित्वेन्दुराप्यत // 95 // च्युत्वा चित्रगतेर्जीव सर्ग-७ स्तुर्यात्कल्पात्तयोः सुतः / अपराजितनामाऽभूदग्रधामांशुमानिव // 16 // / अयं पालयिता प्रौढो मामित्याशावशादिव / एकयापि पञ्चमूर्तीभूय धाव्या न्यवद्धिं सः // 97 / / क्रमात्कलाभिस्तं वीक्ष्य वृत्तमुन्मु- // 308 // क्तशैशवम् / शिवाय यौवनश्रीरप्याः स्त्रीणां कामिने स्पृहा // 98 // न्यास्थत् तदंगे लावण्य(भासुरं) तु कुतो विधिः / सुरासुरनृणां सृष्टौ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 309 // -48-84838 पञ्चमभवे सिंहपुरेशहरिणन्दीपुत्रोऽपरा जित व्ययितं तेन यत्पुरा // 99 // आसीद्विमलबोधाख्यः सुहृद् मंत्रिसुतोऽस्य च / सदोदयव्ययः सूर्यस्येव रश्मिसमुच्चयः // 300 // अन्यदा बाह्यवाह्याल्या हृत्वाऽरण्ये दवीयसि / वैरिभ्यामित्र निन्याते दुष्टाश्वाभ्यामिमौ जवात् // 1 // तत्रावतीर्य तौ वीर्यजितक्षितिमहाभटौ। तृषातुरौ तुरंगौ स्वौ यावत्सरसि निन्यतुः // 2 // श्लथाङ्गबन्धनौ द्वेधा तावत्तौ वाजिनौ श्रमात् / विपेदाते विदेशाध्वदर्शने लग्नकाविव // 3 / / कुमारमंत्रिपुत्रौ च तत्खेदाद् गलितश्रियौ। न्यायधर्माविव कलेर्माहात्म्याजज्ञतुः क्षणम् // 4 // ऊचेऽपराजितो मंत्रीपुत्र| मावामहो हतौ / दिष्ट्याऽश्वाभ्यां कुतो दृश्याऽन्यथाऽऽश्चर्येभृता मही // 6 // वियोगकातरौ नानुमन्येतां पितरौ यतः। आपृच्छमानावावां तत् साम्प्रतं साध्वऽभूदिदम् // 6 // विसोढं दुःसहमपि दुःखमश्वापहारजम् / पितृभ्यामावयोस्तेन भ्रमिष्यावः सुखं भुवम् / / 7 / / प्रपेदे तद्वचो यावन्मंत्रिसूस्तावदागमत् / तत्राऽकस्माद्रक्ष रक्षेत्युच्चैल्पन्नरः पुनः // 8 // अशरण्यं शरण्यस्तं सभयं निर्भयस्ततः / माभै* भरित्यवोचत् सुतरामपराजितः // 9 // उवाच मंत्रिसदेव ! सहसैवं किमभ्यधाः / यद्यन्यायी भवेदेष त्वत्प्रतिज्ञा तदा वृथा // 10 // कुमारोऽब्रवीदुच्चैस्तं क्षत्रियाणां क्रमो ह्ययम् / असाधोर्यदिवा साधो रक्षणं शरणार्थिनः॥११॥ निर्भीर्यावन्नरः सोऽभूत्तावदारक्षकाः | क्षणात् / ऐयुर्हत हतेत्युच्चेजल्पन्तः कृष्टरिष्टयः / / 12 / / मुक्त्वाऽमुं दूरतो यातं पान्थौ ! चौरो ह्ययं खलु / मुपिताशेषनगरो राजादेशाद् मा हनिष्यते / / 13 / / ऊचेऽपराजितः स्मित्वा मामयं शरणं श्रितः / हन्तुं न शक्यः शक्रेणाऽप्यन्येषां तु कथैव का // 14 // तदारक्षवलं || योद्धं वाद्धिवत्प्रसरत्तदा / पपौ खगः कुमारस्याऽगस्तिवद् यमदिश्रितः // 15 // तेनैवं व्यथिताः शौर्योद्भटास्ते सुभटास्ततः। आशु विज्ञपयामासुर्नष्टा ख कोशलं नृपम् // 16 / / राज्ञापि प्रहितां कोपाद्वाहिनीमतिवेगिनीम् / उदन्वान् विदधे खङ्गः कुमारस्य पराङ्मखीम // 17 // स्वसैन्यदैन्यकुद्धोऽथ स्वयं कोशलभृपतिः / आगात्सर्वाभिसारेण योद्धमारुह्य हस्तिनम् // 18 // चौरं त्रातुं कुमारोऽपि REE-A-32- // 309 // * H Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 310 // ॐ82159-2451- 22488%AS PR*HER निरोप्य सचिवात्मजम् / अभिमानगजारूढो डुढोके रणकर्मणि // 19 // रोमाश्चमेचकरुचेस्तद्धजस्यान्तकारिणः / जिह्वासिलता जिनेशऽऽकृष्टा रेजे वैरिविनाशिनी // 20 // शौर्य कोशो बलं बाहुः खगो मंत्री मनः सुहृत् / यस्य तस्योचितो राज्ञा सहैकस्यापि विग्रहः / चरित्रम्। | // 21 // न्यस्यैकस्य पदं दन्ते दन्तिनः स च सिंहवत् / कुम्भे गत्वा भटं हत्वा तदत्रौघेरयुध्यत // 22 / / चमूजने भज्यमाने प्रत्य- चौररक्षणाभिज्ञाय केनचित् / आचख्ये मंत्रिणा राक्षे दरिणन्दिसुतो ह्ययम् / / 23 / / नाम्नाऽपराजितो नीरः संग्रामेष्वपराजितः / युद्धे कस्ते त द् युद्धजाते पराजितविनकः स्यात्ससैन्यस्य सम्मुखः // 24 // युग्मम् // युद्धान्निवार्य स्वान्वीरान् कोशलेशोऽपराजितम् / एह्यालिङ्ग मे सुतोऽसि मित्रस्य कोशलेन हरिणन्दिनः // 25 // पराजयो मे त्वत्तस्ततो नैव त्रपाकरः / तदेहि स्वगृहाद्दिष्ट्या प्राप्तोऽसि स्वगृहं यतः // 26 // आलप्येत्यालिलिंगैनं विवाहिता | स गजस्थो गजस्थितम् / प्रतिपन्नं सतां मित्रपुत्रेष्वप्यऽन्यथा किमु ? // 27 / / कुमारोऽपि पितुर्मित्रं ज्ञात्वा तन्मंत्रिणो गिरा। नम्रो स्वपुत्री नीत्या विनत्या च लजया चानमन्नृपम् / / 28 // भूपः कुमारमारोप्य स्वहस्तेन वहस्तिनि / स्वपुत्रमिव वात्सल्यान्निनाय निजमन्दिरे |29|| विसृज्य चौरं विमलबोधोऽप्यागत्य पृष्ठतः। तस्याऽमिलत्तस्थतुश्च सुखं तत्राऽवियोगिनौ // 30 // सुतां कनकमालाख्यां कुमारेण नरेश्वरः / व्यवाहयन्नगाधीशः शंकरेणेव पार्वतीम् // 31 // पृथ्वीकुतूहलालोकोत्सुको तावन्यदा निशि / अनाख्याय महीशाय द्रुतमेव निरीयतुः // 32 // हहा वन्ध्या धरा वीरें रिति रोदनशब्दितम् / वने शुश्रुवतुर्यान्तौ तौ कालीसदनाश्रयम् // 33 // कामप्यार्ती | सग-७ स्त्रियं ज्ञात्वा कारुण्यादपराजितः / ययौ शब्दानुगस्तूर्ण शब्दापातीव मार्गणः // 34 // प्रज्वलद्वन्हिकुण्डस्य पार्श्व स रुदन्ती स्त्रियम् / रुद्धां मृगीमिवाऽद्राक्षीदतिकरण खड्गिना // 35 // वीरोऽस्ति कोऽपि चेत्तन्मां पात्वऽस्माद् दुष्टखेचरात् / इत्याक्रन्दं पुनश्चक्रे वृकात्ता- // 31 // च्छगलीव सा॥३६॥ कुमारस्तमथ प्रौढोत्साहः प्राह स्म खेचरम् / मया सनाथां वसुधामेतां रेरे न वेत्सि किम् ? // 37 // यद्यस्ति Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 31 // * शक्तिस्ते काचित्तत्तां दर्शय संगरे / इति सोऽपि समाकोच्छलितः कलितः क्रुधा // 38 // करस्थाकृष्टनिस्तृशौ विवल्गन्तौ रणाय तौ। * रत्नमालारेजाते विधृतोद्दपसपी गारुडिकाविव / / 39 / / तो खड्गाखगि कुर्वाणावनर्वाणाङ्गविक्रमौ / अयुध्येतां मिथो दन्तादन्ति दन्तावलाविव पहारक॥४०॥ ज्ञात्वाऽपराजितं खङ्गेनाजय्यं खेचराग्रणीः / क्रीडया पीडयामास नागपाशनिवेशनात् // 41 // अत्रोटयत्तस्य बन्धं गरुत्मानि- विद्याधर| व हेलया / कुमारः कुञ्जर इव शृंखलाबन्धमुद्धतः // 42 // क्रुद्धो विद्याधरः सोऽहन् विद्यावलविनिर्मितैः / कुमारमायुधैर्नानाविधैरायुध कथितस्व| मेघवत् // 43 // संवर्मितस्य प्राग्जन्मसुकृतैरोजसापि च / प्रहाराः प्राभवन्नापराजितस्य तु तत्कृताः॥४४॥ कुमारो मण्डलाग्रेण खेचरं मृद्धय॑ऽताडयत् / तदास्य स्पर्द्धयेवार्कोऽप्याशु रात्रिंचरं तमः // 45 // घातातिमूर्च्छया मीलल्लोचनः सोऽपतद् भुवि / पद्मखण्ड इवाम्भोदधाराा नमदम्बुजः // 46 // कुमारस्पर्द्धया मारोऽप्यवधीनिशितैः शरैः / स्त्रियं तदा तां मन्येऽभूत्तेन देहश्रियोज्झितः॥४७॥ वारिसेकाञ्चलवातादिना प्रापय्य चेतनाम् / तमूचे राजसूर्भूयस्वं युध्यस्व क्षमोऽसि चेत् // 48 // प्राञ्जलिः खेचरोऽप्यूचे त्वया साधु जितोऽस्म्यहम् / रक्षितो नरकाद्यस्मात् स्त्रीहत्यापातकोद्भवात् // 49 // मत्संव्यानाञ्चले बद्धे दिव्ये स्तो मणिमूलिके / घृष्ट्वा मण्यम्भसा | मूली प्रलेपं देहि मद्रणे // 50 // तथाकृते कुमारेण नीरे रेखेव तत्क्षणात् / विस्तीर्णामप्यऽमिलत्खगक्षतिर्विद्याधरस्य सा // 51 // सजोऽथ खेचरोऽपृच्छि विस्मयाद् राजसूनुना / केयं कुमारीका ? कश्च भवान् ? वीराग्रणी वद // 52 // वैताढ्येऽस्ति पुरं धात्रीनू पुरं स्थनू पुरम् / तस्मिन्नमृतसेनाख्यः क्षोणीशः खेचराधिपः॥५३।। तस्याऽस्ति प्रेयसी कीर्तिरूपा कीर्तिमतीति च / इयं वाला रत्नमाला नाम्ना धाम्नां निधिस्तयोः // 54 // हरिणन्दिनृपस्याङ्गजन्मा गुणनिधियुवा / भूचरो ज्ञानिनाऽस्याश्च भ चख्येऽपराजितः // 55 // // 31 // तस्मिन्नेकान्तरक्ता साप्यन्यं नैच्छत्कथञ्चन / प्रेम कुत्राप्यदृष्टेपि योषितां निर्वहत्यहो // 56 // श्रीपेणस्य सुतः सूरकान्तनाम्नाऽथ खे Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 312 // चरः। सोऽहं वीक्ष्यानुरक्तस्ता विवाहार्थमयाचिपि // 57 // साऽप्युवाच करं गृह्णात्यपराजित एव मे / अंगे लगति वा वन्हिः प्रति जिनेशज्ञेयं ममाचला // 58 // इति श्रुत्वापि मृोऽहं निर्गत्य नगराद् बहिः / विद्याः संसाध्य दुःसाधाः पुनरेताममार्गयम् // 59 // उक्ता- चरित्रम् / प्युपायैस्तैस्तैामैपीनेपा यदा तदा / आनिन्येव मया हृत्वा विवेकः कामिनां क्व वा ? // 60 // प्रतिज्ञां पूरयाम्यस्या ज्वलज्ज्वलनसं- पितृदत्ता गतः / इत्येतां खण्डयित्वाऽनौ यावत्क्षेप्स्यामि कोपतः // 61 / / तावदेषा त्वयागत्याऽरक्षि दक्षाऽऽतरक्षिणा / अयं जनश्च नरकादुपक परिणिता ताऽसि तद्वयोः // 62 // शंस त्वमपि मे कोसीत्युक्तोऽशंसदमात्यमः / कुमारस्य कुलं नाम सकलं च कलादिकम् // 63 // रत्नमाला रत्नमा लाया प्यऽमोदिष्ट चिन्तितेष्टागमोत्सवात् / स्वस्यापदमपि प्रीता मेने मनसि सम्पदम् // 64 // पितरौ रत्नमालायाः पृष्ठतस्त्रातुमागतौ / तुष्टौ रूपान्तरं ज्ञात्वा मंत्रिपुत्रात् त्रातारमपराजितम् / / 65 / / ताभ्यां दत्तामुपायंस्त तां मुतां हरिणन्दिनः / प्रदक्षिणय्य कुण्डाग्निमेव त्रिःप्रज्वलच्छि- कृत्वा विदेखम् // 66 // अभयं सूरकान्ताय तयोश्च वचसा ददौ / कोपोहि महतामीपत्प्रशमः सामवादिभिः // 67 // ददौ ते व्रणरोहिण्यौ खेचरोशगमनम् मणिमूलिके। कुमारायाऽनिच्छतेऽपि मन्वानः प्रत्युपक्रियाम् // 68 // गुटिकाः तद्वयस्यस्य रूपान्तरकरीः पुनः। सूरकान्तोऽर्पयामास गौरव्यः स्वामिनो हि सः॥६९॥ निजपुत्रीयमानेया मम स्वस्थानमीयुषः / उक्त्वेति कन्यापितरौ विसर्सजाऽपराजितः // 7 // | तौ संयुतौ स्वपुत्र्याऽथ सूरकान्तश्च खेचरः। स्थानं निजं निजं जग्मुः स्मरन्तस्तेऽपराजितम् // 74 // कुमारमंत्रिपुत्रौ तु गच्छन्तौ पथि | दैवतः। कान्तारे भ्रमतुर्दीधै व्योम्नीवेन्दुरवी चिरम् / / 72 // ततः कुमारस्तृषार्तश्चतच्छायमुपाविशत् / वारिणे मंत्रिपुत्रस्तु समदुःखसुखो ययौ // 73 // स दूरातोयमादाय यावतागान तावता। तत्राऽद्राक्षीनिज मित्रमनतिरपराजितम् // 74 // सोऽतर्कयच्च दिग्मोहात् // 312 // | किमन्यत्राऽहमागमम् / तृष्णातुरः कुमारो वा ययौ कि ? स्वयमम्भसे // 75 // सर्ग-७ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 313 / / ध्यात्वेति सम्भ्रमी बम्भ्रमीति स्मैप प्रतिद्रुमम् / राजसूनुमपश्यंश्च मूच्छितःक्ष्मातलेऽपतत् / // 76 / / वृक्षैः स शाखाहस्तानवेल्ल-* त्पल्लववीजनैः / चेतना लम्भितोऽरोदीद् व्यलपत्करुणं तथा // 77 // वयस्य ! दर्शय खं मे हास्यं हि न चिरं शुभम् / मया त्वय्यप Mial भुवनभानु कन्यापरि| राद्धं न तन्मां खेदय मा वृथा / / 78 // न सुरः खेचरो वापि हतु त्वां कोयलं सखे ! / अमंगलमयो हेतुर्न तबादर्शनेऽपि वा // 79 // णयनम् | अथेनं शोधयन् ग्रामादिषु नन्दिपुरे ययौ / मंत्रिसूर्बहिरुद्याने यावत्तस्थौ च दुर्मनाः / / 80 // तावत्खेचरयुग्मेनोपेत्योचे हरिणन्दिजः। सोत्कण्ठो बालमित्रं त्वामाह्वयत्यपराजितः // 81 // युग्मम् // आदेशाद् भुवनभानोः खेचराधिपतेरसौ / त्वय्यम्भसे गते जहे आवाभ्यां काननान्तरात् // 82 // यतोऽस्यास्ते कमलिनी सुता कुमुदिनीत्यपि / तयोस्त्वन्मित्रमेवायं न्यवेदि ज्ञानिना वरः // 83 / / सोऽथा-| | नीयाlतावाभ्यां वनेऽस्मिन्निर्मिते स्वयम् / प्रासादे भुवनभानोस्तस्थुषः खेचरेशितुः // 84 / / अभ्युत्तस्थे स भुवनभानुना नवभानुवत् / दृष्ट्वा रत्नासने स्वेनासायमासे च सम्भ्रमात् // 85 // सत्यां गुणस्तुतिमपि कोदम्डस्येव कुर्वता / कुमारस्याऽधोमुखत्वं तेन चित्रं | विनिर्ममे // 86 // उपारोधि स्वपुत्र्योश्च तेनोद्वाहार्थमादरात् / कुमारस्तु त्वां विनात्तों मुनिवन्मौनमाश्रयत् // 87 // त्वामानेतुं स्वामिनाऽऽवामादिष्टौ पुनरप्यथ / इह सम्प्रत्यपश्यावाऽन्वेषयन्तावितस्ततः / / 88 // तदेहि देहि प्रमदं सुहृदोऽब्धेरिखोडुपः / आस्तां विवाहः | सोत्साहः कुमार्योश्च त्वदागमात् / / 89 / / श्रुत्वेति हृष्टो विमलबोधस्ताभ्यां सहाययौ / तदाप्तिमुदितः कन्ये राजसूरप्युपायत // 10 // कश्चित्कालमतीत्यैतौ ततः प्राग्वद् विनिर्गतौ / पुरे श्रीमन्दिरे गत्वा तस्थतुः सिद्धवत्सुखम् // 11 // चिक्रीडतुः खेचरवत्ता पूर्णेप्सितौ सदा / सूरकान्तापितस्यैतौ मणेदिव्यप्रभावतः // 92 // प्रक्षीणकोशौ तौ ज्ञात्वोपचर्य स्वगृहे बलात् / निन्याते कामलतया // 31 // कामदौ वारयोषिता / / 13 / / कल्पाब्दगर्जिबहुलो जज्ञे कोलाहलोऽन्यदा / सूर्याश्वत्यज्यमानस्वरथघंटापथः पुरे // 94 // अदृश्यन्त Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम EPAL-9-30-38 // 314 // | भ्रमन्तश्च भटाः शस्त्रोद्भटाः पुरे / लोकोऽपि वेलावारीव भयाचक्रे गतागतम् // 95|| राजपुत्राज्ञया मंत्रीपुत्रो विज्ञाय लोकतः / हेतुं * जिनेशकोलाहलस्यास्य कृपयेत्यायन्मनः // 96 // राजावत्यः सुप्रभाख्यः पुंसा केनापि वैरिणा / प्रविश्य च्छलतो देवेनेव च्छुरिकया हतः चरित्रम् / | // 97 // पुत्रादिः कोऽपि नास्त्यस्य निजो राज्यधरस्ततः / कोलाहलोऽयं लोकस्य स्वरक्षारम्भिणः पुरे॥९८॥ आः कोप्यघातयद् वैरी | श्रीमन्दिरे भूपति क्षत्रियाधमः / जल्पित्वेति कपाम्लानमुखोऽभृदऽपराजितः // 99 / / राज्ञो घातेष्वरोहत्सु प्रयुक्तैरपि रोहणैः / आख्यत्कामलता सुप्रभराज| वारनारीति नृपमंत्रिणाम् // 400 / अस्ति वैदेशिकः कोपि सद्वितीयोत्र पत्तने / प्राप्तः कृपानिधिः सत्यवादी देव इवाऽपरः // 1 // | घाताना रोहणे कृते निर्व्यापारोऽपि सो क्षीणकोशो यत्कामदोऽर्थिनाम् / अतः सम्भाव्यते सिद्धः किश्चिज्ज्ञास्यति चौषधम् // 2 // साम्प्रतं मद्गृहे चास्ति तत्पुत्रीपरि| तदाहूयातिगौरवात् / प्रष्टुं वो युज्यते चिन्तातीता शक्तिहिं तादृशाम् // 3 / / युग्मम् / / एत्याऽमात्यैः कुमारोऽथाऽभ्यर्थ्य निन्ये नृपा | णयनम् न्तिकम् / स्वास्थ्यं तदर्शनेनापि लेभे भूपोऽतिकौतुकम् // 4 // कारुण्यपण्यापणिकः प्रकृत्यैवापराजितः / अधिकं वीक्ष्य तद्घातानुल्लसत्करुणोऽभवत् / / 5 / / ततौ मणिजलैघृष्ट्वा मूलिकां व्रणरोहिणीम् / स घातान् प्रालिपद् राजाऽप्यभूत्सजतनुः क्षणात् / / 6 / / उवाच राजा मद्भाग्यैः कृपाब्धे ! त्वमिहागमः / अकारणान्योपकारी क्षितौ न त्वदृते परः // 7 // अलंकरोति ते का नु संज्ञां विज्ञाऽक्षरावली। वत्स ! त्वजन्मना वंशः सोतसः क्रियते च कः ? // 8 // सर्वस्मिन् कथिते मंत्रिपुत्रेणोचे नृपः पुनः / नाऽज्ञासिषं मित्रपुत्रमपि त्वां हा व्यथादितः // 9 // मद्बुद्धिक्षुण्णमादत्स्वेत्युक्त्वाऽस्मै स नृपो ददौ / पुत्री रूपश्रिया क्षिप्तरम्भा रम्भा गुणैः शुभाम् // 10 // स तत्र | परिणीयैतां कश्चित्कालमवास्थितः / कुमारः ससखिः प्राग्वत्ततो भूयोऽपि निर्ययौ / / 11 / / पुरे कुण्डपुरे प्राप्तौ तावुद्याने मुनीश्वरम् / // 314 // केवलज्ञानिन स्वर्णाम्बुजासीनमपश्यताम् // 12 // तं त्रिःपरीत्य भक्त्या च नत्वाऽऽसित्वा च सादरम् / पपतुः श्रोत्रपात्राभ्यां धर्म H-28-4839-02-28-N Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P // 315 // कुण्डपुरे | मुनिपार्श्व धर्मश्रवणम् REPRE- RHAR वाक्यसुधारसम् // 13 // पप्रच्छतुश्च समये तमेतौ विनयानतौ / आवां भव्यावुताभव्यावित्याख्याहि मुनीश ! नौ // 14 // मुनिराख्यद् | राजपुत्र ! भव्यस्त्वं भरतेत्र च / द्वाविंशोऽर्हनेमिनामा भावीतः पञ्चमे भवे // 15 / / अयं सुहृच प्रथमो भविता गणभृत्तव / श्रुत्वेति मुदितौ तौ तमुपासामासतुश्चिरम् // 16 / / मुनावन्यत्र विहृते तावप्यथ विचेरतुः / प्रतिस्थानं वन्दमानौ चैत्यानि क्ष्मातले मुदा // 17 // | इतश्चाभूजनानन्दे जनानन्दे पुरे नृपः / जितशत्रुस्तस्य कान्ता धारिणी शीलधारिणी // 18 // च्युत्वा रत्नवतीजीवः कल्पान्माहेन्द्रतो ऽजनि / तयोः प्रीतिमती नाम्नी दुहिता महिता गुणैः // 19 / / सुखेनोद्यानवल्लीव सा क्रमाद् वृद्धिमासदत् / बलावलीरिव कलाः | स्वीचक्रे च नवा नवाः // 20 // वाणी विद्याप्रणेतृणामाकामद् यावती भुवम् / यद्बोधोऽनुपदीवाऽभात्तावतीं लघु संचरन् // 21 // शंके | कलासु जिष्णु यामाशंक्येव सरस्वती / सदैव हस्ते विन्यस्तं पुस्तक स्वयमैक्षत // 22 // साथ स्मरेभविन्ध्याद्रिकाननं प्राप यौवनम् / नदीव नर्मदा यस्मिन्नुचैः स्फूर्जति चातुरी // 23 / / साऽतिविज्ञा प्रतिज्ञामित्यकार्षीत् क्ष्मातले नरः / यो मां जेष्यति विद्यासु स एव परिणेष्यति // 24 // तामाकर्ण्य पिता दध्यौ प्रतिज्ञेयं सुदुस्तरा / तत्स्वयंवर एवास्याः पुच्या दातुं ममोचितः॥२५॥ तद्वार्ता प्रासर विश्वे जलान्तस्तलबिन्दुवत् / कलाभ्यासं नृपास्तेषां पुत्राश्चान्ये च चक्रिरे॥२६॥ जितेन्द्रमण्डपं राजा मंडपं नगराद् बहिः / निर्माप्य मंचानुच्चांश्चातहवन्नृपतीनऽथ / / 27 // माचराः खेचराः स्वैः स्वैः पुत्ररेयुः समं नृपाः / स्वसूनोविरहेणात विनैकं हरिण|न्दिनम् // 28 // सतोरणप्रपञ्चषु तत्र मञ्चषु भृभुजः / तस्थुः स्वरागं व्यञ्जन्तो भूषारत्नप्रभानिभात् / / 29 / / तदाऽपराजिताऽमात्यतनयावपि तावुभौ / प्रेक्षमाणौ धराखण्डमखण्डस्मयमीयतुः // 30 // ऊचेऽपराजितो मित्रमावां काले समागतौ / सतां कलासु मीमांसा द्रक्ष्यावः तत्कनी च ताम् / / 31 / / मा ज्ञासीत्कोऽपि नौ दृष्टपूर्वीति गुटिकां मुखे / क्षिप्वाऽन्यवेषौ तौ सद्योऽभूतां व्योमचराविव // 3 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 316 // | // 32 // मञ्चस्यैकस्य पार्श्वे तौ तस्थतुर्मण्डपान्तरे / सरसीव सरोजस्यासन्नौ श्वेतच्छदाविव // 33 // कुमारस्त्वेकपाश्चाल्या मौलौ न्यस्य जिनेश| कराम्बुजम् / पश्यन् कलाधिको मेने न तृणायापि भृभुजः॥३४॥ दिव्यालंकारवसना वीज्यमाना प्रकीर्णकैः / पुरःसरप्रतीहारी दर्य- चरित्रम् / मानपथा मुहुः // 35 // जैत्री ममेयमेवास्ते धनुर्वल्लीति तोपतः / स्मरेण पुष्पस्रग्व्याजात् खधनुर्लतयार्चिता // 36 / / तत्र देवीव al प्रीतिमति कन्याखं प्राप्ता प्रीतिरिवाथवा / आगात्प्रीतिमती सख्या वरमालाभृताऽन्विता // 37 // त्रि०वि० // कुमारी वीक्ष्य तां चेतः केतक-| स्वयंवर श्रीघनावलीम् / स्पष्टमेवं व्यचेष्टन्त क्ष्माभृतः सत्कलाभृतः // 38 // कश्चित्पाणेझणत्कारकारिणं स्वर्णकंकणम् / आकर्षत् तद्गुणोत्कर्ष मण्डपे गमनम् श्रुतिदुर्द्धर्षविघ्नदम् // 39 // अंगुलिभ्यां नर्तयञ्च चम्पकं कस्यचित्करात् / पपात धान्यां तत्कान्त्या लज्जित तु जितं नु किम् ? // 40 // | कर्पूररेणुना स्वांगं निःस्वेदमपि कश्चन / उद्धृत्य कर्णयोश्चक्रे ताडङ्कव्यत्ययं वृथा // 41 // चन्द्राश्मकान्ततद्दन्तकान्तिकोशविमुद्रकम् / नखैर्व्यदारयत्कश्चिदुज्वलं केतकीदलम् // 42 // अथ प्रीतिमतीं प्रोचे मालती नाम वेत्रिणी / क्ष्माचराः खेचराश्चेयुर्विज्ञा देवि ! नृपा | इह / / 43 // एतेषु दत्ते यश्चित्ते कश्चित्ते रुचिरां रुचिम् / एकं च्छेकं तं वृणीष्व वं परीक्ष्य कलानिधे ! // 44 // विभत्तिं यद्यशःस्तोमः | | स्वयं भुवनचन्द्रताम् / सोऽयं भुवनचन्द्राख्यः ख्यातस्त्रिभुवने नृपः // 45 // असौ श्रीसमरकेतुः समरे केतुवद् द्विपाम् / समरेखो न | यस्याभूचेतोभू रूपवानपि // 46 // कुबेरश्चैष भूपालः कुवेर इव सम्पदा / यत्प्रतापाकुलो धत्ते मौलौ सुरधुनी हरः॥४७॥ पुरस्तादेप सर्ग-७ निःशेषक्षोणिभृन्मौलिमण्डनम् / व्यस्तसोमप्रभो द्वेधा कीर्त्या सोमप्रभो नृपः // 48 // यथार्थनामा भीमोऽयं शूरश्च धवलोऽपि च / / अन्येऽप्येते सुराः कामचरा इव महीश्वराः॥४९॥ एते च खेचरीगीतगुणाः खेचरनायकाः / मणिचूडरत्नचूडरत्नप्रभमणिप्रभाः॥५०॥ // 316 // आसीनाः शतशोऽन्येऽपि सन्ति विद्याधरेश्वराः / भारतीव परीक्षस्व ख कलाकुशलानमून् // 51 // Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 317 // प्रीतिमत्या मदापहारः इति वेत्रवतीप्रोक्ता सा कन्या यं यमैक्षत / शरैरताडयत् तं तमाशाकर इव स्मरः // 52 // अथ सा पूर्वपक्षस्था स्वयं देवीव भारती / वादिनीभूय विद्यासु पप्रच्छेकैकशो नृपान् // 53 // तद्रूपहृतचेतस्काः स्तम्भमाजश्च ते नृपाः / कम्पावरुद्धकण्ठत्वान्नोत्तरं दातुमैशत // 54 // स्त्रीजातिपक्षपातेन पक्षेऽस्याः श्रीसरस्वती / मन्येऽभृदेतया तेन स्त्रियापि विजिता वयम् // 55 // इत्यादिनानाभंगीभिविंलक्ष्येण मिथो नृपैः / जल्पद्भिरेव संजज्ञे लजाभरनताननैः // 56 / / वरं नरेभ्यो नारीति नारीतिमयमौच्यत / प्रीतिमत्याः प्रीतिमत्याः सखीलोकैर्वचस्ततः // 57 // जितशत्रुनृपो दध्यौ सर्वसारोच्चयादिमाम् / सर्वप्रयत्नात् किं सृष्ट्वा स्रष्टा श्रान्तो ध्रुवं जरन् ? // 58 // यन्नानुरूपमेतस्याः कलाभिः प्रवरं वरम् / अस्राक्षीत्क्षीणसद्विद्यनराणुगणदुःस्थितः // 59 // युग्मम् // इयन्त एव क्षोणीशाः सुतायाश्चैषु नोचितः। अभूत्कोऽपि नचान्यश्च भावी किं करवाणि तत् ? // 60 // प्रत्युत्पन्नमतिमंत्री प्रोचे स्वामिन् विपीद मा / बहुरत्नावनी * यत्तद् भावी कोऽप्यधिको गुणैः // 61 // नृपो नृपसुतो वापि यो वाऽन्योऽपि जयेदिमाम् / वरः स एव मत्पुत्र्याः पटहोंष्यतामिति | // 62 // तथैवाऽचीकरद् राजा युक्तमेतदिति ब्रुवन् / तच्छ्रुत्वा स्त्रीवचः स्मृत्वा चाचिन्ति युवभूभुजा // 63 / / विद्यावादे स्त्रिया सार्द्धमुत्कर्षः स्याजयेऽपि न / निषिद्धश्चैष शास्त्रेषु सर्वथैव महात्मनाम् // 64 // किंत्वस्या जितकाशिन्याः स्फुरगोंडुरं वचः। दुनोति | मामियं जाप्या शालभंजिकयैव तत् // 65 // कुमार इति सामों मञ्चपाश्चालिका स्वयम् / तामेव दिव्यमणिना पस्पर्शाऽचिन्त्यश| क्तिना // 66 // ऐन्द्रजालिकपुत्रीव साक्षेपं साऽवदत्ततः / किं गर्वपर्वताग्रस्था तुच्छं जगदपीक्षसे ? // 67 / / किं ? माद्यसि मुधा मुग्धे ! जित्वैतान् नृपशून्नृपान् / मामाश्चर्यकरी पश्य पुरतः प्रतिवादिनीम् // 68 // जिग्ये त्वय्यापि चेन्मुग्धे गुरुमें लज्जते ततः / मन्मूर्द्धनि न्यस्तहस्तः साक्षादेष नृपात्मजः // 69 // आक्षिप्ता शालभंज्येति ब्राह्मपुत्र्येव हेलया / वादं दातुमढौकिष्ट राजपुत्री चमत्कृता // 7 // // 317 // Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 318 // जिनेशचरित्रम् / | वरमाला क्षेपणे युद्धेज्यराजपराजयः सा च पप्रच्छ कः शूरो जितात्मेत्यपराऽब्रवीत् / को दक्ष इति कन्योक्ते सोचे स्त्रीवञ्चितो न यः॥७१॥ को दुःखीति कुमार्युक्ते प्रोचे न्यासस्पृहोत्र यः। प्रोचे कनी धनी कोऽत्र साख्यद् यः पुण्यसङ्ग्रही // 72 / / कन्यामपृच्छत् पाञ्चाली का प्रिया ब्रह्मचारिणाम् / मैत्रीति नास्फुरत्तस्या मणिना ध्वस्तसंविदः // 73 // एवं निरुत्तरीकृत्य सभान्वक्षं विनिर्जिता / कन्या प्रोचे शालभञ्जीं त्वत्कण्ठे किं ? स्र क्षिपे // 74|| तयोक्तं मे गुरोरस्य कण्ठे धेहि वरस्रजम् / प्रतिज्ञेयं तवाऽपूरि दुःपुराऽन्यैरनेन यत् // 75 // कन्या दुर्वेपमपि | तमत्र च्छन्नमिवोडपम् / प्रेक्ष्य कैरविणीवाऽधात प्रीतिं प्रीतिमती भृशम् / / 76 // प्राग्भवस्निग्धतोदश्चद्रोमाञ्चस्फोटिकञ्चुका। कण्ठेऽपराजितस्याशु मालां वाला व्यपरोपयत // 77 / / युगपञ्चोक्रुधीति स्म तस्मै स्मयमयस्ततः / भूचराणां खेचराणां गणो राज्ञामिति ब्रुवन् | // 78|| राजकन्यामिमामेष कथं कार्पटिकोऽधमः / मयूरव्यंसकोऽस्मासु सत्सु वोढुमिहार्हति // 79 // युग्मम् / / सर्वेऽपि तेऽथ संवम्यं सेनया चतुरङ्गया कुमारं रुरुधुः सिंहमिव योद्धं महाद्विपाः // 80|| लाघवाद् राजपुत्रोऽपि क्षणं हस्तिषु वैरिणाम् / रथेषु क्षण| मुयां च क्षणमेकोऽप्ययुध्यत / / 81 // स्फुरन्नकोऽप्यनेकत्र विद्युद्दण्ड इबोद्भटः / क्रुद्धः कुमारो भक्त्वाऽरिसैन्यं दैन्यं निनाय तत् // 82 / / प्रागेकया स्त्रिया शास्त्रैः शस्त्रैरेकेन चाऽधुना / जिताः कार्पटिकेनेति दुःकीर्तिः क्ष्मातलेऽखिले // 83 // आचन्द्रार्क भाविनीति लज्जयोत्साहिताः पुनः। योद्धं तेन समं भूपा युगपत्ते डुढौकिरे / / 84 // युग्मम् / / छत्रभंगशिरोभद्राकृत्याद्यैरपरान्नृपान् / विड|म्ब्य राजभूभेजे शीघ्रं सोमप्रभद्विपम् / / 85 / / राज्ञा श्रीसोमप्रमेण मातुलेनाऽपराजितः / खत्रीयः प्रत्यभिज्ञायि युद्ध्यमानोऽपि लक्षणैः // 86 // हथुिवारिभिः सोमः स्नपयित्वाऽपराजितम् / सर्वाङ्गालिङ्गनव्याजासंवाह्य प्रोचिवानिति / / 87 / / दिष्ट्या दृष्ट्याऽद्य दृष्टोसि जामेयामेयविक्रम ! | पुण्यर्जातोऽसि चागण्यैरमन्दानन्दकन्दभूः // 88 // युग्मम् / आख्यच्च सोऽन्यभूपानां विरेमुस्तेऽपि युद्धतः / सर्ग-७ // 318 // Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 319 // स्वाजन्यधन्यस्तैरेवाध्यासि वीवाहमण्डपः // 89 // चक्रेऽपराजितप्रीतिमत्योलग्ने शुभे ततः। विवाहः प्रीतिसोत्साहः क्ष्माभुजा जित-* मातृपितृ* शत्रुणा / 90 // भेजे प्रियाग्रहाद्रूपं खं दिव्यमपराजितः। विसिष्मिये जनः सोऽप्याः किमेतदिति त्रुवन् // 11 // जितशत्रुर्नुपान * | मिलनाय सर्वान् सत्कृत्य व्यसृजत्कृती। तस्थौ प्रीत्या प्रीतिमत्याः पुनस्तत्रैव राजमूः // 92 / / मंत्रिणा च जितशत्रोः पुत्र्या सुमतिना स्वयम् / सिंहपुर उद्वाहितोऽस्थाद् विमलबोधोऽपि प्रीतिरीतिभृत् / / 93 // ज्ञात्वाऽपराजितं तत्र स्थितं श्रीहरिणन्दिना / आह्वातुं प्रेपितः कीर्तिराजो गमनम् मंत्री समाययौ / / 14 / / उपलक्ष्य कुमारेण परिष्वज्य च सम्भ्रमात् / स पृष्टः कौशलं पित्रोरित्याख्यत् साश्रुलोचनः // 95 // भवत्प्र| वासादारभ्य बाष्पव्याजेन निर्यताम् / त्वदाशार्गलयाऽमूनां धृतानां कुशलं तयोः // 96 // त्वद्वियोगमहादाहज्वराती तो च * निवृतिम् / लभेते लोकतः पीत्वा त्वच्चरित्रसुधारसम् // 97 / / तदेहि सत्वरं देहि स्तम्भवन्निजदर्शनम् / पित्सोस्तदेहगेहस्य जर्जरस्य भवच्छुचा // 98 // कुमारोऽप्यश्रुसम्पूर्णनेत्रः प्रोचे सगद्गदम् / ईदृक्क्लेशकरं पित्रोधिग्मां दुविनयं सुतम् // 99 / / द्रष्टुं कुमारं सोत्कण्ठः सूरकान्तस्तदागमत् / स तेनाजूहवत्पुत्रीयुतान् प्राक् श्वशुरान्नृपान् // 500 / / स प्रियाभिः खेचरीभिर्भूचरीभिः परीवृतः / रराज कान्तिस्फाराभिस्ताराभिरिव चन्द्रमाः॥१॥ आपृच्छय श्वशुरं प्रीतिमत्याद्यन्तःपुरीयुतः / प्रतस्थे सुहृदा सार्द्ध महर्द्धिरपराजितः // 2 // खेचराणां भूचराणां कटकैस्तुल्यमेव सः। कुर्वन् सुवर्णरत्नाढ्यैर्यावाभूम्योरलंकृतिम् // 3 // मार्ग दुर्गमिवाम्भोधिमुत्कण्ठापवनेरितः। उल्लन्ध्याऽल्पर्दिनैः पोत इवाऽसंख्यजनाश्रितः॥४॥ अनुकूलं पुमर्थानां वेलाकूलमिवासदत् / कुमारः केलिसदनं श्रीणां सिंहपुरं पुरम् // 5 // त्रि० वि०॥ बहिनिशान्ते सैन्यानामावासांस्तत्र गृह्णताम् / कोलाहलः पुरे चक्रे परचक्रागमभ्रमम् // 6 // पुरान्तश्च भयो- | // 319 // द्धान्ते भ्राम्यतीतस्ततो जने / हरिणन्दीनृपः सर्ववलेन समनह्यत / / 7 / / ज्ञात्वाऽपराजितं बन्दिस्तुतिभिर्वहिरागतम् / हृष्टः प्रत्युद्ययौ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / राज्याभिषेकः // 320 // सान्तःपुरसैन्यजनो नृपः // 8 // कुमारोऽपि त्वराहर्षप्रसरदाहुपक्षतिः। पितुरेत्य पदाम्भोजे राजहंस इवाऽलुलत् / / 9 // हरिणन्दी तमुत्थाप्य दुःखग्रन्थिबिभित्सया / न्यस्योरसि ध्रुवं बाहूपपीडं परिरब्धवान् // 10 // अद्रष्टव्यमुखः स्तंबकदम्ब इव तापकृत् / मन्दस्नेहः क्लेशदायी दुःपुत्रः प्रणमत्ययम् // 11 // उक्त्वेति मातुः पदयोन्यस्तं मौलिं स नोद्वधे / संदानितमिवोष्णीपनखमाणिक्यरश्मिभिः | // 12 // युग्मम् / / कृच्छ्रान्मात्रा यमुल्लास्याऽचुम्बि मूर्द्धनि तोषतः / सस्मार बाल्यसौख्यानां दुर्लभानां सुरैरपि // 13 // श्वशुरौ मंत्रि| पुत्रेण प्रीतिमत्यादयः स्नुषाः। नामग्राहमनाम्यन्त कुमारस्याज्ञयाऽखिलाः॥१४|| माचरान् खेचरान् राज्ञः सत्कृत्याऽथापराजितः। | विसृज्य तस्थिवान् पित्रोनेत्रोत्सवकृते स्वयम् // 15 // तौ मनोगतिचपलगतिजीवौ दिवश्युतौ / जातौ तदनुजौ शूरसेनाख्यौ तं प्रणेमतुः॥१६॥ गत्वा विमलबोधोऽपि स्ववध्वा सहितो गृहे / भक्त्याऽनंसीत्स्वपितरौ विक्लवौ स्ववियोगतः॥१७॥ न्यस्याऽपराजितं राज्ये हरिणन्दी नृपोऽन्यदा। प्रव्रज्य तपसा क्षीणकाऽगात्पदमव्ययम् // 18 // देवी प्रीतिमती जज्ञेऽपराजितमहीभुजः / अमात्यो | विमलबोधो बान्धवौ मण्डलेश्वरौ // 19 // राज्यं निःकण्टकं शासद् भुञ्जानोऽनुपमां श्रियम् / चैत्यानि रचयंस्तीर्थरथयात्राश्च लक्षशः // 20 // परस्परमनाबाधं त्रिवर्ग साधयन्निति / अपराजितराजोगात्क्रीडयोद्यानमन्यदा // 21 // युग्मम् // अनंगदेवनामानं युवानं | नूतनं स्मरम् / नारीकुञ्जरमद्राक्षीतत्र क्रीडापरं नृपः / / 22 / / स वयोरूपश्रृंगारैभित्रैः परिवृतं च तम् / नाट्यासक्तमर्थिमेघं प्रेक्ष्याऽप्राक्षीच सेवकान् // 23 / / तेऽशंसन् सार्थवाहस्य सूनुः कोटीश्वरः प्रभो!। अयं समुद्रपालस्यानंगदेवोऽभिधानतः // 24|| श्लाघ्योऽह-* मेव यस्यैवं वणिजोऽपि नृपाधिकाः / स्तुवन्नित्याययौ वेश्माऽपराजितनरेश्वरः // 25 // स द्वितीये दिने राजपाट्यां गच्छंश्चतुःपथे / पुंभिश्चतुभिरुत्क्षिप्तं वायत्तूर्यकटुकस्वरम् // 26 // सर्ग-७ // 320 // Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंखभव // 32 // स्वरूपम् | क्रन्दन्तीभिर्खलत्केशमानानाभिरुरःस्थलम् / मूर्च्छन्तीभिरनुव्रज्यमानं युवतिभिभृशम् // 27 // पुष्पाद्यैरचितं म्लानपुरःसरमहाजन म् / क्षोमावृत्तं धृतच्छत्रं कश्चिन्मृतकमैक्षत // 28 // त्रि०वि०॥ भोः कोऽयं मृत इत्यस्मिन् पृच्छत्याख्युः समीपगाः / स एवाऽनंगदेवो| ऽद्य मृतो जातविसूचिकः / / 29 / / हा विश्वास्य प्रमादेन बद्धा मोहान्धपट्टकम् / भवारण्ये प्राणभाजो हन्ति बन्दीव धिग विधिः // 30 // आरोप्य लोभशूलाग्रं विषयाज्यपरिप्लुतम् / जनं रागानले पक्त्वा हाऽश्नाति यमराक्षसः॥३१॥ इत्थमुद्भूतसम्वेगो वेगादागात् खवेश्मनि / राजाऽपराजितः खेदमेदुरश्चात्यगादिनान् / / 32 // केवलज्ञानतो ज्ञात्वा तस्योपकृतिमागमत् / तदा तत्र मुनिः कुण्डपुरे यो दृष्टपूर्व्यऽभूत् / / 33 / / नृपोऽपराजितः पुत्रं पद्मं प्रीतिमतीभवम् / राज्ये न्यस्य मुनेस्तस्य पावें वैराग्यमुद्वहन् / // 34 // बन्धूभ्यां सूरसोमाभ्यां | प्रीतिमत्या च कान्तया सार्द्ध विमलबोधेन मंत्रिणा चाग्रहीद् व्रतम् // 35 // दुस्तपं ते तपस्तावा सर्वे पूर्णायुषो ऽभवन् / इन्द्रसामानिकत्वेनारणकल्पे महर्द्धिकाः // 36 // इतश्च जम्बुद्वीपस्यास्यैव क्षेत्रेऽस्ति भारते / श्रीहास्तिनपुरं लक्ष्मीजितामरपुरं पुरम् / 37 // श्रीमान् श्रीपेण इत्यासीत्तत्र भूपालपुंगवः / तस्याऽभूत् महिषी चित्रं श्रीमती नाम वल्लभा // 38 // सा विशन्तं निशाशेषे मुखे शंखमिवोज्वलम् / स्वप्ने पूर्णेन्दुमालोक्य प्रबुद्धवा पत्युराख्यत // 39 // विचार्य तज्ज्ञैः स्वमार्थ राजा निश्चितवानिति / भावी देव्याः सुतश्चन्द्र इव विश्वप्रियंकरः॥४०॥ जीवोऽपराजितस्याऽगात्तत्कुक्षावारणाच्च्युतः / सुतत्वेन दिनैः पूर्णैजज्ञे च शुभलक्षणः // 41 // चक्रे शंख इति ख्यातः पित्रायं पूर्वजाख्यया / धात्रीभिर्वद्धितो भेजे प्राग्भवस्वीकृताः कलाः // 42 // सुतो मतिप्रभो नाम्ना सुबुद्धेनृपमंत्रिणः / जीवो विमलबोधस्याप्यभूदारणतः च्युतः॥४३॥ स शंखस्य सहाध्यायी सपांशुक्रीडितः शुचिः / अभूत्कौस्तुभवन्मित्रं प्रीतिपात्रकलानिधिः // 44 // सदैवास्तामवियुतौ तौ यथा मधुमाधवौ / यौवनस्य वशं यातौ क्रीडतः स्म यथेप्सितम् // 45 // चौरावस्कन्दमन्दश्रीः सीमा / // 32 // Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 322 / / देशजनोऽन्यदा / श्रीपेणमेत्य भृपालं पूत्कुर्वाणो व्यजिज्ञपत् // 46 // विशालश्रृंगेऽद्रौ चन्द्रशिशिरासरितावृते / दुर्गेऽस्ति समरकेतुः जिनेश* पल्लिनाथोऽतिदुग्रहः // 47 // रात्रौ पद्मवनस्येव दोषाकर इवापतन् / सदेशवसतिर्लक्ष्मी स देशस्य विलुटति // 48 // तस्मात्त्रायख नः चरित्रम् / | स्वामिन्नित्याकर्ण्य नृपः स्वयम् / तं निग्रहाग्रहाद् यात्राढक्का जैत्रीमदापयत् // 49 // कुमारोऽन्तःस्फुरत्स्फारभक्तिभारादिवानतः / व्य- पल्लिपतिज्ञापयत्प्रणम्यैवं नरदेवं कृताञ्जलिः // 50 // एयुर्दशदिशां नाथाः सनाथा स्वबलैनहि / पल्लीशमात्रे तत्ते किं ? संरंभः स्फुरति प्रभोः ना सह // 51 // ताताज्ञापय मामेव येन बद्धा तमानये / नखच्छेद्ये कुठारस्य व्यापारो युज्यते नहि // 52 // श्रुत्वेति राज्ञा तुष्टेनादिष्टः शंख-Ill * स्तदेव सः / सेनाभिर्छादयन्नुच्ची पल्लेः पाव क्रमाद्ययौ // 53 // श्रुत्वा कुमारमायान्तं पल्लीश”छलहेतवे / दुर्ग शून्यं विमुच्यागा न्मायिको दूरगह्वरे // 54 / / युवराजोऽपि तद् ज्ञात्वा सौरः सैन्यैयुत निजम् / दुर्ग प्रवेश्य सामन्तं नितिविज्ञः स्वयं पुनः // 55 // कुञ्ज निलीय क्वाप्यस्थाद् देहान्तयोंगिजीववत् / पल्लीशोऽप्यरुधद् दुर्ग जनं प्रेत इव च्छलात् // 56 / / हस्तेन गृह्यतां शंखो दुर्ग वा विव स्थितः / इत्यादिशद् भटान् यावद् धीवरान्पल्लिनायकः / / 57 // तावत्कुमारस्तैर्दुर्गक्षिप्तरपि दलैः समम् / न्यविवेष्टदऽनन्तैस्तं जीवः / स्वमिव कार्मणैः // 58 / / युग्मम् ।।इतश्चेतश्च शंखस्य भटानां वध्यतां गतम् / पल्लीश इव पल्लीशः स्वं मत्वा विमदोऽभवत् // 59 // मन्ये मदमषीपिण्डं कृष्ट्वाऽयं हृदयान्निजम् / कुठारच्छद्मना कण्ठे न्यस्य शंखमुपाययौ // 60 // त्वमेव प्रौढमंत्रोऽसि येन च्छलबलो-| सर्ग-७ | ऽप्यहम् / निगृह्य हेलया दास्यं लम्भितो भूतवजवात् / / 61 / / तत्प्रसीदाऽभयं देहि सर्वस्वं मे गृहाण च / उक्त्वेति पादप्रणतः कुमा रमनुनीतवान् // 62 / / युग्मम् // लोणं लोकस्य तेनातं तमानाय्योपलक्ष्य च / यथास्वमार्पयद् दण्डं चादत्ताऽस्मान्नृपात्मजः॥६३॥| // 322 // * दुर्गे खं रक्षकं मुक्त्वा पल्लीशं च सहात्मना / आदाय ववले शीघ्रं शंखः शंख इबोज्ज्वलः॥६४॥ निवेश्य कटकं सायमावात्सीत्स ATANIमन्त नितिविज्ञः स्वयं पुनः गद् भटान् यावद् धीवाऽप्यरुधद् दुर्ग जनं प्रेत Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कष्टाद् पथि ब्रजन् / अश्रौपीन तल्पसुप्तश्च निशीथे करुण स्वरम् // 65 // ययौ साधकवत् खड्गसखः शब्दानुसारतः / रुदतीमर्दुजरतीमेणाक्षीमै-* // 323 // क्षताऽग्रतः // 66 // स प्रोचे तां मृदुगिरा किमेवं भीरु ! रुद्यते / दुःखस्य हेतु मे शंस येन प्रतिकरोमि तम् // 67 / / तस्याकारेण सारेण | यशोमती व्यापारेण गिरामपि / सेवं निवेदयामास विश्वस्ता दुःखकारणम् // 68 // अंगदेशस्य मेदिन्याः पुरी शृंगारकारणम् / अस्ति चम्पकमा रक्षणम् लेव चम्पेत्युद्दामसौरभा॥६९॥ जितारिस्तत्र राजाऽस्ति जितारिः शौर्यसम्पदा / तस्य कीर्तिमती कीर्तिमती नाम्ना पुनः प्रिया // 70 // | राज्ञश्चतुर्णा पुत्राणां वेदानामिव वेधसः / उपर्यस्ति सुता जाता ब्राह्मीवास्य यशोमती // 71 // अरोचकिन्याः पग्रिन्या इवास्या हृदि केऽपि न / राजानो रुचिमातेनुः पक्षद्वयकलोज्वलाः / / 72 / / तेजस्विनां शिरोरत्ने शंखे श्रीषेणजे पुनः / वाविवानुरागोऽभृजगन्मित्रे | गुणश्रुतेः // 73 / / शंख वरीतुं श्रीपेणान्तिके यावन्नृपो नरान् / प्रेषीत्तावदयाचत्ता खेचरो मणिशेखरः // 74 // इयं शंख विना नान्य मिच्छतीति जितारिणा / न्यत्कृतः खेचरोऽहार्षीत्तां श्येन इव वर्तिकाम् // 75 / / अहं तु लग्ना तद्भाहौ धात्री तस्याः समागता / बलाRell दप्युज्झिता दुष्टखेचरेणेह तेन च // 76 // सारं संसारकोशस्य तां वाला क्वापि सोऽनयत् / ततोऽस्याः प्राणसंदेहाशंकिनी विलपाम्य| हम् / / 77 // धीरा भवाम्ब ! निर्जित्य खेचरं तां कनीमहम् / आनेष्यामीत्युदित्वाऽऽशु शंखोऽन्वेष्टुं वनेऽभ्रमत् // 78|| तद्वीक्षणपरे वीरे तस्मिन् प्राचीपतिः स्वयम् / प्रागद्रि,गे तुंगेऽर्क तदा दीपमिवाऽमुचत् // 79 // अरेविशालशृंगस्य शंखोऽद्राक्षीद् गुहागृहे / खेच| रेणाऽभ्यर्थ्यमानामुद्वोढुं चाटुकारिणा / / 8 / / शंखोज्वलयशाः शंख एव भर्त्ता परो न मे / निजप्रतिज्ञामित्युच्चे?षयन्ती यशोमतीम् // 81 // युग्मम् / / कन्यकां सस्पृहं पश्यन् धावन् स्वाभिमुखः क्रुधा / निश्चिक्ये खेचरेन्द्रेण कुमारः शंख इत्ययम् / / 82 // आकृष्टः // 323 // कालपाशैस्ते प्रियः शंखोऽयमागमत् / मदशं पश्य तदमुं क्रियमाणं दिशां बलिम् / / 83 // इति ब्रुवन्तं तं शंखोऽप्युपसृत्याब्रवीदरे। किं Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 324 // नारीपुरतः फल्गु गेहेनर्दीव वल्गसि // 84 // उत्तिष्ठाशु परदारापहारांहाकलंकितम् / आत्मानं मामके खगधारातीर्थे विशोधय // 85 // जिनेश| श्रुत्वेति खेचरः काण्डक्षतांग इव सूकरः / कुर्वन् घुरघुरारावं शौर्याद् योद्धुमधावत // 86 // तत्खङ्गं खण्डयामास कुमारः सारविक्रमः। चरित्रम् / विद्यास्युयुधे तप्तायोगोलाद्यैर्नभश्चरः // 87 / / पुण्यैः संवमितस्याथ शंखस्य प्राभवन्नहि / अमोघान्यपि दिव्यास्त्राण्यहो प्राक्सुकृतो विद्याधर जिंतम् / / 88 // निपण्णाच्च विषण्णाच्च तस्माद् विद्याधरादसौ / धनुराच्छिद्य तद्वाणेनैव तं हृदि जनिवान् // 89 // मूर्छया सोऽलुठद् विज्ञप्त्या वेताढये भूमौ च्छिन्नमूल इव दुमः / शंखेनाश्वास्य वाताधैयुद्धायाऽऽजुहुवे पुनः // 90 // ऊचे व्योमचरो युद्ध वीरैरजितपूर्व्यहम् / निजितो | गमनम् भवतवाद्य देवेभ्योऽप्यधिकौजसा // 9 // कन्येयं त्वां गुणक्रीती स्वयं वीर यथाश्रयद् / तथा पराक्रमक्रीतो जनोऽयमपि सर्वथा | // 92 // शंखोऽप्यूचे खेचरेन्द्र ! विनयाधैर्गुणैस्तव / वशीकृतोऽस्मि तत् किं ? ते ब्रूहि कुर्वे मनःप्रियम् // 93 / / सोऽवादीत्तहिं वेताढथे- | | ऽनुग्रहितुं त्वमेहि माम् / पुण्यर्द्वि संग्रहीतुं च सिद्धायतनयात्रया / // 94 // अस्त्वेवमिति शंखोक्ते तं कन्यापि जितद्विपम् / पति || प्राप्यान्वमोदिष्टाऽब्जिनीवाऽस्तविधुं रविम् // 95 / / पत्तयो मणिचूडस्य तत्रेयुरथ खेचराः / नम्राः शंख नमश्चक्रुः स्वामिजीवितदायि-1 नम् // 96 // प्रेष्योभी खेचरौ शंखः स्वं वृत्तान्तं निवेद्य च / स्वं सैन्यं हास्तिनपुरे प्राहिणोत् पितुरन्तिके // 97 // कन्याधात्रीं च तां | विद्याधरैरानाय्य तधुतः / शंखो जगाम वैताढ्य खेचरेन्द्रपरावृतः // 98 // जिनेन्द्रान् शाश्वतांस्तत्र सिद्धायतनवर्तिनः / यशोमत्याः सर्ग-७ | सहाऽनर्च विधिना प्राणमच्च सः // 99 // नीत्वा कुमारं कनकपुरे स्वस्य च मन्दिरे / आनर्च देववद् दिव्यवस्तुभिर्मणिशेखरः॥६००॥ | नित्यं शंखयशोमत्यावेत्य वैताट्यवासिनः। आश्चर्यमागतमिव पुनरुक्तं व्यलोकयन् // 1 // द्विपद्विजयराज्यादिदानमूल्यैः स्वसा // 324 // स्कृताः / महर्द्धयोऽपि खेचरा ययुः शंखस्य पत्तिताम् // 2 // Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 325 // यशोमतीलग्नं केवलि कथितय शोमती प्रीतिस्वरू पम् सर्वविद्याधरैर्विद्या दत्ताः सोऽसाधयजवात् / सुतास्त्वानाययन् चम्पां वोढुं पश्चाद्यशोमतेः // 3 // खेचरैर्मणिचूडाद्यैः स्वस्वपुत्रीयुतैर्वृतः / चंपां द्विपद्भयात्कम्प्रां शंखोऽगात् सयशोमतिः॥४॥ प्रत्युद्ययौ जितारिस्तं ज्ञात्वा पुच्या सहागतम् / पुर्यां प्रवेशयामासाss| हयन्त्यामिव केतुभिः // 5 // शंखेन क्लप्तातिथ्येन खेचरैः सह भूपतिः / सुतामुद्वाहयामास शुभे लग्ने यशोमतीम् // 6 // विद्याधराणां | | ताः पुत्रीश्चोपयेमे समं स च / यात्रां श्रीवासुपूज्यस्य तत्र पूजां च निर्ममे / 7 // यशोमत्यादिपत्नीभिः खेचरैस्तैश्च संयुतः। आपृच्छय श्वशुरं शंखः प्राप श्रीहस्तिनापुरम् / / 8 / / स विभिन्नकपाटौष्ठाद् गोपुरास्यात्प्रसृखरैः / सहासमिव तत्सौधदन्तज्योतिभिराविशत् // 9 // स्फायद्विद्याधरेन्द्रद्धिवद्धितप्रमदो मुदा / प्राणसीपितरौ शंखः पत्नीवृन्दान्वितस्ततः // 10 // वाचामगोचरः पित्रोर्मनःसौख्यमभूत्तदा / | यस्याग्रे तृणवत्स्वर्गसौख्यान्यपि चकाशिरे // 11 // सम्मान्य खेचरान् शंखः प्रैपीत्स्वस्वगृहान्प्रति / स्वयं पितुः सिपेवे तु पादाब्ज | राजहंसवत् // 12 // अभूतामारणाच्च्युत्वा जीवौ तौ सूरसोमयोः / यशोधरगुणधरौ शंखस्स प्रागिवाऽनुजौ // 13 / / न्यस्य राज्यधुरां शंखे श्रीपेणः क्षितिपोऽन्यदा / श्रीमद्गुणधराचार्यपाधं संयममाददे // 14 // तपस्यऽजागरीद्राजमुनिदिशधा यथा / राजचक्रे तथा शंखनृपोऽपि सततोद्यतः॥१५|| श्रीश्रीपेणमुनिर्घातिक्षयादुत्पन्न केवलः / अन्यदा विहरन्नुा हस्तिनापुरमाययौ // 16 // यथा संनिहितदेवैः सिक्त्वा गन्धांबुभिर्भुवम् / कृप्तं स्वर्णाजमध्यास्य स चक्रे धर्मदेशनाम् // 17|| तमेत्य शंखराजोऽपि भक्त्या सान्तःपुरोऽनमत् / धम्म तस्मादुपाकाकर्ण्य विज्ञप्तवानिति // 18 // वेवि त्वदुपदेशेन भवे कस्यापि कोऽपि न / सम्बन्धीति तथाऽप्यस्यां यशोमत्यां ममाधिका // 19 // प्रीतिरीतिः कुतो हेतोरिति सर्वज्ञ ! कथ्यताम् / केवल्यपि तयोः प्राच्यभवसम्बन्धमित्यशात् // 20 // प्रिया धनवतीत्यासीद् राजन् धनभवे तव / आये कल्पे सुहृद् रत्नवती चित्रगतेः प्रिया // 21 // माहेन्द्रे च सखा कान्ता त्वपराजि // 325 // Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 326 // *तजन्मनि / प्रीतिमत्यभिधा कल्पे वयस्यश्चारणे सुरः // 22 // यशोमतीयं ते भार्या सप्तमेऽभूद्भवे पुनः / तेनाऽस्यां षड्भवाभ्यस्तः || जिनेश ते स्नेहोऽभ्यधिको नृप ! // 23 // त्रिवि० / / इतोऽपराजिते गन्ता ततश्युत्वाऽत्र भारते / द्वाविंशोऽर्हन्नेमिनाथस्त्वं भावी यदुवंशजः | चरित्रम् / H // 24 // भूत्वा राजीमती त्वेषा त्वदेकायतमानसा / अबूडैव त्वत्करात्तव्रता मुक्तिं गमिष्यति // 25 // एतौ सहोदरौ ते चानुजौ पूर्व- | शंखभवे भवेष्वपि / मंत्री मतिप्रभश्चैते गणेशास्तव भाविनः // 26|| शंखः पुत्रं पुण्डरीकं न्यस्य राज्येऽग्रहीद् व्रतम् / सानुजः सप्रियो मत्रि- दीक्षा तीर्थयुतो वैराग्यमुद्वहन् / / 27 // चित्रं तपोग्नितापेऽपि दाढ्यं शंखः परं दधौ। एकादशांगीगंगांभापूरैश्च खमपूपुरत् // 28 // अर्हद्भक्त्या कृत्कर्मनिदिभिः स्थानः प्रागुक्तव्यक्तिभिः स च / आर्जयत्तीर्थकरनाम निकामाद्भुतवैभवम् // 29 // वैराग्यं शंखवद् भेजे शंखसाधुस्तथा यथा।* काचनानु त्तर विमानिर्ममोऽभूत्स्वदेहेऽपि किं पुनर्दयितादिषु // 30 // बहूनां कलहोऽवश्यं संघर्षश्च मिथो द्वयोः / सौख्यं स्त्रीवलयस्येव तदेकस्यैव दे | नगमनं च हिनः॥३१॥ अक्षरस्य यथैकस्य क्लेशो नोचारणे भवेत् / जीवस्यापि तथैकस्य भवदुःखनिवारणे // 32 / / एकख प्राणिनस्तु स्यात् / स्वदेहममतोज्झनात् / अष्टादशानां रागादिरूपाणां चान्तरद्विषाम् // 33 / / विचार्येति गुरूपान्ते वायुःप्रान्ते विशेषतः / संलिख्य भावटंकेश्चोल्लिख्य खां वक्रतां हृदः // 34 // भावनां क्षमणां कर्मगर्हामनशनं तथा / परमेष्ठिनमस्कारं चतुःशरणसंश्रयम् // 35 // कृत्वेत्याराधनं पोढा पादपोपगमं तथा / मृत्वाऽपराजिते शंखो विमानेऽनुत्तरे ययौ // 36 // 50 कु०॥ तेनैव विधिना प्रापुर्यशोमत्याद-19 सर्ग-७ यस्त्रयः। अपराजितमेवैकयोगोक्तानां न भिन्नता // 37 // तस्मिन्ननुत्तरसुखव्यतिषंगरंगरंगन्मनाः स्फुरदनुत्तररूपलक्ष्मीः। सत्रिंशतं समधिकां त्रिभिरम्बुधीनां सोत्कर्षहर्षमयमायुरथो निनाय / / 38 // // 326 // इतश्च जम्बूद्वीपस्य भरताद्धेऽस्ति दक्षिणे / कुशारीनाम्ना विषयः स्पर्शवद् विषयाग्रणीः // 39 // यस्मिंश्चतुःपुमर्थश्रीसाधकेऽन्या Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 327|| मजिय वर्णनम् न्यदेशजाः। वासं लोकाः समीहन्तेऽभीष्टदेवोपयाचितैः // 40 // अशेषः शेषराजस्य लोको हि भयविह्वलः। यस्मिन्नहिभयोन्मुक्त | प्रासादछमनाऽवसत् // 41 // प्रासादस्येव तस्याऽस्ति कुम्भवन्मौलिभूषणम् / सुवर्णविलसत्कान्तिभरं शौर्यपुरं पुरम् // 42 // यच्चत्यकूटघटितान् सिंहान् वीक्ष्याम्रभृपतिः। स्वर्गगायां जलक्रीडाचिकीर्वेगात्पलायते // 43 // लक्ष्मीपूर्णस्य यस्येन्दोरिवारिध्वंसशंसकः।। पृथुर्वलयितो वप्रः परिवेष इवाऽशुभत् // 44 // यच्चैत्यान्तर्दह्यमानागुरुधूमाधिवासितैः / प्रत्याय्यन्ते प्रियाः कष्टं खेचरै गरैरपि // // 45 / / पद्मखण्ड इवालीनां हंसानामिव मानसम् / सेव्यं दैवतवच्चासीन्मुनीनामपि यत्सदा // 46 // सूर्येन्दुकान्तहानवप्रप्रासादकान्तिभिः / यत्रोज्वलाम्बुः क्षीरोदाश्लिष्टेव सरयूरभात् // 47 // तत्राऽमृद् भूरिराजश्रीवाजिकुञ्जरडम्बरैः / स्फूर्जत्समुद्रविजयः समुद्रविजयो नृपः // 48 // उत्तानदानशौण्डानां दन्तिनामिव विद्विपाम् / शरणानि बनान्येव यत्र प्रकुपितेऽभवन् // 49 // विषमाखान्न सहते इति त्रासवशादिव / विषमास्त्रोऽप्यधाद् यस्य स्वशौर्यमुपायनम् // 50 // प्रत्यथि दानावसरे निस्त्रशो दृढमुष्ठिताम् / अधान्न दानवी। रस्य यस्य पाणिस्तु दक्षिणः // 51 // भिन्नविट्कुम्भिकुम्भाग्रजाग्रन्मुक्ताफलैर्व्यधात् / असूत्रहारशृंगारं यः खड्गस्थजयश्रियः // 52 // [C || देवी तस्य शिवादेवी शिवादेवी नवाऽभवत् / सौभाग्याद् भतुरासाद्य सप्ताप्यंगानि शंकरात // 53 // तन्मुखेन्दोस्तलां धत्तां वराक: | स कथं ? विधुः / पयोधरोन्नती नायं यदसाविव दीप्यते // 54 // चातुर्यार्जवसौभाग्यशीलाद्यैः सोहृदं गुणेः / विरुद्धैरपि यत्प्रापि मिथस्तत्तीर्थमेव सा // 55 / / ज्योत्स्नेव निर्मला चन्द्रं वागिवाऽऽब्जं सलक्षणा / देवी तमेकं भूपालं सती भूपयति स्म सा // 56 // प्रतिव्रतात्वशालिन्या तया देव्या भुवाऽपि च / स राजा विषयग्रामसौख्यकोटिमलभ्यत // 57 // इतश्च कार्तिके मासि कृष्णायां द्वादशीतिथौ / चित्रानक्षत्रगे चन्द्रे कन्याराशिं श्रितेऽपि च // 58|| जीवः शंखस्य पूर्णायुःस्थितिथ्युत्वाऽपराजितात् / ज्ञानत्रयान्वितः कुक्षौ // 327 // Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / शिवादेवि दृष्टस्वप्न // 328 // कथनम् शिवादेव्या अवातरत् // 59 // गजो वृषो हरिः श्रीः सक् चन्द्रः सूर्यों ध्वजोऽप्यथ / सरोवाद्धिर्विमानश्च रत्नपुञ्जः शिखी ज्वलन् // 60 // महाराज्ञी महास्वमांश्चतुर्दश निशात्यये / एतानपश्यद् वक्रान्तर्विशतः सा समाहिता // 62 // स्वर्वासिनामिव तदा नारकाणामपि क्षणम् / जज्ञे सौख्यं त्रिलोक्यामप्युद्योतश्च व्यज़म्भत // 33 // सा प्रबुद्धा प्रगे तांश्च प्रत्युरत्युत्सुकाऽऽख्यत। विधायावश्यक सोऽपि तां निवेश्य पटान्तरे // 64 / / आह्वाय्य क्रोष्टुकिं नैमित्तकं वान्छितदानतः। सत्कृत्याऽपृच्छदेषोऽपि व्याख्यत्स्वमानिति क्रमात् // 65 / / दन्तीन्द्रवद् दानशौण्डं वृषवद्धर्मधूर्वहम् / सिंहबद् विक्रमोद्रिक्त लक्ष्मीवद् विष्णुसेवितम् // 66 // माल्यवत्सुरभि कीर्त्या चन्द्रवन्नेत्रवल्लभम् / मार्तण्डवत्सप्रतापं ध्वजवत्स्वकुलध्वजम् / / 67 / / कुम्भवद्विश्वमांगल्यं सरोवत्तर्षतापहम् / समुद्रमिव | गम्भीरं देवैः सेव्यं विमानवत् / / 68 // रत्नौघवत्सगुणाढ्यं वन्हिवच्च तमच्छिदम् / पुत्रं जगत्रयाधीशं जिनं राजन्नवाप्यसि // 69 // | // च० कु०॥ चारणो मुनिरिन्द्राश्चासनकम्पागता नृपम् / स्तुत्वा द्वाविंशमावेद्य जिनं पुत्रं ययुर्दिवि // 70 / / करिष्येऽहं महं चेत्तद्रक्ष्यामीन्द्रैः कृतं कथम् / इतीव द्यौः सबैलक्ष्य रत्नवृष्ट्याऽहसन्नृपम् / / 71 // चतुरा भारतीवार्थ वेलेवाब्धिमणिव्रजम् / वसुधेव निधि गूढं देवी गर्भ दधत्यऽभात् // 72 // कान्तामेतामुदरिणी हृष्टा दृष्टिः प्रतिक्षणम् / नृपस्यैक्षत रंकस्य प्रियेव निधिकुम्भिकाम् // 73 // * गर्भस्थस्य विभोर्निर्यद्यशोभिरिख शोभितम् / कर्पूरपूरैर्घटितमिव देहमुवाह सा // 74 // भवाब्धेः स पारगोऽस्तु निर्वन्धश्च जनिता| त्मजः / क्रीडाशकुन्तस्तेनैपा पञ्जरान्मोक्तुमैहत // 75 // गर्भस्थोऽपि मलैस्तैस्तैरस्पृष्टांगः प्रभुर्दधौ / त्रिज्ञानी प्राग्गिरेरकों गुहान्तःस्थ इव त्रयी // 76 // कर्तुं यदैच्छन्नृपतिः कर्म पुंसवनादिकम् / शक्रेण तदुपेत्याशु कृतमेव व्यलोकयत् // 77 / / गर्जातर्जा विद्युतं च विना श्रीदोऽम्बुदो नवः / रत्नादिवृष्ट्या कोशद्धिं राज्ञोऽवर्द्धयदोकसि // 78 // आबाल इव कल्पद्रुः स्थितो सर्ग-७ // 328 // Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 329 // जन्मनि दिक्कुभारी महोत्सव * गर्भ विभुः सुखम् / ववृधे वपुषा राज्या नोदरं तु कुतूहलम् // 79 // गंगेव नीलनलिनं नव्यं प्रावृडि चाम्बुदम् / महानीलमणि रत्न क्षोणीवाऽभीष्टदायकम् / / 80 // श्रावणे श्वेतपञ्चम्यां निशीथे त्वाष्ट्रगे विधौ। शिवाऽसूत सुतं शंखध्वज नव्याम्बुदद्युतिम् // 8 // युग्मम् / / जरायुरुधिराद्यैश्च बाबैराभ्यन्तरैरपि / देहस्त्यक्तो मलै रेजे रत्नादर्श इव प्रभोः // 82 // मेरोस्तटी घनेनेव तेन श्यामेन साऽशुभत् / अष्टोत्तरसहस्रेण लक्षणलक्षितात्मना / / 83 // वातैः सुखैः तदा जज्ञे मुमुदे नारकैरपि / त्रिलोकी तेजसाऽपूरि नेदे दुन्दुभिना | दिवि // 84 // उदश्वसद् धरा व्योम स्फटिकादर्शतां दधौ / दिक्कामिनीनां निधूतरजसा महसा प्रभोः // 85 / / इतश्च जिनजन्मोत्थहर्षोत्कर्षादऽधूनयन् / दिकन्यानामासनानि स्वमौलिं कम्पकैतवात् // 86 // अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा जिनजन्मोत्सवं च ताः / अस्ताविषुः। प्रभुं भक्त्याथागासिपुरनर्तिषुः / / 87 / / अधोलोकात्कुमार्योऽष्टावेयुभॊगंकरादयः। नत्वाऽम्बां ज्ञापयित्वा स्खं चक्रुः संवर्तमारुतम् / / 88 // | हृत्वा चायोजनं सूतिगेहादशुचिपुद्गलान् / गायनीवजगुर्नातिदूरस्थास्ताः प्रभोर्गुणान् / / 89 // उर्द्धलोकादथैत्याऽष्टौ देव्यो मेघंकरादयः। | तां मां गन्धाम्बुपुष्पाब्दवृष्ट्या सिक्त्वा जिन जगुः // 90 // एत्य प्रागुरुचकादष्टौ देव्यो नन्दादयस्ततः / नत्वा जिनं तदम्बां च तस्थुर्दर्पणपाणयः॥९१।। देव्योऽष्टौ समाहाराद्या दक्षिणादूचकाद्रितः / शृंगारपाणयोऽभ्येत्य जिनं नत्वाऽन्तिके जगुः // 92 // पश्चिमागुचकात्कन्याः समेत्याष्टाविलादयः / जिनं प्रणम्य देवीं च तस्थुळजनपाणयः॥९३।। औत्तराशादुचकतो देव्योष्टाऽलम्बुसादयः / एत्य मात्रा समं नत्वा जिन तस्थुः सचामराः // 94 // विदिशां रुचकादिभ्यश्चतस्रोऽभ्येत्य कन्यकाः / नत्वा जिनाम्बे चित्राद्याः खाशाखऽस्थुः सदीपिकाः // 95 // चतस्रो रुचकद्वीपमध्यतश्च कुमारिकाः / रूपादयः सूतिगेहे जिन नत्वा समातृकम् // 96 // चतुरंगुलतो नालं छित्त्वा जैन दरे न्यधुः। तं रत्नादिभिरापूर्य ताः पीठं द्वया व्यधुः // 97 // दक्षिणप्रागुत्तरास्थांस्ताश्चक्रुः सूतिगेहतः। // 32 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 330 // सिंहासनचतुःशालरम्यास्त्रीन् कदलीगृहान् // 98 // दक्षिणे ताश्चतुःशालेऽभ्यंगं चक्रुजिनाम्बयोः। तैलन लक्षपाकेन दिव्यमु जिनेशद्वर्तनं तथा // 99 // संस्नप्य प्राक्चतुःशाले विलिप्य सुरचन्दनः / वस्त्रालंकरणदिव्यैरुभौ ताश्च व्यभूषयन् // 700 // तावुत्तरचतुः-* चरित्रम् / शालासभमारोप्य किंकरः / क्षुद्राद् हिमाद्रेरानाय्य नव्यं गोशीर्षचन्दनम् // 1 / / उत्पाद्याऽग्निं तत्र हुत्वा कृत्वा तद्भस्मना नवाम् / शक्रेन्द्रस्यारक्षाग्रन्थि तयोः पाणौ बबन्धुर्दक्षिणेऽथ ताः // 2 // पर्वतायुभवेत्युचेल्गन्त्यः श्रवणान्तिके। जिनस्वास्फालयामासुस्ताश्च दिव्याश्म गमन | गोलकौ // 3 // अथो जिनं शिवादेवीं नीत्वा सूतिगृहे पुनः / तल्पे निवेश्य पार्श्वेऽस्थुर्गायन्त्यस्तास्तयोर्गुणान् // 4 // जज्ञे च नृत्य प्रमुगृहे द्विश्वश्रीकंकणक्काणसोदरैः / कल्पवासिसुरावासघण्टाध्वानः सम तदा // 5 / / अप्रकम्पैरपि सदा शकाणामासनस्तदा / चकम्पे त्रिदिवेऽकस्मात् स्फीतशीतज्वरार्त्तवत् // 6 // क्षणं सकोपः सौधर्माधीशो ज्ञात्वाऽबधेरथ / जिनस्य जन्म सप्ताष्टावभिगम्य पदानि च | // 7 // पञ्चधाभिगमं कृत्वा जिन नत्वा च तन्मुखः। स्तुत्वा शक्रस्तवेनोच्चैहरिणा नैगमेषिणा // 8 // सुघोषां ताडयित्वाशु घंटां | ज्ञापितवान् प्रभोः / जन्मोत्सवं निजे कल्पे देवान् क्रीडाप्रमादिनः // 9 // द्वात्रिंशल्लक्षविमानघंटाभिः प्रतिवादिवत् / अनूदिते सुघोपायाः शब्दे वादिप्रमेयवत् // 10 // ततो दिविषदः सर्वे सभासद इव द्रुतम् / महर्या विबुधाधीशं विस्मयादुपतस्थिरे // 11 / / पञ्च| योजनशन्युचं लक्षयोजनविस्तृतम् / चक्रे शक्राज्ञया यानं पालकः पालकाभिधम् // 12 / / महिषीभिः सहाऽष्टाभिः सुरैः सामानिका- सग-७ *दिभिः / सौधर्मेन्द्रस्तदध्यास्ताऽप्सरःस्त्रीधूतचामरः // 13 // गायन्नृत्यदनुगच्छद् वृन्दं दिविषदां मुहुः / पश्यन् पृथक्पृथग्भावयनैः स्वस्वयानगम् // 14 // विभावयंस्त्रासहेतौ तूर्यलक्षे ध्वनत्यपि / हाहाहूहूगीतशक्त्या मृगांकस्य मृगं स्थिरम् // 15 // नन्दीश्वरादौ खं यानं // 330 // शक्रः संक्षेपयन् मुहुः / एत्य शौर्यपुरं सूतिमन्दिरं त्रिः परीत्य च // 16 / / मुक्त्वा विमानमैशान्यां प्रविश्यातः समातृकम् / विधिना Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 33 // मेरौ जन्माभिषेकः जिनमानम्याऽस्तावीदेवं शिवां स्वयम् // 17 // च०क०॥ शुक्तिनवीना खं देवि! स्ववंशक्षीरनिरधौ। यदंगजन्मा मुक्तात्मा परिष्फूर्ता जगत्त्रयीम् // 18 // प्रभोः जन्मोत्सवं कर्तुमागतं खं सुरेश्वरः / ज्ञापयित्वा शिवादेवीं भेतव्यं नेत्यभाषत / / 19 / / नलिन्या इव शीतांशुस्ततोऽवस्वापिनीं हरिः / दत्वा मातुस्तत्समीपे प्रभोद्भ्य॑न्तरं व्यधात् // 20 // वैशाखवद् वज्रपाणिः पश्चरूपाणि निर्ममे / प्रभौ | व्यंजिजिषुभक्ति जीमूत इव पञ्चधा // 21 // तत्रैकेन मृगांकस्य स्ववक्त्रस्येव योगतः / कोशीभवत्कराम्भोजपुटयोरन्तरे मृदौ // 22 // अनुजानातु मां स्वामीत्युदित्वा भक्तिवामनः / प्रभु शृंगनिधायं स निदधे विबुधेश्वरः // 23 // सेवार्थिनोः श्राद्धसाधुधर्मयोखि | शुद्धयोः / तत्पार्श्वगाभ्यां चोभाभ्यां दधे चामरयोर्द्वयम् // 24 // स्फटिकच्छत्रता प्राप्तं सिद्धिक्षेत्रमिवोज्वलम् / श्वेतातपत्रं तुर्येण प्रभोमनि न्यधत्त सः // 25 // प्रभोमुखे वलद्ग्रीवं सोऽच्छिन्नालोककौतुकः / दत्तदृष्टिः पञ्चमेन वज्रमुल्लालयन् ययौ // 26 // तेनान्तर्वाद्धिनागेन्द्रनालेऽदर्शि धराम्बुजे / स्वर्णाद्रिः कणिकामुद्रः सान्द्रभ्राम्यदनालिकः // 27 / / यो मूर्द्धनि स्थलाऽम्भोजरजोभिर्मा| रुतोद्भुतैः / धृतस्वर्णातपत्रश्रीधत्ते क्ष्माधरराजताम् // 28 // यो वनकुमुमव्याजाद् भर्तुर्योगादिवोद्गतः / वपुर्धत्ते स्म पुलकमुकुलैरिव मालितम् // 29 // तत्रेन्द्रः पाण्डकवने मू व क्ष्माधरश्रियः / विनीलत्पल्लवैवृक्षैः श्यामले कुन्तलैरिव // 30 // उत्तंसकेतकदलद्रो| णीमिव सितद्युतिम् / अतिपाण्डुकम्बलास्यां शिलां श्रृंग इवाश्रयत् // 31 // तदन्त केशरभरमित्र कण्ठीरयासनम् / भेजे परिमलैरेस | रत्नानां च्छुरिताम्बरम् // 32 // तस्मिंश्च प्राङ्मुखे शक्रः क्रोडस्थापिततीर्थकृत् / रेजे योगीव हृत्पद्मप्रकटान्तरपूरुषः // 33 // स्वास नानां प्रकम्पेन त्रिपष्टिरपरेऽप्यथ / ज्ञप्तास्तत्राययुः शक्राः स्वस्वलक्ष्म्याऽच्युतादयः॥३४॥ निर्माप्य रूप्यकनकमृत्तिकामणिभिस्ततः। | केवलैमिश्रितरष्टसहस्रप्रमितान् पृथक् // 35 / / गारान् कलशानाभियोग्यदेवास्तदाज्ञया / आपूर्य सर्वतीर्थाब्धिनदीहृद्जलैः क्षणात् | // 33 // Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेश चरित्रम् / // 332 // स्तुतिः // 36 // योजनास्यास्तत्र लोलत्पद्मान पत्रांकुरोद्धरान् / भ्राम्य गस्वनैरहद्गुणगानपरानिव // 37 // तेषामाढौकयामासुर्विधिना तेsप्यथो व्यधुः / स्नात्रं क्रमात्प्रभोश्चित्रवादित्रध्वनिभिः समम् // 38 // दोर्मालारब्धकुम्भौघान्यावृत्तिपरिवृत्तिभिः / देवैः सिन्धुजलाकृष्टौ नवश्चक्रेऽरघट्टकः // 39 // अच्युतायैत्रिषष्ट्याऽथ सुरेन्द्रविधिना जिनः / क्रमेण हर्षेणाऽभ्यया॑ऽस्तावि भावितमानसः // 40 // मूर्तीः पञ्च विकृत्याथ खोत्संगे प्रभुमाददे / ईशानेन्द्रः सुधर्माधिपतौ स्नात्रं चिकीर्षति // 41 // निर्ममे निर्ममेशस्य चतस्रुष्वपि दिक्षु सः / चतुरश्चतुरस्तुंगान् स्फाटिकान् वृषभान् प्रभोः // 42 // तच्छंगाग्रोवंसंचारिक्षीरधाराभिरम्बरात् / सखीभिरिव संभूय भूयः सौहार्दयोगतः // 43 // रभसादापतन्तीभिर्वासनाभिरिवात्मनः / प्रत्यक्षाभिनिर्मलाभिर्भक्त्या सर्वामरैः सह // 44 // विपक्षमशुभं | जिष्णोजिनराजस्य वासवः / चक्रेऽभिषेकं त्रैलोक्यस्वाम्ये गायति तुम्बरे // 45 // त्रि०वि०॥ स्नात्रामृतैविभोः स्वांग श्रद्धया यद-| HT नेनिजुः / देवास्तदाऽन्यदासेदुः सत्यामजरतां ध्रुवम् // 46 // नृत्यत्सुरवधूनेत्रकटाक्ष छुरितं प्रभुं / शची क्षीरोदकभ्रान्त्योन्मार्जती | | वासवोऽहसत् // 47 // दिव्यया गन्धकाषाय्या परामृश्य विभोर्वपुः / चर्चयित्वा च गोशीर्षचन्दनेनाऽथ वासवः // 48 // कल्पद्रुमा-| | दिकुसुमैः संपूज्यामोदमेदुरैः / कान्त्या जितेन्दुमहसी वाससी पर्यदीधपत् // 49 // स्वयं मंगलभूतस्याऽप्यथ शक्रः प्रभोः पुरः / / सकलैर्विलिलेखाष्टमंगली दिव्यतन्दुलैः // 50 // चारुवारीभरभ्रश्यद्भुषामुक्तामणिब्रजैः / नवोद्यत्तारकां मेरोश्चूलिकां कुर्वती भृशम् | // 51 // पुलोमतनयारम्भाप्रभृत्यप्सरसां गणैः / सह प्रेक्षणकं चक्रे श्रीजिनस्य पुरस्ततः // 52 // युग्मम् // स्मेरकैरववनः सहस्रनयनः प्रभोः / मुखेन्दुज्योत्स्नया मन्ये मुकुलत्करपंकजः॥५३॥ सजं निजस्तवमयीमारोप्य पुनरप्यथ / काव्यपुष्पैर्व्यधत्ता_मिति सौरम्यनिभरैः // 54 // देव ! व्योमेव नीरुपममपि नीलोत्पलप्रभम् / स्तौमि त्वां जगदाधारमनाधारमपि सर्ग-७ // 332 // Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 333 // मातगृहे मोचनम् स्वयम् // 55 // नाद्भुतं ते प्रभो! मूत्तिः स्निग्धा कजलवत्तिवत् / मूतिः कर्पूरगौरस्य महसो यत्तदद्भुतम् // 56 // नाथ! त्वत्कान्तिकालिन्दी भृयान्मन्दीकृता शुभा। गंगासंगाकृतिर्दधे यत्र क्षीरोदवारिभिः॥५७॥ लेभे मेरोरियं चूला चूला रम्येषु यत्त्वया। अलंचके स्वयं नाथ ! तमालश्यामलश्रिया // 58 // नवनीलोत्पले विश्वसरोलंकरणे त्वयि / जातेऽद्य मुमुदे हंसैश्चित्रं त्यक्तजडाशयैः॥५९।। | शखो यद्दक्षिणावर्तः कीर्ति कामप्रदेष्वधात् / जगत्रयेश! तत्तेऽहिसेवाहेवाकजृम्भितम् // 60 // त्वया घनश्रिया कामवर्षिणाऽलंकृतं | मम / इदं क्षेत्रं द्विधाप्यद्य सद्यः शस्यर्द्धिमासदत् // 61 // भयंकराऽप्यभृन्नाथ सर्पिणीवावसर्पिणी। आनंदकृत् त्वया चूडारत्नेनाद्य | विभूषिता // 62 // प्रभो भीष्मभवग्रीष्मसन्तापं शमयन्तु नः। लक्ष्मीगेहभवदेहरुचो रम्भागृहश्रियः॥६३।। स्तुत्वेति जिनमाधाय शक्रः स्वं पञ्चरुपिणम् / ईशानात्तं गृहीत्वा च नीत्वा मात्रन्तिकेऽमुचत् // 64 // श्रीदामगण्डकं सोऽथ वितानान्तरतिष्ठिपत् / लम्ब मानं लोचनानां विनोदायोपरि प्रभोः // 65 // उपधानेऽमुचद् देवदृष्यं दिव्ये च कुण्डले / वक्त्रनिर्जितसज्योत्स्नजम्बूद्वीपविधू इव Ka66 // पग्रिन्या इव मार्तण्डः शिवादेव्याः स च क्षणात् / जहेऽवस्वापनी जैनी प्रतिमूर्तिं च तां निजाम् // 67 // अथाभियोगिकै देवैः सुत्रामैवमघोषयत् / सुरासुरमनुष्येषु यः कश्चिदिह दुर्मतिः॥६८॥ जिनस्य श्रीशिवादेव्याचानिष्टं चिन्तयिष्यति / तस्यार्जकमञ्जरीव सप्तधा भेत्स्यते शिरः॥६९॥ सुवर्णरत्नवस्त्राधैर्यथाकामीनवस्तुभिः। श्रीदः शक्राज्ञयाऽवर्षत् समुद्रविजयौकसि // 7 // सुधा सुधाभुजां भर्ता स्वांगुष्ठे निहितां प्रभुः। अपिवत् क्षुधितोऽस्तन्यपाननिष्ठा जिना यतः॥७१।। धात्रीत्वाय प्रभोः पश्चाप्सरसः समितीरिख / आदिश्येन्द्रो ययौ नन्दीश्वरे मेरोः परे पुनः॥७२।। तत्रार्हतां शाश्वतानां ते कृत्वाऽष्टान्हिकोत्सवम् / जग्मुः सर्वे यथास्थानं दधानाः परमां मुदम् / / 73 / / उदितस्तमसा छेत्ता नवः प्रद्योतनो जिनः / इत्यनश्यद् भुवं त्यक्त्वाततिनीव तमस्विनी // 74 // शिवा // 333 // Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 334 // देव्याः पद्मरागमुकुटोपायनं तदा / आविश्चक्रे रविं प्राची सखीवदनुरागिणी // 75 / / भ्रमुः प्रदक्षिणं देवा इव प्रातस्त्यवायवः / विस्ता- || जिनेशरयन्तः कमलामोदव्याजाद् यशः प्रभोः // 76 // देवी ततः पद्मिनीवोन्मीलत्पद्मविलोचना / पुत्रं प्रेक्षत दिव्यांगरागवस्त्रविभूषितम् चरित्रम् / // 77 // देव्यास्तदा परिकरः सहर्षः पुत्रजन्मना / देवताक्लप्ततत्सूतिकृत्यैश्चावर्द्धयन्नृपम् / / 78 / / जीवलोक इवादित्योदये चन्द्रोदयेऽब्धि- पितृकृतजवत् / माकन्दवनवचैत्रे तदा स्फारोऽभवन्नृपः // 79 // प्राणिनो मोचयामास भूपश्चारकबन्धतः / संसारगुप्तिबन्धात्तु मोचयिष्यति न्मोत्सव नन्दनः // 80 // पठन्तः पण्डिताः स्तुतिं मातृकान्तगृहेऽभ्ययुः / छात्रैः परिवृताः कूर्दमानैर्जात्यतुरंगवत् // 81 // पुरे चिक्षेप नो केतु-| पटच्छन्ननभोन्तरे / गन्धाम्बुपिच्छिले पादान् भानुः पातभयादिव / / 82 / / हस्त्यश्वरत्नवस्त्रादिप्राभृते राजकाहृतः। विस्तीर्णमपि संकी र्णमभृन्नृपगृहांगणम् // 83 / / नृत्यत्पण्यांगनं वस्त्राद्यचितज्ञातिनागरम् / प्रीणितार्थिजनं चक्रे सूनोजन्मोत्सवं नृपः॥८४|| श्यामांगयोगिनमपि पूणेन्दुमिव निर्मलम् / प्रेक्ष्य पुत्रं समुद्रोऽभूदुन्मुद्रोत्कलिकाकुलः // 85 // षष्ठीजागरणार्केन्दुदर्शनादिमहोत्सवान् / नृपः कृत्वा प्रभोनामकरणोत्सवमातनोत् // 86 // रिष्टरत्नमयी चक्रधारा स्वमेऽत्र गर्भगे। यन्मात्राऽदर्शि तद्राज्ञा ज्ञातिसत्कारपूर्वकम् // ||87 / / अरिष्टनेमिरित्याख्या तनुजस्य विनिर्ममे / उत्सवश्च नदत्पण्यस्त्रैणगीतोरुमंगलः // 88 // युग्मम् / / क्व निस्तीर्णभवाम्भोधिः प्राप्यः प्रभुरयं पुनः / इतीवारमयन् बन्धुवध्वस्तं स्पर्द्धयोद्धराः / / 89 // लोकस्त्रिलोक्याः सोऽपि समभं शिशुमप्यमुम् / अन्ववर्तत | सर्ग-७ तेजस्विवर्गो ध्रुवमिवादृतः // 10 // मुक्तिरत्युत्सुकाऽचुम्बत् तं बाल्येऽपि कपोलयोः। यत्ताम्बूलरसो रत्नताडंकत्विमिपात् स्थितः | // 91 // तस्यांगसंगमे रेजे राजा नेत्रे निमीलयन् / देहगेहे सुखं शिवा कपाटाविव योजयन् // 92 / / पद्मात्पद्मान्तरं भुंग इव राज्ञां | // 334|| कराकरम् / संचरंस्तोपयामास कं न स्वामी मृदुस्वरः // 13 // हैमीललंतिका स्वामीकण्ठपीठे लुठन्त्यभात् / हृत्पद्माद् ज्ञानकिंजल्क Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 335 // भीतेन कंसेन पृष्टो नैमित्तिक कल्को बहिरिवोद्गतः॥९४॥ इत्थं सह त्रिजगतीतलवत्तिलोकास्तोकावतारणकमंगलमालिकाभिः। पित्रोर्मनोरथशतैश्च समं जगाम वृद्धि प्रभुर्विगतकष्टमरिष्टनेमिः॥९५॥ अममचरिते भाविन्येवं तयोः सहजन्मनोबलहरिभवे वप्तु_तुः समुद्रमहीभृतः / तनुजनितया द्वाविंशस्याईतः प्रथितस्य वो नवभवकथारम्य नेमेश्चरित्रमिदम् // 16 // इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते श्रीअममस्वामिचरिते महाकाव्ये चतुर्थे बलशाभिवे तत्पितृव्यपुत्र श्रीनेमिनाथतत्पूर्वभवाष्टककथा नवमभवजन्मोत्सवबाल्यलीलावर्णनः सप्तमः सर्गः // 0 798 // अष्टमः सर्गः / इतश्च मथुरापुर्यां सुरपुर्यामिव श्रिया / दशाहों दशमः श्रीमानिन्द्रवद्विहितास्थितिः॥१॥ ज्ञात्वा समुद्रराजस्य शरण्यस्य महीभृताम् / नेमि कल्पद्रुवजातं सुतं सेव्यं सुरासुरैः // 2 // हर्षप्रकर्षभाक् चक्रे क्षितिचक्रेशदुःकरम् / तदा महोत्सवं द्रव्यव्ययादिभ्यैर्जनः सह // 3 // त्रि०वि०॥ अन्येधुर्देवकी नंतुमापतन् दुन्दुमन्दिरे / कंसस्तां छिन्ननासाग्रां खेलन्तीं वीक्ष्य कन्यकाम् // 4 // स्मृत्वाऽतिमुक्तकमुनेर्वाक्यं भीतोऽधिकं हृदि / व्यावृत्य द्रुतमेत्य खगृहे नैमित्तिकं रहः॥५॥ आह्वाय्य पुनरपाक्षीदिति मृत्युभयातुरः। साधुक्तः सप्तमो गर्भः स्त्रीरूपोऽभून्मृषा न वा 1 // 6 // त्रि०वि०॥ नैमित्तिकोऽप्युवाचेति विपर्येति न साधुगीः / नूनं तत्सप्तभो गर्भः काप्यास्तेऽन्विष्यतां ततः॥७॥ वृषं दुष्टं त्वमरिष्टं केशिनं वाजिनं च तम् / दुर्घर्षों खरमेषो च मुश्च वृंदावने क्रमात् // 8 // वज्र // 335 // Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 336 // सारानस्तत्र यो हनिष्यति हेलया। हन्ता स ते सुतोऽवश्यं देवक्याः सप्तमो नृप ! // 9 // त्वन्मात्रा पूज्यमानं च धनुः शाङ्ग क्रमा-* जिनेश| गतम् / यत्वद्गृहेऽस्ति तन्नूनं स एवारोपयिष्यति // 10 // पुरा हि ज्ञानिनाऽशंसि वासुदेवाद्भविष्यतः। भविष्यति दरारोपं पर>ष्म- चरित्रम् / भिरप्यदः // 11 // कालियाहेः स दमकश्चाणूरवधकश्च सः। पद्मोत्तरचम्पकयोः स च हंता द्विपेन्द्रयोः // 12 // कंसो निजारिं जिज्ञा- | देवकीसप्त| सुररिष्टादीन् वनेऽमुचत् / श्रमं कत्तुं चादिदेश मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ // 13 // रिष्टं साक्षादरिष्टोक्षा वने भ्राम्यन् शरद्यथ / गर्जनिभ मगर्भज्ञाना थे प्रयत्न | इवोन्मत्तः कोपाद्गोपानुपाद्रवत् // 14 // उचिक्षेप स गास्तीक्ष्णशृंगाग्रेण तटीरिव / तुंडाग्रेणाज्यदध्यादिभाण्डान्यस्फोटयत्तथा // 15 // हा कृष्ण कृष्ण त्रायस्व राम रामैहि सत्वरम् / गोपीनामित्यभृदाा बहलस्तुमुलस्तदा / / 16 / / श्रुत्वेति शौरिजन्मानौ प्रौढमानौ * समं भ्रमम् / गोष्ठबृद्धैर्यमाणावपि दर्पादधावता // 17 // आयान्तं पुरुषव्याघ्र वीक्ष्योक्षा चित्रमभ्यगात् / कुंचन्मुखो रुपोत्पुच्छस्ती क्ष्णशृंगाग्रशस्त्रभृत् // 18 // उत्खाय शृंगे ग्रीवां च वालयित्वाऽथ वस्त्रवत् / लोकारिष्टमरिष्टं तं कृष्णः प्रैपीद्यमान्तिकम् // 19 // घोषयन्तो जयं खं खं भ्रमितांशुकपल्लवाः। आर्चयन् मुदिताः कृष्णभुजौ सर्वेऽपि वल्लवाः // 20 // खुरक्षुरप्रप्रहतसुरभिः सुरभिद्रुषा / अन्यदाऽऽगाइने केशी कंसाश्वः क्रीडतो हरेः॥२१॥ प्रेक्ष्यदुर्दात दंतांतक्रकचं विकचाननम् / हेषात्क्लप्तगोपीनाशं कीनाशमिव तर्ज| यन् // 22 // तमाकंठं मुखे शौर्यतिग्मांशी वलितं निजम् / बाहुं राहुमिव क्षिप्या द्विधाकृत्याच्युतोऽवधीत् / / 23 / / युग्मम् / / सर्ग-८ ___खरमेषमथो रोषखरमेष विशेषतः / कृतगोपभयाटोपमुत्कोपः केशवो न्यहन् // 24 // अथो जीवयशोनाथस्तदुन्माथस्फुरद्भयः / शाङ्ग सभायामानैपीन्निश्चयैपी द्विपोऽच्चितम् // 25 / / सत्यभामः सत्यभामां स जामि कन्यका निजाम् / आदिश्योपासिकां तस्यारेभे // 336 // पूजामहोत्सवम् // 26 // यो वज्रसारदोःसर्गः शार्ङ्गमारोपयिष्यति / दास्येऽस्म सत्यभामामित्यूचैराघोषयच सः // 27 // श्रुत्वेदमीयुरु- || Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 337 // धनुःसभा गत्वाऽऽरोपितं धनुः कृष्णेन वीशा गर्जन्तः शारदाब्दवत् / वेगात्तु मुमुचुर्दिव्यं धनुस्तद्गलितौजसः // 28 // श्रुत्वैतन्मदनवेगाकुक्षिजो वसुदेवभूः / अनाधृष्टिवीरमानी चापारोपाय कौतुकी / / 29 / / आगच्छन्नाकुलो दृष्ट्वा गोकुले रामकेशबौ। तत्स्नेहमोहितो रात्रि निन्ये तल्लालनासुखैः // 30 // | रामं विसृज्य च प्रातः स चचाल रथस्थितः / आदाय मथुरामाग्र्गदेशक केशवं सह // 31 // रथोऽस्य मार्गे वृक्षौधैः संकटे व्यलगद् | वटे / नालं तन्मोचने प्रौढोऽप्यनाधृष्टिरभूद्भटः // 32 // उन्मूल्यदोबलोदग्रो न्यग्रोधमनयद्यथा। रथं रथांगपाणिस्तमृजुनैवाशु हेलया // 33 // बलं लोकातिगं तस्यानाधृष्टिवीक्ष्य विस्मितः / उत्तीर्यालिंग्य तं पत्तिं रथमारोपयदलात् // 34 // उत्तीर्य सरयूं गत्वा मथुरान्तधनुःसभाम् / तामलंचक्रतु/रौ वीरौघैर्भूषिताविमौ // 35 // तौ वीक्षामासतुः सत्यभामां रामाशिरोमणिम् / धनुःपावे स्थितां साक्षा| भृतां तद्देवतामिव // 36 // असिस्नपद् भूपकूपभीरुके सुमुखी च सा | कृष्णांगे पुण्यलावण्यसुधाकुंडे खचक्षुषी // 37 // बहिदृष्टिरनाधृ. | ष्टिरपि तत्कन्यकामनः / अजानन्नेतदर्थी च धन्वारोपं प्रचक्रमे // 38 // कन्याभावविदा मन्ये चापेनाप्यस्य चापलम् / निषेद्धं पाणिना गृह्णन्नप्यपाति स भूतले // 31 // पंकिले करभस्येव तत्रास्य भ्रश्यतो ध्रुवम् / अशंसि भ्रष्टता भ्रष्टै खिन्नादेहान विभूषणैः॥४०॥ सत्य |भामासखीवृन्दै राजानः स्वपरिच्छदैः / सार्द्ध मेरदृशस्तेऽभिनिन्युः प्रहसनं घनम् // 41 // असहिष्णुस्तदा विष्णुः खभ्रातुर्लाघवं ध्वम् / तदादाय धनुः पद्मनालवल्लीलया करे // 42 // अनेकक्ष्माप-तपन-तत्यांग्या इव निवृतिम् / कतु तद् वलयीचक्रे कांताया विजय-1 श्रियः॥४३॥ स रेजे धनुपा तेन हस्तस्थेन प्रभाजुषा। श्रितस्ततार चक्रेण चक्रेणेव भविष्यता // 44 // अथैत्य धृष्टोऽनाधृष्टिः पितु| वेश्मनि सत्वरम् / मुक्त्वा रथस्थितं द्वारे हरिमित्याख्यदुद्धतम् // 45 // कोटिप्राप्तगुणं चक्रे तात ! शार्ङ्गधनुर्मया। यत्राभिरुपैरप्यन्यै राजन्यैर्वालिशायितम् / / 46 // आक्षिप्य वसुदेवस्तमवादीनश्य सत्वरम् / कंसो ज्ञात्वाऽन्यथा धन्वारोपकं त्वां हनिष्यति // 47 // ||337 // Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 338 // श्रुत्वेति भीतोऽनाधृष्टिबजे भुक्त्वा द्रुतं हरिम् / आपृच्छ्य च सराम तं ययौ शौर्यपुरे जवात् // 48 // तेनासहिष्णुना भर्तुर्मेधेनेव जिनेशपितुः पुरः / अपह्नुतमपि व्यक्तमभृत्तजो वेरिख / / 49 / / धन्वाऽध्यारोपयद् बालोऽप्यहो नंदस्य नंदनः / पुर्यां पटहोद्घोपः चरित्रम् / प्रघोष इति पप्रथे॥५०॥ कंसोऽपि संस्मरन् ज्ञानिवचो बाढमखिद्यत / निश्चिक्ये स्वांतके नंदसुतं तं देवकीसुतम् / / 5 / विधित्सु- बलदेवकस्तद्वधं कूटात्म जने धनुरुन्मवम् / प्रकाश्य मल्लानादिक्षत्रियुद्धायाखिलानपि // 52 // जितसौधमक्षिवाटमक्षबाट मयं श्रिया / मन्त्र- 7 तकृष्णयित्वाऽभितस्तं च मंचान्नुचानचीकरत् // 53 // आहूय भूयसो भूपांस्तेषु चैप न्यवीविशत् / महामंचं स्फुरद् वीरप्रपंचं चाश्रयत्स्वयम् | विज्ञापन // 54 // जानता वसुदेवेनाप्यस्य दुष्टमुपक्रमम् / आह्वाय्यंताग्रजाः सर्वेऽप्यक्रुराद्याश्च नंदनाः / / 55 / / कंसेनाप्यथ तन्मंत्ररहस्यमविजानता / श्वशुरस्य बलाद् बाढमुद्गाढश्रीमदस्पृशा // 56 // दशाही दशदिक्पाला इव ते सपरिच्छदाः / मंचेपूच्चतरेष्वध्यास्यंत सत्कृत्य पंक्तिगाः॥५७।। युग्मम् / / श्रुत्वा मल्लाहवं कृष्णः सतृष्णस्तं निरीक्षितुम् / इत्यवादीत्तदा रामं कामं विनयवामनः / / 28 / / द्रष्टुं मल्लभटीमार्य ! कौतुकं महदस्ति मे / तदेहि मथुरा मा मे प्रार्थनां त्वं वृथा कृथाः // 59 / / अस्तुंकारस्तद्वचसो यशोदामबदद् बलः।। | द्रष्टुं यियासतोर्मल्लान स्नान प्रगुणयाशु नौ / / 60 // वलस्तामलसां प्रेक्ष्याक्षिप्याऽवादीदिमां गिरम् / कृष्णाग्रे सोदरखधाख्याननाट्या | मुखत्विषम् // 61 / / अधुना व्यस्मरः किं ? खं दास्यं मंदायसेत्र यत् / आदिष्टा स्वामिना दासी नोदासीना भवेत्क्वचित् / / 6 / / बलोऽवलोक्य वचसा तेन म्लानं निजानुजम् / निन्ये स्वाज्ञावश नद्यां कालिन्यां स्नानहेतवे // 33 // तत्रापृच्छदये ! वत्स! त्वं | स्वच्छः सकलोऽपि किम् / विच्छायत्वमधाश्चंडकराहत इवोडुपः // 64 // बलदेवं तदेवं स बभापे साश्रलोचनः / दासीत्याक्षिप्य किं ? // 338 // |प्रोचे भ्रातर्मजननी त्वया // 65 / / रामः सामसुधाधाम तस्याचख्याविदं मृदु / न ते नन्दः पिता वत्स ! यशोदा जननी न च // 66 // मग-८ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 339 // * वसुदेवस्तु ते तातः प्रवीरसुभगाग्रणीः / कंसत्रस्तेन तेनाऽत्र ख विमुक्तोसि रक्षितुम् // 67 // देवकी ते च जननी देवकक्ष्मापनन्दनी / * | यात्रैति प्रतिमासं त्वां द्रष्टुं गोपूजनच्छलात् // 68 // रोहिणीतनुजोऽहं च वैमात्रेयोऽग्रजोऽस्मि ते / रक्षितुं त्वां नियुक्तोत्र तातेना- ble कंसस्वरूप| पायशङ्किना // 69 // दाक्षिण्यैकनिधिः कसोपरोधान्मथुरां पुरीम् / इमामेवालङ्करोति वसुदेवः पिताऽऽवयोः // 70 // कंसात्कस्माद्भय कथनं मल्ल| मिति प्रोक्त कृष्णेन सात्वतः / आचख्यावतिमुक्तोक्ति तथा बन्धुवधप्रथाम् // 71 // कृष्णस्तदा तदाकर्ण्य क्रुधा ज्वलनवज्ज्वलन् / युद्धदर्शनाय * मथुरागमने | कंसध्वंसं प्रतिज्ञाय स्नानाय सरयूमगात् // 72 // दुष्टः कंसादिष्ट इव रुष्टोऽहिस्तत्र कालियः / तमभ्यगात्फणारत्नदीपैः पश्यन्निवांतकम् दर्शिता | // 73 // किमेतदिति जल्पाके रामे वामेन पाणिना / तं धृत्वाऽनस्तयद् घ्राणे नालेनाब्जस्य केशवः // 74 / / महाभुजो भुजंग तं शरा दशाः | रुमपि शाङ्गभूत / आरुह्याऽभ्रमयन्नीरे क्रीडन्नुडुपवचिरम् / / 75 / / कृत्वा मृतमिवनं चाखिन्नः खिन्नं विमुच्य च / निययौ केशवो चत्रे चाशु सौत्रातिकैद्विजैः // 76 / / रामेण बंधुना गोपैदेर्पाटोपैयुतोऽथ सः / अचालीत्प्रतिमथुरं क्रमात्प्राप च गोपुरम // 77 // इमौ यमनिभौ कंसाऽऽदिष्टहस्तिपकेरितौ / धावितौ निहतौ ताभ्यां तो पद्मोत्तरपंचकौ // 78 // नन्विमौ तावरिष्टादिधातको नन्दनन्दनौ / दयमानाविति मिथो नागरैः / प्रीतिजागरैः // 79 // नवमालाधरौ नीलपीताम्बरनिभावुभौ / निशादिनाभ्यां युगपत्स्पर्द्धयेव निपेवितौ // 8 // एत्य मल्लभटीभृमि तौ सगोपपरिन्छदौ / आसाते स कचिन्मने बलादुत्थाप्य तुजनम् / / 81 / / अदर्शयन्पुरो रामः | कामं वामं भयंकरम् / हरेमचशिखोत्तंसं कसं क्रूरमिव ग्रहम् // 82 // पृथग्मञ्चपु दिव्यश्रीप्रपञ्चषु निषेदुषः / कंसकराशयज्ञानोद्भटै- Todle युक्तान्महाभटैः / / 83 // समुद्रविजयादींश्च दशकल्पाधिपानिव / निजान् पितृन् श्रीमहार्हान दशार्हान् व्यक्तमाख्यत // 84|| युग्मम् / / // 339 // प्रभाप्रभासुराकारौ देवाकारौ नु काविमौ ? / इत्यामृशद्भिरैक्ष्येतां भूपैः पौरैश्च ती मिथः / / 85 / / वधे गंधेभयोलोंकैस्तत्कृते कथिते तदा / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेशचरित्रम् / मल्लेन सह श्रीअमम- कंसः कोपादभूद् घूर्णमानाक्षः शल्यवानिव // 86 // कंसादेशाधुयुधिरे मल्लाः सल्लाघवास्ततः / तद्गर्वशूरश्चाणूरश्चोत्तस्थौ तेन संज्ञितः * // 87 / / कृतब्रह्मांडविस्फोटं करास्फोटं विधाय सः / हस्तिमल्ल इवात्यूर्जा गर्जातर्जा वितन्य च // 88 // ऊर्वीकृत्य भुजास्तंभ // 340 // जयस्तंभमिवात्मनः। आक्षिप्योचेन्नपानूचे सर्वान्गस्तिपर्वतान् // 89 // युग्मम् / / यः कोऽपि वीरो वीरेण जातो जातोक्षवद्धली। कृत्वा नियुद्धं दोदंडकण्डूं मे खडयत्वसौ // 90|| असहिष्णुस्तस्य विष्णुस्तद्गजस्येव गर्जितम् / मश्चात्पश्चानन इवोत्तीर्य दोर्यिदु-| र्द्धरः // 91 // भुजास्फोटरबोन्मिश्रगलगर्जिध्वनि घनम् / स चक्रे प्रलयाम्भोदघटागजितजित्वरम् // 12 // वर्द्धमानेन तेनास्याकाशे कास इव क्षणात् / अभंजि स्वप्रभोः कीर्तिस्फूर्ती रोदीति रोषतः // 13 // अविश्रमश्रमो ज्येष्ठो वपुषा जनुषाऽपि च / चाणूरः क्रूरकर्माऽयं युद्धकौतिकोविदः // 94 // अयं तु बालः सोमालः प्रोत्फाल: कौतुकात्पुनः। युद्धाकृतश्रमस्तेनाऽनयोयुद्धं न युज्यते // 95 // अब्रह्मण्यमिदं हा धिक् इत्युच्चैघोषिभिर्मुहुः / विश्वातिगहिंतश्चक्रे जनैः कलकलस्तदा // 96 // त्रि०वि०॥ श्रुत्वा तमूचे क्रुद्धोऽथ कंसः केनात्र नन्विमौ / आहूतौ गोरसोन्मत्तौ गोपौ किन्त्वागतौ स्वयम् // 97 // रणरंगे प्रविष्टौ च स्वयं को वारयत्यम् / योत्र धत्तेऽनयोः पीडामृध्वों भृत्वा वदत्वसौ // 98 // रणनाट्यभृकुंसस्य कंसस्येत्थं वचो जनैः। श्रुखा मौनं दधे जिष्णुः श्रीविष्णु स्त्वभ्यधादिति // 99 // पोषितोऽयं नृपाहारेजन्मतश्च कृतश्रमः। हस्तीव शूरवाणुरः स्फारयन्नुन्नतं वपुः // 10 // गोपालेनापि बालेनाप्यपि गोरसजीविना / हरिणेव मया हन्यमानः सम्प्रति वीक्ष्यताम् // 1 // युग्मम् / / कंसस्तस्य भुजास्फोXटात् स्फुटोक्तेश्चातिभीतिभाक् / तं निश्चित्य स्वस्य बुद्धावधिकं वधकं हठात् // 2 // तद्वधेच्छुर्दशाऽऽदिक्षन्मुष्टिकं वज्रमुष्टिकम् / द्वितीयं मल्लमुल्लंध्य नीति तद्युगपाधि // 3 // युग्मम् / / बलोऽधिकबलस्यापि भ्रातुमल्लद्वयात्ततः। पराभवं शङ्कमानो मानोत्तानो सर्ग-८ // 340 // Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 341 // मल्लविना शे कंसकृतहननादेशः भ्यधावत // 4 // वाग्भिनिर्भत्स्य तेनापि युद्धायाह्वायि मुष्टिकः / स्वाधिक्षेपासहः सोऽपि बलस्याभिमुखोऽभवत् // 5 // स्थिरामप्य- स्थिरां पादन्यासैः कम्पितदिग्गजैः / कुर्वन्तोऽयुत्सतोपेन्द्रचाणूरबलमूष्टिकाः // 6 // त्वमूद्ध प्रसर व्योम, प्रसर्पत दिशोऽग्रतः / पृथ्वीरंग | स्थिरं धत्त कूर्यक्रोडाहिनायकाः // 7 // दिक्कुंजराः कुलक्षोणिधराश्चाद्याऽवधीयताम् / धत्तुं स्वमेव यत्कृष्णबलौ प्रौढबलौ स्वयम् // 8 // पदाभ्यां वल्गु वल्गन्तौ वीक्ष्यमाणौ सुरासुरैः / मल्लाभ्यां सह युध्येते इति लोकगिरोऽस्फुरन् / / 9 / / त्रि. वि०॥ महाबलाभ्यां ताभ्यां च क्षणाच्चाणूरमुष्टिको / तूलमूलवदुत्क्षिप्य क्षिप्तौ दूरं नभस्तले // 10 // विना कंसं परे चक्रुः श्रीकृष्णबलयोजये / हर्षकोलाहलं लोका| स्तद्गुणप्रगुणीकृताः // 11 // स्वावष्टंभोजितौ मल्लावपि सल्लाघवादथ / व्योमन्यक्षिपतां कृष्णरामौ बाष्पानु वीक्षकाः // 12 // जघान | हृदि चाणूरं दूरं मुष्ट्याऽथ सारया / निःशंकः केशवः शैलमिव दन्तेन दन्तिराट् // 13 // पिष्टोऽपि पिष्टवत्मानात्पुष्यन्नोजायमान| ताम् / चाणूरोऽप्यथ विष्णूरौ मुष्ट्या दृढमताडयत् // 14 // मदेनेव मुकुलिते घाताया॑ऽऽकुलिते दृशौ / मूर्छया मीलिते बिभ्रत्पपाताऽधोक्षजः क्षितौ // 15 // दृष्ट्वाऽऽदिष्टोऽथ चाणूरः कंसेन च्छलबीक्षिणा / कृष्णं जिघांसुर्मूर्छालमप्युत्फालः समाययौ // 16 // बलस्तं सबलं बंधुमवलं हन्तुमुद्यतम् / ज्ञात्वा मुष्टिकमुन्सृज्य प्रकोष्ठेनावधीजवात् / / 18 / / सप्तचापानऽपासार्षीच्चाणूरस्तयथार्दितः। आश्वस्तः पुनराहारत तं युद्धार्थ जनार्दनः // 18 // जानुपां पीडिते मध्ये दोष्णा मूर्द्धनि नामिते / मुष्टिः कृष्णस्य चाणूरं दक्षिणोऽप्यहहाऽवधीत् // 19 // उद्वान्तरक्तश्चाणूरचाऽणूर इव संकुचन् / कृष्णेन मुक्तस्तद्भीतैरिव प्राणैरपि द्रुतम् // 20 // कृत्वा यौक्रिकबन्धेनाऽनुच्छ्वासमथ मुष्टिकम् / बलः संज्ञपयामास यज्ञानीतमिव च्छगम् / / 21 / / कंसे यियासौ कीनाशपुराय चरयोरिव / तयोरने प्रहि| तयोः शौरिभ्यां मार्गशुद्धये // 22 // कोपत्रासवशः कंसो द्विगुणाधरकंपभृत् / इत्यादिशदिमौ गोपाधमौ हत हताशु रे // 23 // नन्द // 34 // Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 342 / / | च हत्वा सर्वस्वं रे मारयत पत्तयः / तद्द्यानपरांश्चास्य त्रायकांस्तुल्यदोपिणः // 24 // क्रोधात्तः सतडिन्मेघो ध्रुवं कृष्णोऽभवत्तदा / | यदृशोस्ताम्रता देहे कालिकाऽप्यभृशायत // 25 // ऊचे च कंस ! निस्तूंश ! ख चाणूरे हतेऽपि रे / मृतं मन्योऽसि नाद्यापि यत्त द्रष्टोऽसि कोपि रे // 26 // स्वमेव तावत्रायस्व मार्यमाण मयाऽधुना / नन्दादिष्वादिशेः पश्चान्मूख ! वामर्षसन्निभम् // 27 // इन्गु- क्वोत्पत्य तन्मंचमारुह्योचं नगेंद्रवत् / हरिगृहीत्वा केशेषु कसं मृगमिवाकुलम् / / 28 // पातयित्वा धरापीठे भ्रष्टालंकृतिवाससम् / अया ररतमित्यूचे शूनाबद्धमिव च्छगम् // 29 // युग्मम् / / भ्रूणहत्यापापवल्ली स्वं त्रातुं यामवीवृधः / इदानीं तत्फलं भुंव स्मरेष्टं | देवतं निजम् // 30 // व्यालमात्तरूपमिव धृतकंसं तदाऽच्युतम् / विलोकयन् जनश्चित्रमियाय च विभाय च // 31 // कृष्णे ऋद्धान्कं सपक्ष्यान् क्षमाभुजः सुभटानपि / मञ्चस्तम्भायुधबलादलो व्यदलयद् द्रुतम् // 32 // शिरस्युरसि च न्यस्य विष्णुस्तुल्यं पदद्वयम् / / | क्रोशन्तमजघातं तमवधीत्कंसमुद्धतः // 33 // रंगभूमेश्च चिक्षेप केशः कृष्वा स तं बहिः / काष्ठमावततोऽम्भोधिरिव कल्लोलवल्गितैः // 34 // याऽविभ्यताऽधिकं सेना कंसेनानायिता पुरा / जरासंधस्य सा रामहरी हन्तुमधावत / / 35 / / सन्नह्य वाहिनीं वेगात्तामायान्तीं | | महीपतिः। समुद्रो बहुलहरीभरणे शमानयत् // 36 // अनाधृष्टिरथे तेनारोप्य शाङ्गिबलावथ / वसुदेवगृहेऽनैषुः समुद्रविजयादयः // 37 // यदयोऽपि दवोद्दीप्रप्रतापास्तत्र जैत्रताम् / बन्दिभिघोषयन्तः स्वां दत्वाऽऽस्थानीमुपाविशन् // 38 // वलम सनेऽध्यास्य दन्दुरके तु शाङ्गिणम् / हर्षाश्रुपूरैः संस्नप्याऽचुम्बन्मृनि मुहुर्मुहुः // 39 // अथ पृष्टः समुद्राद्यैः किमेतदिति चाग्रजैः / देवक्युद्वाहतोऽशंसत् स वृत्तांतमशेषतः॥४०॥ समुद्रविजयः कृष्णं प्रीत्योत्संगे स्वयं दधौ / प्रशशंसच तद्रक्षाभिरामं राममुच्चकैः // 41 // देवक्यपि | तदाऽऽगत्य सह पुत्र्यैकनाशया / कृष्णं स्पृशन्ती प्रत्यंगं सखजेऽङ्के जयागतम् // 42 / / वसुदेवमयोचन्त बन्धवः प्रीतिसिन्धवः / एको जिनेशचरित्रम् / कंसवध निरुपणं दुन्दुना च कथितो वृत्तान्तो यदूनाम् सग-८ // 342 / / Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 343 // |ऽप्यसि त्रिजगतीजयप्रौढभुजस्ततः // 43 // जातजातान्निजसुतान् कथं ? वीरशिरोमणे ! / व्यापाद्यमानान्कंसेन निस्त्रिंशेनाऽसि सोढ * कंसप्रेतकृत्ये वान् // 44 // युग्मम् / / उवाच वसुदेवोऽपि मया सत्यव्रतं निजम् / त्रातमाजन्मतस्त्रातुं न त्राताः स्वतनूद्भवाः / / 45 / / देवक्याश्चाग्रहा- कृते जीवदेष कृष्णो निक्षिप्य गोकुले / वराकिका नंदपुत्रीं संचार्यमामरक्ष्यत // 46 // देवक्याः सप्तमो गर्भः स्त्री वराकीत्यनादरात् / छिच्चा यशसः नासां स्वनाशार्थ कंसेनामोचि निमिया // 47 // राजा समुद्रविजयो भ्रातृभ्रातृव्यसम्मतात् / अचीकृपदग्रसेनं काष्ठपंजरतो नृपम् प्रतिज्ञा स्वरूपम् // 48 // दशार्दा यदवश्चान्येऽप्युग्रसेनसमन्विताः। प्रेतकृत्यानि कंसस्य यमुनायास्तटे व्यधुः // 49 // कंसस्यादाजलं नद्यां माता सर्ववधूयुता / नादायि जीवयशसा प्रत्यज्ञायि च कोपतः // 50 // रामकृष्णौ तत्पितूंश्च घातयित्वा ससन्ततीन् / तदीयरुधिरैः स्वस्य भर्तु-1* र्दास्ये जलांजलिम् // 51 / / वेक्ष्याम्यकृतकृत्यापि गहने दहनेऽन्यथा / प्रतिश्रुत्येत्यगातण सा जरासन्धसन्निधौ // 52 // युग्मम् // | समुद्रविजयो राजाऽनुजया रामकृष्णयोः। विदधे मथुरापुर्यामुग्रसेनं पुननृपम् // 53 // पयेणेपीग्रसेनदनां कृष्णोऽनुरागिणीम / गुणोहामां सत्यभामा लग्ने कोष्टुकिनापिते // 54 / / इतः पूत्कुर्वन्ती मुक्तकेशी मूर्तव राक्षसी / अश्रीरिख जरासन्धस्यागाजीवयशाः सभाम् // 55 / / निश्चेष्टा मूर्च्छया पित्राऽऽश्वास्य पृष्टा कथश्चन / साऽऽख्यन्मूलात्कथां कंसघानान्तां गद्गदाक्षरम् // 56 // जरासंधः सत्यसुन्धा संधात नामवोचत / कंसो मुखोऽभवद्यम्माद्देवकीमेव नावधीत् / / 57 / / तां विना स्यः क ते गर्भास्तान्विना व स मृत्युकत / / | कर्मानुमारिणी बुद्धि.पा भाषा मृषाऽथवा // 58 // तथापि पुत्रि ! मा रोदीः सान्वयान्कंसघातिनः / हत्वा द्रुमानिवैषां स्त्री रोदयि| प्यामि पक्षिवत् / / 59 / / आश्वास्येति सुतां राज्ञाऽऽदिष्टः सोमकभूपतिः / दूत्येनत्य मथुरायां समुद्र नृपमूचिवान् // 60 // पतिः प्रियाया | // 343 // दहितुः कंसोऽस्माकमतिप्रियः / ततस्तद्धातनाद्रामकृष्णावस्मद्विरोधिनौ // 61 / / संबन्धित्वात्पक्षपातं तन्वन् राजन् भवानपि / प्राप्तो वि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 344 // रोधितामस्मत्सेवकोऽपि चिरन्तनः // 62 / / तवोचिता कुलस्वामिन्यसौ पितृसमे नहि / युक्तमासीत्तयोस्तत्ते स्वयमेवास्य ढौकनम् // 63 // जिनेश| अज्ञानाद्विस्मृतं चेत्ते नष्टं नाद्यापि किंचन। तावर्पयाधुनाऽप्येवं त्वमादिशति स प्रभुः // 64 // गर्भोऽस्ति सप्तमो लभ्योऽग्रेप्यसाव- | चरित्रम्। पितो यतः / न्याय्यः स टौक्यतां रामस्तस्य शिक्षाकृतेः पुनः // 65 // दुष्टत्रणाविवैतौ च व्यथको विग्रहे द्विधा / वैद्यन स्वामिना समुद्रविजयं | शेर्पच्छेदको शस्त्रकर्मणा / / 66 / / चिकित्सयित्वा स्वारोग्यं कृत्वा राज्यश्रियः सुखम् / युक्तं भोक्तुं तवाच्छिन्नं राजन् ! विमृश मा प्रति प्रेषितो मुहुः॥६७।। युग्मम् / / समुद्रविजयः प्रोचे स्वामी नैयायिकं क्रमम् / स्वयमाराधितं त्यक्त्वाऽऽश्रयद्वैशेषिकं कुतः // 68 // जप्ने चेद्रा-|| जरासन्धेन मकृष्णाभ्यां स्वबंधुवधवैरतः / कंसः स्ववैरी तद्भर्तय॑ऽपराधकरौ कथम् ? // 69 // कंसः पबांधवानिनन्नन्यायी प्रथमं न किम् / कृतप्रतिकृतात्पुत्रौ कथं ? वैरीयति प्रभुः॥७०॥ दुःखं न षण्णां बंधूनां कंसस्यैकस्य घातनात् / पुत्रयोलते तेन स्वामी कुप्यति किं ? वृथा // 71 / / तत्पक्षपाती चाकार्ष प्रभो नाभ्यां विरोधितम् / प्रबंधस्यास्य यन्मध्येऽभूवं नाहं सबान्धवः // 72 // नैतौ | च मदशौ पुत्रावुत्त्रासितजगत्त्रयौ / तदर्पये कथं ? भर्तुः प्रसादं संस्मरन्नपि // 73 // गर्भोऽस्ति सप्तमो लभ्य इत्यप्यनुचितं विभोः। | वक्तुं सहेते तद्वार्ताकारिणोऽम् न कंसवत् / / 74 // इमौ च दुष्टत्रणवत्प्रतिकार्य सुखी भव / त्वदुक्तमित्यपि वचो दूत! स्यूतं न युक्तिभिः // 75 // एतौ खतेजसा यसान्निरस्तापरतेजसा / विश्वस्यापि स्थितौ मूनि चूडामणितया स्वयम् // 76 // दृशाऽपि वक्रया | सर्ग-८ योऽमू मूखों वीक्षिष्यते सखे ! / नाशं सोऽचिंत्यशक्तिभ्यामेताभ्यां नेष्यते हठात् / / 77 / / किं च मे बंधुना स्वेच्छाचारिणा ऋजुनाऽ| मुना / जीवन्तमपि मां वंशनायकं जानता मृतम् / / 78 / / अपृष्ट्वा वसुदेवेन प्रदत्ते गर्भसप्तके / कंसस्य पदसु तेनापि हतेषु तनुजेष्वसौ | // 344 // | // 79 // केनायं सप्तमः कृष्णस्त्रातः कंसाद्यमादिव / तेजोऽस्य कथमेकस्याप्यभृद्विश्वाभिभावुकम् // 80 // इत्थं तदेतन्निरभिसंधि लोका Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 345 // | तिगं महः / त्वत्प्रभुस्तदमात्याश्च कस्मान्नैवं व्यचारयन् / / 81 // च० क०॥ अथोचे सोमकः क्रुद्धः खप्रभौ सेवकस्य ते / राजन् ! दृष्टा विशिष्टाऽद्य भक्तिरीदृक्षयुक्तिभिः // 82 // परमद्यावि मद्वाचं प्रपद्यतौ दूरतिरस्का नैमित्तिसमर्पय / बालौ बालाविव गले लग्नौ ते त्वतयेऽन्यथा // 83 // लोकाभिभावुकं तेजः पुत्रं कृष्णं च दर्शयन् / प्रभुं च भापयसे यच्च * कपृच्छनं च | तत्ते स्नेहान्मतिभ्रमः॥८४॥ युक्तस्तवासमर्थस्य स्वामिना बलिना सह / विरोधो नाधुना राजन् ! मृगस्येव मृगारिणा // 85 / ऊचे | कृष्णः कोपकृष्णतमास्यः प्रेम पुष्यतः / स वंश्यत्वेन तातस्य कुतस्त्यस्त्वत्प्रभुः प्रभुः // 86 // संधाऽस्ति जरया यस्य स्वमपि त्रातुमप्रभोः। रे दूत त्वत्प्रभोस्तस्य प्रत्युत प्रभवो वयम् // 87 // तद्गच्छ स्वेच्छया शंसेः प्रभोः कंसश्च चेत्प्रियः / तदेतु वेगाजामातुर्यनोत्कं मेलयाम्यमुम् // 88 // गच्छ रे मत्सरे मा स्मारोपयाऽस्मांस्त्वमातुरः। मा स्म भूः स्वप्रभोः प्रेतपुरीमागकदर्शकः // 89 // इत्थं निलों| ठितः शौर्यक्रतुपुंसा महौजसा / हरिणा कौतुकं सोमः क्रोधानलमलं वमन् // 10 // ऊचे समुद्रविजयं तव राज्यमहातरोः। कृष्णोऽय| मंगजः कीटः क्षयहेतुरजायत // 91 // तेन च निगृहीतेन पुनः कुशलमुज्वलम् / मत्वेति कुरु मद्वाचं मा मोपेक्षां वृथा कृथाः // 12 // | त्रि०वि०॥ तद्वाचाऽर्करुचेवांतभिन्नः स्फटिकवत्ततः / ज्वलत्कोपामिना स्वस्थोऽप्यनाधृष्टिरदोऽवदत् // 13 // लजसे रंकवद्याश्चादैन्यं | कुर्वन्न किं ? मुहुः / वैरं धत्ते स जामातुः षड्भ्रातृणां न किं वयम् ? // 14 // इतोऽपसर तत्तूण क्षमिष्यन्ते ऽन्यथा नहि / रामकृष्णा रमुख्या वीरास्त्वामितिवादिनम् // 15 // तेनेत्थं धर्षितो युद्धस्तोमसंदीक्षितेन च / उपेक्षितः समुद्रेणाप्यगात्सोमो यथागतम् // 16 // परेद्यवि दशार्हेशः पावे कृत्वाऽनुजान्निजान् / अप्राक्षीत् क्रोष्टुकिं नैमित्तिकं त्रैकाल्यवेदिनम् / / 97 // जरासंधेनोपतस्थे सार्द्धमद्याs // 345 // ईचक्रिणा / अस्माकं विग्रहस्तत्राख्याहि किं किं? भविष्यति // 98 // सोप्याचख्यौ जरासंधं निहत्य बलकेशवौ / त्रिखण्डभरतक्षेत्र Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेशचरित्रम् / यादवानां प्रतीच्यां | गमने देव्या कृतो विनाशः कालस्य श्रीअमम-* खाम्यं काम्यं ग्रहीष्यतः // 99 // प्रतीच्या यात पाथोधेर्महीभृद्दक्षिणस्तटम् / भावी शत्रुक्षयारंभः प्रयाणारंभतोऽपि वः // 200 // यत्र पुत्रद्वयं सूते सत्यभामा वधूश्च वः / स्वराजधानी संस्थाप्य स्थातव्यं तत्र निर्भयः // 1 // राजा सहोग्रसेनेन प्रज्ञाप्य पटहैः प्रजाः / अत्याक्षीन्मथुरामेकादशकोटिकुलैः सह // 2 // सप्त ज्ञातिकुलकोटीः सह शौर्यपुरादपि / आदाय प्रस्थितः श्रीमान् समुद्रविजयो नृपः // 346 / / | // 3 // सुखः प्रयाणैरकुतोभयाः सुखसुखेन ते / माग्गें दुर्गेऽपि यदयो मध्येविंध्याचलं ययुः // 4 // इतश्च सोमको राजा जरासंधस्य | सत्वरम् / गत्वाऽऽख्यद्यादवोक्तं तत्सर्वे क्रोधानलेन्धनम् / / 5 / / जरासंधं कृतद्वेषिवधसन्धमथ क्रुधा / प्रस्थितं स्वयमुत्फालः कालः | पुत्रो व्यजिज्ञपत् // 6 // न वराकेषु यदुषु तव स्वयमुपक्रमः / युज्यते गरुडस्येव मशकेषु तरखिनः // 7 // मामेवाऽऽदिश तत्तात ! श्वभ्रादभ्रात्पयोनिधेः / मध्याद् बढेर्दिशां चाशु यदन्कृष्टाऽखिलानपि // 8 // निहत्यैव निवतिष्ये त्वत्सुतोऽस्म्यन्यथा नहि / न काला| तिक्रमो नात्र संदेहश्चोचितस्तव // 9 // युग्मम् // जरासंधस्ततः कालं नृपाणां पंचभिः शतैः / युक्तं महासेनया च प्रतियादवमादिशत् | // 10 // बंधुभ्यां यवनसहदेवाभ्यामन्वितस्ततः / कालश्चचाल व्यावर्त्यमाणोऽप्यशकुनधनैः // 11 // उत्तालः कालवत्क्रुद्धः प्रस्थितः सोऽचिरादगात् / विंध्यमध्यभुवं नातिदुराध्युपितयादवाम् // 12 // कालं ज्ञात्वा द्विधाऽऽसन्न देवताः कृष्णरक्षिकाः। एकद्वारं | गिरिं तुगं तं रोर्बु पथि चक्रिरे // 13 // तत्पार्श्व यदुसैन्यं च वविदग्धं विचक्रिरे / तच्चितानिकटे चैकां सुदतीं रुदतीं मुहुः॥१४॥ | कालेन पृष्टा सा चख्यौ जरासंधभयगुताः / आकर्ण्य कालमासन्नं चितायां यदवोऽविशन् // 15 / / बंधूनामहमप्येषां वियोगात्तिमसासहिः / उक्त्वेति साऽविशञ्चित्यावह्निमवाय तत्पुरः // 16 // देवतामोहितः कालोप्यूचे बंधू नृपानपि / मया प्रतिज्ञा ताताग्रे कृता स्मरति वः किमु ? // 17 // सत्यवाक् तामहं सत्यां कतु वेक्ष्यामि तच्चिताम् / हतुं निजभयावह्नौ प्रविष्टान्यादवानिह // 18 // उक्त्वेति | सर्ग-८ // 346 / / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 347|| भावि कथितं चारणमुनिना खगफलको बिभ्रद्वहौ विवेश सः / दग्धश्च पश्यतां स्वेषां देवताभ्रमितात्मनाम् / 19 // यातेऽस्ताद्रिं तदा भानौ तत्रैव यवनादयः। ऊषुः प्रगे च नापश्यंस्तमद्रिं तां च नो चिताम् // 20 // यदूनां दुरगमने चररेत्य निवेदिते / संमोहं देवताक्लप्तं वृद्धबुद्ध्या च मेनिरे // 21 // युग्मम् / / तत्सर्व ते निवृत्याख्युः जरासंधस्य सोऽप्यथ / मूर्छयाऽतुच्छया पृथव्यां लोलुठीति स्म विश्वराट् // 22 // उत्थाय लब्ध्वा चैतन्यं वारस्वणोपचारतः / हा वत्स काल ! हा कंसेत्यरोदीत्करुण मुहुः // 23 // आकर्ण्य मृत्यु कालस्य वजन्तो यदवोऽप्यथ / संजातप्रत्ययास्तष्टाः क्रोष्टुकिं पर्यपूजयन् // 24 // तेषां च तस्थुपां क्वापि वनेऽध्वन्यतिमुक्तकः / आययौ चारणमुनिरचित्वाऽऽनम्य च स्वयम् // 25 / / पृष्टः समुद्रविजयेनास्माकं व्यसने मुने!| किमत्र भगवन् भावि ? शंस प्राप्तोऽसि पुण्यतः // 26 // | मुनिर्जगाद द्वाविंशो जिनोऽयं तव नंदनः / नेमिस्त्रिभुवनत्राणशौण्डदोदंडविकमः॥२७॥ रामकृष्णौ बलविष्णू द्वारकास्थौ भविष्यतः। E जरासंधवधादर्द्धचक्रिणौ मास्म भैस्ततः // 28 // युग्मम् / / इत्याख्याय गते साधौ समुद्रविजयो नृपः / सुराष्ट्रामंडलं पाप प्रयाणैश्च सुखाकरैः / / 29 / निवेशितेऽथ शिबिरे रैवतात् प्रत्यगुत्तरे / सत्याऽसूत सुतौ भानुभामरौ स्वर्णभासुरौ // 30 // दिने क्रोष्टुकिनिीते विधिनाऽब्धि कृताष्टमः / हरिरानच तद्देवः प्रत्यक्षः सुस्थितोऽभवत् // 31 // पांचजन्यसुघोषाख्यौ शंखौ स बलकृष्णयोः / दिव्यवस्तुयुतौ कृत्वोपदानित्यचिवान्मुदा // 32 // मामसार्षीः कुतो हेतोलवणाब्धेरहं पतिः / देवोऽणि सुस्थितो नाम्ना करवै किं ? समादिश // 33 // कृष्णोऽवोचदभूद्या प्राग् विष्णूनां द्वारकापुरी / साम्भोभिच्छादिता तां त्वं मद्वासार्थ प्रकाशय // 34 // तथा कृखाऽऽशु तेनापि विज्ञप्तः त्रिदशेश्वरः / आज्ञाप्य धनदं तत्राचीकरत्तां पुरीं पुनः // 35 / / द्वादशयोजना दैर्ये विस्तारे नव योजना / रत्नवर्णSalमयावासा सा चक्रे तत्सुरैः पुरी // 36 // अष्टादशकरप्रांशुः क्ष्मान्तस्थनवहस्तकः / द्वादशहस्तविस्तारश्चक्रे वप्रः सखातिकः // 37 // // 347 // THANE Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 348 // पृथ्वीपात्रेऽम्भोधितैलेऽभाद्दीपकलिकेव सा / पुरी स्वर्णमणीवप्रप्रभाखच्छिखोज्वला // 38 // एकभृमद्विभृमत्रिभूमाद्यास्तत्र चक्रिरे। जिनेशवृत्तादिभेदाः प्रासादास्त्रिदशलक्षसंख्यया // 39 // पुरीश्रीत्रिकसंस्थानालंकृति सन्मणीमयीम् / श्रीदश्चकारार्हचैत्यश्रेणी वेणीमिवोज्व- चरित्रम्। लाम् // 40 // विदिक्षु तत्र चैकैको द्वौ द्वौ याम्यादिदिक्त्रये / दशार्हाणां धनेशेन प्रासादा दश चक्रिरे // 41 // समुद्रविजयस्याग्निदि- धनदकृताश्याद्योऽभूत्तदग्रतः / यथाक्रमेण बंधूनां प्रासादास्तेन कल्पिताः॥४२॥ उग्रसेननरेन्द्रस्य पुनर्नृपपथान्तिके / प्रासादो निर्ममेऽत्युच्चो न- द्वारकानि रूपणम् | टवद्वहुभूमिकः॥४३॥ सप्राकारा बृहद्वाराः सपताकाः समंदुराः। सहस्तिशालाः कल्पद्रुवृताः सर्वेऽपि तेऽभवन् / / 44 / / तेषां च मध्ये | विदधे बलदेवस्य सान्वयः / क्लप्तमयदृक्प्रसादः प्रासादः पृथिवीजयः॥४५॥ निर्ममेऽष्टादशभूमः सर्वतोभद्र इत्यथ / प्रासादो वासुदेवस्य सौधश्रेणीसमन्वितः॥४६।। व्यधात्सभा तयोरग्रे सुधर्मायाः सहोदराम् / चैत्यं च सिद्धचैत्याभमष्टाग्रशतबिंबयुक् // 47 // सरोवापीदेवगृहोद्यानश्रेणीमनोहराम् / सश्रीकान्तामहोरात्रेणाऽकरोद्धनदः पुरीम् // 48 // इंद्रादेशादुपेन्द्रस्य देवैरिति विनिर्मिताम् / पुरीन्द्रस्य पुरीवाभूत्प्राक्तपोवैभवाहृता // 49 // अस्याः प्राच्यो रैवताद्रिर्दाक्षिणात्यस्तु माल्यवान् / प्रातीच्योऽद्रिः सोमनसः औदीच्यो गंधमादनः // 50 / / नक्षत्रमालां मुकुटकौस्तुभौ पीतवाससी / शाङ्ग धन्वाऽक्षय्यबाणौ तूणौ खङ्गं च नंदकम् // 51 // गदा कौमोदकी नाम रथं च गरुडध्वजम् / उत्तराशापतिः प्रातर्विष्णवे मुदितो ददौ // 52 / / युग्मम् / / मुसलं वनमालां च नीलवखे हलं धनुः / तालध्वज सर्ग-८ रथं तूणावऽदाद्रामाय चाक्षयौ // 53 / / तत्पूज्येभ्यो दशाहेभ्यो दशभ्योऽपि धनेश्वरः / ददौ रत्नान्यलंकारानधिपेभ्य इबादतः // 14 // | युद्धेऽरिसदनं ज्ञात्वा यदवो मधुसूदनम् / पश्चिमाब्धेस्तटे राज्येऽभ्यपिश्चन् हर्षनिर्भराः // 55 // रत्नेः स्वण्णद्धनैर्द्धन्यैर्वस्त्रैः सार्धं दिन-||॥३४८॥ त्रयम् / तत्तन्मेघ इव श्रीदो वर्पित्वाऽपूरयत्पुरीम् // 56 / / सारथीकृत्य सिद्धार्थ रामः कृष्णस्तु दारुकम् / रथावारुह्य यदुभिवृतौ स्वस्व Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 349 // श्रीनेमेवीलक्रीडा रथस्थितैः // 17 // पुष्पदंताविव ज्योतिःपुरी युक्तौ महाग्रहैः / देवैः कृतोत्सवां प्राविशतां तौ द्वारकां पुरीम् // 58 // युग्मम् / / मेजुस्तत्र निधीशदर्शितपथान् स्वान् खान् गृहान् यादवाः, श्रीमत्कृष्णनृपाज्ञया परिकरैस्तैस्तैः कुलैश्वान्विताः / रत्नस्तंभतलेऽमले प्रतिमितानालोक्य येषु प्रभून् भ्रांतिः शान्तिमुपैति भाक्तिकजनस्याकर्ण्य वाग्डंबरम् // 59 // अममचरिते भाविन्येवं तयोः सह जन्मनोबलहरि| भवे कंसध्वंसात्समं यदुनायकैः / अधिगतवतोः प्रत्यग्वार्द्धस्तटे नगरी निजां सुरपतिकृतां साम्राज्यश्रीस्तनोत् सतां मुदम् // 60 // इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते श्रीअममस्वामिचरिते महाकाव्ये तुर्यभवे कंसवध-द्वारकानिवेश-कृष्णराज्याभिषेक वर्णनोऽष्टमः सर्गः // 0 263 / / नवमः सर्गः / गुणैर्येष्ठः कनिष्ठोऽपि द्विधा रामान्वितो हरिः / तस्यां दशार्हानाराध्यास्तस्थौ यदुवृतः सुखम् // 1 // श्रीनेमिस्तत्र साफल्य बाल्यं नेतुमिवाऽतनोत् / क्रीडां चन्धुमुदे स त्रिज्ञानोप्यज्ञानवद्भृशम् // 2 // ज्येष्ठा अपि लघुभूयोद्यानादिषु कुतूहलात् / सहेलं खेल यामासुः सर्वेऽपि भ्रातरः प्रभुम् // 3 // स बाल्यं व्यतिचक्रमे ग्रामसीमामिवाध्वगः / लीलयैव श्रीसमुद्रविजयक्षितिपात्मजः // 4 // * शास्त्रे शस्त्रे कलावस्याविरासीत्कौशलं स्वतः। तज्ज्ञानामपि तस्याग्रेऽगलत्स्वेदमिषान्मदः / / 5 / / दृष्ट्वा सलक्षणं सालंकारं तं वृत्तबंधु रम् / हर्षेण तारग्भूयेव वब्रे वाग्देव्यपि स्वयम् // 6 // श्यामः समुद्रवत्स्वामी शंखलक्ष्मा समासदत् / लावण्यैकमयो वेलापावनं यौवनं // 349 // Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 350|| क्रमात् / / 7 / / प्रभुर्दशधनुस्तुङ्गश्चतुरस्राकृतिर्वभौ / वज्रऋषभनाराचो वैडूर्यस्तंभवत्तदा // 8 // पदाब्जोद्यन्नखज्योत्स्नायष्टितजंघयोयु- जिनेशगम् / दोलां गारुत्मतस्तंभरम्यां तीर्थश्रियोऽहसत् // 1 // बन्धार्थ त्रिजगन्नेत्रमनोमत्तगजेन्द्रयोः / मन्ये विधिळधत्तोचैस्तस्योरू स्त- चरित्रम् / म्भसन्निभौ // 10 // आजानुलंबा तदाहुदंडयोद्वितयी बभौ / स्व लोकावियोद्धत पादानपतितौ समम् / / 11 / / कुरंगद्वेपिणा तेन पृथू- शरीरगुणनानितम्बिना / एनोगजघटाऽघाति जनस्वेक्षणतोऽद्भुतम् ॥१२॥ध्रुवं धर्मगजोऽविक्षत्तप्तस्तन्नाभिपल्वले / तत्तटे मदधारेव रोमराजी - वर्णनम् यदस्फुरत् // 13 // श्रीरिहांतःपुरीस्थाता गुणैः कञ्चुकिभिः सह / श्रीवत्समितीवास्य पृथुवक्षो व्यधाद् विधिः॥१४॥ शोणत्पाणिनखव्याजाद्भूत्वेव दशधा रविः / त°टंकमुखोल्लेखोद्विग्नधीस्तमऽसेवत // 15 // दोःशीर्षमेकं बिभ्राणस्तद्भुजस्त्रिजगद्भरम् / उद्धरनहसच्छेषं * बहुशीपात्तभूभरम् / / 16 / / त्रिरेखाभित्रिजगतीलक्ष्मीजैत्रप्रशस्तिभिः / युक्तं दृष्ट्व तत्कण्ठं कम्बुद्धिी हियाऽविशत् // 17 // तन्मुखेनातुलेनेन्दुर्यत्तुलाऽऽरोहपातकम् / चक्रेऽद्यापि सुवर्णांगोप्यभृत्तच्छित्रपाण्डुरः // 18 // वक्रसौधनिवासिन्योः कौतुकिन्योविरेजतुः / दोलासवण्णौ तत्कौँ देव्योाह्मीश्रियोः समम् // 19 // विधिलिलेख तद्वके तिलकाङ्कितमध्ययोः / भ्रुवोश्छलाजगद्दश्यकारमोंकारमुद्भटम् // 20 // नासा तस्य जगद्भर्तुस्तुलेव सरलाऽशुभत् / कांतिभिर्दन्तिरत्नानां तोलयन्ती जगत्त्रयीम् / / 21 // अनन्यसदृशोः स्वामिदृशोर्मन्ये विधिः स्वयम् / न्युञ्छनीकृत्य चिक्षेप कमलानि जलांतरे / / 22 / / मुक्तारत्नभृता पद्मरागशुक्तिर्भवेद्यदि / ओष्ठमुद्राऽरु- | णाऽस्य स्यात्सस्मिता तत्समा तदा // 23 / / मुखनीलोत्पलालभ्यसौरभ्यरसलोभिनी / भृगश्रेणीव तद्वेणी स्निग्धश्यामरुचिर्बभौ // 24 // अपि सर्वोपमासारै रूपं सर्वसुरैः कृतम् / तस्य पादाङ्गुलितलस्यापि साम्यं न गाहते / 25 / यौवनं नाविकारीति व्याप्तिर्याऽङ्गिषु | ialसा कृता / आजन्मकामजयिनाऽन्यथैव प्रभुणा स्वतः / / 26 / / कामोऽस्ति कामिनीकेलिमधुदक्षिणमारुतैः। सौधचंद्रोदयोद्यानश्रीभो सर्ग-९ // 35 // Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 351|| ॐ***83468 गाधैमुनीनपि // 27 // विक्रियां नयते सैपा मिथ्योक्तिः कल्पिता ध्रुवम् / समं समुदितरेतैविंचक्रे नैष यत्प्रभुः / / 28 // युग्मम् / / स्वामिना पितरौ रामकृष्णावन्येऽपि बंधवः / विवाहायोपरुन्धाना अपि नैवानुमेनिरे / / 29 / / शक्रेशानाविवानेकान् दुर्देवानिव भूपतीन् / आक्रामन्तौ समं रामकृष्णौ पातः स्म भूतलम् // 30 // तद्राज्यं बालबद्दण्डकरालम्ब विनाप्यहो / उल्लासमासदद्विश्वप्रीतिहेतुं| दिने दिने // 31 // अनीतिवार्ता क्षेत्रेषु परचक्रागमोऽप्सु च / स्वर्णदण्डश्रुतिश्चैत्येष्वासीद्यत्सीम्नि नो पुनः // 32 // अन्येधुर्नारदः | केलिसंरंभारंभनीरदः / आगात्कृष्णगृहे देहातिन्यत्कृतपारदः // 33 // प्रत्युद्गम्य स्वयं कृष्णस्तं निवेश्य महासने / अर्घपाद्यादिनाऽभ्यर्च्य भक्त्या रामान्वितोऽनमत् // 34 // गतः सोऽन्तःपुरे तस्य दैवात् स्वं दर्पणे तदा / पश्यन्त्या भामया नैक्षि क्रुद्धस्तां प्रत्यचिन्तयत् // 35 / / सर्वकृष्णान्तपुरिभिः सर्वेऽप्याय॑न्त नारदाः / अवजानाति मां त्वेपा पतिवाल्लभ्यगर्विता // 36 // रूपाधिका सपत्नी तदत्वाऽमू गर्वपर्वतात् / पातयिष्ये इति ध्यात्वा सोऽभ्यगात्कुडिन पुरम् // 37 // युग्मम् / / तत्र भीष्मयशोमत्योः पुत्रो रुक्मी नृपोऽस्य च / नतः स जाम्या रुक्मिण्याऽशास्त कृष्णं वरं वरम् // 38 // कः कृष्ण ? इति तत्पृष्टो मुनिस्तस्यै न्यवेदयत् / गुणान् | कृष्णय रूपादीनऽद्वैतेन स्थितान्भुवि // 39 / / कर्णप्रविष्टैरप्येतैश्चके मंत्राक्षररिव / कर्पूरगौरीश्चित्रं कृष्णे गाढानुरागभाक् // 40 // तस्याः पटेद्भुतं रूपं लिखित्वा चापर्यन्मुनिः / कृष्णस्य केयं देवीति पृच्छता समितोऽन्यथात् // 41 // नरदेव! न देवीयं सुमुखी किन्तु मानुपी / रुक्मिणी कुण्डिनपतेरुक्मिणो भगिनी कनी॥४२॥ कृष्णः प्रोचे न वा चित्रकरीयं मे दवीयसः। मनोभित्तौ लिलेख स्वं वर्णकर्यन्मदपितैः॥४३॥ मामप्रगल्भं सा बाला कातरं चावला व्यधात् / स्फुरत्पयोधरभरा सखेदं यत्तदद्भुतम् // 44 // देवर्षिरूचे वीक्ष्यापि व प्रसन्नामिमामभूः / उन्मनास्तद्रसास्वादात्कीदृग् ननु भविष्यसि ? // 45 / / क्व नु मे तद्रसास्वाद इति दीनगिरं हरिम् / आ नारदागमनं भामोपरि रोषेण नारदेन कृष्णस्य दर्शितो ऋक्मिणी चित्रपट: // 35 // Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / हृता ऋक्मिणी कृष्णेन // 352 // चिक्षेप मुनिः कोऽयं? मोहो दूतेन याचताम् // 46 // हृष्टः कृष्णः तमभ्यय॑ प्रेष्य च प्राहिणोजवात् / रुक्मिणी याचितुं दूतं रुक्मिणं प्रियया गिरा // 47 // अथ रुक्मी हसिखोचे न गोपालाय रुक्मिणीम् / दास्ये किंतु सत्कुलाय शिशुपालाय भूभुजे // 48 // श्रुत्वेति दूतस्तां वाचं परुषा सरुषा ज्वलन् / शशंस कंसरिपवे द्वारकामेत्य सत्वरम् // 49 // तच्च स्वरूपमाकर्ण्य रुक्मिणी विजनेवदत् / पितृप्वसेति वत्से ! त्वां बाल्ये मत्क्रोडवर्तिनीम् // 20 // प्रेक्ष्यातिमुक्तकः साधुराख्यज्ज्ञानेन भाविनीम् / प्रत्यग्वर्द्धिद्वारकेशकृष्णाग्रमहिषी स्वयम् // 51 // युग्मम् // याचतोप्यद्य कृष्णस्य ख न दत्तासि रुक्मिणा / वितीर्णा शिशुपालाय दमघोषसुताय तु // 52 // ज्ञानिवा|गपि किं मातम॒षा स्यादिति भापिणीम् / कृष्णेऽनुरागिणीं वतृष्वसा निश्चित्य रुक्मिणीम् // 53 // शीघ्रं गुप्तेन दुतेन कृष्णमेवमजिज्ञपत् / माघमासे सिताष्टम्यां बने नागार्चनच्छलात् // 54 // आनेष्ये रुक्मिणी वं चेत्तदर्थी वर्तसे ततः / शीघ्रमेयाः शिशुपालोऽन्यथैतामुपयंस्यते // 55 // त्रि० वि० / / इतश्च तद्दिने प्रापत्कुण्डिनं दमघोषजः। कलिप्रियेण चाज्ञापि मुनिना शाङ्गिणो द्रुतम् // 56 // रामेण रथिना सार्द्ध सोऽपि भिन्नरथे स्थितः / सत्वरं कुण्डिनपुरं पाप स्वैरप्यलक्षितः॥५७॥ इतश्चाऽऽगापितृध्वस्रा सार्द्ध नागार्चनच्छलात् / स्वमूर्तिभिर्वयस्याभिरुद्याने रुक्मिणी वृता // 58 // अवतीर्य स्थाद् ज्ञापयित्वाऽऽत्मानं च केशवः / पितृष्वसारमानम्य रुक्मिणीमित्यभापत // 59 // कृष्णोऽहं दूरतोऽप्यागां त्वां वृतां कण्टकैरपि / केतकीमिव रोलम्बस्त्वत्सौरभ्यरसाहृतः॥६०॥ अलं |* *विलंब्यारोह खं वरारोहरथं द्रुतम् / रुक्मिण्यपि तथाचक्रे पितृष्वसुरनुज्ञया // 61 / / युग्मम् // पितृष्वसाथ स्वं दोषमपट्टोतुं सपू-13 स्कृतिः / इत्याख्यद्रुक्मिणेऽहारि हरिणा रुक्मिणी हहा // 62 // पांचजन्यं सुघोष चाधमतां शाङ्गिसीरिणौ। ससैन्यपौरभुक्षोभ रुक्मी तन्नादतोऽन्धिवत् // 63 // अथो रुक्मीशिशुपालौ ससैन्यौ रामकृष्णयोः / वेगेन रुक्मिणी प्रत्याहाँ पृष्ठे प्रचेलतुः // 64 // तौ वीक्ष्या सर्ग-९ // 352 // Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 353 // कुस्थिता स्माह रुक्मिणी कृष्णमाकुला / द्वेधा महाबलौ रुक्मिशिशुपालाविमौ ननु // 65 / / प्राप्तौ दर्पणोद्भटानां भटानां कोटिभिर्युतौ। एकाकिनौ भवन्तौ तु मच्चेतस्तेन कम्पते // 66 // युग्मम् / / कृष्णः स्मित्वाऽवदन्मा भैः प्रिये किं ? क्षत्रियस्वसेत् / हरेमें ननु कावेतौ * युद्धे बलदे * वेन भग्नो बराको रङ्कबद्रणे // 67 / / किश्चैकस्यापि मे पश्य बलमित्येकघाततः / तालालीमर्द्धचन्द्रेण चिच्छेद च्छदपतिवत् // 68 // स्वोमिका ऋक्मी, वज्रमंगुष्ठाङ्गुलिनिःपीडनेन च / चकार भृष्टचणकमिव चूर्ण प्रियामुदे // 69 // रामः स्थित्वा स्वयं युद्धमनद्धः सप्रियं हरिम् / व्य- विज्ञप्तिः सृजद् द्वारकापुर्यां स हि ज्येष्ठनिदेशकृत // 7 // परिवाराय रुक्मिण्याऽभ्यर्थितः कृष्णो गच्छन् रामं व्यजिज्ञपत् / रक्ष्या भ्रातयुधि प्राणाः क्रूरस्यापि रुक्मिणः // 71 // गते कृष्णे रथेना ऋक्मिण्याः | तिमनःपवनरंहसा / कुशलो मुशलोल्लासान्ममन्थारिवलं बलः // 72 // पेतुर्वैरिश्रियो दन्ता इव दन्तावलाः क्षणात् / भग्ना तस्यैकघातेन कृष्णं प्रति सर्वाङ्गास्थिप्रथा रथाः // 73 // सुभटानां समं कोट्या रुक्मिणः सेनयापि च / शिशुपाले गते नंष्ट्वा रुक्मी तस्थौ मदोद्धतः // 74 // ऊचे रामं च रे गोप! गोपयःपानदुर्मद ! / मदग्रं मुश्च हर्ता ते शिरः सैप शरोऽन्यथा / / 75 // स्मृत्वा भ्रातुर्वचस्त्यक्त्वा मुशलं रुक्मिणो बलः / निहत्याश्वान् शरैर्भतवा रथं कवचमच्छिदत् // 76 // क्षुरप्रेण तुण्डमुण्डमुण्डनं मण्डनं नवम् / कृत्वा स्मित्वा तमित्यूचे मद्वधूवान्धवोऽसि रे॥७७|| जीवंस्तेन विमुक्तोऽसि याहि रेस्वपुरे द्रुतम् / अस्मत्प्रसादाद्विटवत्क्रीड साद्ध प्रियाजनैः / / 78 // युग्मम् / / ततो युतो हिया रुक्मी कुण्डिनं मुण्डनोत्थया / त्यक्त्वा तत्रैव तस्थौ तु कृत्वा भोजकटं पुरम् // 79 / / इतश्च रुक्मिणीमूचे द्वारका प्रविशन् हरिः / इयं देवैः कृता देवि ! पुरी देवपुरीव मे // 80|| केलिभिः सफलीकुर्यास्त्वं समीपावनीवनीम् / क्रीडासरःसरिद्वापी // 353 // शैलरम्यां सदा प्रिये // 81 // उवाच रुक्मिणी स्वामिन् ! बंदीव भवतैकिका / आनीतास्मि ततो दचा परिवारादि मेऽधिकम् / / 82 // Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेशचरित्रम् / गान्धर्वलन परिणीता ऋक्मिणी, |भामा प्रति कुतूहलम् श्रीअमम * नयेरन्तपुरे मां त्वं हास्या स्यामन्यथा वहम् / त्वत्पत्नीनां महीनां पैतृकश्रीमदस्पृशाम् // 83 // युग्मम् // कर्ताऽसि ताभ्योऽय- *धिकां त्वामित्युक्त्वा जनार्दनः / मुमोच रुक्मिणी सत्यभामाधामान्तिके गृहे / / 84 // गान्धर्वेण विवाहेन रात्रौ तत्रोपयम्य ताम् / // 354 // सतृष्णोऽरमयत्कृष्णो भृङ्गः कुमुदिनीमिव / / 85 / / जनप्रवेशं न्यासित्य काष्ठिकै रुक्मिणी गृहे / प्रातर्जगाम स्वधाम प्रकाममुदितोऽच्युतः Ke ||86 / / स्वां ग्रियां दर्शयेत्युक्तो भामयाधिकभामया / अशृण्वन्निव तुद्वाचं हरिमानेन तस्थिवान् / / 87 / / उद्यानम्थे सोऽथ लक्ष्मीगृहे लक्ष्म्याः पुरातनीम् / मूर्ति लेप्यमयीं चित्रकरैः सञ्जनकैतवात् / / 88 // उत्सायं तस्याः स्थाने चातिष्ठिपटुक्मिणी रहः / अशिपचेति राज्यग्रे श्रीरिवानिमिषा भवः // 89|| युग्मम् / / गतः स्वसौधिकं शौरिः साग्रहं भामया पुनः / पृष्टः स्पष्टं कुत्र मुक्ता त्वयाऽऽस्ते धूर्त ! वल्लभा // 90 // लक्ष्मीगृहेऽस्ति सा मुक्तेत्युदिते शाङ्गपाणिना / लक्ष्मीधामागमद्भामाऽन्तःपुरीभिर्वृता दुतम् / / 91 // साक्षालक्ष्मीमेव मत्वा सुरुषां तत्र रुक्मिणीम् / अहो श्रीदेवतारूपमहो चित्रकृतां कला ||92 // स्तुत्वेति तां पदोय॑स्य मौलिं भामेत्ययाचत | कृष्णनव्यप्रियारूपजयिनी देवि ! मां कुरु // 93 // युग्मम् / / पूणोपयाचिता तेऽर्चा विधास्यामीसुदीर्य सा / गत्वा च कृष्ण| मप्राक्षीत्पुनः वास्ते ? प्रिया तव // 94|| हरिस्तयाऽपराभिश्च सहाथ श्रीगृहं ययौ / उत्थाय रुक्मिण्यप्यूचे वन्दे वः प्रथमं नु काम् | | // 95 / / सत्यभामा दर्शिताऽस्याः कृष्णेनोवाच हीजडा / इयं वन्दिष्ट मा मेऽग्रे यन्मौग्ध्यावन्दिता मया // 16 // कृष्णः स्मित्वाऽवदहोपः को नु ते वन्दने स्वसुः / ततः सत्या ययौ गेहे द्रुतं वैलक्ष्यमुद्रिता // 97 // भामादिभ्योऽधिका लक्ष्मी स्थिति सत्कृतिमप्यथ / स्वयं कंसरिपुर्दत्वा प्रीणयामास रुक्मिणीम् // 98 // अन्येधुर्नारदः प्राप्तः कृष्णेनाभ्यर्च्य सादरम् / पृष्टः किं ? दृष्टमाश्चर्य नव्यं क्वापीत्यभापत / / 99 / / अस्ति कौतूहलेराढ्यौताढ्ये खेचरेश्वरः / जाम्बवानिति विख्यातः शिवचन्द्राऽस्य वल्लभा // 10 // विष्वक्सेनानुजा // 354|| Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 355 // जाम्बवत्यादिलग्न खरूपम् जाम्बवती तस्यास्ति नन्दना / स्वर्गमप्सरसो भेजुनूनं यद्रूपनिर्जिताः॥१॥ सा च नित्यं मरालीव गंगायां याति खेलितुम् / वीक्ष्या| द्याश्चर्यभूतां तां प्राप्तोऽस्मि तव शंसितुम् / / 2 / / श्रुत्वेति कृष्णः सेनाभिः सह गंगामुपागमत् / तत्र जाम्बवती क्रीडावती प्रेक्ष्येत्य| चिन्तयत् // 3 // दिवं भुवं च गंगां च पार्वणेन्दुमयों समम् / स्वमुखज्योत्स्नया कुर्वत्याऽऽश्चर्यकमयी ह्यसौ // 4 // अवणि वणिनी यादृग् मुनिना तादृगेव हि / दृश्यते स्वीपरीक्षायां दक्षा ब्रह्मविदोप्यहो // 5 // जहे जाम्बवतीं कृष्ण सतृष्ण इव कर्कटीम् / चक्रे च बहलः कोलाहलस्तस्याः सखीजनैः // 6 // सखड्गफलकः क्रोधाद्योधाब्यो जाम्बवांस्ततः / आगतो विजितोऽनाधृष्टिनाऽर्यत च शाङ्गिणः // 7 // हरिणा जाम्बवान् जाम्बवतीं तत्रोदवाहयत् / तत्पराजयवैराग्यात्स्वयं तु व्रतमाददे / / 8 // सूनुर्विष्वक्सेनोऽस्याऽऽश्रयविष्णुं स | तद्युतः। आययौ द्वारकावत्यां जाम्बवत्या समं मुदा // 9 // रुक्मिणीमन्दिरासन्नं सोऽदात्तस्यै च मन्दिरम् / सामग्री चाथ रुक्मिण्या सह सख्यमियं व्यधात् // 10 // अन्यदा सिंहलाधीश श्लक्ष्णरोम्णा निराकृतः। आगतः कुपितो दूतः कृष्णस्याख्यदिति प्रभोः॥११॥ तवाज्ञा न प्रतीयेष सिंहलेन्द्रोऽस्य केवलम् / कन्याऽस्ति लक्ष्मणा योग्या तवैवातिसलक्षणा // 12 // सा च स्नास्यति सप्ताहं वारिधौ | तत्र चागमत् / इदानीमेव सेनान्या द्रुमसेनेन रक्षिता // 13 // श्रुत्वेति कृष्णः सबलस्तत्र द्वेधाऽपि जग्मिवान् / हत्वा सेनाधिप कन्यां | पर्यणेपीच पूर्ववत् // 14|| आनीय द्वारकां जाम्बवतीसमान्तःसद्मनि / मुमोच लक्ष्मणां दत्वा परिवारादिकं हरिः // 15 / / इतश्चासी सुराष्ट्रेशो जवखुरीनगरीस्थितः / श्रीराष्ट्रवर्द्धनो नाम्ना भूपतिविनयापतिः॥१६॥ पुत्रोऽस्य नमुचिः सिद्धदिव्यास्त्रबलगर्वितः / दूतोपनीतां कृष्णाज्ञां मेने मानोन्नतो नहि // 17 // सुसीमया स सौन्दर्यवर्यस्त्रीणां सुसीमया / स्वस्रा कुमार्या सहितः प्रभासे स्नातुमागमत् // 18 // निवेश्य कटकं तत्र स्थितश्चायं हरेश्वरैः / आख्यातस्तेन चागत्य जप्नेऽग्राहि च तत्स्वसा // 19 // गोविन्दस्तामपि व्यूह्य | // 355 // Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / // 356 // परिणीताः बलभद्रेन रोहिण्या प्रभृतयः कृष्णेन लक्ष्मणासदनान्तिके / मुमोच हर्म्य हादिभूषापरिकरान्विता // 20 // राष्ट्रवर्द्धनभूपोऽपि हस्त्यादिप्राभृतं बहु / प्रैपीत्कृष्णाय जामात्रे स्वपुत्र्यै तु परिच्छदम् // 21 // गौरीं वीतभयाधीशमेरुराजसुतां हरिः / उपयम्य सुसीमौकापावे वेश्म न्यतिष्ठिपत् // 22 // कृष्णः | सरामोऽथारिष्टपुरे ज्ञात्वा स्वयंवरम् / पद्मावत्याः श्रीहिरण्यनाभस्य दुहितुर्ययौ / / 23 / / सहोदरेण रोहिण्यास्तेन वीरशिरोमणी / तौ | राज्ञा भागिनेयावित्यायेंतामतिहर्षतः // 24 // हिरण्यनाभाग्रजेन रेवताख्येन याः पुरा / नमस्तीर्थे प्रबजता पित्रा सह निजाः सुताः। | // 25 / / स्वजामिरोहिणीस्नेहाद् बलभद्राय कल्पिताः / तत्रोहे रेवतीरामासीताबन्धुमतीः स ताः // 26 / / युग्मम् / / पद्मावतीं हरिः | सर्वेष्वपि पश्यत्सु राजसु / अहापधुध्यमानांस्तानजेपीच्चाशु लीलया // 27 / / द्वारकामीयतुर्वीरौ तौ स्वस्वप्रेयसीयुतौ / गृहे गौरीगृहा| सन्नेऽमुश्चत्पद्मावतीं हरिः // 28 // इतोऽपि पुष्कलावत्यां गान्धारेवभवत्पुरि / चारुदत्ताभिधो राजा नग्नजिन्नृपनन्दनः // 29 / / | गान्धारीत्यस्य भगिनी बभूव सुभगावधिः / यस्याः सर्वाग्रिम रूपं स्त्रीकोटेः शून्यतामदात् // 30 // पितर्युपरते चारुदत्तोऽथ निजगोबजैः / हृतराज्योऽभजद् दूतेनाधिकं शरण हरिम् / / 31 / / हत्वा तद्गोत्रजान् विष्णुः स्वराज्येऽतिष्टिपत्पुनः / चारुदतं तेन दत्तां गान्धारी सोऽप्युपायत // 32 // तस्या वेश्मापयत्पद्मावतीवेश्मान्तिकेऽच्युतः / तस्येन्द्रस्येवेति जजुर्महिष्योऽष्टौ क्षितावपि // 33 / / आययौ रुक्मिणीवेश्मन्यतिमुक्तोऽन्यदा मुनिः। सत्यभामाऽपि तं तत्र वीक्ष्य दक्षाऽगमद् द्रुतम् / / 34 / / भावी सुतो मे नो वेति रुक्मिण्या प्रनितो मुनिः / विष्णोः समानो भवितेत्याख्याय स तदाऽगमत् // 35 / / उवाच रुक्मणी भामा ममाख्यत्तनयं मुनिः / अन्योचे नेति विवदमाने ते हरिमीयतुः / / 36 / / दुर्योधनं तदा तत्रागतं भूपं स्वसोदरम् / भामाऽभ्यधात्ते पुत्री मे जातः पुत्रो विवक्ष्यति // 37 // | तथैवोक्तः स रुक्मिण्याऽप्यूचे तम निजां सुताम् / दास्ये जनिष्यते पूर्वो युवयोर्यस्तनूद्भवः // 38|| भामा बभाषे यत्पुत्रः प्रथम पद्मावती च सगे-९ // 356 // Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 357 // परिणेष्यते / तस्यै देयाः स्वकाः केशाः सभाऽन्वक्षं द्वितीयया // 39 // अत्रार्थे साक्षिणः कृष्णरामदुर्योधनान्मुदा / कृत्वा सभास्थि-जा तान् स्वं स्वं गृहं द्वेऽपि जग्मतुः // 40 // विमाने श्वेतवृषस्थे स्वमारूढामथान्यदा। प्रेक्ष्य स्वप्ने निशाशेष रुक्मिणी प्रत्ययुध्यत // 41 // * भामारुतदानीं च महाशुक्रात्कल्पाद्देवो महर्द्धिकः / न्युत्वाऽगाद् रुक्मिणीकुक्षौ सरसीव सितच्छदः // 42 // साऽऽख्यद् भर्तुः प्रगे स्वप्नं क्मिणी| व्याख्यत्सोऽपीति निश्चितम् / जगद्वीरजयी वीरवरस्ते भविता सुतः // 43 // वादः प्रद्यु नहरणं च भामादासी निशम्यैतत्तस्यै सत्वरमाख्यत / साऽपि स्वमं प्रकल्प्याख्यद् भर्तुः प्रैक्षि गजो मया // 44 // कृष्णो ज्ञात्वाऽपि तं स्वमं कल्पितं जल्पितेङ्गितः। अस्याः कोपोऽस्तु मेत्याख्यद्भाविनं नन्दनं वरम् // 45 // तस्या अप्यभवद्गों दैवावृद्धमथोदरम् / रुक्मिणी तु दिव्यगर्भा समावस्थोदरी त्वभूत् / / 46 / / गर्भ प्रौढं पश्य मेऽस्या नोदरं मेदुरं पुनः / इत्थं वदन्त्यां भामायां दास्याऽवयत केशवः // 47 // देव ! श्रीरुक्मिणीदेवी तनूजं सुषुवेऽधुना। देहच्छविपराभूतजात्यजाम्बूनदद्युतिम् / / 48|| श्रुत्वेतीवा॑भयोद्धान्ता भामा वैलक्ष्यभाग्गृहम् / यान्त्येव चटिकेवाण्डं सुतं सूते स्म भानुकम् // 49 // कृष्णोऽपि हृष्टो रुक्मिण्याः सौधेऽगाद्रत्नपीठगः। अपश्यद् बहिरानाय्य सुतं प्रद्योतनद्युतिम् // 50 // द्योतयन्तं दिशो भाभिः प्रौढद्युम्नं च तं हरिः / हर्षादुल्लापयन्नस्थात्प्रद्युम्नाभिधया शिशुम् // 51 // हृत्वाऽभं रुक्मिणी( व्याजात् )श्रीकृष्णात्पूर्ववैरतः / ज्योतिष्करतं धूमकेतुर्वैतादयेऽगात्सुरस्तदा // 52 // नीत्वा तं चूतरमणोद्याने टङ्कशिलोपरि / दध्यौ हन्म्येनमास्फाल्याथवैवं नैष दुःखभाक् / / 53 // कन्दन क्षुधाऱ्या दुःखानि बहून्यनुभवन्त्रयम् / म्रियतामिति तं बालं तत्र मुक्त्वाऽऽशु जग्मिवान् // 54 / / बालोऽप्यनुपक्रमायुष्कश्चरमाङ्गतया स च / पपाताबाधितो देशे प्रभूतमृदुपल्लवे // 357 // // 55 // प्रातर्विमानं चस्खालाग्निज्वालाद् व्रजतः पुरात् / तत्रात्मीयं पुरं कालसंबरस्य खचारिणः // 56 // ज्ञातुं हेतुमयं तस्योत्तीर्णो-| Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम ह्यामस्य तेजःप्रयोतिदिशमि कि ? स्वामिलिन्युनवानीमात्र त नाप // 358 // जिनेशचरित्रम् / प्रद्युम्नहरणे सयादवशोकप्रस्ता द्वारिका नारदागमनं दादरममने ऽधस्ताद् व्यभावयत् / बालं बालार्कवत्तेजोनिधिं तं दिव्यमूर्तिकम् // 57 // स सप्रभावं तं ज्ञात्वा मेघकूटे निजे पुरे। नीत्वा कनक- मालायाः पत्न्याः पुत्रतयाऽऽर्पयत् // 58 // जने सोचीकथद्गूढगर्भासीद्दथिता मम / अधुना सुषुवे सूनुं साऽपि सूतिगृहेऽविशत् // 59 / / कृत्वा जन्मोत्सवं मनोः सुदिने संवरोऽकरोत् / प्रद्युम्नाख्यां तस्य तेजःप्रद्योतिदिशस्ततः // 60 // इतश्चागत्य रुक्मिण्याऽप्रच्छि कृष्णः क्व ? नन्दनः / स प्रत्यूचे त्वयाऽऽदायि सम्प्रत्येव कगन्मम // 61 // विप्लावयसि कि ? स्वामिनिन्युक्तोऽथ तया हरिः / उच्चैरूचे वैरिणा धिक्केनापि च्छलितोऽस्मि हा // 62 / / साश्रदृक् सह रामेण पितृभिर्यदुभिस्तथा / सर्वत्रान्वेषयत्पुत्रं वार्तामात्रं तु नाप नः॥६३॥ हा वत्स ! तुच्छभाग्योऽहं हस्ताद्यत्त्वं हृतोऽसि मे / चिन्तामणिरिवाचिन्त्यप्रभावोऽपीह वैरिणा // 64 / / विधे! विधेहि | | मजिह्वासहस्रं युगपद्यथा / अनूद्यानूद्य पुत्रस्य गुणान् खं धारयेऽधुना // 65 / / व्योमेव पर्व विधुनाऽधुना त्यक्तं कलावता। त्वयेदं मन्दिरं पुत्र ! शून्यमेव विभाति मे // 66 / / स्वपुत्रातिभवदुःखग्रन्थिना सर्पता हृदि / क्लुप्तया मूर्च्छया भूमौ लोलुठीति स्म रुक्मिणी // 67 / / लब्धसंज्ञा परिजनैः सार्द्ध तार तथाऽरुदत् / यथाऽरोदि शिलोत्कीण्णैरपि चित्रगतैरपि / / 68 / / प्रद्योतने गते पुत्रे यदुचक्रैरशोच्यत / कृष्णस्याम्लायि कान्ताभिः पद्मिनीभिरिवाभितः // 69 // मुदं कुमुदिनीवैका भामा तु सपरिच्छदा / दधे तदालिसंगीतभं| गीरंगतरंगिता // 70 // युग्मम् / / हा विष्णो प्रभविष्णोरप्यागात्ते व ? नु पौरुपम् / दुःखाचक्रे क्रन्दन्तीति (यादव) साग्रज हरिम् * ||7| विश्रान्तचत्वरकथां निवृत्तोत्सवकौतुकाम् / देवहर्म्यस्थितप्रेक्षां सशोकां द्वारकां तदा // 72 / / प्रेक्ष्य मौलौ सेव्यमानश्छत्रिकाच्छमनेन्दुना। ध्वनन्ती महती हस्ते कृपां च हृदये वहन् // 73 // उत्तीर्य नारदो व्योम्नः कृष्णस्यागात्सभां मुनिः / अस्तोकशोकखिम्नस्य समस्तैर्यादवैः सह // 74 // त्रिभिविः॥ आः किमेतदिति प्रोक्तः कृष्णस्तेनान्वशादिति / जातमात्रं रौक्मिणेयं हस्तान्मे को सर्ग-९ // 358 // Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 359 / / नारदेपृष्टेश्रीसीमन्धर | भगवता * कथितं धूम केतुबैरस्वरूपम् ऽप्यपाहरत् / / 75 / / शुद्धिं चेद्वेत्सि तच्छंसेत्युक्तस्तेनावदन्मुनिः। गतेऽतिमुक्ते मुक्ति नो ज्ञानी कोऽप्यस्ति भारते // 76 // तत्प्राग्वि| देहे श्रीसीमंधरं पृष्ट्वा जिनेश्वरम् / सम्यग्निवेदयिष्यामि पुरस्ते पुरुषोत्तम ! 77 / अभ्यर्च्य रामकृष्णाभ्यां दशाश्वार्थितो भृशम् / | नारदोऽगाद् द्रुतं सीमंधरस्वामिजिनान्तिके // 78 // नत्वा समवसरणे तमप्राक्षीत्प्रभु मुनिः / तनूजः कृष्णरुक्मिण्योः केन जहेऽस्ति चक? नु // 79 // आख्यद्विभुर्द्धमकेतोः सर्वां प्राग्वैरतः कृतिम् / विद्याधरगृहे वर्द्धमानं च हरिनन्दनम् // 80|| धूमकेतोः कुतो वैरं प्रागनेन सहाजनि / पृच्छतो नारदस्येति तत्र स्वामीत्यचीकथत् / / 81 // | जम्बूद्वीपस्य भरते मगधक्षितिभूषणम् / शालिग्रामोऽभवत्तस्योपवनं च मनोरमम् / / 82 // सुमनःसंज्ञकस्तस्मिन् यक्षोऽजनि | जनाचिंतः / अन्येधुरेत्य तत्रास्थात्सरिः श्रीनन्दिवर्द्धनः / / 83 // सोमदेवाग्निलापुत्रौ वेदवेदान्तवेदिनौ / अग्निभूतिवायुभूती द्विजौ वादा र्थमीयतुः // 84 // सूरेः शिष्योऽथ सत्यस्तावूचे प्राप्तौ कुतौ युवाम् / शालिग्रामादिति प्रोक्त ताभ्यां भूयोऽब्रवीन्मुनिः॥८५।। कुतो भवाद्भवन्तौ भोः प्राप्तौ मानुष्यमित्यहम् / पृच्छामि शंसतां चेद्वां ज्ञानं किञ्चन विद्यते / / 86 / / हिया ततस्तयोमौनं श्रितयोरज्ञयोर्मुनिः / आख्यदेवं भवं पूर्व ग्रामस्यास्य बहिर्वने // 87 // युवां पूर्वे भवेऽभूतां गोमाय मांसलालसौ / क्षेत्रे चर्ममयी रज्जु मुक्तां कर्मकृता निशि | // 88|| मेघवृष्ट्यार्द्रिता लोभाद्भक्षयामासतुर्मुदा / अत्याहारान्मृतौ जातौ सोमदेवात्मजौ द्विजो // 89 // युग्मम् / / प्रातश्च हालिको रज्जु सर्वां तां प्रेक्ष्य भक्षिताम् / ययौ गृहं मृतः कालात्स्ववधूतनुजोजनि // 9 // स्मृत्वा जातिमयं मूकः कैतवादभवद्यतः / कथं ? वच्मि | वधूमम्बां पुत्रं च पितरं हहा // 91 / / तं मूकं हालिकं गत्वा पृच्छतं प्रत्ययाय भोः। आहूतश्च जनस्तत्र स मौनी मुनिनौच्यत // 12 // * शंस प्राच्यं भवं स्वस्य मुश्च लजां धृतां चिरात् / सुतः पिता पिता सूनुः स्याद्भवे ह्यनवस्थितिः // 93 // चमत्कृतः स्वसंवादात्तं नत्वा // 359 // Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / अग्निभूतिप्रभृति भवस्वरूपम् // 360 // | हालिको मुनिम् / आख्यल्लोकेषु शृण्वत्सु तथैव प्राग्भवं निजम् // 94 // स हालिको जनाश्चान्ये वैराग्यात्प्रावजन् घनाः। विलक्षौ | |हसितौ तौ तु लोकैः प्राप्तौ द्विजौ गृहम् // 95 // बद्धवैरौ सखड्गौ तौ जिघांसन्तौ च तं मुनिम् / प्राप्तौ निशायामस्तंभीद्यक्षोऽथ सुमनाः स्वयम् // 96 / / क्रन्दन्तौ तौ प्रगे लोकैस्तत्पितृभ्यां च वीक्षितौ / तेषां समक्षं यक्षश्च साक्षाद्भूयेदमभ्यधात् / / 97 // मुनिघातोद्यतौ | दुष्टौ मयैवं शिक्षिताविमौ / साधोः शिप्यौ यदि स्यातां ततो मुश्चेऽन्यथा तु न // 98 // आवां नालं सुनेधर्मे श्राधर्मे स्थितौ पुनः। मुनेः शिष्यौ भविष्यायो जल्पन्ताविति तो द्विजौ // 19 // यक्षमुक्तौ मुनेः पार्श्वे श्राद्धधर्म जिनोदितम् / स्वीकृत्य चक्रतुर्भक्त्या तो तदादि मदोज्झितौ // 20 // युग्मम् // अग्निला सोमदेवौ तु मिथ्यात्वकलुषाशयौ। धर्म तत्पितरौ जैन यक्षोक्तावपि नेपतुः // 1 // | अग्निभृतिवायुभूती श्राद्धधर्म प्रपाल्य तौ / मृत्वाऽभृतां सुरावाद्ये कल्पे पट्पल्यजीवितौ / / 2 / / च्युतौ जातौ गजपुरेऽर्हद्दास श्रेष्ठिनन्दनौ / | पूर्णभद्रमाणिभद्रौ श्राद्धौ प्राग्जन्मसंस्कृतौ // 3 // अर्हद्दासो माहेन्द्रः प्रावाजीद् ज्ञानिनोऽन्तिके / पूर्णभद्रमाणिभद्रौ यान्तौ तं वन्दितुं पथि // 4 // चण्डालशुनिके दृष्ट्वा स्निह्यतः स्म भृशं हृदि / नत्वा महर्षि तत्महे स्वस्य हेतुमपृच्छताम् / / 5 / / युग्मम् // आख्यत्स शालिग्रामे प्राग् युवयोईग्रजन्मनि / सोमदेवोऽभवत्तातो जननीत्वग्निलाभिधा // 6 // सोमदेवो मृतः शंखपुरे भरतवत्तिनि / जितशत्रुरभूद्राजा परस्त्रीलोलमानसः / / 7 / / मृत्वाऽनिलाऽपि तत्राभृत्सोमभूतेर्द्विजन्मनः / रुक्मिणीति प्रिया राज्ञाऽन्येयुः साऽदर्शि | सौधगा / / 8 // कामातस्तां गृहीत्वाऽसौ हठादन्तःपुरेऽक्षिपत् / तद्वियोगाग्निमग्नोऽस्थाहुःखं विग्रस्तु तत्प्रियः // 9 // रत्वा वर्षसहस्रं | स रुक्मिण्या सह भृपतिः। विपद्य नरके जज्ञे पल्यत्रितयजीवितः // 10 // तदुवृत्तो मृगो भूत्वा मृत्वा व्याधहतोऽभवत् / मायावी | वणिजः सूनुस्ततोऽप्यजनि कुञ्जरः॥११॥ कर्मलाघवतो जाति स्मृत्वा सोऽनशनं व्यधात् / अष्टादशाहे सौधर्मे त्रिपल्यायुः सुरोऽ सर्ग-९ // 360|| Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 36 // मधुकैटभस्वरूपम् जनि // 12 // ततच्युतोऽयं चंडालो जज्ञेऽभूद्रुक्मिणी पुनः। भ्रान्त्वा भवे शुनकीयं प्रीतिर्वामेतयोस्ततः॥१३॥ पूर्णभद्रमाणिभद्रौ श्रुत्वा पित्रोर्भवानिति / चंडालशुनिके योधं जातीः संस्मार्य निन्यतुः // 14 // वैराग्येण ततो मासं चण्डालोऽनशनं श्रितः। मृतश्च जज्ञिवान्नन्दीश्वरद्वीपे वरः सुरः॥१५॥ बोधाद्विधायानशनं शुनक्यापि समाधिना / मृता शङ्खपुरे राज्ञः पुत्री जज्ञे सुदर्शना // 16 // अर्हद्दाससुतौ भूयोऽभ्यागतं तं मुनीश्वरम् / पप्रच्छतुः शुनीचण्डालयोगतिमथादृतौ // 17 // ताभ्यां प्रबोधिता भूयोऽप्यथ सा राजनन्दना / गृहीत्वा संयम प्रापदेवलोकं समाधिना // 18 // पूर्णभद्रमाणिभद्रावपि श्रावकतां शुभाम् / धृत्वा मृत्वाऽऽदिमे कल्पे जातो सामानिकामरौ // 19 / / प्रच्युतौ हास्तिने पुरे विश्वक्सेनक्षमापतेः / जज्ञाते नन्दनौ नाम्ना तावुभौ मधुकैटभौ // 20 // च्युत्वा नन्दीश्वरसुरोप्यथ संसृत्य संसृतौ / राजा वटपुरे जज्ञे सप्रभः कनकप्रभः // 21 // सुदर्शनाऽपि प्रच्युत्य स्वर्गाद् भ्रान्वा भवं भृशम् / चन्द्राभेत्यभवद्राज्ञी कनकप्रभभूपतेः // 22 // क्रमाद्राज्ये यौवराज्ये निधाय मधुकैटभौ। विष्वक्सेननृपः प्राप स्वर्गमादाय संयमम् | Hom२३|मधुकैटभयोर्मत्तेभयोर्वशयतो वम् / देशं श्वेवोपदुद्राव भीमः पल्लीपतिच्छलात् // 24 // मधुस्तं प्रस्थितो हन्तुं प्राप्तो बटपुरे पथि / कनकप्रभभूपेनाभ्यचिंतो भोजनादिना // 25 // मधोः स सेवक इव भक्त्या सप्राभृतो ययौ / मध्याह्नेऽवलगाहेतोः पत्न्या चन्द्रा* भया सह / / 26 // चन्द्रामा मधुमानम्य ययावन्तःपुरे निजे / जिघृक्षति स्म कामान्धस्तां तदैव हठादसौ // 27 // मधुर्मत्रिनिषिद्धोऽग्रे| गत्वा भीमं विजित्य च / वलितः पुनरानचि कनकप्रभभूभुजा // 28 // मधुना याचिते तस्मिंश्चन्द्राभामप्रयच्छति / बलात्काराद् | गृहीबाशु जग्मे श्रीहास्तिने पुरे // 29 // चन्द्राभाविरहान्मूच्छौँ वैकल्यं चासदत् क्षणात् / तन्वा चकोरवच्चाभून्निप्रभः कनकप्रभः | // 30 // पृष्टश्चन्द्राभयाऽन्येधुर्मधुरुत्सूरकारणम् / पारदारिकवादेन स्थितोऽस्मीति शशंस सः // 31 // चन्द्राभा स्माह वादः कः पूज्या | // 36 // Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेश चरित्रम् / // 362 / मधुकैट भयोः दीक्षा | यत्पारदारिकाः / सभ्रभंगं नृपेणोचे निग्राह्याः पारदारिकाः // 32 // अवादीत्सा पुनः पूज्या निश्चितं पारदारिकाः / महाराज! त्व*मेवासि दृष्टान्तः स्पष्टमत्र मे // 33 // मधुः श्रुत्वेति सञ्जज्ञे हिया द्वेधाप्यवाङ्मुखः। इतश्चागाद् वृतो बालैः श्रीपथे कनकप्रभः॥३४॥ गीतनृत्यप्रलापाद्यग्रहिलं स्ववियोगतः। अदीदृशतं चन्द्राभा साश्रग् मधवे स्वयम् // 35 / / सानुतापो मधुर्वन्धुसुतं राज्ये न्यवीविशत / व्रतं सकैटभो भेजे गुरोविमलवाहनात् // 36 // परःसहस्राः शरदस्तप्यमानौ | तपांसि तौ / द्वादशाङ्गधरौ साधुवैयावृत्यं वितेनतुः // 37 // आयुःप्रान्ते च संन्यस्य विहिताराधनावुभौ / प्रापतुः सप्तमे कल्पे तो | सामानिकनाकिताम् // 38 // कनकप्रभोऽपि वर्षत्रिसहस्रीं क्षुधादिभिः / विधुरो मधुरोषेणोन्मत्तोऽतीत्य व्यपद्यत // 39 / / ज्योतिष्को धूमकेत्वाख्यः सुरोऽभून्न महद्धिकम् / मधुदेवं ददर्शासीच्च्युत्वा मयोऽथ तापसः // 40 // सबालतपसः कष्टान्मृत्वा वैमानिकोऽजनि / मधुं महर्द्धिं तत्रापि दृशाऽपि द्रष्टुमैष्ट न // 41 / / ततश्युत्वा भवं भ्रान्त्वाऽकामर्निजरया पुनः / ज्योतिष्केषु धूमकेतुरिति नाम्ना सुरोऽजनि // 42 // शुक्रात्तदा मधुभ्युत्वा रुक्मिण्या उदरेऽभवत् / प्राग्वैराळूमकेतुस्तं हृत्वाऽक्षैप्सीच्छिलोपरि // 43 // त्रातस्तपोऽजितैः पुण्यैः खेचरस्थापितश्च सः / लप्स्यते पोडशाब्दान्ते जनन्या सह संङ्गमम् // 44 // अहो महा तपसां वारण्येवाभितो वृताः / शैलेऽपि हन्तुं नेश्यन्ते वीरा वैरेऽपि वैरिभिः // 45 // सूनोवियोगे रुक्मिण्याः कारण पोडशाब्दिके / पृष्टः सीमन्धरस्वामी नारदेनैवमाख्यत // 46 // जम्बुद्वीपस्य भरतस्थिते मगधनीवृति / लक्ष्मीग्रामाभिधे ग्रामे सोमदत्तो द्विजोऽजनि // 47 // प्रिया लक्ष्मीवतीत्यस्याऽन्यदोद्याने गता करः / घुसणारुणितैः स्पृष्ट्वा मयूराण्डमशोणयत् // 48 // माता तदौज्झद् घटिकाः पोडश स्वमजानती। मेघाम्बुधौतं स्वीचके | क्रमाजज्ञे मयूरकः // 49 // पुनर्लक्ष्मीवती प्राप्ता बने तं बालकेकिनम् / दृष्ट्वाऽनैपीद्गृहे रम्यं क्रन्दन्त्यामपि मातरि // 50 // पञ्जरे , पाडश स्वममावतीत्यस्यास // 362 // Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यस्य पानान्नः प्रीणन्ती तं च नित्यशः / नृत्ये स्वभावतो दक्षमपि साऽशिक्षयत्तराम् // 51 // तन्मातरं मयुरीं च पश्यद्भिर्दुखितां // 363 // जनैः / प्रोक्ता लक्ष्मीवती मुश्चैतत्सुतं म्रियते ह्यसौ // 52 // साऽप्यथो जातकारुण्याऽमुचत्तं केकिन पुनः / नीत्वा पोडशमासान्ते * रुक्मिण्याः बनान्ते मातुरन्तिके // 53 // ततः प्रमादाद् ब्राह्मण्या कर्मेदृक् षोडशाद्विकम् / बद्धं पुत्रवियोगातिदुःसहं वेद्यमुत्कटम् // 54 // अन्य | पुत्रवियो गकारण Hदाऽस्यां स्वमादर्श पश्यन्त्यां प्राविशद्गृहे / मुनिः समाधिगुप्ताह्वस्तां भर्ता सम्भ्रमादथ / / 55 / / भिक्षादानार्थमादिश्याहृतः केनाप्यगाद् | नाममायाता कनायगा कथनम् बहिः / पूत्कृत्याक्रुश्य निःकास्य साधु द्वारं प्यधत्त सा / / 56 / / युग्मम् / / सप्तमेऽसि गलत्कुष्ठीभूय साधुजुगुप्सया। साऽभून्मृत्वाऽग्निना ग सूकरी रासभी शुनी // 57 / / शुनी प्रदीपने दग्धाऽनातिभृगुपुरान्तिके / दुर्गन्धा दुर्भगा काणाभिधाऽभूद्धीवरात्मजा // 58 // त्यक्ता पितृभ्यां दौर्गन्ध्याद्यौवनेऽनीप्सिता नरैः / रेवायां जनमुत्तार्य नावाऽऽत्मानमजिजीवत् // 59 // दैवानेवातटे सायं का योत्सर्गस्थितं मुनिम् / समाधिगुप्तं साऽद्राक्षीत्तमेव शिशिरे ऋतौ // 60 // स्फीतैः शीतैरसौ रात्रौ महात्मा मास्म पीडयत / इत्याचेतास्तं साधु सा विष्वक् प्रावृणोत्तणैः // 61 / / नेमे मुनिस्तया प्रातर्धम चाकथयन्नयम् / क्वचिद्दष्टोऽसीति पृष्टोऽशंसत्तत्प्राक्तनान् भवान् // 62 / / ज्ञात्वा साधुजुगुप्सोत्थं दौर्गन्ध्यं जातिसंस्मृतेः। सा तमक्षमयत्साधुं गर्हमाणाऽऽत्मने मुहुः॥६३।। श्रावकीकृत्य मुनिना साध्या धर्मश्रियोऽपिता / तद्राि नायलबा नावाष्टभ्यत सा चिरम् // 64 // एकान्तरोपवासैः सा द्वादशाब्दी जिनार्चया / अतीत्य मासं संन्यस्य विपद्य च समाधिना // 65 / / पञ्चपश्चाशत्पल्यायुजज्ञेऽच्युतसुरेशितुः / महिपी सा च्युता जाताऽच्युतकान्तेह रुक्मिणी // 66 // क्षिप्तस्तपोनिना कर्ममलो रुक्मादिवात्मनः। रुक्मिण्या केकिनीमूनुविरहोत्थस्तु नैव धिक् // 67 / / तेनैषा पोडशाब्दानि | // 363 // al स्वपुत्रविरहोद्भवम् / दुःख सहिष्यतेऽवश्यं ही वेद्य क्रीडयाजिंतम् // 68 // श्रुत्वेति नत्वा तीर्थेशं व्योम्नोत्पत्याथ नारदः / वैताढ्य Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 364 // | मेत्य तुष्टाव संवरं पुत्रजन्मना // 69 // अभ्यर्च्य नारदं तेन प्रद्युम्नोऽदर्शि हर्षतः / दृष्ट्वा तं रुक्मिणीतुल्यं सोऽपि सप्रत्ययो द्रुतम् जिनेश|॥७०॥ आपृच्छय खेचरं गत्वा द्वारकां सुतसंकथाम् / कृष्णस्य सदशार्हस्य कथयामास तुष्टये // 71 // युग्मम् // लक्ष्मीवतीभवा- चरित्रम् / त्सर्वं श्रीसीमन्धरवणितम् / वृत्तान्तं मुनिराचख्यौ रुक्मिण्याः साङ्गजन्मनः / / 72 / / भक्त्याऽथ रुक्मिणीदेवी शिरस्थकरकोरका / द्रौपदीस्वतत्रस्थाऽपि नमश्चक्रे सीमन्धरं जिनं त्रिधा // 73 // तेन पोडवान्ते सूनोर्मेलापशंसिना / तीर्थेशवचसा कृष्णरुक्मिण्यौ तस्थतुः सुखम् / यंवरम ण्डपे // 74 // इतोऽपि श्रीमद्वृषभनाथस्याभृत्कुरुः सुतः / तन्नाम्नोया कुरुक्षेत्रं तद्दत्तमिति पप्रथे // 75 / / हस्तीत्यस्य सुतो येनास्थापि श्रीह-al सपुत्र पाण्डुराजस्तिनापुरम् / तत्संतानेऽनन्तवीर्यः कृतवीर्यस्ततोऽप्यभृत् // 76 / / चक्रवर्ती सुभृमोऽस्माजातस्तस्माच्च भृरिपु / अतीतेषु नृपेष्वासीत्प्र गमनम् ख्यातः शान्तनुर्नृपः // 77 // गङ्गासत्यवती नाम्न्यौ पत्न्यौ तस्य बभूवतुः / प्रथमायाः सुतो भीष्मो गाङ्गेयाऽपरनामकः // 78 // चित्राङ्गजचित्रवीर्यों द्वितीयस्याः सुतौ पुनः / अम्बिकाऽम्बालिकाऽम्बाख्याश्चित्रवीर्यस्य वल्लभाः / / 79 / / तासां धृतराष्ट्रपाण्डुविदुराः क्रमतः सुताः / राज्यं न्यस्य धृतराष्ट्रे मृगयां पाण्डुरातनोत् / / 80 / / गान्धारेशस्य सुबलसूनोः शकुनिभूपतेः / गान्धार्याद्याः परि-|te णिन्ये धृतराष्ट्रोऽष्टसोदराः // 8 / / तामु जाताः सुतास्तस्य शतं दुर्योधनादयः / कुन्त्यां युधिष्ठिरभीमार्जुनाः पाण्डोस्तु नन्दनाः | ||82 // पाण्डोः पत्न्या द्वितीयस्या माद्याः शल्यस्वसुः सुतौ / अजायतां च नकुलसहदेवौ महारथौ // 83 / / भिन्नैरपि मिथाहादभिन्नैरेककारणैः / मुखैरिवेश्वरः पाण्डुः पञ्चभिस्तैर्व्यराजत // 84 // बाणाः पश्च सरस्येव ते पाण्डोः सूनवोऽभवन् / अजय्याः खेचरसुरासुरमाधिपैरपि // 85 // रूपविद्यार्थीर्यधेर्यविनयाद्यैर्गुणैरमी / उपमानोपमेयत्वं परस्परमधुर्यदि // 86 // नव्यां पितुर्यशः // 364 // Rell पुंसः पञ्चापीन्द्रियतां दधुः / ते मिथो विनयाद् द्वैधीभावमुक्ताः सदा यतः // 87 // ते लोकोत्तरमाहात्म्याः पञ्चापि परमेष्ठिवत् / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 365 // | मुनिवरकथिता द्रौपदीपूर्वभवाः * मान्या मुनीनामप्यासन्नासन्नाद्भुतसिद्धयः // 88 // समानशक्तयोऽन्योन्यं विषया इव पञ्च ते / नाभूवन्कस्य ? चित्रायानुज्येष्ठं विन|तिस्पृशः / / 89 / / द्रुपदस्यान्यदा राज्ञः श्रीकाम्पिल्यपुरेशितुः / व्यज्ञाप्यत नृपः पाण्डुतेन सदसि स्थितः॥१०॥ कन्या द्रुपदराजस्य | चुलनीकुक्षिसम्भवा / धृष्टद्युम्नस्य सोदर्या द्रौपदीत्यस्ति सद्गुणा // 11 // दशार्हा रामकृष्णौ च दमदन्तः सुयोधनः / शिशुपालो रुक्मीको क्ष्माभुजोऽन्येऽपि साङ्गजाः // 92 / / तस्याः स्वयंवरे पुच्या राज्ञाऽऽहूताः स्वपूरुपैः। तद्देव ! पश्चभिः पुत्रैः सहैत्याध्यास्त्र मण्डपम् / / 93 // युग्मम् / / ततः पाण्डुः सुतैः सार्द्धमन्येऽपि च नरेश्वराः / काम्पिल्यमीयुद्रुपदक्ष्माभुजाऽभ्यर्च्यते स्वयम् // 14 // मण्डपान्तय॑वेश्यन्त धात्रेव गगने ग्रहाः / विमानाभोच्चमश्चस्थेष्वासनेषु यथोचितम् // 95 / / युग्मम् / / अथ स्माता विलिप्ताङ्गी दिव्यस्रग्वस्त्रभूपणा / गृहे श्रीजिनमच्चित्वा स्वसखीभिः समन्विता // 96 / / जेतुं विश्वत्रयीस्त्रीणां मुखेन्दुनिव विभ्रती / स्वमुखेन्दं विधा | स्वर्णकर्णकुण्डलबिम्बतः // 97 // सुरस्त्रीः कङ्कणक्वाणै गस्त्री पुरारवैः / मालालिझंकृतैर्नारीयंत्कुर्वाणेव भूयसा // 98 // आययौ द्रौपदी तत्र नामग्राहं च भूपतीन् / संदर्यमानान्वेत्रिण्या त्यक्त्वाऽगात्पाण्डवान्तिके // 99 // च०क० // सा स्वानुरागं दृक्पातैर्मल्लीमुकुलनिर्मलैः / आविश्चकार युगपत्तेषु लोकोत्तरं तदा // 30 // मेरुणामिव पश्चानां तेषां सा मर्यभूरिख / समं माद्रिमृयैव वेष्टं चक्रे वरस्रजा // 1 // किमेतदिति साश्चर्यास्तत्रान्योन्यमुखेक्षिणः / यावजगुनृपास्तावत्तत्रागाचारणो मुनिः // 2 // पतयः कि? नु पश्च स्युद्रौपद्या इति राजभिः / पृष्टः स सर्वैराचख्यौ कारणं मूलतो मुनिः // 3 // इयं प्राच्यभवोपात्तकर्मणा पञ्चभर्तृका। भवित्रीत्यत्र | किं ? चित्रं निषेद्धा कर्मणो हि कः ? // 4 // तथाह्यभूवंश्चम्पायां विप्रा वेदा इव त्रयः। सोमदेवसोमभूतिसोमदत्ताः सहोदराः // 5 // | तेषां नागश्रीभूतश्रीयक्षश्रीसज्ञिकाः क्रमात् / अजायन्त प्रियतमा धनधान्यर्द्धिशालिनाम् // 6 // सस्नेहास्ते स्थितिं चक्रुः पृथग्वेश्म // 365 // Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / नागश्रीभ // 366 // ववर्णनम् स्थिता अपि / सर्वैर्वारेण भोक्तव्यं प्रत्येकं सर्ववेश्मसु // 7 // सोमदेवगृहेऽन्येद्युः प्राप्ते भोजनवारके / नागश्रीः प्रगुणां चक्रे रम्या रसवतीं खयम् / / 8 // तया वाद्यानि भोज्यानि पचन्त्या व्यञ्जनानि च / अजानत्याऽऽज्यखण्डायैः पेचे कटुकतुम्बकम् // 9 // खादं परीक्षितुं तस्याऽऽस्वादयत्सा लवं रहः / ज्ञात्वातिकटुकत्वेन भोज्यं थुत्कृतवत्यदः॥१०॥ संचस्करे शर्कराद्यैर्मयैतत्कटुता नतु / हाऽत्याक्षीदिति संचित्याऽगोपयत् तद्विपादिनी // 11 // साऽभोजयदरेभोज्गैस्तद्धर्जमपरैस्ततः / गृहमाशान् राकुटुम्बानपि सपतिदेवरान् // 12 // सुभूमिभागे उद्याने धर्मघोपगुरोस्तदा / स्थितस्य ज्ञानिनो युक्तस्यानेबितिनां शतैः // 13 // साधुर्धर्मरुचिर्नाम्ना मासक्षपणपारणे / गतेषु सोमदेवादिष्वागानागश्रियो गृहे // 14 // युग्मम् // अनेन तोषयाम्येनमपीति विमृशन्त्यसौ। नागश्रीर्मुनये तस्मै ददौ तत्तुम्बकं कटु // 15 // यदात्मनोऽनभीष्टं यन्मृत्युकुन्न परस्य तत् / देयं विषमिवेशेन जन्मिना वृपमिच्छता // 16 // नव्य भव्यं मया द्रव्यं प्राप्तमधेत्यथो यतिः / गत्वा सुगुरुहस्ते तत्पात्रं दर्शयितुं न्यधात् // 17 // गुरुराघ्राय तद्गन्धं कटुं प्रोचे तपो| धनम् / न भोज्यं मृत्युदमदस्तत्परिष्ठापय द्रुतम् / / 18 // अन्यमाहारमानीय शुद्धं वं पारयेरिति / आदिष्टो गुरुणा साधुः स वहिः स्थडिलं ययौ / / 19 / / पात्रात्तत्र प्रपातोया स्वयं तुम्बरसच्छटा / म्रियमाणास्तत्र लग्नाः कीटिकाः साधुरैक्षत // 20 // दध्यौ चैकाच्छटा यस्य हन्त्येवं लग्नदेहिनः / परिष्ठापनतोऽस्य स्यादनन्तप्राणिनां क्षयः॥२१॥ वरं मृतिर्ममैकस्य नानन्तानामिहोचिता / कृपयेति विमृश्याश्नान्मुनिस्तत्तुम्बकं स्वयम् // 22 // आराधनां सिद्धसाक्ष्यं कृत्वा स्मृत्वा नमस्कृतिम् / मृत्वा सर्वार्थसिद्धेऽभूदहमिन्द्रः समाधिना // 23 // इतश्च धर्मरुचिना कुतो हेतोचिरायितम् / इति ज्ञातुं धर्मघोषगुरुर्व्यापारयन्मुनीन् // 24 // मृतः स तैहिदृष्टस्तस्य धर्मध्व- जादिकम् / आनीयागत्य गुरुवे न्यवेदि गुरवेदिभिः // 25 // गुरुरप्यवधेात्वा वतिनामाख्यदुच्चकैः। स्पष्टं दुश्चेष्टितं नागश्रियः साधोश्च 366 // Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 367 // भवं भ्रान्त्वा सुकुमारिका जाता सद्गतिम् / / 26 / / कुपिताः साधवः साध्व्यस्तदुःखादेत्य वेश्मनि / आख्युस्तत्सोमदेवादेः कुटुम्बस्य जनस्य च // 27 // पुर्यां नागश्रियः साधुहत्योक्तिः प्रासरत्तथा। यथैवाबालगोपालं हाहाकारो व्यजृम्भत // 28 // आः पापे किमिदं पापमकापीयतिघाततः। आ- त्मवत्सर्वभूतानि द्विजा अपि हि शासति // 29 / / अस्पृश्याग्राह्यनामाऽसि चण्डालीवेति भापिभिः। सोमदेवादिभिर्गेहानागश्रीनिवास्यत // 30 // युग्मम् // पुर्या निःकासिता लोकैरपि निर्भत्स्य पापिनी। ततो वराकी रङ्कीवाऽभ्राम्यद्भवि सुदःखिता // 31 // रोगैः पोडशभिः काशश्वासकुष्ठादिभिः समम् / साक्षाद्भूतैरिव महापापद्रोनिचिता फलेः // 32 // सा नारकख मर्त्यत्वेऽप्यन्वभृत्कौतुकं नवम् / सहमानाऽधिको कुम्भीपाकादिभ्योऽपि वेदनाम् // 33 // साऽथानाथा तिरश्चीवत्क्षुत्तष्णार्ता निराश्रया / अग्रावृत्तिः क्रमान्मृत्वा ययौ पष्ठीं हहा भुवम् // 34 // तदुद्वृत्ताऽभवन्म्लेच्छेप्वेपाऽगात्सप्तमी भुवम् / ततोप्युद्वृत्य मत्स्यवं प्राप्याऽयात सप्तमी पुनः॥३५॥ सप्ताऽपि नरकानेवं सा द्विद्धिः स्पृष्टवत्यथ / अनन्तशः स्थावरेपु त्रसेष्वपि च नैकशः॥३६॥ उत्पाद्याशातयत्कष्किामनिर्जरया बह / क्रियाहीनाऽपि मायुः साऽयनान्मध्यमैगुणैः // 37 // युग्मम् // श्रेष्ठिसागरदत्तस्य सुभद्राकुक्षिजा सुता / साऽस्यामेवाथ चम्पायां नाम्नाऽभृत्सुकुमारिका // 38 // आसीत्तत्र च सार्थेशः सुभद्रायाः पतिर्धनी / जिनदत्तः सुतश्चास्य सागरो गुणसागरः // 39 // जिनदत्तोऽन्यदाऽद्राक्षीन्मृगाक्षीं सुकुमारिकाम् / स्वसौधाग्रे कन्दुकेनारब्धक्रीडां कुमारिकाम् // 40 // अन्तर्वतिनिधिस्फारस्थलवत् स्वमुरःस्थलम् / विभ्रती यौवनारम्भशोभासंरम्भशालिनी // 41 // योग्येयं मम पुत्रस्येत्यालोच्य स्वजनैः सह / एत्य सागरदत्तं स | तामयाचत सादरम् // 42 // युग्मम् // श्रेष्ट्यऽप्यूचे सुतेयं मे प्राणेभ्योऽप्यतिवल्लभा / विनाऽनयाऽनपत्योऽहं नेशः स्थातुमपि क्षणम् // 43 // पत्रेण गृहजामाता त्वत्सुतो यदि मे भवेत् / पुत्रीं तदेतां गौरव्यां खां ददेऽस्मै धनैः सह // 44 // आलोच्य कथयिष्यामीत्युक्त्वा | // 367 // Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / श्रेष्टिपुत्रेण त्यक्ता // 368 // सार्थपतिहम् / गत्वाऽपृच्छत्सुतं सोऽपि मौनात्तत्स्वीकृति जगौ // 45 // सार्थेशोऽप्रतिषिद्धं तन्मत्वाऽस्यानुमतं हृदि / गृहजामातरं | मेने श्रेष्ठिनोऽग्रे निज सुतम् // 46 // ताभ्यां धनिभ्यां चक्रेऽथोद्वाहः सागरकन्ययोः / मुदाऽनल्पं श्रितौ तल्पं रात्रौ वासगृहे च तौ // 47 // प्राकमोदितदौर्भाग्यात्सुकुमार्यास्तनोस्तदा। दावज्वालाप्रशम्पोल्कासन्तापादपि दुःसहः // 48 // स्पर्शोऽभूत्तेन दंदह्यमानः | कुच्छ्रेण सागरः। तत्र तस्थौ क्षणं सुप्तां तां मुक्त्वाऽगानिजे गृहे // 49 // युग्मम् / / क्षणाज्जागरिता साऽप्यप्रेक्ष्य तं पतिमात्मनः।। | निनाय रुदितोच्छ्रननेत्रा रात्रि कथञ्चन // 50 // प्रातर्वधूवरस्याथ दन्तशौचार्थमागता / चेटी सुभद्रयादिष्टा रुदन्तीमेकका सुताम् // 51 // वीक्ष्याचख्यौ पुरो मातुः साऽपि भर्तुरसावपि / अदत्त जिनदत्तस्य गोपालम्भमात्मनः // 52 // युग्मम् / / विजने जिनद| तोऽपि पुत्रमूचे मृदु त्वया / अत्याजि स्वयमादृत्य किं नाम स्वजनात्मजा // 53 / / वत्स! श्रेष्टिगृहे गच्छ तत्सम्प्रत्यपि तां श्रय / | त्वया मदग्रेऽङ्गीचक्रे सज्जनाग्रे मया त्वदः // 54 // सागरो व्याहरद्वहौ प्रवेक्ष्यामि सुखं पितः। पार्श्वे श्रेष्ठिसुतायास्तु दुःस्पर्शायास्ततोऽपि न // 55 / / तत्कुड्यान्तरितः सर्व शुश्राव श्रेष्ठ्यपि स्वयम् / जामातुराशां त्यक्त्वाऽगागृहं पुत्रीमुवाच च // 56 / / विरक्तस्त्वयि सार्थेशपुत्रस्तेऽन्यं पति ततः / करिष्येऽन्विष्य वत्से ! तन्मा स्म व खिद्यथा वृथा // 57 / / दौर्भाग्योदयतः पुत्र्याः कुलिनं विमुखं नरम्। निश्चित्यावस्तुभूतं सोऽशोधयत् पुरुषैः परम् // 58 // सोऽन्येाः कर्परधरं जीर्णशीर्णाम्बरं स्वयम् / मक्षिकावृतमद्राक्षीद् भिक्षाकं सौधमृर्द्धगः // 59 / / तेनाकार्य कर्परादि मोचयित्वा स कोणके / संस्नप्य भोजयित्वा च चन्दनेनानुलिप्य च // 60 // अभाणि वत्स पुत्रीय मया तेऽदायि तत्सुखम् / क्रीडेस्त्वमनया साई देववत्पूर्णवाञ्छितः // 6 // युग्मम् // श्रुत्वेति हृष्टः स ययौ निशि वासौकसि स्वयम् / पल्यझं शिश्रिये क्षौमप्रच्छदं चम्पकैश्चितम् // 62 // तत्र स्पृष्टः श्रेष्ठिपुच्या स्नेहपाच्या स पूपवत् / तपन्त्या तापिकयेबाऽ मा त्यक्त्वाऽगागुहं पुत्रायाः कुलिनं विमुख सोध सर्ग-९ // 368 // Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 369 // सुकुमारिका | निदान स्वरूपम् | भवच्छमितिकृत्तनुः॥६३॥ दध्यौ च धिक् कथं ? तन्वा नाना च सुकुमारिका / स्पर्शेग्निकारिकेवाज्यं ज्वलन्त्यङ्गं दहत्यसौ // 6 // स्पर्श सहिष्ये चेद् धैर्यात्क्षणमस्यास्ततो ध्रुवम् / नवनीतविलायं मे कायः सर्वो विलास्यते // 65 / / इत्यातङ्कात् स उत्थाय विधृतोऽपि करैस्तया / बलादाच्छेद्य निर्गत्य स्वं वेपं परिधाय च // 66 // संत्यज्य श्रेष्टिवस्त्राणि धार्यमाणोऽपि यामिकैः। तथाऽनेशद्यथा नेशः कोप्यासीत्तद्भहे हठात् // 67 / / त्रि० वि०॥ विषीदन्ती सुता प्रोचे पित्रा प्राग्भवकर्मणाम् / उदियाय विपाकोऽयं सह्यस्तद्धीरया त्वया / // 68 // देयं दानं विधेयं च ध्यानं धर्म तपोऽपि च / भावेन घात्यं दुःकर्म तिष्ठन्त्या मद्गृहे सुखम् // 69 // तस्यास्तत्रेति समयं गमयन्त्याः कदाचन / आर्या गोपालिका इत्याजग्मुर्वेश्मनि भिक्षितुम् // 70 // शुद्धभक्तादिभिस्ताश्च प्रतिलम्भ्याथ तन्मुखात् / धर्म | श्रुत्वाऽऽश्रये बुद्धा वैराग्यात्पित्रनुज्ञया // 71 // तत्पावे साऽग्रहीद्दीक्षामन्यत्रार्यायुता भुवि / व्यहार्षीत्कुर्वती षष्टाष्ठमाद्यं नित्यशस्तपः॥७२॥ युग्मम् / / साऽप्राक्षीदेकदाऽऽर्यास्ताः सूर्य न्यस्तविलोचना / (सु)भूमिभागोद्यानेऽहं करोम्यातापनाविधिम् / / 73 / / आर्याभिरूचे साध्वीनां निषिद्धा वसतेबहिः / आतापना जिनस्ता यद्रक्ष्याः श्रीगृहवत्सदा // 74aa इत्यार्यादेशमश्रुखैवागत्योद्यानभूमिकाम् / आतापनां समारेभे सैकापि सुकुमारिका // 7 // युग्मम् // अथैकेन धृतच्छत्रां परेणाङ्के निवेशिताम् / तदन्येन वीज्यमानां यूना व्यजनमारुतैः // 76 // अथ्यमानवेणिमेकेनैकेनाङ्के धृतक्रमाम् / वेश्यामपश्यत्सा देवदत्तां तत्रागतां तदा // 77 / / युग्मम् / / अप्राप्तभोगसौख्या सा निदानमिति निर्ममे / स्यां पञ्चपतिकाऽनेन तपसाऽहमसाविव / / 78 // चक्रेऽङ्गवस्त्रशौचं साऽभ्युक्षणं च पदे पदे / वार्यमाणा च साध्वीभिरध्यासीदिति मानसे // 79 // ग्रहे स्थिताहमार्याणां गौरव्याऽऽसं धनेश्वरी / तुदन्ति साम्प्रतं भिक्षाचरी शिक्षामिषात्तु माम् // 80 // अदृष्टश्वभूननान्डस्थितेमध्येधु-| // 369 // Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 37 // नापि तत् / किमेताभिरिति ध्यात्वा पृथक् साऽस्थादुपाश्रये // 81 / / एकाकिनी स्वैरवृत्तिव॑तं साऽपालयचिरम् / अष्टौ मासांश्च संलिख्यानालोच्य स्वां विराधनाम् // 82 / / सौधर्म देव्यभृन्मृत्वा नवपल्योपमस्थितिः / ततश्युत्वाऽभूद् द्रुपदराजस्येयं तनूद्भवा // 83|| युग्मन् / निदानादेतया प्राच्यात्पतयः पञ्च पत्रिरे / किमत्र चित्र भोगः स्याद्यथावद्धस्य कर्मणः // 84 // पतिश्वशुरतां ज्येष्ठे पतिदे| वरतां लघौ / मध्यमेषु त्रिषु पुनस्त्रितयं त्रितयं सदा / / 85 // मनोवाक्कायसंशुद्ध्याऽत्यन्तदुर्घटया गृहे / आचरन्ती सतीचूडामणिः सेयं | भविष्यति // 86 // युग्मम् / / इत्युचुपि मुनौ वाणी साधु साध्वित्यभूदिवि / भूपाः कृष्णादयोऽप्यूचुः साध्वेते पतयोऽभवन् // 87 / / सर्वैस्तैरेव भूपालेर्वजनविहितोत्सवाः / पाण्डवा द्रौपदी देवीं गत्वाऽथ परिणिन्यिरे // 88 // दशार्हान् केशवं चान्यान् भूपालान् पाण्डुभूपतिः / निमत्रितानिवानीय पुरेऽगौरवयन्निजे॥८९॥ तानचित्वाऽखिलान् शौरिशाङ्गिणौ च विशेषतः। व्यसृजत्स्वजनांश्चान्या पाण्डुःपाण्डुस्फुरद्यशाः // 90 // राज्ये युधिष्ठिरं न्यस्य क्रमात्पाण्डुर्दिवं ययौ / कुन्त्याः समर्प्य स्वसुतौ मार्दी प्रेम्णा तमन्वयात् // 11 // * राज्यं युधिष्ठिरो नीत्याऽन्वशाद् भीमादयोऽस्य च / चत्वारश्चक्रुरादेशमुपाया इव देहिनः // 92 / / सुतास्तु धृतराष्ट्रस्य राज्यलुब्धाः | समत्सराः / हृदि क्रूराः पाण्डुपुत्रान् सर्वानप्यध्वमेनिरे // 93 / / भक्त्या दुर्योधनः पाण्डुराज्यवृद्धानऽतोपयत् / अन्तदुष्टोऽपि कपटविनयात्पाण्डवानपि / / 94 // युधिष्ठिरादीन् पञ्चापि माययाऽन्तः प्रविश्य सः। विनोदैः प्रीणयस्तैस्तैस्वलाद् द्युतमखेलयत् // 15 // | युतं निषिद्धं भूपानां शास्त्रेऽन्यव्यसनान्यपि / राज्यभ्रंशादिदुःखं च द्युतान्नलमहीपतेः॥९६॥ यजानन्तोऽपि ते द्युतं भेजिरेऽपि विवे| किनः। दुःकर्मनाम्ना दैवेन भ्रमितास्तद् ध्रुवं हठात् // 97 // युग्मम् // कृत्वा च्छलानि तान्पश्चाजेपीद् दुष्टो धनं घनम् / तर्पोत्कर्षेण सप्ताङ्गं | राज्य चैतः पणीकृतम् / / 98 // पाण्डवैरान्धिकद्यूतासक्त्येवाऽन्धितलोचनैः / द्रौपद्यपि पणीकृत्याऽहारि हाऽरिष्टमीदृशम् // 99 // सभा जिनेशचरित्रम् / पाण्डवः सतीशिरोमणीद्रौपदी राज्यं च हारितं द्यूतेन सग-९ // 370 // Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 371 // सपुत्रकुन्ती द्वारिकां गता समक्षं राज्ञां च पश्यतां तां सुयोधनः / जग्राह धृत्वा केशेषु कृष्ट्वा नीवीं हठादपि // 420 // युधिष्ठिरस्तु तत्सर्वं सेहे सत्यमहाधनः / / अजातशत्रुरप्यासीजातशत्रुः खगोत्रजात् // 1 // राज्यप्रधानभूपैश्चाकृत्यं मामेति वादिभिः / प्रोक्तोऽपि द्रौपदी यावन्न मुमुचे सुयोधनः ||2|| अधावत्तावदुत्क्रोधाग्निस्फुलिङ्गारुणेक्षणः / हन्तुं भीमः स्फुरद्धीमगदाघातभयङ्करः // 3 / / युग्मम् // ततो वृकोदराद् विभ्यच्छाग| वद् द्रुपदात्मजाम् / अजामिव द्रुतं त्यक्त्वा दूरं दुर्योधनोऽनशत् // 4 // अथ दुर्योधनः कृत्वा कूटाद्राज्यं स्वपृष्टगम् / सन्नाह्य सैन्यं निदैन्यं दृतेनोवाच पाण्डवान् // 5 // भवद्भिस्त्यज्यतां शीघ्रं मही छुतेन हारिता / ग्राममात्रमपि स्थातुं न दास्ये भवतामहम् // 6 // श्रुत्वा तदुःश्रयं भीमादयः प्रोचुयुधिष्ठिरम् / कोऽयं क्षुद्रश्छलान्वेषी हनिष्यामोऽमुमञ्जसा // 7 // सत्यभङ्गभयाज्ज्येष्ठस्तानप्युद्दामवि* क्रमान् / युद्धान्नयवारयत्कष्टमप्यङ्गीकृत्य भावि तत् // 8 // कपाया इव चत्वारस्ते बोधेनेव बन्धुना / बोधिताः सोदराः श्रित्वा तितिक्षा मस्थुरद्भुतम् // 9 // धार्तराष्ट्रर्जितराष्ट्रा बलात्कृत्वाऽपमाननम् / निर्वास्य चक्रिरे पाण्डोः पुत्राश्चित्रं वनेचराः // 10 // वनाद्वनं भ्रमन्तस्ते मातृपत्नीपरिच्छदाः / वन्यवद् गमयामासुः कालं ही भवितव्यता / / 11 / / कुन्त्या स्वरा दशार्हाणामनिच्छन्तोऽपि मानतः। सुताः प्रबोध्य पश्चापि द्वारकां निन्यिरे क्रमात् // 12 / / दिव्यास्त्रयोधिनोप्युद्यद्विद्याभुजवला अपि / देवाद्विश्वैकवीरा अप्यभूवन्मातुलाश्रयाः // 13 // कुन्ती समुद्रविजयस्यावासे प्रथमं ययौ / तं सानुजं सतनुजं सभासीनमुदैवत // 14 // समुद्रः सानुजोऽप्येनां सोदरां सादरं मुदा / प्रत्युद्गम्याऽध्यास्य रम्यासनमभ्यर्च्य साङ्गजाम् // 15 / / प्रणम्य प्राञ्जलिः प्रोचे स्नेहाद् गदगदया गिरा / तवाशिषः सुखफलाश्चिरात्को पुनन्ति नः / / 16 / / युग्मम् // अद्य साक्षात्कृता माता यत्त्वं दृष्टाऽसि हे स्वसः / सौभागिनेयि ! दिष्ट्या नो भागिनेयानदर्शयः॥१७।। किन्तु व्यथयते चेतोऽस्माकं म्लाना तवाकृतिः / जामेयानां पदातित्वमपरिच्छदताऽपि च // 18 // भर्तुर्विपत्ते For भवितव्यता // 11 // न्याला अपि / देवाद्विश्वैकवीरा अभ्यामोदर सादरं // 37 // Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / | यादवैः सन्मानिता रक्षिता च // 372 / / रारभ्य वृत्तान्तं मूलतोऽप्यथ / आख्यत्कुन्ती स्वपुत्राणां यावत्पुर्यागमं वनात् // 19 // सुता मानोन्नताश्चैते कृच्छ्रेण भवदन्तिके / / | आनिन्यिरे मया भ्रातः समयाकृत्य सम्प्रति // 20 // भ्रातरोऽथ दशाप्यचुर्दायादेभ्यस्तवाङ्गजाः / बलोत्कटेभ्यो रक्षोभ्य इव तेभ्योऽधुना स्वसः // 21 / / असद्भाग्येन जीवन्तोत्राययुर्देवता इव / पूज्याश्चासाकमेते तहुःखं त्यज सुखं भज // 22 // युग्मम् // कुन्त्यप्युवाच मे पुत्रास्तदैवाई च जीविता / यूयं सपुत्रा जीवन्तो यदैवेह श्रुता मया ॥२३श्रीकृष्णरामयोर्लोकोत्तरं च चरितं जनात् / | आकर्णयन्ती हृष्टानागमं तद्वीक्षणोत्सुका // 24 // सागात्सपुत्रा भ्रातृणामनुमत्या हरेः सभाम् / प्रत्युद्गम्य रामकृष्णौ तां भक्त्या | नेमतुः स्वयम् // 25 // यथाज्येष्ठं रामकृष्णौ पाण्डुपुत्राश्च ते मिथः। कृत्वा श्लेष नमस्कारमुपाविक्षन् यथोचितम् // 26 // कृष्णोऽभ्यधान्निजे गेहे यूयं युक्तं समागताः / भवतां च यदूनां च साधारण्यो हि सम्पदः // 27 // युधिष्ठिरोऽभ्यधाकृष्णश्रियस्तेषां स्वयंवराः / त्वमाश्रितोऽसि यैर्वच्मि किं ? तान् येऽङ्गीकृतास्त्वया // 28 // हरेऽवतीर्णे त्वय्यस्सन्मातृवंशे महावने / वयं सामोद्भवाश्चित्रं | जाता विश्वेऽधिकौजसः // 29 // कुन्ती कुन्तीसुतान्हर्षप्रकर्ष गोरवोक्तिभिः / आरोप्यास्थापयद्रत्नप्रासादेषु हरिः पृथक् // 30 // दशार्हाः पाण्डवेभ्योऽदुः कन्यकाः स्वाः क्रमादिमाः / लक्ष्भीवतीं वेगवतीं सुभद्रा विजयां रतिम् // 31 // दशा, रामकृष्णभ्यां ते पश्चापि | स्वदेववत् / पूज्यमानाः स्वराज्यादप्यासेदुरधिकां श्रियम् // 32 // इतोऽप्युद्यौवनं द्वेधा सकलं पार्वणेन्दुवत् / स्वरुच्या वद्धितं बाल्ये प्रेयसो भास्वतोऽङ्गजम् // 33 // स्वर्गङ्गाकनकाम्भोजमालेवातिकुतूहलम् / प्रद्युम्नं वीक्ष्य कनकमालाऽभूद्भोगकाशिणी // 34 // युग्मम् / / दध्यौ च नेदृक् लावण्यमसुरेषु सुरेषु च / खेचरेषु नरेपूच्चैरास्तेऽन्यस्याऽतर्षकृत् // 35 / / तदेतस्य दुर्लभस्य स्वाधीनस्याद्य दैवतः / स्वयं भोगायुज्यते मे ग्रहीतुं जन्मनः फलम् // 36 // सर्ग-९ // 372 // Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 373 // | कनकबूतीकामपार्थना तिरस्कृता प्रद्युम्नेन | चिन्तयित्वेत्युवाचैषा प्रद्युम्नं मृदुवाग रहः / स्खं प्ररोचयितु तस्मै माहात्म्यं स्तुवती निजम् // 37 // वैताढय उत्तरश्रेणावस्मि वह्निपुरेशितुः / अहं निपधराजस्य पुत्री नैपधिसोदरा // 38 // पितृप्रदत्तश्रीगौरीमहाविद्याऽहमर्थनैः / प्रज्ञप्तिविद्यां दत्वोढा संवरेण च साद-| रम् // 39 // विद्याद्वयबलिष्ठाया बलान्मे संवरः सुखी / मन्यमानस्तृणायान्यान् राज्ञोऽन्यां नेच्छति स्त्रियम् // 40 // एवं शक्ताऽनुरक्ता च साऽहं दूतैर्गुणैस्तव / कारिता प्रार्थनां तत्त्वं वृथा मा मामपाकृथाः // 41 // पिधाय कर्णावाः शान्तं पापमित्युल्लपन्नथ / प्रद्युम्नःप्रोचिवान्साम्ना सुधामधरयन्निति // 42 // नेदं ते युज्यते वक्तुं यतस्त्वं मे जनन्यसि / अहं च तेऽङ्गजोऽस्म्यतः पातकाय | द्वयोरदः // 43 // ऊचे सा सस्मितं नासि पुत्रो मे सं कृपालुना। संवरेण पथि प्राप्तोऽस्युज्झितः किन्तु केनचित् // 44 // कस्यापि सूनुस्त्वं मेऽसि वर्द्धनाय समर्पितः / तन्मां सेवख निःशङ्क सानुरागां कृतार्थनाम् // 45 // युग्मम् // हहा व्याघ्रया इवामुष्याः सङ्कटे पतितोऽस्मि धिक् / ध्यात्वेत्यूचे स ते भर्तुः पुत्रेभ्यश्च बिभेम्यहम् // 46 // साऽभ्यधान्मारम भैस्त्वं मे गौरीप्रज्ञप्तिनामकम् / विद्याद्वयं * गृहीत्वेदमजय्यो भव सर्वतः॥४७॥ श्रुत्वेति सोऽपि नाकृत्यं कर्ताऽस्मीति दृढाशयः। आइत्य तद्वचो विद्ये गृहीत्वाऽसाधयत्सुधीः | // 48 // ऊचे च तां वृपस्यन्ती माताऽभूवर्द्धनात्पुरा / आचार्या त्वभवस्वं मे विद्यादानेन सम्पति // 49 / / तत्पापकर्मणे वाच्यस्त्वयाऽहं | न कदाचन / विवेकमन्त्रसंस्मृत्या निग्रह्योऽयं च दुग्रहः // 50 / / तामित्युक्त्वा बलात्यक्त्वा कृष्णसूनगराद् बहिः / गत्वा कलम्बुकावाप्यास्तटे तस्थौ विषादवान् // 51 // नखैः कनकमालाऽपि विदार्य स्वाङ्गमुच्चकैः / चक्रे कोलाहलं तेनाजग्मुस्तस्याः सुता द्रुतम् // 52 // आः किमेतदभूदत्याहितमित्यनुयुञ्जताम् / तेपामेषाऽशंसदुच्चैश्छद्मनाटकसूत्रभृत् // 53 // भवत्पितुः पुत्रकेण कपिनेव दुरात्मना / यौवनोन्मादिना भोज्यदात्री दीर्णा नखैरहम् // 54 // ततो मातृचरित्राब्धेस्तटस्थास्ते च वस्तवत् / अज्ञानाः कुपितास्तूण प्रद्युम्नं हन्तु ||373 // Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम * माययुः // 15 // ततः प्रौढः स विद्याभ्यां पक्षतिभ्यामिवोरगः / एकोऽपि रणसोत्सेकान् भेकानिव जघान तान् // 56 // तद्वधोद्दी- जिनेश पितक्रोधदुर्द्धरः शंबरोऽप्यथ / आगाजिघांसुः प्रद्युम्नमग्रणीरविवेकिनाम् / / 57 / / तेनाऽप्येप कृतज्ञेन जित्वा विद्यावलाद् बली / ज्ञापितः|| चरित्रम् / // 374|| कनकमालावृतान्तं मूलतो स्वयम् // 58 // त्यक्तमिथ्याभिमानेन शंवरेणाऽनुतापिना / अनुनीय स्फुरद्युम्नः प्रद्युम्नः पर्यपूज्यत / / 59 // नारदकथितदाऽऽगान्नारदः कान्तिव्यस्तशारदवारिदः / प्रज्ञस्या ज्ञापितश्चाचि प्रद्युम्नेनापि भक्तितः॥६०॥ संरम्भहेतुं पृच्छंश्च वृत्तान्तं मूलतो- ते स्वमातऽप्यथ / श्रीकृष्णम नुनाऽज्ञापि सकलं स कलिप्रियः // 6 // निवेद्य मुनिरप्यस्य श्रीसीमन्धरवर्णिताम् / तन्मातुरपि रुक्मिण्याः कथा वृत्तान्ते कथितवानिति।।६२।। पूर्व पाणिग्रहे सूनोः केशार्पणपणः कृतः / सपत्न्या भामया सार्द्ध त्वन्मात्रा कृष्णसाक्षिकः // 63 // सूनुः सम्प्रति द्वारिका गमनं भामाया भानुकः परिणेष्यते / केशस्तित्र भवन्मातुः सा सपत्नी ग्रहीष्यति॥६॥ त्वद्वियोगे कृशा केशविप्लुत्या चार्दिताऽधुना / लप्स्यते रुक्मिणी मृत्यु सत्यपि त्वयि नन्दने // 65 / / चञ्चापुरुपतोऽप्येप निःसारस्तनूजः कथम् / जीवत्यत्र न मातुर्योऽरक्षत्परपराभवम् Hal66 // श्रुत्वेति प्रज्ञप्तिकृतविमानमधिरुह्य सः / वेगात्सनारदोप्यागाद् द्वारका नगरी तदा // 67 // शशंस नारदः सेयं नगरी त्वपितुः कृते / कृता स्वर्णरत्नमयी श्रीदेनेन्द्रनियोगतः॥६८॥ मन्ये भवत्पितुः शक्रोऽप्यवक्रो विक्रमैः कृतः। अन्यथा स्वपुरीसारं कथमस्योपदां व्यधात् // 69 // पुर्यां कृत्वा चमत्कारं यावत्वं ज्ञापये पितुः। स्थेयं विमान एवात्र स्थेम्ना तावन्मुने! त्वया // 70 // तथा- सर्ग-९ | कृते नारदेन प्रद्युम्नः प्रेक्षत व्रजन् / भामापुत्रोद्वाहजन्ययात्रां वहिखस्थिताम् // 71 / / कन्यां स भानुकोद्वाह्यां हृत्वा नारदसन्निधौ। अमुश्चत्तां मुनिः प्रोचे मा भैः कृष्णसुतोऽह्ययम् / / 72 // दृष्ट्वा भानुविवाहार्थ रक्ष्यमाणफलं वनम् / तद्रक्षान् स कपि कृत्वाऽस्सार्थे- // 374 // ऽयाचत्फलादिकम् // 73 // राजाज्ञाभयतस्तांचाददतः स घनद्धनः। प्रलोभ्य कपिनोद्यानं फलहीनमचीकरत् / / 74 // भूत्वा हेडावु Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कस्तृण्यां रक्ष्यमाणामयाचत। धनैः प्रलोभ्य तद्रक्षानिस्तृणां सोऽकरोत्पुरीम् // 75 // सरःकूपप्रपावापीनदीश्चागस्तिवत् क्षणात् / स // 375 // पीत्वा विद्यया चक्रे शुष्कतोयकथाप्रथाः॥७६।। ततोऽश्वविक्रयी भूत्वा वाह्याल्यां वाहयन् हयम् / भानुकेनार्थितः प्रोचे प्रद्युम्नः कूतुहलेन | कैतवादिति // 77 / / स्वयं परीक्ष्यादत्स्वैनं यथा दोपो भवेन्न मे / इतरोऽपि तमारोहत्तस्य वेगं परीक्षितुम् // 78 / / वाजं नाटयता माया वंचिता भामा वाजिना भानुकोऽप्यथ / अपाति पृथ्व्यां वातावधूतेनेव द्रुणा फलम् // 79 // इडिकं भानुरारुढो हस्थमानोऽथ नागरैः। ययौ कृष्णसभां हास्यं सदस्यानपि लम्भयन् // 80 // प्राविक्षद्विप्रवेपोऽथ प्रद्युम्नो द्वारकां पुरीम् / भ्रमन् वेदं पठन् भामादासीमैक्षत कुब्जिकाम् 81 // शक्त्या चक्रे स तामृज्जी नखोचे सा तमादरात् / क्व यूयं याथ ? सोऽवादीत्याप्स्यामो यत्र भोजनम् // 82 // दास्यूचे तहिं * | भामाया गृहमागच्छत द्रुतम् / दास्ये तत्र यथेच्छं वो वीवाहे मोदकादिकम् / / 83 // एवमस्त्विति जल्पन्तं तं नीत्वा द्वारतोरणे / मुक्त्वा | SI दासी स्वयं मध्ये सत्यभामान्तिके ययौ // 84 // भामोचे काऽसि ? दासि ! ख साऽवदत् कुब्जिकाऽस्म्यहम् / कृतासि सरला केने युक्ता सा सत्यभाभया // 85 // शशंस विग्रं द्वारस्थं भामाऽप्यथ ससम्भ्रभा / आह्वाययत्तया वेगादिव्यशक्तिं तमादृता // 86 // | // युग्मम् // मायाद्विजः सदत्ताशीरासीनोऽभाणि भामया / सप्रभावोऽसि मे रूपं रुक्मिणीतोऽधिकं कुरु // 87 // विप्रोऽप्यूचे सुरुपासि त्वद्रूपा नासुरी सुरी / नारी वा वीक्षिता क्वापि मा याचस्व रूपं ततः // 8 // भामाऽभापिष्ट भोः शिष्टोचितमात्थ तथापि माम् / कुरुष्वानुपमा रूपे प्रभावनोत्कटोऽसि यत् / / 89 // द्विजोऽवोचत यद्येवं वैरूप्यं क्रियतां तनौ / यस्माद्विशेषः सामान्यानादरे | व्यक्तिमत्यहो॥९०॥ पृष्टोऽथ भामया कुर्वे किमित्याख्यदसावपि / मौलिं मुण्डय देहं च मष्या मण्डय सर्वतः // 91 // परिधाया Berj375 // *म्बरं जीर्णखण्डस्यूतं पुरो भव / विशेषरूपं सौभाग्यश्रियं ते रोपये यथा // 12 // सर्व तत्सा व्यधान्मोहाद्विप्रस्त्वेवमवोचत / नहि Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / साधूभूत्वा स्वमातगृहे क्रीडा // 376 // | भद्रे ! क्षुधातस्य विद्या स्फुतिमियत्ति मे // 13 // तं भोजयितुमादिक्षत सूदान् भामा ससम्भ्रमा / तस्याः कर्णान्तिके त्वेवमुपादिक्षद् | द्विजाग्रणीः // 94 // भुक्त्वोत्तिष्ठाम्यहं यावत्तावद्गोत्रसुरीपुरः। रुडुबुडु रुडुबुडु इति मन्त्र जपेः शुभे!॥९५।। तस्यां तथैव कुर्वन्त्यां भुञ्जानेन द्विजेन तु / सर्वा रसवती पक्वान्नादिः शक्त्या समाप्यत // 96 // भामाया बिभ्यतीभिश्च सूदस्त्रीभिः कथश्चन / आनीय वारि- करकमुत्तिष्ठेति न्यगादि सः॥९७॥ क्षुधाक्षामस्तथैवामि तृप्तिमे यत्र भाविनी / गृहे तत्र प्रयास्यामीत्युक्त्वा मायाद्विजो ययौ // 98 // स मुक्त्वा विप्रतां बालसाधुरूपस्ततो ययौ / रूक्मिण्याः सदने दुरात्तं दृष्ट्वा साऽपि पिप्रिये // 99 / / गृहान्तः साविशत्तस्योपनेतुं यावदासनम् / हरेः सिंहासने तावत्स प्राग् न्यस्ते निषेदिवान् // 500 // आदायासनमायाता रुक्मिणी वीक्ष्य तं तथा / आः किमेतदिति ध्यात्वा विस्मयादित्यवोचत // 1 // कृष्णं कृष्णसुतं वापि विनाऽपरमिहासने / आसीनं देवता नैव सहन्ते बालपण्डित ! // 2 // सोऽवक् तपःप्रभावान्मे प्रभवति न देवता। रुक्मिण्याऽभाणि तागास्वं साधो ! केन हेतुना // 3 // खं ज्ञापयितुमित्यूचे प्रद्युम्नः | श्राविके ! व्यधाम् / जन्मतोऽपि पोडशाब्दीमुपवासतपःक्रियाम् // 4 // स्तन्यमप्यपिबं जातमात्रो नाहं तपोरुचिः / अत्रागां पारणार्थी तदेहि किश्चिन्ममोचितम् // 5 // पुत्रेण ज्ञापिताऽपि स्खं मोहाद्रुक्मिण्यजानती। प्रोचे साधो ! पोडशाब्दं तपोऽश्रावि क्वचिन्नहि // 6 // | उपवासतपस्तु यावदुत्कृष्टं वत्सरावधि / श्रूयते ह्यागमे साधो ! साधीयस्तन्न ते वचः // 7 // साधुरूचेऽलमुक्त्वा चेदस्ति ते दित्ससे च चेत् / किञ्चिद्देयं ततो देहि यामि भामागृहेऽन्यथा // 8 // रुक्मिण्यचेऽद्य नापाचि मयोद्वेगेन किञ्चन / साधुः पप्रच्छ को हेतुस्त| वोद्वेगस्य कथ्यताम् / / 9 // साऽशंसत्पुत्रदुःखार्ताऽऽराधयं कुलदेवताम् / इयत्कालमहं भक्त्या स्वमूनोः सङ्गमाशया // 10 // अपूर्णा- शाऽधुना देव्या दित्सयाऽहं शिरोवलेः / शस्त्री कण्ठे न्यधां यावत्तावत्सैवमभाषत // 11 // मा कार्षीः साहसं वत्से ! तदा ते सूनुरे-* // 376 // Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 377 // भामादासः मुण्डिता प्रद्युम्नेन प्यति / अकालेऽपि यदा चूतः पुष्पिष्यति गृहाङ्गणे॥१२॥ चूतः किसलयस्यूतस्तदयं मदयन् पिकान् / पुष्पितो नतु मे भाग्यहीनाया | वाञ्छितद्रुमः॥१३॥ किं ? सुधाविन्दुना किश्चन्दुना किं ? चन्दनेन वा / गात्रं पात्रं तनूजाङ्गसङ्गरङ्गस्य चेद्भवेत् // 14 // भोजनं Hदुर्जनं मन्ये मण्डनं खण्डनं तनोः / वेपं विषं भूपणं च दुपणं तनुजं विना // 15 // बालपण्डित ! सर्वज्ञपुत्रकोऽसि विलोकय / होरां | कथय मे भावी यत्र पुत्रागमोत्सवः // 16 // होरा स्याद्रिक्तहस्तानां निःफलैवेतिभाषिणम् / साधु रुक्मिण्युवाचेति वद तुभ्यं ददामि किम् ? // 17 // सोऽभ्यधाकि ? मुधा वाग्भिस्तपःक्षामस्य देहि मे / पारणे प्रथमे पेयां सुस्थः शास्मि यथासुखम् // 18 // अपश्यन्ती गृहे पेयायोग्यं वस्तु विषादिनी / साऽभाणि साधुना स्थातुं नाधुनाऽस्मि क्षमः क्षुधा / / 19 / / तत्त्यक्त्वा वैय्यकं कृत्वा येन | केनाऽपि वस्तुना / देहि पेयामहो मातुः पुरो याश्चाकुतूहलम् // 20 // सोदकर्मोदकैः कर्तुं पेयां साऽऽरभताऽऽदृता / विद्याशक्त्या मुनेनैव जज्वाल ज्वलनः पुनः॥२१॥ तां विषण्णां(मुनिः) प्रोचे पेयापक्तिर्न दृश्यते / तत्क्षुधाबाधयात मां मोदकैरेव मोदय // 22 // रुक्मिण्युवाच | जीर्यन्ति नान्यस्येते हि मोदकाः / तत्ते दातुं न शक्नोमि हत्यापातकशङ्किनी // 23 // सोऽप्यूचे बलिनां पथ्यं सर्वमेतन्न किं ? श्रुतम् / तपःप्रभावान्मे किश्चद् दुर्जरं न विशेषतः // 24 // नार्थी दोपं पश्यतीति साशङ्का सा तपस्विने / एकैकं मोदकं प्रादादुदाराऽपि कृपा| वशात् / / 25 / / क्रमात्सर्वान् भुक्तवन्तं मोदकांस्त सविस्मया / जगाद रुक्मिणी साधो ! बलवानसि कृष्णवत् // 26 // तथापि मम | | पुत्रोऽयमिति नैपा विवेद तम् / अभाग्यादथवा स्त्रीणां क्व ? मतिस्तत्त्वदर्शिनी // 27 // इतो भामा मंत्रजापनिष्ठा व्यज्ञापि पूरुपैः। | आरामतृण्यांभोनाशं भानोश्वोपद्रवं हयात् // 28 // भामाऽथ सम्भ्रमादूचे हलाः! स ब्राह्मणः क नु / तचेष्टितं यथावृत्तं दास्यः सर्व न्यवेदयन् // 29 // नि केशत्वाद्विपण्णा सा सामर्षात्प्रेषयद् द्रुतम् / रुक्मिणी याचितुं केशान् दासीः पटलिकाकराः // 30 // तामृचु | // 377 // Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रमम ||378 // साब लाक्षेपं स्वामिनी मानिनीति नः / त्वामादिशत्यर्पयाऽऽशु स्वकेशान्पणहारितान् // 31 // श्रुत्वेतल्युपितः साधुस्तासाभेव शिरो- जिनेशरहः / मृल्या पालिका विद्याशक्त्या ताः प्राहिणोत्पुनः // 32 // किमिदं प्रेरणमरे पृष्टास्ता इति भामया / आख्युर्देव्यां मुण्डितायां चरित्रम् / विमरमण्डिताः // 33 // उद्गामा रुक्मिणां भामा मुण्डितुं निजनापितान् / पीमिहपिस्तावामुण्डयनत्रपन शिक्षा मुण्डितदि. पिलासिकलीन न दिवाकीनीजवानिधान् / ग्रेश्य भामा सभामेत्य केशव कोपनाऽवदन // 35 / / केशान दापय रुक्मिण्यास्त्य-1 वाकातिदमत्र प्रतिभृन्थः / वादं खण्डवतामबाहय मुण्डय सत्वरम् // 36 // ग्रहस्योचे हर्खािदोऽसण्डि मुण्डितया त्वया / सा प्राह स्म प्रहा शनेन कुपिता रास प्रस्तावो नाधुना प्रिय ! // 37 // गमो दामोदरेणाथ प्रहितो रुक्मिणीगृहे / प्रद्युम्नः कृष्णरुपोऽभूत्यत्वा शक्त्याऽऽशु साधुताम् भामा स॥३८प्रेक्ष्य विष्णुं वलोऽपत्रपिष्णुरागात्समा पुनः / तत्राप्येनं विलोक्योचे कोपाटोपारुणेक्षणः // 39 // नर्मपात्रं वयं किं? ते यत्प्रे. भामागत्य पासायमात्मना / वधूपाधगमः यम्प्रत्यवानाच निरर्गल!॥४ासा बराकी वयं च खया निलज! लजिताः / विवेकहीन ! रुक्मिणीती नष्टरन्यत्तः सर्वकुलक्रमः // 41 // भातरतुभ्यं शपे नाहं स्थानादप्युत्थितोऽशुतः / हरिः प्रत्याययामास गमं कामं पदोलंगन // 42 // केशदापसवे कपटिनो यूयमिति कोपाइदन्तामात् / गृहं भामा तत्र कृष्योऽप्येतत्यत्यायनातुरः // 43 // नारदोऽप्येत्य रुक्मिण्याः शशंसाऽस्थै नाय पृत्कृय पारदः / प्रद्युम्नोऽयं तनूजम्ने नागालिको ननु // 44 // प्रद्युमोऽपि सुरेन्द्रस्थानुरूपरूपमा मनः / प्रकाश्य प्राणमन्मातुः पदाच सग-१ मौलिना स्पृशम् / / 4' / / मानो प्रेम्णा खनयोरुज्वलः पुनः / पयोधियुगपन्मधिन पलहितरप वेगतः / 46 / गायमुनयो / सोपान्मादेहेऽवतीर्णयोः / तत्काल निर्मी तीर्थजानमालकौतुकम् // 47 // युग्गम् / / जेतुं साली पांच मालोदीविनापराव। नामूचे नन्दनो नाई ज्ञाप्यतामा गए / / 18 / दोष मपित्यांवकिश्चिदत्र कुनहलम् / अापिन्या संपादन। तवती Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5302 |379 // दर्शनम् // 49 / / युग्मम् // रुक्मिणी प्रत्यवादीन्न प्रमोदमदिरातुरा / तां तु न्यस्य रथे विद्याशक्त्याऽचालीद् बहिः सुतः॥५०॥ दंष्ट्रां| हरेखि हरेहरेऽहं जीवतः प्रियाम् / त्रायतामेप शक्तश्चेदेत्युच्चैघोषणां मुहुः // 51 // कुर्वाणः प्रलयाम्भोदसध्यानैः शङ्खनिःस्वनः। क्षोभयन् द्वारकालोकान्निर्जगाम बहिर्जवात् // 52 // युग्मम् // मृखों मुमूर्षुः कोऽति जल्पन् द्वेधा बलान्वितः / कोपी गोपीधवोs- धावद्विधुन्वन् धन्वं दुर्द्धरम् // 53 // प्रद्युम्नो विद्ययाऽन्वर्थनामाऽभावीद्धलं हरेः। निरायुधं तमप्याशु चक्रे चक्रेशविक्रमम् // 54 // यावसत्याभिधः कृष्णोऽभृद्विषादनिषादतः / तावत्तस्य द्विपद्वामोऽप्यस्फुरदक्षिणो भुजः // 55 // यावदाख्यद् बलायैतत् केशवस्तावद-| म्बरात् / अवद्धिं वर्द्धितमुदा नारदेनैत्य सत्वरम् // 56 // तवैप सूनुः प्रद्युम्नः प्रद्युम्नो विद्ययोबलात् / प्रज्ञापयितुमात्मानं कौतुकं दर्शयत्यदः // 57 / / कोऽन्यस्त्वदङ्गजाद्विश्ववीर ! द्वारवती जने / पश्यत्येवं त्वत्समक्षं हरते तव वल्लभाम् // 58 // पुत्रात्पराजये सन्तः संतुष्यन्त्यधिकं हृदि / ज्ञात्वेति कृष्ण ! मा खेदमेदुरोऽभूर्मनागपि // 59 // सर्वेभ्योऽप्युत्सवेभ्योऽद्य तव पुत्रागमोत्सवः / अतर्कितोपपन्नोऽयं रम्यत्वेनातिरिच्यते // 60 // एढेहि वत्स ! मे चन्द्रोन्मुद्रचन्द्राश्मसोदरम् / स्वं देहि हृदये येन यात्यतिस्त्वद्वियोगजा // 6 // | अनुभावयितु बाल्यक्रीडासुखमिवात्मनः / वाहू प्रसार्य कृष्णेनेन्युक्त्वाऽऽह्वयत वीप्सया // 62 / / युग्मम् / / प्रद्युम्नः स्वरथोत्तीर्णस्तूण | लोठांगनैर्भुवि / आपतन् सखजे रामकृष्णाभ्यां युगपत्तदा // 63 / / दृक्शुक्तिमुक्तैरानन्दजलैः संत्राप्य तीर्थवत् / तयोः किरीटेना| भ्यर्च्य सोऽनमच्चरणौ समम् // 64 // दशाहवर्द्धनायातैदिंगीशैखि तैः स्वयम् / भ्रात्रा बलेन विश्वाय॑वलेन च पुरस्कृतः // 65 // विन्यस्य रुक्मिणी वामे प्रद्युम्नं दक्षिणे पुनः / स्वांकरथे स्थितो विश्वानन्दनः श्रीजनार्दनः // 66 // प्रतिस्थानं तोरणालीचेलोच्छ्रितिमिषात्ततः / आत्तपक्षद्वयां प्रत्युद्गमनत्वरया ध्रुवम् // 67 // रत्नरम्यैर्मश्चहम्यः पौरैश्च श्रीजितामरैः / प्राप्तां वद्धयितुं पुत्रागमे सुरपु 398-AEB8 प्रकटिते स्वस्वरूपे रुक्मिण्याः परमहर्पः चमत्कार दर्शनार्थ प्रद्युम्नस्य प्रवृत्तिः 4 // 379 // 2-26500-168 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेशचरित्रम्। ज्ञातेस्वरुपे महोत्सवेन द्वारका प्रवेशमंगलं कृतम् श्रीअमम- | रीमिव // 68 // गतावेशः प्रविवेश वेश्यास्त्रीमङ्गलावलीम् / प्रतीच्छन् श्रीपथे तूयः साशिष द्वारकापुरीम् // 69 // पं० कु०॥ सौधे | प्रवर्त्तमानेऽथ प्रद्युम्नागमनोत्सवे / दुर्योधनो वासुदेवमुत्थायैवं व्यजिज्ञपत् // 70 / / जहे केनापि मे पुत्री वधूस्ते साम्प्रतं प्रभो!। // 38 // कापि शोधय भानुस्तां यथोद्वहति नन्दनः // 71 / / उवाच कृष्णः सर्वज्ञो नास्मि स्यामथवा यदि / तत्कि? नाज्ञासिपं पुत्रं जातमात्रSoil ममुं हृतम् // 72 // प्रज्ञप्त्या तां परिज्ञायानेष्यामीति वदंस्तदा / तत्रानिनाय प्रद्युम्नो योगीवाकृष्टिशक्तितः॥७३॥ वधर्ममेयमिति नाददे | सा कृष्णढौकिता / रुक्मिणीनन्दनेनातो भानुना पर्यणीयत // 74 // खेचरेन्द्रमहीन्द्राणां कन्यकाः पर्यणाययत् / महोत्सवेन प्रद्यु| मेनाच्युतोऽनिच्छुनाऽप्यथ // 75 / / अभ्यर्च्य नारदं पुत्रानयनादुपकारिणम् / रुक्मिणीशाङ्गिणौ भक्त्याऽऽनम्य व्यसृजतां तदा // 76 | स्फुर्त्या कीर्त्या महा च प्रद्युम्नस्याधिकं हृदि / दयमाना ययौ सत्यभामा कोपगृहेऽन्यदा // 77 // जीर्णवस्त्रपरिधानां जरन्मश्चकशायिनीम् / तामुवाचाच्युतः कस्यापमानात् सुभ्र ! खिद्यसे // 78 / / साऽवादीन्मेऽपमानोऽस्तु सप्रसादे कुतस्त्वयि / मरिष्याम्यन्यथा देहि पुत्र प्रद्युम्नसन्निभम् // 79 // जगाद कृष्णः पुण्यैः स्युः सुताः प्रद्युम्नसन्निभाः। भवत्याः पुण्यहीनायाः कुर्वे तुष्टोप्यहं किमु? // 8 // साऽवादीद्यदि वैकुण्ठ कुण्ठतामग्रतो मम / वदिष्यसि तदा प्राणांस्त्यक्ष्याम्याशु तवोपरि // 81 // अष्टमात्पौषधीकृत्वा नैगमेषिसुरं हरिः / प्रत्यक्षमूचे भामायै देहि प्रद्युम्नवत्सुतम् / / 82 // दत्वा हारमिमं यां कामपि सेविष्यसे प्रियाम् / भावी तस्याः सुतोऽभीष्ट इत्युक्त्वा स सुरो हरेः // 83 / / समर्प्य हारमगमन् मुदितः केशवोऽप्यथ / अदत्त वासकं सत्यभामाया दत्तविस्मयः // 84 // विज्ञाय तच्च प्रज्ञप्ते रुक्मिणीमवदत्सुतः / तं हारं तेऽपये मातः ! मत्तुल्यं सुतमाप्नुहि // 85 // रुक्मिण्युवाच स्त्रीरत्नं न प्रसूते पुन* स्ततः / एकेनापि त्वया वत्स ! कृतार्थाऽस्मि चिरायुपा / / 86 / / सपत्न्यप्यभवजाम्बवती किन्त्वाश्रिता मम / स्वसेव त्वद्वियोगे सम-* सर्ग-९ // 380 // Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 38 // शाम्बजन्मादिस्वरूपम् | सखाः विशेषतः // 87 // स्वतुल्यं देहि तत्तस्याः पुत्रमित्यथितोऽम्बया / आहाय्य चक्रेऽसौ जाम्बवतीं भामाऽऽकृति कृती // 88 // रुक्मिण्या प्रैपि सा भामावासके रजनीमुखे / असत्यसत्यां तां रेमे दत्वा हारं हरिर्मुदा // 89 // तदैव देवः प्रच्युत्य शुक्रात्कल्पात् स | कैटभः / तस्याः कुक्षाववातारीत्केशरिस्वमसूचितः // 90 // ययौ जाम्बवती तुष्टहृदया निजमन्दिरे / विलोक्य सत्यां सत्यां च प्राप्तां कृष्णो व्यचिन्तयत् / / 91 // भोगातृप्तिरहो स्त्रीणां यद्याताऽपि झटित्यसौ / ववले च्छलितोऽहं वा कृत्वैतन्मूर्तिमन्यया // 92 // इयं / विलक्षाऽभून्मेति कृष्णो भामामसेवत / भेरी क्षोभकरीं तस्य प्रद्युम्नोऽताडयत्तदा // 13 // भीतोऽच्युतो यामिकेभ्यो ज्ञात्वा प्रद्युम्नचेष्टितम् / दध्यौ वरं सपत्नीह न सपत्नीसुतः पुनः॥९४।। मेने समयसम्भोगाद्भामाभाविनं सुतम् / किश्चिद्भीरं हरिस्तां चापुण्यां ही भवितव्यता // 95 // हरिजर्जाम्बवतीं प्रातः प्रयातो रुक्मिणीगृहे / सदिव्यहारशृङ्गारां वीक्ष्य साक्षेपमैक्ष्यत // 16 // प्रोचे जाम्बवती स्मित्वा स्वामिश्चक्रीयिताऽर्थतः। विशेषाद्वीक्षसे कि ? मां यतः सैवाऽस्मि ते प्रिया // 17 // दत्तस्ते केन हारोऽयमिति पृष्टाऽच्युतेन सा / अशंसत्वत्प्रसादेन स्मरस्यात्मकृतं न किम् ? // 98 // सिंहः स्वप्नं हरेः साऽऽख्यद् ह्याख्येत्सोऽपि सुतस्तव / भावी प्रद्युम्नवत्प्रौढद्युम्नः सर्वकलानिधिः // 19 // कालेऽसूत सुतं पूर्ण सिंहीवाद्भुतविक्रमम् / राज्ञी जाम्बवती शाम्बसंज्ञं चक्रे च केशवः // 600|| दारुको जयसेनश्च सारथेः सचिवस्य तु / सुबुद्धिरित्यमी जञ्जः समं शाम्बेन नन्दनाः || *भामायास्तु सुतं चक्रे हरिर्नाम्नाऽनुभानुकम् / सभयाधानतो भीरु भीरुकेत्यपराभिधम् // 2 / / तनुजाः कृष्णपत्नीनां परासामपि जज्ञिरे। | सुरस्त्रीगीतदोर्दण्डचण्डिमोद्दण्डविक्रमाः॥३॥ सहोदयव्ययैः शाम्बो मन्त्रिसारथिसूनुभिः / सार्द्ध वृद्धिमधाद्भानुवि भानुभिरुत्कटैः | // 4 // सकलाश्च कला शाम्ब पूर्व सङ्केतिता इव / स्वयं सिषेविरे कान्ताः प्रज्ञादूत्यनुरञ्जिताः // 5 / / पूर्वजन्मानुभावेन प्रद्युम्नस्याति *183%82878HER R A // 38 // D Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 382 / / * 18*43HARASHTR * वल्लभः। शाम्बोऽभवत्तनुच्छायेवासीत्सहचरः सदा // 6 // रुक्मिणी रुक्मिणः पार्श्वे भ्रातुर्भोजकटेऽन्यदा / नरं प्रेषीत्सुतां तस्यार्थयितुं *जिनेश निजसूनवे // 7 // तेनोचे कृष्णरुक्मिण्योोगो धात्रोचितः पुरा / चक्रे प्रद्युम्नवैदाः सम्प्रत्यस्तु भवत्कृतः॥८॥ रुक्मी वैरं स्मर- चरित्रम / न्पूर्वरोपात्प्रोचे सुतामहम् / मातङ्गेभ्यो वरं दास्ये केशवस्य कुले न तु // 9 // यथातथं नरोप्येत्य रुक्मिणी तदजिज्ञपत् / साऽप्यभू- वैदर्भापरिन्यग्मुखी तेन प्रदोषेणेव पद्मिनी // 10 // सा खेदहेतुं पृष्टा च प्रद्युम्नेन न्यवेदयत् / वृतान्तं सोऽवदन्मातर्धाता शामोचितो न ते णयनाथ | // 11 // तातं (दुक्खाकरोत्त)स्योचितं सम्प्रत्यहं पुनः / करिष्ये तत्सुतां व्यूह्य खां द्रक्ष्याम्याव तत्सुखम् // 12 // जननीमिति संबोध्यो प्रद्युम्नस्य भोजकटे त्पत्य शाम्बेन संयुतः / प्रद्युम्नोऽगागोजकटे कूटविद्या बलं मतम् // 13 // चण्डालरुपौ तत्रोभावभूतां किन्नरस्वरौ / गीत्या मधुरया गमनम् पौरांश्चाक्षिपेतां मृगानिव // 14 // जनोक्त्योत्कण्ठितो रुक्मी तोच प्राहाय्य सुस्वरौ / अगाययत्सुतां बिभ्रद्वेदी क्रोडवर्तिनीम् 15 / / रुक्मी तुष्टस्तयोर्दत्वा प्रभृतं पारितोषिकम् / प्राप्तौ कुतौ युवामित्यपृच्छत्तावप्यशंसताम् / / 16 / / आवां स्वर्गात्समायातौ द्वारकां सा हि निर्ममे / इन्द्रादेशात्सुरैर्देवस्योपेन्द्रस्य कृते पुरी // 17 // हृष्टा पप्रच्छ वैदर्भी तो तत्र युवयोः किमु / श्रीजनार्दनरु| क्मिण्योः प्रद्युम्नो विदितः ? सुतः॥१८॥ जगाद शाम्बः प्रद्युम्नं प्रद्युम्नं रुपसम्पदा / विश्वकवीरं सकलकलापात्रं न वेत्ति कः ? // 19 // वैदर्भीति निशम्योचैरकुण्ठोत्कण्ठयाकुला / नागवल्लीव निगूढरागजागरभृरभृत् // 20 // कोऽपि कोपाद् द्विपो मत्तः स्तम्भ सग-९ मुन्मूल्य तत्र च / भ्राम्यन् कृतान्तवत्तान्तमुद्धान्तमतनोजनम् // 21 // स भञ्जन गेहहट्टादि विद्वपीव बलोत्कटः। शेके निषेधुं न भटैरपि मिण्ठकथा तु का ? // 22 / / य एनं वशयत्यस्मै ददामि हृदयेप्सितम् / इत्यातों रुक्मिभूपालः पटहेनोदघोषयत् // 23 // धृतो // 382 / / न पटहः कैश्चिच्चण्डालाभ्यां तु वारितः। सुधामधुरया गीत्या स्तम्भितश्च स कुञ्जरः // 24 // तमारुह्याथ तौ पौरैः साश्चयँर्वीक्षितौ | Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहुः / नीत्वाऽऽलानमबध्नीतामहो शक्तिर्महीयसाम् // 25 // ताबाहाय्यऽभ्यधाद्रुक्मी याच्यतां हृदयेप्सितम् / ताभ्यामयाचि वैदर्भी | // 383 // धान्यरन्धनहेतवे // 26 / / ततस्तौ रुक्मिणा कोपात्पुरादपि बहिःकृतौ / प्रद्युम्नोऽथ निशि व्योम्ना वैदाः सन्निधौ ययौ // 27 // क्रुद्धरुक्मि abणा चण्डाल | विद्ययाऽस्याः परीवारे स दखा स्वापनी भृशम् / वैदर्भीमपि वैदयंभूर्मन्दमुदतिष्ठपत् // 28 / / रुक्मिणीप्रीतिलेख चार्पयत्तस्याः स स्वरूपाय कृत्रिमम् / इन्दुना कामिदीपेन वाचयिखा च साऽवदत् // 29 // किं ? ते ददामि सोऽप्यूचे भद्रे ! देहि स्वमेव मे / प्रद्युम्नोऽहं स दत्तावेदी एवास्मि वं यदर्थेऽसि याचिता // 30 // चिरादुर्घटमप्येतजज्ञेऽद्य सुघर्ट विधेः / रुक्मिपुत्री वदन्तीति मेने हर्षेण तद्वचः // 3 // उ-* | त्पाद्य विद्यया चाग्निं साक्षिणं बद्धकङ्कणाम् / श्वेतक्षौमपरीधानां प्रद्युम्नस्तामुपायत // 32 // स्वैरं तां रमयामास शीतरुक् स करैः | स्पृशन् / कुमुदतीमिवात्यर्थ रागिणीमपि निर्मलाम् / / 33 / / पितृभ्यां परिवारेणाप्यभियुक्ताऽपि मा प्रगे। वादीः किश्चित्त्वदङ्गस्य यद्रक्षाऽस्ति कृता मया // 34 // अनुशिष्येति तां हृष्टामापृच्छ्य क्षणदाऽत्यये / प्रद्युम्नः शाम्बपार्श्वेऽगादुःसाधं तादृशां किमु ? // 35 // KE कुमुदतीव वैदयंप्यतिजागरडम्बरात् / रतश्रमाच्चेति निद्रामुद्रिताऽभूत्प्रगे भृशम् // 36 // दृष्ट्वा विवाहचिह्नानि धात्री तस्याः समा गता / स्वापराधच्छिदे भीता गत्वा पित्रोन्यवेदयत् // 37 // पितृभ्यामपि सा पृष्टा नाख्यन्मौनेन तस्थुषी / तस्या विवाहसम्भोगी | व्यक्तैश्चिन्हेस्तु निश्चितौ // 38 // दध्यौ च रुक्मी पापेयं कन्या कुलकलङ्ककृत् / अनूदाप्यभवत्प्रौढा स्वैरिणी शोकशङ्खदा // 39 // चण्डालीयं वरं ताभ्यां चण्डालाभ्यां ममोचिता / दातुं रोषादिति ध्यात्वाऽजूहबद्वेत्रिणा स तौ॥४०॥ इयं स्वीक्रियतां पुत्री परं मे दृक्पथे पुनः / न भाव्यमिति जल्पित्वा रुक्मी ताभ्यां सुतां ददौ // 41 // तौ दम्भादूचतुस्तां च मन्दिरे राजपुत्रि ! नौ। किमु ? // 383 // विक्रेष्यसे सूर्पचर्मतत्रीजलौकसः // 42 // साऽपि सान्तःस्मितं प्रोचे भावज्ञा यद्विधिननु / कारयिष्यति तन्नूनं करिष्ये बलवान् स Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 384 // हि // 43 // बहिः पुरादयासिष्टां शिष्टां स्वीकृत्य तौ च ताम् / रुक्मी ततोऽनुतापेनाक्रन्दीदिति च पर्षदि // 44 // हा पुत्रि ! क्रोधच- Sण्डालोनीत्वा मां निजरुपताम् / कृत्वा त्वामपि चण्डाली चण्डालाभ्यामदापयत् // 45 // निरस्य रुक्मिणीपुत्रं पवित्र तीर्थवन्मया / | क्रोधान्धेनान्त्यजगृहे हहा बद्धासि गौरिव // 46 // तारं तारं रुदन्नेवं सोऽश्रौपीत्तूर्यमङ्गलम् / शोकात मयि कुत्रेदमित्यप्राक्षीनियोगिनः // 47|| तेऽप्याख्युनगगद् बाह्ये प्रासादे स्वविमानवत / शच्येव सह दा प्रद्युम्नोऽस्ति सुरेशवत् // 48 // पूर्णपार्श्वस्य शाम्बेन | भात्राऽसौ मागधस्तुतीः / शृण्वन्सङ्गीतकं स्फीतं कारयत्यात्मनोग्रतः॥४९॥ तत्तूर्यवर्यध्वानोऽयं श्रोत्राध्यानं पुनाति ते / देवादु| चितयोगोऽभूत्तत्खेदं मुश्च भूपते ! // 50 // ततो हृष्टो रुक्मीराजस्तावनीय स्वयं गृहे / पूजयामास जामेयजामातुः स्नहतोऽधिकम् | // 51 / रुक्मिणं तावथापृच्छ्य वैदा सह जग्मतुः / द्वारका रुक्मिणीं तत्र नत्वाऽऽनन्दयतां चिरात् / / 52 / / वैदा मूर्तिमत्येव रत्या रेमे सहान्वहम् / प्रद्युम्नः क्वाऽपि योगः स्याद्रूपलावण्यपुण्ययोः // 53 // कन्यामन्यामिव शची हेमाङ्गदमहीपतेः। सुहिरण्याभिधां शाम्बः परिणिन्ये महोत्सवात् // 54 // शाम्बो भामासुतं भी प्रत्यहं क्रीडयन्नहन् / धनं धनं हारयित्वा द्यूतेऽन्येभ्योऽप्यदीदपत् // 55 / / भामायै स रुदन्नाख्यत्साऽपि कृष्णाय सोऽपि च / स्वयं देव्यै जाम्बवत्यै सर्व शाम्बस्य चेष्टितम् / / 56 / / जाम्बवत्यवदन्नाथ सदा शान्तः सुतो मम / इयत्कालं श्रुतो नास्याविनयो दर्श्यतां स वा // 57 / / विष्णुः स्मित्वाऽवदत्सि ही पशुः शान्तं निज सुतम् / मन्यतां त्वादृशी यत्तु मन्यते स्नेह एव सः॥५८।। न चेत्प्रत्येपि देवि! त्वमेहि ते दर्शयाम्यहम् / शाम्बस्वरूपमित्युक्त्वा | स्वयं विद्याबलादभूत् / / 59|| आभीररूपो देवीं चाभीरी चक्रे जनार्दनः। तस्थतुस्तौ पुरीद्वारे तक्रविक्र यहेतवे // 60 // युग्मम् / तौविशन्तौ पुरीं दृष्ट्वा शाम्बः स्वरं परिभ्रमन् / आइत्तक्रक्रयव्याजादाभीरी साऽन्वगाच तम् // 61 / / आभीरोऽप्यन्वगादेतां शाम्बो देव जिनेशचरित्रम् / पश्चात्तापे ज्ञातस्वरूपे तेन गृहमा नीय कृतः सत्कार: प्रद्युम्नस्य ॐ*AEHE सर्ग-९ // 38 // Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 385 / / मातुः प्रदशिंत साम्बस्वरूप, नगर्या निष्का शितश्च नवरा कुले क्वचित् / प्रविश्याहृत तां सा तु तन्मध्ये प्रविवेश न // 62 // शाम्बो धृत्वा करेणैतां लतामिव गजोऽकृषत् / किं? रे गृह्णासि | मत्कान्तामाभीरेणेत्यघानि सः॥६३।। साक्षादभूतां तस्याथ पितरौ स च लज्जया। नष्टो दृष्टा त्वया पुत्रचेष्टेत्यूचे प्रियां हरिः॥६॥ आकारितो द्वितीयेऽह्नि बलात्कृष्णेन धार्यवान् / शाम्बस्तस्य सभामागाद घटयत्कीलिका करैः / / 65 / / पृष्टः पित्राऽवदच्चैप ह्यस्तनीमद्य यः कथाम् / वदिष्यत्यस्य वक्रेऽसौ क्षेप्येति घटयाम्यमम् // 66 // जातस्मितोऽपि तदुष्टचेष्टया कुपितो हरिः। पूर्यानिर्वास| यामास शाम्बं राज्ञां क्रमो ह्ययम् // 67 / / प्रज्ञप्तिविद्या दुर्नीतिमतेऽप्यस्मै प्रदत्तवान् / प्रद्युम्नो गच्छते प्राच्यजन्मस्नेहेन मोहितः | // 68 // भीरुकं नित्यशो निघ्नन्प्रद्युम्नोऽभाणि भामया / निर्यासि वैरिन् किं प्रद्युम्न न त्वमपि शाम्बवत् // 69 // तेन प्रोक्त क? यामीति भामोचे पितसमनि / सोऽवक् नन्वस्मि तत्रैव साऽवदत्प्रेतसमनि // 70 / / कदागम्यं मयेत्युक्ता रौक्मि-| |णेयेन साऽब्रवीत् / आनयामि यदा शाम्बं धृत्वाऽहं पाणिना स्वयम् // 71 // एवमस्त्विति जल्पित्वा इमशानमगमद् द्रुतम् / प्रद्युम्न|स्तत्र शाम्बोऽस्यामिलद् दुर्ललिताग्रणीः // 72 / / दाहशुल्कमुभौ तत्र कौतुकात्तौ महत्तरम् / आदाय दग्धुं पौराणामदत्तां मृतकानि धिक् // 73 / / इतश्चामेलयद्रम्यमेकोनं कन्यकाशतम् / भामा भीरोः कृते यत्नादेकामऽन्वेषयत्कनीम् // 74 / / प्रद्युम्नो विद्यया तच्च ज्ञात्वा सेनां विकृत्य च / जितशत्रुनृपो जो स्वयं शाम्बोऽस्य कन्यका // 75|| भीरोत्रिी च तां दृष्ट्वा भामां राज्ञीमजिज्ञपत् / नरेण | साऽप्ययाचत्तां कन्यां च भीरुहेतवे / / 76 / / जितशत्रुरवोचत्तं भामा चेत्स्वेकरे धृताम् / कन्यां प्रवेशयेत्पुर्यां तथा पाणिग्रहक्षणे // 77 / / | कारयेन्मम पुत्र्याश्च कर भीरुकरोपरि / तदा ददाम्यहं भद्र ! भीरवे निश्चयादिमाम् // 78 ॥युग्मम् / / इति राज्ञो वचो गत्वा पुमान् भामामजिज्ञपत् / साऽप्यर्थिनी प्रपद्येतदागात्तत्कटके जवात् / / 79|| शाम्बः प्रज्ञप्तिमित्यूचे भामा मा तजनोऽपि च / वीक्षतां कन्य साम्बः // 385 // Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 386 // | कारूपं शाम्यं तु नगरीजनः // 8 // प्रज्ञप्त्याशु तथाक्लप्ते शाम्ब दक्षिणपाणिना / धृत्वा प्रावेशयत्पुयाँ भामा कन्याकृति स्वयम् जिनेश८१।। पौराः प्रोचुरहो चित्र विवाहे भीरुकस्य यत् / प्रसाद्य बाहौ धृत्वा च शाम्बं भामाऽऽनयत्स्वयम् // 82 // उवाह शाम्बः स्वं चरित्रम् / | कुर्वन् कर भीरोः करोपरि / धृत्वा एकोनशतकन्याहस्तान् दक्षिणपाणिना / / 83 / / देवात्कन्याः पतिं प्राप्य ताः शाम्यं वासवेश्मनि / / कूटेन शत| अन्वमोदन्त तत्रायान् भीरुः शाम्बेन भेपितः // 84 // भीरुणा कथिते भामा ययावप्रत्ययात्स्वयम् / स्मित्वा ननाम शाम्बस्तां साप्यु कन्यापरि णयनेन | वाचेति कोपतः // 85 // रे धृष्ट ! केनानीतोऽसि शाम्बोप्यूचे ननु त्वया / मातः स्वयमिहानीय कन्याभिः पर्यणायिपि // 86 // साक्षी गर्वीजातो चात्र पुरीलोको मध्यस्थो देवि ! पृच्छयताम् / तयाऽऽकार्य जनोऽप्रच्छि सोऽपि शाम्बोक्तमाख्यत // 8 // रे मायिनीपुत्र ! मायि-* शाम्ब: जात ! मायिकनिष्ठकः / आः पाप! कन्याकूटेन च्छलिताऽस्मि त्वया शठ ! // 88 // उक्त्वेति भामाऽगाद्गहं कन्यास्ताः स्वयमच्युतः / वसुदेवेन शाम्बायादालोकसाक्ष्यं जाम्बवत्युत्सवं व्यधात् // 89 // अवदत्कद्वदः शाम्यो वसुदेवं नमन्निति / तात वैदेशिको भूत्वा त्वं बह्वीः तिरस्कृतश्च स्त्रीरूपायथः // 90|| व्यवाहि स्थानस्थेनैव स्त्रीशतं युगपन्मया। भवतो मम च व्यक्तं तदेवं महदन्तरम् // 9 // दुन्दुस्तमूचे रे कूपभेक ! स्खं स्तौपि किं? मुधा / भस्मतोऽप्यसि निस्तेजास्त्याज्यः स्वगृहतो बहिः // 92 // पित्रा निर्वासितोऽप्येवं कृत्वा चण्डाल| कर्म च / कूटात्त्रैणकरालम्बात्पुनःप्राप्तोऽसि यद्गृहम् // 93 // तत्ते नामापि को नाम गृहीते मानवर्जित ! अस्मत्कुलकलङ्कस्त्वमेवाभू सर्ग-९ | निस्त्रपाग्रणीः / / 14 / / युग्मम् / / अहं तु बन्धुना लुप्तमानो निर्गत्य वीरवत् / पृथव्यां खेचरवद् भ्रान्त्वा व्यवहं स्त्रीसहस्रशः॥९५॥ प्रसङ्गान्मिलितरेभिर्वन्धुभिश्चातिगौरवात् / राजन्यसाक्ष्य संमान्यानीतोऽस्मि स्वगृहान्पुनः / / 96 / / विगुप्यन्नागतस्त्वं तु निज गेहं दुराशय / ततः करोषि रे स्पर्धी कथं ? मूर्ख ! मया सह // 97 / / ज्ञात्वा स्वयं कृतां शाम्बः पितामहतिरस्कृतिम् / निपतन्पादयोरुच्चैः // 386 // Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 387 // प्राञ्जलिः प्रोचिवानिति // 98 // बालचापलतः प्रोक्तमेतदज्ञानतोऽपि च / क्षम्यतां पूज्यपादैर्मे त्रिजगत्पूज्य ! सद्गुणः // 19 // व काचः *कच माणिक्यं ? क्क रीतिः क्व य काञ्चनम् ? / लोकोत्तरगुणस्तातः क नु ? काऽहं ? गुणोज्झितः // 700 // एवं पितामहं भक्त्या क्षमयित्वा प्रणम्य च / शाम्बो ययौ निजावासं सुखेनास्थाच्च सप्रियः // 1 // इत्थं क्षमाभृत्खचरेन्द्रपुत्रीय॒द्याऽभवत् सन्ततिवृद्धि| रम्यः / पितेव सौभाग्यगुणेन विष्णुः सन्तः प्रभावं तपसां विदन्तु // 2 // अममचरिते भाविन्येवं तयोः सह जन्मनोबलहरिभवे राज्यं | पुर्या लघुर्गुणगौरवात् / सुरपतिरिव स्वर्गेऽष्टाभिः प्रियाभिरभिश्रितो व्यधित तनूजैः प्रौढैः प्रीतः सुखमगमयत्समाः॥३॥ इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते श्रीअममस्वामिचरिते महाकाव्ये तुर्यभवे रुक्मिण्यादिपरिणयन-पाण्डवद्रौपदीस्वयंवर-प्रद्युम्न शाम्बचरितवर्णनो-नवमः सर्गः॥ 60 706 // दशमः सर्गः / वणिजपार्श्वे द्वारकोन्नति श्रुत्वा जीवयशसः परमखेदः इतश्च यवनद्वीपाद् वणिजः पोतवम॑ना / द्वारकामेत्य पण्यानि विक्रीयाऽन्यानि लाभतः॥१॥ जग्मुर्विशेषलाभाय विक्रेतुं रत्नकम्बलान् / पुरे राजगृहेऽग्रण्यानीता जीवयशोन्तिके // 2 // लक्ष्यार्दै कम्बलानां च तया मूल्यं स्वयंकृते / पूचक्रुर्वणिजो मुक्त्वा द्वारका *हा किमागताः ? // 3 // तत्र ोते लभन्ते स लक्ष्यं तसाद् घनं ननु / लिप्सवोऽत्र समायाता नाशस्तस्यापि हाऽभवत् // 4 // का द्वारका पुरी ? कश्च ? सम्प्रति भूपतिः। जीवयशसेत्युक्ताःप्रोचुः कम्बलवाणिजाः // 5 // द्वारकाऽस्ति पुरी वाधिंदत्ते स्थाने कृता // 387 // Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 388 // जिनेशचरित्रम् / जरासन्धस्य युद्धार्थ द्वारका प्रति गमनम् योधनः शत्रुदुयाच कुटः पृथ्व्यामधः | सुरैः। राजा कृष्णस्तत्र पुत्री देवकीवसुदेवयोः // 6 // इत्याकर्ण्य जीवयशाः पिशाचीव शिरोघ्नती / व्यथयन्ती सखीचक्रं चकन्द्र | करुणैः स्वरैः // 7 // पुत्रि ! किं ? रुद्यत इति पृच्छतो मगधेशितुः / साख्यत् कंसरिपुर्जीवत्यद्यापि क्ष्मां प्रशास्ति च // 8 // तदहं त्वदहंकारहीना दीना स्थिता वृथा / किं ? कुर्वे वंशराण्यायाः शरणं मे पितः ! शिखी // 9 / / अथाऽसौ प्रज्वलन् वन्हिवार्तयाप्यवदत् सुताम् / धीरास्स्व क्षेपयिष्यामि वन्ही कंसरिपोः प्रियाः॥१०॥ इत्युदीर्य महावीयों वार्यमाणोऽपि मंत्रिभिः / जरासन्धः सत्यसन्धारम्भा भभामताडयत् // 11 // सूनवोऽभिनवोद्दामशौर्यास्तं परिवबिरे / सहदेवादयो वीरैः सहिताः साहसाधिकैः // 12 // वैरिकालः शिशुपालः करालभुजविक्रमः / दुर्योधनः शत्रुदुर्योधनः कौरवनायकः॥१३॥ अन्येऽपि कोटिशः कृष्णद्विषत्कोटिद्विपा नृपाः। गजेन्द्रा इव विन्ध्याद्रिं तं मुदा पर्यवारयन् // 14 // युग्मम् // पपात मुकुटः पृथ्व्यामधः प्रस्थानमूचकः। हारतस्त्रूटितान्मुक्ताः | पेतुलेशा इवायुषः / / 15 / / अग्रे क्रुद्धकालाहानशब्दवचाभवत्क्षुतम् / कीनाशपाशेनेवाऽस्याश्चलेणांहिश्च चस्खले // 16 / / चक्षुर्दुःकर्म वत्तस्य कामं वाम तथाऽस्फुरत् / विमूत्रे पट्टहस्ती च कुर्वस्तस्याख्यत व्ययम् / / 17 / / अनुकूल इवारौत्सीत्प्रतिकूलो मरुच्च तम् / / | गोत्रदेवतवद् गृद्धा भ्राम्यन्तो ऽवलयन्दिवि // 18 // बहून्यशकुनानीति नीतिज्ञोऽप्यन्धलः क्रुधा / जानन् द्वेधाप्यगण्यानि गण्योप्य* गणयन सः / / 19 / / प्रतापाक्रान्तदिक्चक्रः सच्चक्रप्रथितोत्सवः / जरासन्धोऽचलत् प्रत्यक् समुद्रं प्रति सूर्यवत् // 20 // तरप्रयाणक्षणे | सैन्यरजोव्याजान्मही ध्रुवम् / दूरं व्योम्नि ययौ वक्तुं निजात्तिं धातुरातुरा // 21 // अथाचख्यौ कलिकेलिकौतुकी नारदो मुनिः प्रयाणं मगधेशस्य द्वारकायां हरेर्जवात् // 22 // केशवोऽप्यरिदावाग्निवारिदो हरिदोबलः / पटहं पटुहुंकारैः प्रयाणार्थमवादयत् // 23 // | तन्नादाद्यादवाः सर्वे क्ष्माभृतोऽन्येपि चाययुः / सुघोषानादतः स्वर्गे सुरा इब जबोधुराः // 24 // तत्र सैन्यैः स्वपुत्रश्वासंख्यैः क्ष्मा स्खले // 16 / / चक्षुदुः सगे-१० // 388 // Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 389 // भृद्विजित्वरः / कुर्वन् समुद्रविजयं समुद्रविजयोऽमिलत् / / 25 / / अष्टाभियुद्धसन्नद्धैरङ्गजैदिग्गजैरिव / सार्द्धमागाद् द्वेपिवीराक्षोभ्योऽ युप्रयाण क्षोभ्यश्च सत्वरम् // 26 // पञ्चभिर्वायुभिरिव स्वांगजातैर्महाबलः / सहितस्तिमितोऽप्यागात् शौर्येणास्तिमितः पुनः // 27 / / सागरः वर्णनम् सागर इब नदीनमहिमा ययौ / सच्चोडुरैनिंजीय॑न्तरैः पभिः सुतैयुतः / / 28 // प्रतीपीशिशिराङ्गोऽपि हिमवानागमत्तथा / राजमानस्त्रिभिर्मानतुंगैः शृंगरियात्मजैः // 29 // सप्तभिः शोभितः पुत्रैर्मुखेरिख जयोन्मुखैः। अचलः शक्रवाजीव युद्धे प्रापाऽचलोप्यथ / // 30 // कम्पयन्नागमत्सैन्यैर्द्धरणो धरणोरगम् / जेत्रैः पुत्रैर्युतः कामः सायकरिव पश्चभिः॥३१।। स्रष्टेव पूरणः पुत्रैधतुभिः स्वैर्मुखैरिख / कुर्वन्नागात्परान् वीरानमरानिव किंकरान् // 32 // तत्रेयायाऽभिचन्द्रोऽपि लग्ने चन्द्र इवान्वितः / पड्भिग्रहैरिव सुतैश्चित्रं विश्वहितक्रियैः॥३३॥ देवदेवो नवः शक्त्या वसुदेवोऽप्युपागमत् / परः सहस्रपत्नीनां युतोऽयुतगुणैः सुतैः // 34 // रोहिणीदेवकीपुत्रौ रामकृष्णौ महाबलौ / प्राप्तौ स्वपुण्यमुख्यख दशाईभ्यो विशेषतः // 35 // तत्तत्पत्नीभवाः पुत्राः संख्ये संख्यातिगास्तयोः। एयुः। खविक्रमकथागाथाव्याप्तजगत्रयाः // 36 / / परं विद्याबलाद्वाहुवलाच्चाधिकविक्रमौ। प्रद्युम्नशाम्बावध्युष्टपुत्रकोटिपु विश्रुतौ // 37 // पुत्रैर्द्धरादिभिः सामुग्रसेनोऽपि भूपतिः / अढौकिष्टोग्रसेनाप्यभजि यस्योग्रसेनया // 38 // ज्येष्ठराजपितृव्यस्य सांत्वनस्य सुता अपि / महासेनादयः प्रापुः पुत्रः सेन्यैश्च संयुताः // 39 // पाण्डो पुत्राय पश्चापि त्रिलोकीसुभटानपि / जेतुमेकांगपीरा अप्पेयुः प्रौढभुजाबलाः॥४०॥ पितृमातृकुलम्बसपत्नीसम्बन्धिनोऽपि ये / किं बहुक्तैर्यादवानां ते सर्वेऽप्यमिलंस्तदा // 41 // जरासन्धाश्रितान् मुक्त्वा राजानः खेचरा अपि / अन्ये सर्वेऽप्येत्य कृष्णमसेवन्त वशीकृताः // 42 // रणदीक्षां गृहीत्वाऽथ क्लप्तयात्रिकमंगलः / वेदं पठत्सु // 389 // विप्रेषु बन्दिप्वपि च मंगलम् // 43 / / बन्धुवृद्धाभिराशीभिः पौरैर्जयजयारवैः / पौरीभिरक्षतैश्वाभिनन्द्यमानः पदे पदे // 44 // सूच्य-* न्धुदृद्धाभिराशीभिः पौरैजयजयार रणदीक्षा गृहीत्वाऽथ क्लप्तयान्त्रिकममन्याश्रितान् मुक्त्वा / Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रमम - मानजयः शस्तैनिमित्तैः शकुनैरपि / मंगलतूर्यनिघोपस्वासिताकतूरङ्गमः // 45 // रथमारुह्य गरुडध्वजं दारुकसारथिम् / दिने क्रोष्टु| किना दिष्ट यदुक्ष्माभृगणेयुतः॥४६॥ पूर्वोत्तरस्यां ककुभि सैन्यः प्रच्छादयन्महीम् / सहितो बलदेवेन प्रतस्थे श्रीजनार्दनः // 47 // चतुरंगप्रथामादौ पश्चाद्वर्षों प्रियामिव / मध्ये क्षामां द्वाररोधात्सेनां पश्यन् स पिप्रिये // 48 // उपात्तनानावलभीमलः कुम्भोपशोभितैः / शैलोन्नतैगजेः सौधैरिव पुर्यन्वगादऽमुम् // 49 // अन्तःखलीनस्खलानोद्गिलफेनाविलाननाः / चेलुः पीतद्विपत्कीतिस्तोमा इव तुरंगमाः॥५०॥ मायूरच्छत्रखण्डेन चलदश्वोर्ध्ववर्तिना / अन्बकारि क्षुब्धवारिनिधिशवलवल्गितम् // 51 // पताकिनः पताकाभियत्कृतार्कपताकिनः। संचरन्ति स्म सुभट्टयुक्ता दिव्यायुधैरपि // 52 // करवालस्फुरत्स्वर्णरूप्यस्फुरककैतवात् / निर्ययुः पत्तयः वलसकेतुसूयेन्दुदर्शनाः // 53 / / पृष्ठप्रतिष्टतूणीराः प्रवीराश्चापधारिणः / नव्याब्दा इव संचेरुगर्जातर्जास्तदिग्गजाः // 54 // स्वामी यत्र जरासन्धस्तद्धले स्याद् बलं किमु / गतं कृष्णबलाम्भोधौ पश्य तत्सक्तुमुष्टिताम् / / 55 / / ब्रह्माण्डमाण्डं दलयन्निवोः कम्पयन्निव / इस्युअजृम्भे नासीरपूरणानामपि ध्वनिः // 56 / / युग्मम् / / तत्सैन्योतलिभिनत्रैः क्षरजलैः / सहस्राक्षो जलयंत्रपुत्रकश्रीरभृत्तदा // 57 // अन्दोलयति भूगोल चालवसहले भरात् / यत्नश्चऽधिकं धत कर्मक्रोडाहिदिग्गजैः / / 58 // द्वारकायाः पञ्चचत्वारिंशतं यो| जनान्यथ / अतीत्य शिनिपल्ल्याख्ये ग्रामे विष्णुग्यास्थित // 59 // चतुभियोजनैरवाग् जरासन्धात् स्थितेऽच्युते / केऽप्येत्य खेचराः श्रीमत्समुद्रं नृपमूचिरे // 60 // त्वदन्धोर्वसुदेवस्य गुणगृह्या वयं नृप / हित युष्माकमाख्यातुं वैताढ्यादागतास्ततः // 61 // जगद्रक्षाक्षमो नेमिबलविष्णू च यद्वले। प्रद्युम्नशाम्बप्रमुखाः बुमाग अपि कोटिशः // 62 / / तेषां साहायकापेक्षा परेभ्यः काऽस्ति यो युधि / व्यक्तुं तथापि स्वाजन्यं भक्ति चाजग्मिम प्रभो ! // 63 / / मगधेशस्य सुहृदो चैताढये सन्ति खेचराः / ये ते स्थानस्थिता एवोचिताः जिनेशचरित्रम् / खेचर विज्ञध्या देताढचे सेनानीत्वेन प्रमोचन वसुदेवस्य सर्ग-१० // 39 // Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 39 // बलावल | साधयितुं द्विषः // 64 // प्रद्युम्नशाम्बयुक्तं नः सेनान्ये तत्समर्पय। वसुदेवं यथा हन्मः शत्रुमित्राणि खेचरान् // 65 // कृष्णाज्ञया हंसमत्रिणा * तथा क्लप्ते श्रीसमुद्रेण दुन्दवे / अस्वप्नीमौषधी नेमिर्ददौ बद्धां सुरैजनैः // 66 // | इतश्च मगधाधीशं हंसकः सचिवो रहः / इत्यूचे देव! राज्ञां स्यात् क्षत्रं मंत्रान्वितं श्रिये // 67 // शक्तित्रयेऽपि मुख्यख मंत्रश- विषये शक्तेविदुर्बुधाः / साऽऽयत्ता मंत्रिणां तेन ते मान्याः स्वामिनाऽधिकम् / / 68 // उत्साहप्रभुशक्तिभ्यां सम्पन्नोऽपि नृपः श्रयेत् / मंत्र विज्ञप्तो जरासन्धः | खक्षेमदं सिंहात्पशोरस्यान्तरं ह्यदः // 69 / / किश्चामृतं विषस्याक्षि वन्हेर्गङ्गां च मंत्रवित् / विपक्षस्य सदा विभ्रत्क्षेमं स्वस्य हरोऽक*रोत् // 70 // एवं राजाऽपि मंत्रज्ञो विनापि खलु मंत्रिणः। भवेत् स्वक्षेमकृत्त्वं तु कंसवन्मंत्रमत्यजः // 71 / / तत्कि ? द्विषत्प्रतापाग्नौ * तद्वत्वं शलभायसे / विचारय रयं त्यक्त्वा वैरिणः स्वस्य चायतिम् // 72 / / एकेन गोपमात्रेण कृष्णेनाघाति यत्पुरा / कसो भवद्भट| श्रेणीसबलोऽप्यजलीलया / / 73 / / यत्कृष्णानुपदं कालस्त्वसुतः कालसर्पवत् / प्रौढः प्रधावितो देवीवञ्चितोऽभृद् यमातिथिः // 74 // यचास्य निर्ममे देवनगरी द्वारका नवा / तत्तस्य पक्षे जानीहि देवानिन्द्रादिकान् प्रभो! // 75 // त्रि०वि०॥ पुण्याधिकेन देवेन्द्र|स्वीकृतेन च ते न हि / स्वस्याऽसमेन कृष्णेन विग्रहो युज्यतेऽधुना // 76|| यस्याज्ञां च चतुःपष्टिरिन्द्राः कुर्वन्ति दासवत् / बन्धुना | नेमिना तेन सपक्षोऽयं भुजंगवत् / / 77 // पिता चास्य वसुदेवो रोहिग्यास्ते स्वयंवरे। घटोऽस्ति ज्ञातशक्तिच तात्पुच्याच जीवनात |78|| पुत्राः प्रद्युम्नशाम्बाद्यास्तस्य चाध्यष्टकोटयः / त्रिलोकीसुभटश्रेणी यैश्चक्रे पादपूरणम् / / 79 / / समुद्रविजयाद्याश्च दर्शाहाः पितृ-* वन्नव / उग्रसेनश्चास्य पक्षे विपक्षेदुजयौजसः॥८०॥ युधिष्ठिराद्याः पश्चापि पाण्डवाश्चास्य संश्रयात् / जातप्रौढवलाः स्वारीन् हन्ता| रस्त्रबलान्यपि / / 81 // नैमित्तिकः क्रोष्टुकिश्च देशकालविभागयोः / शास्ता यदूनामस्यापि साम्प्रतं मूर्तिमान् जयः // 82 // त्वद्वाचैव Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम-1 जीवयशाः कुलद्वयविनाशकृत् / दशाहर्नादृताऽपि कंसस्याऽभूच्च मृत्यवे // 83 // इदानीं तु तवाऽहेतुप्रयाणारम्भकारिणी / पुत्री भ- जिनेश वित्री राज्यश्रीप्राणवंशान्तकृद् ध्रुवम् / / 84 // मन्यसे नापशकुनं न देवज्ञं न मत्रिणः। यत्तन्नूनमियं कृत्या पुत्रीव्याजात्तवाऽलगत् चरित्रम् / // 392 // | // 85 // न च तेऽपि स्वकः कोऽपि मंत्री वा त्वां कदाग्रहात् / योऽसानिवर्तयेद् वैरं जामात्राथै करोति कः // 86 // त्वयि रुष्टं ध्रुवं जरासन्ध देवं यत्वं सुतवधच्छलात् / निषिद्धोऽपि तेन पुनः कृष्णयुद्धार्थमागमः // 87 // सहायसम्पदापि खं न्यूनो यद्रुक्मिणीहृतौ / बलयुद्धे || चक्रव्यूह बलं दृष्टं दमघोपजरुक्मिणोः // 88 / / दुर्योधनशकुन्योश्च सर्पवच्छिद्रवीक्षिणोः / वीरापसदयोः को नु विश्वासः? सोदरदुहोः // 89 // स्वरूपम् | प्रतिपन्ने दृढोप्येकः कः कण्णोऽङ्गाधिपोऽपि सः / यतः कृष्णकुमारास्तं त्रोटयिष्यन्ति खण्डशः // 90 // देशकालौ च ते नूनं विरुद्धौ | यत्स्वदेशतः / प्राप्तः सुराष्ट्रां गीष्मेऽपि ख कृष्णविजयप्रदाम् // 11 // विनिपातप्रतिकारो दृश्यते न च ते प्रभो!। उपायाभावतः कार्य सिद्धेः सन्देह एव तत् // 92 // विमृश्येति निवर्त्तस्व लजसेऽथ त्यजन् भुवम् / युध्यथा मा स्म निर्विण्णः स्वयं कृष्णो वलिष्यते // 13 // * इस्थं ते कुर्वतः स्वामिन् ! कुशलं नान्यथा पुनः / मद्वाचं मन्यसै चेन्न सा दुर्दैवस्य वश्यता // 94 // श्रुत्वेति मगधाधीशः क्रुद्धो हंस-de कमूचिवान् / यदैवं स्तौपि रे शत्रूस्तत्त्वं तैर्भेदितो ध्रुवम् // 95 // त्रस्येद् ? वाग्डम्बरैः किं ? रे मृगेशः कीशवद्रणे / धिक् त्वां कुमंत्रदं | पश्य कृष्णं कृष्णपथे क्षिपे // 96 // डिम्भकोऽथ तद्भावज्ञो मंत्री प्रोचेऽधुना प्रभोः / प्रवृत्तिः कीर्तिकृद् युद्धे निवृत्तिस्वपकीर्तिकृत सग-१० # // 97 / त्रिखण्डभरतक्षेत्रराजन्यविजयाजिता / कीतिरेकपदे देव ! हार्यते हंसमंत्रतः॥९८।। राज्ञां जयाजयौ देवाधीनौ युधि यशस्तु न / आचन्द्रार्क स्थिर भावि युद्धे तदुभयोरपि // 99 / / परैरभेद्यं तच्चक्रव्यूह त्वच्चक्ररत्नवत् / निर्माप्य त्वद्वले देव ! हनिष्यामो // 392 // द्विपद्बलम् // 100 / जरासन्धो प्रहृष्टोऽथ डिम्भकं हंसमंत्रिणा / सार्द्ध सेनाधिपैश्चाशु चक्रव्यूहमचीकरत् // 11 // राज्ञां सहस्रं चक्रे Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H // 393 // कृष्णगरुडव्यूहस्वरूपम् 3PAL**4539818378* ऽस्मिन् सहस्रारतया स्थितः / पृथग् दन्तिशतं चैषां स्यन्दनद्विसहस्रयपि / / 2 / / अश्वानां पश्च सहस्राः पदातीनां तु षोडश / सपादाः षट्सहस्राश्च तस्थुभूपाः प्रधिश्रियः // 3 // राज्ञां पञ्चसंहस्रथा तु तुम्बेऽस्थान्मगधेश्वरः / पृष्ठे तस्य च गान्धारसिन्धवक्ष्माभृतां बलम् // 4 // युग्मम् / / तस्थुर्दक्षिणतो राज्ञो धार्तराष्ट्राः शतं पुनः / मध्यदेशनृपा वामेऽग्रतस्तु गणनायकाः // 5 // पञ्चाशच्छकटव्यूहाः प्रतिसन्धि नृपाः स्थिताः / गुल्माः प्रत्यन्तरं तेषामन्तरा वगणा अपि // 6 // चक्रव्यूहाद् बहिर्नानाकारैव्य॒हेनरेश्वराः / स्थाने स्थाने महासैन्या महीयांसो च तस्थिरे॥७॥ तस्य व्यूहस्य दण्डेशं भूभुजा भूपतिं कृतम् / हिरण्यनाभं वीक्ष्यैव सूरो भीत्याऽनशत्तदा / / 8 / / निशायां बुद्धिपाथोधे यादोभिर्यादवैरपि / अकारि गरुडव्यूहश्चक्रव्यूहविजित्वरः / / 9 / / कुमाराणामकोटिय॒हस्याऽस्य मुखे स्थिताः / महाबलौ बलविष्णू स्वयं मूर्द्धनि तस्थतुः // 10 // वसुदेवस्य चाक्रूरमुख्या द्वादशसूनवः / कृष्णस्यासन पृष्ठरक्षा रथलक्षसमन्विताः // 11 / / पृष्ठे तेपामुग्रसेनो रथकोटियुतोऽस्थित / तस्यापि रक्षितुं पृष्ठं तदात्मजचतुष्टयम् // 12 // धरः सारणचन्द्रोऽथ दुर्धरः सत्यकोऽपि च / तस्थुरेते नृपास्तेषामथ पृष्ठेऽवरक्षकाः / / 13 / / पक्षे दक्षिणे तस्थौ समुद्रविजयो नृपः। भ्रातृभिर्धातपुत्रैश्च स्वपुत्रैश्च वृतोऽखिलैः // 14 // लक्षैश्च पञ्चविंशत्या स्थानामपरे नृपाः / समुद्रविजयस्यावतस्विरे पारिपाचकाः॥१५॥ व्यूहस्य वामपक्षे तु बलदेवसुताः स्थिताः / युधिष्ठिराद्याश्च पञ्च पाण्डोः पुत्रा महौजसः // 16 // पृष्ठेऽस्थुः पाण्डुपुत्राणां धार्तराष्ट्रवधेच्छया / रथानां पश्चविंशत्या लक्षैनृपाः परे घनाः // 17 // तस्थुः सिंहलकम्बोजकेरलद्रविडेश्वराः / स्वैः स्वैः परिवृताः सैन्यैस्तेषामपि च पृष्ठतः // 18 // महासेनपिता तेषामपि पृष्ठे स्वयं नृपः षष्ट्या सहस्र स्थानां सहितोऽस्थात् भटाग्रणीः॥१९॥ अन्येपि बहवो व्यूह रक्षितुं तं नरेश्वराः / ससैन्याः परितस्तस्थुरर्ककर्कशतेजसः // 20 // // 393 // Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / परम्परं युद्धम् // 34 // HE 9-10-1946 *E- | निर्ममे गरुडव्यहमित्थं श्रीगरुडध्वजः / दृष्टेऽपि वैरिणां यत्र दर्पसोऽपसर्पति / / 21 / / युयुत्सुर्वान्धवस्नेहादिन्द्रेण प्रेषितं तदा / नेमिभेजे सदिव्यास्त्रं रथं मातलिसारथिम् // 22 // समुद्र विजयेनाथ सेनानाथपदे कृतः / कृष्णाग्रजन्माऽनाधृष्टिः पटं बद्ध्वा महाभटः / / 23 / / | विष्णोयलेऽथ सकलेऽप्यभूजयजयपनिः / प्रतिपक्षयलक्षोभहेतुंब्रमाण्डभाण्डभित् // 24 // दन्तावलाः ख्यातबलाः सगुडाः सनिपादिनः / आरूढप्रौढहर्यक्षाः सपक्षाः क्ष्माधरा इव // 25 // सुवर्णपक्षगश्चाश्वकुञ्जराः सादिदुद्धराः / साक्षात्ताा इव स्वर्णपक्षाः स्कन्ध| स्थवत्रिणः // 26 // रथा रुद्धपथाः शबभेटैस्तूणधनूत्कटैः / पताकाभिस्तर्जनीभिस्तयन्तो धुसद्रथान् // 27 // मुक्तामुक्तैः पाणिमुक्त| यन्त्रमुक्तैरमुक्तकैः / अत्रयुक्ताः स्फुरद्रोमहर्षोच्छ्वासितकंकटाः // 28 // अवार्यशौर्यभीतेन सुर्वणकटकच्छलात् / सूरेणापि श्रिताः पाणि|पादाग्रे पत्तयोऽपि च // 29 // चेलुः परभटान् भेत्तुं व्यूहयोरुभयोरपि / आस्फुटन्तो मिथः शैलानिव वायोरिवोर्मयः ॥३०॥१०कु० // बलद्वयस्य नासीरवीर : प्रारम्भि संगरः / क्षयाब्देखि गर्जद्भिर्वर्षद्भिश्चास्वधोरणीम् // 31 // तूर्यसांराविणरश्वहेषितर्गजगर्जितः / रथ्यास्वानर्भटध्वानजज्ञे शब्दमयं जगत् // 32 // उभावभृतां दुर्भदौ सेनापत्योढयोरपि / तीक्ष्णयोरपि तौ व्यहो सुदृढौ बज्रगोलवत | // 33 // मगधेशभटैः स्वामिभन्सितैश्चित्रकैरिव / तायव्यहस्याग्रमन्यान भज्यमानान्मृगानिव // 34 // मृगयाक्त इबोद्वीक्ष्य समु| क्षिप्य कर निजम् / स्वसंकेतैः स्वयं धीरो धीरयामाम शाङ्गभृत् / / 35 / / युग्मम् / / तायपक्षद्वयीचञ्चुरूपा भूपान्वितास्ततः / उद. | तिष्ठन्महानेमिपार्थानाधृष्टयस्त्रयः // 36 // महानेमिः सिंहनादमनाष्टिबलाहकम् / अर्जुनो देवदत्तं च दध्मौ शंख महाध्वनिम् // 37 / / प्रणादैस्तूर्यकोटीनां ताडितानां च यादवैः / अनुजग्मे शंखनादो नरेन्द्र इव सेवकैः // 38 // नादस्तैः शंखतूर्याणां वीराः परबलेऽखिले। क्षयान्दगर्जितर्याद्वी चुक्षुभुनकचक्रवत् // 39 // सेनानीभिविभिन्तश्व कुर्वद्भिः शरदर्दिनम् / नेमिसन्धिस्थितान् भूपानाशु विद्राव्य | -RAEP सर्ग-१० // 394 // -*-* Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुतपमुक्त शक्तिनिरसनम् काकवत् // 40 // चक्रव्यूहस्त्रिषु स्थानेष्वभञ्जि क्षणमात्रतः / शैलवप्र इवोद्दीप्रचलैर्वन्यद्विपरिव / / 41 / / युग्मम् / / कृतमार्गा स्वयं व्यूहे विशन्तीं ता भटत्रयीम् / भूपाः परेऽन्वयुः सूचीमिवोच्चैस्तन्तवः पटे // 42 / / अभ्यक्रामनिमान दुर्योधनरौधिरिरुक्मिणः / अथो मिथो द्वन्द्वयुद्धमेतैः पदभिर्व्यधीयत / / 43 / / भटानामपि तत्पक्षपातिनां पट्टयाधिकम् / कुठार इव काष्ठौधदारणः प्रासरद्रणः // 44 // कन्द* | कैरिव वीराणां खेलतां वैरिमूद्धभिः। एकैर्भीतं परैः कुद्धमन्यैर्लीनं च चालवत् // 45 // बवा हस्त्यश्वशीर्षाणि वीर छिन्नान्यन| त्तिषुः / गणेशवल्किन्नरवत्कबन्धाः संगराजिरे // 46 / / सखड्गगहुभ्रमकृत्कस्याप्यालोलवेणिकः। मौलिरिशरोदस्तः सुरानत्रासयहिवि // 47 // आपतन्तं रिपोः कोऽपि शुण्डयाऽऽदाय कुञ्जरम् / भ्रमयित्वा वियत्यस्तशस्त्रः शस्त्रनयाऽमुचत् // 48 // रेजे करी नमन वीरवक्षोविक्षोभहेतवे / जयश्रियं रणो:स्थां स्कन्धेऽध्यारोपयन्निव // 49 // निहत्य विमुखः पुच्छे गृहीतः केनचित्करी। प्राणं विभ्रद् गतौ भूमौ मुखाग्रेणाऽपतजवात् // 50 // खड्गः कस्यापि केयूरमणिविम्बच्छलादरीन् / निमन् धूलिकृते धान्ते * सप्रदीप इवाऽशुभत् // 51 // अन्यश्चाऽन्योन्यमास्फाल्य हस्तेनारिशिरोवजम् / नालिकेरोच्चयमिव बभज भुजदर्पवान् // 52 // युद्ध मल्लभटी भूमौ भटानां गगने पुनः। मिथस्तद्वरणारब्धकलहानां घुयोषिताम् // 53 / / समकालं तदा शृण्वन् हृदये परमां मुदाम् / अस्थैर्यपारदः पाप नारदः फलिकौतुकी // 54 // युग्णम् // पद्यद् द्विगां गुण्टरी एकसद रमपसले / महानेमि*धनमक्तैस्तत्तदु रेजे शिलीमुखैः // 55 / / तेनाशु विदधे रुक्मी निरस्रो विरथः क्षणात् / शत्रुतपाद्यास्त त्रातुं पेतुः सप्तान्तरा नृपाः // 56 // तेषां छिन्दति शेवेये तुल्यं चापान् शरानपि / कल्लोलानिव बार्बीनां मरुतीय महावले // 57 / / शक्ति शत्रुतपोऽक्षप्सीत ज्वालामालाकुलां जवात् / यां वीक्ष्य यादवोऽक्षुभ्यन् कृतान्तरसनामिव // 58 / / युग्मम् / / तां बलीन्द्रापितां वत्र भेद्यां नेमिजिनो विदन। // 395 // Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम- | वज्र मातलिना बाणे महानेमेन्यवेशयत् // 59 // तद्वपुहता शक्तिरशक्तेवाऽपतद् भुवि / दीनं तत्स्वामिनं चक्रे सामुद्रिय॑स्ववाह- जिनेश*नम् / / 60 // रुक्मिणोत्साहिताः शत्रुतपाद्याः सप्त ते नृपाः। भूयो रथान्तरारूढा महानेभिमयोधयन् // 61 // चापानां विंशति छिचा चरित्रम् / - वंशानामिन रुक्मिणः / शैवेयोऽधात् गदोच्छेदं वैद्यवद् वन्हिबाणतः // 62 // बलिदत्तं रुक्मिमुक्तं शत्रुलक्षकिरं शरम् / चित्रमेकेन अजुन बाण वृष्टिः माहेन्द्रेपुणाऽपास्थत समुद्रसूः // 63 / / कुलाचला इवाष्टौ तेऽचलानाथाः समं तदा / महानेमिबाणवजाहताः पक्षबलोज्झिताः // 6 // | नेशुर्दिशोदिशं कान्दिशीकाः शीकाभिशंकिताः / रुक्मिणं त्वहरत् वेणुदारी घातातिविह्वलम् // 65 // वीरव्याघ्रं शीरैर्दुर्योधनं ज्वालाभैरखि / धनञ्जयोऽक्षिपद् रेऽनाधृष्टिरपि रौधिरिम् // 66 // समुद्रविजयाद्यैश्च दशाहनवभिनव / राजानो जघ्निरे निघ्नाद्रुमाद्या माद्यदुद्यमाः॥६७।। सुनेम्याद्यर्यदुवी रिवीराः परेप्यथ / भग्नाः शरण्यं हिरण्यनाभं सेनान्यमाश्रयन् // 68 // इतो रामाङ्गभद्रगरिब समन्वितौ / भीमौ भीमार्जुनावार्तान् धार्तराष्ट्रान् विचक्रतुः // 69 / / प्रनष्ट्रषु रथे वैरिबन्धनाट्यमिवार्जुनः / पात्रैरनेकैः करुणरौद्रवीरभयाद्भुतान् / / 70 // अभिनाय्य रसान् सूत्रधारवत्पारितोपिकम् / सुरासुरेभ्यः सम्येभ्य इवेप्सुर्विजयस्रजम् / / 71 / / वितेने चित्रमस्तम्भ नाराचैव्योंम्नि मण्डपम् / तारः कोदण्डटंकारैर्नान्दीनादमसूत्रयत् // 72 // त्रि०वि०॥ सशिख नारदं व्योम्नि भ्राम्यशान्तं तद्दिदृक्षया / अत्रासयत् प्रेपितः स्वैर्विशिखैर्लक्षशः खगैः // 73 // वेगान्त्रिपगिनाकृष्टैनीतैर्द्धर्मगुणाग्रहम् / प्रापितः श्रवणोपान्तं विमुक्तिमपि लम्भितेः // 74|| पार्थेन गुरुणादिष्टैश्चित्रं कल्याणमूर्तिभिः / बन्धुसैन्यं जितद्वेपि प्राप्यताऽऽध्यमजिम्हगैः // 7 // युग्मम् // प्रेक्ष्याथ फाल्गुनं शाखिपत्रपाटनलम्पटम् / दुर्योधनोऽरुधञ्चैत्र इव जैत्रबलोद्धतः // 76 / / अथ क्षत्रक्रमं त्यक्त्वा दश काशीश्वरादयः / राजानोऽयोधयन् पार्थमपार्थभुजविक्रमाः // 7 // शल्यो युधिष्ठिरं वीरो भीमं दुःशासनोऽपि च / उलको नकुलं सहदेवं * Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 397 // *च शकुनिपः // 78|| दुर्मर्षणाद्याः पद् भूपा द्रौपदेयान् ससत्यकान् / बलदेवात्मजांश्चान्येऽयोधयन्नवनीभुजः // 79 // युग्मम् // * *किरीटी मार्गणांस्तेषां दानैः सममवर्द्धयत् / रसानामिव शराणां निजानां लक्षवेधिनाम् / / 80 // दुर्योधनोऽथ विरथवर्मा पार्थशरैः | कृतः / उत्पत्य भेजे शकुनिरथं शकुनिवजवात् / / 8 / / धारासाररिखाम्भोदः पद्मान् पार्थःशरोत्करैः / / बभञ्ज क्ष्माभुजः काशीशादींश्चैकोऽप्यथो दश // 82 // कृत्तं शल्येषुणा वीक्ष्य धर्मस् | स्वरथध्वजम् / कराविवाऽच्छिनत् तस्य बाणवाणासनौ समम्।।८३।। गृहीत्वाऽन्यद्धनुः शल्यो तुल्यो युधि युधिष्ठिरम् / तिरोधत्त शरै* द्यो नीहारैरिव भास्करम् / / 84 // कौन्तेयोऽपि द्विधा शक्त्या द्वेधा शल्यं निजनिवान् / वज्री वज्रविषेवाद्रिमनेशन भूभृतः परे * // 85 / / उरो दुरोदरच्छद्माऽनूद्य सद्यो वृकोदरः / हतस्य गदया दुःशासनस्योच्चैय॑दारयत् // 86 // युद्धस्य शकुने नायुद्धैर्गान्धारभूपतेः / सहदेवोऽमुचत् क्रोधान्मार्गण प्राणमार्गणम् // 87 // तमन्तरा निपत्याशु विलुप्य क्षत्रियव्रतम् / दुर्योधनं संलुनानमुच्चैर्माद्रीसुतोऽवदत् // 88|| द्यूते लब्धच्छलास्वादं धिक् त्वां क्षत्रव्रतोज्झनम् / हीनो यः श्वेव युद्धेऽपि तत्प्रयुक्त जयाशया // 89 / / सर्वेऽपि न खलु स्वमाः सिद्धिदाः स्युरतो युवाम् / साधु गोमायुवन्मायाविनौ मे वध्यतां श्रितौ // 90 // आक्षिप्येति प्यधत्तैनं स यावद्दुद्धरै : शरैः / तावत्तस्याऽच्छिदच्छेको बाणैदुर्योधनो धनुः // 91 // सहदेवाय नागावं पुनर्दुर्योधनेरितम् / अन्तरा गारुडास्त्रेण सव्यसाची न्यवारयत // 92 // वेगादुत्कुजताऽऽगत्य सहदेवकरात्ततः / अकर्ति शकुनेः शीर्ष श्येनेनेव पतत्रिणा / / 93 // विद्रावितो नकुलेनाऽप्यूलूकस्त पनविषा / भेजे दुर्मर्षणं त्राणं स्वस्य क्षोणिभृतां वरम् // 94 // दुर्मर्षणाद्याः षडपि ऋतुबद् भूमिनायकाः / निरासिरे द्रौपदेयैः प्रलया- * करिव क्षितेः // 95 // दुर्योधनोऽपि काशीशप्रमुखैः सह नायकैः / घनं धनञ्जयं हन्तुमनाः पुनरढौकत // 96 // बलात्मजैरज्जुनोऽपि // 397 // Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 398 // शशीव किरणैर्युतः / परसेनां व्यधादऽम्भोजिनीवन्मुकुलन्मुखीम् / / 97 // दीनं कौरवसेनायाः पग्रिन्या इव जीवितम् / निन्ये कपि जिनेशध्वजः शूरं प्रदोपोऽस्तं जयद्रथम् // 98 // ज्वालाजालेखिोत्तालेविशिखैदग्धुम नम्। अथोत्तस्थौ वनवन्हिसवर्णः कर्णभूपतिः // 19 // चरित्रम। द्यूतकाराविव सारैः औरः कर्णार्जुनौ चिरम् / चिक्रीडतुः फलकवद् रणे देवैनिरीक्षितौ // 200 // जयश्रियं द्वयोस्तुल्यामपि चक्रे, युद्ध कर्णविरागिणीम् / विधिः कण न्यधात्पार्थस्तं यदात्तरथायुधम् // 1 / / कीर्तिमुक्तोज्वलं जीवं ताडंकमिव कर्णतः / कृष्ट्वाऽर्जुनः कुरुच- मृत्युः मृमुखमश्रीकमातनोत् // 2 // भीमक्ष्वेडोल्बणे शंखध्वनौ पार्थस्य विस्तृते / तत्सैन्यैर्मुमुदे मेघध्वनाविव कुटुम्बिभिः // 3 / / हतेऽङ्गनायके तस्मिन् सर्वकर्माणविक्रमे / हृदि निर्जीवमेव व मेनिरे कौरवास्तदा // 4 // पार्थो व्यधान्मृते कर्ण द्विपद्विजयनिश्चयम् / भीमश्वासमरुत्तले जीवत्यपि सुयोधने // 5 / / कौरव्यलक्ष्मीसीमन्तो भीमं तोयधिगर्जितम् / हन्तुं दुर्योधनोऽधावन्मृगः सिंहमिब क्रुधा // 6 // कल्पान्तवाड़िवद् भीमो भीमो गावदुर्धरः / पोतेः पोतानिवाऽऽस्फाल्याऽभांक्षीन्मक्षु रथैरथान् // 7 // तूलपूलानिवोत्क्षिप्य वाहान् वाहैरिभानिभैः / कांस्यतालवदास्फाल्याऽवधीत् संवर्त्तवायुवत् / / 8 / / अकुटयच्च कोटीशः कोटीशम्भुजविक्रमः / गदया स दयाहीनः पादातमवदातधीः / / 9 / / हस्त्यश्वरथपादातं लोलकल्लोलवत् क्षिपन् / दो पक्षद्वयेऽतारीत् स वारीशमिवाहवम् // 10 // भीमे भटांचूर्णपेष पिंपत्याघाततो युधौ / कबन्धताण्डवकथाऽप्यासीचित्रं सुदर्लभा // 11 // रक्तक्तिमौक्तिकैः कुम्भिकुम्भजैर्बदरश्रिभिः / वेता सर्ग-१० लाश्च शृगालाश्चाऽभ्रम्यन्त क्षुधिता निशि // 12 / / तृप्तः प्रीत्याकुलै रक्षःकुलैीमाहवे स्तुते / शंके लंकेश्वरो रामस्थाम नाऽमस्त वास्तवम् // 13 // भीमध्वस्तमहीभृद्भ्यो जातरक्तापगाशतैः / रक्तेऽम्बुधौ ध्रुवं प्रत्यक् तदादि प्राक् प्रिया ययुः॥१४॥ ध्वस्तारिभीमसे // 398 // Halनस्य भीमसेनस्य हेलया / युद्धश्रद्धा श्राद्धदेवस्येव नापूर्यताऽद्भुतम् // 15 / / युद्धे सारे तदा भीमाद् दायादवदऽढौकत / भागार्थी सद्वि Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र दुर्योधनः // 399 // पकुलो नकुलोऽनाकुलो हदि॥१६॥ ततः पाण्डवकौरव्यसेनयोः कुञ्जरेश्वराः। मिथो योधरमील्यन्त कृतान्तस्येव किंकराः॥१७॥ केनापि हस्तिना हस्ती दूरमुत्क्षिप्य शुण्डया / पतन्नथो धृतो दन्तेनात्मभंगभयादिव // 18 // घातजातदन्तपाताविभौ कौचित्परस्परम् / मन्दं मन्दं कराग्रेणाऽस्पृशतां करिणीभ्रमात्॥१९॥ एकः प्रोतं खदन्तेन गजः प्रतिगजं जवात्। ऊर्ध्वमर्पयितु शंकेर्कपुत्रस्योदपाटयत् // 20 // विषादिनं वैरिभंगात् ज्ञात्वेव खं निषादिनम् / कश्चिद् गजः प्रतिगजापद्रुतो विद्रुतो रणात् // 21 // कोऽपि दन्ती प्रतिदन्तिदन्तमुत्खाय शुण्डया / मुखेप्सीद्वषा द्वेषिकीति मूर्तिमतीमिव / / 22 / / हेपयामासतुः कौचिद् गजौ स्वं स्वं निषादिनम् / एको धूताकुशस्त्रस्यन् धावन् पृष्ठे परः पुनः // 23 / / इतः कल्पान्तवद् भीमं भीमं ज्ञात्वाऽप्यधावत् / हन्तुं दुर्योधनः कोपात्करभः शरभं यथा |* // 24 // सिंहाविव कृतक्ष्वेडौ सगज्जी दिग्गजाविव / नानायुधयुयुधाते तौ वीरौ कौतुकाचिरम् // 25 // भीमः स्मृता यूतवैरं तं वीरं || गदया तथा / पिपेप वातास्तदेहस्याणून संचस्करुर्यथा / / 26 / / हिरण्यनाभं सेनान्यं तत्सैन्याः शरणं ययुः / अनाधृष्टिं परिवत्रुर्यादवाः पाण्डवान्विताः॥२७|| हिरण्यनाभमायान्तं विब्रुवाणं यदून रुपा / अभिचन्द्रोऽवदद् वाचा शूरोऽसि क्रियया नतु // 28 // अभिचन्द्र हिरण्योऽपि रोषात्प्रेषीत्खगावलीम् / तां पार्थो व्यर्थयामास स्वर्णपक्षैनिजैः खगैः // 29 // प्रहरन्तमर्जुनेऽपि तं विदित्वान्तरागतः। रथादपातयद् भीमो गदया कंटकं यथा // 30 // स भानुवत्पुनः श्रित्वा रथं रोषारुणाननः / शोषकरैरिव शरैनिन्येऽनाधृष्टिवाहिनीम् // 31 // तमायान्तमथालोक्याऽनाकुलं निजमातुलम् / अभ्युत्तस्थौ जयसेनः शिवादेवीतनूद्भवः // 32 // जामेयसारथिं क्रोधादतुलो मातुलोऽवधीत् / जामेयोऽप्यऽच्छिदत्तस्य वश्विध्वजसारथीन् // 33 // केशरीव नखैर्वज्रसखैमत्तं मतंगजम् / स शरैर्दशभिस्तीक्ष्णजयसेनं न्यषूदत // 34 // महीजयस्तदनुजः खगवर्मधरो रथात् / अभ्यापतंश्च तेनैव क्षुरप्रेण न्यहन्यत // 35 // रौद्रदृष्टिरनाधृष्टिबन्धु // 399 // Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / महानेमिपराक्रमः // 10 // द्वयवधक्रुधा / अथोत्तस्थौ स्थामधाम्नां सीमा भीमादिभिः सह // 36 // हिरण्यनाभं क्रोधान्धमनाधृष्टिरयोधयत् / महारथास्तथाऽन्योन्यमपरेऽपि डुढौकिरे // 37 // तत्र कश्चिद्रथी वामे पाणी वाणौघजर्जरे / धनुर्बद्धा ध्वजदण्डे काण्डैः शत्रुमताडयत् // 38 // चित्रं व्यस्त्ररथोऽप्येको विजिग्ये चक्रवर्तिनम् / भग्नस्य स्वरथस्यैव चक्र प्रहरणं दधत् // 39 // कश्चिन्नरेन्द्रो निहते सूते तंत्रेण वैरिणा। सुवर्ण तेजसा सिद्धगन्धर्वोऽसाधयत्तराम् // 40 // पादाग्रात्ततोऽत्र रश्मिनिहतेऽपिच सारथौ। रथिरो वाहयन् वाहान् कोऽप्ययुध्यत विद्विपा // 41 // वाणाः प्राणाधिकाः कस्याप्ययुभद्यमभेदिनः। विद्वपिविशिखैरन्तस्ताडिता अपि सर्पवत् // 42 // महानेमि कामरूपेश्वरोऽधावद् गजे स्थितः / ऊचे चापेहि यद्रूक्मी नाहं किन्त्वस्मि तारकिः // 43 // उक्त्वेति यावत्स गजं प्रेरयत्तावदञ्जसा / महानेमिर्मण्डलेनाऽभ्रमयत् स्यन्दनं निजम् // 44 // महानेमिः शरैः तस्य गजं पादतलेष्वथ / आहत्य पातयामास महीध्रमिव वासवः // 45 / / संस्मार्य नासीति रुक्मीति वचः स्पृष्ट्वा धनुय॑या / तं मुमोच महानेमिर्दयावीरतयाऽद्भुतम् / / 46 // भूरिश्रवौ युयुधानौ युधि क्षीणदिव्यायुधौ / मुष्ठामुष्ठि सुरदृष्टितुष्टये चक्रतुश्चिरम् // 47|| कृष्णपक्षोद्योतकारी चित्रं सात्यकिरिन्दुवत् / जघान भूरिश्रवसं योक्तृवद् गलग्रहात् // 48 // अयुध्येतामितो मृत्तौ वीररौद्रौ रसाविव / मिथो भटावनाधृष्टिहिरण्यौ ध्वजिनीपती // 49 / / अथ त्यक्त्वा रथं खड्गफलको बलकौतुकात् / धृत्वा धीरौ महावीरौ तावन्योन्यमधावताम् // 50 // खड्गोऽनाधृष्टिभुजगो धाराद्वयरसज्ञकः। प्राणैः सार्धं हिर| ण्यस्य यशःक्षीरमपाद् द्रुतम् // 51 / / तदा च समदाश्वीयो धूतधूलीमलीमसः / स्नानार्थमहामहाय नायकोऽगात् पराम्बुधौ // 52 // सायं संहारविरमे वार्नी पूर्वापराविध / निःप्रत्यूहावुभौ व्यूहावपि स्वस्थानमीयतुः // 53 // रणरंगोद्भटानां च तद्भटानां कथश्चन / * चतुयुगायितचतुर्यामा श्यामान्तमागमत् // 54 // अथैतयुद्धसन्नद्धकुम्भिकुम्भोद्भवैरिख / सिन्दूरपूरैः सर्वांग रक्तो व्यक्तोऽभवद्रविः॥ सर्ग-१० // 40 // Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 40 // शिशुपाल वधः * // 55|| अथो यथोचितं स्वस्वव्यूहौ कृत्वा रणोत्सुकैः / जरासन्धकृष्णवीरैर्जगजें दिग्गजरिव // 56 / / सेनानित्वे शिशुपालो जरासन्धनिवेशितः। संग्रामायाञ्चलद्वाजिबातेः पादपदप्लुतैः // 57 // उच्छृखलं खलन्तं वाऽचखलम्निश्चलोऽद्रिवत् / नदीपूरमिव क्रूरमनाधृष्टिबलैयुतः // 58 // हस्तायोल्लासिभल्लासिमुद्रादिभिरायुधैः / युद्धं रंगत्तुरंगस्थाश्चक्रुः स्थामोत्कटा भटाः॥५९|| भ्रष्टं स्वसादिनं पादकटकाग्रावलम्बिनम् / धावन्नारोहयांचक्रे पुनः कोऽप्यश्वकुञ्जरः / / 60 // वक्षस्याहत्य कोप्यश्वः पुरोऽश्वान् सनिषादिनः / स्वामियुद्धेच्छया सार्द्ध धावन्नेव व्यपातयत् // 61 / / पतितावश्वतः पादकटकान्तगताहिको / छुर्या प्रजहतुः कौचिदधोवस्त्रौ कचग्रहात् // 62 // खुरक्षुरप्रैरत्राली द्विपद्घातोद्गतां लुनन् / क्रोधाद्दधावे कोऽप्यश्वः समं स्वारोहचेतसा // 63 / / स्वयं पृष्टो जरासन्धभूभुजा सचिवाग्रणीः। हंसकोऽदर्शयन्नंगुल्यग्रेणकैकशस्तदा // 64 // नामग्राहं पृथग्वणरश्वैः पालिध्वजै रथैः / यादवान्पाण्डवानन्यानपि राज्ञो न्यवेदयत् // 65 / / युग्मम् // युवराजो यमराज इवाथ मगधेशजः / यवनो जवनो रोपादक्रूरादिवढौ. कत // 66 // तैः शौर्यात्संमुखैः पञ्चमुखैरिव सहाजनि / संगरप्रसरस्तस्य सुरासुरभयंकरः॥६७।। रामानुजोऽरुधत्तं च सारणः सरथो. |ऽन्तरा / गजे परिणते खङ्गेनाऽच्छिदत् तच्छिरो द्रुवत् // 68 / / हर्पः कृष्णस्य सुभटै रणनाट्य नटैरिव / विषादस्तु जरासन्धस्याऽभिनिन्ये समं तदा / / 69 / / जरासन्धः स्फुरत्क्रोधस्ततः सुतबधश्रुतेः / रामकृष्णौ प्रति धनुर्धनान् प्रेरयद्रथम् // 70 // व्यूहस्य तायरूपस्य तीक्ष्णशक्तीनखानिव / आनन्दादीन् दश रामतनूजानऽवधीदसौ // 71 // कृष्णसैन्यं पलायिष्ट प्रकृष्टभयभृत्ततः। गोयूथमित्र | शार्दूलो जरासन्धोऽन्वगादिति // 72 / / शिशुपालोऽवदत् स्मिखा नेदं भोः कृष्णगोकुलम् / रणक्षोणीतलं ह्येतत् सेव्यं सच्चोत्कटैर्भटेः | // 73 / / कृष्णोऽभ्यधत्त ते नाम्ना कुण्डिनत्यजनेन च / राजन् प्रतिपदोक्तव रणरंगैकमल्लता // 74 // तद्याहि सखरं पश्चादपि यास्यति // 401 // Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / पेषिता बलकृष्णाभ्यां जरासन्ध // 402 // पुत्राः निश्चितम् / द्वेधापि संगरे भंगरेखा येषां न तेऽल्पकाः // 75 // हरेगिरा किरातस्य हक्कयेव मृगाधिपः / विद्धो मर्माविधा तीक्ष्णयाणादप्यधिकं हृदि // 76 // चेदीश्वरः करखद्धनुर्मुक्तैः शरोत्करैः। कृष्णे वृष्टिं व्यधाद् धारासारैर्वा विवाम्बुदः // 77 // युग्मम् / / * कृष्णेन प्रहितदिव्यैविशिखैः सपरिव / धनुर्वर्मरथान् छित्त्वा शिशु वन्नमुच्यत // 78 // स विद्रवन् पुनः खड्गं कृष्ट्वाऽढौकत विप्लवे। उद्धृमलेखः प्रलयकालानल इव जलन् // 79 // कृष्णोऽप्यलावीत्तस्याऽसिमसिना मुकुटं तथा। शिरश्च कुम्भकृत्कुम्भं चक्रस्थमिव | तन्तुना 80 // निजमूर्त्यन्तरे तस्मिंश्चम्पे हरिणा हते / क्रुधाऽधावजरासन्धः सामन्तः स्वसुतेः सह / / 81 // ऊचे मुधा मृधे कि रे | म्रियध्वे यदवो जवात् / समाऽद्यापि तौ गौपौ चिरं जीवत किं ? परैः / / 82 // यदुभिस्तद्विरा भस्त्रयेवेद्धक्रोधवन्हिभिः। दग्धं | भ्राष्ट्रैरिवोल्से जरासन्धमयो दृढम् // 83 // विध्यापयितुमेतांश्च स दोयोमाग्रजाग्रतम् / प्रौढं व्यापारयद् धाराधरं जलभरोद्धरम् 84 // मुष्टिग्राह्यस्य तस्यान्तनि म सलिलेऽद्भुतम् / मक्तुमारभताऽश्वेभवाहिनी यदुवाहिनी // 85 / / यदुवीरास्तत्र धीरा अपि सद्धीवरा अपि / दधुः काष्ठाश्रयश्रद्धामाश्चर्य दोबलोद्धताः // 86 // कृते यदूनां दनांगै टैः शौर्योत्कटैरपि। रणे मेपापसरणे जरासन्धतनूद्भवैः // 87 / / निहन्तुमष्टाविंशत्या दधावे सीरधारिणम् / कृष्णं चकोनसप्तत्या स्फुङनिस्वादनिस्वनैः // 8 // युग्मम् // तयोर्वीरशिरोमण्योस्तैः सार्द्ध युद्धमापतत् / तद्यस्मिन् शस्त्रसंघातघातान्नेशे सुरैरपि / / 89 // बलोऽष्टाविंशतिं कृष्ट्वा हलेन मुशलेन तान् / पिपेप कणवत्पुत्रान् जरासन्धस्य हेलया // 90 // उपेक्ष्यमाणो गोपोऽयं हन्त्यद्यापीति जल्पता / जरासन्धनात्मपुत्रवधरोपान्धचक्षुपा // 11 // आहतो गदया रक्तं वमन् रामोऽपतद् भुवि / चक्रे हाहारवो देवेदिवि क्षोणौ च यादवः // 92 / युग्मम् // पुनले जरासन्धं घातसन्धं विदस्तदा / कुन्तिसुतो ऽन्तराऽभ्येत्य श्वेताश्वोऽयोधयल्लघु // 93 // भ्रातरं विधुरं प्रेक्ष्य प्रज्वलत्कृष्णवर्त्मवत् / कृष्णोऽभैत्सीज सर्ग-१० // 402 // Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 403 // रासन्धसुतानेकोनसप्ततिम् // 94 / / राम मखा मृतं त्यक्त्वाऽऽर्जुनं सुतवधक्रुधा / केशवं मगधाधीशः कीशः सिंहमिवाऽभ्यगात् // 95 | अत्रान्तरे जरासन्धधननाराचदुर्दिनैः / तिरोहिते हरौ कर्मसाक्षी नास्तीति वार्तया / / 96 // आकुलाऽभूद् यदुसेना दिनलक्ष्मीरिवा- मातलिकृत | धिकम् / सच्चकैः सह मम्ले च दशाहमुखपंकजैः // 97 / / युग्मम् // व्यज्ञाप्यतेति श्रीनेमिः प्रभुर्मातलिना तदा। स्वामिन् जगत्रयी- विज्ञप्त्या प्राणत्राणशौण्ड ? तवाग्रतः॥९८॥ कीदृक् ननु जरासन्धः कल्पान्तमरुतोऽद्रिवत् / तत्त्वयोपेक्ष्यते ? कस्मात् कुर्वन्विश्वमयादवम् : भ्रामितो ||99 // स्वजनेरिजनेऽपि ख समस्वान्तोऽसि यद्यपि / तथापि नाथ ! नि थममुहृन्माथदुःखितम् // 300|| उपेक्षितुं निजकुलं रथोप्रभुणा साम्प्रतं साम्प्रतं न ते। अमिन् प्रत्युपकारस्यावसरोऽप्ययमेव च // 1 // सर्वसाधारणोऽपीन्दुः कुमुदस्यात्मपक्षिणः। विपक्ष मुद्रयत्येव | ak स्खकरैः कमलाकरम् / / 2 / / जानन्निति प्रभो ! हेलामवहेलाकरी द्विपाम् / निजदोःस्तम्भदम्भोलेः किश्चिदाविःकुरु क्षणम् // 3 / / अरि | एनेमिः श्रुखेति नामार्थापयितुं निजम् / निःकोपः करुणाटोपादैन्द्रं शंखमपूरयत् // 4 // तन्नादेन जगत्कुक्षिभरिणाऽप्येकरूपिणा / | निन्ये द्विषवलं क्षोभं चित्रं स्वास्थ्य बलं निजम् // 5 // संग्रामसागरे स्वामी ससंभ्रममविभ्रमत् / उर्ववद्वारितारातिप्रथं श्रीमातलि || रथम् // 6 // आकृप्येन्द्रधनुः स्वामी नवाम्भोधसोदरः / शरासारैः सुदुर्वारैः समूत्कारनिरन्तरैः // 7 // राजहंसान् सपक्षानप्याविभ्राणान् विपक्षताम् / उत्तास्य निर्ममे देव सरःशरणतत्परान् // 8 // युग्मम् // प्रभुरेकोऽपि वालोऽपि जगद्रक्षाक्षयक्षमः। राज्ञां किरीटिनां Plel लक्षं विलक्षं विदधेऽद्भुतम् // 9 // रथेषु केतनाग्रेषु कदलीष्वपि सादिपु / मुकुटेष्वातपत्रेषु तेषां पेतुः प्रभोः शराः॥१०॥ राज्ञां * | चिच्छेद कोदण्डान मुण्डानि कृपाधीः / अच्छाच्छत्राणि नांत्राणि धजांश्च न पुनर्भुजान् // 11 // अभांक्षीत् स्यन्दनान्नैत्र नन्दनान् // 403 // समरांगणे / अपातयज्जगद्वीरो मुकुटान् सुभटांस्तु न // 12 // युग्मम् // का कथा संग्रहारस्य हारस्यापि प्रभोर्नहि / वीक्षणे स्वेक्षणे Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेशचरित्रम् / जरासन्ध कृष्णयो श्रीअमम नीते सांमुख्यं परसैनिकैः // 13 // विष्णोरेव प्रतिविष्णुर्धात्यः स्थितिमिति स्मरन् / स्वामी न त्रिजगद्वीरोऽप्यवधीन्मगधाधिपम्॥१४॥ | रथभ्रममिपान्मन्ये स्वाज्ञारेखां प्रभुः स्वयम् / स्तम्भाय परसैन्यानां रणोर्त्यां केवलं ददौ // 15 // महाबलस्य श्रीनेमेः साहाय्येन // 404 // यदुबजः। मारुतस्येव दावाग्निः पुनरुत्साहमासदत् / / 16 // स्फुरत्सवोत्कटाश्चक्रुयुद्धं यदुभटाः पुनः / मगधाधीश्वरबलैः सहाऽप्रति- | बलैरपि / / 17 / / तदाऽन्विष्यान्विष्य पाण्डुतनुजैः कौरवा रणे। वने दुमा इवामूलादुदमूल्यन्त कुञ्जरैः॥१८॥ श्रीनेमेरुपचारेणायुविदोऽथ बलं बलः / लब्ध्वा व्यरीरमदऽरीन् दीपानिव समीरणः // 19 // जरासन्धबलाम्भोधिर्यदुपोतान्तरेऽखिलः। यदेत्य मनः श्रीनेमेयोंगिनस्तद्विजम्भितम् // 20 // परिग्रहाद् बलवतां क्रमते विश्वविग्रहे / अल्पोऽपि वातोद्धृतो यत् पांशुर्विश्वदृगान्ध्यकृत् // 21] स्वेषां बहूनां वीराणां तनूजानां च संक्षयम् / बीक्ष्य क्रुद्धो जरासन्धो जगादेति जनार्दनम् // 22 // शौर्यलक्ष्मीनाव्यशिक्षाभृकुंसः SE] कंसभूपतिः। मल्लकौतूहलं पश्यन्नरे जध्ने त्वया च्छलात् // 23 // उत्फाले सिंहवत्काले युद्धोत्तालेऽनुचेलुपि / नष्ट्वा खं रक्षितुमगास्वं वार्द्धिपरिखां पुरीम् // 24 // रेरे गोपाल तद्वाल भृगाल इव केवलम् / भृरिमायोऽसि न पुनर्विहितास्त्रपरिश्रमः // 25 // नूनं देवेन | रुष्टेन पत्रमुत्क्षिप्तमद्य ते / त्यक्त्वा यदैवताद्रिं त्वमत्रागाः पुरतो मम // 26 // तब्रूहि कुक्षौ निक्षिप्तः कस्यां कंसस्वयाऽस्ति रे। तमाकृष्य जीवयशःप्रतिज्ञा पूरये यथा // 27 // सित्वा प्रत्यवदत्कृष्णः सतृष्णस्वं रणेऽसि चेत् / तदेहि शिक्षये तं त्वामहं शास्त्रज्ञ*मप्यहो // 28 // मया प्राग्मृगधूतन कंस कुम्भीव कौतुकम् / हत्वाऽस्ति दक्षिणे कुक्षौ क्षिप्तो जीर्णश्च कोलवत् // 29 // करिष्यतेऽधुना वामकुक्षेः शून्यस्य पूरणः। कुरंगेन्द्रो भवान्मत्तमातंगैकविदारणः // 30 // त्वद्वत्स्वश्लाघनो नाऽस्मि किन्तु त्वं पूरयिष्यसे / पुत्र्याः | प्रतिज्ञा मत्वगधारातीर्थनिषेवणात् // 31 / / अलं विलम्ब्य ढौकस्व पितृमातुर्जनस्य च / पुन्याश्च सार्थ एकोस्तु कुटुम्बस्याऽवियोग // 40 // Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 405 // दिव्यास्त्रमोचन द्वयोः कृत् // 32 // स्वपति नान्वगात्कंसं त्वत्पुत्री यत्तदा ध्रुवम् / तत्तस्य सकुटुम्बं त्वां सोत्कण्ठमिव मीलितुम् // 33 // श्रुत्वेति मगधः क्रुद्धोऽमुंचत्प्राणहरान शरान् / कृष्णोऽप्यकर्तीत्स्ववाणैर्भानुमघोत्करैखि // 34 // मल्लाविव तर्जयन्ती गर्जन्तौ वारिधी इव / युयुधाते क्रुधा तेजोदुग्रहौ तौ ग्रहाविव // 35 // सिंहधानैर्द्धनुर्धान रथध्वानस्तयोस्तदा / ब्रह्माण्डमाण्डं पुस्फोट दिवि देवाश्च तत्रसुः॥३६।। तयोर्नाराचजातेन जाते नभसि दुर्दिने / खेचरीणां सुरीणां चान्तर्दधे रणवीक्षणम् // 37 // रथद्वयस्य क्षोणिभृवयस्येव गतागतैः / / लेभे महीमहेलेव हेलया कम्पसम्पदम् // 38 // तयोर्महाभरभ्रश्यद्भू द्धारायाससान्द्रितैः / मुखश्वासैः फणीन्द्रस्योच्छाल्यन्ते स्म पयोधयः॥३९॥ कुलाचलाश्चलन्तश्च निश्चला अपि लेभिरे / क्षोणीपालनकान्दोलकौतुकं बालका इव // 40 // युग्मम् / अत्रौघं वाय- | | समिवायसमप्यात्महेतिभिः / रणक्षेत्रे जरासन्धस्याधोऽधस्तक्षजोऽक्षिपत् / / 4 / / क्षीणान्यशस्त्रोपायोऽथ बाणे स्वे मागधो न्यधात् / | जैत्रं द्विपोऽसमाग्नेयं वाग्नेयं स्वमुखे यथा // 42 // पुस्फुरेऽनिन्धनस्यापि तत्र चित्र हविर्भुजः / ज्वालाभिः कालवेतालमुखोल्काभिरि वाभितः // 43 // तदाकुलं निजबलं वीक्ष्य कृष्णोऽमुचजवात् / महास्वं वारुणं तस्य वारणं मेघकारणम् // 44 // तेन गर्जद्घनघटाटो| पात्कोपादिवाभितः / व्यध्याप्यताऽग्निर्मगधप्रताप इव धावता // 45 // नीतं यशोवत् स्खं सैन्यं मालिन्यं मलिनैघनैः। प्रेक्ष्याऽस्त्रं पावनं | राजाऽतनोत्तदपनोदनम् / / 46 // अमानैः पवमानस्तैर्दुदिनाडम्बरेऽम्बरात् / उत्सारिते स्फुरद्ध्वानबिभ्राणेनेटवद् भ्रमिम् // 47 / / सभेव | श्रीजरासन्धसेना प्राप्यत सम्मदम् / आय हरिसेना तु बाढं संकोचदुःस्थताम् / / 48 / / युग्मम् / / वायोर्वाधां न्यषेधत्तां चिकित्सक इवाऽच्युतः / सप्रभावं प्रयुज्याशु वाताशनमहौषधम् // 49 / / यशोदुग्धैः समं पीते वाते फणभृतां गणैः / दश्यमानां फणाघातैः स्वसेना दयितामिव // 50 // दृष्ट्वा नरेन्द्रो निस्तन्द्रो गारुडं चारुडम्बरः / अस्त्रं व्यापारयद् वस्त्रमिवारातिविमोहकृत् // 51 // युग्मम् / / परो 405 // Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेश चरित्रम् / जरासन्धेन मुक्तं चक्रम् // 406 // | लक्षैः स्वर्णपक्षः स्वर्णाद्रिशिखरैरिख / धावद्भिर्गगने व्याला व्यालतां निन्यिरे ऽद्भुतम् // 52 / / तामसं नाम संग्रामकौतुकी केशवः | पुनः / अखं प्रायुक्त मार्तण्डमण्डलंगिलरात्रिकृत् / / 53 / / जगदृशामन्धपट्टैस्तमोभिर्मगधेशितुः / स्खलद्दलन्मियः सैन्यं दैन्यं भेजे- भिघाततः // 54 // अस्त्रं विकतनं वैरिकर्तनो मुमुचे नृपः / परःसहस्राज़म्भि सहस्रांशुभिरम्बरे // 55 / / कृष्णो महाब्ददुरितापतृष्णाकुलं बलम् / स्वं वीक्ष्य राहवीयाखमाहबीयोऽक्षिपद् द्विपे ॥५६अबाहुभिरपि व्योग्नि राहुभिगिलितास्ततः / ते सहस्रकराश्चित्रमसंख्या वैरिवीरवत् / / 57 // रंका इव निराकास्ते भूयांसुहितास्तदा / खरं डुढौकिरे राजमण्डलेष्वपि सर्वतः॥५८॥ व्यथिताशेषदिव्यास्त्रवृन्दान् ज्ञात्वाऽत्यभंतुदान् / विधुतुदान् जरासन्धो हन्तुं चक्रं व्यचिक्रमत् // 59 / / राहून वाहूनिव च्छित्त्वोच्छेत्तुं तन्ना- 19 यकं हरिम् / आदेशतः प्रतिहरेश्चक्रे चक्रमभिक्रमम् // 60 // शम्पासंपातवजातवेदःपुंजानिवोद्वमत् / अन्तरा यदुवीराणां महास्त्राण्यपि | भनयत् // 61 // विद्याधरासुरसुरच्योनि त्रासपरभृशम् / वीक्ष्माणां महावीरप्यधीरैरिव क्षितौ // 62 / / मृले दृढेरपि नृपैनंदीश्रोतोद्भ्रमैरिव / आगादऽस्खलितं वेगात् सन्निधावच्युतस्य तत् // 63 // त्रि०वि० // तेन चित्रं सहस्रांशुसहस्रद्युतिनाऽप्यहो / लेभे मुखेन्दुः | कृष्णस्य नैर्मल्यमधिकं तदा // 64 / यसैन्यभरत्याकुलः कोलाहलैस्तदा / ध्रुवं तत्कुलदेव्योऽधुः क्षोभं तत्वविदोऽप्यहो // 65 // | जयलक्ष्मीक्षिप्त केलिसौवर्णाम्भोजविभ्रमम् / विभ्रचक्र हरेर्वक्षो नाभिपिंडिकयाऽस्पृशत् // 66 / / मुक्तं हरेः शिर छेत्तुं जरासन्धो व्यलोकयत् / स्वचक्रं सत्करे स्थाग्नु जातभेदमिव द्विधा // 67 / / गन्धाम्बुपुष्पवर्ष च सहर्ष निर्ममे सुरः। कृष्णोऽभून्नवमो वासुदेवो| ऽरमिति घोपिभिः // 68 // पूर्वाब्धिरकं कल्लोलेनेवोल्लास्याऽथ पाणिना / चक्रं हरिजंगादेति जरासन्धं कृपाधीः // 69 // ममेयमपि | किं ? माया मामायासीत्स्वयंवरा / यच्च चक्रव्याजतस्ते श्रीविमृशाऽद्यापि तन्नृप ! // 70 / / जीव मत्पदराजीवपट्पदीभूय मुंश्व च / / सर्ग-१० ||406 // Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 407 // स्वचक्रेण जरासन्धमस्तकच्छेदः कृतः लक्ष्मी स्वाख्यां माऽभिमानात् कुरु द्वेधा निरन्वयाम् / / 71 / / जरासन्धोऽभ्यधादन्धो मदेन किमु कृष्ण ! भोः / चक्र प्राप्य मदु* छिष्टं छत्रधार इवाभवः / / 72 / / रेरे हस्तगतेऽप्यस्मिन् विश्वसीर्मा स जन्मतः / मयैवं लालितं मह्यं हृद्भिदे तत्कथं ? यतः // 73 // | अथात्रा प्रत्ययस्तर्हि मुश्चेदं मयि रे द्रुतम् / उल्मुकादिव काऽस्माद् भीश्चिरं मे दृष्टशक्तितः // 74 // श्रुत्वेति केशवो ज्वालाजटालममुचत् ततः / चक्रं चक्रे जरासन्धस्कन्धबन्धं च तद् द्विधा / / 75 // सर्वे स्वेनैव चक्रेण हन्यन्ते प्रतिविष्णवः / पुत्रोऽप्यरीयति क्षीणे भाग्य चक्रस्य का ? कथा // 76 // मूर्धागात् प्रथमां पृथ्वी जरासन्धस्य कौतुकम् / एकयोगेपि जीवस्तु चतुर्थी कर्म| गौरवात् // 77 // हर्षाजयजयेत्युचैजल्पन्तः खेचरामराः / कृष्णस्योपरि देवद्रुपुष्पवृष्टिं वितेनिरे // 78 // द्विपद्भपास्ततो रोधान्मुक्ताः श्रीनेमिना तदा / ऊचुः प्राञ्जलयोऽवज्ञा क्षाम्य नखिजगत्पते ! // 79 // किं चित्र मगधाधीशस्याऽभूद् यत्प्रतिभूमृतौ / / स्पर्द्धा कृष्णेन यत्पक्षे प्राप्तो विश्वप्रभुभवान् / / 80 // प्रतिविष्णु निगृण्हाति विष्णुरेकोपि केवलम् / नव्योऽयं वीतरागोऽपि यत्साहाय्ये त्वमागमः // 81 // भवितव्यतया त्वत्संमुखीनाः स्मः कृता वयम् / दृष्टं च तत्फलं रक्ष रक्ष नः शरणागतान् / / 82 // स्वीचक्रे केशवस्तांश्च राज्ञो नेमेनिदेशतः। जारासन्धि सहदेवं समुद्रविजयस्य तु // 83 // दत्वा मगधतुर्यांशं सहदेवं न्यवेशयत् / जरासन्धपदे कृष्णो जयस्तम्भमिवात्मनः ॥८मा सामुद्रिं च महानेगि के सौर्य पुरे स्वयम् / हिरण्यनाभज रुक्मनाभ | कोशलानायकम् / / 85 / / राज्ये निराकृते चोग्रसेनेनैतस्य नन्दनम् / शाङ्गभृन्मथुराराज्ये धराभिधमतिष्ठिपत् // 86 // संस्कारं प्रेतकार्य | च हरिः स्वेषां व्यदीधपत् / जरासन्धादिकानां तु सहदेवस्तदाज्ञया // 87 // संहारप्रतिभूः पत्युः पितुश्च सकुलस्य या / साऽग्नौ | जीवयशाः प्राणानऽजुहोन्मातृभिः सह / / 88 / / तदानीं च जरासन्धदुःखादिव दिवाकरः / पराब्धौ वडवावन्हावन्हाय स्ववपुर्यधात् / / 407 // Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 408 // // 89 // तदा श्रीनेमिनाथेन सत्कृतो मातलिः स्वयम् / सहेन्द्रस्यन्दनो वेगाद् विसृष्टोऽगात्त्रिविष्टपम् / / 90 // स्वस्वावासेषु भूपालान् सायं कृष्णो व्यसर्जयत् / तातमागमयांचक्रे ससमुद्रः स्वयं पुनः // 91 // वैताढये नीलकण्ठायैः खेचरैः पूर्ववैरिभिः / सार्द्ध युद्धं वितन्वाने वसुदेवे नभःस्थितैः // 92 / / आसन्नैर्देवतावृन्दैरुच्चैरित्युदघुष्यत / जरासन्धो हतः कृष्णोऽभूद् विष्णुर्नवमो जयी॥ // 93 // युग्मम् // जरासन्धवधं ज्ञात्वा तद्गृह्याः खेचरास्ततः / मुक्त्वा युद्धं क्षमयित्वा वसुदेवं समाश्रयन् // 94 // विद्याधरेन्द्रो मन्दरवेगः स्वभगिनीं ददौ / प्रद्युम्नाय स्वपुत्री तु भूपतित्रिपथपभः / / 95 / / भूपौ देवर्षभवायुपथौ तु तनुजे निजे / ददतुः परया शाम्बकुमाराय मुदा तदा // 16 // प्रातरेत्य द्वितीयेऽसि कृष्णं प्रद्युम्नशाम्बवान् / खेचरैः सोपदैर्युक्तो वसुदेवोऽभ्यनन्दयत् // 97 // स्वर्णरत्नरथाश्वभभूषणाद्यैरुपायनैः / अभ्यर्च्य खेचराः कृष्णं स्वामिन प्रतिपेदिरे // 98 // कूर्दन्ते स्म यदानन्दं यादवास्तेन केशवः / अस्थापयत् सिनपल्लीस्थाने आनन्दपत्तनम् // 99 / / ततः स्थानाद् वृतः सर्वैः खेचरैर्भूचरनृपः / भरतार्दू साधयित्वा मगधोयाँ हरिययौ / / 400 // तत्रैकयोजनायामां विस्तारेऽप्येकयोजनाम् / शिलां कोटिशिलां नाम देवताभिरधिष्ठिताम् // 1 // सान्वयाख्यामुद्दधार हरिर्खामेन पाणिना / उर्ध्व पृथ्वीतलाधावल्लीलया चतुरंगुलीम् / / 2 / / युग्मम् / / तां छत्रबद्दधावाद्यो हरिमोलौ द्वितीयकः / गले * तृतीयस्तुर्योऽपि दोर्मध्ये हृदि पश्चमः // 3 // कट्यां पष्ठः सप्तमस्तु निजोर्वोर्जानुनोः परः। चतुरंगुलमन्त्योऽवसर्पिण्यां ते त्रुटबलाः // 4 // भरतार्द्ध विजित्यैवं वबले द्वारका प्रति / राज्ञा पोडशभिः सार्द्ध सहस्रः श्रीजनार्दनः / / 5 / / किंकिणीकंकणालीभिर्वाचालान् | खान् भुजानिव / ध्वजानुल्लास्य सल्लास्यं तन्वती श्रीपथोच्छ्रितान् // 6 // स्वर्णरत्नमयैर्मश्चरुच्चैर्देवनिर्मितैः / कुर्वाणां सुरनारीणां मनः स्वावासनिस्पृहम् / / 7 / / गन्धोदवृष्टिसंजातगन्धनद्या नदीपतिम् / सुगन्धयन्ती सर्वांग पत्युभक्तजनाग्रिमम् // 8 // मन्दारपु. जिनेशचरित्रम् / कृष्णविजयः भरतार्दू साधयित्वागतस्य द्वारकाप्रवेशवर्णनम् सर्ग-१० // 408 // Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 409 // प्रवेशे नगरस्त्रीणां चेष्टा पप्रकरस्फुर गीरुतैस्ततैः। आकृष्य वाहनमृगं स्थापयन्ती सदागतिम् // 9 // प्रतिस्थानं स्वस्तिकौघमुक्तमुक्तारुचिच्छलात् / हसन्ती* मिव देवानां पुरीं संक्रन्दनाधिपाम् // 10 // शुभेऽन्हि प्राविशत्कृष्णो द्वारका द्वारकान्तिभिः / नानामणिगणोत्थाभिः सूत्रितानेकतो- रणाम् // 11 // पं० कु०॥ प्रतिमञ्च सप्रपञ्च वेश्याभिर्विहितं सच / कर्पूरारात्रिकं मार्ग प्रत्यैच्छद् बन्दिभिः स्तुतः / / 12 / / जगद्विजयिनस्तस्य प्रवेशोत्स|वमीक्षितुम् / प्राप्तानां पौरनारीणामित्यवल्गि विचेष्टितैः // 13 // काचित्तालीदलं कर्णस्थितं प्रेर्य मुखानिलैः / मन्ये ददौ खवैदग्ध्ये *पत्रं प्रौढांगनाविव // 14 // कृष्णे स्ववीक्षानिस्तृष्णे हीनमत्कन्धरा परा। धन्वाक्रष्टुमिवाघ्याचत् स्मरं हृद्वेश्मवासिनम् // 15 // | उच्छलन्ती क्वणत्काञ्चीकिंकिणीमणिकंकणम् / कृष्णेक्षिता च वैदग्ध्याऽभृद् गोंडुरा परा // 16 // उच्चर्मश्चेऽधिरूढापि काचिन्न्यश्च|न्मुखी हरिम् / स्वकण्ठात्पेतुषा पुष्पदाम्नाऽभ्याऽलपत्तराम् // 17 // केलिहंसैरनुगम्यमानैका वेगगामिनी। कृष्णं दृष्ट्वा हंसगति मुमोचाशु भयादिव // 18 // पद्मरागगवाक्षस्था शशिगौरी स्वमाख्यत / काचित् क्षीराहूतीभूतं कृष्णस्य विरहानले // 19 // श्वश्रू मुहुः | कठोरोक्त्या वारयन्ती च पृष्ठतः / काचिन्नाजीगणन्मत्ता हस्तिनीवांकुशस्थितिम् / / 20 // पश्यन्निति पुरणलीलाः शाङ्गधरः क्रमात् / | प्रासादमासदत् स्वस्य वारस्त्रीक्लुप्तमंगलः // 21 // तत्राऽमरैः खेचरैश्च भक्तिभाग्भिनरेश्वरैः। विष्णोचक्रे चक्रितसाऽभिषेकमहोत्सवः | // 22 // अश्वभरत्नाभरणस्वर्णाद्यैस्तस्य वस्तुभिः / स्वराज्यसारैः सर्वेऽपि मांगलिक्यानि निर्ममुः।।२३।। स्वस्वस्थानाय सत्कृत्य सुरान् विद्याधरान्नृपान् / व्यस्राक्षीत् पाण्डुपुत्रांश्च कुरुदेशाय केशवः॥२४॥ वनमाला मणिः खङ्गः शंखश्चक्रं धनुर्गदा / अभूवनिति रत्नानि सप्त तस्याऽर्द्धचक्रिणः // 25 // सदांगरक्षादक्षाणां यक्षाणां चान्तिकस्थिताः / अष्टौ सहस्राः कृष्णस्य सेवांचक्रुः पदातिवत् // 26 // // 409 // Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 410 // दशाहेर्दशभिः श्रीमत्समुद्रविजयादिभिः / महावीरैर्बलदेवप्रमुखैरपि पञ्चभिः // 27 // सहस्रैश्च षोडशभिरुग्रसेनादिभूभुजाम् / प्रद्युम्ना जिनेशदिकुमाराणां सार्द्धकोटीत्रयेण च // 28 // षष्ठ्यासहस्रः शाम्बादिदुर्दान्ततनुजन्मनाम् / सहस्रैरेकविंशत्या बीरसेनादिभिभटैः॥२९॥ चरित्रम्। षष्टपञ्चाशत्सहरुया च महासेनादिभूभृताम् / महीयसां तळवर्गनियुक्तानां महौजसाम् // 30 // अन्यैरपि श्रेष्ठिसार्थवाहेभ्यप्रमुखैः सदा। वासुदेवसहस्रसंख्यैः पादाब्ज कृष्णस्याऽसेवि गवत् // 31 // पं० कु० // राज्ञां षोडशभिर्भक्त्या सहस्रैरथ विष्णवे / द्वे द्वे कन्ये अढौक्येतां परिवार कथनम् सरत्नप्राभृते पृथक् // 32 // तासूपयेमे षोडशसहस्रीं श्रीजनार्दनः / बलोऽप्यष्ट सहस्राणि कुमारा अपि तावतीः॥३३॥ चक्रवर्तिकमला* ईमच्युतस्यैवमत्र हृदयालुशेखरः / वर्णनीयमखिलं जिनागमप्रोक्तमन्यदपि सूरिपुंगवैः // 34 // अममचरिते भाविन्येवं तयोः सहजन्मनोर्बलहरिभवे तुर्ये धुर्येऽर्जनाय जिनश्रियः।प्रतिहरिजयादेकच्छत्रां महीमनुशासतोः सुरभव इवौपम्यातीतैर्ययुः दिवसाः सुखैः।३५। इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते श्रीअममस्वामिचरिते महाकाव्ये तुर्यभवे जरासन्धवध-वासुदेवदिग्विजय-द्वारकाप्रवेशअर्द्धचक्रवर्तिपदाभिषेकोत्सव-तद्विभूतिवर्णनो-दशमः सर्गः // 60 436 // एकादशः सर्गः। | सर्ग-११ इतः कृष्णप्रसादेन पाण्डवैः स्वपुरे सुखम् / सद्रौपदीकैद्धैधापि विषयश्रीरभुज्यत // 1 // द्रौपद्याश्चाऽन्यदा सौधमागात् केलि // 410 // प्रियो मुनिः। तं चाऽविरतमित्येषा नैवायदवज्ञया // 2 // अनार्या दुःखभाक् कार्या कया युक्त्या खसाविति / ध्यायंस्तद्गेहतो. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 411 // द्रौपदीहरणम् रुष्टो दुष्टो निरगमन्मुनिः // 3 // द्वीपेत्र कृष्णभीत्याऽस्या अनालोक्याऽप्रियंकरम् / पातकी धातकीखण्डभरतेऽगात् स कोपनः।।४॥ तत्र चम्पेशकपिलविष्णोर्माण्डलिकं स च / पद्म स्त्रीलम्पटं प्रापाऽमरकंकापुरीस्थितम् // 5 / / सत्कृत्य समुनिस्तेन प्रदान्तःपुरीनिंजाः। | अभाणि दृष्टाः प्रेयस्थस्त्वयेदृश्यः परस्य किम् // 6 // स्वार्थसिद्धिं विदस्तस्मात् स स्मिखोचे कलिभियः। छेकोऽपि कूपभेकोऽसि |स्तवीष्येता अपीह यत् // 7 // जम्बूद्वीपे भारतेऽस्ति हस्तिनापुरभूभृताम् / पाण्डवानां प्रिया द्रौपदीति सदूपदीप्तिभृत् // 8 // मन्ये यद्रूपनिर्माणाऽवशेषैः परमाणुभिः / सृष्टा अप्सरसोऽप्यन्जभुवा यां ययुहिया // 9 // यास्तस्याः पदरेणूनामपि नार्यन्ति पोडशीम् / कलां छेककलाहीन ही न जिहेषि ताः स्तुवन् // 10 // इत्युद्दीपयितुं रागानलं मुर्मुरवड्वचः। मुनिः क्षिप्या पद्महृदि प्रेमकक्षेऽन्यतो ययौ // 11 // द्रौपदी व्यक्षरां विद्यामिव पद्मो जपन्नथ / अन्तःपुरपराधीनो योगीवोदमानायत // 12 // उपायं द्रौपदीप्राप्तावपश्यन्नEन्यमुत्सुकः। पद्म पातालगं देवं प्राग्मित्रं तपसाऽस्मरत् // 13 // सुरः किंकरवत् साक्षाद्भुतस्तेनाऽभ्यधीयत / आनीय द्रौपदी राग नाट्यनान्दी ममार्पय // 14 // दुर्विद्यायामिव द्रौपद्यामद्याऽभूद् भ्रमस्तव / खानायैव सा नान्यं यदिच्छेत्पाण्डुजान्विना // 12 // त्वदाग्रहादिहाऽऽनेष्ये तामहं वं तु सूत्रयेः / विपचिकित्सामित्युक्त्वा पद्मं देवो ययौ कुरून् // 16 // युग्मम् // तत्र गत्वा गजपुरे * सौधे सुप्तां सुरो निशि / दखाऽवस्वापिनीं भर्तयऽहरद् द्रौपदी द्रुतम् / / 17 / / समर्प्य पद्मनाभस्य तां सुरोऽथ तिरोदधे / हहा कुर्व न्त्यकृत्यानि वाचा बद्धाः सुरा अपि // 18 / / प्रबुद्धा पमिनीवाऽथ सझनीति प्रगे पुनः। अपश्यन्ती द्रौपदी हा किमभूदित्यऽचिन्त* यत् / / 19 // तामन्तर्मनसं किश्चिद्ध्यायन्तीं योगिनीमिव / सव्याधिमिव चास्वस्थां मृगीवत्तरलेक्षणाम् // 20 // पद्मनाभोऽवदत् भद्रे स्वाभद्रे मा स्म शंकिनी / भूस्त्वमानायिताऽस्यत्र मया दैवतशक्तितः॥२१॥ युग्मम् / / खद्रूपं नारदाद् ज्ञात्वाऽभूवमुत्कण्ठितस्त्वयि / // 411 // Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअममतर्भुव मयका साई भोगान् देवी द्विधा भव // 22 // द्विपेऽस्मिन् धातकीखण्डेऽमरकंकाभिधा पुरी / राजाऽस्यां पद्मनाभोऽहं भावी P|| जिनेशसम्प्रति ते पतिः॥२३।। भूतानामिव भतॄणां पञ्चानां हन्त गोचरे। क्षिप्ता दुर्विधिनाऽऽकर्षमबलां त्वामहं भटः॥२४॥ सौभागिनेयि! चरित्रम् / तन्मुश्च सहजामपि भीरुताम् / भजस्व मामिवानन्दममन्दमुदितोदितम् / / 25 / / कृतप्रतिकृतं ज्ञात्वा नारदस्यात्मनि स्फुटम् / मखा- // 412 // ical धातकीखंऽनुपदिनो भनन् स्वान् कृष्णबलतो ध्रुवम् / / 26 / / भोगाप्तिः स्यात्प्रतिभवं भोगीन्द्रस्येव देहिनः। सुधालील पुनः शीलं न क्वापि | डीय पद्मसुकृतेविना // 27 // शीलरत्नं ततो रक्ष्यममुष्मात्पश्यतोहरात् / अयं तु मृो विश्वास्यो रागान्धीकृत्य सद्विरा // 28 // ध्यात्वेति | प्रार्थिता द्रौपदी प्रोचे राजन् ! मासान्तरे यदि / कश्चिन्मदीयो नागन्ता प्रपत्स्ये खां तदा पतिम् // 29 // युग्मम् / / जम्बुद्वीपभुवामत्रागमनं द्रौपदीम हासतीछद्मपक्षिणामपि / असम्भाव्यं मनुष्याणां निःपक्षाणां तु का कथा ? // 30 // विचिन्त्येति च्छद्मसापद्मनाभः स्वचेतसि / एवमस्त्विति वचनम् तद्वाचं मेने ज्ञान व कामिनाम् // 31 // द्रौपद्यपि सतीचूडामणिरभ्यग्रहीदिति / मासान्तेऽपि न भोक्तव्यमदृष्ट्वा पाण्डवान्मया / 32 / पाण्डपुत्रा अपि प्रातरदृष्ट्वा द्रौपदी गृहे / अन्विष्यन्ति स्म सर्वत्र शैलोद्यानादिकेष्वपि // 33 // दूरेऽस्त्वस्याः पदमुद्रा वार्तापि प्रापि के तैनहि / गृहीतानामनिमिपैरुपलब्धिः पुनः क्व ? तु // 34 // निजबन्धोः शरण्यस्य गत्वाऽऽख्युस्तेऽथ शाङ्गिणः / प्रेयस्याः प्रियस-1 ख्येव ब्रीडयाऽपि रुपोज्जिताः // 35 // प्रौढोऽपि कृत्यमूढोऽस्थाद्यावत्कृष्णः क्षणं तदा। स्वकृतं नारदस्तावदऽन) द्रष्टुमागमत् // 36 / / सोऽशंसद् द्रौपदीशुद्धिं पृष्टः सत्कृत्य विष्णुना / यथाऽहं धातकीखण्डेऽमरकंकापुरीमगाम् // 37 // अद्राक्षं द्रौपदी पद्मनृपसद्मनि तत्र सर्ग-११ च / इत्युक्त्वा पारद इबोडीयाऽगात्स क्वचित्ततः // 38 // युग्मम् / / उवाच पाण्डवान् कृष्णोऽनथोंऽयं वोऽमुना ध्रुवम् / असत्कृतेन // 412 // Hद्रौपद्या चके क्रोधकसमना // 39 // प्रत्यानेष्ये तथाप्येतां खिद्यध्वं मा स्म किश्चन / सवराको न मे दुरे भूरेणुर्मरुतो यथा // 40 // Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 413 / / तानित्युक्त्वा ससैन्योऽथ जगाम वरदामनि / दक्षिणाब्धेस्तटे वैरिदक्षिणापतिरच्युतः // 41 // तत्रोचे पाण्डवैः कृष्णः स्वामिन् ! फेना-* दृहासभृत् / वार्डी रौरवानलवाले रक्षोवत्क्षोभयत्ययम् // 42 // महामीनपीनपृष्ठोच्छालसैवालकोटरे। भूभृद्भिः स्थीयते लीनरिन्द्र- द्रौपद्यानयवज्रभयादिह // 43 / / अस्मिन्नभ्रंलिहोल्लोलविलोलद्भूभृतामपि / ग्रासैकग्रहिलैलशकुलैरपि वल्ल्यते // 44 // वेलन्धराः सुराश्चात्र | नार्थ *सुस्थितदे| धीवरा इव पीवराः / अगाधे वारिसम्बाधे भ्राम्यन्तो भीतयेऽभितः॥४५।। इहोमिवमितैयोमगत्वरजलकुञ्जरैः। विलोप्यन्ते घनघ वाराधनया टा गर्जगजघटा इव / / 46 / / वाताः संवर्तकाश्चास्मात्स्फुरन्ति भयहेतवे / हेलयोच्छलितात्युच्चचंचन्मकरकेतवः // 47 // मापिंडकुण्ड सपाण्डुपुत्रलीभृतभोगिभोगाकृतिस्थितिः / वेगात्तालैर्विषोच्छालैरयं दत्ते भयं भृशम् // 48 // कृष्णस्यामखांगे भरं हरं चायं विपस्याहनिशं दधत् / मन्ये मांत्रिकवत्सत्यं विषपीयूषयोजनिः॥४९॥ दुर्लध्यस्तदयं देवैरपि मत्यैस्तु | रकंकागका कथा / युगक्षयक्षणारम्भप्रवणो लवणोदधिः॥५०॥ नवभिः कु० // चिन्तां मुञ्चत वीक्षध्वमित्युक्त्वा पाण्डवान्हरिः। तपसाऽऽ मनम् | राधयामास तीरस्थः सुस्थितं सुरम् // 51 // स प्रत्यक्षोऽवदत्देव ! समादिश करोमि किम् ? | कृष्णोऽप्याख्यत पझेन धातकीखण्डवासिना // 52 // हृताऽस्ति भृभुजा भ्रातृजाया मे द्रौपदी च्छलात् / तामानये यथा शीघ्रं समुद्रेश ! तथा कुरु // 53 // युग्मम् // जगाद सुस्थितो हृत्वा सुरः प्राग्लौल्यतो यथा / पद्मस्याऽढौकयत्कृष्णां तथाऽहमपि तेऽपये // 54 // यद्वा क्षिप्वाऽम्वुधौ पद्म ससैन्यमपि ते रिपुम् / पाञ्चालीमर्पये नाथ ! मामाज्ञापय किंकरम् // 55 // विष्णुर्जगाद मा मैत्रं का मार्ग त्वनर्गलम् / रथपदकस्य तोयान्तः पाण्डवैः सह देहि मे // 56 // तत्र गत्वा स्वयं जित्वा तं वराकं रणे यथा / कृष्णां गृहीत्वाऽऽगच्छामो वयं वीरक्रमो ह्ययम् // 413 // // 57 // तथाकृते सुस्थितेन विष्णुः पाण्डुसुतैः सह / योगीवाऽब्धि स्थलीभूतमुल्ललंधे रथैः क्षणात् // 58 // गत्वा चामरकंकायां बहिः Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेशचरित्रम् / पद्मसैन्यत्रासिताः पाण्डुपुत्राः श्रीअमम स्थित्वाऽनुशिष्य च / सारथिं दारुकं प्रेपीद्धृतं पद्मान्तिके हरिः // 59 / / पादपीठे हटेनास्य न्यस्याही भृकुटीं दधत् / लेख समर्प्य कुन्तेन स पद्ममिदमभ्यधात् / / 60 // प्रथमद्वीपभरतहस्तिनापुरतस्त्वया / श्रीवासुदेवबन्धूनां वल्लभा पाण्डुजन्मनाम् / / 61 // कृष्णा सुरेण चौ- // 414|| रेमाऽपहार्याऽऽनायिताऽस्ति या / साय॑ताम्भोधिनाऽप्याशु दत्तमार्गः स्वयं यतः // 62 / / नां प्रत्याहर्तुमायातः श्रीकृष्णः पाण्डवैः Me सह / मा विलम्बस्व चेद्राज्ये जीवितेऽप्यसि सस्पृहः // 63 / / त्रि०वि०॥ त्वया क्षत्रव्रतं वीरव्रतं शिष्टव्रतं तथा / लुप्या कुले च धर्मे च खस्मिंश्च युगपद् ध्रुवम् // 64 // लाञ्छनं दुर्यशः पापं दुरपोहमरोपि यत् / तत् कृष्णस्य खड्गधारातीर्थमुत्तारयिष्यति // 65 // यु०॥ पद्मोऽवादीत्तव स्वामी तत्रैवात्र तु दैवतः / तीर्वाऽब्धिमागाचेत् तस्कि ? पक्षीव क्षीबतामधात् // 66 // यत्खड्गधारातीर्थं च स्वविभो. स्वं ममाऽवदः / तद्भज्यमानं मीर रेकलोष्ठाऽभिघाततः॥६७।। कस्वायतेऽधुना यस्मादात्मषष्ठः कियानऽयम् / मत्सैन्याब्धौ सक्तु| मुष्ठिरिव निर्नाम मंक्ष्यति // 68 / / युग्मम् / क्षेमार्थी चेत्ततो यातु तव स्वामी यथागतम् / अथो मुमूर्पमूर्खस्तत्तूर्णमाह्वाय याहि रे He69 // इत्युक्तो दारुकस्तेन कृष्णायैत्य न्यवेदयत् / पद्मोऽप्यागात्तत्पृष्ठे युद्धसन्नद्धसद्धलः // 70 // बहुसिन्धुरसोल्लासवाहाभ्यागमभ रवम् / पारावारमिवाऽपारमायान्तमपि वेगतः // 71 // तं वीक्ष्य पुण्डरीकाक्षः स्मराक्षः स्थैर्यलीलया / व्यस्ताखिलकुलक्ष्माभृदऽप्राक्षीदिति पाण्डवान् / / 72 / / युग्मम् / / किं ? वीरकुञ्जरा पद्म स्वयमुन्मूलयिष्यथ / राजहंसानभीष्टेन मम धाराधरेण वा ? ||73 // तेऽम्यधुर्नाथ कार्येऽस्मिन् वयमेवाधिकारिणः / त्वत्साक्ष्यं तत्करिष्यामः पद्ममंकपदाच्च्युतम् // 74 // पृथ्वीनाथोऽद्य पझो वा वयं वाद्येति संश्रवम् / कृत्वाऽभिक्रम्य पद्मन सहायुध्यन्त पाण्डवाः // 75 // ते पद्मजन्मभिर्नव्यैर्दिव्यास्त्रैः प्रौढशक्तिभिः / महायला अप्यबलामतां प्राप्यन्त हेलया / / 76 // तेऽपक्रम्याऽवदन् वासुदेवं देवातिदुर्जयः। पद्मोऽयं सुरसाहाय्यदृप्तो जय्यस्त्वयैव हि ॥७७॥युग्मम् / / आक्षी- सर्ग-११ // 414|| Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 415 // विष्णुः स्मित्वाऽभ्यधात् पृथ्वीनाथः पद्मोऽथवा वयम् / इत्युक्त्वा संशयं यूयं यदा युद्धाय चेलिथ // 78 // मया तदैव पोन जिता* कृष्णकृतनइति विनिश्चिताः। मा खिद्यध्वं निरीक्षध्वं जीयमानममुं मया // 79 // युग्मम् / / पृथ्वीनाथोऽहमेवाद्य नतु पद्म इति ब्रुवन् / विष्णु- ENG चचाल युद्धार्थ शंखं जयसखं धमन् / / 80 // त्रिभागोनबलः पद्मः सद्यः शंखध्वनेरभूत् / मतेभ इव पारीन्द्रसान्द्रगुञ्जारवश्रुतेः // 8 // | प्रदशनम् तारैः कोदण्डटंकारमंत्रोच्चारैखिाऽस्य च / पुनस्त्रिभागोनबलः पद्म सर्प इवाऽभवत् / / 82 / / परिशिष्टबलत्र्यंशस्त्यक्त्वा द्वेधापि संगरम् / पद्मो नंष्ट्वाऽमरकंकां याम्यां ग्रह इवाविशत् // 83 // प्यदीधपत्प्रतोलीश्च सह लोहार्गला बलाः / पयः संकुचितः कृष्णशिलीमुखभयादहो।।८४।। अपमृत्याऽथ सप्ताष्टपदान्याश्रित्य लब्धितः / वेक्रियांगसमुद्धातं नृसिंहोऽभूत्ततो हरिः॥८५॥ यमकर्मारशालावद् विशालं विभृदाननम् / ज्वालाजिह्वसहजिह्मदंष्ट्राक्रकचभीषणम् / / 86 / / स्वप्रियाम्भोदनिर्भेदशंकातंकात् सकम्पया। सटाच्छटामिपादुद्यद्विद्युतेव निपेवितः / / 87 // मन्ये नखमिषान्नैकमूर्तिना पादसंस्पृशा। त्रातुं मृगं मृगांकेण प्रार्थ्यमान इवाभयम् // 88 // श्वेतोदस्तवालहस्तव्याजोच्छ्रितजयध्वजः। अन्तर्दीप्तक्रोधवन्हिशकटीविकटेक्षणः॥८९।। क्षोण्यब्जे केशरीभूतमृतिः स नरकेशरी। रेजे तदा मदाध्मातो रौद्रो रस इवांगवान् // 10 // पं० कु० // स्फूर्जदूर्जस्खलगलगर्जितर्जितदिग्गजाम् / स क्ष्वेडां विदधे साद्धं दुर्द्धरैः पाददर्दरैः // 9 // मृगोल व चक्रस्थःक्ष्मागोलस्ौरघूर्णत / झलज्दालायितं चक्रुर्वान्यि इस वाईयः // 9 / / पादानादस्थिराकारः * प्राकारस्तनुवत्ततः। दलच्छिखरदन्तौघः पुर्या नार्या इवापतत् // 13 // तद्भुजाभिरिवाभाजि परिवरप्ययोद्धैः / रथ्याकपाटैश्चास्फोटि तल्लोचनपुटैरिव // 94 // युग्मम् / / प्रलये सत्कुलानीव पेतुर्देवकुलान्यपि / तत्रादृकुट्टिमान्यापुः सैकतानीव चूर्णताम् / / 95 // प्राविशन् // 415 // | भृगृहेष्वेके शृगाला इव तत्र च / गर्तशूकरवद् गर्नेष्वेकेऽन्ये त्वातिवजले // 96 // अपरे मूर्च्छया पेतुः पृथ्व्यां पित्तादिता इव / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 416 // *प्रणेशुम॑गवत्केचित् परे रंका इवारटन् / / 97 // त्यक्तवीरव्रताःक्ष्मापवीराः कीरा इव द्रुतम् / उड्डीय सिंहनादेन नृसिंहस्येति दुद्रुवुः जिनेश // 98 // सच्चकै राजहंसश्चाऽवरोधालिगणैरपि / पाठीनैश्चाभ्यधायीदं पद्मः स करुणाक्षरम् / / 99 / / स्वामिन् ! कि? भञ्जयस्येवं स्वपुरी चरित्रम् / सरसीमिव / किमुन्मूलयसि ख च नरसिंहेन सम्प्रति // 100 // त्वया दुर्दैववातेनाऽपहार्य द्रुपदात्मजा / यत्स्वीचक्रे हिमानीवाऽ जीवितार्थी ज्ञानतः स्वविनाशिनी // 12 // अविमर्शविधायित्वं तदेकमभवत् पुरा / द्वैतीयीकं च तद्द्तस्यार्पिता मागिता न यत् // 2 // तार्तीयीकं * पद्मो राजा पतितः तु मा कार्षीः स्वराज्यप्राणनाशनम् / प्रत्यप्येतां ततः कृत्यां कृत्यज्ञ क्षेमभाग्भव // 3 // सीतामनपर्यन् लेभे राज्यप्राणकुलक्षयम् / कृष्णचरणदशकण्ठः कुण्ठबुद्धिविपदं कां न चाऽश्नुते ? // 4 // च० कु० // श्रुत्वेति पद्मो निश्छद्मोदितं तैर्भयभंगुरः / द्रौपदी शरणीकृत्याऽश- | योरपिता रण्यः प्रोचिवानिति // 5 // देवि ! क्षमस्व मेऽवज्ञामज्ञानस्य क्षमानिधे!। माताऽसि रक्ष रक्षाऽस्मात् ततः पुरुषसिंहतः॥६॥ साऽ- द्रौपदी | वादीत् स्त्रीवपुर्भूत्वा कृत्वा मां च त्वमग्रतः। नृसिंहं शरणं याहि जिजीविषसि चेन्नृप / / 7 / / पद्मोऽप्यथ तथाकृत्वा गत्वा नत्वा | जनार्दनम् / द्रौपदीमुपदीकृत्य प्राञ्जलिः प्रोचिवानिति // 8 // अज्ञानाद् यदिवा देवाद् भवद्भन्धुवधूमिमाम् / स्वामिन्नहृदयोऽहार्ष राहुरिन्दुतनूमिव // 9 // अखण्डवृत्तां तामेतां गृहाणाऽनुगृहाण माम् / पृष्ठे प्रयच्छ मे पाणिं वाणिं चाभयलग्नकम् // 10 // कृष्णोऽप्यकृष्णवद् त्रस्तमाश्वास्याऽभयदानतः / भूयोऽप्यमरकंकायां स्वकीर्तिस्तम्भवन्न्यधात् // 11 // समर्प्य पाण्डुपुत्राणां द्रौपदी वसुदेवभूः / तैः सार्धं वाद्धिमार्गेण ववले द्वारकां प्रति // 12 // तद्वीपचम्पोद्याने च पूर्णभद्राभिधे तदा / विहरबागमत् तीर्थकरः श्रीमु // 416 // | निसुव्रतः // 13 / / तद्वीपविष्णुः कपिलाभिधस्तं सदसि स्थितम् / पप्रच्छ शंखः कस्याऽयं ममेव श्रूयते ध्वनन् // 14 // जम्बुद्वीपकृष्णविष्णोः शंखध्वानोऽयमित्यमुम् / शंसन्तं कपिलो प्राक्षीत्स्यातामेकत्र किं ? हरी // 15 // वृत्तान्ते द्रौपदीकृष्णपद्मानां श्रीमद सग-११ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 417 // पद्मो निर्वा| सितो राज्यात कपिलवासुदेवेन हता / आख्याते कपिलो भूयोप्यप्राक्षीदिति केशवः // 16 // स्वामिन् ! कृष्णस्य किं जम्बुद्वीपार्द्धभरतेशितुः / करोम्यातिथ्यमतिथेरीदृग्योगः पुनः कुतः // 17 // जिनोऽवादीन्न तीर्थेशो न चक्री नार्द्धचक्रथपि / मिलेदऽन्यस्य नियमात् कार्यात् तत्क्ष्मां गतोऽपि सन् // 18 // संगच्छेते न पुण्याढ्यावेकत्र पुरुषावुभौ / सम्पूर्णतेजसौ व्योम्नि सूर्याचन्द्रभसाविव / / 19 / / इत्यर्हद्वाचमाकाऽप्याकुलः कपिलस्ततः / कृष्णं द्रष्टुमगादब्धेस्तटे तद्रथवर्मना / / 20 // मध्येसमुद्रमद्राक्षीत् स च कृष्णस्य गच्छतः / श्वेतान्पीतान् रुप्यहेमपत्राभान् स्यन्दनध्वजान् / / 21 / / अहं त्वामागम द्रष्टुं धातकीखण्डकेशवः / तदेहीति व्यक्तवणं स्वशंख कपिलोऽधमत् / / 22 / / साधु मैत्री त्वया व्याञ्जि दूरे किन्त्वागता वयम् / तदत्र किश्चिन्मा वादीरिति व्यक्ताक्षरध्वनिम् / / 23 // | अदैन्यं पाञ्चजन्यं खं कृष्णोऽप्यापूर्य संचरन् / कपिलं बोधयामास स्थितिः स्याजातु नान्यथा // 24 // युग्मम् // शंखध्वनि| मिति श्रुखा कृष्णं ज्ञात्वा च दूरगम् / कपिलो ववले विष्णुर्धवलेतरवक्त्ररुक् // 25 / / इत्याश्चर्य हरिवंशेऽवसर्पिण्यामजायत / चक्या| दयः खसीमां यन्नातिकामन्ति देववत् / / 26 / / स गत्वाऽमरकंकायां पद्म पप्रच्छ किन्विदम् / स्वापराधेनिवेद्येषोऽप्युपरुन्धंस्तमृचिवान् // 27 // सत्यपि त्वयि नाथेऽहं जम्बुद्वीपस्य विष्णुना / यत्क्लप्तेन पराभूतस्तेजोहाणिः तबैव सा // 28 // रेरे चेव विजातीयो। गृहे शूरोऽसि यत्ततः। विग्रहं हरिणा कुर्वन्नसमानौजसा समम् / / 29 / / मृतोऽसि यन्न तन्नाभूत् साम्प्रतं साम्प्रतं पुनः। मेहाऽस्थाः पाप चेत स्थाता सद्यः प्राणैर्वियोक्ष्यसे / / 30 / / निजाऽन्यायफलं मुंव गत्वैकाकीति कोपतः / कपिलोऽप्यरुणः पद्ममुक्त्वाशु निरवा|सयत् // 31 // त्रि०वि०॥ तद्राज्ये तत्सुतं न्यस्य स्वस्थानं कपिलो ययौ / दुर्नयं पुत्रमपि न क्षमन्ते हि क्षमाभुजः॥३२॥ इतश्च कृष्णोऽप्युल्लन्ध्याऽब्धिमूचे पाण्डवानिति / सुस्थितं यावदापृच्छे तावद् गंगा विलंध्यताम् // 33 // द्वाषष्टियोजनपृथुश्रोतो गांगं च बेडया। // 417 // Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 418 // तविकल्प उत्तीर्य रौद्रमस्ताघमप्येवं तेऽवदन्मिथः // 34 // ज्ञास्यतेऽद्य बलं विष्णोविना नावमसौ यदि / उत्तरिष्यति गंगा तदिहैव ध्रियतामि जिनेशयम् // 35 // इत्थं विधाय संकेतं पाण्डुपुत्राः परस्परम् / श्रित्वा कृतघ्नतां दैवरोपादुत्पन्नदुर्धियः / / 36 / / घूका इव निलीनास्तु तटि- चरित्रम् / नीतटकोटरे / कथं ? कर्मपरिणामः सतोऽपि नटयत्यहो // 37 / / युग्मम् / / उपगंगमितोऽध्यागात्कृतकृत्यो जनार्दनः / तत्राऽवीक्ष्य गंगोत्तीर्ण| तरी सर्वकर्मीणभुजविक्रमः // 38 // सवाजिन रथं धृत्वा दोणकेनापरेण तु / स्वयं गंगां तरन् मध्ये श्रान्तश्चैवमचिन्तयत् // 39 // पाण्डवाकयुग्मम् / / पाण्डवानामहोशक्तियत्तस्तेरे तरी विना। अगाधापि सरिनाथमूलकान्ता सरिद्वरा // 40 // गंगादेव्यपि तचिन्तां ज्ञात्वाऽ जन्यरोपेण स्ताघ(नाव)मदाद क्षणात् / स तां तीर्चा सुखेनापत्तटीमापत्तटीमिव // 41 // उत्तीर्णाः स्थ कथं ? गंगामिति कृष्णेन पाण्डवाः / पृष्टाः / निर्वासिता कष्टाद्विना नाथ ! नावेत्यावेदयन्मुदा // 42 // वालयित्वा तरी प्रैपि किं ? नेत्युचुषि केशवे / ते स्म प्राहुर्भवराहुबलं देव ! परीक्षि- कृष्णेन तुम् // 43 // आसन्नविपदा पुंसां विपर्यति मतिभ्रुवम् / शैले गर्जद्घनं हन्ति केशरी यच्चपेटया // 44 // क्रुद्धः कृष्णोऽवदत् किं मे दोर्बलं पाण्डवाः ज्ञास्यथाऽधुना / किं ? वार्द्धस्तरणे पारणेऽप्यास्त न सन्निधौ // 45 // कृतविद्यो गुरुं द्वेष्टि कृतकार्यः प्रभुं नरः / कृतपुत्रा पतिर्दृष्टि स्त्री| त्या न मृषा वचः॥४६॥ आक्षिप्येति रथांस्तेषां स ममर्दाऽतिनिदयः / लोहदण्डेन तत्राऽभूत्पत्तनं रथमर्दनम् // 47 // त्रि०वि०॥ स्थेयं मदाज्ञाभूमौ नेत्युद्भः कंसनिपूदनः / कृत्वा निविपयान् पाण्डुपुत्रान् ख कटकं ययौ / 48 // ततः ससैन्यः कृष्णोऽगात्स्वां पुरी नातोरणाम् / परेऽपि स्वपुरे गत्वा सर्व कुन्त्यै न्यवेदयन् // 49 / / विश्वस्यात् कर्मणां को नु? महात्मानोऽपि यैरिमे / चक्रिरे बालवन्मादमुखाः कुनमुखा अपि / / 50 // अन्त्यपि द्वारकामेत्योवाच सास्रहगच्युतम् / मत्पुत्राः कुत्र तिष्ठन्तु देव ! निर्वासितास्त्वया // 418 // // 51 // वत्साऽस्ति भरताढ़े का भूमिराज्ञा न यत्र ते ? / आकाशेऽपि सुरेन्द्रस्त्वद्भयात् स्थानं ददाति न // 52 // तत्क्षमखाऽपराध Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** खबन्धूनां बन्धुवत्सल ! / स हि धुर्यः सतां सापराधे सानुग्रहोऽत्र यः॥५३।। कृष्णोऽपि वाष्पपूर्णाक्षः प्रोवाचेति पितृष्वसः / मद्ध-1* // 419 // न्धनां नापराधो देवमत्राऽपराध्यति // 54 // अपि दुन्दुर्विभाषेत त्वत्सुतास्ते तु नो मम / पीयूषाद् विषमुत्पेदे तत् किं ? भावीति मावाति कुन्तीविवेशि न // 55 // दक्षिणाब्धेस्तटे पाण्डुदेशे खां मथुरापुरीम् / नवां निवेश्य त्वत्पुत्राः संवसन्तु सुख चिरम् // 56 // श्रीहास्तिनपुरे ज्ञप्त्या कृष्ण | कृष्णोऽप्यभ्यपिश्चत्परीक्षितम् / अभिमन्योः सुतं पौत्रं सुभद्रायाः स्वसुः स्वयम् // 57 // इतश्चोग्रसेनसूनुर्नभःसेनो वृतस्तदा / धनसेनेन दत्तादेशेन कमलामेलां दत्वा निजां सुताम् // 58 // नारदश्च भ्रमन्नागानभःसेनस्य वेश्मनि / संनयता विवाहाय तेन नायमपूज्यत // 59 // तस्याऽनचिकीर्गेहे रामपौत्रस्य नैषधेः / ययौ सागरचन्द्रस्य शाम्बादीनां प्रियस्य सः // 60 // तेनाऽभ्युत्थाय सोऽभ्यर्च्य पृष्टश्चा गमन पाण्डवानां चर्यमाख्यत / कन्यकां कमलामेला तत्रैव धनसेनजाम् // 61 // नभःसेनाय सा दत्ताऽधुना योग्या पुनस्तव / इत्युक्त्वाऽन्यत्र सोऽयाal सीत सागरोऽस्यां त्वरज्यत // 62 // विकल्पवत्तिकान्यस्तां तां चेतःफलकेऽग्रतः / स्मरचित्रकृताऽभीष्टां ध्यायन्देवीमिव स्तुवन् // 63 // | | ईक्षांबभूव सकलः सकलं तन्मयं जगत् / शाक्तेयागमलीनात्मा सर्व शक्तिमयं यथा // 64 // युग्मम् / / नारदः कमलामेलागृहे प्राप्तस्तयाऽप्यसौ / सत्कृत्य कौतुकं पृष्ट इत्यभाषिष्ट दुष्टधीः // 65 // कौतुकद्वयमत्रैव पुर्यां दृष्टं मया शृणु / रूपेषु नभःसेनः सुरूपेषु तु सागरः // 66 // नभःसेने विरज्याऽऽशु सागरे सा त्वरज्यत / तद्राग सागरायाख्यत् गत्वा कुलगुरुः कले॥६७॥ सागरं कमलामे-1 लाविरहज्वरजर्जरम् / ज्ञात्वा माताऽन्ये कुमारा अप्यऽखिद्यन्त चेतसि // 68 // ध्यायतः कमलामेला सागरस्य च पृष्ठतः / स्थित्वा | शाम्बस्तदा प्राप्तः पाणिभ्यां लोचने प्यधात् // 69 // सागरे कमलामेला किं ? भवेदिति जल्पति / वत्साऽस्मि कमलामेल इति शाम्बो इसन्नवक् / / 70 // तहिं त्वमेव कमलां मेलयित्वा ममाऽधुना / सत्यवादी भवेस्तात नातस्त्वामर्थये परम् // 71 // तद्वाचं च // 419 // Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रमम जिनेशचरित्रम् / कमलामेला विवाह // 420 // प्रदशनम् निराकुर्वन् कुमाररपरैरसौ / पाययित्वा सुरां वहीं मत्तोऽङ्गीकारितश्छलात् // 72 // हस्तीव निर्मदीभूत इति शाम्बोऽप्यचिन्तयत् / अपतं हा स्वयं बन्धे तत्कार्यमधुना किमु ? // 73 // निर्वाहो मे स्ववचसो नीत्या यद्यपि दुःकरः। तथापि युज्यते कर्तुं मत्तुं यन्नाऽस्य संशयः // 74 // युग्मम् / / ततः शाम्बो नभःसेनविवाहदिवसे ययौ / सार्द्ध कुमारैरुद्याने स्नेहसारः ससागरैः // 75 // आनाय्य | कमलामेलां गृहात्तत्र सुरंगया। रसाकुलां स गंगावत्सागरेणोदवाहयत् // 76 // पितृश्वशुरलोकाश्च तामवीक्ष्य गृहे पुरि / शोधयित्वे युरुद्याने तत्राऽनुपदिका इव // 77 / / शाम्बप्रयुक्तप्रज्ञप्तिक्लप्तखेचरताजुषाम् / मध्ये स्थितां कुमाराणां तेऽद्राक्षुधनसेनजाम् // 78 // * तेभ्यस्ता स्वयमादातुमशक्तास्ते न्यवेदयन् / कृष्णस्य सोऽपि कोपेन तान्हन्तुं द्रुतमागमत् / / 79 // हृत्वारे कमलामेलां क्व नु यास्यथ *खेचराः / पुरो भवत युद्धाय विद्यागर्व हरामि वः // 8 // ततः स्वरूपभृत् शाम्बः कमलामेलया सह / कुमार सागरचन्द्रं नीत्वा | कृष्णमनामयत् // 81 // विलक्षः पुण्डरीकाक्षो ऽप्यूचे रे किमिदं व्यधाः / यदाश्रित नभःसेनं त्वमवंचः यथा वृथा // 82 // अस्य कुर्वे किमोति नभःसेनमसांत्वयत् / सागरायैव कमलामेलां चादत्त शाङ्गभृत् // 83 // तदाद्यपि नभःसेनोऽप्यपकर्तुमपारयन् / अलं | छलं सागरस्याऽन्वैषयद् भूतवत्सदा // 84 // इतः प्रियायां वैदयां प्रद्युम्नस्य कवेरिख / अनिरुद्धं सुतो जज्ञे सद्गुम्फ इव कान्तिमान् | ||85 // सलक्षणः शास्त्रनिष्णः सद्गुणालंकृतिः स च / विबुधैः खेचरणैरप्यऽध्यायत विस्मितैः // 86 // पुरे शुभनिवासेऽभूत् तदा | विद्याधराधिपः / बाण इत्युल्लसत्प्राणश्चित्रं चापलतां त्यजन् // 87 / उपेव तस्य भृच्छायां तन्वत्यऽप्युज्वला गुणैः / उपेति कन्या-1 | ऽऽसीत् न्यासीकृतेव विधिनोर्वशी / / 88 // दिक्कन्येव सुरूपा सा स्वानुरूपवरार्थिनी। आराधयन्महाविद्यां गौरी नियमतत्परा // 89 // तुष्टा तत्तपसा गौरी ददौ तस्यै वरं वरम् / पौत्रं कृष्णस्याऽनिरुद्धं रूपश्रीनिर्जितामरम् // 10 // सर्ग-११ // 420 // Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाणपुत्री उषालग्नमनिरुद्धेन समम् गौर्याः कान्तश्च बाणेनाराधितः शंकरः सुरः / अजय्यत्वमदाद् युद्धेष्यपरैस्तस्य दुर्द्धरैः // 91 // गौर्यऽप्युद्भः क्रुधा काली| भूताऽऽह स्मेति तं रहः / किमस्यादा मदान्धस्य सर्वत्राऽजय्यतावरम् // 92 // मया दत्तोऽस्त्युपाया यत्पुराऽस्य दुहितुर्वरः / अनिरुद्धः कृष्णपौत्रस्तन्मा जेष्यति किन्वयम् // 93 // भीतोऽथ शंकरो भूयोऽवादीद् बाण भविष्यति / मुक्त्वा स्वीकार्यमन्यत्र सर्वत्राऽजय्यता तव // 94 // महान् प्रसाद इत्यूचे वाणस्तेनाप्यमोदत | जानाति मृखों लुब्धश्च स्वस्य किंवा ? हिताहितम् / / 95 / / नार्याकृष्य नरः केशेष्वग्रे पश्चाच्च कार्यते / कार्य द्वारमिवाकृष्टचूलः कुचिकयाऽर्गलः // 96 // उपा योपाशिरोरत्र खेचरैः क्ष्माचरैरपि ! / कैः कैर्नाऽमागिं दुर्वर्णैर्नाऽदाद् बाणस्त्वऽरोचकी // 97 / / उषा तून्कण्ठिता प्रेष्य राकावत्खेचरी निजाम् / आनाययत्कलापूर्णमनिरुद्धं सुधाकरम् // 98 // तं व्योमनीव गेहान्तनक्षत्रमणिभूषणे / अध्यासयद् रत्नपीठं साऽत्युच्च पूर्वशैलवत् // 99 // ह्रियमाणान्मया प्रा-| णानिजान् विरहदस्युना / दातुमानायितोऽसीह वीरेत्येवं च साऽवदत् / / 200 // कुमारं तां कुमारीति शंकया पाणिवत्तिनीम् / अकु|र्वाणमुवाचेति चन्द्रलेखा च तत्सखी // 1 // सख्याः कर स्वकरेण कुमारवर ! मेलय / त्वदंकरसिका ह्येषा कुमारी किं ? विलम्बसे // 2 // तयेत्युक्तः स गान्धर्व विवाहेनोपयम्य ताम् / सहादाय कृष्णपौत्रोऽनिरुद्धोऽयमुषां बलात् // 3 // हृत्वा यातीति स करोत्क्षेपमुच्चैः खरं मुहुः / अध्वन्युद्धोषणां कुर्वन्नचालीद् द्वारका प्रति // 4 // युग्मम् / / बाणश्चापन्यस्तबाणः क्रोधादन्वेस तं वलैः / रक्षा कालं श्वभिरिख क्षणाद् व्यर्थाभिधं व्यधात् // 5 // उषामुखात्पाठसिद्धां सिद्धाज्ञामिव दैवतात् / विद्यां लब्ध्वाऽनिरुद्धोऽपि पुष्टौजास्तमयोधयत् // 6 // अनिरुद्ध खेचरेन्द्रो मत्तेभमिव दुर्द्धरम् / ज्ञात्वाऽवबध्नानागपाशैरापादस्कन्धमुद्धतः॥७॥ प्रज्ञप्तिविद्या तद्वार्तामाता वार्ताहरेव च / प्रद्युम्नस्नेहतोऽशंसद् विष्णवे वैरिजिष्णवे // 8 // पौत्रप्रतिग्रहे सोऽपि बलप्रद्युम्नशाम्बयुक् / तत्रागात् नागपाशाश्च // 42 // Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 422 // जिनेशचरित्रम् / गत्वा युद्धे कृष्णेन हतो बाणः नेशुस्ता_ध्वजे क्षणात् / / 9 // शंकरस्य बलाद्विद्याबलाद् भुजबलादपि / बाणः प्राणभृतः कृष्ण मुखेनैवमताडयत् // 10 // अरे मदभरेणान्ध किं ? नः खं वीक्षते नहि / यन्मया शंकरवरादजय्येनाऽसि ढौकितः॥११॥ सदा कन्यास्त्वमन्येषामहापीनिवपत्वतः। ततस्ते पुत्रपौत्रैरप्येतद् द्वयमशिक्ष्यत // 12 // कुष्ठेनेव क्रमायातेनाऽनेन व्यसनेन वः / तत्सर्वानातुरानेष चिकित्सिष्यामि वैद्यवत् // 13 // कृष्णोऽप्यवादीद् वातूल तूलवत्सं वृथा न किम् / उल्लालयन मृपास्तुत्या वात्ययेव विगुप्यसि ? ||14 // कन्या [वश्यं दातव्या परस्मै नागवल्लिवत् / तस्याः स्वयंग्रहे पुंसः को ? दोषो कथ्यतां ननु // 15 / / किं ? ताम्बुलिकवन्मूल्यं लिप्सुर्वास्यास्ततो ध्रु. | वम् / इत्थं योद्धुं त्वमन्वागाः स्वां महत्तरतां वदन् // 16 // हस्त्यारूढेनापि पादौ स्खौ वीक्ष्यौ तु सुमेधसा / तच्छंकरवरान्मूर्ख विश्वं किमवमन्यसे ? // 17 / / बालवहुमुख तत्त्वां शिक्ष्यमाण मयाऽधुना / त्रास्यते चेत्तदा सत्यो ज्ञास्यते शांकरो वरः॥१८॥ श्रुत्वेति बाणोऽप्यासन्नमृत्युविस्मृत्य शांकरम् / तद्वचः खेचरैः सार्द्ध वर्द्धमानबलः क्रुधा / / 19 / / बाणान् बाणासनात् प्राणाधिकश्चिक्षेप शाङ्गिणे / महावादी वादिशब्दानिवैतान् सोऽप्यखण्डयत् / / 20 / / युग्मम् // शराशरि चिरं कृत्वा कृष्णः समरकौतुकी। लूनविद्यास्त्रसत्पक्षं बाणं बाणमिवाऽक्षमम् // 21 // निर्माय गर्वकोदण्डान्निपात्य भुवि हेलया। विधाय खण्डशो निन्ये वायोरतिथितां क्षणात् // 22 // यु०॥ उपया स्नुषया युक्तमनिरुद्धं ततः सुखम् / गृहीत्वा द्वारकामागाद् विष्णुबन्धुसुतान्वितः // 23 // हत्वेत्थं प्रतिगर्जतः क्षितिभृतः | पक्षोद्धतान् मेदिनी, मुद्वैराग्यवतीमतीतनिखिलातकां च कृत्वा हरिः। पुर्यां स्वस्य चिरं स्थितः सह परीवारेण पुण्यार्पिता, लक्ष्मी | दाक्षिणभारतस्य चुभुजे चित्रं तु गोत्रप्रियः॥२४॥ अममचरिते भाविन्येवं तयोः सहजन्मनोबलहरिभवे तुर्ये धुर्ये ऽर्जनाय जिन| श्रियः / प्रतिरिपुरणं यत्संश्लिष्टो लघुविजयश्रिया तदिह निपुणेः श्रेयोबीजं विचार्य तदर्यताम् // 225 // सर्ग-१२ // 422 // Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 // 423 // इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते श्रीअममस्वामिचरिते महाकाव्ये तुर्यभवे द्रौपदीप्रत्याहरण-सागरचन्द्राख्य बाणवधवर्णन-एकादशः सर्गः / / अ० 227 / / द्वादशः सर्गः। विवाहाय मातृपितृ कृताग्रहवि. *पये श्रीनेमे * 8 628488-* अथो विलसतो प्रेक्ष्य सार्द्धमन्तःपुरवः। राम कृष्णं च तत्पुत्रपौत्रांचोपवनादिषु // 1 // समुद्रविजयो राजा शिवा च प्रेम| संकुलैः। कोमलैर्वचनैरित्थं नेमिनाथमवोचताम् // 2 / / युग्मम् / / पश्यतोस्त्वां कलापूर्ण पुर्णेन्दुरिव वत्स ! नौ / नित्योऽस्ति हर्षः | क्षीरोदगंगयोरिव यद्यपि // 3 // तथाप्येष सविशेषः कान्ताः कुमुदिनीरिव / स्वीकृत्य क्रियतामात्मकरेणाऽमृतवर्षिणा // 4 // सारं त्रेधापि कौमारं पुण्यतारुण्यवानिह / इत्थं बिभ्रदऽदभ्रं तु हृदि शल्यं ददासि नौ // 5 // ऊचे नेमिरपि ज्ञानत्रयीयुक्तोंऽशुमानिव / भवप्राप्तावतारोऽपि भवोद्विग्नोऽतिकौतुकम् // 6 // द्रक्ष्यामि पितरौ ! स्वानुरूपाः कान्ता यदा तदा / स्वीकरिष्ये ध्रुवं मास खियेथा हृदि सर्वथा // 7 // स्वीकृत्याऽननुरूपास्तु त्वष्ट्रपुत्रीवदात्मनि / दुःखं करिष्ये नो नित्यं क्षयाद् दुःप्राप्ततेजसः // 8 // स्वभावसरलावे विवाहारम्भसाग्रहौ / अबोधयत्स्वपितरौ नेमिगम्भीरया गिरा // 9 // इतश्च स यशोमत्या जीवश्युत्वाऽपराजितात् / उग्रसेनगृहिण्या: | श्रीधारिण्यास्तनयाऽजनि॥१०॥ राजीमतीति सा वाला पितृभ्यां कल्पिताभिधा / ववृधे कल्पवल्लीव सुखं सर्वांगसुन्दरा // 11 // त्यजन्ती मौढ्यमधुरं शैशवं सा क्रमादगात् / प्रौढतामिन्दुलेखेव स्वीकुर्वाणाऽखिलाः कलाः॥१२॥ एकैव यौवनकला सकला तत्क ***4882282*18-24838*888 // 423 // -* Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / राजीमतीरूपवर्णनम् // 424 // * लास्वऽभूत् / ययाऽध्यारोपि चातुर्य कायवाक्चेतसां समम् // 13 // यदंगसौष्टवलवं लिप्सुभिः कनकाम्बुजैः / उदवासव्रतक्लेशः स्व- गंगाम्भसि चर्यते // 14 // तस्या मुखस्य वृत्तेन लावण्येन च निर्जितः। अद्यापीन्दुविंशत्यब्धौ वाडवे विषमत्ति च // 15 // तस्याः कृष्टभ्रधनुभ्यां दृग्भ्यां कुवलयं जितम् / राजा स्वनाशावंशेन कपोलाभ्यां त्वखण्ड्यत // 16 // तदानने वने कुन्दरम्ये साशोकपल्लवे / स्रष्टा कुरंगरोधाय कणों पाशाविवाऽतनोत् // 17 // अप्राप्तुवन्निवाऽद्यापि रागभाग्यं तदोष्टयोः। विद्रुमः सेवते वार्दूि सहते चांगखण्डनम् // 18 // लावण्याम्भोभृतो यस्यास्तन्वत्याः सरसां स्थितिम् / धत्तः स्म सस्मितोदण्डरक्तोपलकलाः करौ॥१९।। तस्या वक्षोऽपि दुर्लक्षोद्भेदस्तनमशोभत / उच्चैःस्थलमिव छन्ननिधानकलशद्वयम् // 20 // द्वधा श्रीजितपद्मस्य तदंहियुगलस्य धिक् / नाऽलज्जत विधिः | स्वर्ण तुलाकोटिद्वयं ददत् // 21 / / तदहिनखरत्नानि दशदिनाथयोपिताम् / नमन्तीनां समं चूडामणित्यायेव पुस्फुरुः // 22 // एकस्थ| सर्वसौन्दर्य कृतिविद्वेपिणो विधेः। तद्रूपमसरूपं तु मन्ये वार्द्धकतोऽजनि // 23 // पाञ्चालीमिथुनोद्वाहादिभिः क्रीडाभिरातनोत् / * सा कुमारी सखीवृन्दैङ्घता दिनगणात्ययम् // 24 // क्रीडनितस्ततो नेमिः कुमारैः सह कौतुकात् / ययौ कृष्णस्यायुधौघगेहं देहमिवो मतम् / / 25 // स तदन्तश्चक्रशाङ्गगदाशंखान् सनन्दकान् / दिव्यास्त्रलं गतान् बन्धोर्लक्षणौघानिवक्षत // 26 / / प्रेम्णेवात्मसख शंखं | तेवादित्सुं शिवांगजम् / निःशंकं यामिको नत्वाऽवादीदेवं कृताञ्जलिः // 27 // देव ! कृष्णं विना नान्यं पाञ्चजन्यममुं नरः / आदा. तुमपि शक्नोति दूरे पूरयितुं पुनः॥२८॥ कुमार! सुकुमारत्वाद् बालत्वाच्च भवान्नहि / प्रगल्भते द्वयेऽप्यस्य तदाऽऽयस्याऽधुना* *खलु // 29 // श्रुत्वेति नेमिः स्मित्वान्तः शंख श्वेताब्जवत्करे / लीलयेव दधौ दध्मौ चास्याब्जे हंसतां नयन् // 30 // श्रुतीरष्टौ विधे | रुन्धनष्टौ च स्फोटयन दिशः / अकस्मादाकुलान्यष्टौ कुर्वनागकुलान्यपि // 31 // युगक्षयक्षणोद्धान्तदुर्दान्तघनगजितम् / दर्शयंस्त-* // 424 // Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 425|| प्रभोः | ध्वनिरः प्रासरत् विष्टपत्रये // 32 // युग्मम् // शंखध्वानेन मृ लेनाऽप्याश्चर्यमकम्प्यत / भूमि मिधरैः सार्द्धमत्रास्यन्त च दिग्गजाः // 33 // चुचुम्ब कम्बुमुत्पाट्याऽङ्गजं मेऽद्य जगत्पतिः / इतीवाब्धिर्मदा गर्जा विश्वतर्जा व्यधाद मृशम् // 34 // युवत्यामिव | तन्वत्या द्वारवत्यां तदा मुदा / नाट्यभ्रमि गुरुर्वप्रः कम्प्रशीर्षास्ते सभ्यवत् // 35 / / हस्त्यश्वं बन्धनान्मुक्ति पूर्जनोऽप्यऽमनस्कताम् / लेभे चित्रं द्विधा च्छद्मस्थेनापि ध्वनिना प्रभोः // 36 / / जग्मतुः क्षोभमक्षोभावपि तौ सीरिशाङ्गिणौ / सयादवौ दवौघादप्याः श्रुत्वा तं भयंकरम् // 37 // त्रैलोक्यसंविभक्तेनाऽप्यहो क्षोभेण शाङ्गिणः / असमातेव हृदये निर्जग्मे वाग्मिपादिति // 38 // किमन्यद्वीपतो | विष्णुः शक्रो वा भोः किमागतम् ? / यन्मत्तोधिकप्राणः शंखध्वानः स्फुरत्ययम् // 39 // इति पर्यनुयुञ्जानः स शस्त्रागारयामिकः / एत्य व्याकरणाभिज्ञरेवं व्यज्ञाप्यतादृतैः // 40 // स्वामिन्नन्यद्वीपविष्णुः काऽलम्भूष्णुरिहागमे / निश्चिन्तश्च त्वयेवेन्द्रः स्वर्गेऽस्तीति ततः प्रभो // 41 // महाप्राणो महाप्राणस्थाने स्यादिति लक्षणात् / नेमिना वादितस्यैष त्वच्छंखस्य स्वनोऽस्फुरत् // 42 // युग्मम्।। श्रुत्वेति विस्मयं बिभ्रदपि वान्तेऽतिहर्षतः / मोहाद् विष्णुरधावत् यावत्तद्वाक्ये प्रत्ययं नहि // 43 // तावत्तत्प्रत्ययायेव नेमिस्तत्राऽगमत्स्वयम् / सावहित्थं च कृष्णेनाऽध्यास्य स्वासनमौज्यत // 44 // युग्मम् / / सम्प्रति मानटीनाट्यानन्दनान्दीकरवरः / प्रलयाऽब्दसखः शंखस्त्वया मेऽपूरि देव ! किम् ? // 45ii स्वामिनेवभिति प्रोक्त विश्वातिगवलं च तम् / विदन्नप्यऽविदत्कल्पः कृष्णः पुनरवोचत // 46 // शंख मदन्यैर्दुःपूरमापूर्यकमपूर्यत / त्वया मे कौतुकं भ्रातदोंयुद्धात्पूरयाऽपरम् // 47 // एवमस्त्विति तं नेमिरुक्त्वा नीत्वा खलूरिकाम् / मा पीडि मदलेनैष इति ध्यात्वा च मृद्वऽवक् // 48 // आवयोः कौतुकेनाऽपि न युक्तं | युद्धमुद्धतम् / मिथो दोर्बल्लिना तेनाधिगमोऽस्तु बलावधेः // 49 // ऊरीकृत्येति दोर्दण्डं वज्रदण्डमिवायतम् / दधे हरिस्तं च नेमि // 425 // Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेश चरित्रम्। // 426 // कृष्ण विचार: जयश्रीवलयं व्यधात् ॥५०॥धृते तु नेमिना वामे भुजे दोया जनार्दनः / लग्नो बलालघूकृत्यान्दोलि ज्येष्ठोऽपि बालवत् // 51 // | खलाधवं निगृह्याऽवगृह्य नेमिमथो हरिः।प्रोचे तृणायते विश्वं मया रामस्त्वयात्वहम् // 52 // विसृज्य कृष्णः शैवेयं रहः सीरिणमब्रवीत् / यद्दौर्बलाब्धौ चक्रयर्द्धचक्रिशक्रास्तृणन्त्यहो // 53 / / संसाध्य भारतं सर्वमेकच्छत्रमयं न किम् / भुनक्ति बन्धुः साम्राज्य किं ? भेजेऽलसतां द्विधा // 54 // युग्मम् // रामः स्मित्वा तमाशंकां विनेतुं प्रत्यभाषत / राज्यमेतद्रलादेवाऽऽवयोरत्र न संशयः / / 5 / / | राज्ञां लक्ष विलक्षं चेन्नाकरिष्यदसौ बलात् / जरासन्धरणे तत्तेऽभविष्यद् विजयः कुतः // 56 / / सम्प्रत्येप नाऽशक्त्या विविक्त्या विमुखः पुनः / राज्यस्य दृश्यते सिंहः स्पृहये किं ? शवामिपम् / / 57 // तथापि संस्मरन्नेमेबलमाकम्पसंकुलः / हरिदेवतयाञ्चोधीत्यहो मोहः | सतामपि // 58 // प्रोक्तं नमिजिनेन प्राक् मत्तो मात्राधिको द्विधा / भावी नेमिजिनः कौमार एव व्रतसंश्रयात् / / 59 // तदस्मान्मा स्म भैपीस्त्वमिति दिव्यगिरा धृतिम् / नीतो बलं विसृज्याऽगाद् विष्णुरन्तःपुरे निजे // 60 // युग्मम् // तत्राऽऽह्वाय्य नेमिमेकासनस्थस्तद्युतो हरिः / स्नानं विलेपनं दिव्य भोजनं विधिवद् व्यधात् // 61 // आदिशत्सोविदल्लांश्च पत्नी मादिकाश्च सः। न स्खल्यः क्रीडनीयश्च नेमिरत्राऽभयं हि वः // 62 / / निर्विकारः कुमारोऽपि तारुण्येऽपि शिवांगभूः / ब्रह्माश्रितोऽपि चिक्रीड चित्रं कृष्णावरोधगः // 63 / / अथागते वसन्तती सान्तःपुरपुरीजनः / सश्रीनेमिः स वृष्णिश्च रैवतोद्यानमीयिवान् // 64 // नामवर्णसवर्णालिकम्रास्तत्रासमञ्जरीः / स्वर्णभल्लीरिवाऽनंगधन्धिनः स लोकयन् // 65 / / पुष्पंधयान् सेरमल्लीवल्लीपुष्पानसंगिनः / मूर्तिभेदानिव स्वस्य सोऽपश्यच्छंखपूरकान् // 66 // वने वसन्तं मत्तेभं प्रेक्ष्य तजीविना कृतम् / मेने स मरुता पांसुतल्पयन्कौसुमं रजः // 67 // दूरं दोला विलोलाश्चारुह्य व्यावत्तिनीमुहुः / मेने देवीरिखाकाशलासिनीः सविलासिनीः॥६८|| शंके पंकेरुहाक्षीणां सगीतेऽधीतिनः पिकान् / सर्ग-१२ // 426 // Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 427|| *जज्ञौ पञ्चमचातुर्य कुतस्तेषां वनेऽन्यथा // 69 // सप्रियान् क्रीडतः पौरानमरानिव नन्दने / तत्राक्षेप्तुंमनो नेमेः कृष्णः स्वयमदर्श-* यत् // 70 // केऽप्युपावीणयन् केऽपि जगुः प्रननृतुः परे / केचिदापानकं चक्रुदोलालीलां च केचन // 71 // अन्तःपुरमथाऽऽदिक्ष वसन्ते रखत्पुष्पावचयहेतवे / उजागरयितुं नेमे_तुर्विष्णुमनाशयम् // 72 / / पश्चैवानङ्गराजाय मधुः पुष्पाकरोऽप्यदात् / इत्यस्य दोषात्सर्वखं तोद्यान हरेः कान्ताभिराददे / / 73 / / पुप्पोचिन्वीषया तत्र भ्रमन्त्यः कृष्णवल्लभाः। रेजुरचयितुं नेमि दिवो देव्य इवागताः // 74 // क्रीडा प्रमत्तकान्तासंयोगात् किं चित्रं सुमनोगणाः / सदागमाभ्यासरसोज्वला अप्यपतन्नधः // 75 / / नेमेः पुंस्कोकिलस्येव रागोजागर णौषधीम् / काचित्समर्पयामास सहकारस्य मञ्जरीम् // 76 / / चम्पकादुचितः पुष्पैथित्वा काचन स्रजम् / नेमेः कण्ठे न्यधात्स्व*र्णशृंखलामिव मान्मथीम् // 77 // शुद्धान्तःकरणः पंखन्मल्लिकाभरणः प्रभुः / व्यराजततरां तत्र ऋतुराज इवापरः // 78 // नेमेनेत्रे E पुष्परजाकीर्णे काचिद् विधाय च / मुखानिलार्पणव्याजाच्चुम्वन्त्यापद् विलक्षताम् // 79 // चित्रं कुरबकं काचिच्चक्रे सुरतकांक्षणात / | श्रीनेमिसाक्ष्यमालिंग्योन्मीलत्पुष्पालिझकृतैः // 80 // नेमिं धृत्वान्तिके शोकमस्तोकं काप्यमोचयत् अशोकं ताडयित्वांडिघातः al प्राप्य सुमैर्मुदम् // 81 / / संतर्घ्य बकुलं काचिदाकुलं मुखसीधुना / नेमेनिवेदयामास कामं कामं सुदुर्जयम् // 82 // / काकाक्षमपि व्यक्षमिव चूतदुमं सुमैः / अभ्याऽप्रीणयद्यमकर्दमेन विलिप्य च // 83 // कटाक्षस्तिलकं कापि कृत्वा कुसुमितं दृशा / स्त्रीकटाक्षार्थिनो वृक्षा अपीत्याख्यदिव प्रभोः // 84 // अप्यश्मनो द्राविकाभिः काचिद्विरहगीतिभिः / चित्र सूत्र*यितुं नेमेचिरहदुमजीजिवत् // 85 / / दोलायो दोलयामास काचिन्नेमिं न तन्मनः / पुष्पेषुभ्रमाऽनेपीन्न पुष्पेषुभ्रमं परा // 86 / / ताभि* रित्थं सरसाभिः सरसीभिरिवाभितः / लिप्यमानोऽपि नालेपि नेमिः पुष्करपत्रवत् // 87 // हरिः ख बांधवं प्रेक्ष्य शंखादिव सहो // 427|| Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / गोपीसरा // 428 // मनोरधानांगमलकत्तु कामा न्या द्भवात् / नीरञ्जनं विलक्षाश्च दक्षा अपि निजप्रियाः // 88 // विषादस्य निपादस्य वश्यात्माऽचिन्तयन्क्षणम् / सौभ्रात्रं मे धिगेता। चेन्नेमिभुक्ते श्रियं नहि / / 89 / / युग्मम् / / यद्यस्य शान्तमुत्साय हृदि प्राक् स्थाप्यते रतिः। श्रृंगारद्रोरादिबीजं स्थायीभावः कथंचन // 90 // आलम्बनोद्दीपनाख्यविभावैर्भावितस्ततः / अनुभावैः साच्चिकैश्च पुष्टः संचारिभिः सच // 91 // यायाच्चेद्रसान्तरेण स्फुरितेनामसान्कुतः / पूरयेद् यदि नामायं भ्राता मम मनोरथान् // 12 // त्रि०वि०॥ एवं विमृश्योपेन्द्रेण दिव्यैः स्वावचितः मुमैः / गक्रीडाया नीमपि निविमाला ग्रथित्वा न्यक्षेपि नेमेः कण्ठेऽतिसौहृदात् // 93 // तं सर्वांगमलंकत्तुं कत्तुं स्त्रीष्वनुरागिणम् / आदिश्यन्ताऽष्ट भामाद्याः प्रगल्भा कारता स्तेन वल्लभाः // 14 // अग्रस्था दोलतोल्लासात् कृतदोमूलदर्शना / तत्र भामा न्याधान्नमेमूनि पुष्पावतंसकम् // 95 // निघ्नती निश्चयः कुचकुम्भाभ्यामिभीवाऽभीश्च पृष्ठतः / बबन्ध रुक्मिणी मल्लीगर्भ धम्मिलमस्य च // 96 // स्वर्णपुष्पसुमैनव्या क्लुप्तां जाम्बवती स्वयम् / घटीमटीकयन्मौलौ विगलन्नीविबन्धना // 97 / / राकेन्दुगौरं कापूर लक्ष्मणा तिलकं व्यधात् / भाले व्योमविशालेऽस्य चुम्बन्ती वदनं मुहुः // 98 // सुसीमा रागसीमानं तं नेतुं कर्णयोर्मुहुः / स्पृशन्त्यारोपयत् पुष्पोत्सौ कन्दर्पदोलयोः // 99 // नेमे कपोलयो!री व्यधारपत्रांकुगंतरा / मकरच्छद्मना मन्ये मकरध्वजशासनम् // 100 // नेमवेयकं पद्मावती पद्माग्रगुम्फितम् / न्यधासुधाकूपनिभां नाभिं स्वां व्यञ्जती मुहुः // 1 // गान्धारी पुष्पकेयूरे हर्षपुरेण दोर्द्वये / चिराखिन्नतरा खिन्नकराऽबध्नात्प्रभोर्मुहुः सर्ग-१२ | // 2 // इत्थं बिलासैः स्वभ्रातृपत्नीनां नेमिरंगजेः / नाऽभेदि वनदुर्भेदस्वान्तः शान्तः स्वभावतः ॥शा कृष्णादेशात्ततो वारत्रण | | वृष्णिविलासिभिः सार्द्ध प्रचक्रमे नेनेः साक्ष्यमापानकोत्सवम् // 4 // तदानीं स्पर्द्धयेवैपां वारुणीपानमानसः / विवेशाऽकोपि चर- // 428 // माम्भोधौ तत्र हि तञ्जनिः // 5 / / रत्नौघद्युतिभिर्जातदीप्रदीपशिखाभ्रमः / पतंगो न्यपतद् व्योम्नस्तैलपात्र इवाम्बुधौ // 6 // सूर्या Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 429 // आपानकोत्सववर्णनम् श्वनिष्ठुरखुराहतशुक्तिपुटोद्गतः / गणितानशे व्योम तारकैः मौक्तिकरिव // 7 // सवालजालैरुत्फालैर्वार्द्धर्मारुतनर्तितात् / विश्वश्रीरकतप्तेव ध्वान्तैस्तान्तैः प्यधीयत // 8 // ध्वान्ताब्धेरन्तरीपाश्च प्रदीपाः स्त्रैणनिर्मिताः / दधुः क्रुद्धस्मरोन्मुक्ततप्तनाराचविभ्रमम् / / 9 / / अथोदगाच्चकोरीहकोणरुक्शोणितद्युतिः / प्रागथ बणहर्षाश्रुजलेद्धीतः सितः शशी // 10 // नवस्य राज्ञो विदधे वी रैखि महोभरैः / विरोधेनाऽवलं ध्वान्तस्योच्चगिरिगुहाश्रयम् // 11 // स्फाटिकादर्शवचन्द्रबिम्बे प्राच्या धृते पुरः / मन्ये प्रतिमितं व्योम लोकलक्ष्मेत्यलक्ष्यत // 12 // रात्रौ नभश्चत्वरान्तः खेलन्तं तनुजं विधुम् / वाद्धि तुमिव स्वांकमाकर्षद् वीचिपाणिभिः // 13 // चरितैरिख | कापूरैः पांशुपूरैः समन्ततः / उन्मीलन्मालतीपुष्पमालाभिर्मालिते इव // 14 // दिवस्पृथिव्यौ युगपद् दक्षिणेन कलावता / प्रसाधिते करैः प्रीतिकरैः सौभाग्यमूहतुः // 15 // यु०॥ इत्थं निशापरिवृढे प्रौढे जाते प्रचक्रमे / चकोरैः सप्रियज्योत्स्नासवापानकुतूहलम् | // 16 / / प्रचक्रुः स्पर्द्धयेवैषामित्यापानमहोत्सवम् / कृष्णपिंडविलासिन्यः सार्द्ध तल्लघुवान्धवैः // 17 // निर्यान्त्यः सीधुकुम्भीभ्यो धृपधूमलतास्तताः। विरेजुः पुष्पसौरभ्यलुब्धाः श्रेण्य इवालिनाम् // 18 // आसवो रत्नपात्रेषु रेजे वायुतरंगितः / जातकम्प इवान्यस्त्रीमुखचुम्बनशंकया॥१९॥ कन्दर्पमांत्रिकस्येव वश्यचूर्णसहोदरैः। स | * तत्राऽपूरि कापूरैः परागैः सौरभोधैरैः // 20 // पातुमत्युत्सुकं सीधुं द्विजेशं तारकाः प्रियाः / चपके प्रतिमाव्याजात्सा रोद्धमिवाययुः // 21 // धैर्योच्छेदमंगसादं बुद्धिनाशं च वैरिवत् / यो दत्ते सोऽप्यहो यूनां मधुवारोऽभवत् प्रियः // 22 // स्त्रीणां प्रसन्नया निर्वासिता कुटिलता इदः / आदद्रे धीरया वाचा तदा भ्रूद्वितयेन च // 23 // कौतुकं मधुना पीतेनाऽपि रागो निवेश्यत ।गौरांगीणां मनस्यादौ * पश्चाद् द्वाचि ततो मुखे // 24 // नाटयन्त्यऽवदत्कापि कापिशायनजं मदम् / उपेत्य देवरं देव रन्तुमेहीति नेमिनम् // 25 // पिपिप्रि // 429 // Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम 320 // 430 // KEY * यससस्वयं धृत्वा भभभभाजनम् / मां पाययेति काप्यूचे तं स्खलगीविपार्तवत् // 26 / / नीरस ! स्वदते स्वादुरसातिसुरभिन किम् ? / जिनेश न यादवोऽसि किं ? तेषामेषाऽभीष्टा यतः सदा // 27 // इत्याक्षिप्य बलान्नेमिं काचिन्नीत्वा लतागृहे / उपारुधद् भृशं पातुं मदिरांचरित्रम् / मदिरेक्षणा // 28 // युग्मम् / / नेमिरूचे हला हाला हालाहलसहोदरा / रुच्या मेऽस्तु कथं ? युष्मन्मुर्छयाऽनुत्सवोदिता // 29 / / मदिरापानपीतयाऽप्यनया पुंसः स्यादऽधःपतनं क्षणान् / अत्रैवामुत्र कष्टं स्यात् यत्ताचा त्वगोचरः // 30 // यकया मोटितः सद्यो मृतव- | दूषणानि जायते नरः / सा पुण्डा हस्तिसुण्डावत्याज्या दूरं सुमेधसा // 31 // सुरां पिपासतः पुंसो हृदयान्तर्दयादयः / निर्यान्त्याशु गुणा कथितानि प्रभुणा वल्यः स्वकलंकभयादिव // 32 // मद्य निन्द्यं पिबन्त्येते यदवो ज्ञानवर्जिताः / अहं तु ज्ञानवानेतद्दृष्टान्तोऽस्तु कथं ? मयि // 33 // इत्थं तामपरास्तत्र कृष्णाग्रमहिषीरपि / प्रबोध्याऽग्राहयन्नेमिनिवृति मद्यपानतः // 34 // तदा यूनां मदादेशात् कालादेशाच्च चेतसि / इन्दुर्जागरयामास प्रसुप्तं रतिबल्लभम् // 35 / / लतावेश्मस्वथो पुष्पशय्यासु प्रेयसीजनः / निन्ये यथावं दयितै राजाज्ञाभीमदेऽप्यहो // 36 // रंगस्थितैः पटोत्क्षेपात्पात्रैस्तत्राऽभ्यनीयत / शृंगारजन्मचरितं रतिप्रीतिकथाद्भुतम् / / 37 / / कुमार! ब्रह्मचारित्वं हृदि ख मा वृथा धृथाः / पश्येश्चिरं द्विधा तातं महेलासंगलालसम् // 38 // पोडशभिः स्त्रीसहस्रवृतं च निजबान्धवम् / दृष्टय॑यापि किं? न त्वं कामिनीः परिरिप्ससे // 39 / / इत्थं नेमिविंदग्धाभिरुक्तः काभिश्चिदुचिवान् / संकल्पजन्मतः स्त्रीपु नरः स्यादनुरागवान् // 40 // | सर्ग-१२ संकल्प एव तावन्मे नास्ति तजन्मनस्ततः / स्मरस्य संभवः स्त्रीच्छाकृतोऽस्तु ब्रूत भो कुतः 1 // 41 // किश्चाऽपराजितेन तं भुक्तं *सौख्यं विना स्त्रियम् / यन्मयाऽद्याप्यजीर्णस्य तस्योद्गाराः स्फुरन्ति मे // 42 // रुचिस्तद्वशतो मन्ये भक्तेऽपि सरसेऽपि न / जायते // 430 // स्त्रीजने तस्मादस्माद्विरमत श्रमात् // 43 // भग्नाः कृष्णविलासिन्यो नेमिनेत्यचलात्मना / वादिवेला इव क्षीणोत्कलिकाः प्रत्यगुर्दु 6 390** * 1868* Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 431 // ग्रीष्मऋतु वर्णनम् तम् // 44 // त्रि०वि०॥ नेमेर्वदृढस्यापि ब्रह्मवतभृतोप्यभृत् / कुतूहलं नाभिरतिस्तत्कृता न (च)विक्रिया // 45 // चतुर्दाऽभिनयोपेतं सन्धिपु व्यक्तवृत्तिकम् / सद्गीतिरीतिद्रष्टव्याघाटकं नाटकं नवम् // 46 // कृष्णस्य पश्यतस्तत्र क्षणदा स्वाभिधां द्विधा / सत्यां कृत्वा त्रियामाख्यां ख्याति नेतुमिवाऽत्यगात् // 47 // युग्मम् / / पठति त्वद्गुणान्वन्दिवृन्दे व्योम्नः सुररिख / मुक्तोऽधुना पतत्येप | पुष्पौद्यस्तारकच्छलात् // 48 // दृष्टिदोपच्छिदे धुश्रीरुत्तार्येव तवोपरि / शरावमिव शान्ताग्निं शशांक क्षिपतेऽम्बुधौ // 49 // भाव| द्दीपं रथ्यवं दधात्यरुणकुंकुमम् / ताराक्षतं व्योमपात्रमैन्द्रीदिग् मंगलायते // 50 // मंगल्यं तव सौवर्णपूर्णकुम्भमिवाऽग्रतः / मुखोलसन्नीलपत्रं धत्ते सन्ध्यावधू रविम् // 51 // प्रौढधीभिर्मागधीभिरिति स्तुतिमिषात्तदा / प्रभातं ज्ञापयांचक्रे चक्रपाणिः सपार्षदः // 52 // पारितोषिकदानेन नटलोकं विसृज्य सः / आगान्नेमिं पुरस्कृत्य द्वारकां सपरिच्छदः // 53 / / समुद्रविजयो नेमेरुपयामोत्सवोत्सुकः / अंगीकारयितुं तं चोपायं कृण्णममंत्रयत् // 54 // सबन्धुं सोऽपि तं प्रोचे तात ! त्वं मा स्म खिद्यथाः / कारयिष्ये विवाहांगीकार नेमिमहं ध्रुवम् // 55 / / अथ क्रमाद् विदित्वेव तदाकूतमवातरत् / ग्रीष्मः प्रौढोष्मतां बिभ्रन्मानिमानविभेदने // 56 // चन्दनालेपनस्फीतशीतांगैरपि कौतुकम् / भीष्मो यस्मिन्ननंगोष्माधिकं युवजनैर्दधे // 57 // यस्मिन् शृंगारिभिः कण्ठे विलसन्मल्लिदामभिः / स्मरवीरक्षिप्तचापज्याकृष्टिरिब दश्यते / / 58 / / यस्य तापच्छिदेकोऽपि करेगोरसमापिथन् / यथा यथाऽभवत्पीया दुर्वहोऽपि तथा तथा // 59 / / मन्दं मन्दं ततो यान्ति रथाश्वा गगनान्तरे / मन्ये दैर्ध्यमतो भेजुः क्रमेण दिवसा अपि // 60 // युग्मम् / / प्रौढप्रतापं तपनं यदलात्वीक्ष्य वैरिभिः / पेते हिमर्भयात्कूपेष्वतः शेत्यं तदम्भसाम् // 61 // यस्मिन् शैत्यार्थमाजहुरब्धेः कान्तावि*योगिनः / औदिच्यनद्यः शिशिराचलनिझरपुष्करम् // 62 // यत्तत्तालस्तालवृन्तानिलै यों मुनेरपि / ज्ञानदीपं हृदि न्यस्य कामानिं // 431 // Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 432 // | दीपयन्त्यहो // 63 // श्रीखण्डचर्चया मल्लीपुष्पैः शंके सितांशुकैः। यत्रेनस्य दिनवृद्धिकृतो धत्ते यशो जनः // 64 // अन्तर्त्यधुः पान जिनेशकानि जलार्द्रा दुर्गवद् बहिः / यत्र दावसुहृल्लूकावस्कन्दाकिनो जनाः // 65 // यस्मिन् प्राप्ताः परीणाम सेव्याः सजनवदिनाः / चरित्रम् / खलीभूतेन मित्रणाऽप्यदितानां शरीरिणाम् // 66 // यस्मिंश्च घमों दुःकर्मोदयवद् बाधकोऽङ्गिनाम् / प्रससार सुदुर्वारः स्फारतां ग्रीष्मे वारितो वहन् // 67 / / कतुं तत्र जलक्रीडां विष्णुः स्वान्तपुरीवृतः / ययौ रैवतकोद्यानसरसी सह नेमिना // 68|| अष्टभिः कु० / / | जलक्रीडा जडक्रीडां जलक्रीडां मन्यमानः स्वचेतसि / नेमिर्नीरागतां विधत्तत्तटे निकटे स्थितः॥६९।। बलात्प्रावेशयन्नमिमुपरुध्य जनार्दनः / वर्णनम् यत्प्रवृत्तिनिवृत्तिश्च सह स्यादेकयोगिनाम् // 70 // सरस्या क्षालयित्वांही वीचिहस्तैस्तयोः स्वयम् / अवन्द्यतेव तद्वारिप्रोच्छलच्छीकरच्छलात् // 71 / / प्रविष्टेऽन्तःपुरे कृष्णानुगे तद्गतिचौर्यतः। भीतैहसैव्रग्रहंसाश्रयायेव खमुद्यये // 72 / / वीक्ष्य स्वाः प्रतिमास्तत्र चकिताः कृष्णयोषितः / रेजेभुजावलम्बायाम्बुदेवीभिरिवाश्रिताः // 73 // प्रवयाः सरसीफेनपलितोमिः स्फुरद्वलिः / रुषेव रक्ताभूत्तासां हता साऽलक्तकैः पदैः // 74 // अस्माताम्बुजश्रीहत्तुषारोद्भवशैलजात् / देशाजातमिति द्वेषाञहे स्त्रीकुंकुम जलैः // 75 / / | तारकावृतपूर्णेन्दुश्रीस्रीभिः सरसी बभौ / लक्ष्मलक्ष्मीपुषा मध्ये कृष्णेन स्वयमाश्रिता // 76 / / करिणीभिरिवैताभिः स्वकरोल्लासितै-10 जलैः / सिच्यमानो हरिश्चित्र सामोद्भव इवाऽशुभत् // 77 // वक्राफ्यास्तत्र कस्याश्चित् कृष्णहस्तोद्यतै लैः / कुण्डलैः चूर्णसाद्भूतलेंभे मुक्तात्मताऽद्भुतम् / / 78 / / हरेः कराम्भोयंत्रास्तवारिधाराशरान् परा / रुरोध स्फुरकीकृत्य पृथुलं पद्मिनीदलम् // 79 // चित्रं सर्ग-१२ निरन्तरं वारि मुंचत्यम्भोधरे हरौ / बभूव पद्मिनीवाऽन्याऽतिस्मेरमुखपंकजा // 8 // काचित्सपत्न्यम्भोघातैश्छिन्ने हारे प्रकोपिनी। // 432 // तुष्टा हरेवियत्राम्भोधाराशीकरयोजिता // 81 / / वीरयुद्धेन नारीणां जितो यः प्रौढवारिणा / वारियुद्धेन नारीणां जिग्ये चित्रं स कंस AC-A531-62-6ERAEEPER-HAR134832 H- I Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 433 // गोपीनां जलक्रीडा वर्णनम् जित् // 82 // कृतप्रतिकृतश्रान्तः कान्ताभिः करनेत्रजैः / विष्णुजलैः सिच्यमानोऽप्यसेचनकतामधात् // 83 / / जनुचन्दनकर्पूरकस्तु* रीकुंकुमाञ्जनः / आत्तैः स्त्रीभ्यः पद्मवासा सरस्या श्रीयंभूष्यत // 84 // कृष्णसंकेतिकाः कान्ताश्चक्रुर्भामादयोऽखिलाः। जलकेलि-* च्छलात्कामकेलिं श्रीनेमिना सह // 85 / / गम्भीरप्रकृतिः स्वामी रेजे तासां स विभ्रमैः / प्लाव्यमानः पयःपूरैनंदीनामिव वारिधिः ||86 / / लावण्यवार्डों मन्येऽस्य लीने चक्षुषि मीनवत् / व्यापारयद् वारिधारा काचिद् बडिशसूत्रवद् // 87 / / कृत्वा तमेका झात्का-| | रिवारिशीकरदन्तुरम् / निन्ये सौभाग्यमम्भोधेस्ताम्रपर्णीविलासिनः // 88 // नेमे काप्यब्जिनीपत्रं चक्रवद् दक्षिणे करे / सिताज | शंखवद्दत्वाऽपरे भर्तुरदर्शयत् / / 89 // काचिच्चक्रेऽम्बुधाराभिर्नेमिनं धौतचन्दनम् / पुनस्तदन्या निर्मुष्टदन्तरुग्भिः सचन्दनम् // 10 // कान्ताकरप्रसृमरैर्वारिपूरैः स दिद्युते / अञ्जनाद्रिरिवोदारनिझरोद्गारभासुरः // 91 / / कान्ताभिः केलियुद्धाय भज्यमानेऽम्बुजाकरे / | दक्षाश्रीरभवत्पूर्वमेव यन्नेमिमाश्रयत् // 12 // मनोमुदे वरं त्यक्त्वा देवरं देव ! रंगतः / त्वामाश्रिताऽस्मि तत्क्रीड निर्दीडमतिः | काप्यऽशात् // 9 // नन्विमौ कलशौ धृत्वा कराभ्यां सिश्च मा स्वयम् / वल्लीमिवेति तं भग्याऽमार्गीकाप्यङ्गसंगमम् // 94 // दुर्गीकृत्य पुनः *कान्ता दाहाशंकी ध्रुवं स्मरः / वारिप्रहरणो भूत्वा तमीशमुपचक्रमे // 15 // कामिनीभिः प्रभुः कादम्बिनीभिरिख नीपवत् / सिक्तोऽपि | | वारिभिश्चित्रं तनौ नोत्फुल्लतां दधौ // 16 // नवः क्षणधरो नेमिः सिक्तोऽपि धनवारिभिः। अन्तर्नाभेदि यद्रोमांकुरं चाधाद् बहिनहि // 97 // कृतप्रतिकृतैर्धातुरनुवृत्त्या तु ताः स्वयम् / नेमिरक्रीडयत्प्रेमवतीः सर्वाः प्रजावतीः // 98 // इति तत्क्रीडया प्रीतस्तत्र स्थित्वा चिरं हरिः / निर्गत्य सप्रियस्तस्थौ तीरे राजमरालवत् // 19 // दन्तावल इव त्यक्त्वा सरसी नेमिरप्यथ। पालीवनालीं शिश्राय | // 433 // Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेश // 434 // -*-*-*--*2483R-28-48* चरित्रम् / परिणयणाथं सर्वेषामाग्रहः हरिकान्ताभिराश्रिताम् // 200 // तत्राध्यास्य रुक्मपीठे रुक्मिणी नेमिनं स्वयम् / उन्मृज्य स्खोत्तरीयेण प्रोचे मधुरया गिरा // 1 // तनोः कान्त्या बलेनापि जित ख बान्धवं हरिम् / विधायानेकसम्बन्धमवरोधं पुनर्जय // 2 // खं रूपं यौवनं चेदं सारं किं ? नयसे मुधा / अरण्यनीलोत्पलवद् विना कान्ताकरग्रहम् / / 3 / / कथं स्वस्य पितृन् भ्रातून जगतोऽपि गुरून् गुणैः / लंघयस्याश्रितो वण्टवृत्ति | कुण्ठमते ! वद // 4|| पुरा जिनेश्वराः सर्वे सकलत्रा द्विधाऽभवन् / नवीनस्वं पुनः कोऽपि द्वेधा कौमारमाश्रितः / / 5 / / त्वत्कुले सुव्रतोऽप्यर्हन् भुक्त्वा भोगान् व्रतं श्रितः / तत्वयापि कुलाचारो जिनाचारश्च पाल्यताम् / / 6 // भामाऽथ कृतकोद्भामा ताःप्रोचे सकला | हलाः / निर्लज्जोऽयं पितॄन् भ्रातून मासुंश्वाजिगणन्न हि // 7 // साम्ना न मस्यतेऽस्याग्रे तत्संन्यासः प्रगृह्यताम् / उद्देष्यतां च | हत्या स्वा दण्डसाध्यो ह्यसौ शटः / / 8 // युग्मम् // साक्षेपं जाम्बवत्याद्यास्तामाक्षिप्य निवार्य च। कार्यसिद्धेरौपयिकमाख्युर्नेमे प्रसादनम् // 9 // ततो नेमेः पदोलेगुस्ताः सर्वा हरिवल्लभाः। चित्रं त्वचपलाश्चक्रुः पाणिग्रहमहाग्रहम् // 10 // अथो सतृष्णः श्रीकृष्णोऽप्येत्य नेमेः सयादवः / विवाहायाऽर्थनां चक्रे करे लग्नश्चटूक्तिभिः // 11 // भ्रातर्नय चिरात्पित्रोर्मनोरथरथं पथम् / फलेग्रहिं च वल्लीवन्कुरु राज्यश्रियं मम // 12 // एताः स्त्रीत्वादयं बन्धुलोकश्चाज्ञानतो दृढम् / निबन्धं कुरुतेऽमीपां निषेधे जडता मम // 13 // एतद्वाग्बन्धनान्नान्यन्निर्गमौपयिकं ततः। वाचैवैतद्वचनस्याङ्गीकारो युज्यतेऽधुना // 14 // सन्धिदूपणमत्रैषां लब्ध्वा निर्गम्यते सुखम् / ध्यात्वेति भगवानोमित्युक्त्वाऽमन्यत तद्वचः॥१५॥ त्रि० वि०॥ नेमेरुद्वाहशंसिभ्यो दातुमानन्दसंमितम् / मन्ये क्षमौ | तत्पितरौ खालंकारान् वितेरतुः // 16 // ततोऽतिमुदितः कृष्णः सप्रियोऽपि व्यधात्प्रभोः / न्युञ्छनान्यथ मेघस्यागमेगाद् द्वारका पुनः / / 17 / / नेमेस्तत्रोचितां कन्यामथाऽन्विष्यन् हरिः स्वयम् / अभाणि भामया मेऽस्ति स्वसा राजीमती लघुः // 18 // सित्वाऽथ * सर्ग-१२ // 434 // 16 -18-%AE-*-* Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 435|| -248391846 मागिता राजीमती 4-06-03EREBR | सोऽपि तां स्मृत्वा बलदेवादिभिः सह / गृहेऽगादग्रसेनस्य राज्ञस्तुंगेंऽशुमानिव // 19|| अभ्युत्थायाथ तेनापि हरिमभ्यर्च्य संभ्रमात् / | महार्हासनमध्यास्य तस्थे प्राञ्जलिना पुरः // 20 // तमयाचत्सुतां राजीमतीं श्रीनेमये हरिः / स्वायत्ते प्रार्थना केयमित्युक्त्वा सोऽपि | तामदात् // 21 // तेन सत्कृत्य कृत्यज्ञेनाऽनुव्रज्य जनार्दनः / विसृष्टस्तुष्टिमानाख्यत्समुद्रविजयस्य तत् // 22 // समुद्रविजयः प्रीत| स्तमूचे वत्स ! वत्सलः। पितृषु भ्रातृषु खानास्ति यं ते निदर्शये // 23 // समुद्रविजयः प्रीतिमयः कृष्णश्च पूरुपैः। आह्वाय्य को-| ष्टुकिं मौहृत्तिकं तत्रेत्यध्वोचताम् // 24 // न दक्षिणायने लग्नं यद्यपि स्यात्तथापि नः। शंस नेमविवाहायाऽत्यासन्नं दिनमुत्तमम् | // 25 / / सेहे विवाहनामापि नायं प्राग्विष्णुना पुनः / कथञ्चित्प्रेरितोऽस्त्यद्य विलम्बः क्षमते न तत् // 26 // श्रावणस्य श्वेतपश्यां ततोऽदात् क्रोष्टुकिर्दिनम् / असजतामुग्रसेनसमुद्रावपि सत्वरम् / / 27 / / सरत्नमण्डपेष्वग्रे नित्यशृंगारधारिपु / सरनतोरणेष्वेतदिव्य* सौधेषु योपिताम् // 28 // सन्नाहव्यग्रता देवपूरितेप्सितवस्तुपु / बभूव केवलं नव्यधवलोद्गीतिकौतुकैः / / 29 // युग्मम् / / तदा ददौ द्वारकापि प्रत्यापणगृहोच्छ्तैिः / मञ्चध्वजैः सलास्येव धवलान् किंकिणीरवः // 30 // लग्नासन्ने दिने नेमि श्रीशिवाद्या यदुस्त्रियः। न्यास्यन् सिंहासनं पूर्वामुखं मंगलगीतिभिः // 31 // स्नपयित्वा प्रभु रामकृष्णौ प्रीत्थाऽथ चक्रतुः। बद्धप्रतिसरं हस्तधृतनाराच मात्मना // 32 // उग्रसेनगृहे गत्वा स्वयं राजीमतीमपि / अधिवास्य हरिः प्राग्वदेत्यावासेऽनयन्निशाम् // 33 // संकल्पोपनते नेमी | महानीलरुचावपि / स्फाटिकोज्वलमप्यासीद्रक्तं तस्या मनोऽद्भुतम् // 34 // भावी किं? मे पतिर्नेमिः सुप्राप इति चिन्तया / अन्दोलितं मनस्तस्याः सख्यः स्थैर्यमलम्भयन् // 35 // नेमो नितान्तमेकान्तगतचित्तां व्यनोदयन् / तद्रूपमुपदीकृत्य धात्रीवत्तां दिग- गनाः // 36 // साग्नितैलमयैर्बाणैर्मन्ये पश्चेषुणा हता। प्रापत्तापमोषधीशस्याप्यसाध्यं करौषधैः // 37 // काश्यं चम्पकगौरांगी सा | 435 // Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / | राजीमती दिहस्वरूपम् // 436 // * तथाऽगात्कृशांग्यपि / यथा स्मरोऽस्यां धन्वाशां त्यक्त्वा मौर्वीस्पृहां व्यधात् // 38 // सौधमध्यात्सा गवाक्षं चकोराक्षी मुहुर्मुहुः। ययौ नेम्यागमालोककौतुकोत्तरलीकृता / / 39 / / क्रीडन्तीं तडितं मेघोत्संगरंगे विलोक्य सा। अभूदऽत्युत्सुका नेमेरंके शंके प्रखेलितुम् // 40 // इत्थं देवीव निर्निद्रा पद्मिनीव कथञ्चन / करग्रहोत्सुका भतुस्तां निशां साऽत्यवाहयत् // 41 // अथोदिते वावन्द्री कुंकुमस्तबकत्विपि / सौधादेत्य हरिमिमुद्रोढुं समवाहयन् // 42 // गोशीर्षचन्दनालेपछला दुग्धाभिना स्वयम् / पार्यमान इवोद्दामां शुद्धिमन्तबहिर्भवाम् // 43 // सर्वाङ्गमुक्तालंकारदिव्यवस्वसुमच्छलात् / आराध्यमानोऽलंकारवस्त्रपुष्पद्रुमैरिव // 44 // श्वेत|च्छत्रच्छलान्मूनि पार्श्वयोश्चामरच्छलात् / सेव्यमान इव स्वर्भूर्भुवगांगाभिरादरात् // 45 // आरूढः स्यन्दनं श्वेतवाजिनं दर्शयन् | जने / दिवापि नव्यपूर्णेन्दोवतीर्णस्य विभ्रमम् // 46 // तूर्याणां बन्दिनां चोच्चैर्धानमुखरयन्नभः / निवार्यमाणदृग्दोपो लवणो| तारणैः स्वसुः॥४७॥ महायशिविकारूढैः पृष्टे यदुवधूजनैः / विलासिनीजनैश्चाग्रे गीयमानगुणो भृशम् // 48 // पाचयो भुजामग्रे | कुमाराणां च कोटिभिः। पृष्ठे दशाहगोविन्दरामाययदुभिवृतः॥४९॥ आशास्यमानो वृद्धन वर्ण्यमानो नवेन तु / पौरस्रणेनोग्र| सेनगृहाग्रे नेमिरागमत् // 50 // अष्टभिः कु०॥ तूर्यनादैर्मेघनादेरिवोत्कों के किनीमिव / सख्यो राजिमती निन्युर्गवाक्षं तन्मनो| विदः / / 51 / / तारुण्यशिखिनो मन्ये कलापं कबरीमिषात् / दधाना कान्तसीमन्तमुक्तास्तोमज्छलाच्छिखाम् / / 12 / / बटुं प्रियमनो मत्तमतंगजमिवोन्नतम् / चान्दनं तिलकं भाले बिभ्रत्यालानवनवम् // 53 // भृगाकृष्टाकेतकाग्रदलद्रोणीसनाभिभिः / उत्तंसयन्ती | नयनैः कान्ताशां देवतामिव // 54 // अद्यापि सृष्टा सृष्ट्वा खं वपुः खण्डयतेन्दुना / अप्राप्तवृत्तसौन्दोल्लेखमाविभ्रती मुखम् / / 55 // भ्ररज्जुसंश्रयाद् भाग्यसौभाग्यनटयोरिव / नतितुं सजितं धात्रा नासावंशं दधत्यलम् // 56 // दिनकृयामिव स्वर्णकुण्डलाभ्यां सर्ग-१२ // 436 // Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 437 // मुदाश्रितौ / स्वच्छौ कपोलौ बिभ्राणा जम्बूद्वीपविधू इव // 57 // हदि प्रियानुरागाब्धेरुद्गतां लहरीमिव / विभ्राणा दन्तरत्नांशुयुतां बिम्बोष्टकैतवात् / / 58 // अतिक्षामस्य मध्यस्य कंठेन सुहृदा ध्रुवम् / हारयष्टिमवष्टम्भायाऽऽर्पयन्ती कृपावती // 59 // युक्तौ न रत्न | पशुदयया के प्रभोः पश्चामञ्जीरौ मम हंसगतेरिति / शोपन्नखच्छलाद्रोषारुणेनाहियुगेन सा // 60 // वातायनमलंचक्रे विमानमिव नाकिनी। नेमेावण्यपी द्वलनम् युपं पपौ चानिमिषेक्षणा // 61 // दशभिः कु० // तस्मिन् विवोढुं प्राप्तेऽपि गृहं सैवमचिन्तयत् / किं ? मेऽपि भाग्यं योग्यं स्यादीदृग्वरकरग्रहे // 62 // स्फूर्त्या दक्षिणवाहक्ष्णस्तापेन च मनोङ्गयोः। निश्चित्य दुर्लभं नेमि राजीमत्यरुदत्तदा // 63|| सख्यस्ताम| चुराः कस्मात् ? देवि ! हर्षेऽद्य रुद्यते / हेतौ शिष्टे तया चक्रुस्तास्तस्याः शान्तिकं द्रुतम् // 64 // तदा च नानाजीवानामाकर्ण्य करुणस्वरान् / किमेतदिति पप्रच्छ नेमिन्यिपि सारथिम् // 65 // तेनाऽप्यशंसि देवामी तबातिथ्याय मिलिताः। भोजने भृभुजा जीवा जलस्थलखचारिणः // 66 // क्षिप्तास्ते वाटके क्रूरैरारक्षश्च नियंत्रिताः। क्रन्दन्त्युच्चैःखरैस्त्राणं महत् प्राणभयं यतः॥६७॥ दयावीरः प्रभुः प्रोचे सारथिं नय मे रथम् / धृतजीवान्तिके शीघ्रमथ सोऽपि तथाऽकरोत् / / 68 // / प्राणिभिर्वध्यता प्राप्तैदृष्टो दीनास्थलोचनैः / पितेव पुत्रस्त्राणं स्वभाषयाऽथाऽऽथिं च प्रभुः॥६९॥ करुणाकन्दलीकन्दजलदेना sथ नेमिना / आदिश्य सारथिं सर्वे ते व्यमोच्यन्त बन्धनात् // 70|| यथास्थानं गतेष्वेषु स्वनः प्राप्तेिषु च / अवालयद् रथं ने | मिनाथः स्वावसथं प्रति / / 71 / / शिवासमुद्रविजयौ रामकृष्णादयोऽप्यथ / त्यक्त्वा स्वस्वरथान्नेमिमुपेयुः सम्भ्रमाकुलाः // 72 // तत| स्तमृचतुः साश्री पितरौ जात ! युज्यते / अकाण्डे खण्डितुं नास्मन्मनोरथरथस्तव // 73 / / दुग्धे लवणवक्षिप्वा मंगलेऽस्मिन्नमंगलम् / // 437 // अस्माकं नन्दनोऽपि त्वमाः कथं क्रन्दनोऽभवः // 74|| स्वाम्युवाचाविमृश्यैवं मह्यं किमु निगह्यते / यतः स्यान्नन्दनः सूनुः कथं Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम-* शास्त्रयदौच्यत // 75|| जायमानो हरेदारान् वर्द्धमानो हरेद्धनम् / प्रवसंश्च हरेत्प्राणान्नास्ति पुत्रसमो रिपुः // 76 / / अथैतदप्यऽभीष्टं जिनेशवो महानेम्यादिभिः सुतैः / तज्जातमेवाऽऽनन्दं तु कर्ताऽहं संयमश्रिया / / 77 / / श्रुत्वेति पितरौ मूर्छाविधुरौ यादवैः सह / क्ष्मांगतौ चरित्रम् / // 438 // चन्दनाये शाश्वासयद् धैर्यवान् हरिः // 78 / / ऊचे च नेमिनं भ्रातर्यथा करुणया पशून् / अन्वग्रहि तथा अत्यन्तदीनौ स्वपितरौ न स्वाभिप्राकिम् ? // 79 / / उपेक्ष्य मदनव्याधवध्यां राजीमतिमृगीम् / पशून मोचयतः किं ? ते दयायाम वैशसम् // 80 // मम रामस्य वायप्रकाशनं तेऽभूत् किञ्चिद्वैराग्यकारणम् / तद् ब्रूहि क्षाम्य राज्यं चादत्स्व वेत्री तवाऽस्म्यऽहम् / / 81 / / स्वाम्यूचे कृष्णबन्धो ! निबन्धो ते | वार्षिकदा नारम्भश्च नियुक्तिमान् / पिदन् कन्यां च युष्मांश्च मोचयिष्यामि बन्धनात् // 82 / / एतदर्थ मयाऽऽरम्भि चारित्रनृपतिः सखा / तदेषां परमार्थेनाहमेवास्मि सुखाकरः // 83 / / परीपहचमू|रान्तरास्ते घातिकर्मजा / तत्सख्यरोधिनीत्युक्ते शाङ्गिणोचे पुनः प्रभुः // 84 // विवेकशाणनिौतमकुण्ठं तजयेऽस्ति मे / वैराग्यशस्त्रं पश्यैतत् सहजज्ञाननिर्मितम् / / 85 / / वैराग्याद् विषयेच्छाया घाते देहस्पृहात्यजः / क राज्येच्छाऽस्तु सिद्धं तत्सख्यं शमनृपेण मे / / 83 // उक्त्वेति पित्रोमा॑त्रोश्च यदूनां च कटुस्वरम् / रुदतामप्यगात् सूतप्रेरिताश्वः प्रभुगृहम् // 88 / / त्रि०वि०॥ तदा चावसरं ज्ञात्वा स्वामी लोकान्तिकैः सुरैः / व्यज्ञापि द्वास्थवन्नत्वा तीर्थ नाथ ! प्रव सगे-१२ तय // 88 / सोऽथ स्वर्णैर्वासवोक्तज़ंभकत्रिदशाहृतैः / वार्षिकदानमारेभे दातुं क्ष्माजनदौस्थ्यहृत् / / 89 / / तदान्यतो विश्वनाथे भानु-* बच्चलिते प्रिये / मूछयाधोऽपतद् भोजतनुजाऽम्भोजिनीव हा // 10 // वयस्याश्च सरस्याभाः कल्लोलेरिव पाणिभिः। शीताम्भोवर्षि // 438 // | भिर्मन्दं मन्दं तामुदतिष्टिपन् // 91 // सा लब्धचेतनोत्थाय श्वासीष्मार्कदुःसहैः। प्रापय्य द्वारकोपान्तशैलक्ष्माजांगलस्थितिम् / / // 92|| समुद्रलहरीभ्योपि संततै रोदनोद्भवैः / निनायाऽनूपतां चित्रं पयःपूरैः क्षणादपि // 93 // युग्मम् / / धृत्वा मपीश्याममुखीं तां Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 // 439 // शलाकामिर प्रभोः / चित्रं चरित्रं दिग्भित्तौ न्यस्य धात्रोदमील्यत // 94 // उच्चैः सा विललापे सख्यः पश्यत मे प्रियः / अन्ववाजि * स्वयं रनवलयैः प्रस्थितैः करात् / / 95 // क्षणं व्यलम्बि नो धृत्या चित्तेनाऽचालि तत्पुरः। किं ? बहुक्तैरय सार्वः प्राणैरप्यनुगं- राजामत्या मूर्छा स्यते // 96 // युग्मम् / / रे देव नैव नेमिमें सृष्टश्चेद् भवता वरः / मद्गृहं तत्किमानिन्ये ? ख्याता वा वक्रता तव / / 97 / / मामुद्वोढ विलापो मनाचेचं नाभूः कृष्णमुखात्ततः / फि ? वृताऽहं त्वया नेमे ! किंवाऽऽगात् खं गृहं मम / / 98 // आगत्य वलितः किंवा ? पशून् निश्चयप्रकिंवा ? व्यमोचयः / चेत्कारुण्यादहं तत्किमबला न कृपास्पदम् 1 // 99 / / आशैशवात्सुराहारमनोहारितनौ त्वयि / सौहृदं वाक्प्र- कटनं च तिष्ठा वा स्याचेत् तत्कौतुकं सताम् // 300 // निःशंक ! शंकसे नैव स्त्रीहत्यापातकाद्यदि / हृद्गतं मे तत्वमेव रक्ष मां मा कलंकय * | // 1 // यद्वा प्रीतिलतासर्वकषं नाम तयोचितम् / महाकुलीनचक्रैकनेमेनेंमिरिति ध्रुवम् / / 2 / / त्यक्त्वा रागवतीं सन्ध्यां भानुना भवता च माम् / चलप्रकृतिता स्त्रीभ्योऽपनीता स्वीकृता स्वयम् / / 3 / / श्रीनन्दनतया बिभ्यत्किंवा स्मरहरं स्मरन् / अपराशरोऽभूस्वं यदस्मात् त्रिजगजयी // 4 / / किश्च प्राकर्मभिर्योऽत्र प्राणी यस्य कृते कृतः। स तेन योज्यतेऽसत्या बागेपाऽभूद् वृत्तेस्तव / / 5 / / अतो|ऽनुमानतो मन्ये प्राग्भवेषु मया विना / भवान्नारंस्त नामुक्त नाशेताऽतप्त नो तपः / / 6 / / वज्रादपि कठोरोऽभूद् दुर्गहचानिलादपि / यदिदानी ध्रुवं तेपां कर्मणामभवत्क्षयःजा त्रिवि०॥ सख्यतामूपिरे गेमेरप्रतिष्ठस्य पान्यः। नामापि मा ग्रहीदेवि! क्लीयो भावी व्रती ह्यसौ // 8 // अनूढामपि यचां सोऽत्याक्षीतत्साध्वऽभूत्सखि / यदुवंशजनिस्तादृक् क्वाप्यन्यः परिणेष्यति // 9 / / प्रोचे महासती राजीमती कोपवती सखीः / दुरे प्रयात भोः पापाः किमेवं ब्रूथ मत्पुरः॥१०॥ वैदग्ध्यमेव सृष्टं वो न विवेकस्तु वेधसा / न // 439 // जानीथ मत्कुलात्मकुलयोर्यत्त्रपाकरम् // 11 // अनिच्छताप्यहं तावन्नेमिना वचसाहता / मयाऽऽदद्रे तु वचसा मनसाऽप्ययमेव हि 43984 1998--186058982163-08-232-28-11 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 440 // * // 12 // ततो यद्यपि तेनाऽहं न गृहीताऽस्मि पाणिना। तथाप्यग्राहिषि हृदा स्वपृष्ठस्याऽनिषेधनात् // 13 // ततो नेमि विना नान्यः जिनेशशरणं कोऽपि राजसः / प्रतिज्ञायेति सा मौनं निन्ये ध्यानमुखीः सखीः / / 14 / / राजीमत्याः प्रतिज्ञां तां जनात् ज्ञानत्रयादपि / ज्ञा- चरित्रम् / | त्वाऽपि निर्ममो नेमिर्तस्थौ मौनेन तत्त्ववित् // 15 // वर्ष यावदतो नेमिहेनो वृष्ट्याऽसिञ्चन्महीम् / समुद्रविजयादीनां नेत्रौधोऽश्रा- दीक्षाभिषे म्वुनः पुनः / / 16 / / स्वामिभावं तदा ज्ञात्वाऽऽसनकम्पादुपेत्य च / सर्वेऽपीन्द्राः प्रभोर्दीक्षानानं तीर्थोदकैय॑धुः // 17 // लिप्वा शमे- को वृतार्थ|न्दुज्योत्स्नाभैश्चन्दनस्तं व्यभूपयन् / दिव्यवस्वादिलंकारेव्रतश्रीप्रहितरिव / / 18 / / नाम्नोत्तरकुरुं रत्नशिबिकामिन्द्रकारिताम् / नरदेवस Kगमने राजी| हस्रेणोद्वाह्यामारूढवान्प्रभुः // 19 // तत्र सिंहासनासीनः प्राङ्मुखो वासवैः क्रमात् / धृतच्छत्रः मूत्रिताष्टमंगलो धृतचामरः // 20 // मती सखि विज्ञप्तिः प्रसुरासुरैः पितृमातृवगै रामाच्युतादिभिः / अन्वीयमानः संस्तूयमानो बन्दिजनघनैः // 21 // स्पृष्टं चानेकशो द्वारवतीयुवतिविभ्रमैः। भोर्मोनता अस्पृष्टमिव सौभाग्यं सद्भाग्यालभ्यमुद्वहन् / / 22 / / गीयमानः सुरैर्वृन्दैस्तूर्यसांराविणैर्दिशः / गापयन्निव कीर्ति स्वां सौधात्प्रातिष्ठत | प्रभुः // 23 // च० क० / / गृहाभ्यणेन तं यान्तं विवोढुं संयमश्रियम् / दृष्ट्वा राजीमती सद्यः शुचा मृच्छां समासदत् // 24 // ततस्तस्याः सखी चारुमुखी स्थित्वा पुरः प्रभोः / इति निन्दामूचारम्भानुपालम्भानवोचत / / 25 / / स्वामिन् ! संयमलक्ष्मीस्ते प्राज्यं कार्ग-१२ राज्यं हरिष्यति / मनः पुनः केवल श्रीमति मुक्तिनितंबिनी // 26 // सर्वसाधारणीषु वं नीरागास्वनुरागिताम् / पण्यांगनास्विवैतासु | सर्वथा मा कृथा वृथा // 27 / / भवाष्टकभवप्रौढप्रेमसम्बन्धबन्धुराम् / अनन्यरागिणी बालामनाथां विरहातुराम् // 28 / / जानन राजी 1 // 44 // |मती देव! नैवं त्यक्तुं त्वमर्हसि / क वा विवेकः स्यात्पुंसां धृतस्त्रीहतचेतसाम् // 29 // युग्मम् // प्राग्निगृह्य जरासन्धवधे राज्ञां दशायुतीम् / अहो कृपालुः सत्वेषु तां वोढुमधुना भव // 30 // हीना भाग्यैः किमेतेभ्यः पशुभ्योऽपि नृपात्मजा / यदेतन्मात्रयापि त्वं Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 44 // दीक्षाकल्याणकस्वरूपम् *नाथ नैतामजीगणः // 31 // हृदि वाचि च कौटिल्यममूल्यं विभ्रता त्वया / जितः श्रितश्च त्वामेव शखोऽन्तःकुटिलोप्यतः // 32 // | दत्वा भरतलोकाय कनकं कोटिशस्त्वया / दृशापि तामसंभाव्याऽङ्कितः संवत्सरो नवः // 33 // अथवालमुपालम्भैरेभिः स्त्रीसुलभै यतः / नीलीरागोऽसि देहेन न स्नेहेनेति निश्चितम् // 34 // इति पर्यनुयुक्तोऽपि तया साम्यैकलीनधीः / मौनेनैवापकण्ण्यतां ययाव| स्खलितः प्रभुः // 35 // | इतो राजीमती साम्भःकदलीदलवीजनैः। श्रीखण्डसेचनर्मात्रा स्वास्थ्यं कृच्छ्रेण लम्भिता // 36 // सख्या व्यावृत्तयाऽभाणि निःस्नेहस्यास्य हेतवे / किमेवं ? ग्लपयस्यात्मदेहं मुग्धे मुहुर्मुहुः // 37 // मद्वाक्यभिंद्यतेऽमापि नत्वसावतिनिष्टुरः। मौनी व्रतश्रीज्ञा*नश्रीमुक्तिश्रीसस्पृहस्त्वगात् / / 38 // उवाच भोजभूर्माऽपवद सखि ! मम प्रियम् / अनिषिद्धमनुमतमित्यहं तेन मौनिना / / 39 / / स्वीक-* तैवाऽस्मि यद्वाऽस्मि कुलीना तत्प्रियाऽत्र यम् / आराध्य तं च सेवित्वा भूत्वा द्वेधा पतिव्रता // 40 // भविष्याम्यहमेवास्याऽभिन्ना भेदेऽपि | वल्लभा ।विप्रलम्भेति भोगातिरिक्तनित्यसुखास्पदम्।।४१॥ त्रि०वि०॥अथाससाद भगवान रैवताद्रिं श्रिया निजम् / नीलं दुकूलं मेधावि| स्तारितमिव क्षितौ // 42 // लक्षाम्रवणमप्युर्त्यां सहस्राम्रवणाख्यया / ख्यातमुद्यानमुद्यानीकरणायातनागरम् // 43 // युग्मम् / / तेना त्र शिविकोतीर्णेनाऽस्तं भूपांशुकादिकम् / विष्णोर्दत्वा न्यथाद् देवयं स्कन्थे हरिः प्रभोः॥४४॥ आकम्प्यमानं तच्छीतसुगन्धि* मृदुवायुना / दक्षैरलक्षि चारित्रश्रीकटाक्षच्छटाकृति // 45 // पूर्वाण्हे श्रावणे श्वेतषष्ट्यां स वाष्ट्रागविधौ / केशोत्पाट कृतषष्ठश्चक्रेऽब्द| त्रिशतीवयाः // 46 // प्रतीक्ष्य केशानिन्द्रेण क्षिप्ता क्षीरोदधौ जवात् / उपेत्य तुमुले रुऽऽग्रहीत्सामायिक विभुः॥४७॥ ज्ञानं मनःपर्यायाख्यं श्रीनेमिश्च तदाऽऽसदत् / लेभिरे घ क्षणं सौख्यमद्भुतं नारका अपि // 48 // सहस्रं पावजन् भूपाः संविनाः प्रभुणा सह / // 44 // Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 442 / / सहस्रांशुरिवापास्ततमोभिः शुशुभे स तैः // 49 // नेमि नत्वा ययुः कृष्णादयोऽथ द्वारकां पुरीम् / नन्दीश्वरेऽटान्हिकां तु कृत्वा शकाः जिनेशस्वमास्पदम् / / 50 / / तत्रैव तदहः स्थित्वा द्वितीयेऽन्हि विभुव्रजे / अपारयत्पायसेन वरदत्तद्विजौकसि // 51 // दातुः स्तुतिस्तूर्यनादः चरित्रम् / सुमगन्धाम्बुवर्षणम् / चेलोत्क्षेपो वसुधारा देवैस्तत्रैत्य निर्ममे // 52 // ततोऽन्यत्र ययौ स्वानी स्थाने त्वस्य पदोदिजः / रत्नैः पीठं राजीमत्या बन्धयित्वा मुक्त्यर्थी नित्यमार्चयत् // 53 / / अन्तरंगारिबर्गस्य प्रभुः स्वपुरवासिनः / उच्छेदाय व्यधात्सर्वाश्रवद्वारनिरोधनम् // 54 // रथनेमिसहजेष्वपि रागादिष्वस्त्याः प्रीतिः खलेष्विव / प्रीतिरागन्तु केऽप्यासी योगे मित्र इवाद्भुतम् / / 55 / / नीरागः शंखवद् व्यस्तोपलेपः वाञ्छा तिरस्कृता पद्मपत्रवत् / विजहाराऽप्रतिबद्धो वायुबद् भगवान् भुवि // 56 // रथनेमिरथो नेमेरनुजो भोजनगृहे / गत्वा प्रत्यहमद्राक्षीन्मदिरा-|* क्षीमिमामसौ // 57 / / कुचकुम्भस्थलोत्प्रेक्ष्यमत्तकामेभशालया। बालया दृष्ट्या व्यपेतया चुक्षोभ कौतुकम् // 58 // ततोऽसौ तामुपा- | चारीत्प्रत्ययं नव्यवस्तुभिः / रुजुः सा न्यषेधयत्तं न तद्भावमजानती / / 59 // भ्रातृस्नेहादुपैत्यैष इति भोजसुताऽब्रुधत् / रक्तेयं मयि | मल्लञ्चा स्वीकगेतीतरः पुनः // 60 // भ्रातृजायेति तां मन्यमानोऽसौ नर्म निर्ममे / नान्या सतीनां मूर्द्धन्या त्वहो स्वान्तस्थितिद्वयोः | // 61 / / एतां रहःस्थामन्येयुः स विवोढुमुपारुधत् / ऊचे च नेमिमखों यस्त्वां रक्तामेवमत्यजत् / / 62 / / नकध्यं स त्वयाऽप्रार्थि खां नादरे तु नीरसः / अहं त्वर्थयमानोऽस्मि विनयाद्रचिताञ्जलिः / / 63 / / रुजुर्मगीव सा स्वस्य तं तदाऽमस्त लुब्धकम् / चित्रं चाऽचोधयद् सर्ग-१२ | धर्मद्रुणटंकारडम्बरैः // 64 // स्वारम्भादनिवृत्तं तु तं साऽन्येयुः पुरःस्थितम् / पीत्वा दुग्धमौषधेन वान्त्वा स्थालेऽब्रवीदिति / / 6 / / पि| बेदमथ सोप्यूचे श्वाऽस्मि किं ? यद्वदस्यदः / तयोचे किं ततो नेमिवान्तां मां भोक्तुमिच्छसि ॥६६॥युग्मम्।। तयैवं बोधितो हीणः क्षी- // 442 / / *णाशः स ययौ गृहम् / राजीमती म्मरन्ती तु श्रीनेमिमनयद् दिनान् // 67 // चतुः पञ्चाशदिनानि च्छद्मस्थोऽतीत्य नेम्यपि / आगा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 413 // सहस्राम्रवणोद्यानं रैवतदैवनम् // 68 // यत्र हुमाग्रपुष्पाणि भान्ति फेनच्छटा इव / पल्लवव्यापृतास्यानां मार्तण्डरथवाजिनाम् // 69 / / * सारणीभ्यः परां वृद्धिं यत्र प्राप्येव पादपाः / शाखाहस्तापितैः पृष्पैः फलैः प्रत्युपकुर्वते // 7 // यत्र प्रवालाभरणास्तालैभ्रमरसंगताः / केवलज्ञान| नटबन्नटयत्युच्चैर्मरुद् वल्लीनटीरिख // 7 // श्रीखण्डाक्षतदुर्वाभियंत्रागन्तुनृणामिव / चिकीर्षुमंगलं धत्ते वनश्री तिलकं मुखे // 72 // प्राप्तौ सम* कृताष्टमो वेतमाधस्तत्र प्रतिमया स्थितः / शुक्लध्यानादिमं भेदद्वयं ध्यायन समाहितः // 73 // अमावास्यामाश्विनस्य पूर्वान्हे त्याष्ट्रगे वसरणरचविधौ / आसदन केवलं ज्ञानं घातिकर्मक्षयात्प्रभुः // 74 // षड्भिः कु० // उदिते केवले तत्र चन्द्र व्योम्नीव कौतुकम् / कोऽप्युद्योतः ना सयाद विष्णोरापरानन्ददायी विश्वत्रयेऽप्यभृत / / 75|| तत्रयुगसनोत्कम्पाः सर्वेऽपीन्द्राः सुरैः सह / बारबन्ददेवैः क्षमापीठं संश्चक्रे योजनावधि / | गमनं च | // 76 / / तत्र देवक्लप्तवात्रयव्याजाद्विभु श्रिताः / रूप्यस्वर्णरत्नशैला दोषत्रयभयाद् ध्रुवम् // 77 / / रत्नवापीधूपघटीपताकातोरणादि कम् / सर्व वर्ण्य सुरैः क्लुप्त प्रतिप्राकारगोपुरम् // 78 // देवच्छन्दं मध्यमे च वप्रे कृत्या सुरा व्यधुः / अशोकदुमुपरिमे विंशधन्व| शतोन्नतम् // 79 // तत्र स्वर्णाब्जदत्ताहिः पूर्वद्वारा सुरैः वृतः / नेमिः प्रदक्षिणीकृत्य त्रिरशोकदुम स्वयम् / / 80 / / नमस्तीर्थायेत्युदीर्य प्राङ्मुख देवनिर्मितम् / रत्नसिंहासनं भेजे मेरुशृंगमिवाम्बुदः / / 81 // युग्मम् / / कृतेऽन्यदिक्त्रये देवः दिव्ये सिंहासनस्थिते / नेमे| मृत्तित्रये तस्थुः स्थाने ख ख सभाः क्रमात् // 82 / / ज्ञात्वाऽथ शैलपालेभ्यः श्रीनेमेः केवलोलपम् / रूप्यस्य द्वादशकोटीः सार्धा स्तेभ्यः प्रदाय च // 83 // दशार्मातृभिर्धात्वग्गैरन्तःपुरैरपि / कोटिसंख्यैः कुमारेरप्यर्द्धचक्रिवलेन च // 84 // युक्तो जनार्दनोऽ| भ्येत्य पट्टेभादवतीर्य च / अभिगमेन समवसरणे प्राविशन्मुदा // 85|| त्रि०वि०॥ तृतीयवप्रोदग्द्वारा गत्वा दत्वा प्रदक्षिणाः / | विष्णुर्भावस्तवेनाथ नेमिनाथमवन्दत / / 86 / / भालस्थकरकोशोऽथ स्वभक्तिव्यक्तये पुनः / श्रीनेमि जिनमस्तावीदेवं देवेश्वगन्वितः // 443 // Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 444 // // 87 // स्वामिन्नशोकस्ते सत्यं रक्तो यः पूरयत्ययम् / तीर्थश्रियस्त्वत्प्रियायाः कौंकुभ मण्डनं दलैः // 88 // पुष्पबाणस्त्यक्तषाणः जिनेशसुरपुष्पोत्करच्छलात् / त्वत्पुरो रोदितीवाऽलिरुतैर्नाथ ! जितस्त्वया / / 89 // तत्तद्भापानुप्रवेश निम्नानान्तविपाङ्गिनाम् / नवा वाणी | चरित्रम् / कृपाणीयं ब्रूते ते धर्मवीरताम् / / 10 / / चामरे चामरेन्द्राभ्यामुद्धृते तनुतस्तव / केवलश्रीतीर्थतक्ष्म्योः केलिकरवकौतुकम् // 91 // सिंहा- विष्णुना सनं स्वर्णरत्ननिर्मित ते समुन्नतम् / स्थिति मेरोस्तुंगशृंगे जन्मजातां वदत्यदः // 92 // भास्वच्चक्रमिवाक्षय्यतेजःपुञ्जजिघृक्षया / पृष्ठे कृता स्तुतिः स्थित्वा त्वामुपास्ते प्रभो! भामण्डलच्छलात् // 93 / / अमन्ददुन्दुभिध्वानप्रतिध्वानमिषानमः / गुणानिव तव स्तौति नृत्यद्रत्नध्वज पृष्टं च राजी मती च्छलात् // 94 // स्वर्णदण्डस्थितच्छत्रत्रयव्याजान्निषेवते / स्वर्णाद्रिस्त्वां नाथ मौलिपिण्डितत्रिसरिद्वरः // 95|| इत्यष्टप्रातिहार्यश्री स्नेह कान्ताय परमात्मने / श्रीमन्नेमे धर्मचक्रनेमे तुभ्यं नमोनमः // 96 / / स्तुत्वेत्यासीनयोरिन्द्रोपेन्द्रयोः स्वक्रमात्तयोः / अमर्शधर्म कारणम् धर्मान्तं स्वामी धर्ममुपादिशत् / / 17 / / भवाश्रितानां जीवानां सुलभाः स्युर्विभूतयः / वृषो नतु यमारूढाः पश्यन्ति न पुनर्भवम् / / 98 / / केचिन्मय॑जनिं दुर्गा तत्प्रियां सर्वमंगलाम् / आराध्य भव्याः संप्राप्य गणेशं चेष्टदायकम् // 99 / / आवयं च भवं ताभ्यां - | वृषमासादयन्ति चेत् / न पुष्णन्ति तथाऽप्येनं तारकारातिविनिताः // 400 // युग्मम् / / यामैश्चतुर्भिः केचित्तं सर्वतो देशतोऽपि च / केचित्पुष्टं विधायाऽहो यान्ति ब्रह्मपदं समम् // 1 // श्रुत्वैवं देशना नेमेर्वरदत्तो नरेश्वरः / सर्वतो वृषमारोढं प्रौढमैच्छद् विविक्तधीः |* | सर्ग-१२ | // 2 // कृष्णोऽपृच्छत् प्राञ्जलिश्च त्वयि शीतरुचाविव / सर्वोऽपि प्रीतिमान् लोकश्चकोरकुलवत्प्रभो ! // 3 / / कुमुदतीव श्रीराजीमतीयं | त्वनुरागिणी / यत्वय्येव विशेषेणाऽजनि हेतुस्तदत्र कः? // 4 // अष्टौ भवान् स्वसम्बन्धं तस्मै नेमिस्तया सह / आख्यद् धनधन // 444 // | वतीभवादारभ्य विस्तरात् // 5 // उत्तमर्णाधमर्णत्वं नीयन्ते कम्मंभिर्बलात् / प्राणिनस्तेषु च क्षीणेष्वेतस्याश्छुटितोऽस्म्यहम् // 6 // Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 445 // गणधरादिदीक्षा तीर्थस्थापना च विशेषाजातवैराग्यं वरदत्तं नृपं ततः। द्विसहस्रनृपयुक्तं प्रभुः प्रावाजयत् स्वयम् // 7 // धनदेवधनदत्तौ यावाद्यभववान्धवौ / मंत्र्या| सीद्विमलबोधोऽपराजितभवे च यः॥८॥ स्वामिना सह ते भ्रान्त्वा भवं तस्मिश्च जन्मनि / जाता नृपास्त्रयस्तत्रायाताः श्रुत्वा प्रसं| गतः // 9 // राजीमत्याः कथायां स्वान् भवान् वैराग्यशालिनः / नेमे कराम्बुजाद् दीक्षां दक्षा जगृहिरे मुदा // 10 // त्रि०वि०॥ | तैः सार्धं वरदत्तादीनेकादशगणाधिपान् / स्थापयामास परमेश्वरःसुरकृतोत्सवान् // 11 // प्रभोस्ते त्रिपदीं प्राप्य कौतुकं युगपद् व्यधुः / पृथक् पृथक् द्वादशांगी निजामन्तर्मुहूर्ततः / / 12 / / यक्षिणी राजपुत्रीं च बहुराजसुतायुताम् / प्रव्राज्य स्वामिनाऽस्थापि साध्वीवृन्दमहत्तरा // 13 // दशाहरुग्रसेनेन प्रद्युम्नाद्यैः सुतैः सह / भेजे रामः श्राद्धधर्म कृष्णः सम्यक्त्वमेव तु // 14 // शिवारोहिणिदेवक्यो | रुक्मिण्याद्याः स्नुषा अपि / भेजुर्यदुस्त्रियोऽन्याश्च श्राद्धधम्म यथोदितम् // 15 // एवं संघ चतुर्मूतों जातेऽभूदाद्यपौरुषी / व्यस्रा क्षीद् देशनां स्वामी प्रागद्वारा चाऽविशद् बलिः // 16 // बलेः कृष्णानायितस्योत्क्षिप्तस्याद्धं सुरैदिवि / आददेऽर्द्ध परं मास्थं भक्त्वा * राज्ञा जनेन च // 17 // देवच्छन्दे विभौ प्राप्ते वरदत्तो गणाधिपः। द्वितीयां पौरुषीमाख्यत् धर्म तत्पादपीठगः // 18 // इन्द्राः | तदन्ते सर्वेऽपि कृष्णाद्याः माभृतोऽपि च / जिनं नत्वा ययुः खं खमास्पदं सपरिच्छदाः // 19 // गोमेधत्रिमुखः श्यामो यक्षः पुरुषवाहनः / बीजपुरपशुचक्रभृद्दक्षिणभुजत्रयः / / 20 / / नकुलत्रिशूलशक्तियुतवामभुजत्रयः / श्रीनेमिस्वामिनस्तीर्थे जज्ञे शासनरक्षकः // 21 / / युग्मम् / / देवी तु जात्या कुष्माण्डी स्वर्णवर्णाम्बिकाभिधा। सिंहयाना चूतलुम्बिपाशिदक्षिणदोद्वया // 22 // तनूजाङ्कुशभृद्वामदोईया चाऽभवत्प्रभोः / रक्षाकर्वी शासनस्य देवता तत्तपःकृता // 23 // युग्मम् / / सदैव ताभ्यां च सदेवताभ्यां द्वात्रिंशता चा|तिशयैरमुक्तः। तत्रैव वर्षाशरदौ व्यतीत्य प्रभुः पुरं भद्रिलमाजगाम // 24 // अममचरिते भाविन्येवं तयोः सहजन्मनोबलहरिभवे // 945 // Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / तुर्ये धुर्येऽर्जनाय जिनश्रियः। जिनपरिवृढानेमेबन्धोनिशम्य गृहिव्रताधिगममसमं सम्यक्त्वाद्यं जनैरिह यत्यताम् // 25 // इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते श्रीअममस्वामिचरिते महाकाव्ये तुर्यभवे श्रीनेमिकौमार-क्रीडा-दीक्षा-केवलोत्पत्ति-समवसरणसंघ-दशाहरामकृष्णतत्पुत्रधर्मप्रतिपत्ति-शासनदेवतास्वरूपवर्णनो द्वादशः सर्गः // 0 428 // त्रयोदशः सर्गः। देवकी // 446 // स्वरूपम् इतश्च भद्रिलपुरे दत्ताः प्राग् निगमेषिणा। देवकीकुक्षिजाः षड् ये सुलसानागयोः सुताः॥१॥ तैश्च ताभ्यामुद्वाह्यन्त द्वात्रिंशत्कन्यकाः पृथक् / रुतुवच्च च्यधुश्चित्रमहो प्रद्युम्नशासनम् // 2 / / ज्ञात्वा च समवसृतं श्रीनेमि पितृभिः सह / नन्तुं प्राप्ताः प्रति| बुद्धास्तद्गिरा प्राव्रजन मुदा // 3 // बभूवुश्चरमाङ्गास्ते द्वादशाङ्गधराः क्रमात् / तपस्यन्तो विहृत्येयुभरका प्रभुणा सह // 4 // सहस्रा| प्रवणात् षट् ते कृत्वा संघाटकत्रयम् / षष्ठान्ते पारणायागुः पुर्यन्तर्देवकीगृहे // 5 // वीक्ष्यातिहृष्टा कृष्णाभमादौ प्राप्तं मुनिद्वयम् / मोदकैर्देवकी प्रत्यलम्भयत्सिहकेशरैः / / 6 / / घुणाक्षरक्रमात्तत्रान्यत्साधुद्वयमागमत् / सा हृष्टा तदपि प्रत्यलम्भयत्तेः सुमोदकैः // 7 // | दैवात्तृतीयमप्यागात्तत्र साधुद्वयं तदा / तन्नत्वा देवकी प्रोचे मृदुवाग रचिताञ्जलिः // 8 // किं ? दिग्मोहाधुवां प्राप्तौ पुनः किं ? मे | मतिभ्रमः / लभन्ते मुनयः किं वा नास्यां भक्तादिकं पुरि // 9 // ताभ्यां प्रोचे न नौ मोहो न ते भ्रान्तिर्वयं पुनः / षट् सोदरा: प्राबजाम द्वौ द्वौ भृत्वाऽऽगमाम च // 10 // दध्यौ देवक्यमी कृष्णतुल्याः किं ? स्युः सुता मम / ऊचेऽतिमुक्तको मां यजीवत्पु // 446 // Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 447 // *त्राष्टकां मुनिः॥११॥ लक्षितानपि तानङ्गचेष्टया च हृदापि च / निर्णतुं तु द्वितीयेऽह्नि गत्वाध्याक्षीदसौ प्रभुम् // 12 // आख्यजि नोऽपि देवक्याः पडमी ते सुता इति / तजीवितकथां चाथोत्प्रश्रवा तान्ननाम सा // 13 // ऊचे च दिष्ट्या दृष्टाः स्थ पुत्रा युक्तं च | मद्भवाम् / राज्यं व्रतं वा खिये तु स्वयं नैकोप्यलालयत् // 14 // प्रभुः प्रोचे देवकि ! ख सपत्न्या रत्नसप्तकम् / अहार्षीः प्राग्भवे भ लालनला लसा गजतस्या रुदत्याश्चकमार्पयः॥१५।। अतस्त्वं स्वयगुप्तस्य कर्मद्रोः फलमिदृशम् / किं ? विपीदसि भुञ्जाना यदभृद् भूतमेव तत् // 16 // 17 सुकुमार के श्रुत्वेति देवकी प्राच्य निन्दन्ती दुःकृतं ययौ / स्वसौधे दुर्मनाश्चास्थात्काया पुत्रजन्मनः // 17 // सा नन्तुमीयुषा पृष्टा शाङ्गिणा है जन्म च मातरीक्ष्यसे / किं ? दुर्मनाः साऽप्यवादीदमि यद् व्यर्थजीविता // 18 // वद्धितस्त्वं नन्दगृहे नागगेहेऽग्रजास्तु ते / तन्निन्द्याऽस्मि | पिकीवाहं स्वापत्यालालनात्स्वयम् // 19 // ककोंटीव बरं वन्ध्या नारी नापत्यसूः पुनः / पशुभ्योऽप्यतिहीना या खाङ्गजं लालयेन्नहि // 20|| स्त्री पुत्रिण्यपि भौरकमठीह कमठीव सा / उत्सङ्गरङ्गेरङ्गन्तं न लालयति याऽङ्गजम् // 21 // प्रसूतिवेदनाभाजां धिक् तासां जन्म योषिताम् / अपत्यलालनासौख्यं यकाभिर्नानुभूयते // 22 // स्त्रीणां साम्राज्यभोज्यालङ्कारमारोपभोगजम् / सुखं तृणायते बाललालनाशर्मणः पुरः // 23 // तद्वत्स! पुत्रमिच्छामि लालनोद्गाढकौतुकात् / त्वयैकेनाप्यन्यथाऽस्मि पूरितापरकौतुका // 24 // पूरयाम्पेष तेऽभीष्टमित्युक्त्वा तां हरिगृहम् / गत्वा देवमष्टमेनाराधयन्नैगमेषिणम् // 25 // तुष्टो देवोऽवदत्कृष्णं मातुस्ते भविता | सुतः / किन्तु प्रबजिता प्रौढ इत्यम्बां सोऽप्यजिज्ञपत् // 26 // तदेव देवकीकुक्षि देवः कोऽपि दिवश्युतः / अलंचक्रे गजखमसूचितोऽथावृधत्सुखम् / / 27 / / जातः काले विश्वरूपरूपः सूनुरथोत्सवात् / तेन गजसुकुमाराभिधः स्वमार्थतः कृतः // 28|| देवकी देवरूपं तं लालयन्ती स्वयं करैः / प्रीतिमुल्लापनैश्चोल्लापयन्त्याऽऽपन्नवैनवैः // 29 // मातुर्धातुश्च जज्ञेऽसौ प्राणेभ्योऽ // 447 // Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेशचरित्रम् / गजकुमार दीक्षा निर्वाणश्च श्रीअमम प्यतिबल्लभः / यदुनेत्रसुधाविन्दुरिन्दुवत्प्राप यौवनम् // 30 // तनयां द्रुमराजस्योपयेमे स प्रभावतीम् / सोमां च क्षत्रियाजातां सोम शर्मद्विजाङ्गाजाम् // 31 // अन्यदा तत्र समवसृतान्नेमेर्मुखादऽयम् ! श्रुत्वा धर्म स वैराग्यः प्राब्राजीत्सप्रियाद्वयः // 31 // जीववत्प्र॥४४८॥ | व्रजत्यस्मिन् यदुवंशशरीरतः / पितरौ रामकृष्णौ च दशाश्चिारुदन भृशम् // 33 // स सायं प्रभुमापृछ्य श्मशाने प्रतिमां श्रितः / | देवाच्च श्वशुरेणैक्षि ब्रह्मणा सोमशर्मणा // 34 // प्रव्रज्यायं मम सुतां व्यडम्बयदिति क्रुधा / सोऽस्य मनि घटीकण्ठं चिताङ्गारचितं न्यधात् / / 35 / / असत्प्रवृत्तमेनं चेन्नाहं बोधयितुं क्षमः / तदस्मै कुप्यतो मे स्याद् व्यक्ता प्रत्युत मूर्खता॥३६॥ मुमुक्षोदुःखहे तुर्मे देहोऽरियों भवानुगः / तमेवायं निगृह्णानः सुहृदोऽर्थान्तरं नहि // 37 // अविचिन्त्य स्वधर्मस्य बाधां मत्कर्मशुद्धये / यः प्रवृत्तो PSIT न चेदेनं सहे तत्स्यां कृतापहः // 38 // देहस्त्वत्तो विभिन्नोऽयं साद्धं गन्ता त्वया न च / कृतनस्य तदस्या वत्तिस्ते जीव नोचिता | // 39 // सोढाः प्राग् नरके नानारूपा या वेदनास्त्वया / नेयं पीडा तदंशेऽपि तज्जीव ! क्लीवतां त्यज // 40 // ध्यायन्निति गजोऽगौरः पीड्यमानोऽपि साम्यभृत् / दग्धकर्मेन्धनो लब्धकेवलो मोक्षमासदत् // 41 // सादरं सोदरं द्रष्टुं हरिरुत्कण्ठितः प्रगे / नन्तुं च नेमिमचलद्रथस्थः सपरिच्छदः // 42 / / बहिः पुर्या वजन् वृद्धं वहन्तं शिरसेष्टकाः। द्विजं देवालयकृते दृष्ट्वा करुणया हरिः॥४३॥ | आपाकादिष्टकां निन्ये स्वयं लोकोऽप्यथाहतः। इष्टकाः कोटिशोऽनपीस हि राजानुवर्तकः // 44 // युग्मम् / / सोऽथ गत्वा प्रभु नत्वाऽपृच्छत्क्वागाद्गजो मुनिः / स्वाम्यप्याख्यत्तस्य मुक्तिं वैशसात् सोमशर्मणः // 45 // मूच्छित्वा क्षणमाश्वस्याऽपृच्छद् भूयः क्रुधा हरिः। ज्ञेयः स दुर्द्विजो नाथ ! भ्रातृघाती मया कथम् ? // 46 // स्वाम्यूचे कृष्ण ! मा कुप्य द्विजाय स हि तेऽनुजम् / कन्तेिनोपचक्रेऽद्य मार्गे विनं भवानिव // 47 // सिद्धिः परस्य साहाय्यात् कार्यस्य स्यात्सतां द्रुतम् / वायुना दीपितो ह्यग्निस्तृणकक्ष सर्ग-१३ // 448 // Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 449 // वैराग्याद् यादव राजीमतीदीक्षा क्षणाद् दहेत् // 48 // यस्त्वां पुर्यां विशन्तं च वीक्ष्य खोद्वन्धधीव्रजन् / शिरःस्फोटान्नियेताशु स ज्ञेयो भ्रातृहा त्वया // 49 // क्रन्दन कृष्णोऽपि संस्कार्य गजं पुर्यां विशन् द्विजम् / सोमं तथा मृतं वीक्ष्य गृध्रेभ्योऽदापयद् बलिम् // 50 // यदवो बहवो| | दीक्षां जगृहुर्गजदुःखतः / शिवादेवी दशार्दाश्च वसुदेवं विना नव // 51 // राजीमत्यपि संवेगाद् दत्तां श्रीनेमिपाणिना। व्रतश्रियं | समाश्रित्य स्वां प्रतिज्ञामफूपुरत् // 52 // तामन्ववाव्रजन्नन्या अपि बढ्यो यदुस्त्रियः। नन्दपुत्र्येकनाशाऽपि कृष्णप्राणोपकारिणी | // 53 // प्रभोश्च सोदराः सप्त हरेः पुत्राश्च भूरिशः / प्रात्रजन् केशवः प्रत्याख्यात्तु कन्याविवाहनम् / / 52 // तत्पुत्र्यः प्राव्रजन् सर्वा | वसुदेवस्य च प्रियाः / देवकी कनकवतीरोहिणीभिविनाऽखिलाः // 53 // गृहेऽपि कनकवती वैराग्यात्प्राप्तकेवला। स्वयमात्तव्रता |* | देवैः क्लुप्तोरुमहिमाऽखिलैः // 54 // नेमिं दृष्ट्वा वने गत्वा मासं चानशनं श्रिता / क्षीणनिःशेषकर्मा च लेभे मुक्तिश्रियं सखीम् | // 55 / / युग्मम् / / नैषधिः कमलामेलापतिः पौत्रस्तु सीरिणः / श्राव्रतदृढो भेजे सागरः प्रतिमाः प्रभोः॥५६॥ कायोत्सर्ग इमशानेऽसौ वैराग्यादन्यदा ददौ / रक्षसेव नभ सेनेनैक्षि च च्छलवीक्षिणा // 57 / / घटकण्ठं चिताङ्गारचितं न्यस्यास्य मूनि सः। | उवाच कमलामेलाहृतिबल्लेः फलं वृणु / / 58 // सागरोऽप्यधिसबैतत्स्मृत्वा पञ्चनमस्कृतिम् / सम्यक् साम्यरतः प्राप देवलोकं समाधिना // 59 // सदस्यूचेऽन्यदा शक्रो नीचयुद्धं करोति न / परस्य गुणानेव वक्ति दोषान्न केशवः॥६०॥ तदश्रद्दधता चक्रे नाकिना केनचित्पथि / दुर्गन्धः श्वा मृतः श्यामः कृष्णस्य व्रजतो बहिः॥६१।। दुर्गन्धवासितजनं तं श्वानं प्रेक्ष्य केशवः / ऊचे श्यामेऽत्र शोभन्ते दन्तास्तारा इवाम्बरे // 62 // हरन्नश्वं हरीभूय वाजिरत्नं सुरः पुरः / कृतान्यसैन्यदैन्यश्चान्वेत्य प्रौच्यत विष्णुना // 63 / / रे रे तिष्ठ क ? गन्ताऽसि मुश्चाश्वं मा वृथा मृथाः / श्रुखेति मायी प्रत्यूचे मां जित्वाऽश्वं गृहाण भोः // 449 // Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / धन्वन्तरी| वैतरणी वैद्यस्वरू // 450 // पम् // 64 // रथमादत्स्व तहीति विष्णूक्तः सोऽब्रवीन्न मे / सेनांगयुद्धैः कार्य तद्विधेहि पुतसङ्गरम् // 65 // निषिद्धाधमयुद्धोऽथ तुष्टा- |ल्लभे हरिः सुरात् / दिव्यचन्दनजां भेरी शब्दात्पण्मासरोगहाम् // 66 // गते देवे हरिभैरी पण्मास्यास्तामवादयत् / प्राररोगोऽशाम्य- दुत्पेदे पण्मासान्न जने नवः / / 67 // देशान्तरादयो भेरीख्याति श्रुत्वाऽगमद्धनी। दाहज्वरातों लक्षेग सद्रक्षं फोप्युपाचरत् / / 68 // द्रव्यलुब्धः पलमात्रं दत्वा भेरी स तां पुनः / अन्यश्रीखण्डखण्डेनापूरिष्टाऽलक्ष्यसन्धिना / / 69 // इत्थं ददौ सोऽन्येभ्योऽपि लोभाद् भेर्यप्यभूत्ततः / श्रीखण्डखण्डैः कन्धेव निःप्रभावा च धिग्विधिः // 70 // पुर्यां जातेऽन्यदा रोगे केशवस्तामवीवदत् / रुष्टेव स्वामि| नोऽदत्त न च साऽल्पमपि स्वरम् // 7 // पुम्भ्यः प्रत्ययितेभ्योऽथ ज्ञात्वा भेरीकथां हरिः / हत्वा तद्रक्षमापञ्चाष्टमेनैतां सुरान्नवाम् | तां वादयित्वा नीरोगं कृष्णश्चक्रे पुरीजनं / धन्वन्तरिवैतरणी वैद्यौ चात्रादिशत्स्वयम् // 73 / / तयोर्भव्यो चैतरणिश्चिकित्सासुचितां जने / आख्यचक्रे स्वकीयं च ददौ पथ्यौपधादिकम् // 74 // पापां धन्वन्तरिस्त्वाख्यद्विशेषेण च साधुषु / तेऽप्यचिरे तत्सावा | नास्माकं सौम्य ! कल्पते // 75 / / उद्धृस्तानऽवदत्सोऽपि नायुर्वेदो मयाऽऽर्हतः / पेठे भवत्कृते कोऽपि मा मां प्राक्षुरतः पुनः // 76 / / | पुर्यामेवं तयोर्वर्तमानयोरन्यदा पुनः / प्राप्तं श्रीनेमिमुद्यानेऽपृच्छत्प्रेत्यगति हरिः // 77|| आख्यद्धन्वन्तरेः स्वामी सप्तम्यां नरका* वनौ / अप्रतिष्ठानकावासे सर्वोत्कृष्टस्थितां गतिम् / / 78 // भावी वैतरणीवेद्यो विपन्नो विन्ध्यकानने / वानराणां यूथपतिस्तत्र भ्राम्य श्च सोऽन्यदा // 79 // सार्थभ्रष्टैःसूरिसाधुवृन्दैरेकं तपोधनम् / लग्नशल्यं पदे मागे सर्वथा गन्तुमक्षमम् / / 80 / / ज्ञात्वा शल्यं दुराकर्ष भक्तत्यागोद्यतं च तम् / निर्वार्य सात्रैः सच्छाये नीतं तेश्च तरोस्तले / / 81 // मा मृड्वं मत्कृतेऽरण्ये इति तेनैव सादरम् / सार्थाय प्रहितः कृच्छ्रान मुक्तमीक्षिष्यते जवात् // 82 // च०क० // वानरेषु फिलिकिलायमानेष्धेप लप्स्यते / जातिस्मृति मुनि पश्यन् सर्ग-१३ // 450 // Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 45 // * वैद्यकं च स्मरिष्यति // 83 // आनीय चौषधीं विन्ध्याद्विशल्यां रोहिणी च सः / दन्तैः पिष्ट्वाऽऽदिमामही शल्योपरि निधास्यति || ||84 // द्वितीययाऽऽरोहयित्वा तं व्रणं मुनिमक्षरैः / ज्ञापयिष्यति भून्यस्तैः खं वपन्नथुलोचनैः / / 85 // युग्मम् // द्वारवत्यां बभूवाह | मुनिसेवया वैद्यो वैतरणिः पुरा / तैरथ्यामासदं श्राद्धोऽप्यार्तध्यानो प्रमद्वरः // 86 // मुनिस्तं कृपया साम्यरूपं धर्म प्रवक्ष्यति / व्यहं संन्यस्य वैतरणीजीभविता सहस्रारे सुरो स च // 87 // स द्रक्ष्यत्यवधेः साधु वितरन्तं नमस्कृतीः। स्वस्थानशनिनो निर्जीवस्याप्यत्यन्तवत्सलम् // 88 वकपः एत्य भक्त्या सुरः साधुं नत्वा खं ज्ञापयिष्यति / प्रापयिष्यति गच्छं च गुरोराः साम्यवैभवम् // 89 // श्रुन्वेति साम्यमाहात्म्य स्वर्गमनम् स्तुत्वा नत्वा जिनं हरिः / ययौ निजपुरीं स्वाम्यप्यगादन्यत्र निर्ममः // 90 / / वर्षासु द्वारकामेत्याऽन्यदा नेमिरवास्थित / उपासा| मास कृष्णस्तं सतृष्णश्चातकोऽब्दवत् // 91 // पप्रच्छ कि ? न वर्षासु दत्तहर्षासु साधवः / विहरन्तीत्युवाचाथ वाचा मधुमुचा प्रभुः | // 92 / / युग्मम् / / बहुजीवाकुलं पृथ्वीतलं वर्षासु जायते / सश्चरन्त्यत्र तत्प्राणत्राणाय न मुनीश्वराः // 13 // श्रुत्वेति श्रीपतिः प्रोचे तहिं मेऽपि गतागतैः / ससैन्यस्य भवेजीवघातः पातककृत्ततः॥९४॥ वर्षासु निःसरिष्यामि नाहं निजगृहाद्वहिः / अभिगृह्य प्रभोर्वक्त्रादिति धाम जगाम सः // 95 // युग्मम् // प्रवेशः प्रावृषं यावद्देयः कस्यापि नो मम / आवास इति च द्वारपालानादिष्टवानयम् // 16 // पुर्यां तत्राभवद्वीरः कुविन्दो भक्तिमान् हरौ / अवीक्ष्यापूजयित्वा च तं नामुक्त कदाप्यसौ // 17 // अन्तः प्रवेशाला च वीरको विष्णुवेश्मनः / द्वारस्थापितमुद्दिश्य पूजां प्रतिदिनं व्यधात् // 98 // अर्कोऽब्दादिव वर्षान्ते गेहात्कृष्णो विनिर्ययौ / ती चोपतस्थिरे भूमिपतयो वीरकोऽपि च // 99 / / किं ? धीर वीर ते कार्यमिति पृच्छति केशवे / द्वाःस्थाः शशंसुस्तद्वृत्तं भक्त्युत्क पनिबन्धनम् // 100 // वीरमस्खलितं कृत्वा कृपया स्वगृहे ततः / सहैवादाय जग्मे च हरिणा वन्दितुं प्रभुम् // 1 // यतिधर्म विभोः H // 45 // Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 452 // * श्रुत्वा कृष्णोऽवादीत्क्षमोऽस्मि न // अहं ग्रहीतुं प्रव्रज्यां नियमोऽस्तु तथापि मे // 2 // न कोऽपि प्रव्रजन् वार्यः कार्यस्तस्योत्सवः | जिनेश* पुनः / मयाऽनुमोदनापूर्वमभिगृह्यत्ययं ययौ // 3 // युग्मम् / / प्राप्ताः स नन्तुं स्वाः पुत्रीविवाह्याः प्रोचिवानिति / किं ? स्वामि- चरित्रम् / न्योऽथवा दास्यो यूयं वत्सा! भविष्यथ // 4 // तातावश्यं भविष्यामः स्वामिन्य इति वादिनीः / विष्णुः प्रबोध्य ताः स्वामिपावे वीरकेण सह | दीक्षामजीग्रहत् // 5 / / स्वमात्रा शिक्षिता केतुमञ्जरी कन्यकाऽन्यदा / ऊचे तात ! भविष्यामि दाम्यहं स्वामिनी न तु // 6 // इहा IIT केतुमत्या लग्न | पमानं मत्पुत्र्यः प्रेत्य दुःखं भवभ्रमात् / मा प्रापन्निति सञ्चित्य विष्णुस्तामपरा अपि / / 7 // निषेधुमेवं वदितुं तद्विवाहधिया स्वयम् / में वीरं कुविन्दमूचे खं विक्रमं शंस कञ्चन // 8 // युग्मम् // को? नु मे विक्रम इति ब्रुवाणं तं हरिः पुनः / ऊचे बाल्यकृतं किञ्चित्सं स्मृत्याशु निवेदय // 9 // वीरोऽथ वीरमान्याख्यद् बाल्यत्वे बदरीस्थितः / कुकलासो मया ग्राव्णाऽऽहत्याऽपाति मृतश्च सः॥१०॥ वहद्वारि चक्रमार्गे दधे वामांहिणा मया। मक्षिकाश्च धृताः पानकुम्भान्ताःस्थपाणिना // 11 // नृपानूचे द्वितीयेऽसि सभासीनः स्वयं हरिः / भो भोः वीरस्य वीरत्वं शृणुत स्वकूलातिगम् // 12 // येन रक्तस्फटो नागो निवसन् बदरीवणे / निजध्ने भूमिशस्त्रेण | वेमतिः क्षत्रियो ह्ययम् / / 13 / / येन चक्रक्षता गङ्गा वहन्ती कलुपोदकम् / धारिता वामपादेन वेमतिः क्षत्रियो ह्ययम् // 14 // येन घोपवती सेना वसन्ती कलसीपुरे। निरुद्धा वामहस्तेन वेमतिः क्षत्रियो ह्ययम् // 15 // शौर्य राज्ञां निवेद्येति केशवः केतुमञ्जरीम् / सर्ग-१३ | अनिच्छुनाऽपि वीरेण बलात्पुत्री व्यवाहयत् // 16 / / वीरकोऽपि गृहे नीत्वा राज्ञीवन्मणितल्पगाम् / एतामाराधयामास दासवद्यो. | जिताञ्जलिः // 17 // कृष्णोऽपृच्छवीरं च गेहकर्म सकलं किमु ! / आदृता कुरुते केतुमञ्जरी नाथवा मदात् // 18 // प्रत्यूचे // 452 // वीरको नाथ! तस्याः कर्मकरोऽस्म्यहम् / हरिः कोपाजगादैनं धिर धिक् त्वां पुरुषाधमम् // 19 // कारयिष्यसि चेतां न गृहकर्म Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 453 // केतुमञ्जरीदीक्षा क्षायिकसम्यक्वजिननामाजन कृष्णस्य बलादपि / क्षेप्ये तत्त्वामहं गुप्तौ सोऽप्यज्ञासीत्तदाशयम् // 20 // युग्मम् / / वीरो गत्वा गृहे केतुमञ्जरीमित्यभाषत / उत्तिष्ठ कुरु | वस्त्रार्थे पानं नेदं पितुगृहम् / / 21 / / रे कोलिक! न वेत्सि खं क्रोधादित्यूचुपी च ताम् / अभीको वीरको द्वेधाऽताडयत्तुरिरज्जुभिः | // 22 // तदाऽऽख्यद्रुदती साऽपि गत्वा कृष्णस्य दुःसहम् / सोऽप्यवादीत्त्वया स्वाम्यं मुक्त्वाकिं दास्यमार्थ्यत / / 23 / / तात सम्प्रत्यपि स्वाम्यं मातृमुख्याः प्रदेहि मे / तामिति प्रार्थिनीं वीरायत्तासीत्यवदत्पिता // 24|| अत्यर्थमथितः कृष्णः स्वाम्ये साग्रहया | | तया / निर्वार्य वीरं तां नेमिहस्तादतमजीग्रहीत् // 25 // नेमेः पार्श्वेऽन्यदा सर्वसाधूनां विधिना हरिः / वन्दनं द्वादशावर्तमनिर्वि| णो ददौ पृथक् / / 26 / / श्रान्तास्तस्थुर्नृपाः कृष्णानुवृत्या वीरकः पुनः / श्रान्तोऽपि सर्वसाधूनां वन्दनं निरवाहयत् // 27 // प्रोचे * नेमि हरिः षष्ट्याधिकयुद्धशतैत्रिभिः / श्रान्तो नाहं तथा नाथ ! यथैभिर्मुनिवन्दनैः / / 28 / वाम्यप्यूचे त्वया पुण्यं बह्वद्यामंत | वन्दनः / कृष्ण ! क्षायिकसम्यक्त्वं तीर्थकुनाम चोत्तमम् / / 29 / / पृथ्व्याश्चोबृत्य सप्तम्या बद्धमायुस्त्वया हरे ! तृतीयपृथिवीयोग्य | भावि चान्ते निकाचितम् // 30 // कृष्णोऽवादीत्तर्हि नाथ ! भूयोऽपि वतिनां ददे / वन्दनं येन मे मूलाद् वालुकायुः क्षयं व्रजेत् // | // 3 / / द्रव्यवन्दनमेवं स्याद् वालुकायुश्छिदे न ते / कृष्ण ! भावकृतादेव फलं धर्मादवाप्यते / / 32 / / वीरकस्य फलं तेन पृष्टः | स्पष्टमशाद्विभुः / त्वच्छन्दाद्वन्दमानोऽङ्गक्लेशमेवायमार्जयत् // 33 // नेमिनाथं प्रणम्याथ भावयंस्तद्वचो हृदि / श्रीपतिः सपरीवारः प्राविशद् द्वारकां पुनः॥३४॥ ढण्ढणाप्रेयसीजन्मा कुमारो ढण्ढणाख्यया / अभूजनार्दनखोढाऽनेकराजन्यकन्यकाः॥३५॥ श्रुत्वा धर्म सवैराग्यः सोऽन्यदा नेमिसन्निधौ / दक्षो दीक्षामुपादत्त विष्णुक्लप्तमहोत्सवः // 36 / / भानुनेव बुधः सार्धं प्रभुणा विहरन्नथ / पुष्णन्नुदयमेवायं मुनीनां चित्रमातनोत् / / 37 // तस्यान्यदोदगात्कर्म शर्मघात्यान्तरायिकम् / तेनाप किमपि क्वापि नायं दावषु // 453 // Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेश| चरित्रम् / ढण्ढणमुने रभिग्रहम् // 454 // | सत्वपि // 38 // स भौमवद् द्वितीयोऽन्यसाधूनामपि कौतुकम् / निजघान क्रूरकर्मा लाभं लब्धिमतामपि // 39 // नवं कपोतं | तत्कर्म मन्ये तत्र क्षमारुहि / स्थितं यदन्यानप्यूच्चैः शोपं निन्ये क्षमारुहः // 40 // अपृच्छन् साधवो नाथं युष्मच्छिष्योऽपि ढण्ढणः / हरेः सुतोऽप्युदाराढ्यजनायामपि पुर्ययम् // 41 // किमु बम्भ्रम्यमाणोऽपि भिक्षामात्रमपि क्वचित् / प्रभो ! न लभते लाभमन्येपामुपहन्ति च // 42 // युग्मम् // खाम्याचख्यौ मगधेषु ग्रामेऽसौ धान्यपूरके / राज्ञा व्यक्तीकृतोमात्सीत्परासर इति द्विजः // 43 // वर्षासु वापयन् ग्राम्यैर्नृपक्षेत्राणि सोऽन्यदा / प्राप्तेऽपि भक्ते भोक्तुं नामुचत्तानतिनिर्दयः॥४४॥ श्रान्त्या क्षुधा तृषा चात्तबलात्तै वृषभैरपि / क्षेत्रे स तत्र प्रत्येकं सीतामेकामचीकृपत् // 45 // कर्मत्थमान्तरायं सोऽजित्वा भ्रान्त्वा च संसृतौ / विष्णोः पुत्रो ढण्ढणोऽभूत्तत्कर्मास्याधुनोदगात् // 46 // येषां राज्ञां कृते मूढाः पापं कुर्वन्ति सेवकाः। ते तैरेवात्र दण्ड्यन्ते ही दुःखैः प्रेत्यपापजैः / / // 47 // श्रुत्वेति ढण्ढणसाधुः संवेगतः पुरः प्रभोः / आददेऽभिग्रहं यन्न भोक्ष्येऽहं परलब्धिजम् // 48 // परैर्लब्धमभुञ्जानस्तमलाभपरीपहम् / सहमानोऽनयत्कालं स कश्चन मुनीश्वरः // 49 // कोऽतिदःकरकृत्साधुष्विति पृष्टोऽथ शाङ्गिणा / टण्ढणं प्रभुराचख्यौ सोढाऽलाभपरीपहम् // 50 // अथ स्वामिनमानम्य प्रविशन् द्वारकां हरिः। तपाश्रीकङ्कणं वीक्ष्य ढण्ढणं गोचराग्रगम् // 51 // उत्तीर्य कुञ्जराद्भक्त्या प्राणमद्राजकुञ्जरः। ददर्श वन्द्यमानं च श्रेष्ठ्यकस्तेन तं पथि // 52 // युग्मम् / / विष्णोरप्यतिपूज्योऽयमिति गोमूत्रि| काक्रमात् / साधुः प्राप्ते गृहे तेन प्रत्यलाभि स मोदकैः // 53 // ढण्ढणो टुण्ढणकणानऽप्यलब्ध पुरा न यः। सोऽकस्मान्मोदकान् | लब्ध्वा स्वकर्मक्षीणमामृशन् // 54 // आगत्यालोच्य संदर्य मोदकान् पृष्टवान् जिनम् / लाभान्तरायः किं ? मेऽगात् क्षयं भिक्षां यदासदम् // 55 // युग्मम् / / जिनो जल्पन्न ते कात्रुट्यद् लब्धिस्त्वसौ हरेः / दृष्ट्वाऽमुं वन्दमानं यच्छ्रेष्ठी ते मोदकान् ददौ // सर्ग-१३ // 454 // Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 455 // अन्तराय | // 56 // क्ष्मातले सकले प्रायो लोकः पूजितपूजकः / स्तोकः पुनर्मुधादायी शरन्मेघ इवानघः // 57 / सोऽन्वथैर्मोदकैस्तृप्तोऽर्हद्वाक्यैनिःस्पृहाग्रणी। परलब्धिरिति ज्ञात्वा मुनिस्तान् द्रव्यमोदकान् // 58 // परिष्ठापयितुं गत्वा प्रारेभे स्थण्डिलेऽमले / सदा पार्श्वस्थयो | रागद्वेषयोरन्तरे स्थितः / / 59 / / युग्मम् // कर्माजीर्णमहो दुश्चिकित्स्यं तनुमतामिति / तस्य भावयतो घातिक्षयादऽजनि केवलम् // 60 // | प्रभुं प्रदक्षिणय्याथ गत्वा केवलिसंसदि / न्यपीदद् ढण्ढणमुनिः सुरासुरनराचितः / / 61 // अलङ्कृत्य विहारेण धात्री मुक्तामयश्रिया | स्वामी व्यभूषयद् द्वारवतीमपि मुहुर्मुहुः // 62 // उज्जयन्तो गिरियस्याः पाश्व हरिरिवापरः। स्थितः स्निग्धाञ्जनश्यामतनुस्तुङ्गो * विराजते // 63 / / मन्ये तुङ्गौयुतं शृङ्गगंभीरैः कन्दरैरपि / दिवस्पृथिव्योरर्थेनायमुञ्चविंदधे विधिः // 64 // सप्रस्थोऽप्यपरीमाणः पादेयः प्रसृतोऽप्यगः / सवनोऽप्यवनः सत्यमगम्यो द्युसदामपि // 65 // सदा नभोगैः सस्त्रीकैर्यस्य रम्यालतागृहाः / सदा नभोगैः | सेव्यन्ते स्वर्गादेत्य कुतूहलात् // 66 // यस्य पुन्नाग-नारंग-जम्बूचूतवनाकुलम् / शृङ्गं श्रयन्ते सूर्याश्वाः श्रान्तास्ताराध्वचङ्कमात् / / | // 67 / महानऽदीनां धत्ते यः सरत्नशिखरोन्नतिम् / महानदीनां प्रभवः श्रवन्निर्झरवारिभिः // 68 / / सूर्योऽपि रथमार्गार्थी यं पादा | | ग्रेषु सेवते / शैलराजं पुनाति स तं नेमिस्तीर्थनायकः // 69 / / सप्तभिः कु० / / तस्य मूर्ध्नि स्थिते नाथे स्थनेमिरथान्यदा। भिक्षा भ्रान्त्वा द्वारवत्याः प्रतिस्वाम्यज्वलन्मुनिः॥७०॥ अकस्माजातया मेघस्याद्रेमिंत्रस्य वर्त्मनि / स वृष्ट्याऽभ्याहतः काश्चिद्गृहां गुप्ता| मशिश्रियत् // 71 // युग्मम् / नेमि नत्वा तदा साध्वी राजीमत्यपि देवतः। यान्ती पुरी प्रति गिरेवलिता वृष्टिकष्टतः // 72 / / भीतास्वन्यासु साध्वीषु कुञ्ज लीनावितस्ततः / रथनेमिगुहां भेजे तदन्तस्तमजानती // 73 / / युग्मम् // रथनेमि तमश्छन्नमपश्यन्ती | पुरागतम् / तत्रोद्वापयितुं वस्त्राण्यूर्द्धस्थाऽपि मुमोच सा // 74 // रथनेमिस्तथा पश्यंस्तां सद्यो ध्वान्तवासिनः / स्मरभिल्लस्य भल्लीनां प्राप्तकेवलढण्ढणमुनिः रेवताचले प्रभोरागमनम् // 455 // Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम राजीमत्या // 456 // * वेध्यतामगमचिरात् // 75 // तामृचे सोऽतिदीनायो मार्यमाणं स्मरेण माम् / स्वभुजा पञ्जरे क्षिप्वा रक्ष रक्ष दयां कुरु // 76 // जिनेशप्रागप्यजिंता किन्तु व्यथितास्यऽशुभैर्मम / तैस्तुष्टैयोजितेदानी मोपेक्षिष्ठाः कुरूदितम् // 72 // रथनेमि खरेणोपलक्ष्य भोजसुता सती* चरित्रम् / प्रावृताङ्गी निपसाद जवाद् व्रीडाभराऽऽनता // 78 // मुखवस्त्रच्छन्नवक्त्रदन्तद्युतिरथावदत् / राजीमती रथनेमि बोधायेति मृदूक्तिभिः // 79 // भीतोऽसि कामवीराचेद् ब्रह्मगुप्तीस्तदा नव / अर्पिताः स्वामिनाऽत्याक्षीः कम्मानिर्भाग्यशेखर ! 80|| प्रभुणा पवमानेन प्रबोधितो | स्थनेमिः मेरोरप्युन्नतं व्रतम् / दृपत्कण इवानीतः किमधस्तुच्छ ! पित्ससि // 81 // मद्धजापञ्जरं साक्षादीक्षस्व भवपञ्जरम् / अस्मिन् विविक्षुरप्येवं मोहेनाऽहो विडम्ब्यसे ? // 82 // शङ्खस्येव मुनेः शुद्वस्वभावस्य जनिः क्व ? ते / श्रीमत्समुद्रान्नेमेश्च कल्पद्रोबन्धुता व ? च 83 // क्व ? तादृक् पूज्यता लोके व ? ते मां भिक्षुकी प्रति / एवं दैन्यप्रलापोक्तिोंकद्वयविघातकृत् // 84|| युग्मम् / / पुत्री भोजस्य | नेमेश्च शिष्याहं प्रलयेऽपि न / कुर्वे स्वशीलमालिन्यं दैन्यं तत्ते वृथैव भोः॥८५॥ रहो नास्ति क्षणो नास्ति नास्ति प्रार्थयिता नरः / / तेन नारद नारीणां सतीत्वमुपजायते // 86 // इति व लौकिकी कथा सर्वथा मा धृथा हृदि / अन्यास्ता भीखोऽहं तु स्मरजैत्री प्रभो-* बलात् / / 87 / / युग्मम् / / तज्जातु जातुषत्वं मा पुषः स्त्रीवतिसङ्गमे / तूण सुवर्णवद्धेहि वणिकामधिकां पुनः॥८८॥ लुश्चितमूनि देहे च मलगेहे मुखेऽशुचौ / तपःकार्ये भक्ष्यभोज्ये भोगभ्रान्तिः कुतस्तव ? ||89 / साध्वीशीलक्षतिदेवद्रव्यभोगो मुनेर्वधः / उड्डाहः सर्ग-१३ शासनस्यापि बोधेमूलाग्निरुच्यते // 90 // विज्ञायेति दुरारम्भशैलशृङ्गान्मनोगजम् / कृत्वा ज्ञानाङ्कुशवशं महामात्र नयाऽध्वनि // 11 // मात्रिक्येव तया वाक्यैरिति मत्रैरिवानधैः / विषयेच्छाविषं हृत्वा व्यस्तदर्पः स सर्पवत् // 92 // रथनेमिः कृतः सानुतापो भोगपरा- | // 456 / / मुखः। योगे शुद्ध प्रविष्टोऽथालोचयत्तत्प्रभोः पुरः।।१३।। युग्मम् / / तीत्रे तपोनौ खं शुद्धं कृत्वाऽऽत्मानं सुवर्णवत् / संवत्सरेण Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 457 // पालकाभव्यताप्रक टनम् चक्रेऽसौ भूषणं केवलश्रियः // 94 // विहृत्यान्यत्र भगवानुजयन्तगिरौ पुनः। आगाद्विचक्रे समवसरणं च सुरासुरैः॥९५॥ साया। शैलपालेभ्यस्तद् ज्ञात्वा स्थानसंस्थितः। जिनं नत्वाऽब्रवीत्पुत्रानिति सर्वान्निजान् हरिः / / 96 // वन्दिष्यते प्रभु यः प्राक् प्रगे गत्वा मदङ्गजः। दास्येऽभीष्टमहं तस्मै वाजिनं गुणराजिनम् // 97 // श्रुत्वेति शाम्बोज्गात्सौधे रात्रौ च विधिनाऽस्वपीत् / ब्राझे मुहर्ने | | तल्पाच्चोत्थाय तत्रैव च स्थितः // 98 // देवं ववन्दे श्रीनेमि भूत्वा रैवतसंमुखः / भावस्तुत्याऽर्चयत्काव्यपुष्पैर्वाग्वल्लिजैस्तथा॥९९॥ युग्मम् // पालकस्त्वन्त्ययामेऽपि वेगिना वाजिना द्रुतम् / गत्वा जिनमभव्यत्वादाक्रोशंश्चेतसाऽनमत् / / 200 // बालकः पालकः प्रातर्ययाचेऽश्वं जनार्दनम् / सोऽप्यूचे तस्य दास्ये यं वक्ता प्राग्वन्दकं प्रभुः॥१॥ पृष्टोऽथ गत्वा हरिणा केनादावद्य वन्दिताः। | स्वाम्युचे पालकेनाश्वलोभाच्छाम्बेन भावतः // 2 // हेतुं पृथक् स्वभावे च तयोः पृष्टोऽथ शाङ्गिणा / अभव्यं पालकं स्माह भव्यं शाम्ब पुनर्जिनः॥३॥आकर्ण्यनमभव्यमात्मसुतमप्याः पालकं निन्दकं, श्रीनेमेः कुपितः स्वयं यदुपतिनिर्वासयामासिवान् / दत्वाऽश्वं रुचितं च भव्यमपरं शाम्बं विलम्ब विना। चक्रे मण्डलनायकं सुतमहो भावस्य लीलायितम् // 4 // अममचरिते भाविन्येवं तयोः सहजन्मनोबलहरिभवे तुर्ये वर्ये निशम्य लघोजनाः। सुकृतकलनामहन्नाम्नोऽर्जनां मुनिवन्दनात् किमपि दृढतां सम्यक्त्वे चाऽऽतनुध्वमनारतम् // 5 // // 457 // इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते अममस्वामिचरिते महाकाव्ये तुर्यभवे गजसुकुमार-सागरचन्द्र-भेरी-वैद्य-वीरकचरित-श्रीकृष्ण सुकृतार्जन ढण्ढणकथा-रथनेमिबोध-शाम्बपालकवृत्तवर्णनस्त्रयोदशः सर्गः / / ग्रन्थानम् // 20 // Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजमम // 458 // चतुर्दशः सर्गः। जिनेश चरित्रम् / विहरन् भूरिदेशेषु भगवान् भानुमानिव / रैवताद्रौ वृतो देवैरन्यदा समवासरत् // 1 // तन्नियुक्तन'रेत्य ज्ञापितः श्रीजिनाग द्वैपायनवृमम् / तेभ्यः कृष्णः प्रीतिदानं प्रीत्योज्वलमुखो ददौ // 2 // आज्ञाप्य पटहैः पौरान् समादिश्योत्सवं पुरि / स्नात्वा स्वयं तु वारस्त्री शतान्तकथनं | कृतकौतुकमंगलः // 3 // पुण्यलावण्यदुधाब्धेर्वेलयेवाभितो वृतः। अभंगरंगतत्सर्वांगः चन्दनालेपनच्छलात् // 4 // दधत्सुपूरकर्पूर द्वारिकातो * मद्यनिष्का| लेखां भालान्तरस्थिताम् / एकत्वमिव शंसन्ती नेमिभक्तेषु भूतले // 5 // बिभ्राणोंऽशद्वये दिव्यचन्दनस्थासकच्छलात् / पातुं शौर्यामृतं सनं च रूप्यपात्रे राज्यजयश्रियोः // 6 // वसानो वाससी चन्द्रकरैयूँते इवोज्वले / चलत्क्षीरोदमध्याधिवासभ्रमकृती जने // 7 // सितच्छत्र|च्छलान्मौलौ पक्षयोश्चामरच्छलात् / मुक्ताभूषामिपादेहे पदोः श्वेतेभदन्तभः // 8 // सेव्यमान इव स्वाभिमाभिर्जयकीर्तिभिः / भ्रान्त्वा | त्रिभुवनं प्रत्यागताभिः प्रीतियोगतः // 9 // बन्दिकोलाहलोन्मित्रैस्तूर्यसांराविणैर्दिवः / आह्वयन्निव देवेन्द्र सोऽगानन्तुं जिनं गिरौ | // 10 // अष्टभिः कु०॥ प्रविश्य विधिना तत्र नेमि नत्वा च भक्तितः / कृष्णः सतृष्णस्तद्वाचामप्राक्षीद् विनयादिति // 11 / / कुतोऽपि सर्ग-१४ भविता हेतोरथवा कालतः स्वयम् / विनाशोऽस्या महापुर्या यदूनां मम च प्रभो! // 12 // अथाचख्यौ जिनः शौर्यपुरसीम्नि परासरः। तापसो यमुनाद्वीपे पुरा हेतोः कुतोऽप्यगात् // 13 // काश्चिन्नीचकुलां कन्यां कामातस्तत्र सोऽभजत् / द्वीपायनोऽभूत्तत्सूनुः ब्रह्मचारी शमी दमी // 14 // स परिबाट वसन्नत्र वनान्तर्यदुसौहृदात् / मद्योन्मत्तैः कुमारस्तैः शाम्बाबैनिहनिष्यते // 15 / / क्रुद्धो धक्ष्यति स // 458 // | द्वारखतीं यदुकुलैः समम् / भ्रातुर्जराकुमारात्ते भावी मृत्युर्जरासुतात् // 16 // कुलान्तकोऽयमित्यन्तर्यदुभिर्मलिनाशयैः / दृष्टो भ्रातृव्य Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 459 // | वद् बन्धुरपि चित्रं जरासुतः / / 17 / / किं ? भ्राघाती भविता वसुदेवात्मजोऽप्यहम् / स्थास्यामि नेह तत्सिद्धः क्षेमः कृष्णस्य सर्वथा // 17 // विमृश्येति प्रभुं नत्वा तूगयुग्मधनुर्द्धरः / जराकुमारो निर्गत्य ययौ तापसवदनम् / / 19 / / युग्मम् // श्रुत्वा द्वैपायनोऽप्येतन्ने- मदिरामत्त शाम्बामेर्जनमुखाद् वचः / सर्वसंहारहेतुर्मा भूवमित्यगमद् वनम् / / 20 // कृष्णोऽपि नत्वा श्रीनेमिं गत्वा द्वारवती जवात् / मद्यमेवानर्थमूलं| | दिभिः ज्ञात्वा तत्र न्यवारयत् // 21 // अथ कादम्बरी कादम्बरीनामदरीस्थिते / आसन्नाद्रेः शिलाकुण्डेऽत्याजि कृष्णाज्ञया जनैः // 22 // कुट्टितो सिद्धार्थः सारथिताऽऽपृच्छय क्षयभयाद् बलम् / देवीभूयोपकरिष्ये त्वामित्युक्त्वाऽग्रहीद् व्रतम् / / 23 / / विजहे स्वामिना सार्द्ध स का द्वैपायन *षण्मासी मुनीश्वरः / तवा तीनं तपो देवलोकं चापत्समाधिना // 24 // | इतश्च या पुराऽक्षेपि शिलाकुण्डे सुरा जनैः। स्नानाद् मनुष्यैः पतितैः सातिवादुरसाऽभवत् // 25 // तां च शाम्बानुगः कोऽपि | ग्रीष्मे तृष्णातुरो भ्रमन् / गतस्तत्र बने दृष्ट्वा शीतां मावीमपाद् भृशम् / / 26 / / हृष्टः सोऽथ तया भृत्वा सुरया त्वरया दृतिम् / आगत्य प्राभृतीचक्रे शाम्बस्याऽनय॑वस्त्विव / / 27 / / पायं पायं स सामोदाममन्दानन्दमन्ददृक् / तां प्रसन्नां प्रसन्नान्तःकरणः पृच्छति स्म तम् // 28 // क्वेयं ? प्राप्तेति सोऽप्याख्यत्पाद्रेिः कन्दरां स्थिताम् / शाम्बोऽप्यगात् द्वितीयेऽन्हि कुमारैः सह दुर्दमैः॥२९॥ कादम्बरीदरीवासान्नाम्ना कादम्बरी सुराम् / तां प्रेक्ष्य शाम्बोऽमोदिष्ट तृष्णात्तः सरसीमिव // 30 // वने कुसुमिते स्थित्वा मित्रभ्रात्रादिभिः | सह / आनाय्य भृत्यैस्तां शाम्बो बद्ध्वापानं सुरां पपौ // 31 // जीर्णयाऽपि तया नानाद्रव्यसंस्काररम्यया / उद्दामरसया प्रेयस्येव संप्राप्तया चिरात् / / 32 // चित्रं ते तरुणाः सर्वेऽप्येकया युगपन्मुखे / लग्नयापि मदेनान्धाश्चक्रिरे द्विपवत्क्षणात् // 33 // युग्मम् // 5 // | गतं तत्र गिरावग्रे मुनि द्वैपायनं तदा / दृष्ट्वा ध्यानस्थित दैवात्प्रोचे शाम्बः कुमारकान् // 34 // धक्ष्यत्ययं मे नगरी कुलं च रिपु Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 46 // वन्मुनिः। हन्यतां तज्जवात्सर्वमतो दहति येन न // 35 // असौहार्द नवं किञ्चित् कर्मणामात्मवत्तिनाम् / तमेवाऽसुहृदं कृत्वा कुर्वतेऽन्य-| जिनेश| ममूनि यत् // 36 // हत्वा मुट्यादिभिस्त तेऽधः प्रपात्य त्रिदण्डिनम् / मृतप्राय विधायाशु विविशुः स्वस्ववेश्मसु // 37 // चरैविज्ञाय चरित्रम् / | तद्विष्णुपिण्णः सीरिणा सह / तत्रैत्य तं मुनि कोपाटोपारुणितमैक्षत // 38 // महासर्पमिवोत्सर्पदपं तं फूत्कृतमुहुः / भयंकरं मांत्रि उपाये कवनेतुं शान्ति मृदूचिवान् // 39 // अज्ञानान्धैः सुतैम त्वं पीडितोऽपीक्षुदण्डवत् / धर्तुमर्हसि न क्षारभावमन्तर्मुने मनाक् // 40 // - कृतेऽपि नो शान्तो मथ्यमानेनापि दध्ना बुध्नादपि निदर्यते / स्नेह एवेह मन्थाने व्यथके मन्थकेऽपि च // 41 // तत्क्षमस्वापराधं मत्पुत्राणां त्वं महा द्वीपायनः | मुने ! क्षमाहःसत्यासत्याऽऽगस्कारिणि क्रोधवर्जनात् // 42 // इत्थं कृष्णेन चदुभिर्मुहुर्घनरसैरसौ / शम्यमानोऽपि नाऽशाम्यत्प्रत्यु प्रभुणोक्तं | तोर्व इवाज्वलन् // 43 / ऊचे च कृष्ण मा वादीर्यनिदानमहं व्यधाम् / ताडथमानो भवत्पुत्रैः पुरीं दग्धुं युवां विना // 44 // बलो विष्णोर्वालुऽभाणीन्मुधा बन्धो! मात्राऽऽयासीविधाप्यहो / सर्वालक्षणपूर्णोऽयं युगान्तेऽपि न शाम्यति / / 45 / / मन्ये साहसिको त्वं यत्सर्व कागमनं ज्ञवचोऽन्यथा / कर्तुमेवं प्रयतसे नाशः स्याद् भाविनः क्व नु? // 46 // ततः कृष्णमुखः कृष्णः सरामोऽपि ययौ गृहे / पुर्यां द्वैपा जिनत्व भवनं च यिनोक्तिश्च प्रासरत्तैलबजले // 47 // परेद्यवि द्वारकायामित्ययोपयदऽच्युतः। द्वीपायनभयं हन्तुं स्थेयं धर्मरतैर्जनैः // 48 // तदानीं | समवासापीदुञ्जयन्ते पुनः प्रभुः / तत्रैत्य नत्वा तं विष्णुरश्रौपीदिति देशनाम् // 49 / / संसारे सर्वमेवेह कुशाग्रजलवच्चलम् / ज्ञात्वा जनैनित्यसौख्यार्जने नोद्यम्यते किमु ? // 50 // प्रद्युम्नशाम्बौ निपध उल्मुकः सारणादयः / कुमारा रुक्मिणीभामाद्याथाष्टौ कृष्णवल्लभाः |सर्ग-१४ // 46 // | // 51 / / बढयो यदुखियोऽन्याश्च तया देशनया प्रभोः / जातसंसारखैराग्याः प्रौढभाग्याः प्रवत्रजुः // 52 // युग्मम् // पृष्टश्च भूयः कृष्णेनाचख्याविति जिनेश्वरः / इतोऽब्दे द्वादशे द्वैपायनो धक्ष्यति ते पुरीम् // 53 // समुद्रविजयादीन् प्राग् दीक्षितान् संस्तुवंस्ततः। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 46 // *अदीक्षितं राज्यलोभाद् बहुशः सं निनिन्द सः // 54 // भावस्यूतं तदाकृतं ज्ञात्वा माह जिनो हरेः / सनिदानाः प्रव्रजन्ति कदा चिन्नैव केशवाः // 55 // किश्चैते स्युः स्वभावेन सर्वेऽधोगामिनोमवत् / ततस्त्वमप्यलंक पृथिवीं वालुकाप्रभाम् // 56 // श्रुखेति हरे प्रभुकविधुरं विष्णुं खाम्यूचे मा विपीद यत् / च्यविता तत उद्बत्योत्सपिण्यामिह भारते // 57 // पुंड्रदेशे शतद्वारपुरे संमतिभूपतेः। थितस्फुट वचन भद्राराज्यास्तनूजस्त्वमममो द्वादशो जिनः // 58 / / युग्मम् / / बलः पुनर्ब्रह्मलोकं गमी च्युत्वा च भारते / जातो राजा त्वयि तीर्थे तदा / द्वारकाया| मुक्तिमवाप्स्यति // 59 // श्रुत्वेति हृष्टः श्रीनेमि नत्वा कृष्णः पुरीं ययौ / स्वामी विश्वोपकाराय पुनर्भेघ इवाऽन्यतः // 60 // कृष्णा मुपद्रवाश्च ज्ञया पुनः पौरस्तस्थे धर्मपरैभृशम् / तदा विन्हिकुमारेषु मृत्वा द्वैपायनोऽप्यभूत // 61 // प्राग्वैरसंस्मृतेः प्राप्तो दग्धं तु द्वारका|मयम् / नाऽभूत् प्रभुः पौरधर्मतपःशक्तिहतः परम् // 62 // अहो धर्मस्य माहात्म्यं मंत्रस्येव वचोतिगम्। अवार्यवीर्यान् देवानऽप्याशु स्तन्नाति यदलात् // 63 / / छिद्राण्येकादशाऽमर्पाद् वर्षाण्यैक्षिष्ट नाप तु / न व्यरंसीत्तथाप्येष विशेषक्रोधनोऽसुरः | // 64 // प्राप्ते द्वादशे वर्षे पूर्लोका इत्यचिन्तयन् / जितोऽस्मत्तपसा द्वैपायनस्तस्माद् रमामहे // 65 // रेमिरे नागराः खैरं जक्षुर्मासं पपुः सुराम् / छिद्रं द्वैपायनोऽप्याप स्याम्किवार्हद्वचोऽन्यथा ? // 66 // उल्कापातस्तारावृष्टिग्रहयुद्धमभूद् दिवि / रक्तवृष्टिः तथागारवृष्टिः सच्छिद्रसूर्यतः॥६७॥ कपिहास्यमकमाच्चोपरागश्चन्द्रसूर्ययोः। केतूनां दर्शन जज्ञे तत्र लोकभयंकरम् // 68 // निर्धातो:भृद् भुवः कम्पः कम्पदः शामिणो मुहुः / वार्यमाणा अपि जनैर्भमुश्च श्वापदाः पुरि // 69 // अट्टहासं प्रतिगृहं चक्रुर्लेप्यादिपुत्रकाः। भ्रविक्षेपं हसन्ति स्म चित्रन्यस्ताः मुरा अपि // 70 // देवताप्रतिमाश्चत्येष्वधुः स्वेदादिवैकृतम् / इत्युत्पाताः प्रादुरासंस्तत्र द्वैपायनो sel // 46 // द्भवाः / / 71 // पिशाचशाकिनीभूतवेतालादिपरिच्छदः / द्वैपायनसुरो भ्राम्यन् पुर्यां लोकानऽभापयत् / / 72 // यान्तं दक्षिणदिश्युष्ट्रा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रमम // 462 // रूढं रक्तांशुकस्रजम् / स्वप्ने स्वं महिपाक्रान्तमपश्यंश्च पुरीजनाः // 73 / / हलचक्रादिकैः रनेः प्रणेशे बलशाङ्गिणोः / वातं विचक्रे जिनेशसंवतं ततस्तत्रासुराधमः // 7 // तेनाष्टाभ्योऽपि दिग्भ्योऽथ वनान्युन्मूल्य वायुना / आपूर्य तृणकाष्टाद्येश्चक्रे धिक् सा पुरी चिता चरित्रम् / // 75 / / भयात्पलायमानांश्च लोकान् संवतवायुना। आनीय दूरदिग्भ्योऽपि तत्राऽक्षप्सीत्स दुष्टधीः // 76 // पष्टिं वाद्याः द्वासप्तति द्वारकादाहे मध्यस्थास्तु प्रणिका सः! कुलकोटीरकायाममुगेऽग्निमदीपयत् // 77 // सहस्रनेत्रमप्यन्धं धृमैः कुर्वन्नथाऽभितः। धगद्धगिति पित्रादिजज्वाल वन्हिः प्रलयवन्हिवत् // 78 // तत्राक्षमैः पदक्षेपे मन्ये निगडितेरिख / बालवृद्धश्च कण्ठाग्रे लग्नस्तस्थे परस्परम् // 79 // तस्याहो रक्षणाय * कृष्णबलदेव कोऽपि कोपाग्नेर्जातोऽग्निदरतो यतः। नेशुाघ्रा इव सुराः स एकस्तु व्यजम्भत // 80 // एतेऽस्मत्पितरौ धिक् किं पश्यतोरपि कृतो यत्नः नौ हहा / धक्ष्यन्तेऽनेन दीनास्या अनाथा इव वन्हिना // 81 // ध्यात्वेति रामः कृष्णश्च वसुदेवं निजे रथे। रोहिणीं देवकी चारोपयतां क्रष्टुमुत्सुकौ / / 82 / / युग्मम् / / नावनभवृपैर्नापि रथः क्रष्टुमशाकि सः / तस्थे तु केवलं दैत्यस्तम्भाल्लेप्यमयैरिख // 83 / / अथ स्वयं रथः सीरिशाझ्भृद्भ्यामकृष्यत / तस्याक्षद्वितयं सद्योऽभाजि मन्ये तयोरिव // 84 // स्वसामर्थ्यात्तथाप्येतौ रथं पूर्धारि निन्यतुः। हा रामकृष्णौ नः पातमित्याक्रन्दातचेतसौ // 85 / / पुरीद्वारकपाटौ च पिदधाव सुरः क्रुधा। घटकपरवद्रामोऽभांक्षीत्तौ | पदघाततः॥८६॥ निरगात्तु रथस्तस्या भुवः कृष्टोऽपि नाद्रिवत् / किं ? रामकृष्णौ युवयोमोह इत्यसुरोऽवदत् / / 87 / / प्रागेव युवयो-* सर्ग-१४ यस्मान्मयाऽशंसि विना युवाम् / नान्यं किमपि मोक्ष्यामि विक्रीततपसो वलात् // 88 / / ततस्तौ पितरः प्रोचुाग् वत्सौ गच्छतं युवाम् / जीवमां हि भवद्भ्यां स्याद् यदुवंशः पुनर्नवः / / 89 // सत्पुत्राभ्यां युवाभ्यां चास्मत्कृते सकलं बलम् / व्यापार्यताधिक- // 462 / / वला किं त्वतो भवितव्यता / / 90 // व्रतं कुटुम्बे गृहाणे समस्तेऽपि तदा वयम् / यनोऽग्रहीष्म व्यामोहात्तस्य भोक्ष्यामहे फलम् | Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 46 // 91 // तैरित्युक्तेऽपि नो रामकृष्णावमुचताममून् / यदा तदा पुनस्त्यक्तमोहास्ते तो बभापिरे / / 12 / / इदानीमपि नेमिनः शरणं, तत्पुरोऽपि च / आस्तामाराधना पोढा प्रपन्नेऽनशनेऽधुना / / 93 // नास्माकं न कोपि न वयं कस्यापि न वपुश्च नः / इति भावयतां अनशनेन तेषां स्मरतां पञ्चमंगलम् / / 94 // वन्हि क्षमारुहां शीर्षे स ववर्षाऽसुरोऽब्दवत् / मृताश्च ते ययुः स्वर्ग भावशुद्धिहि कामधुक् // 95 / / स्वर्गप्राप्ति | बलदेववासुदेवौ विधिनकाकिनौ कृतौ / बहिः पुर्या गतौ दह्यमानां तामित्यपश्यताम् / / 16 / / यदूनां नगेहानि देहान्यायसुराग्निना। सुदेवादीमहामहांसि भूयांसि चक्रिरे भस्मसात्क्षणात् / / 17 / / अदाह्य स्वर्णमित्युक्तिमासुरोऽग्निमृपा व्यधात् / नीत्वा हैमान् वप्रदेवप्रासादा नां कृष्णार | त्युद्भवश्च नामशेषताम् / / 98 // पुस्फुटुलवणस्फोटं स्फारत्राट्कारडम्बरैः / उत्प्लुत्योत्प्लुत्य देवौकस्तलान्यपि हविभुजि // 99 / / परित्राणमिवोत्तालज्वालजालस्वनैपनैः। हा याचमाना कोकूयांचक्रे चक्रेश्वरं पुरी // 10 // जाडय द्वैपायनस्याऽभून्मन्ये प्राग्जन्मज दृढम् / यद्वन्हिगोपि तच्छान्त्यै चक्रेऽग्निशकटीं पुरीम् // 1 / / ज्वालाजिह्वोऽसंख्यजिह्वः सप्तजिह्वोऽप्यजायत / दह्यमानासंख्यदेवयदुगेहाचिषां चयैः॥२॥ त्वया कृतां पुरीमेतां दहन्तं मां निवारय / इत्याक्षिपन्निवोदामैः स्वनैः सौधर्मनायकम् / / 3 / / आह्वायनित्र तल्लोकपालं | वैश्रवणं मुहुः / ज्वालाहस्तैश्चिरोदस्तेस्त्रातुं जनकवत्पुरीम् // 4 // धूमोर्णाभिरसंख्याभियुक्तोऽस्यन् धर्मराजताम् / प्रहसन्नेकधूमोणं कृतान्तमपि हेलया / / 5 / / विनिनीषुरिव स्वस्य क्षुधां तापसजन्मजाम् / जग्रसे तां पुरी पिण्डग्रासंवैपायनानलः॥००। अहो क्रोधरिपोर्ट्सत्यं सारं विक्राप्य यस्तपः। पांसुवत् ग्राहयत्यंहः प्राज्ञानऽपि तपोधनान् // 7 // अथोचे सासदृकृष्णः सीरिणं नेमिनो वचः। यथेदमभवत्सत्यं सर्व भावि तथा परम् / / 8 / / कुलक्षयो देशभंगश्चवमालोकि यन्मया / मन्ये तदुःखिनावश्यं भाव्य- // 463 // मन्तेऽपि जन्मवत् // 9 // मन्ये प्राक् सनिदानस्य तपसः पितृतोऽपि च / फलं मे सौख्यवद् भावि दुःखमप्यधिकाधिकम् // 10 // 22-22 * Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेशचरित्रम् / षण्मासी यावद् द्वारकादाहः श्रीअमम- अत्रैव झम्पासम्पातान्मृत्युमै तात तद्वरम् / न रंकवत्पुनासाथित्वात्परमुखेक्षणम् // 11 // क्षीणे राज्ये धने बन्धुजने परिजनेऽपि च / मृत्युं तपो वा मुक्त्वाऽन्यसंश्रयो नोचितः सताम् // 12 // माता पिता पितृव्यश्च गुरुरग्रेऽपि मेऽरुचः / त्वमेवार्य विशेषेण सम्प्र॥४६४॥ त्येकाकिनः पुनः / / 13 / / किं ? करोमि क्व गच्छामि शरणं किं ? श्रयामि च / अधुनोपायमूढस्योचितमादिश मेऽग्रज ! // 14 // अथ LIC कृष्णं दृगोरथु प्रमृज्य प्रोचिवाल्बलः। नाकुलैर्व्यसने भाव्यं लैन्यं त्रिलोत्तमनरः // 15 // रविरस्तमितोऽपीन्दुः क्षीणोपि निजस म्पदम् / समानयति भूयोऽपि समाश्रित्येष्टभूमिकाम् // 16 // तत्त्वं भ्रातर्मा विषीद भव वज्रढो हृदि / संश्रित्य पाण्डवान्वन्धून् पुनः खां श्रियमर्जय / / 17 / / कृष्णोऽवादीद् गुरोराज्ञा नोल्लंघ्या किन्नु कथ्यते / हिये खापकृतानां मे पाण्डवानां समाश्रयः // 18 // बलः प्रोचे खापराधं जानन्तः पाण्डवा हृदि / ध्यास्यन्त्युपकृतीरेव तव नापकृति पुनः / / 19 / / साधुर्धत्ते परस्योच्चैरत्यल्पामपि सत्कृतिम् / असत्कृति त्वधश्चन्द्रं गरश्चश इवाम्बुधेः // 20 // बहुधोपकृताः पाण्डुतनयाः सनयास्त्वया / तत् स्वान्ते बहुमंस्यन्ते कृतज्ञास्तवृतिं भज // 21 // स्थिरीकृतो बलेनेति पूर्वदक्षिणया दिशा / अचालीत्तद्युतः पाण्डुमथुरां प्रति केशवः / / 22 / / तदा पुर्यां ज्वलन्त्यां च रामसूः कुहुदारकः। चरमांगो नेमिशिष्योऽस्मीति भावातव्रतः॥२३।। वदन्नेवं समुत्पाट्य नीतो ज़म्भकनाकिभिः / स देशे पल्हवे श्रीमन्नमेः पार्श्वग्रहीद् व्रतम् // 24|| युग्मम् // रामकृष्णादिकान्ताश्च प्राग्नतं जगृहुन याः। श्रीनेमिंता अपि स्मृत्वा कृत्वा चानशनं मृताः // 25 / / सद्वात्रिंशच्छतकुलकोटि द्वैपायनः पुरीम् / षण्मास्यैवमधाक्षीत्तां प्लावयामास चाम्बुधिः // 26 // इतश्च | मार्गे श्रीकृष्णं यान्तमात्त क्षुधा तृपा / हस्तिकल्पपुरोपान्ते मुक्त्वा हलधरः स्वयम् // 27 // छले कृत्वा सावधानं वैधुर्य मेऽन्तरापतेः / क्ष्वेिडां श्रुत्वाऽनुशिष्येति भोज्यार्थ प्राविशत्पुरे // 28 // युग्मम् // पुरीदाहे बलः सोऽयमत्रागादिति तत्र च / वार्ता पौर विलोक्यैनं सर्ग-१४ | // 46 // Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 465 // * दिव्यरूपं व्यघीयत // 29 // भोज्यमूमिकया मद्यमादाय कटकेन च / बले प्रचलिते राज्ञ इत्याख्युदण्डपाशिकाः // 30 // ऊमिका कटके दिव्ये दत्वा भोज्यं सुरामपि / जग्राह चौरवत्कोऽपि विद्मो मृा बलं पुनः // 31 / / बहिः स गच्छन्नस्तीति मत्वा कुरु यथो-18 पाण्डुमथुराचितम् / श्रुत्वेति भूपोप्यक्रुध्यद् वैरी पाण्डववैरतः॥३२॥ युग्मम् // अच्छदन्तोऽभिधानेन धृतराष्ट्रसुतः स हि / हतशेषीकृतः मार्गे कृष्णपाण्डुसुनुभिः कृष्णबन्धुभिः // 33 // हन्तुं ससैन्यस्तद्वैराद् बलं तत्राययावयम् / अचीकरत्प्रतोल्याश्च कपाटौ पातितार्गलौ // 34 // कृताच्छद्| बलो मुक्त्वा भोज्यमद्ये स्तम्भं चोत्पाट्य दन्तिनः / क्ष्वेडां कृत्वा कृष्णहूत्यै युयुधे तद्बलैः सह // 35 / / कृष्णोऽपेत्य पाणिपातैः न्तपराजयो * कपाटौ सार्गलावपि / भक्त्वा बलापितेनाऽरिसैन्यं स्तम्भेन जनिवान् // 36 // शूराणां हि द्विपक्षेत्रोर्बहुसैन्यं तु डम्बरः / हन्ति त्रिलो जलगवेप णार्थ बलस्य * कीमेकोऽपि कुपितो नान्तकः किमु // 37 // भग्ने सैन्येऽच्छदन्तोऽपि भग्नदन्त इव द्विपः / सप्तधा तु मदे शान्ते विष्णोर्वश्यत्वमाययौ मच // 38 // न नो जगाम दोःस्थाम धाम शौर्यस्य रे ततः / किं ? व्यधास्त्वं मुधा युद्धं जीवन्मुक्तोसि वैर्यपि / / 39 / उक्त्वेति तं हरिः सीरियुक्तो गत्वा बहिर्वने / भुत्त्वाऽगच्छत् दक्षिणस्यां कौशाम्बे जग्मिवान्वने // 40 // युग्मम् / / तत्र पुण्यक्षयाद् दुःखाद् ग्रीष्मान्मा| गश्रमादपि / मद्यात् सलवणाहारात् तृषार्तोऽभूद् भृशं हरिः // 41 // अथोचे सीरिणं कृष्णस्तृपा मां बाधतेऽधिकम् / चलितुं न क्षमे | सान्द्रच्छायेऽप्यस्मिन्महावने // 42 // बलोऽप्यूचे त्वत्कृतेऽहमानेष्ये शीतलं जलम् / अप्रमत्तस्त्वमत्रास्स्व तरोछायाकुले तले // 43 // अहो दुःकर्मणा मोहं नीतौ तौ यत्प्रभोर्वचः / विस्मारितौ नाज्ञासिष्टां तुदकष्टं रिष्टमिष्टहृत् // 44 // हरिः पादं न्यस्य जानूपरि पीता. म्बरावृतः / श्रान्तः सुप्तस्तरोमूले निद्रा लेभे क्षणात्पथि // 45 // गच्छन् रामः पुनः प्रोचे भ्रातर्मा प्रमदः क्षणम् / छलयन्ति प्रमत्तं हि // 465 // क्षुद्रा देव्यो द्विपोऽपि च // 46 // अबोचदुन्मुखश्चोच्चैः शृण्वन्तु वनदेवताः / मया मुक्तोऽस्ति वः पार्श्वेऽनुजो यत्नेन रक्ष्यताम् // 47 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रमम जिनेश // 466 // संदिश्येति गते रामे जरामनुधनुर्द्धरः / दैवात्तत्राऽगमल्लम्बकूचों व्याघ्रत्वगावृतः // 48 // मृगयार्थ बने भ्राम्यन् / वृक्षच्छन्नं तथा| स्थितम् / कृष्णं दृष्ट्वा मृगभ्रान्त्या स विव्याधेषुणा तले // 49 // अथोत्थायाऽवदत्कृष्णः को मां भोः क्षत्रियाधमः / अनालप्य च्छ- चरित्रम् / लात्सुप्तं निर्मन्तुं चावधीत्तले // 50 // अज्ञातज्ञातिनामा च न मयाऽघाति वैयपि / तदाचश्व कुलं नामापि स्वं मे क्षत्रियोऽसि चेत् जरासुनुना // 51 // व्याधोऽप्याख्यद् यदुवंश्यो वसुदेवांगजोऽस्म्यहम् / जराकुमारनामा श्रीनेमेः श्रुत्वा वचस्तदा // 52 // कृष्ण त्रातुमिहावासंकाशाम्बवने विद्धो पादद्वादशाब्दी तथाऽत्यगाम् / मर्त्यजातिं च नाऽपश्यं तत्त्वं कोऽसीति शंस मे // 53 // युग्मम् / / कृष्णोऽप्यवादीदेोहि वं त्रातुं यमि तले कृष्णो हागमः। स एवास्मि हरिभ्राता तव क्लेशकरो वृथा // 54 // उपलक्ष्य गिरागत्य वीक्ष्य विद्धं तले हरिम् / मूच्छित्वा क्षणमुत्थाय रुरो मृगबुद्ध्या दोचजरात्मजः॥५५।। कृष्णः पृष्टश्च तेनाऽऽख्यत्तत्प्रवासात्प्रभृत्यपि / कथां सर्वां पुरीदाहस्वांहिवेधावधि जवात् // 56 // सोऽनिन्द खं रुदन्नवं धिग्मां वज्रमयं यतः / श्रुत्वा श्रीनेमेर्वचः पक्कै रुवन्नास्फुटं द्विधा // 57 / / ममारण्येऽत्र वसतोऽप्यभूयंच्छरगोचरः। | तन्मन्ये न युगान्तेऽपि जैनी वागऽन्यथा भवेत् / / 58|| आख्यत्त्वद्वधकं नेमिमा॑ नो मत्कर्म तत्पुनः / आनीय येनाऽरण्येऽपि सूत्रितस्त्वत्कृतेऽन्तकृत् / / 59 / / अभूवमहमेवैको दुन्दोः पुत्रेषु हाधमः / कुलधुर्यो लघुर्वन्धुर्विपद्यऽवधि यन्मया // 60 // युक्ता मे म्लेच्छता यद्वा वृद्धि यस्य श्रियाऽसदम् / बन्धुं तमेव कल्पद्रं यत्पापो जनिवानऽहम् // 61 // मम पापासहा सर्वसहाऽप्येवं न | चेत्ततः / दत्तां सा विवरं यामि स्वशुद्धय निरये यथा // 62 // हुं ज्ञातमथवा कर्ती विशुद्धिमियमेव मे / बन्धुहत्यांहसो लोकधिकारस्तैः सुदासहैः // 63 / / धातर्यदुकुले ख मां व्यधास्यश्चेन्न मौख्यतः। नाभविष्यत्ततो हत्यापापांशस्तेऽपि दुःसहः // 64 // कृष्णोऽथ // 46 // सास्रक् मोचे विषादेन कृतं कृतिन् / का कथा नः सुरैरप्यलंघ्यैव भवितव्यता / / 65 / / सौख्यदाने प्रतिभुवां क्षये प्राक्शुभकर्मणाम् / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 467 // ** * नुमोदना | इदानीमुदयेऽन्येषां दैन्यमेवाऽतिरिच्यते // 66 / / भावी मृत्युरवश्यं मे बलस्यापि च मां विना / बीजभृतस्त्वमेवैकोऽवशिष्टोऽसि यदोः | कुले // 67 // तद्याहि याहि खं वीर यदुवंशस्य वृद्धये / हन्यात्त्वां मद्वधक्रुद्धो बलदेवो अन्यथाऽऽगतः / / 68 // यायाश्च पाण्डवांस्ते पाण्डवान् हि सहायास्तत्र भाविनः / मदिरा क्षमयेस्तांश्च रुष्टान् मत्प्रेषणादिना // 69 / / तेषां च मत्कथां ब्रूयादितो यापान्पुनर्भवान् / विपरीतैः प्रति प्रेपिते al पदै रामोऽन्यथाऽन्वेष्टा भविष्यति // 70 // तस्योत्खायाऽऽर्पयद्विष्णुरभिज्ञानाय कौस्तुभम् / महतामप्यहो वंशवृद्धिचिन्ता मृतावपि जरासूनौ | // 71 / / प्रभुणाऽप्यपमान्यो न स्वको विप्रियकार्यपि / तेनापि तस्य कार्य स्यात् श्रीविष्णोः पाण्डवैखि // 72 / / कृष्णेन प्रेरितो वारं- पंचपरमेष्ठि वारेणेति जरासुतः / तस्यांहेः शरमुद्धृत्य तदुक्तविधिना ययौ // 73 // उदग्मुखः केशवोऽपि भूत्वा विरचिताञ्जलिः / प्रत्येकं परमे स्मरणवता|ष्ठिभ्य पञ्चभ्योऽपि नमोकरोत् // 74 / / नमश्चक्रे नतारिष्टनेमये नेमयेऽर्हते / ती भवाब्धि योऽन्यथं भव्यानां तीर्थमातनोत् / 75 // जीवनसमाकुशसंस्तरमाश्रित्य न्यस्य जानूपरिक्रमम् / वस्त्रावृतांगः स पुनर्नेमि हृदये सरन् / / 76 / / आलोचनां व्रतोचारं क्षामणां पापगहणाम् / प्तिर्वालुचतुर्णां शरणं भक्त्या चतुर्धाऽनशनं व्यधात् / / 77 / / युग्मम् / / श्रीनेमि वरदत्तादीन प्रद्युम्नादीन सुनानिजान् / राजीमती स्वपत्नीश्च कायारुक्मिणीप्रभृतीर्मुहुः // 78 / / सोऽस्तावीद्दीक्षया दुःखव्यूहादुरीकृतात्मनः / तादृग्दुःखार्त्तमात्मानं निनिन्द च हृदा तदा / / 79 / / मुत्पत्तिश्च युग्मम् // शुद्धध्यानस्य तस्यैवं ध्यायतः श्रीनमस्कृतिम् / क्रुद्धो हस्तीव दुर्वायुर्बभञ्जांगानि सर्वतः // 80 // घातातितृष्णाशुक्वाथुव्यथाभियुगपत्तदा / दुःकर्मराजसेनाभिविंध्वस्ते बोधमंत्रिणि // 81 // हरिविह्वलितो भ्रष्टो विवेकानेरचिन्तयत् / नाभिभूतोऽस्मि देवै-- रप्याजन्म नृकथैव का ? // 82 // अभूद् द्वैपायनादेवं दुर्दशा प्रथमा मम / वीक्ष्येऽधुनापि चेत्तं तन्निगृह्णाम्यवश्यं हठात् // 83 // इति // 467 // रौद्रध्यानतोऽसौ तृतीयावनिनायकम् / आयुर्यकाचयद् वर्षसहस्रावधिजीवितः // 84 // च कु०॥ विभ्रत्सुदर्शनं शंखसख प्रौढगदा 388R*38* Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम न्वितः। सच्चक्रनन्दको बद्धजिननामा नरोत्तमः // 85 // परमाधार्मिका यत्र खैरं विभ्रति विभ्रमम् / तां तृतीयां भुवं प्राप द्वारका मिव वालुकाम् // 86 // युग्मम् // कौमारे किल यस्य षोडशसमाः सन्मण्डलित्वे पुनः, षट्पश्चाशदथाष्टदिग्जयमहापर्वण्यऽतीयुः // 468 // * सुखम् / वषाणामगमत्तथा नवशताव सुखम् / वर्षाणामगमत्तथा नवशतीविंशाऽर्द्धचक्रिश्रियो भोगे तस्य जनार्दनस्य चरितं कस्येह नाश्चर्यकृत् // 87 // युग्मम् / / अमम| चरिते भाविन्येवं तयोः सहजन्मनोबलहरिभवे तुर्ये वयें निशम्य लघोर्जनैः। फलमविकलं खोप्तस्योचैर्निदानतरोभवद्वितयविपदा हेतुं हातुं मतिः क्रियताममुम् / / 88 // इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते श्रीअममस्वामिचरिते महाकाव्ये द्वारकादाह-कृष्णावसान पञ्चमभवप्राप्तिवर्णनश्चतुर्दशः सर्गः // ग्रं० 190 // पञ्चदशः सर्गः। जिनेशचरित्रम्। ज्ञाते मरणे बलदेवस्य महान् विषादः वारि वारिजपत्रेऽथ गृहीत्वा शाङ्गिणोऽन्तिके / आगादस्खलितः स्खल्यमानोऽप्यशकुनैबलः॥१॥ वत्सः श्रान्तः सुखं शेता| मिति क्षणमयं स्थितः। रक्ताक्तं वीक्ष्य वस्त्रं तु तं विवेद चिरान्मृतम् // 2 // रामोऽथ मूर्च्छयाऽलोठीच्छिन्नमूल इव द्रुमः / सुहृदेव | घनाट्टैण मरुतोच्चैस्तु निर्ममे // 3 // कृत्वा क्ष्वेडो वनवनेचरक्षोभकरीमयाम् / ऊचे येनेह मे भ्राता सुप्तोऽघाति ब्रवीतु सः // 4 // सुप्तं | * प्रमत्तं स्त्री चालं मुनि च प्रहरेत यः। सुभटापसदः सैप क्षत्रियान्वयदूषणम् // 5 // इत्युच्चैःकारमाक्रोशन् बलो भ्रान्त्वा वनान्तरे।* सर्ग-१५ // 468 // Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 469 // मृतकृष्णं स्कन्धे क्षिप्त्वा बलस्य भ्रमणम् * पुनरेत्य हरिं गाढमाश्लिष्येत्यरुदद् भृशम् // 6 // हहा प्रीतिसुधासिन्धो ! बन्धो मजीवितेश्वर / नेशोऽस्मि त्वां विना स्थातुं ततो जल्पसि ? किं नहि // 7 // नापराद्धं मया बाल्यादपि त्वयि कदाचन / किं ? प्रेमाश्रय ! तन्मौनमाश्रयः प्रागनाश्रितम् / / 8 // अभृ. जलविलम्बो वा रोपहेतुः स मुच्यताम् / यत्पदोरुपसंगृह्य श्रमितोऽसि मयाऽधुना / / 9 / / गुणज्येष्ठ ! तदुत्तिष्ठ सन्ध्याऽभूत् सुप्यते न | तत् / इत्यादि विलपन्नुच्चै रात्रिमप्यनयद् बलः // 10 // भ्रातः प्रातरभृद् बालवत्कालं गमयः स्म मा। विश्वश्रेष्ठ ! तदुत्तिष्ठ वकृत्यमनुतिष्ठ च // 11 / / अनुत्तिष्ठन्तं च बन्धुं तं गाढस्नेहमोहितः / रामोऽध्यारोपयत् स्कन्धे शैशवं स्मरयन्निव // 12 // सम्भ्रमी बम्भ्रमीति स्म स प्रत्यद्रिवनं ततः / मद्वन्धुरेकछलितो हा किं ? देव्य इति त्रुवन् // 13 // च्छलयन्ति न शाकिन्योऽप्यपितं त्वयमा| स्ततः / न्यासापहारः किं ? चक्रे युष्माभिरिति कथ्यताम् // 14 // इत्यादि जल्पन सोऽभ्राम्यदुर्गन्धादेरभावतः। बन्धोः कायस्य | तन्मृत्युं नाज्ञासीन्मोहतोऽपि च // 15 // तं कृष्णदेहं मपयन् पुष्पैः संपूजयन् वहन् / अतिचक्राम पण्मासी मोहादेकाहवद् बलः 16 / / वर्षागमेऽथ सिद्धार्थो देवभूयंगतोऽवधेः / बलं दुःखिनमालोक्य दृष्टान्तरित्यबोधयत् // 17 // बलोद्राक्षीद्गिरेरुत्तरन्तमश्ममयं रथम् / देशे प्राप्तं समे भग्नं संदधानं च तं नरम् // 18 // बलस्तमूचे विपमाद् गिरेरुत्तीय यः समे / रथस्ते चूर्णतामागातं कथं ? मेलयिष्यसि / / 19 / / नरोऽप्यूचे जितानेकयुद्धः सुप्तः सुखं मृतः। त्वदाता जीविता चेनद्रथोऽपि मिलिता मम ॥२॥रामोऽन्यतो रोपयन्तं पद्मानि प्राव्णि कश्चन / उवाचात्र लगिष्यन्ति कथमेतानि मूर्ख ! भोः॥२१।। स पुमानप्युवाचेति चेतिष्यति तवानुजः। मृतो यदा तदा प्राप्स्यन्त्येतान्यप्यत्र रोपणम् // 22 // अथान्यत्र बलः कश्चित् सिञ्चन्तं दग्धपादपम् / नरं माह कथं मृढ ! निर्दग्धोऽयं प्ररोक्ष्यति ? // 23 // सोऽपि स्मित्वाऽवदत्तेऽसौ जीविष्यति यदाऽनुजः / तदा द्रुमोऽयं दग्धोऽपि भविष्यति सप // 469 / / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 47 // जिनेशचरित्रम् / सिद्धार्थप्रबोधित बलस्य दीक्षा तपश्च ल्वः // 24 // कश्चित तृण्यां गोशवास्ये निक्षिपन् हलिमौच्यत / गृह्णन्ति गावः किं नाम चारि मुग्ध ! मृता अपि // 25 // महतामप्यहो दुःखशून्यीभूतहृदामपि / परतप्तौ साग्रहत्वं हा धिक् संसारचेष्टितम् // 26 // गोपोऽप्युवाच स्कन्धस्थो भ्राता ते जीविता यदा। चरिष्यन्ति तदा गावोऽप्येताश्चारिमहो मुदा // 27 // वलोऽप्यचिन्तयत् सत्यं मृतोऽयं किं ? ममानुजः / तन्मृति यजनाः शंसन्त्येवमेकोक्तयः पृथक् // 28 // प्रतिबद्धं बलं ज्ञात्वा सुरः सिद्धार्थरूपभृत् / ऊचे त्वयाऽथितोऽभ्वं तत्वदोधार्थमागमम् // 29 // पूर्व रथादि मक्लप्तं मुश्च मोहं मृतो हरिः। शंसित्वेत्यखिलामाख्यञ्जरासूनोः कथां स च // 30 // बलोऽप्यूचे साधु साधु बन्धो ! त्वं मामबोधयः / किं करोम्यधुनाऽभीष्टभ्रातृशोकार्तिशल्यितः // 31 // सिद्धार्थस्तमभापिष्ट बन्धोः श्रीनेमिनोऽधुना / दीक्षैव युज्यते सर्वपापघ्नी ते विवेकिनः // 32 // बलस्तस्य सुरस्येति वाचमादृत्य तद्युतः / कृष्णकायस्य संस्कारमकार्षीसिन्धुसङ्गमे // 33 / / ज्ञात्वा व्रतोद्यतं रामं श्रीनेमिश्चारण मुनिम्। प्रहित्यादीक्षयत्साध्वाचारमप्यध्यजीगपत् // 34 // तदादेशात्तुङ्गिकादिशिखरेऽथ बलो ययौ। तपश्च दुस्तपं तेपे सिद्धार्थोऽभूच्च रक्षकः॥३५॥ मासपारणके तं च प्रविशन्तं पुरे क्वचित् / काप्यद्राक्षीचकोराक्षी सपुत्रा कूपकण्ठगा | // 36 // तद्रूपवीक्षासाक्षेपचित्तया च तया तदा / रज्जुपाशोऽक्षेपि कुम्भभ्रान्त्या कण्ठेऽभकस्य धिक् // 37 // कूपे क्षिपन्तीं तां बालं बलो वीक्ष्येत्यचिन्तयत् / धिग्मद्रूपमिदं येनाक्षिप्ता मन्त्यात्मजान् स्त्रियः // 38 // नातः परं प्रवेष्टव्यं मया ग्रामपुरादिषु / भिक्षया दारुहारेभ्यः पारणीयं तु लब्धया // 39 // अभिगृह्येति तां नारी बलर्पिः प्रतिवोध्य च / वनं भेजे मासिकादितपश्चातप्यताऽस्पृहः // 40 // प्रासुकैरन्नपानश्च तृणकाष्ठादिहारतः / चक्रे महामुनिस्तत्र भक्त्या लब्धैः स पारणम् // 41 // आसन्नपुरभूपालास्तेभ्यश्चाकण्य तत्कथाम् / इति दध्युर्भयादस्मद्राज्यार्थी स तपस्यति // 42 // सर्वथा घात्य एवायमित्यालोच्याथ ते समम् / एत्य सर्वबलेनाशु सर्ग-१५ // 470 // Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 471 // मृगरथकृद् बलानां स्वर्गमनम् बलं मुनिमवेष्टयन् // 43 // पार्श्वे बलस्य सिद्धार्थः सुरः सिंहान् विनिर्ममे। तेभ्यो भीताः प्रणम्यैनं जग्मुस्तेऽथ यथाऽऽगतम् // // 44 // नरसिंह इति नाम बलभद्रो मुनिस्तदा / सदा साम्यसुधाकुण्डनिमग्नोऽप्यासदजनाद् / / 4 / / बलदेशनया व्याघ्रसिंहाथैः श्वापदैरपि / धर्मः शिष्यैरिवाभाजि त्यक्तपापैस्तदा वने // 46 // शिश्रियुः केऽप्यनशनं तपः केचिच साधुवत् / तत्यजुगयां मांसाशितां च श्राद्धवत्परे // 47 // मुनेस्तस्य मृगः कोऽपि स्मृत्वा प्राम्भवसौहृदम् / अनुद्विग्नोऽतिसंविनोऽनु- चरोऽजनि शिष्यवत् / / 48 // संसर्गेण स रामस्य पूर्वच्छिन्नं तृणादिकम् / निर्जीवं नैझरं वारि पपौ चार्षांशुतापितम् // 49 / / उपासीनः स रामर्षि वेदंस्तत्पारणस्थितिम् / वने भ्रान्त्वा ऽन्विष्य सान्नान् प्राप्तान काष्ठादिहारिणः // 50 // ऊर्ध्वासनस्थितं शुद्धध्यानैका| यतमानसम् / ज्ञापयामास पादाब्जे मौलिप्रेरणसंज्ञया // 51|| युग्मम् / / पारणे मुनिरप्यस्योपरोधाद् भिक्षितु ययौ / तेनैवाग्रेसरे| णाहो गुरुभक्तिः पशोरपि // 52 // वने तत्रान्यदा राजरथकृत् सपरिच्छदः / अति चारूणि दारूणि ग्रहीतुं कश्चिदागमत् // 53 / / कुलीनान् सरलान् पक्ष्याधारांस्तुङ्गांश्च शाखिनः / तद्गृह्यांश्चिच्छिदुस्तत्र पिशुनाः सज्जनानिव // 54 // भोक्तुं सन्नह्यतस्तांश्च हरिणो वीक्ष्य तं मुनिम् / ज्ञापयामास सोऽप्यागात्तद्भक्त्या मासपारणे // 25 // तत्स्वामी रथकारोऽपि रामर्षि प्रेक्ष्य हर्षभाछ / दध्यौ सुनेर्वनेवास्य योगः पुण्यनिधिरित // 56 // शमेन प्रेयसा योगं रूपन्जाश्रियो नयन् / मुनिर्भाग्यैरयं दृष्टः प्रिय मेलकतीर्थवत् // 57 // इदृशस्यातिथेरत्रागमः पुण्यागमाय मे / इति नत्वा मुनि भक्तपानः स प्रत्यलम्भयत् // 58 // युग्मम् / / माऽस्य पुण्यान्तरायोऽभूदित्यनुग्रहवान् मुनिः / भिक्षां देहेऽनपेक्षोऽपि तस्मात्करुणयाग्रहीत् / / 59 / / मृगोऽप्यूर्द्धमुखो बाष्पपूर्णाक्षस्तं मुनीश्वरम् / रथकारं च तं पश्यन्निति चेतस्यचिन्तयत् // 60 // धन्यस्तपोनिधिरयं परानुग्रहसाग्रहः / चित्तवित्तपात्रलाभाद्रथकारोऽप्ययं कृती // 61 / / निःपु // 47 // Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश श्रीअममAण्यकोऽहमेबैकस्तरश्येन विडम्बितः। दानं दातुं तपस्तप्तुं चाक्षमो हाऽस्मि रकवत् // 62 / / कुरङ्गोऽपि सुरङ्गोऽसौ तदा भावनयाऽनया। या भावनयाऽनया। चित्र दानतपःपुण्यदायादोऽभूत्तयोः समम् // 63 / / एवं त्रयोऽपि सद्ध्याना रथकृन्मृगसीरिणः / अग्निरे पेतुपा वात्याहतार्द्धच्छिन्न- चरित्रम् / // 472 // शाखिना // 64 // समं ते जज्ञिरे ब्रह्मलोक कल्पे महद्धयः / पद्मोत्तरविमानान्तस्त्रयोऽपि प्रवराः सुराः॥६५।। बलस्योदारतां वन्दे निदर्शिता रथकारमृगौ गया / स्वां लक्ष्मी लम्भितान तुर्याशधनिकावपि // 66 // रामो बतं वर्षशतं निर्वाह्य सुरवैभवम् / संप्राप्तोऽवधिना बलदेवेन खे विमाने कृष्णमद्राक्षीद्वालुकागतम् // 67 / / तत्स्नेहमोहितः कृत्वा वैक्रियवपुरंजसा / तत्र कृत्वाऽऽलिङ्गय कृष्णमिति रामसुरोऽब्रवीत् // 68 // स्वयुक्ता | त्वद्भ्राताऽस्मि बलखातुं त्वामागां ब्रह्मलोकतः / किं ? ते समाधानं कुर्वेऽधुना शाधि निराधिकः // 69 // तेनेत्युक्त्वोद्दधे कृष्णः विष्णुमतिसोऽपि पारदवद् द्रुतम् / विशीर्य तत्करात्पृथव्यां पतितो मिलितश्च हा // 70|| आलिङ्गनेनाऽभिधानख्यानेनावधिनाऽपि च / कृष्णो जनानामज्ञात्वा बलं भक्त्याऽभ्युत्थाय प्राणमन्मुदा // 71 / / बलदेवोऽवदद् भ्रातः सुख वैषयिकं प्रभुः / नेमियंदाख्यदुःखान्तं तते संवादमा. पजस निवारणाय गमत् / / 72 / / यद्यपि त्वां कर्मबद्धं बन्धो ! नो नेतुमीशिषे / तथापि त्वन्मनःप्रीत्यै स्थितोऽस्मीह करोमि किम् ? // 73 / / कृष्णोऽप्यवादीदार्य स्यात् त्वया पार्श्वेस्थितेन किम् ? / अवश्यभोग्य स्खोपात्तं वालुकावासकर्म यत् // 74 / / अस्मादपि दुनोत्येतत्तया दुर्दशयाऽऽवयोः / दधुर्य१र्जनास्तोपमसन्तोपं च सज्जनाः / / 75 // तद्याहि भरते शङ्खचक्रशाङ्गगदाधरम् / ता_ध्वजं दर्शयेर्मा पीत. सर्ग-१५ वस्त्रं विमानगम् / / 76 / / नीलाम्बरं विमानस्थं तालकेतुं पुरे पुरे / दर्शयेः स्वं च मुसलहलधारिणमम्बरे // 77 // यथा व्योमचरौ रामकृष्णौ स्वेच्छाचरौ सदा। प्रघोषोऽयं जने विष्वग् भवेत् प्रागन्यत्कृतिच्छिदे // 78 // बलदेवः कृष्णशिक्षा तामादृत्येति मोहतः। // 472 // अकरोद्भरते गत्वा धिग् भ्रान्तिस्तादृशामपि // 79 // आख्यच्चैप विश्वसृष्टिस्थितिप्रलयकारिणः / वयं दिवः स्वेच्छयात्रायामो या.* Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 473 // *मश्च तत्र भोः / / 80 // अस्माभिरिका सृष्टा स्वर्गराज्यप्रदेः पुनः / स्वयं च संहृता कर्ता हर्ता चान्योऽस्ति नो ततः // 81 // प्रोक्तो * | रामसुरेणैवं जनो ग्रामपुरादिषु / कृत्वाऽऽर्चयद्भक्त्या मूर्तीः श्रीकृष्णरामयोः // 82 // तत्पूजकानां लोकानां राज्यऋझ्यादिकं सुरः। | पाण्डवादीददाविष्टमभृत्तेन तद्भक्तः पृथिवीजनः // 83 / / हा क्षायिकेऽपि सम्यक्त्वे देवत्वेऽप्याभिमानिकात् / मोहात्प्रवर्तितं ताभ्यां मिथ्या नां दीक्षा त्वमिति पप्रथे / / 84|| इत्थं रामसुरो भ्रातुर्वाच विस्तार्य भारते। तदुःखदुर्मना ब्रह्मलोकेऽगात्स्वास्पदं पुनः // 8 // इतोऽप्यगाजरासूनुः पाण्डवान् मथुरास्थितान् / समर्प्य कौस्तुभं चाख्यत् पुरीदाहादिकां कथाम् / / 86 // पर्यस्ते दैवतो मातुकुलेऽवष्टम्भशैलवत् / | पाण्डवानां जलं दृग्भ्योऽलोठीनिर्झरवद्भुवि // 87 // स्मारै स्मारं कृष्णगुणान् पूञ्चक्रुस्ते तथा यथा / आकाशोऽप्यस्फुटत् सान्द्रच्छिद्रोऽभूचोडुभिध्रुवम् // 88 // मातृपक्षस्य कृष्णस्यापि च वर्षावधि व्यधुः / प्रेतकार्याणि सर्वाणि रुदन्तः सोदरा इव // 89 // तच्छृत्वा* तान् सवैराग्यान्नेमिर्ज्ञात्वा व्रतार्थिनः / सूरि प्रैपीद् धर्मघोषं चतुर्ज्ञानधरं जिनः॥९०॥ राज्ये न्यस्य जरापुत्रं गुरोस्तस्यान्तिके व्रतम् / जगृहुः पाण्डुतनया द्रौपद्यादिभिरन्विताः // 91 // पश्चाथ तेपिरे तेऽपि रेचकं कर्मणां तपः। विविधाभिग्रहैरुपमनुग्रस्वान्तवृत्तयः | | // 12 // अहं ग्रहीष्ये कुन्ताग्रदत्तमेवोच्छमित्यमुम् / जग्राहाभिग्रह भीमः षण्मास्याऽपूरि सोऽस्य च // 93 / / द्वादशाङ्गीपारगास्ते नेमि वन्दितुमुत्सुकाः। भक्त्या प्रचेलुः पश्चापि गुर्वादेशवशंवदाः // 14 // इतः प्राग्मध्यदेशादावुदग् राजपुरादिषु / शैले च हीमति प्रत्यक् म्लेच्छदेशेष्वपि क्रमात् // 95 / / ततः किरातदेशेषु दक्षिणस्वान्ततः स्वयम् / श्रीनेमिरर्कवद्भव्यारविन्दानि व्यबोधयत् // 96 // युग्मम् // अष्टादशसहस्राणिबभूवुव्रतिनां प्रभोः। व्रतिनीनां // 473 // सहस्राणि चत्वारिंशत् क्रियाजुषाम् / / 97 // सार्द्ध सहस्रमवधिमतां केवलिनामपि / जातवैक्रियलब्धिनामपि जज्ञे पृथक् पृथक् | RRRRRASANPAT Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम / / 474 // जिनेशचरित्रम् / रैवताचले श्रीनेमिजिनेश्वरादि निर्वाणस्वरूपम् // 98 // चतुःशती चतुर्दशपूर्विणां वादिनां पुनः / अष्टशतीसहस्रं तु मनःपर्ययिणामभृत् // 99 // श्रावकाणामभृल्लक्षं नवपष्टिसहस्र| युक् / श्राद्धीनां त्रिलक्ष्येकोनचत्वारिंशत्सहस्यपि / / 100 // आकेवलाद्विहरतः क्ष्मातले निखिलेऽभवत् / चतुर्विधोऽयं श्रीसङ्घः श्रीमन्नेमिजिनेशितुः // 1 // अक्षुण्णेनाध्वना योञ याति मुक्तिमहापुरीम् / प्रौढेषु रेखा तस्यैव विबुधैर्दीयते ध्रुवम् / / 2 / / दातुं व्रतश्रियं ज्ञानश्रिय मुक्तिश्रिय समम् / जनेभ्यः स्थूललक्षोऽयमेव क्षमाशृत्यु भृधरः / / 3 / / ज्ञात्लेतीनासबसिद्धिगमोऽगादेवताचले। सम्मेतविमलादि चासन्नं मुक्त्वा शिवात्मजः॥४॥ त्रि० वि०॥ क्लप्ते समवसरणे प्राग्वत्तत्र सुरासुरैः / राजादिष्वप्यागतेषु चक्रेऽअहन्नन्त्यदेशनाम् / / 5 / / तया प्रबुध्धाः प्रव्रज्यां केपि श्रावकतां परे। भेजुर्भद्रकता केचिजैनी वाग्निःफला न यत् // 6 // पडत्रिंशैः सह साधूनां तत्राद्रौ पञ्चभिः शतैः। मासं संन्यस्य भगवान् पादपोपगमं व्यधात् / / 7 / / आपाढस्य सिताष्टम्यां त्वाप्ट्रे तैः साधुभिः सह / शैलेशीमाश्रितः सोऽयं वत्रे मुक्तिश्रियं प्रभुः / / 8 // सिद्धिं कुमाराः प्रद्युम्नशाम्बाद्याश्च प्रपेदिरे / श्रीनेमेबन्धवः कृष्णमहिष्योऽष्टौ च सद्धियः॥९॥ साधुसाध्वीगणश्चान्यो राजीमत्यपि शुद्धधीः। श्रित्वा मुक्तिश्रियं प्रापदऽभेदं स्वामिना सह // 10 // ज्योतिरूपतयाऽप्यभिन्नविभवं यद्विप्रलम्भो रसस्तन्निव्यूढनिजान्तरव्यतिकरं द्वन्द्वं नमस्कुर्महे / यत्सौभाग्यपतिव्रतात्वमपि यद्वैराग्यमत्यद्भुतर्वक्त्यद्यापि जनस्य रैवतगिरिः साक्षी प्रदेशैनिजैः // 11 // चतुर्वर्षशतीगेहे छद्मभावे तु वत्सरम् / केवलित्वे पञ्चवर्षशत्यासीद्रथनेमिनः // 12 // कौमारे च्छद्मवासित्वे केवलित्वेऽपि चानयत् / एतामेव स्थितिं राजीमत्यपि वतिनी तदा // 13 // शिवासमुद्रविजयौ तुरीयकल्पमापतुः। प्रापुर्महद्धिंदेवत्वं दशार्दा अपरेऽपि हि // 14|| शतानि त्रीणि कौमारे च्छमकेवलयोः पुनः। शतानि सप्तवर्षाणां सहस्रायुरिति प्रभुः // 15 / / वर्षलक्षेप्ततीतेषु पञ्चस्वजनि निवृतिः / श्रीनमिस्वामिनिर्वाणाद् द्वाविंशस्य जिनेशितुः॥१६॥ सर्ग-१५ // 474 / / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 475 // पुण्डरीकाचलेऽनशनं निर्वाणं च पाण्डवानां निर्ममे शिविका शक्रादेशाद् वैश्रवणः प्रभोः / अङ्गं विधिवदभ्यर्च्य शक्रस्तस्यां स्वयं न्यधात् // 17|| नैऋत्यां च चितां चक्रुर्विभोगोशीर्षचन्दनैः। अन्येपामपि साधूनां सुराः शोकेन निर्भराः॥१८॥ उत्पाटय नेमे शिविकां तत्रानीय पुरन्दरः। अङ्गं चितायां न्यस्याग्निमग्निदेवैर्व्यदीधपत् // 19 / / वह्निं वायुकुमाराश्चाऽज्वलयन्नब्दपाः पुनः। काले निर्वापयामासुराशु क्षीरोदवारिभिः // 20 // प्रभोर्दष्ट्राश्च जगृहुर्यथास्वमथ वासवाः / अन्ये देवास्तु शेपास्थीन्येषां देव्यः सुमानि तु॥२१॥ वस्त्राणि भूभुजो भस्म स्वीचक्रुस्तु जनाः प्रभोः / कृत्यानि शेपसाधूनामन्ये निर्ममिरे सुराः॥२२॥ नेमे म लक्षणानि चोल्लिलेख हरिः स्वयम् / वज्रेण स्वामिनिर्वाणशिलायां रैवताचले // 23 // नेमेनिर्वाणभूमौ च चक्रे शक्रेण मन्दिरं / नानारत्नैर्नीलरत्नप्रतिमान्वितमुन्नतम् / / 24 // गत्वा नन्दी रे कत्वाऽष्टाहिकामथ वासवाः / प्राप्ताः स्वस्वास्पदेष्वर्चा जिनास्थनां सर्वदा व्यधुः // 25 / / नेमिः सोऽस्तु जिनः श्रिये त्रिजगतां | | यस्योजयन्ते गिरावानन्दादुपवीणिता सुचरितश्रेणीति देव्याऽम्बया / अस्मत्पूर्वजरक्षकोऽयमिति हि व्यक्तानुरागैरिवाद्यापि प्रस्तुत- | K मण्डलैमृगकुलैरुत्कर्णमाकर्ण्यते // 26 / / इतश्च पाण्डवाः प्रापुर्विहरन्तः क्रमाद्भुवि / हस्तिकल्पे पुरे माग्र्गेऽप्यादृतं मासिक तपः ||27|| योजनानि द्वादश स्याद् रैवताद्रिरितः पुरात् / नेमि नत्वा वयं प्रातः कुर्मो मासिकपारणम् / / 28 // इति प्रीत्या वदन्तस्तेऽन्योन्यं तत्र पुरे जनात् / निर्वाणं शुश्रुवुर्नेमेर्वा सवैनिर्मितोत्सवम् / / 29 / / युग्मम् // तेऽपञ्चाऽपि स्फुरदुरुशुचः पुण्डरीकाद्रिमेत्य श्रित्वा सत्वादनशनविधि प्राप्य कैवल्यलक्ष्मीम् / मुक्तौ गवा व्यधुरनुगतां शाश्वती नेमिभतुर्दुधा साध्वी द्रुपदतनया त्वच्युतं | कल्पमाप // 30 // अममचरिते भाविन्येवं तयोः सहजन्मनोबलहरिभवे मृत्यु प्राप्ते लधौ सुजना गुरोः / गुरुशुचः सुराद् बोधं तीवं तपो रथकृन्मृगोपकृतिसुकृती श्रुत्वा धर्म श्रयन्तु शुभं प्रदम् // 31 // // 475 // Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते अममस्वामिचरिते महाकाव्ये बलदेवचरित्र-ब्रह्मलोकोत्पत्ति-पञ्चमभव-तथापाण्डवशेषचरित नेमिनिर्वाण-वर्णनः पञ्चदशः सर्गः // ग्रन्थानम् // 135 // षोडशः सर्गः। जिनेश| चरित्रम् / कालस्वरूप कथनम् // 476 // उत्सर्पिण्यां द्वादशोऽर्हन्नममो नेमिनोदितः / भविता वालुकोद्वृत्तः कृष्णजीवोन भारते // 1 // भाविन्युत्सर्पिणी चावसर्पि-| | ण्यन्ते ततोऽनयोः। जिनेनाऽपश्चिमेनोक्तं प्राक्स्वरूपं निरुप्यते // 2 // राजीव मंत्रिणा द्वैधीभावं विद्याधराद्रिणा / कारिते भारते कालोऽप्यधात् तद्योगजं ध्रुवम् // 3 // तत्रारः षभिरुत्सर्पद्भावैरुत्सर्पिणीत्यभूत् / कालवृत्तिविपरीतैरेतैरेवावसर्पिणी // 4 // कालारघद्वे | भ्रमति नरक्षेत्रान्तरन्वहम् / भजतश्चक्रतामेते पर्यायेणैव कौतुकम् // 5 // तत्र वाद्धिचतुःकोटिकोटिप्रमितिरादिमः। सुषमासुषमाख्यो| SH कल्पद्रुप्रीतयुग्मिभृत् // 6 // त्रिगव्यूतोच्छ्रितदेहाः पल्यत्रितयजीविनः / मारूयहाशिनोऽप्यत्राऽहमिन्द्र श्रीविजित्वराः // 7 // त्र्यब्धिकोटीकोटिमानो द्वितीयः सुषमारकः। युग्मिनोत्र द्विपल्यायुद्भिगव्यूतद्वयहाशनाः // 8 // अरस्तृतीयः सुषमदुःषमाख्योऽस्य तु प्रमा। अम्भोधिकोटिकोट्यौ द्वे कालस्याऽप्यहह त्रुटिः // 9 // एकगव्यूतोच्चदेहा एकपल्यायुषोत्र च / एकाहतः कल्पवृक्ष. फलाहाराश्च युग्मिनः // 10 // पूर्वलक्षचतुरशीत्या नवाशीतिपक्षया / न्यूनेवायोऽभवत्सार्वः तीर्थकृद् भरते जिनः॥११॥ एका-| *म्भोधिकोटिकोटिदुःपमासुषमारके / तुर्ये मितिर्द्विचत्वारिंशच्छतोनाब्दसहस्रकैः // 12 // पूर्वकोट्यायुषः पञ्चधनुःशतसमुन्नताः। सर्ग-१६ // 476 // Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 477 // अस्मिन्माः कल्पवृक्षोच्छिच्या राद्धानभोजिनः // 13 // त्रयोविंशतिरहन्तोऽजिताद्याश्चात्र जज्ञिरे / चक्रिणो बलदेवाश्च विष्णवः प्रतिविष्णवः // 14 // साष्टिमाससहितेनाऽस्य वर्षत्रयेण च / मानेऽवशिष्यमाणेऽगान्मुक्तिं वीरो जिनोऽन्तिमः // 15 // स्थितं त हस्त्यादि | मन्त्ये समवसरणे शरणेऽङ्गिनाम् / पुण्यपालः क्षोणिपाल इत्यपृच्छजिनाधिपम् // 16 / हस्तिः कपिः क्षीरवृक्षः काकः सिंहः सरोरु- चतुःस्वमहम् / बीजानि कुम्भ इत्यष्ट स्वप्नाः स्वामिन् मयेक्षिताः // 17 // शुभाशुभानामेतेषामर्थमाख्याहि यन्मनः। कम्पते मे भृशमथाच- - फलकथनम् चक्षे भगवानिति // 18 // कालेन श्रावकाः स्तम्बरेमा इव विवेकतः। भूत्वाऽप्युन्नताः प्रौढकान्तारागविमोहिताः // 19 / / गृहवासे निवासेऽपि विपदा तुच्छसौख्यदे / दावाक्रान्ते वन इव स्थास्यन्त्यासक्तचेतसः // 20 // प्रजिष्यन्ति नो दौःस्थ्ये परचक्रेऽपि चागते। * | कुसंगेन वलिष्यन्ति दैवात्प्रव्रजिता अपि // 21 // स्तोका निर्वाहयिष्यन्ति प्रव्रज्यां हितकारिणीम् / ध्यात्वाऽऽयतिं च लजां च हस्ति खप्नार्थ ईदृशः॥२२।। अत्यल्पसत्त्वाः प्रायेण कपिवच्चलचेतसः / मान्द्य यास्यन्ति गच्छस्था आचार्याद्या अपि व्रते // 23 // अन्या| नपि विपर्यासं ते नेष्यन्ति व्रतोद्यतान् / भाविनोऽतःपरं स्तोका एव धर्मे दृढोद्यमाः // 24 // प्रमद्वरैः स्वयं धर्म प्रेर्यमाणाः श्लथाः परे / तानेवोपहसिष्यन्ति ग्राम्या ग्रामस्थपौरवत् // 25 // भाविनीत्थं प्रवचनस्याऽवज्ञाऽतः परं भुवि / अर्थः प्लवंगमस्वप्नस्याऽयं ते कथितो नृप ! // 26 // क्षीरद्रुकल्पाः सुश्राद्धाः प्रीणकाः साधुपक्षिणाम् / रोत्स्यन्ते लिंगिभिः काकैरिव कोलाहलोत्कटैः // 27 / / प्रतिभास्यन्ति च श्राद्धमानसेषु महर्षयः। महात्मानोऽपि कुचरा इवाहो कालवल्गितम् // 28 // रोधं विहारक्षेत्रोाः सुसाधूनां च लिंगिनः। वत्थूलवत्करिष्यन्ति क्षीन्द्रोरर्थ ईदृशः // 229 // धार्थिनोऽपि मुनयो धृष्टाः श्राद्धाश्च नो गुरौ / खगच्छे चाभिरंस्यन्ते 1 // 477|| पद्माकर इव द्विकाः // 30 // मृगतृष्णानिभैरन्यगच्छिकैर्वञ्चकैः समम् / आचार्यायैस्ततोऽन्वैस्ते यास्यन्त्यास्यं प्रसार्य च // 31 // गन्तुं Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम- // 478 // न युज्यते सार्द्धमेतैरित्यनुशासकान् / दोष्यन्ति ते मुखैस्तीक्ष्णैः काकस्वप्नार्थ ईदृशः // 32 // कुरंगानेकपापांगभंगैः सिंहसमं मतम् / जिनेशजैन क्षेत्रेऽत्र वनवजातिस्मृत्याद्यमन्विना // 33 // निर्जीव भावि नो मिथ्यादृष्टिभिः पशुभिः क्वचित् / विद्रोष्यते स्वाङ्गजैस्तु लिं- चरित्रम् / गिभिः कृमिसन्निभैः // 34 // युग्मम् // कुतीथिकैश्चन प्रौढेरपि ते श्वापदेरिव / पीडिप्यन्ते भारप्रभावात् सिंहस्वप्नोबदत्यदः // 35 // सिंहादि नरान् पराकरिष्यन्ति धार्मिकान कुलजानपि / कुसंसर्गात्सरःपद्मान सुगन्धान गर्दभाब्जवत // 36 // जाताः कुदेशे कुकुले धार्मिका 17 चतुःस्वमअपि भाविनः / गर्दभाब्जवदऽग्राह्याः पद्मस्वप्नोक्तमीदृशम् // 37 // वपेत्फलायाबीजानि यथा बीजधियो परे / अकल्प्यानि तथा वप्स्य फलकथनम् न्त्यपात्रे कल्प्यकल्पनात् / / 38 // यद्वा बीजमबीजान्तः कोऽपि कौटुम्बिकोऽस्पधीः / क्षेत्रे घुणाक्षरन्यायादनाकूतो वपेद्यथा // 39 // कृत्वा कल्प्यमकल्प्यान्तस्तथा दास्यन्ति साम्प्रतम् / अज्ञानाः श्रावकाः पात्रे बीजस्वप्नार्थतोऽमुतः॥४०॥ सुशीलाम्बुभृताः साधुगुणपद्मांकिताः कलौ / गुप्ताः सुसाधवः स्तोकाः भाविनः पूर्णकुम्भवत् / / 41 // हीनाचाराः कुशीलाच कलसाः कश्मला इव / लिंगिनस्तु भविष्यन्ति सर्वत्र सुलभा क्षितौ // 42 // कर्तारस्ते च कलहं सेाः सह महर्षिभिः / भविष्यति जने तेषां द्वयेषामपि हि तुल्यता / / | // 43 // गीतार्था व्यवहर्तारः साम्येन सह लिंगिभिः / क्ष्माभृदग्रहिलो लोकै पहिलैहिलो यथा // 44 // पृथ्वीपुर्यां तथा ह्यासीत्पू पणों नाम्ना नरेश्वरः / सुबुद्धिरिति सत्याह्वस्तस्य बुद्धिसखः पुनः॥४५।। तेनाऽन्येधुलोकदेवाभिधो नैमित्तिकाग्रणीः। वृष्टेः स्वरूपं सर्ग-१६ भाविन्याः स्पष्टं पृष्टोऽब्रवीदिति // 46 / / ज्येष्ठान्ते वर्षिताम्भोदस्तजलं यस्तु पास्यति / निश्चित भविता सोत्र अहिलः सकलो जनः | // 47 // भविष्यति ततः काले झियत्यपि गते सति / सुवृष्टिर्यजलं पीत्वा भावी सञ्जो जनः पुनः॥४८॥ मंत्री शशंस तद्राज्ञः | // 478 // | सोप्यथो पटहैः पुरे। लोकानऽज्ञापयद् वारिसंग्रहं चाप्यऽचीकरत् // 49 // राज्ञादिष्टं जनश्चक्रे वृष्टिमुक्तेऽन्हि चाम्बुदः। निष्ठित S Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 479 // संग्रहीताम्भोऽप्यहोभिस्थ कैश्चन // 50 // पपुर्नवाम्बु ते लोकाः सामन्ताद्याश्च तर्षतः / अक्षीणप्राच्यपानीयौ राजामात्यो नु तौ नहि // 51 // पुरीजनो राजजनः सर्वोऽपि ग्रहिलस्ततः। स्वैरं जगौ मुक्तकेशो ननत च जहास च // 52 // तौ सञ्जौ च नृपामात्यौ अहिललोक| दूरस्थौ तद्विजम्भितम् / पश्यतः स्म स्फुरनैमित्तिकज्ञानचमत्कृती॥५३।। सामन्ताद्याश्च तौ राजमंत्रिणौ स्वविलक्षणौ। प्रेक्ष्य निश्चि स्वरूपम् | क्यिरेऽन्योन्यमस्मत्तो पहिलाविमौ // 54 // उत्सायैतौ निजाचाररहितौ तदुभावपि / नवीनौ स्थापयिष्यामः खाचारौ नृपमंत्रिणी // 55 / / ज्ञात्वा सुबुद्धिस्तन्मंत्र राझेऽशंसदऽसावपि / तमूचे कथमेभ्यः स्वरक्षा कार्याऽधुना ? वद / / 56 / / मंत्र्याख्यद् रक्षणोपायः | स्वस्य कालोचितः प्रभो!। अनुप्रवेश एवैपां बलिनां समवायतः॥५७।। कृत्रिमग्रहिलीभूय तदेतैग्रहिलैः सह / स्थीयतामथ जज्ञाते | अहिलौ राजमंत्रिणौ // 58|| जनस्य अहिलस्यान्तः प्रदाऽग्रहिलावपि / अहिलं खं नृपामात्यौ तौ स्वां लक्ष्मी ररक्षतुः // 59 / / अथो जाते शुभे काले सवृष्टौ तज्जलं पुनः / पीत्वा ते जज्ञिरे लोकाः सजाः स्वास्थ्यभृतोऽखिलाः॥६०॥ दुःपमासमयेऽप्येवं गीतार्थाः सह लिंगिभिः। साम्यं धृत्वा सुसमयं पालयिष्यन्ति भाविनम् // 61 // श्रुत्वेति राजा श्रीपुण्यपालो वैराग्यवांस्तदा। प्रवज्य सुतपस्तवा ववे मुक्तिश्रियं क्रमात् // 62 // विच्छेदं केवलादीनां वीरः पृष्टः सुधर्मणा / इत्याख्यञ्जम्बुनाम्नस्ते शिष्यान्न परतो नृणाम् // 63 // केवलमनःपर्यायपरमावधयस्तथा / पुलाकलब्धेश्चारित्रत्रयमाहारकं वपुः // 64 // जिनकल्पश्च मोक्षश्च भविष्यन्त्यत्र भारते / जम्बोः केवलमोक्षौ तु निश्चयेन भविष्यतः // 65 // त्रि०वि०॥ जम्बोः स्वशिष्यः प्रभवस्तस्य शय्यंभवोऽस्य च / यशोभद्रोऽस्य संभूतभद्रवाह भविष्यतः // 66 // स्थूलभद्रश्च सम्भूतशिष्योऽमी सर्वपूर्विणः / महागिरिसुहस्त्याद्या वज्रान्ता दशपूर्विणः / 67 // एवं पूर्वेषु सांगेषु त्रूट्यमानेष्वपि क्रमात् / मम वतिष्यते तीर्थमेतद्दुःप्रसहावधेः // 68 / गणभृगौतमो नत्वाऽप्राक्षीद वीरमथो / // 479 // Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / कल्कीस्वरूपकथनम् // 48 // जिनम् / अतः प्रभृति कालस्य स्वरूपं किं ? भविष्यति // 69 // आख्यत्प्रभुनिवृत्तेमें व्यतीते वत्सरत्रये साष्टिमाससंयुक्ते लगिता | पञ्चमारकः // 70 / / समासहस्रद्वितये षडशीत्योनिते गते / मम निर्वाणतो भावी पाटलीपुत्रपत्तने // 71 // चैत्राष्टमीदिने विष्टौ चण्डालानां कुले नृपः। कल्की चतुर्मुखो रुद्र इत्याख्यात्रयविश्रुतः // 72 // युग्मम् / / तदा चायतनं रामकृष्णयोर्मथुरास्थितम् / | शीर्णमूलद्रुम इवाऽकस्माद् भूमौ पतिष्यति / / 73 / / तस्य प्रकृत्या क्रूरस्य विपद्रोरिव कीटकाः / स्फुरिष्यन्ति क्रोधमानमायालोमाः सहोद्भवाः // 74 // दुर्भिक्षविड्वरस्तेन-राजभीतीत्यवृष्टयः। भविष्यन्ति गन्धरसत्रुटयश्च क्षितौ तदा // 75 / / स कुमारोऽष्टादशाब्दी भूखैतामपि डामरी / अत्युग्रशासनः कल्की भविताऽतः परं नृपः // 76 // भ्राम्यन्पुष्पपुरे पश्चस्तूपान् प्रेक्ष्यानुगान सौ। प्रक्ष्यत्येते कीर्तिकेलिपर्वताः केन कारिताः // 77 // तेप्याख्यस्यन्ति पश्चाऽमून खर्णस्तूपानऽचीकरत् / नन्दो न तत्सुवर्ण तु कैरप्यादातुमैष्यत // 78 // कल्की वल्कीव तत् श्रुत्वा बहुलोभः स्वभावतः / तान् स्तूपान् खानयित्वा तत्स्वर्णमादास्यते जबात् // 79 // सोऽर्थलुब्धः पुरं तच खानयिष्यति सर्वतः / तृणाय मंस्यते भूपान् सकलानपि विक्रमी !!80 // तदा च खान्यमानायास्तेन पुष्पपुरक्षितेः। गौरुस्थास्यति लवणदेवी नाम्ना शिलामयी / / 81 // ताडयिष्यति शृंगाग्रेणैतद्धाम्नोद्धता च सा / चतुःपथस्था भिक्षार्थ जैनान् पर्यटतो मुनीन् / / 82 // स्थविराः कथयिष्यन्ति गौरियं नगरे घनम् / जलोपसर्गमाचष्टे तद्याताऽन्यत्र साधवः / / 83 / / केचित्तदा तदाकर्ण्य यास्यन्त्यन्यत्र साधवः / वक्ष्यन्त्यन्ये तु तत्रावस्थानलोभादिदं वचः॥८॥ भाविकर्मवशाजन्तोरशुभं यदिवा शुभम् / यत्तनिषेद्धं नैवालं भविष्णुजिष्णुरप्यहो // 85|| खं सत्याख्यं ततः कत्तुं कल्की पाखण्डिनोऽखिलान् / मार्गिष्यति करं ते च दास्यन्ति सपरिग्रहाः // 86 // परैर्दर्शनिभिर्दत्तो भवद्भिस्तु न मे करः / इत्याक्षिप्य मुनीन् जैनानपि रोत्स्यति सोऽकृपः // 87 // वक्ष्यन्ति साधवस्तं सर्ग-१६ // 480 // Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / 481 // श्रीसंघकृतः कर्ताम्बुदस्ततः / पुर |च किं ? राजन्नपरिग्रहाः। दास्ते धर्मषष्ठांशलाभं मुक्त्वा परं वयम् // 88|| प्रोचुः पुराविदोऽप्येवं राजा रक्षस्तपोधनान् / ब्रह्मनिष्ठान पुण्यषष्ठभागमक्षय्यमश्नुते // 89 // तस्मादऽस्माद् दुरारम्भान्निवर्त्तख महीपते / नायं क्षेमाय ते राज्यपुरराष्ट्रेषु निश्चितम् // 90 // कल्कीकृतोश्रुत्वेति वाचं साधूनां कल्की क्रोधारुणेक्षणः। भावी कृतान्तवद् वक्रवक्त्रविकृताकृतिः // 91 // आः पाप्मन्नकरान् साधूनपिपद्रवे शक्रायद् याचसे करम् / अप्रार्थितप्रार्थी कोऽसि ? तद्धवं रे नृपाधम ! // 92 / / आक्षिप्तः पुरदेव्येति मंत्रशक्त्येव मुद्गलः / वस्तः कल्की हानार्थ मुनीन्नत्वा क्षमयित्वा च मोक्ष्यति // 93 / / युग्मम् / / पाटलीपुत्रप्रलयशंसिनः कल्किनस्ततः / भयंकराः तदोत्पाता भविष्यन्ति च भृरिशः // 94 / / अहोरात्रान् सप्तदश वृष्टिं कर्ताम्बुदस्ततः / पुरं प्लावयिता गांगः प्रवाहश्च विशृंखलः // 95 / / तत्र संघजनः कोऽपि | सूरिः प्रतिपदोऽपि च / कल्की पौरजनः कश्चित् स्थास्यते स्थलमस्तके / / 96 / / गांगेन पयसा विष्वग् नगरान्तः प्रसारिणा / प्राप्स्यन्ति प्रलयं पौरजनास्तत्र घनास्तदा // 97 // निवृत्ते सलिलस्योपसर्गे कल्किनृपः पुनः / नन्दद्रव्येण नगरं कारयिष्यति तनवम् // 98|| भूयोऽपि साधुविहृतिश्चैत्यश्रेणी च भाविनी / शस्यसम्पत्तिकृत्काले वृष्टिरम्भोमुचामपि / 99 // क्रेता द्रम्मेण कुम्भाप्तावपि धान्य जनो नहि / सुभिक्षमेवं पश्चाशद्वर्षी कल्किनि वर्त्यति // 100|| आसन्नमरणः कल्की पुनर्दनिनोऽखिलान् / मोचयिष्यति लिंगानि च्छलैःकुर्वन्नुपद्रवम् / / 1 / / विष्वा ससंघ गोवाटे सूरि प्रातिपदं स च / मागिष्यति हठाद् भिक्षाषष्ठांश क्रूरमानसः // 2 // कल्किन् क्षेमाय ते नेदमिति शासनदेनताः / पात्रेऽवतीर्य तं वक्ष्यन्त्ययं मोक्ष्यति तं नतु // 3 // संघोऽथ शक्रमारार्द्ध कायोत्सर्ग विधास्यते / प्रभवेद् बलवानेव बलिनो निग्रहे यतः॥४॥ संघस्य कायोत्सर्गेणाकृष्टिमंत्रश्रिया क्षणात् / इन्द्रो वृद्धद्विजीभ्य तत्रैता चलितासनः // 481 // // 2 // सभास्थं कल्किनं सिंहासनासीनं स वक्ष्यति / गोवनिरुद्धाः किं ? वाटे राजनेते मुनीश्वराः // 6 / / शक्रं प्रवदिता कल्की बस-1 96 // गांगेन पयसा नगर कारयिष्यति तप धान्य टिपूनः / नन्दद्रव्येण नगरान्तः प्रसारिणा। प्रकोप कायोत्सर्ग Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम- // 48 // नेते पुरे मम / ददते भैक्षषष्ठांशमप्यहो न करं परम् // 7 // बभूवुः करदाः सर्वे पाखण्डा मम नत्वऽमी / रुद्धास्तद्वाटके दोग्धुं * जिनेशदुर्गवीवद् बलान्मया // 8 // वज्री तं वदिता नेपामस्ति किश्चिद् विमुश्च तत् / दोषो भिक्षांशदाने च गृहिपूक्तो महान् यथा // 9 // चरित्रम् / संविभागरुचिभिक्षुश्चतुरो हन्ति सर्वदा / दातारमन्नमात्मानं यस्मै चान्नं प्रयच्छति // 10 // दास्यन्ति नैते तद्भिक्षापष्ठांशमपि ते नृप / अधमकालयाचनपि भिक्षुभ्यो भिक्षांश लजसे न किम् ? // 11 // तन्मुनतान् मुनीस्तूर्ण भविष्यत्यन्यथा तव / महाननर्थः क्षेमाय किं ? स्यात् स्वरूपम् कृष्णाहियट्टनम् // 12 // इति शक्रगिरा क्रुध्यन् कल्की भाषिष्यते भटान् / रेरे भटा गृहीत्वाशु विप्रोऽयं क्षिप्यतां बहिः॥१३॥ | | इत्युक्तवन्तं तं कल्कपर्वतं कल्किनं हरिः। चपेटाताडनात्तूर्ण विधाता भस्मपुञ्जताम् // 14 // कल्की सम्पूर्य पडशीत्यब्दान्या युनरेश्वरः / नारको नरकावन्यां दुःखभागी भविष्यति / / 15 / / प्राज्ञाप्य जैन धर्म च दत्ताख्यं कल्किनन्दनम् / राज्ये न्यस्य | | नमस्कृत्य संघं गन्ता सुरेश्वरः // 16 / / शक्राज्ञां संस्मरन् वस्तुघोरं पापफलं तथा / कर्त्ता दत्तनृपः पृथ्वीमर्हचैत्यमनोहराम् / / 17 / / अतः | परं जिनधर्मः प्रवर्त्यति निरन्तरः / अरस्य पञ्चमस्यैव पर्यन्तं यावदद्भुतः // 18 // अर्हतां समये ह्येषा भरतक्षेत्रभूरभूत् / रम्यग्रामाकरपुरा सुरावाससहोदरा // 19 // आसन्नगरवद् ग्रामाः स्वर्गवन्नगराणि तु / कुटुम्बिनो राजसमा राजानो धनदोपमाः // 20 // सुधांशव इवाचार्याः पितरो देवता इव / मातृतोऽप्यधिकाः श्वश्वः श्वशुराः पितुतोऽपि च ॥२१श त्रि०वि०॥ जनोऽप्यासीद् गुरुदेवारा- सर्ग-१६ धकः सत्यशौचवान् / दयालुविनयी धर्माधर्मज्ञः स्वप्रियारतिः // 22 // ईतिचौरपरचक्रानाभृद् भीन नवः करः / कुलं शीलं कला विद्या चार्घमापजने नृणाम् // 23 / / आश्चर्याण्युपसर्गादीन्यभूवन भारते दश / व्यर्थाः कुतीथिकाचाहद्भक्तिभाजो महीभुजः // 24 // ||482 // अधार्मिकः कषायी च कालेऽस्मिन् मलिनेऽखिलः / प्रावृट्काल इयोन्मार्गगामुको भविता जनः // 25 / / कालो यथा यथा गन्ता Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 483 // विपरीत स्थितिप्रदर्शनम् भावी लोकस्तथा तथा / हिंसादिनिरतः सर्वः कुतीथिंभ्रमिताशयः // 26 // ग्रामाः श्मशानवद् भीमाः पुराणि प्रेतलोकवत् / कुटुम्बिनो | भविष्यन्ति चेटवद् यमवन्नृपाः // 27 // ग्रहीष्यन्ते नृपैलुब्धैर्विभवं स्वनियोगिनः / तद्गृह्येश्च जना एवं मात्स्यो न्यायः प्रवर्त्यति |28|| क्रमेण मध्यतां धुर्या मध्याः प्राप्स्यन्ति चान्त्यताम् / देशाश्च दोलायिष्यन्ते हताः पोता पवोमिभिः // 29 // उपद्रोष्यन्ति च क्षोणी चौर्यश्चौराः करैर्नृपाः / भूतग्रहार्चनैः श्रेण्यो लश्चाभिश्च नियोगिनः // 30 // जनः स्वार्थपरो भावी स्वजनेषु विरोधकृत् / परा| र्थघाती दाक्षिण्यसत्यलज्जाभिरुज्झितः // 31 / / अवज्ञास्यन्ति च गुरून शिष्यास्तान् गुरवोऽप्यतः / सभ्यग् न ज्ञापयिष्यन्ति श्रुतं ही समयस्थितिः // 32 // इत्थं गुरुकुलावासः क्रमेणोच्छेदमेष्यति / भवित्री धर्मधीः स्तोका भूरिजीवाः कुलान्विलाः॥३३॥ भावी देवागमो नैवाऽवज्ञास्यन्ति पितृन् सुताः / कालरात्रीवि श्वश्रूः सर्पवेषा स्नुषाः पुनः॥३४॥ हास्यवक्रोक्तिभिनेत्रवक्त्रभ्रविभ्रमैरपि / * कुलस्त्रियोऽपि भाविन्यो विलासिन्य इवाऽत्रपाः // 35 / / श्रावकश्राविकातुट्या नंष्टा धर्मश्चतुर्विधः / पर्वस्वपि मुनीन् साध्वी! निमंत्रयिता जनः // 36 // धर्म दम्भं जनः कर्ता कूटमानतुले अपि / भाविनः सज्जना दुःस्थाः सुस्थास्तु भुवि दुर्जनाः॥३७। मंत्रतंत्रकलाविद्यौषधीमणिधनायुषाम् / सवृक्षफलपुष्पाणां रूपरिद्धितनूनतेः // 38 // धर्माणामागमानां चान्येषामपि शुभात्मनाम् / हानिभवित्री भावानां पञ्चमेरेऽधिका परे // 39 / / युग्मम् / / प्रसपेति त्रुटद्भव्यभावे काले क्रमादिति / भाविनः केचिदग्राह्याभिधानाः सूरयो घनाः // 40 // __ स्वच्छन्दाः कलहाऽश्लाघा वैरानिवृतिकारिणः / भाविनो बहवो मुण्डाः श्रमणाः कतिचित्पुनः // 41 // पठिष्यन्ति श्रुतं दीक्षा Saदास्यन्ते भव्यजन्मिनाम् / तपःक्रियां करिष्यन्ति भुक्तये नात्ममुक्तये // 42 // ज्ञानेनेके क्रिययाऽन्ये तपसाऽन्ये च गर्विताः / भवि // 483 // Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 484|| जिनेशचरित्रम् / अन्त्यसंघकथनम् दुःप्रसहसूरि स्वरूपं च प्यन्ति त्रयेऽप्येते मिथो द्वैषाद् भवाश्रयाः // 43 // कृते श्राद्धकुलानां तेऽप्यन्योन्यं युद्धमुद्धतम् / कर्त्तारो दुर्द्धराः कौटुम्बिकानामिव भूभुजः // 44 // बहुमोहाः सकषायास्तुच्छाः स्वेच्छाक्रियारताः / लिंगिन्य एव भाविन्यः श्रमण्यस्त्वार्यिकाः मिताः // 45 // निर्वा. | सना देवगुरुधर्मतत्त्वेष्वहंयवः / श्रावकाच भविष्यन्ति नामतो भावतोऽल्पकाः // 46 // परतप्तिः प्रतिक्रान्तिर्वदनं गुरुनिन्दनम् / ale स्वाध्यायो विकथायासं भाविन्यः श्राविकाश्च ताः // 47 // अवष्टम्भेन दुहितुर्वर्ण्यन्ते पितरोऽपि च / मंस्यते सधनं बन्धुं निर्द्धनं | सोदरोऽपि न // 48 // ज्ञानपात्रतया वाढं नीचानप्युत्तमो जनः / सर्वेभ्यो दर्शनस्थेभ्योऽधिकं गौरवयिष्यति // 49 // वेताल इव | कालेऽस्मिन्नित्थं दुष्टे प्रसर्पति / यः स्थिरो भविता धर्मे श्लाघ्यं तस्यैव जीवितम् // 50 // सूरि१ःप्रसहो नाम्ना फल्गुश्रीस्तु महत्तरा / | सुश्रावको नायलाख्यः सत्यश्रीः श्राविका परा // 51 // अमात्यः सुमुखो नाम्ना राजा विमलवाहनः / भविष्यन्ति भारतेऽमी दुःख| मायामपश्चिमाः // 52 // हस्तद्वितयमानांगास्ते विंशत्यब्दजीविताः / तुर्य न्यून षष्ठमुग्रं तपस्तेषां भविष्यति // 53 // दशकालिक भृत्सर्वपूर्वधारीव दास्यति / संघे बोधं मुनिस्तीर्थ यस्मादुःसहावधिः // 54 // वय॑त्यक ततो धर्म धमों नास्तीति वक्ति यः। | कर्तव्यः स बहिः संघादास्तिक स्तिकाग्रणीः // 55 / / गृहे स्थित्वा द्वादशाब्दीमष्टाब्दी संयमे पुनः कृत्वा दुःप्रसहोऽन्ते चाष्टम सौधर्ममाप्स्यति // 56 // चारित्रस्य व्यवच्छेदः पूर्वान्हे भविता ततः / राजस्थितेश्च मध्यान्हे परान्हे तु हविर्भुजः॥५७।। यास्यत्येवं दुःखमाब्दसहस्राण्येकविंशतिः / भविता तन्मितिः षष्ठारकोऽप्येकान्तदुःपमा // 28 // भावी नष्टे धर्मतत्त्वे हाहाभृतो जनोऽ| खिलः / मातृपुत्रादिमर्यादारहितः पशुवन्क्षितौ // 59 // भविष्यन्ति दिशो धूमान्धकारेण भयंकराः। बास्यन्त्यनिष्टा वाताश्च युनिश पांसुराः खराः // 60 // शीतांशुरधिकं शीतं स्रक्षत्युष्णं तथोष्णरुक् / क्लेशं लोकोऽतिशीतोष्णार्दितः प्राप्स्यति दुस्तरम् // 61 // तदा |सर्ग-१६ // 484 // Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 485 // H ARR820 उत्सर्पिणीप्रथमारक स्वरूपम् म्बुदाश्च क्षाराम्लविषाग्न्यशनिसंज्ञकाः। वषिष्यन्ति क्षितौ वारि खनामसदृशं भृशम् // 62 // भगन्दरज्वरश्वासकासशूलशिरोर्तयः / रोगाः कुष्ठादयोऽन्येपि मानां तेन भाविनः // 63 / / स्थास्यन्ति दुःखं पशवस्वस्ताः क्रूरा जलात्ततः। भावी क्षेत्रवनोद्यानवल्लीवृक्षतणक्षयः // 64 // गिरिगर्त्तापगाप्रायं समं भावि ततः क्षितौ / वैताढ्यमृषभकूटं गंगासिन्धू विनाऽखिलम् / / 65 / / तदा कदाचिदंगारमयीभूभस्ममय्यपि / कदाचिद्वारिबहुला भाविनी पंकिलाऽपि च // 66 // हस्तोचा निष्ठुरगिरो दुर्बलाः कर्कशांगकाः। स्तब्धग्रीवाः क्षुद्रनाशाः सरोगाः क्रोधदुस्तराः॥६७।। भविष्यन्ति नरा नायर्यो निवपाश्चीवरोज्झिताः। विंशत्यब्दी नृणामायुः पोडशाब्दी तु योषिताम् // 68 // युग्मम् / / पवर्षा महिला गर्भ धर्ता दुःखप्रसस्तदा / पोडशाब्दा भृरिनतपौत्रा वृद्धा तु भाविनी // 69 // वैताढ्याद्रेनद्युभयतटक्ष्मास्थविलेषु च / द्वासप्ततौ निवत्स्यन्ति नरा नार्यश्च बीजवत् // 70 / / तटे तटे तटिनीनां भविष्यन्ति तथैव च / बिलानि तेषु स्थास्यन्ति तिर्यश्चो बीजमात्रवत् // 71 // मांसाहाररताः पापाः क्रूरा नरकगामिनः / हहा मनुष्यास्तियश्चस्तदा सर्वेऽपि भाविनः // 72 // तदा गंगासिन्धुनद्योः श्रोतो रथपथोन्मितम् / वक्ष्यत्युद्यद्भरिमत्स्यकच्छपैराकुलं जलम् // 73 // तत्रैत्य रात्रौ मत्स्यादीन | कृष्ट्या मोक्ष्यन्ति ते स्थले / खादिष्यन्त्यति चण्डांशुतापपक्वान् पुनर्निशि // 74 // भोक्ष्यन्ते ते सदैवेत्थं घृताद्यासीन यत्तदा / न शय्यासनगेहादि नान्नपुष्पफलादि च // 75 // स्याद् भरतैखतेषु दुःषमैवं दशस्वपि / एकान्तदुःपमाप्येकविंशत्यब्दसहस्रमा // 76 // दुःपमातिदुःषमारावेतावेवोक्तरूपिणौ / आद्यद्वितीयौ वैलोम्यादुत्सर्पिण्यां भविष्यतः // 77|| एकान्तदुःषमारे चोत्सर्पिण्याः प्रथमे* गते / मेघाः पञ्च भविष्यन्ति पृथक् सप्ताहवृष्टयः // 78 // कस्तितापां वसुधां प्रथमस्तत्र पुष्करः / क्षीरमेघो द्वितीयस्तु शस्यानि जनिष्यति // 79 // तार्तीयीको घृतमेघः स्नेहमुत्पादयिष्यति / औपध्याद्यऽमृतमेघश्चतुर्थस्तु विधास्यति // 80 // रसमेघो रसं स्रष्टा HER-2403PRAB // 485 // Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 486 / / जिनेश रित्रम् / द्वितीयारकभाविजिनेश्वरनामानि पृथ्व्यादीनां च पञ्चमः / पंचत्रिंशदिनावृष्टिर्भाविनी विश्वजीविनी // 8 // वीक्ष्य वृक्षौषधीवल्लीहरितायुद्गतं क्षितौ। निःसरिष्यन्ति मनुजा बिलेभ्योऽतिप्रमादिनः / / 82 / / वक्ष्यन्ते ते जातपुष्पफलाऽभृद् भरतस्य भूः। न भक्ष्यं मांसमधुना वोऽवश्यं च मांसभुक्च / / 8 / / रूपायुः संहननानि नृणां धान्यानि च क्षितेः / प्राप्स्यन्ति वृद्धि कालेन सह पविशादिव / / 84 // ऋतवो वायवः सौम्याः सलिलानि लघूनि च / भविष्यन्ति क्रमान्मास्तिर्यञ्चश्चातिनीरुजः // 85 / / अरे द्वितीये याते च दुःपमाख्येऽत्र भारते / एते कुलकराः सप्त भाविनस्तत्र चादिमः / / 86 / / श्रीमान् विमलवाहनः सुदामा संगमोऽपि च / तुर्यः सुपाश्चों दत्तोऽथ सुमुखः समुचिः क्रमात // 87 / / युग्मम् / / एतेषु प्रथमो जातिस्मृतेविमलवाहनः / कर्त्ता ग्रामपुरादीनां राज्यहेतोनिवेशनम् / / 88 / / उपदेष्टा व्यववहारान् शिल्पानि गणितं लिपीः। नीतीर्दर्शयिता कर्त्ता गोगजाश्वादिसंग्रहम् / / 89 // जातेऽनौ दुग्धदध्यादौ पृथव्यां धान्योत्करेऽपि च / रन्धनादिहितायेप प्रजानामुपदेक्ष्यति // 90 // दुःपमासुपमाख्येऽस्मिंस्तृतीयेऽरे भविष्यति / शतद्वारे पुरे भद्रापतेः संमुचिभूपतेः // 91 // सूनुः श्रेणिकभूपालजीवः प्रथमतीर्थकृत् / पद्मनाभो जन्ममानादिभिर्मम समो मुने! // 92 // युग्मम् / / त्रयोविंशतिरहन्तोऽतः परं प्राग | जिनः समाः। भविष्यन्ति प्रतिलोमपरिपाट्या क्रमादमी // 13 // सुपार्श्वजीवोऽर्हन सूरदेवो भावी द्वितीयकः / पोट्टिलजीवः सुपार्श्वस्तार्तीयीको जिनेश्वरः // 94 // तुर्यः स्वयंप्रभस्तीर्थपति वो दृढायुषः / कार्तिकजीवः सर्वानुभूतिनाना तु पञ्चमः // 95 // देवश्रुताभिधः पष्ठः शंखजीवो जिनः पुनः / उदयः सप्तमो नन्दजीवस्तीर्थस्य नायकः // 96 / / जिनो जीवः सुनन्दस्याष्टमः पेढालसंज्ञकः। ख्यातो जीवस्तु कीकस्या नवमः पोट्टिलो जिनः // 97 // रेयले वो दशमः शतकीर्तिजिनाधिपः / एकादशः सुव्रताख्यो जिनो जीवस्तु सत्य केः // 98 / / द्वादशस्त्वऽममो नाना जीवः कृष्णस्य तीर्थकृत् / निकषायो बलदेवस्याथ जीवस्त्रयोदशः / / 99 / / जिनस्तु सर्ग-१६ // 486 / / Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 487 // *जीवो रोहिण्या निपुलाकश्चतुर्दशः / पञ्चदशः सुलसाया जीवोऽर्हन्निर्ममाभिधः // 200 // जिनो जीवोऽथ रेवत्याः षोडशश्चित्रगुप्तकः। * जीवो गवालेः समाधिरिति सप्तदशः प्रभुः // 1 // तीर्थकृद् गागलेर्जीवोऽष्टादशः संवराख्यया / एकोनविंशो द्वीपायनस्य जीवो यशो- चक्री विष्णु | धरः // 2 // कर्णस्य जीवस्तीर्थेशो विंशोऽथ विजयाभिधः / एकविंशो नारदस्य जीवो मल्लाभिधो जिनः // 3 / / जीवोऽम्बडस्य द्वाविंशो प्रति विष्णु | देवो नाम्ना जिनाधिपः / त्रयोविंशो द्वारमदजीवोऽथाऽनन्तवीर्यकः॥४॥ चतुर्विंशः स्वातिजीवस्तीर्थकृद् भद्रसंज्ञया। उत्सर्पिण्यां | नामानि | भाविनीयं चतुर्विंशतिरर्हताम् / / 5 / / दीर्घदन्तो गूढदन्तः शुद्धदन्तस्तृतीयकः। श्रीचन्द्र श्रीभृतिसोमाः पद्मनामाऽथ सप्तमः // 6 // महापद्मो दशमाख्यो विमलो दशमो नृपः / विमलवाहनो रिष्टो भाविनश्चक्रिणस्त्वमी ।।७युग्मम् // तथा नन्दिनन्दिमित्रः श्रीमान् सुन्दरबाहुकः। महाबाहुरतिबलो महाचलबलावपि / / 8 / / त्रिपृष्टश्च द्विपृष्टश्च भाविनो विष्णवो नव / चटत्प्रकर्षरामा अप्याद्यस्तेषु बलाभिधः // 9 // जयन्तश्चाजितो धर्मः सुप्रभः श्रीसुदर्शनः / आनन्दनन्दनौ पद्मोऽन्तिमः संकर्षणः पुनः॥१०॥ त्रि०वि०॥ तिलको लोहजंधश्च वज्रजंघोऽथ केशरी / बलिप्रह्लादनामानावपराजित इत्यपि // 11 // भीमः सुग्रीव इत्येते नव प्रत्यर्द्धचक्रिणः। त्रिषष्टिः शलाका नरा भविष्यन्तीति भारते // 12 // युग्मम् // अवसर्पन्नुत्सपन्ने कालोऽस्ति कालियाहिरिव / भरते यमुनाहूद इव भयकदम्यो जिनाश्रयाद् भव्याः॥१३।। अममचरिते भाविन्येवं तयोः सहजन्मनोलघुरमम इत्युत्सपिण्यां यतो भविता जिनः। तदियमु| दिता पूर्व वीरोदितामवसर्पिणीस्थितिमनुकृते पीटे हि स्यात् कृतिः सुरसद्मनः / / 214 // // 487 // इत्याचार्यश्रीमुनिरनविरचिते अममस्वामिचरिते महाकाव्ये अवसर्पिण्यु सर्पिणीस्वरूपनिरूपणः षोडशः सर्गः // ग्रन्थानम् // 21 // Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम सप्तदशः सर्गः। जिनेशचरित्रम् / भरते शतद्वार नगर // 488 // वर्णनम् अथास्ति जम्बूद्वीपेऽस्मिन् द्वीपान् सुभटवत् परान् / जेतुं मेरुमिषान्न्यस्य जयस्तम्भं स्थिरे स्थिते // 1 // मेरोदक्षिणतः क्षेत्रं पवित्रं भरताख्यया / यत्राघनोदकेऽपि स्युः कौतुकं शस्यसम्पदः // 2 // युग्मम् // भिन्न तसिन्धुगङ्गान्तःस्थितेन रजताद्रिणा / दुर्व| हेण शिरोभारेणेव षट्खण्डतामगात् / / 3 // मध्यमेऽप्युत्तमे तस्योत्तमपूरुषजन्मना / खण्डे खण्डेन्दुतिलकाकृतौ दक्षिणदिस्त्रियाः | // 4 // भावी जनपदः पुण्ड्रनामा पुण्ड्रेक्षुदण्डवत् / द्वेधा सुपर्वणां वृद्ध्या त्रिदशावासहासकृत् // 5 // युग्मम् // महीमहेलाकर्पूरगौर: | पुण्ड्रैखिाहताम् / प्रासादभूषयन् सत्यं नाम यःखं धरिष्यति // 6 // यं स्रष्टा खर्भुवर्लोकावपवाह्य ध्रुवं विधिः। कुतोऽन्यथाऽत्र द्रक्ष्यन्ते निर्जरा भोगिनो जनाः // 7 // निःसपत्नैरभिरूपरत्नौधैर्निचितान्तरः / भविता यः सरस्वत्या देव्याः सर्वस्वकोशवत् // 8 // कल्पद्रोरिव यस्यास्तदारिद्यस्याश्रयं जनाः। वाञ्छिष्यन्त्यऽन्यदेशस्था अप्यभीष्टसुराचनैः // 9 // अनीत्युपद्रवे यत्र किं? चित्रं यद्विधास्यति / अलंकर्मीणतां लोको धर्मकर्मवऽहर्दिवम् // 10 // चतुरिमपि भावि तस्मिन् शतमुखं श्रियाम् / प्रवेशायेव सत्याख्यं शतद्वार महापुरम् // 11 // ज्ञास्यन्त्यखलमप्युच्चैबोंधिधान्योत्करैर्जनाः। यद्भारतस्य क्षेत्रस्य खलवद्विपुलस्थितिः॥१२॥ प्रासादैनिर्मितोदामसुरविग्रहडम्बरैः। भटैरिवोदस्तदण्डैर्यजेष्यत्यमरावतीम् // 13 // शोभनप्रीतिसौभाग्यधृतिविष्कम्भसंकथा / भवित्री यत्र नक्षत्रसूचकेषु जनेषु न // 14 // आशैशवात् पञ्चवर्गाभ्यासवानपि यजनः / चतुर्वर्ग एव दाक्ष्यं दर्शयिष्यति कौतुकम् // 15 // यत्र व्याजोक्तिव |सर्ग-१७ // 488 // Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 489 // जाम्रा क्रोक्तिवास्तवध्वनिलीलया। विलासिनीजनः प्रौढानपि जेष्यति सत्कवीन् // 16 // हाणि पात्ररम्याणि सन्धिकाम्यानि यत्र च / धनिनां नाटकानीव कस्य भावीनि नो मुदे ? // 17 // तत्र भावी श्रीसम्मतिरिति क्षितिपतिश्शुचिः / वैरिभिर्यत्प्रतापातादिवेला श्रयिष्यति // 18 // यदंहिनखचन्द्राणां व्यक्ति नेष्यन्ति भर्तृताम् / नमन्नृपशिरोरत्नश्रेण्यस्ताराः स्वसेवया // 19 // यत्प्रतापप्रदीपस्य भद्राराज्ञी स्वर्णशैलः शिखासखः। भ्राम्यन् यः परितः सत्यां कर्त्ता भानुः पतङ्गताम् // 20 // कुक्षौ कृष्णयस्य तेजखिनाथस्य मण्डले बुधशुक्रवत् / दिशि यत्रोदितास्तत्रैवाऽस्तमेष्यन्त्यरातयः॥२शा एकातपत्रं खं राज्यं विनतान- जीवावतो न्दनः सुखम् / वाञ्छन्निवैकछत्रं यो जैन धर्म विधास्यति // 22 // यत्कीतिकान्ताधम्मिलप्रतिमल्लं नभस्तलं / मल्लीस्तबकवत्तत्र* भावी शशीलक्ष्म त्वलीव्रजः // 23 / / अपीभगामिनी तस्य भाविनीशस्य कौतुकम् / भद्रा भद्राकृतिर्देवी प्रेयसी सर्वमङ्गला // 24 // सा वासयष्टिः सौवर्णी ध्रुवं कामकलापिनः / च्छलात्केशकलापस्य कलापोऽस्य यदीक्ष्यते // 25 // स्रष्टुः सर्वसारसम्र्गे निसर्गेण द्विषोऽप्यसौ। जज्ञे घुणाक्षरन्यायादऽन्याऽभूत्तादृशी न यत् // 26 // तदेहातिलावण्यलिप्सया कुङ्कमध्रुवम् / कश्मीरस्थितिमादृत्य | सेव्यते श्रीसरस्वती // 27 // मिथ्याभावमपाकृत्य सा चिन्तारत्नवद्दधौ / सम्यक्त्वं च पतिं चात्महृदयेऽभीष्टसिद्धिदम् // 28 // त्रिधा ; * शुद्धेनोन्नतेन यस्याः शीलेन निर्जिता / प्रणश्यन्ती पुराऽऽनोति गङ्गा त्रिपथगाभिधाम् // 29 // इतः श्रीकृष्णजीवोऽपि सप्ता म्भोनिधिसम्मितम् / संपूर्यायुर्वालुकायाः क्षितेरुद्धृत्य लीलया // 30 // शुद्धस्तद्वासतः क्षारपुटादिव मणिर्वरः / विश्वं द्वेधाऽपि दौर्गत्यादुद्धरिष्यन्निवाखिलम् // 31 / / शुक्लद्वादश्यां राधस्योत्तरभद्रपदाश्रिते / चन्द्रे तस्याः कुक्षिमलङ्कर्ता हारलतामिव // 32 // त्रि०वि०॥ // 489 // क्षणं तस्यावतरणे भूर्भुवःस्वनिवासिनाम् / दुःखच्छेदसुखोल्लासोद्योतस्तुल्यं भविष्यते // 33 // जीवाजीवश्रुतपूर्वरज्जुप्रभृतिवस्तुगान् / Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / // 490 // निरूपणम् उपदेष्टा चतुर्दशतां चतुर्दशकानयम् // 34 // इत्याख्यातुमिवायातान्महास्वप्नांश्चतुर्दश / भद्रावासगृहे सुप्ता द्रक्ष्यत्येतान्निशात्यये // 35 / / युग्मम् // अनेकरक्षणान्नाथो भविताऽयमनेकपः / नाहं त्वितीव मत्वा तं गजः सेवितुमेष्यति // 36 // नैर्मल्यमधिकं बिभ्रच्चतुभिर्भा- सुरः क्रमैः / साक्षाद्भावी घृषइव वृषः कैलासहासकृत् // 37 // सिंहः शौर्यश्रियोऽतुच्छं पुच्छं कुण्डलयन्निजम् / तं कर्मकुम्भिनिर्भदाशक्त्या हीण बैष्यति // 38 // मेरौ तवाभिषिक्तस्य त्रिलोकश्रीः स्वयंवरा / भवित्रीति साभिषेका श्रीगर्भे तंगदिष्यति // 39 // दास्यत्यलभ्यं सौख्यं वामदक्षिणयोः समम् / प्रभु हं त्वितीवोपासिष्यते पुष्पमालया // 40 // कलाक्षयादोषाकरत्वात्सहजाद्विधुः / आराधयिष्यत्यक्षीणकलं दोषोज्झितं च तम् // 41 // भावी नित्योदयसौम्यतेजाः सन्तापहृद्विभुः / इतीवैनं रविः सेविष्यते तद्गुणलिप्सया // 42 // भावी त्रिलोकीप्रासादे निजवंशे च नापरः। ध्वजस्त्वद्वदिति स्तोता ध्वजस्तं किङ्किणीरवैः // 43 // अन्वितः सुमनःश्रेण्या पुण्याब्जसुभगाननः / पूर्णकुम्भोऽभिषेक्ता तं गर्भस्थमपि शक्रवत् // 44 // जिनो घनागमे राजहंसपद्मान्वितः शुचिः / नाहं वितीव बुवा तं गर्भेऽपि श्रयिता सरः // 45 / / प्राग्भवेऽपि त्वया मुक्तोऽस्म्यहं मोच्योऽधुनापि तत् / शोष्यो भवाब्धिवन्नत्याराद्धाब्धिगर्भगं जिनम् // 46 // एतल्लोकानमपि च भुवनं भवनं मुदाम् / त्वयैवालङ्कृतं भावीत्याख्याता भवनं प्रभोः॥४७॥ तव रत्नत्रयस्याहं | साम्यं लप्स्ये कथं ? न्विति / प्रष्टा रत्नोच्चयः प्राप्तः स्वमे त्रिज्ञानिनं जिनम् // 48 // प्लोपिता स्वाश्रयस्याहन्नश्रेयांसस्त्वहं जने / ख्यात इत्ययशो लोप्तुं गर्भ तं श्रयिताऽनलः // 49 / / भद्राऽमृन् विशतो वीक्ष्य मुखाब्जे जागरिष्यति / एत्य पत्यन्तिके तस्य हृष्टा च कथयिष्यति // 50 // राजा स्वबुद्ध्या तानर्थापयितेति प्रियाग्रतः / लोकोत्तरगुणो राजा भविता देवि ! ते सुतः // 51 // श्रुत्वेति राज्ञी मुदिता सर्ग-१७ // 49 // Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 49 // गर्भावस्थानिरूपणम् निजावासं समेष्यति / धर्मध्यानविधानेन निशाशेषं च नेष्यति // 52 // अथोदिते रवौ पूर्वदिग्वधूरत्नदपणे / विधायावश्यकं राज्ञाs* ध्यास्य राज्ञी पटान्तरे // 53 // आह्वाय्य मन्त्रिभिः प्रीतिदानैः सत्कृत्य वाञ्छितैः / पृष्टाः स्वप्नविदो व्याख्यास्यन्ति स्वप्नफलं क्रमात् // 54 // युग्मम् // गुणैरत्युन्नतः स्थामधामनिर्भयमानसः / दारिद्यभिद् जगन्मौलिमण्डनं सकलालयः // 55 // विश्वोद्योती शुचिगुणस्यूतः पूर्णः शमामृतैः / पद्माश्रयः सदास्ताघः सम्पदा कुलमन्दिरम् / / 56 / / गुणमाणिक्यराशिश्च प्रतापवसतिनृपः / उत्सपिंण्यां द्वादशस्ते भावी तीर्थकरः सुतः // 57 // त्रि०वि०॥ इन्द्रश्वासनकम्पेन विज्ञायावतरं प्रभोः / एत्य पित्रोनिवेद्यार्चा द्वेधा कृत्वा |च यास्यते // 58 // प्रभुप्रभावाद्वद्धिष्णु राज्यं हस्त्यादिभिः पितुः / भावि श्रीदरत्नवृष्ट्या गृहं मातुस्तु नोदरम् // 59 / / रत्नगर्भव | माणिक्यं मेघमालेव मौक्तिकम् / राज्ञी दधाना तं गर्भ गूढं शोभिष्यतेतराम् // 60 // अभञ्जि प्राग्बलियनावतीणोऽवापि सोऽभनक् / त्रिवलिमुदरे मातुरिति मन्ता ध्रुवं नृपः // 61 // द्वेधाऽपि न क्षमापीडां सोढाऽयमिति यत्नतः / क्षेप्ता गर्भालसा मन्दौ क्षमायां सा पदौ ध्रुवम् // 62 // अथिसार्थस्य दारिद्य नून नैष सहिष्यते / स्वमातुरुदरे सोढा मध्यस्थमपि नैव यः // 63 / / स्वाङ्गं यथा यथा धर्ता माता शरदिवोज्वलम् / राजहंसकुटुम्बस्य भावी हर्षस्तथा तथा // 64 // राज्ञी गर्भानुभावाच खङ्गधाराशितं तपः / चिकीर्षुः खड्गलेखासु दृष्टिं दाता मुहुर्मुहुः // 65 // कुम्भिकुम्भपदन्यासलालसालालसात्मना / साशंसित्री सुतं कर्मगजतागन्धसिन्धुरम् // 66 // गर्भ पत्यौ सममत्वाऽप्याचय सा धरिष्यति / अममत्वं तनौ राज्ये प्रकामं वैभवे भवे // 67 / / सा पूर्णदौहृदा गर्भानुभावादेव भाविनी / किमत्र चित्रं वा चिन्तामणेरिष्टं भवेन्न किम् ? // 68 / / पूणे काले माघशुक्लतृतीयस्यां हिमद्युतौ / उत्तरभद्रपदास्थे | मीनराशिमधिष्ठिते // 69 / / लग्नस्य जायमानस्याहतो वा महिमां मुदा / समं दिदृक्षयेवोचःस्थानस्थेषु ग्रहेषु च / / 70 // द्वेधाऽपि न // 49 // Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 492 // क्षमा धर्तु क्षमोस्मीति त्रपावशात् / श्रितं महावराहेण लक्षणच्छद्मना ध्रुवम् // 71 / / गङ्गेव स्वर्णकमलं महीव स्वर्णभूधरम् / रस- जिनेश| सिद्धिरिव स्वर्ण द्यौरिव स्वर्णपादपम् // 72 // तापोत्तीर्णस्वर्णवणं निशीथसमये सुखम् / भद्रा प्रसोष्यते पुत्रं त्यक्तं गर्भोद्भवैर्मलैःचरित्रम् / | // 73 // पं०कु० // अष्टोत्तरसहस्रेण लक्षणैस्तमलङ्कतम् / वीक्ष्य स्वप्नोदित माता विस्मिता मन्स्यते जिनम् // 74 // जिने कल्पद्रुवजाते जिनजन्म प्रभावाः | भावी तत्राद्भुतं क्षणम् / नारकाणामपि सुखास्वादोऽन्येषां तु का ? कथा // 75 // रेरे प्रयात मोहाद्याः श्रीमान् जातो यतो जिनः इतीवाऽशासद् ध्वनिना दुन्दुभिर्दिव्यज्नाहतः // 76 / आः प्रावृषेण्यपर्जन्यवृष्टिसृष्टिं विनापि भूः / धर्ता मन्ये तदोच्छ्वास प्रहृष्टेव जिनागमात् // 77 // तत्र तीर्थे विरजसः स्नाता इव दिगङ्गनाः / तदाऽऽख्यायः स्वभर्तृणामिव संयोगयोग्यताम् // 78|| तमालश्यामलमपि व्योममण्डलमद्भुतम् / स्फाटिकादर्शवद् भावि तन्महोभिरिवोज्वलम् // 79 // पुण्यस्य निस्त्रैणगुणस्यावतारेऽप्यर्हतोद्भुतम् / | प्रवाहो गन्धवाहस्य भावी त्रैगुण्यभाजनम् // 80 // अत्यन्दुग्रहोद्योत उद्योत स्त्रिजगत्यपि / तदा भावी तमःस्तोमपाथोनाथै• ककुम्भभूः // 81 / / इतश्च दिक्कुमारीणां पूर्व कम्पात्तदासनैः / ज्ञापिण्यते जिनजन्म पश्चादवधिनाऽद्भुतम् / / 82 // स्वस्वावासेषु ताः सर्वाः स्तुत्वा नत्वा जिनेश्वरम् / आबद्धलास्यं गास्यन्ति हर्षोत्कर्षवशंवदाः // 83 / / गजदन्ताद्रिकूटाधोलौकिकग्रामधामतः / अष्टैध्यन्ति स्वविमानैः सादरं सत्तिमन्दिरम् // 84 // भोगंकरा भोगवती सुभोगा भोगमालिनी / सुवत्सा वत्समित्रा च पुष्पमाला त्व ताच पप्पमाला स्व- सर्ग-१७ | निन्दिता // 85 / / दत्त्वा प्रदक्षिणास्तिस्रो जनन्याश्च जिनस्य च / कृतप्रणामास्ता एवं वक्ष्यन्ति मुकुलत्कराः // 86 // दिक्कुमायों वयमधोलोकतो भक्तयेऽष्ट ते / आगताः स्मोन तन्मा स्म भैपीस्त्वं चारुलोचने ! // 87 // हृत्वा संवर्तवातेनायोजनं सूतिवेश्मतः / // 492 // पुद्गलानशुचीस्ताश्चान्तःस्था गास्यन्ति तद्गुणान् // 88 // नन्दनवनकूटाख्यादथाष्टावूलोकतः / स्वविमानैः समेष्यन्ति प्रमोदादिक्कु Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 493 // दिक्कुमारीकृतजन्म महोत्सवः मारिकाः // 89 // मेघङ्करा मेघवती सुमेघा मेघमालिनी। तोयधारा विचित्रा च वारिषेणा बलाहिका // 90 // जिनं समाकं नत्वा- | ऽऽयोजनं सूतिकागृहात् / सेक्ष्यन्ति मां विकृत्यान्दास्ताः सुगन्धाम्बुवर्षिणः // 91 / / कुसुमैः पश्चवण्णस्तु निर्माय प्रकरं वरम् / गास्यन्त्यहन्मातगुणान् स्थाने स्थित्वा यथोदिते // 92 // नन्दोत्तरा तथा नन्दा चानन्दा नन्दिवर्धना / विजया वैजयन्ती च जयन्ती चापराजिता // 93 // एताः प्राच्याद्रुचकाद्रेः समेत्याष्टौ सदर्पणाः। नत्वा जिनाम्बे दिकन्याः प्रास्था गास्यन्ति तद्गुणान् // 9 // // युग्मम् / / समाहारा सुप्रदत्ता सुप्रबुद्धा यशोधरा / लक्ष्मीवती शेषवती चित्रगुप्ता वसुन्धरा / / 95 // एत्यैता याम्यरुचकादष्टौ भृङ्गारपाणयः। जिन नत्वा दिक्कुमार्याः प्राक्स्था गास्यन्ति हर्षतः / / 16 / / युग्मम् / / इलादेवी मुरादेवी पृथ्वी पद्मावत्यपि / एकनाशा नवमिका भद्राऽशोकेति नामतः / / 97 / / एत्याष्टौ व्यजनहस्ताः पश्चिमाद्रुचकादितः। दिक्कुमार्यः प्रभुं नत्वा गास्यन्ति प्रत्यगाश्रिताः // 98 // युग्मम् / / अलंबुसा मित्रकेशी पुण्डरीका च वारुणीं / हासा सर्वप्रभा श्रीह्रींरित्यष्टौ दिक्कुमारिकाः // 99 // उत्तराद्रुचकशैलादेत्य चामरपाणयः / नत्वा प्रभुं तद्गुणांश्च गास्यन्त्युत्तरदिस्थिताः॥१०॥ युग्मम् / / सुतेजाश्चित्रकनका चित्रा सौदामिनी तथा। विदिगरुचकशैलेभ्यश्चतस्रो दीपिकाकराः॥१॥ एत्य नत्वा जिनं स्वस्खदिक्स्था गास्यन्ति भक्तितः / तद्गुणोघं रक्तकंठ्यः कलकण्ठ्य इवोच्चकैः // 2 // युग्मम् / / रूपा रूपासिका चैव सुरूपा रूपकावती / चतस्रो रुचकद्वीपमध्यादेत्य कुमारिकाः // 3 / / श्रीजिनस्य नाभिनालं चतुरङ्गुलवर्जितम् / छित्त्वा खनित्वा वै दरं प्रक्षिप्यात्र निधानवत् // 4 // पूरयिष्यन्ति रत्नौधैर्दाभिस्तत्र विस्तृतम् / पीठवन्धं विधास्यन्ति तस्योपरि च भक्तितः॥५।। गुणादनन्यसामान्याल्लघोरपि पुरस्क्रिया / बुधैविधीयते लग्नवेलाल्पाऽऽद्रियते न किम ? | | // 6 // याम्यप्रागुत्तरास्वेताः कर्तारः सूतिमन्दिरात् / सिंहासनैश्चतुःशालै रम्यं रम्भागृहत्रयम् // 7 // याम्यगेहचतुःशाले नीत्वा ताः। // 493 // Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेशचरित्रम् / इन्द्रासन चलनं सुघोषा ताडनं च श्रीअमम- प्रभुमातरौ / अध्यक्ष्यन्ति दिव्यतेलै रत्नसिंहासने स्थितौ // 8 // उद्वत्योद्वर्त्तनस्ताश्च नीत्वा प्राचीगृहासने / संस्नप्यालिप्य तौ मण्डयिष्य न्त्यंशुकभूपणैः // 9 // अथोत्तराचतुःशालासनेऽध्यासितयोस्तयोः। गोशीर्षचन्दनं क्षुद्रहिमाद्रेराभियोगिकैः॥१०॥ आनाय्य दग्ध्या // 494|| Sबद्धारो रक्षाग्रन्थि च ताः करे / रक्षाजीतं भगवति रक्षिते स्वप्रभावतः // 11 // युग्मम् // रत्नगोलौ ताडयिष्यन्त्यर्हत्कर्णान्तिकेऽथ oe ताः / भूयाः कुलाचलायुस्त्वमित्याशीर्वादतत्पराः॥१२॥ आनीय जन्महर्षोऽथ ताः पुनर्जननीं जिनम् / स्थित्वा तदन्ते गास्यन्ति तद्गुणान्मधुरैः स्वरैः // 13 // स्वरिंगणां नित्यघण्टाभिस्तदाऽतुच्छं ध्वनिष्यते / न्यक्षोभि ताभिर्वानां जलोमिभिरिवाभितः // 14 // स्पन्दिष्यन्ते वासवानामासनानि तदा समम् / नर्तकानामिवाङ्गानि हर्षाभिनयकौतुकात् / / 15 / / ततः सुधर्माधिपतिस्ततां धूमलतामिव / क्रोधाग्नेः स्फारयन् भीमां भ्रलतामिति वक्ष्यति / / 16 / / दिग्दन्तिदन्तान कछेत्तुं दन्तपत्राय वाञ्छति ? / कोवा नक्षत्रमालार्थी नक्षत्राण्युच्चिचीपति // 17 // को वा दैवहतो मृत्युत्कण्ठी कण्ठीरवासनम् / कम्पयामास मे स्वस्याप्यविमृश्य समर्थताम् // 18 // | उक्त्वेत्यादास्यते यावदनं तावद्भणिष्यते / सेनान्या क्वाऽस्ति ? देवारिस्तदलं सम्भ्रमेण ते // 19 // चकः / शक्रो ज्ञात्वाऽवधेजैन | जन्म त्यक्त्वाऽऽसनं ततः / दत्वा मिथ्यादुःकृतं च विधिना वन्दिता प्रभुम् / / 20 / / पत्त्यनीकपतिं चेत्यादेक्ष्यते स यथा जिनः। * भारते द्वादशो जज्ञे तज्जन्मस्नातहेतवे // 21 // स्वयं सूरेश्वरो याति तथ्यमपि भोः सुराः / समेत सत्वराः सालङ्कारास्तीति घुष्य- ताम् / / 22 / / युग्मम् / / नैगमेषी सुधर्मायां गत्वा योजनविस्तृताम् / घण्टां सुघोपां मेघौषधोपां ताडयिता ततः // 23 // द्वात्रिंशल्लक्षमानेषु विमानेषु पृथक् पृथक् / निरेकेषु स्फुटा घण्टास्तत्प्रतिध्यानघट्टिताः // 24 / तारं तारं रणिष्यन्ति पक्षिनादेन पक्षिवान् / / शब्दाद्वैतं ततः स्वर्गे भविता ध्वनियोगतः // 25 / / युग्मम् // भोगैश्चैतन्यशून्यानां निद्राभिरिव पञ्चभिः / भावी बोधः सुमनसां -17 | // 494|| र तारं रणिप्यान्ततः // 23 // द्वात्रिंशः सर्ग-१० Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 495 // ततोऽतिमहतो ध्वनेः // 26 // विजयं दैत्यचक्रस्य कर्तुकामः सुराधिपः / नूनं यात्राचिकीस्तेन घण्टानां धनिरसृतः // 27 // वृन्दा-| रकप्रवीराणां प्रबुद्धानां स्वमानसे / युद्धश्रद्धावतां काममिति हर्षो भविष्यति // 28 // युग्मम् // स्तिमितेष्वथ देवानां नेत्रेष्विव मनःस्वपि / नैगमेषी सुरेशाज्ञां तामर्थाद्धोषयिष्यति // 29 // शक्राज्ञां पालयन्तस्ते सीमां रत्नाकरा इव / स्वस्खश्रिया खस्खयानैः सर्वेप्ये-18 जन्मोत्सव ध्यन्ति तत्पुरः॥३०॥ कर्ता विमानं शक्राज्ञापालकः पालकः सुरः। जम्बूद्वीपमिवापन्नं यानतां लक्षयोजनम् // 31 // रूप्यस्वर्णम- वर्णनम् णिस्तम्भदम्भात् शोणीभृतां गणैः। पताकाच्छलतः सर्वनटीभिश्च निषेवितम् // 32 // रूपात्तत्तचतुष्कानां विजयैरिव संश्रितम् / | तमारोदा देवकोटीवृतः सुरपतिस्ततः // 33 / / स वृतो दिव्ययानानां लक्षात्रिंशता क्षणात् / राजिष्यते पश्चवर्णैरभैरिव सुराचलः। // 34 // अथो यास्यत्युत्तरेण सौधर्मात्तिर्यगध्वना / हरेः पितुरियादेशाद् बालकः पालकः पुरः॥३५॥ सर्पसारिसिंहेभप्राययानवतां ||* तदा। भावी कलकलः पश्चादग्रव्यतिकरे मिथः // 36 / / ए हि त्वरितं यानं कुरु दूरं गतो हरिः / अपव्यस्तो ध्रुवं भावी मार्गेऽपव्यस्त | एव हि // 37 // इत्यादिप्रेरणावाक्यैरपि नो कटुकैहृदि / कोपिष्यन्ति सुराः सत्यापयन्तः सुमनोभिधाम् // 38 // युग्मम् / / उल्लंघ्य पालकेनाथाऽसङ्ख्यान द्वीपाम्बुधीन् हरिः / एत्य नन्दीश्वरे वहिदिक्स्थे रतिकराचले / / 39 / / स्थित्वा विमानं संक्षेप्ता खं ग्रन्थं ग्रन्थ| कृद्यथा / श्रेयोर्थिनां हि नो यानाद्यभिमानः कदाचन // 40 // ततोऽप्युल्लयन् द्वीपवाद्धीनिन्द्रः पुनः पुनः / विमानं संक्षिपन a याता यावत्सतिगृहं प्रभोः // 41 // त्रिस्तत्प्रदक्षिणीकृत्य मेरोस्तटमिवार्यमा / मुक्त्वा विमानमैशान्यामुत्तरीता सुरेश्वरः // 42 / / गत्वा सूतिगृहं नत्वा जिन तज्जननी च सः। स्तोतेति भक्तिशीतांशुलेखामीलत्कराम्बुजः॥४३॥ स्त्रीषु तीर्थ स्वशीलेन त्वमग्रेऽप्यधना // 495 // | पुनः। किमुच्यसे स्वयं जज्ञे यत्कुक्षेस्तीर्थकृत्सुतः // 44 // वंद्यापि स्त्री सुताद्विश्ववन्द्याद्वन्द्यतमा भवेत् / मुख्या तीर्थेषु यद गडा Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 496 // तनूजाद् ब्रह्मचारिणः॥४५॥ देवि ! देवाधिपः स्वर्गात्वत्सूनोदशाहतः। अहं स्नात्रमहं कर्तुमागामिति स जल्पिता // 46 // शक्रो- जिनेशमात्रिकवन्मातुर्दत्वाऽवस्खापनी ततः / प्रभोर्मूर्त्यन्तरं पार्श्वे विमोक्ता तन्मनो मुदे // 47 // कर्ताऽस्मि भक्ति ते स्वामिन् ! पञ्चस्वप्यु- | चरित्रम् / त्सवेषु ते। विज्ञिप्सुखि देवेन्द्रः पश्चरूपो भविष्यति // 48 // मैत्री प्रभोमहिनैव नीतो लाञ्छनशूकरे / तत्रैकेन सुरङ्गेण कुरङ्गत्वजु- मेरौ स्नात्र | पापि सः॥४९॥ आदास्यते प्रभुं पाणिपुटाभ्यां स्वर्णपद्मवत् / स्फुरदेहप्रभापुञ्जपिञ्जराभ्यां समन्ततः // 50 // युग्मम् // द्वाभ्यां | महोत्सव इन्द्राणाम् वक्राब्जहंसथि स धर्ता चामरद्वयम् / तुर्येण मूनि छत्रं च मित्रं तन्महसामिव // 51 // सोऽर्हद्वके सरसीव लावण्याम्भः स्वदृक्पुटैः / मुहुः पिबन् बलदीवं गन्ताग्रेऽन्येन वलगकृत् // 52 // इत्यादाय प्रभुं निःखो निधानमिव हृत्पुरः / वासवो वेगया गत्या में | देवाद्रिं वायुवद्गमी // 53 // मरुचारुध्वनद्वंशं रसालबहुतालभृत् / धत्ते यो नन्दनं वनं गानं च सुरयोषिताम् // 54 // नित्यैश्चैत्यैः पवित्रोऽयं जिनानामिति भक्तितः / इन्द्रैरपि नमद्भिर्यो दत्तौनत्यादिवौन्नतः // 55 // भूतभावीभवत्तीर्थकृत्स्नात्रघुमृणाम्बुभिः / मन्ये *पिङ्ग विभय॑ङ्गं यत्शृङ्ग कनकच्छलात् // 56 // तत्रान्तः पाण्डकवने शिलां सिंहासनोज्वलाम् / अतिपाण्डुकम्बलाख्यामारोक्ष्यति दिव| स्पतिः / / 17 / / च० क०॥ अर्द्धचन्द्राकृतिः पञ्चशतयोजनविस्तृतिः। खकान्त्याऽर्हद्यशांसीव नित्यान्यऽद्यापि वक्ति या // 58 // प्राच्ये सिंहासने तस्यां प्राङ्मुखोऽङ्कस्थतीर्थकृत् / निवेक्ष्यते सुराधीशः स्वरुपैरुक्तभक्तिकृत् // 59 // शङ्के शेषः शिलावेपस्तदा सेवि- सर्ग-१७ | प्यते जिनम् / तेनैव क्ष्माभरोद्धारकीर्ति लब्धा स वास्तवीम् // 60 // कल्पेशा द्वादश चान्द्रार्को विंशतिर्भवनाधिपाः। द्वात्रिंशद् द्विगुणा इन्द्रा व्यन्तरप्रभुभिः सह // 61 / / जैनजन्माऽऽसनकम्पाद् ज्ञात्वाऽन्येप्युक्तया दिशा / इन्द्रास्त्रिषष्टिरेष्यन्ति तत्र स्वा // 496 // स्वयानगाः॥६२॥ युग्मम् / / मृत्तिकारूप्यकनकरत्नैरेकैर्विमिश्रितः / घटितैः कलशैर्वक्रे योजनप्रमितनवैः // 63 // चन्दनाद्येश्चित्रि Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 497|| * तैश्चागुरुधूमाधिवासितैः / इदिनीहदिनीनाथहदतीर्थाम्बुपूरितैः॥६४॥ भृङ्गीरवैर्मुखाब्जस्थैलक्ष्मीगीतिस्तुतीरिव / अष्टोत्तरसहस्राङ्क | राभियोग्याहृतः पृथक् // 65 / / जन्मान्तरसहस्रोत्थं मलमान्तरमात्मनः। प्रक्षालयितुमिच्छन्तश्चित्रं स्नात्रमहोत्सवात् // 66 / / शक्रस्तुतिः पयिष्यन्त्यच्युत्याद्यास्त्रिपष्टिसिवाः प्रभुम् / विलिप्याभ्यर्च्य भक्त्या च स्तोष्यन्त्यानन्दमेदुराः॥६७।। च०क०॥ शक्रस्ततोNeधिरोप्यांकमीशानेन्द्रस्य तीर्थपम् / सव्युत्पत्ति स्नपयितुं करिष्यति ककुद्मनः // 68 // इशानवृषभाकारान्नुज्वलान् दिक्चतुष्टये। चतुरश्चतुरो धारास्तच्छंगेभ्यश्च वारिणः // 69 / / उद्यान्तीस्ताः संगमय्य व्योम्नि तस्मात् पतिष्यता / तदोघेन स्नपयिता सुधौधेनेव स प्रभुम् // 70 / / अच्युतेन्द्रादिसामान्यमन्यत्स्नात्रं विधाय सः / दिव्यया गन्धकापाय्या परिमार्टा प्रभोर्वपुः // 7 // विलिप्य चन्दनैर्दिव्यैः पुष्पैः सोऽभ्यर्च्य तीर्थपम् / देवदृष्ये परिधाप्यालङ्कर्ता मणिभूषणैः // 72 // लेखिता मङ्गलान्यष्टौ सरलैस्तण्दुलैः पुरः। प्रभोः पुण्यद्रुमाङ्कुरपूरैरिव सुरेश्वरः // 73 // विधायारात्रिकं शक्रः सहमङ्गलदीपकम् / मन्ये कर्ताऽन्यतेजांसि जिनतेजोऽवतारणे // 7 // प्रभोः पुरः सुराधीशो विशाले रत्नभाजने / अगुरूत्क्षेपणं कुर्वन् दिशः सुरभीयिष्यति // 75 // कृते प्रेक्षणके शच्याऽप्सरोभिः सह वासवाः / चतुःपष्टिर्मुदा नतिष्यन्ति मीलितदोलताः / / 76 / / अमानिवाङ्गे हर्षेण स्नातस्तीर्थेष्विवाभितः / मन्ता कृतार्थमात्मानं तदानीं दिविषद्गणः // 77 // शक्रः शक्रस्तवेनाथ नाथं स्तुत्वा सजा पुनः / भक्तिवल्लीसुमैः सूक्तदृब्धयाऽलङ्करिष्यति // 78 // वीतराग कृपा| यागदीक्षित वं निरीक्षितः / यैरद्य स्वच्छता तेषां नेत्राणां फलवत्यभूत् // 79 // मबुद्धिरप्रगल्भापि यत्त्वया सङ्गता प्रभो। भक्तेः *all सञ्चारिकायास्तु साहसिक्यं विजृम्भते // 80 // स्वामिन्नवोत्र क्षेत्रेऽभूस्त्वं स्वर्णकन्दलीद्रुमः। अनुक्षितोऽपि यन्नित्यं फलं भक्तेषु | near | यच्छसि / / 81 // अनाहूतं सहायं त्वां प्राप्य मन्दक्रमैरपि / न कैः संसारकान्तारपारमासादयिष्यते // 82 // चित्रं त्वय्यपरागेऽपि Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम-19 विलेभे चम्पकद्युतौ / मदीयदृष्टिमधुपी मधुपीति कुतूहलम् / / 83 // निशीथोऽप्येष सुप्रातमेव त्रिजगतां व्यधात् / स्वर्णवर्णः स्वयं जिनेशभावान् यत्र त्वमुदितः प्रभो ! // 84 // जातरूपसरूपोऽपि त्वमयस्कान्त एव मे / विभो ! विभासि विश्वान्तःशल्याकर्षणकर्मणा चरित्रम् / // 498 // 185|| कल्याणकोशव्याकोशमहाविद्येव देव ! मे / कण्ठस्य भूपण भृपातब स्वामिन् गुणावली // 86 // स्तुत्वेति चित्रं पञ्चत्वं राज्ञः पुत्र | जन्मवर्धाप्रपन्नोऽप्यमराग्रणीः / ईशानाजिनमादाय मातृपार्श्व स नेष्यति // 97 // हृत्वाऽवस्वापनी मातुः सुतप्रतिकृतिं च सः। ऐन्द्रजालिकब-06 पनम् साक्षान्मोक्ष्यत्यस्याः पदे जिनम् / / 88 // दिव्यं कुण्डलयोयुग्ममुपधानेऽस्य मोक्ष्यति / वाससोरपि शीतांशुकरांकुररुचोरसौ // 89||EL सुवर्णकन्दुकं चैकं नानामणिगणेयुतम् / वितानान्तजिनदृशोविनोदाय निधास्यति // 90 // उच्चैघोपयिता चैवं सुरेन्द्रः किङ्करैः सुरैः / भो भोः शृणुत सर्वेऽपि सुरासुरनरेषु यः // 91 / / कर्ताऽनिष्टं चेतसाऽपि जिनमातुर्जिनस्य च / मञ्जरीव कुठेरस्य मूर्धा भेत्ताऽस्य सप्तथा // 12 // युग्मम् / / कोटीात्रिंशतं हेनोऽन्यवस्तूनां च वासवः / निधीशेन क्षेपयिता श्रीसम्मतिनृपौकसि // 93 / / शक्रो निधास्यत्यङ्गुष्ठे सुधां पातुं क्षुधोदये। जिनस्य जननीस्तन्यपानं ह्यन्यनृणां सदा // 94 // आदिश्य पञ्चाप्सरसः स धात्रीकर्मणे विभोः। गन्ता नन्दीश्वरेऽन्ये तु यास्यन्तीन्द्राः सुराचलात् / / 95|| जिनानां तत्र नित्यानां ते कृत्वाऽष्टाहिकाविधिम् / स्वस्वावासेषु यास्यन्ति सर्वेऽपि प्रमदोद्धराः // 96 // दोषान्धकारं द्विविधं हर्तुस्त्रिजगतामपि / द्वैधाप्याशाः सप्रकाशाः कर्तुः स्ववसुपूरणः / / 97 // प्रभोर्नवी- सर्ग-१७ नमित्रस्योदयेनापार्थतामिव / नीतेऽप्यभ्युदिते भानौ तन्महोलवलिप्सया // 98 / / भ्रमत्सु जिनदिव्याङ्गरागसौरभ्यलोभतः / मन्दं मन्दं मारुतेषु प्रातस्त्येषु प्रदक्षिणम् / / 19 / / भद्रादेवी पमिनीव प्रबुद्धा तनुजं निजम् / द्रष्टाऽऽत्मानं च गीर्वाणपूजासम्भारभासुरम् // 498 / / Sel200 // दास्यस्तस्यास्तदा स्मेरदास्याः सोत्कर्षहर्धतः / महाराजं बद्धयिष्यन्त्यात्मजोत्पत्तिवार्तया / / 1 / / दिकमारीकृतं सूतिकर्म शर्म-16 BEER-28-02 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 499 / / 13 अमम इति नामकरणं का | निबन्धनम् / ताभिः सुतस्य मातुश्चाख्यास्यते भूपतेः पुरः / / 2 / / राजराजानुकारिश्रीराजापि परितोषवान् / भृङ्गारवारिणा तासां क्षालयित्वा शिरः स्वयम् // 3 / / उत्पुंस्य दास्यमध्यास्य स्वबन्धुत्वं च दास्यति / सर्वाङ्गीणमलङ्कारं विना मुकुटमुद्भटम् // 4 // त्रैलोक्यप्राज्यसाम्राज्यलाभादप्यधिका मुदम् / लप्स्यते भूपतिः सूनोर्देवपूज्यस्य जन्मना / / 5 / / अलं कारास्पदे बद्धं मोचयित्वा जनं नृपः। कुतूहलमलङ्कारास्पदं नेष्यति हर्षतः // 6|| ताम्बूलवस्त्राभरणैः स सत्कृताखिलनागरम् / यथाकामीनदानेन प्रीणितार्थिजनोत्करम् // 7 // नृत्यद्वारवधूहारप्रभ्रश्यत्तारमौक्तिकः / रम्यहाङ्गणोत्सङ्गाक्लप्तरङ्गावलीक्रमम् / / 8 / / कुलस्त्रीगीयमानोचैः तत्तद्धबलमङ्गलम् / कर्ताजन्मोत्सवं सूनोः श्रीसम्मतिनृपो मुद्दा / / 9 // त्रि०वि०॥ जाते क्षितिपतेः पुत्र कुलकेतौ कुतूहलम् / जनिष्यन्ते त्रिजगतीजनानां कुलकेतवः // 10 // सर्वत्राम्बररत्नौयक्लप्तचन्द्रोदयावलि / नक्षत्रमालाकोटीभिरसङ्खयमङ्गलयुतम् / / 11 / / स्थाने स्थाने गुरुवुधकाव्यसूत्रितनाटकम् / अधःकर्ता स्वर्गमपि स्वश्रिया तत्पुरं तदा // 12 / / युग्मम् / / उद्भूकं तोरणैरुत्तम्भिताऽनेकभुजं युगैः / मानादिवृद्धथा शुल्कादिमुक्त्या भावि पुरं मुदा // 13 / / श्रेष्ठिमाण्डलिकादीनामश्वहस्त्यायुपायनैः / वस्तूत्पत्त्याकर इव भविता भृपमन्दिरम् // 14 // वराहालङ्कतं द्वेधा द्वेधा कल्याणमूर्तिकम् / पुत्रं प्रेक्ष्य नृपो मन्ता स्वं विश्वोपरिवर्तिनम् // 15 / / पष्ठीजागरणान्तेषु चन्द्रार्कालोकनादिषु / महोत्सवेषु क्लुप्सेषु द्वादशाहेऽथ भूपतिः // 16 // सत्कृत्य गोत्रजान् पौरानपि भोज्यादिवस्तुभिः / सन्मान्य गोत्रजरतीर्देवानभ्यर्च्य भक्तितः // 17 // गर्भस्थेऽस्मिन्निर्ममाऽभून्माताऽभीष्टवस्तुषु / तत्मनोरममस्वामीत्यन्वर्थ नाम दास्यति // 18 // त्रि० वि०॥ उद्यानतरुवत्स्वामी पिवन् वाल्ये क्षुधोदये / निजाङ्गुष्ठप्रणालेन शक्रसङ्कमिता सुधाम् // 19 // अपि ज्ञानत्रयं बिभ्रदज्ञवपितृतुष्टये / देवीदेवैः समं चेटीभृय प्राप्तः स रंस्यते // 20 // युग्मम् / / HIP-REESH S // 499 / / Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रीअमम *** // 50 // जिनेशचरित्रम् / प्रभोर्ज्ञानमहिमा यौवने राजकन्यापाणिग्रहणं कर्ता मातुःप्राच्या इवोत्थायोत्संगरङ्गात्स वालकः / गुरुणा भूभृता दत्तावलम्बो भानुमानिव // 21 // पादान् भूमितले न्यस्य॑स्ते| जोद्योतितदिङ्मुखः / खेलं चलिष्यत्युन्नादि स्वर्णधर्धरकद्विजः // 22 // युग्मम् / / एकएव ज्ञाननिधिरागर्भावासतोऽप्ययम् / इतीव. | मूर्द्धा वक्ताऽस्य लोलच्चूलापदेशतः // 23 // चिन्तामणिरनश्मेवाऽजिह्वालेह्यमिवामृतम् / अद्यावाभृमिजन्मेवाऽनल्पकल्पमहीरुहः / | निधेनवातिग इव त्रयोदश इवांशुमान् / पित्राऽन्यैश्च मन्यमानः स्वामी वर्धिष्यते सुखम् // 25 // नवस्येवाऽस्य शशिनश्चित्रं बाल्या| त्यये सति / स्वतः प्रकाशं लप्स्यन्ते युगपत्सकलाः कलाः // 26 / / द्वासप्ततिकलाविज्ञास्तस्याप्यज्ञानिवत्पुरः। शिष्यतां विभ्रतः प्रेक्ष्य | पिता विस्मयमेष्यति // 27 // छद्मस्थस्याप्यहो दीपस्येवाभ्रकगृहस्थितेः। यस्य ज्ञानं तेज इव तमस्तोमहतिक्षमम् // 28 // विभोस्तस्य * पुरः कीटमणिवत्ते कलाविदः / गर्वाद् विडम्बयिष्यन्ति निजतेजोलवं पुनः // 29 / / युग्मम् // शृङ्गारदेवतागारं त्रिजगन्नेत्रकामणम् / | कामक्रीडावनं स्वामी यौवनं प्राप्स्यति कमात् // 30 // चतुरस्राकृतिर्वज्रर्षभनाराचदेहभृत् / पष्टिधन्वोन्नतिः कर्ता सोऽन्यस्वर्णाचलभ्रमम् // 31 // निश्छद्मपद्मन्यत्कारभयात्पादपद्मयोः / नखरत्नच्छलाल्लग्नः सकुटुम्ब इवोडुपः // 32 // यतिश्राद्धधर्मभूमी धर्तु भोगीश्वरः श्रितः / द्विमृतिय भुजव्याजान्नखरत्नांगुलिफणः / / 33 / / प्रभोः करांविनेत्राद्यैः साम्यं लब्धा मिथः सुखम् / हुन्नाभीवदनायैस्तु दुःखेन मणिदर्पणे // 34 // परमानन्दशमेव रुपं लोकोत्तरं प्रभोः / औपम्याभावतोर्चाचां वाचां भावि न गोचरः // 35 // न परं धारयिष्यन्ति हृदि मृर्द्धनि च प्रभुम् / जनकस्पर्द्धया हारमौलिबिम्बमिपान्नृपाः // 36 / / शूरं च सुकुमारं च वजाब्जेरिख तं कृतम् / उाः करं ग्राहयितुमेष्टा वध्वाश्च भूपतिः // 37 // तमुद्यद्यौवनं न्यायशीलसौरभ्यपावनम् / श्रीसम्मतिर्महीपालो यौवराज्ये निधास्यति // 30 // तस्मिन्निजगुणैरेव नियम्य वशयत्यरीन् / महाराजः स्वयं कर्ताऽऽराधनं धर्मकामयोः // 39 // श्रुत्वा तस्य गुणान् | सर्ग-१७ // 50 // Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 501 // रूपं गाढरागग्रहेरिताः / आगमिष्यन्ति राजन्यकन्यास्त्यक्ताऽन्यकामनाः // 40 // स्वस्य भोगफलं कर्म तदा पित्रोश्च शासनम् / अलङ्घनीयं मनसि ज्ञानत्रयधरो विदन् // 41 // कर्ता पाणिग्रहं तासां गीर्वाणैः सूत्रितोत्सवम् / कुमारः कौतुकं ब्रह्माराधनाधीनधीरपि अममस्वा| // 42 // युग्मम् // नवोढाभिः समं ताभिनिरागोऽप्यममः प्रभुः। पित्रादेशादलङ्कर्ता प्रासादं सुरनिर्मितम् // 43 // ताभिः सार्धं तत्र मिराज्या| भोगान् भोक्ता तदुषणैस्तु सः / न ग्रहीता सरोजन्मपत्रं बारिकणैरिव // 44 // व्यतीतेषु पञ्चदशवर्षलक्षेष्वथो नृपः / श्रीसम्मतिः | भिषेक | स्वयं सूनुं सभास्थमिति वक्ष्यति // 45 / / वत्स! राज्यसुखैः स्निग्धैर्जाताऽजीणं ममाभवत् / अरोचकिमनस्तेष्वचिकित्स्यं भिष- 01 समतिभूप जामपि // 46 // त्वं युवाऽसि स्फुरत्प्रौढप्रतापदहनोऽसि च / तदेतैरस्तु ते प्रीतिः साम्प्रतं नवमोदकैः॥४७॥ युग्मम् // कायं सहायं दीक्षा च न जरा यावजर्जरयत्यमुम् / तावद्यतिष्ये स्वर्गापवर्गसाम्राज्यलब्धये // 48 // अपि ज्ञाननिधानस्य यन्मया ज्ञाप्यते तव / किंचित्तदौरसस्येव प्रतिबन्धस्य वल्गितम् / / 49 / / पराभिभूति व्यासेद्धं कोशं संचिनुयाः सदा। आक्रम्यते विकोशो हि मधुपैरम्बु. जव्रजः // 20 // अत्याक्षीमाङ्गजां लक्ष्मी मन्दरागहतोऽम्बुधिः। मत्वेत्यमन्दरागांस्त्वं कुर्वीथाः सर्वथा जनान् // 51 // आराध्नुहि परीवारमातरं त्वं कृतज्ञताम् / तां विना नाङ्गजन्माऽपि भूपालमनुरुध्यते // 52 / / प्रतापैीष्मवत्प्रौढैः शोपयेर्वाहिनीं द्विषाम् / लक्ष्मीन मुश्चते येन खड्गं धारागृहं तव / / 53 / / बजेर्बाह्यानरीन् जेतुं पूर्व जित्वान्तरान्स्वयम् / गृहान् का शिखिना दीप्तान मुक्त्वाऽन्यान् शम-* येत् कृती ? // 54 // नैकैर्वेश्येव भूर्भुक्ता वश्याऽभूत्तु न कस्यचित् / यशस्तु तत्फलं पूर्वक्ष्माभृद्गुणजयोर्जितम् // 55 / / स्वपुत्रमनुशिष्येति राजा राज्येऽभिषेक्ष्यति / सुलग्ने वाद्यदातोद्यमङ्गलध्वनिभिः सह // 56 / / गर्जन्ती दुन्दुभिध्वानद्यौर्मदा मां विधास्यति / गन्धाम्भः // 50 // कुसुमस्तोमवृष्टिभिर्गन्धमातरम् / / 57 // नादैर्मङ्गल्यनान्दीनां कर्ता चेलोच्छ्रयैरपि। पुरश्रीरात्महर्षस्य संचारानिव सर्वतः / / 58 // दिनैः Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 502 // कतिपयैः पुत्रमापृच्छयाथ नरेश्वरः / श्रीसम्मतिः परिव्रज्यां गृहीत्वा त्रिदिवं गमी // 59 / / अममोऽपि प्रभुः पित्रा मुक्तः खेदं | विधास्यति / चिन्तयिष्यति राज्यं तु स्वरूपं संसृतेर्विदन् // 60 // भक्तिनम्रत्रिलोकीन्द्रमौलिमालाचिंतांहिणा / पृथ्वी लोकद्वयात्तेन भ; पृथ्वी भविष्यति // 61 // रोगापमृत्युदुर्भिक्षदुर्वातातिहिमोष्णतः। भवित्री भी!ऽतिवृष्टेरवृष्टेश्चात्र राजनि // 62 // लोके न वारि सम्पत्तिः घनसम्पद्यपि श्रुता / सतामपि परा भूतिस्तत्र त्रातरि कौतुकम् / / 63 // इति यतिजनवन्दनावनत्या सुचतुरदृतिकयेव क्लप्तरागाम् / जिनपतिकमलामलं विलासैरममभवे पुरुषोत्तमः स भोक्ता // 64 // अममचरिते भाविन्येवं तयोः सहजन्मनोलघुरमम इत्युत्सर्पिण्यां भविष्यति भारते / जिनपरिवृढः प्रौढप्रीत्याचिंतांहियुगः सुरैविनयविटपी स्थाने क्लप्तः फलत्यथवा न किम् ? // 65 // इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते अममस्वामिचरिते महाकाव्ये षष्ठभवे भाविश्रीअममस्वामिच्यवन-जन्म-बाल्य-यौवनविवाह-यौवराज्य-राज्यमहोत्सववर्णनः सप्तदशमः सर्गः / / ग्रन्थानम् // 267 / / अष्टादशः सर्गः। जिनेशचरित्रम् / भोगावलीकर्मक्षये पुत्रस्य राज्ये स्थापना सर्ग-१८ अथो त्रिंशद्वर्षलक्ष्मी हरिणाक्षीमिव क्षितिम् / भुञ्जानस्य प्रभो गफलं कर्मान्तमेष्यति // 1 // विज्ञायाऽममराजोऽपि तद्ज्ञा| नेनात्मजं निजम् / स्वयं सप्रश्रयं राज्यमादातुमुपरोत्स्यति // 2 // नयी च विनयी चायमपि प्रतिवदिष्यति / कृतं राज्येन मे तात! | त्वद्भक्तेविनकारिणा // 3 // क्षमाभृतः पितुः पादसेविनां या नृणां भवेत् / पुन्नागता न गोंर्जा सा सिंहासनवर्तिनाम् // 4 // त्वत्पा // 502 // Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 503 // H-2463 *HE PRERACTER- दपद्मयोर्देव सेवाहिवाकिनो मम / अस्त्यग्रे राजहंसत्वं क्षोणीराज्येन तत्कृतम् / / 5 / / प्रभु षिष्यते तं च वत्स! पृथ्वीयमामिपम् / रक्षितारं बिना क्रूरैः पक्षिभिर्नेष्यते क्षयम् // 6 / / अनायका मही रत्नावलीवामोति न श्रियम् / अन्तश्चितापि सश्छिद्रेर्वी रै रत्नगणेखि लोकान्तिक | // 7 // तत्ते तद्रक्षणं प्राप्तक्षणं युक्तं ममाज्ञया। भणित्वेत्यममो राज्ये बलातमभिपेक्ष्यति / / 8 / / स तदा प्रणमद्राजमण्डलः सूरसेवितः। | निवेदितो | प्रातः क्षण इबोद्दामः शोभिता भूपतिनवः // 2 // धर्मराजस्याऽममस्य तदा लोकान्तिकाः सुराः / सारखतादयोऽभ्येत्य प्रतीहारा इवा दीक्षावसरः नताः // 10 // कर्त्तार इति विज्ञप्तिं दुस्तराद् भववारिधेः / विश्वस्योत्तारकं तीर्थ नाथाऽन्वर्थ प्रवर्त्तय / / 11 / / युग्मम् / / स्वयं ज्ञानज्ञात- वार्षिक दा| विश्वोपकारावसरस्य ते / विज्ञप्यते यदस्माभिस्तत्र हेतुनियोगिता // 12 // इति विज्ञप्य ते ब्रह्मलोकवत्ति निजं द्रुतम् / रिष्टं विमानं *नस्वरूपं च | यातारस्तारद्युतिधराः सुराः॥१३।। युग्मम् // ततो व्रतोत्सुकः स्वामी दातुं प्रकंस्यतेऽर्थिनाम् / चिन्तामणिरिवाऽऽवर्ष दानं चिन्ता नुमानतः // 14 // यद्यस्येप्सितमेत्यासौ तद् गृह्णात्विति नित्यशः / आवर्ष स पुरस्यान्तः पटहे?षयिष्यते // 15 / / शक्राज्ञप्तकुबेरस्या| देशतो जृम्भकामराः। हेमरूप्यमणिस्तूपान् क रस्तद्गृहाङ्गणे // 16 // स्तूपव्याजात्स्वर्णरूप्यमाणिक्यक्ष्माधरा इव / प्रभु प्रार्थयितुं प्राप्ताः कामितातीतदायकम् / / 17 / / एकां कोटी जातरूपस्याऽष्टी लक्षाणि चान्वहम् / प्रातराशक्षणं यावद् दाता सूर्योदयात् प्रभुः // 18 // संवत्सरेण स्वर्णस्य स्वामी कोटिशतत्रयम् / सहायाशीतिकोटीभिर्लक्ष्याशीत्या च दास्यति // 19 // महत्या वाञ्छया प्राशो-* ऽप्यल्पेच्छः प्रभुदर्शनात् / स्तोकं ग्रहीप्यते लोकः स्वेच्छादानेऽपि नाधिकम् // 20 // दचा संवत्सरं यावत्सुवर्ण भरतेऽथिनाम् | स्वकीयमममस्वामी कर्त्ता संवत्सरं भुवि // 21 // इन्द्रस्तदासनोल्कम्पाद् विभोर्ज्ञात्वा ब्राक्षणम् / एत्य निर्मास्यते दीक्षाभिपेकः // 50 // | प्रागिवाऽद्भुतम् // 22 // विलिप्तोऽलंकृतो दिव्यश्चन्दनाभरणांशुकैः। आरोढा शिविकां देवदत्तां शक्रकृतां प्रभुः // 23 // पूर्व नरेश्वरैः Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 504 // दीक्षामम पश्चाद् भक्तिप्रहः सहस्रशः। उत्क्षेप्यसे रमणीया मुक्तिश्रीप्रहितेव सा // 24 // तत्र स्थाता प्रभुः पूर्वामुखे कण्ठीरवासने / पुण्यैरिवावृतश्छत्रचामरच्छमनोज्वलैः // 25 // तदा दिशो दशाप्युद्यत्तूयसांराविणाकुलाः। धास्यन्त्यनाहतोद्दामध्वनकामध्वजस्थितिम् | चरित्रम् / // 26 // क्रियमाणे जयजयध्वनौ मंगलपाठकैः / सुरासुरनरेन्द्रश्च भक्ति व्यक्तुं पुरःसरैः॥२७॥ वप्रप्रासादगेहाट्टतरुशाखाग्रवत्तिभिः। स्वीकरिष्यप्राप्तः पुराकरादीभ्यः प्रेक्ष्यमाणो जनैर्मुहुः // 28|| आशीर्मुखीभिवृद्धाभिर्वीज्यमानोऽश्चलैश्चलैः। कन्यकाभिः क्रियमाणलाजवृष्टिः पदे ति सहस्रपदे // 29 // शृंगारिणीभिर्व्यावर्ण्यमानः शृंगारजल्पितैः / धर्मलीनाभिरुत्साह्यमानो वैराग्यवर्णनैः // 30 // अन्वीयमानस्तन्वद्भिश्छा-15 नृपस्सह याद्वैतं समं मुदा। दिव्ययानदिवि सुरैर्भुवि च्छत्रैर्महीभुजाम् // 31 // भगवानऽममखामी शतद्वारपुरं क्रमात् / व्यतिक्रम्य सहस्रा मस्वामी म्रवणमुद्यानमेष्यति // 32 // प० कु०॥ स्वच्छन्दविकसत्कुन्दमरन्दस्वादतः खरैः। विशेषमधुरं गीगणैः प्रारब्धमंगलम् // 33 // उन्मीलत्पुलकांकूरपूरं लवलिकासुमैः / प्रवेक्ष्यति तदुद्यानमममो निर्ममाग्रणीः // 34 // युग्मम् / / तत्रोत्तीर्य शिबिकाया दीर्घायाः संसृतेरिख / अशोकस्य तले स्थित्वा हन्तुमन्तद्विषं स्मरम् // 35 // तदग्रसुभटं हन्तुं शृंगार तजनिप्रदम् / वस्त्राभरणसंभार स्वांगादुत्तार्य मोक्ष्यति // 36 // युग्मम् / / प्रभोः स्कन्धे देवदृष्यं शरचन्द्रांशुनिर्मलम् / शक्रो विमोक्ता विरतिलक्ष्मीप्रावारसोदरम् // 37 // शुक्ले तुर्यतिथौ माघे जन्मः पश्चिमेऽहनि / पञ्चभिर्मुष्ठीभिमालेः स केशानुत्खनिष्यति // 38 // स्वामिहस्ते स्थितः केशहस्तः प्रेक्षिष्यते | *सर्ग-१८ सुरैः। हस्तात्तमोहवीरस्याकृष्टमूर्द्धजसन्निभः // 39 // चेलाञ्चलेन तानिन्द्रः प्रतीष्य क्षीरनीरधौ / तूर्ण क्षेप्स्यति वालानां क्षीरयोगो हि शस्यते // 40 // वृत्रारिः पाणिमुत्क्षिप्य निषिध्य तुमुलं ततः / समयः समय इति स्वयमुद्धोषयिष्यति // 41 // क्लप्तषष्ठः कृत कृत- // 504 // सिद्धनतिरादास्यते ततः। चारित्रं सर्वसावद्यविरतिः प्रथमं प्रभुः॥४२॥ तत्र प्रव्रजिते राज्ञां सहस्रं प्रव्रजिष्यति / धर्मे तु चर्या युक्तव Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 505 // | सेवकानां निजप्रभोः॥४३॥ नारकाणामपि सौख्यं तदानीं भविता क्षणम् / प्रभाववैभवं तीर्थकृतां हि वचनातिगम् // 44 // तदा मित्रं | चरित्रस्य तुर्यज्ञानं जगत्पतेः / उत्पत्स्यते नरक्षेत्रनृमनोभावदर्शकम् // 45 // सुरासुरनरेन्द्रेषु जिनं नत्वा स्वमास्पदम् / यातेष्वस्ता|चलगुहां श्रयिता भानुमानपि / / 46 / / नवैस्तपोधनैः स्वामी राज्यवत्संयमेऽपि तैः / वृतः स्थास्यति तत्रैव कायोत्सर्गस्थितः पुनः / अममस्वा |मि केवल॥४७॥ततश्च राजतीं शुक्तिमिव लेखां सुधारुचेः / उदस्य विशदज्योत्स्नां श्रीखण्डस्तबकाश्चिताम् // 48 // रजनी कामिनी सन्ध्याराग ज्ञान-: कौसुम्भशालिनी / ढौकयिष्यते बर्द्धयितुं जिन मोहजयोद्यतम् // 48 // लक्ष्मीपुरे परे चाति गृहे विजयभूभृतः / पायसेन प्रभुः कर्ता के | स्वरूपम् पारणं मुक्तिकारणम् // 50 // दातुः पुण्यमिव व्योग्नि श्लाधिता दुन्दुभिध्वनिः / ततः कोट्यः पतिष्यन्ति हेम्नश्वार्द्धत्रयोदशाः // 51 // | देवाः सन्निपतिष्यन्ति हर्षादातुर्दिदृक्षया / भाविनी सुरभि मिर्गन्धाम्बुसुमवृष्टिभिः॥५२॥ चेलोच्छ्रयच्छलाद्दातुः कीर्ति च दिवि षद्गणः / दण्डैर्हस्तैरिवोदस्तैयाँ सुख प्रापयिष्यति // 53 // प्रभोः पदयुग्मस्थाने श्रीमान् विजयभूपतिः / रत्नैः पीठं कारयिता नित्य | पूजयिताऽपि च // 54 // छद्मस्थो भगवांस्तस्मादऽभ्रान्तःस्थांऽशुमानिव / विहरिष्यत्यनियतस्थायी ग्रामपुरादिषु // 55 / / अत्यन्तसुकु| मारोऽपि स तीक्ष्णे तपसि स्थितः / तिग्मज्योतिर्मण्डलान्तःस्थास्नोधर्ता श्रिय विधोः // 56 // पश्चादऽपश्यतस्तस्य त्यक्तां वैषयिकी | | भुवम् / सिंहसंहननस्यापि सिंहो नैवोपमा गमी // 57 // शान्ताशेषमदस्थानस्याऽस्य भद्रोऽपि कुञ्जरः / न साम्यलेशमप्यास्तां मद* स्थानविंसंस्थुलः॥५८॥ मासद्वयं विहृत्यै छद्मस्थोऽममतीर्थकृत् / व्रतस्थानं पुनर्गन्ता सहस्राम्रवणाभिधम् // 59 / / तत्र जम्बुद्रुम-* | तले कृतषष्ठतपोविधिः / षष्ट्यां सितायां पौपस्योत्तरभद्रपदासु भे // 60 // अपूर्वकरणेनाशु क्षपकश्रेणिमीयुषः / प्रभोर्घातिक्षयादुत्पत्स्यते | // 505|| केवलमुज्वलम् // 6 // युग्मम् / / दिशः प्रसादं प्राप्स्यन्ति सुखा वास्यन्ति वायवः / भविष्यति क्षण सौख्यं तदा श्वभ्रजुषामपि // 62 // Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम्। समवसरणस्वरूपम् // 506 // प्रभुप्रभावसम्पन्नासनकम्पनिमंत्रिताः / तदा तत्र समेष्यन्ति चतुःषष्टिः सुरेश्वराः // 63 // तत्रैकयोजनां वायुकुमाराः खां मनःस्थितिम् / / प्रमृज्य क्ष्मां च विरजीकर्तारो बत चातुरी // 64 // ततो मेघकुमारास्तां सुगन्ध्युदकवृष्टिभिः / सेक्ष्यन्ति भविता तेपामात्मा सौरभ्यभूः पुनः // 65 / / बद्धा तां स्वर्णमाणिक्यैर्व्यन्तराः कुसुमोत्करान् / विकिरिष्यन्ति भगवद्वीक्षाहर्पादियोन्मुखान् // 66 // तेऽप्यञ्चलीपताकालीरम्यानाशासु तोरणान् / करिस्तदधः स्पष्टमंगला चाष्टमंगलीम् / / 67 // तदन्तर्मणिपीठं चादर्शबिम्बसमाकृतिम् / प्रत्याशतोरणोद्दामा कर्तारो व्यन्तरामराः // 68 // तत्रोचैर्भवनज्योतिःकल्पवासिसुरैस्ततः / रूप्यस्वर्णरत्नमयी त्रिपाकारी करिष्यते // 69 // रत्नस्वर्णप्राकाराग्रे नानामाणिक्यनिर्मिता / भवित्री कपिशिर्षाली रूप्यवत्रे तु काञ्चनी // 7 // सध्वजा कपिशीली तत्र शोभिष्यतेतराम् / स्वर्नदीवागतानैकमृत्तिः कोकाम्बुजैः सह / / 71 / / प्रतिवप्रं प्रतोल्यश्च भाविन्यो दिक्चतुष्टये / प्रवेशाय किलाऽनन्तचतु| टयमयश्रियाम् // 72 / / प्रतिद्वार भविष्यन्ति वैडूर्यदलडम्बराः / चतुराशावधग्रेवेयकवन्नवतोरणाः // 73 // धूपघट्यः प्रतिद्वारं स्वर्गिखेचरयोषिताम् / धूपायिष्यन्त्यंशुकानि दिव्यधूपस्य धृमया // 74 // सस्वर्णकमलाः स्वच्छजलास्तर्षश्रमच्छिदः / प्रतिप्रतोलि भाविन्यो वाप्यः स्वर्धिका इव // 75 / / देवच्छन्दः सुरैः स्वामिविश्रामाय विधास्यते / मध्ये मध्यमवप्रस्योत्तरपूर्व दिगाश्रयः // 76 / / | द्वारेषु रत्नवप्रस्य कर्तारौ वेत्रितां सुरौ / विमानव्यन्तरज्योतिर्भवनानां च दिक्क्रमात् // 7 // देव्यौ जया च विजया चाजिता | चापराजिता / सुवर्णवपद्वारेषु धास्यन्ते वेत्रिणीस्थितिम् // 78 // द्वारेषु रूप्यवप्रस्य चतुर्मूर्तिस्तु तुम्बरः / यक्षः कर्ता प्रतीहारकर्म दिक्क्रमतः स्थितः // 79 / / मध्ये माणिक्यवप्रस्य व्यन्तरेश्च करिष्यते / अशोकझुर्विंशसप्तधनुःशतसमुन्नतः / / 80 // पीठं च तदधो रत्नश्छन्दकं चास्य मूद्धगम् / तत्र सिंहासनं सांहिपीठं स्रक्ष्यन्ति चामराः // 81 / / शुभ्रा च्छत्रत्रयी मूनि पार्श्वयोश्चामरद्वयी। सर्ग-१८ // 506 // Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभा स्वरूपम् * सुरैः करिष्यते यक्षधृता त्रिभुवनेशितुः / / 82 // तद्द्वारि धर्मचक्रं च माणिक्यः कमलोपरि / स्वप्रभाक्रान्तदिक्चक्र सुरैः प्र–स्यते | * | नवम् // 83 / / एतद्विभूतिसंयुक्त रत्नसिंहासनत्रयम् / तिसृष्वन्यास्वपि सुरैराशामु स्थापयिष्यते // 84 // अत्राऽन्यदपि यत्कार्य तत्कार्य 14 व्यन्तरः सुरः / नापररिति येनपा व्यवस्था खलु शाश्वती // 85 // सुरासुरनृकोटीभिवृतो न्यस्यन् पदाम्बुजे / नवसु स्वर्णपदोसु सुर-| संचारितेष्वथ / / 86 / / वृन्दारकैः स्तूयमानो वालिख्यैरियांशुमान् / पूर्वद्वारेण समवसरणे प्रभुरेष्यति // 87 / / युग्मम् / / चलैदलेः प्रनृ त्यन्तमिव स्वाम्यागमे मुदा / चैत्यवृक्षमशोकं स त्रिः प्रदक्षिणयिष्यति // 88 / / नमस्तीर्थायेति वाचं व्यंक्तुं स्वस्य कृतज्ञताम् / वदन सिंहासनं स्वामी प्राग्मुखोऽलङ्करिष्यति // 89 / / अशक्यांशक्रिय सर्वैर्गीवणिर्यत्स्वशक्तितः / तद्रूपत्रितयं जैनानुभावातर्विधास्यते *90|| दिक्त्रयस्थायिना तेन चतुर्मूर्तिर्विभुस्तदा / कर्ता विश्व धर्मसृष्टिं कैरप्यविदितान्तरः // 91 / / उन्मीलिता तदा रूपेष्वे-1 तेष्वनुशिरः प्रभोः / पृथग भामण्डलं स्वेन धर्मश्रीस्वर्णकुण्डलम् / / 12 / / मन्थायस्ताऽर्णवरवभ्रान्तिकय् दुन्दुभिध्वनिः। स्फुरिष्यति स्वत एव तदानीं विबुधाध्वनि // 93 // सचपेट इवोदस्तो हस्तो हन्तुं ध्वजच्छलात् / धर्मेण कुदृशः शंके निःशंकेन प्रभोलात // 94 | मुनयः कल्पदेव्यश्च साध्च्यश्चेति सभात्रयम् / क्रमेण स्थास्यत्याग्नेयककुभि जिनेश्वरात् / / 95 // प्रविश्य पूर्वद्वाराऽऽद्या पर्पत्तत्र निष* स्यति / उर्ध एव तु तत्पृष्ठेऽवस्थास्ये ते परे उभे // 96 / / अपाक्वारेण भवनज्योतिष्कव्यन्तरस्त्रियः / एत्योर्खा एव नैर्ऋत्यां स्थास्य |न्ति नततीर्थपाः / / 97 / / प्रविश्य पश्चिमद्वारा जिंन नत्वा मरुद्दिशः / उपवेक्ष्यन्ते भवनज्योतिय॑न्तरनाकिनः // 98 / / समेत्योत्तरदिग्F द्वारा श्रीजिनेन्द्रं प्रणम्य च / वैमानिका नरा नार्यः स्थास्यन्तीशानदिश्यथ // 19 // इत्थं तृतीये प्राकारे संघस्य जनिता स्थितिः / द्वैतीयीके तिरवां तु यानानां प्रथमे तथा // 100 // क्षेत्र योजनमात्रेऽस्मिन् प्राणिनः कोटिकोटिशः। मास्यन्ति यन्मिथो वाधां विना // 507 // Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 508 // तजिनवैभवम् / / 1 / / नियंत्रणा न कस्यापि विकथा च न वत्स्यति / मिथो न वैरिणां वैरं न च भीनच मत्सरः // 2 // तत्र निःस्वम- जिनेशहेभ्यानामगरीयोगरीयसाम् / मिथो भविष्यन्त्यौचित्यादऽवस्थितिनतिक्रियाः // 3 // उद्यानपालतः श्रुत्वा शतद्वारपुरेश्वरः / ज्ञानोत्सवं चरित्रम्। निजपितुरममस्वामिनः प्रभोः // 4 // प्रीतस्तस्म द्रव्यलक्षाः प्रदाया त्रयोदशाः / ससेनान्तःपुरामात्यपौरस्तत्रैत्य सत्वरम् / / 5 / / प्रद- शतद्वारपुरक्षिणय्य भक्त्या त्रिजिनं शक्रस्तवेन च / स्तुत्वा नत्वा च शक्रेण सहेति स्तोष्यते पुनः // 6 // त्रि०वि०।। पूर्व प्रकाशयन्नर्थान् पश्चा | शः कर्ता द्भिदस्तमस्ततिम् / अस्नेहपूरस्त्वं नाथ दीपो विश्वगृहे नवः / / 7 / / दर्शयस्तारकश्रेणिं विमुश्चन्नरुणोदयम् / अवामादक्षिणं लोकलोचनं | स्तुतिम् अममजिने| त्वं नवः प्रभो ! |8|| सेवकानां संमुखीनाक्षरया निजमुद्रया / पदं समर्पयनित्यं देव त्वं नायको नवः / / 9 / / खरं जगत्त्रयादीय श्वरोधर्म* मानसारोपि सर्वदा / अभिन्नमुद्रस्त्वं रत्नकोशः स्वामिन्नवः क्षितौ // 10 // जीवो रुद्धेन्द्रियद्वारादेहगेहाद् विशत्ययम् / अप्यऽयोगी देशना मुक्तिपुरं यत्सा योगीन्द्र ! ते कला // 11 // तवोपदेशपीयूषगण्डूपादेव कौतुकम् / अनादियोगैर्दुःकर्मरोगैः प्राणी विमुच्यते // 12 // परानन्दसुखास्वादो देव त्वदर्शना| दपि / ममाऽभूत्तदितोऽन्यत् किं ? नाथ नाथामि सम्प्रति // 13 // अममस्त्वं न नाम्नैव महिम्नाप्यसि यद्यपि / तथापि नाथाऽनाथ*स्य मम कुर्याः कृपां सदा // 14 // स्तुत्वेत्यासीनयोः स्वर्गाधीशक्षोणीशयोस्तदा / देशना स्वामिनः श्रोतुं भाविन्युत्कण्ठिता सभा * * // 15 / / सर्वसत्त्वस्फुरद्भापापरीणामकलापुषा / अनन्तगुणयाऽप्युच्चैः पञ्चत्रिंशद्गुणत्विषा // 16 // आयोजनविहारिण्या वाण्या रूपै खिभिः समम् / पुण्यप्रदेशनां कर्त्ता देशनां भगवानिति // 17 // अस्मादसारात्संसारात् क्षारादिव पयोनिधेः / गृहीत सुधियः सारं धर्म देवाः सुधामिव // 18 // सम्यक्त्वेनैव धर्मोऽपि सौभाग्यं लभतेतराम् / ताम्बूलेनेव शृंगारोऽलंकारो मणिना यथा // 19 // Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 509 // श्रद्धानं नवतन्वेषु सम्यग्दर्शनमुच्यते / तनिसर्गेण केपांचिद् गुरोर्वाधिगमाद् भवेत् / / 20 / / रागद्वेषपरीणामः कर्मजः कर्कशस्थितिः / ग्रन्थिर्भवेत्सुभदः मारुहामिव देहिनाम् / / 21 / / तैः किश्चिन्न्युनवाद्धबैंककोटिकोटिमितिस्थितौ / यथाप्रवृत्तकरणात्कृतायां सप्तकर्मणाम् // 22 / / अपूर्वकरणान्तरकरणाभ्यां क्रमात्ततः / ग्रन्थौ भिन्ने प्रशान्ते च मिथ्यात्वे तत्त्ववासना // 23 // आन्तौहूर्तिकी स्याद् सम्यक्त्व यानिवृत्तिकरणेन च / नीता दृढलं सर्वज्ञः सा नैसर्गिकमुच्यते // 24 // गुरूपदेशात्संजाता श्रद्धाऽऽधिगमिकं पुनः / सम्यक्त्वं भव स्वरूपं तदु *परिसूरराजकोटीभिरभव्यरतिदुर्लभम् / / 25 // पं०कु०॥ शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिकतागुणाः / पञ्च शंसन्ति जीवानां सम्यद्गर्शनमञ्जसा // 26 // स्य दृष्टान्तः दुर्गतिजन्मिनो न स्यात् सम्यग्दर्शनलाभतः / यदि प्राक्तत्र बद्धायुनं स्यादेष शुभाशयः // 27 // सम्यग्दर्शनसाम्यस्य दुःपालस्यह पालनात् / सुरासुरेन्द्रैः पूज्यन्ते गृहिणोऽपि महर्षिवत् // 28 // मेघाहावामय इव स्वयं सम्यक्त्वसाम्यतः / बहितिषः प्रशाम्यन्ति सार्द्धमान्तरवैरिभिः // 29 // विपदोऽस्मात्पलायन्ते शाकिन्य इव मांत्रिकात् / क्षुद्राश्च विद्रवन्त्याशु घूका इव दिनोदयात् // 30 // सम्यत्वात्सन्निधीयन्ते वाग्बद्धा इव देवताः / स्यातां स्वर्गापवग्ौ च पाणिस्थौ केलिपक्षिवत् // 31 // ज्ञानामृतौधैवृद्धोऽपि चारित्राम्रमहीरुहः / सम्यक्त्वात् सुरभेरेव भवेन्नूनं फलेग्रहिः // 32 // तदत्रैव मनः कार्यमार्यैर्मन्दरवद् दृढम् / वारणैरिव दुर्विननं यथा परिण| म्यते // 33 // निवृत्तिश्रीपरीरम्भसुभगं भाबुको भवेत् / अत्राऽमुत्र च सम्यक्त्वस्थेम्ना श्रीसुरराजवत् // 34 // / तथाह्यत्रैव भरते मध्यदेशे मनोरमा / अस्ति पूर्व्यक्तसद्रत्नसञ्चया रत्नसञ्चया // 35 / / तस्यां स्वभुजशौर्येण प्रतापप्रसरेण च / | अतिशूरः सूर इति श्रीमानासीन्महीपतिः // 36 // सोऽन्यदा निजसौधाग्रं व्योमाग्रमिव भास्करः / आरोहद् भुवनाभोगप्रत्यवेक्षण| कौतुकी // 37 // बहिः पुरजनान् क्लप्तशृंगारान् सपरिच्छदान् / दृष्ट्वा स गच्छतो बद्धस्पर्धान् वेत्रिणमादिशत् / / 38 // जानीहि पुर्या 1509 // Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रमम // 510 // जिनेशचरित्रम् / देशनां श्रुत्वा सरराजस्य सम्यक्त्व स्वीकार * सौन्दर्यस्वगिंपुर्यामिहाऽद्य कः? / उत्सवो वर्तते यत्र यात्येप सकलो जनः // 39 // विनीतः सोऽपि संभ्रान्तस्तथाकृत्वा स्वयं द्रुतम् / / प्रविश्य नत्वा भूपालमिदमूचे कृताञ्जलिः // 40 // देवोद्यानेऽद्य समवासापीत् सूर्योदयाभिधे / चतुर्ज्ञानी श्रीसमुद्रघोपमूरिरिति प्रभुः ॥४शा नभोमरकतादर्श यत्प्रतिबिम्बडम्बरः / कविवाचस्पतिबुधः कैः कैविजन मेनिरे // 42 // प्रभाकरे दिशां यत्र यात्रामैत्री वितन्वनि ! वादाध्वगानां केषां नागलस्वेदच्छलान्मदः // 43 // तस्य जङ्गमतीर्थस्य महिम्ना क्षोणिमण्डले / अजन्याडम्बरो विष्वक | कुतूहलमिदं महत् // 44 // पौरास्तं वन्दितुं भक्त्या द्रष्टुं च विबुधैः कृतम् / निःसमानं महिमानं यान्त्येते हर्षसत्वराः // 45 // | श्रुन्वेति मूरराजोऽपि तदुक्तं वाहत्वाकुलः / आगात्सान्तःपुरपरीवारः सारचमूवृतः // 46 / / सूरिं प्रणम्य साष्टांग तत्पुरस्तादुपाविशत् / धर्मवीजं तदादिष्टं विशिष्टं चाशृणोदिति // 47 // अनायकं यथा राज्यमद्वारं नगरं यथा / यथा वनं च निमूलं यथामृतमभाजनम् | // 48 // वहनं चाप्रतिष्ठानं यथा नेष्टार्थसिद्धिदम् / तथा धर्मोऽपि सम्यक्त्वहीनः पुंसां न मुक्तिदः // 49 // युग्मम् // सम्यक्त्वभूमेरेख स्युर्वलेन फलशालिनः / दूरोत्सारितसंसाराातपा व्रतपादपाः // 50 // धर्माप्तगुरुतचानां श्रद्धानं यत्सुनिर्मलम् / शंकादिदोषरहित सम्यक्त्वं तन्निगद्यते // 51 / / तत्र धर्मः स एवाप्तयः प्रोक्तो दशलक्षणः / आप्ता त एव ये दोपैरष्टादशभिरुज्झिताः // 22 / / गुरुः स एव यो मुक्तो ग्रन्थैडिंरिवान्तरः / तत्वं तदेव जीवादि यदुक्तं सर्ववेदिभिः // 53 // मिथ्याखं विपरीतेपु तेषु या वासना पुनः / तथेति देहिनां रूप्यभ्रान्तिः शुक्तिलवे यथा // 54 // शंकाकांक्षाविचिकित्सामिथ्यादृष्टेः प्रशंसनम् / संस्तवश्चेत्यतिचाराः सम्यक्त्वस्य प्रदूषकाः / / 55 / / जन्तोः सम्यक्त्वलाभे हि स्यादऽनन्ताऽपि संसृतिः / अपार्द्धपुद्गलपरावर्तमानैव निश्चितम् // 56 // कर्पूरेणाम्बुवजीवः सम्यक्त्वेनाधिवासितः / भवेदुचेंगतेरेव पात्रं नीचगतेस्तु न / / 7 / श्रुत्वेति राजा श्रीसूरः श्रीसमुद्रगुरोर्मुखात् / सारं सम्यक्त्वमादत्त मा पुनः सर्ग-१८ // 510 // Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 511 // रसं भृग इवाम्बुजात् // 58 / / अर्हन्मते कौशलेन भक्त्या स्थेम्ना प्रभावनैः / तीर्थोपास्त्याऽप्यलं चक्रे स सम्यक्त्वं निज सदा // 59 / / विरुदैरिव तथ्येन स्वमहिम्नाजितः क्षितौ / तदा स्तुत्यः स एवासीलब्धार्थाय विशेषणैः // 60 // जिनप्रवचनाद्देवैरप्यचाल्यः सुमेरुवत् / किं बहुक्तरभृत् स्तोत्रपात्रं तीर्थकृतामपि // 61 / / शुचेः स्फटिकवत्तस्य चित्रं सांक्रामिकोऽप्यगात् / नैसर्गिकत्वं सम्यक्त्वरंगो लक्ष्मभूपतद्धातुवेधकृत् // 62 // तथा तदात्मना सार्द्धमैक्यं सम्यक्त्वमागमत् / कैवल्यमीयुपोऽप्यस्मान्न यथा भेदमाप्स्यति // 63 // तद्राज्य- सभाया सू. सीमन्येकातपत्रं साम्राज्यमासदत् / जैनो धर्मः सदा यद्वा लोका राजानुवर्तिनः // 6 // तस्मिंश्च समये गौडमण्डलस्य प्रशासिता। *रतेन कृत मनित्यवाद अभूल्लक्ष्मीपुरे लक्ष्मसेनो नाम्ना क्षमापतिः // 65 // उत्खाताः क्ष्माभृतोऽनेन युक्ता द्वेधाप्यनेकपैः / इतीव बिभ्यद् विन्ध्योऽयं | ॐ खण्डनम् / हस्तिलक्षरुपाचरत् // 66 // द्वेधापि मेदिनीं तेन द्वेधा वाहाग्रहबलात् / विमोच्याश्वपतियुद्धे निन्ये काराकुटुम्विताम् // 67 // तस्य क्रमागता बौद्धधर्मोपासकताऽजनि / भेजे तस्यानुवृत्या चानन्तरैरपि पार्थिवैः / / 68 // अथ श्रीसूरराजेन प्रहितः कार्यतोऽन्यदा। पर्षक्षिष्ट तं दृतस्ततः स्याद्वादभूपतेः / 69 // राज्ञा श्रीलक्ष्मसेनेन स यावद्विहितोचितः / आख्यातकार्य कार्यज्ञः प्राज्ञः पर्षापाविशत 70 // तावत्तत्सचिवस्ताशगतस्ताथागतोदितम् / अनित्यवादं सोन्मादं श्रीहर्षः पार्षदानऽशात् // 71 / / युग्मम् / / एकान्तवादग्रहिल गदतोऽनेकान्तनिष्णधीः / ततस्मूचे साक्षेपमव्याक्षेपस्फुरद्वचाः ||72 वं यथैकान्तनित्यत्वे कृतनाशाकृतागमौ / आख्यासि दोपौ मंत्रीश ! सत्त्वस्योद्धरकन्धरः // 73 // एकान्तानित्यपक्षेपि कृतनाशाकृतागमौ / तथैव प्रसजन्तौ तौ दोषो को नु स्खलेद् ? बद 74 // त्वत्पक्षकक्षीकारे स्यात् किं चानित्यं क्षणे क्षणे / इदं जगत्समुच्छेदस्ततो लोकस्थितेधुवः // 75 // यतः स्वामी व वं ते सेव्यः क्व Halवं वा सेवकस्तदा / क्व वा दाता ग्राहकः क्व का भर्ता क्व च वल्लभा // 76 / / क ते गुरुः क्व ते देवः, यत्र वा धर्म व वा क्रिया। 1511 // Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेश // 512 // चरित्रम् / सूरराज | प्रति श्री लक्ष्मसेनेन बौद्ध धर्मस्वीकारार्थ प्रेषितो दुतः | क्षणभंगार्णवे यत्ते स्थितिः सर्वाप्यगाद् क्षयम् // 77 // बुग्मम् // अथ खयादृते प्राच्ये वासनाक्षणसन्तती / ताभ्यां च मन्यसे लोकव्यवहारव्यवस्थितिम् / / 78 // एवं तर्हि स्वप्रतिज्ञाहानिस्ते स्वयमागता / अभेदभेदानुभयैर्घटेते ते यतो नहि // 79 // तस्मादादीप| माव्योम नित्यानित्यं विभाव्यताम् / वस्तु वस्तुविदां मुख्यं मुश्चाऽनित्यकथां वृथा // 8 // त्रि०वि०॥ इत्थं निरुत्तरे तेन दुतेन सचिवे कृते / लक्ष्मसेननृपो मम्लो बौद्धधर्मस्य दूषणात् // 81 / / तदाहूतस्ततो वेगादागाद्रक्तपटो गुरुः / दूतस्याद्वादवाद्वौं सोऽप्यगमत्सक्तुमु. ष्ठिताम् // 82 // स्वधर्मदृषणात्तस्माद्राजा पितृवधादिव / दूताय सूरराजायाऽप्यकुप्यत्वैरमावहन् / / 8 / / ततस्तमर्द्धचन्द्राद्यैर्धर्षयित्वा | स दुःसहैः / निःकास्य चाशु तत्पृष्ठे कृतान्त इव भीषणः / / 84 // स्वदूतं चण्डवेगाख्यं निसृष्टार्थमथादिशत् / प्राप्तः सोऽपि तदा| देशहस्तः सूरपुरी जवात् // 85 / / यु० // प्राप्तं तदने स्वं दूतं धर्षितं प्रेक्ष्य तं तथा / वृत्तान्तं निखिल श्रुत्वा तन्मुखात्सूरभूपतिः॥ | // 86 // इति दध्यावहो दृष्टिरागः श्रीलक्ष्मभूपतेः / अविध्याप्यस्य वैराग्नेर्ययौ जन्मनि हेतुताम् // 87 // कथं कथं प्रशाम्योऽयं वैरानिर्वाडवाग्निवत् / जाज्वल्यमानो हृदयादुत्थितोऽस्याम्बुधेरिव / / 88 // अधिको वा ततोप्येष जन्मस्थानमपोह्य यत् / गर्जत्यभ्राग्निवजातक्षमाभृद्दाहदोहदः / / 89 / / इति ध्यायत एवाऽस्य सदः स्वान्तं च कम्पयन् / स्वस्वामिवलतश्चण्डश्चण्डवेगः समागमत् // 90 // सोऽपि श्रीलक्ष्मसेनस्यादेशमर्पयितुं पुरः / सिन्दुरव्याजतो व्यक्तसंक्रान्तक्रोधपावकम् // 11 // दधे दक्षिणहस्तन यावत्तावद् झटित्यमुम् / उत्थाय वामहस्तेन सान्धिविग्रहिकोऽग्रहीत् // 92 // चण्डवेगोऽवदत् कोपकम्पमानोत्तराधरः / राजादेशं गृहीत्वैव भक्तिस्ते व्यञ्जिता प्रभौ // 93 / / परं चेञ्जीवितेनार्थो राज्येन च धनेन च / आदेशं वाचयित्वा तत्तदर्थं कुरु भूपते ! / / 94 // युग्मम् / / राजाऽपि शूरो नाम्नैव धाम्ना सोमस्त्वऽभापत / मा ताम्य चण्ड ! शृणुमो राजादेशं वयं पुरः // 95 / / तेन भ्रूसंज्ञया ज्ञप्तः सान्धिविग्रहि सर्ग-१८ // 512 // Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 // 513 // कस्ततः / इत्युच्चैर्वाचयामास स्वस्ति लक्ष्मीपुरादतः // 96 // महाराजाधिराजः श्रीलक्ष्मसेनो जयोदयी / श्रीरत्नसश्चयापुर्यां श्रीसूरनृपमादराव // 97 / / आदिशत्यचिराद् बौद्धधर्मोपासकता स्वयम् / आइत्या निजदेशान्तर्वासिलोकः समं त्वया // 98 // कर्त्ता त्वमेन धमनश्चमादेशं चेत्तदा कासिमण्डलम् / दास्यामि तेऽन्यथाऽऽदास्ये मौलिना सह मण्डलम् / / 99 / / महाक्षपटलाध्यक्षे वाचयित्वेति तस्थुषि / ल्यात्सूररा| विमृश्य तस्य तात्पर्य पर्यालोच्य च मंत्रिणा // 20 // / इति प्रत्यूचिवांश्चण्डवेगं सूरनृपस्तदा। निशाम्य सौम्य ! मद्वाचं शान्तो भूत्वा क्षण हृदि // 1 / / धर्मो हि क्रियते मुक्त्यै स च के कथिता नीतिः | केनापि कीदृशः / स्वबोधात्परबोधाद्वा निश्चित्याङ्गीकृतो हृदि // 2 // अत्रार्थेऽग्रेपि केनापि देवेन च नृपेण च / चक्रे नैव बलात्कारः * कारकेषु जनेष्विह // 3 // पृथग्दर्शनिनो देवास्तेषां चात्र नियामकाः / न चैक्यमेषां भवति भूतं वा भावि वा क्वचित् // 4 // यथा | पुरादौ नैकेन संचरन्तेऽध्वना जनाः / रुचिवैचित्र्यतो मुक्तावपि नूनं तथैव भोः / / 5 / / एवं प्रभिन्ने प्रस्थाने पथ्यस्तथ्यस्त्वसाविति / | वणिग्भिरिब हट्टस्थैर्दर्शनस्थजडो जनः / / 6 / / प्रतार्यते बलान्नैव व्रजन्नान्यत्र वार्यते / न चावस्थाप्यते स्वसिन् किन्तु भ्राम्यन्नितस्ततः | // 7 // वरप्रत्ययतो मृढो गतानुगतिकत्वतः / कोऽपि क्वापि कुतोऽप्यर्थात् क्रव्यार्थीवात्र रज्यति // 8 // त्रि०वि०॥ नचैवं मोक्षमा-15 | णोऽपि नानोपायैजनः क्वचित् / प्रामोति मोक्षमुक्षेत्र जीवः प्रत्युत बध्यते // 9 // वीतरागेण मनसा सम्यक् साम्यात्मकं यदा / || | मार्गमाप्तात्स्वतो वापि शुद्धधीलक्षयिष्यति // 10 // तदा देवं गुरुं धर्म तत्त्वं चात्मपरीक्षया। वीतरागं परिज्ञाय क्षीणकर्माशु | मोक्ष्यति // 11 // युग्मम् // एवं स्थिते धर्मतत्त्वे किमस्थाने तब प्रभोः / आग्रहोऽयं बालवृद्धजडोन्मत्तपिशाचवत् // 12 // न सन्ति | // 513 // | मंत्रिणः किंवा तद्राज्ये केऽपि तद्धिताः / तृतीयं लोचनं ते हि मदान्धस्य महीपतेः / / 13 / / गतानुगतिकत्वेन बलात्कारेण वा नच।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्धार्थ गमनम् वयं श्रयामहे बौद्धधर्म किन्तु स्वबोधतः // 14 // अस्मद्दतोऽपि नो राज्ञा मंत्रिणा गुरुणापि च / अशाकि स्वमते नेतुमारम्भोऽस्मासु श्रीश्रमम जिनेशतद् वृथा / / 15 / / कासेर्दानमथादानं मौलेदेशस्य ते विभुः। भेददण्डौ किमस्मासु प्रयुक्त बालकेष्विव // 16 / / पत्तिमात्रोऽपि नो चरित्रम् / शुद्ध क्षत्रवंश्यः क्षमाभुजा / बलिनाऽपि बलात्कारान्निजधर्म प्रवर्त्यते // 17 // तदस्मात् स कथं ? लक्ष्मसेनस्ताथागते मते / प्रवर्तियि- सूरं प्रति ||514 // Makal प्यति हठात्कौतुकं द्रक्ष्यते ह्यदः // 18 // शृगालैरिव कैश्चिच्चेद् ग्रासलोभाद् भयादपि / सोऽन्ववत्ति नृपमूढस्तत्किमेतावताऽपत्॥१९॥ लक्ष्मasl कदाचित्पुण्डरीकोऽपि भवेन्मध्ये महीभृताम् / तस्य सुप्तस्य किं क्षेमकरं जागरणं ननु ? ॥२०॥स्थानादतश्चण्डवेगश्चण्डवेगेन वायुवत् / सेनस्य तद्याहि गत्वाऽऽख्याहि त्वमुच्चैःकारमिति प्रभोः // 21 // अपि मेरुस्त रेद् वाद्धौं व्यत्ययेच्च जगत्रयी। सूर्याचन्द्रमसौ खं खं व्यतीयातामिह क्षणम् / / 22 / / धर्म श्रीसूरराजस्तु प्राणान्तेऽपि जिनोदितम् / तथापि न त्यजत्येव सात्मीभावमुपागतम् // 23 // युग्मम् / / ग्रहितुं मण्डलं मौलिं चास्माकीनं नहि प्रभुः / इन्द्रोऽपि किं पुनर्मय॑कीटः क्षमाखण्डनायकः // 24 // इत्यादियुक्तिभिर्लक्ष्मसेनश्चेत्तव नायकः / बुध्यते सुन्दरं तर्हि न चेत्तदऽतिसुन्दरम् // 25 // न्यायसेतुं बलोसिक्तो नदीपूर इवाऽथया / भिचैति त्वत्पतिस्तायातु साध्यो बलस्य सः॥२६॥ उल्लंघयामो नीतिं च नच त्वत्स्वाभिवद् वयम् / असामयद्योतनं हि विशिष्टस्यापमाननम् // 27 // तन्मनागपि मा भैपीरखं गृहाणाम्मदौचितीम् / पश्यामस्त्वां स्वप्रधानकल्पं कल्पविचक्षण // 28 // इत्थं सम्भाष्य सन्मान्य वदान्यः Mole सर्ग-१८ | सूरभूपतिः। सवेग प्राहिणोचण्ड वेगं लक्ष्मीपुरं प्रति // 29 / / तेन गत्वा सूरराजयुक्तीराख्याय नैकराः / प्रबोधितोऽपि नाबुद्ध बुद्धध ांग्रही नृपः / 30 // नैमित्तिकैः प्रधानश्च सावधानैस्तदायतौ। प्रतिषिद्धोऽप्यसौ शौद्धोदनावेकाग्रमानसः // 31 // प्रयाणढक्कां // 514 // | शत्रुस्त्रीक्षोभकारिप्रतिस्वनाम् / अवीवदनिजावासान् बहिश्चादीदपजवात् // 32 // युग्मम् / / दुनिमित्तैर्दु शकुनैर्वार्यमाणोऽप्यसौ मुहुः / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 515 // जोऽपिता चन्द्रभागा कलीयपानामालक्ष्मसेनामा विद्यानां / दूतद्वारा सूरराजस्य लक्ष्मसेनं प्रति हितोपदेशः | अभिमानधनः सिंह इत्र व्याववृते नहि // 33 / / स स्थिखा बहिरावासेष्वशेषानपि पार्थिवान् / मीलयिखा निदाघेऽपि सूरं प्रत्यभ्य|पेणयत् // 34 // चलच्चञ्चलतत्सैन्याश्चीयोत्खाते रजोभरैः। सूर्योऽधात्सोमतां दन्तिदानोल्लासश्च राहुताम् // 35 // भीष्मग्रीष्मे तदा मार्गाः पंकशेषजलाशयाः / दवाग्निदग्धतृण्याश्च सैन्येः कृच्छाल्ललंधिरे // 36 / ' लूकातृष्णादिकष्टोत्थै रोगैः सैन्यजनो घनः / व्यने| शत्पथ्यऽनेशचाऽकालयात्रा सुखाय किम् ? // 37 // स्वचरैः सूरराजोऽपि तं ज्ञात्वा यान्तमु सुरुम् / रहः क्रमागतान् वृद्धमत्रिणो- | ऽमंत्रयत्तदा // 38 // तमूचुस्तेऽपि संनह्य स्वसैन्योजीविनी नदीम् / पृष्ठे कृत्वा चन्द्रभागां खावासान्देहि मा स्म भैः // 39 // सुमु. हृत सुशकुनैः सूरराजोऽपि तैः समम् / एत्य सर्वाभिसारेण तथाचक्रेऽतिविक्रमी // 40 // हास्तिकाश्वीयपादातैर्भुज्यमाना निजेच्छया। | पण्यस्त्रीव चन्द्रभागा नागात्कलुपतां क्वचित् // 41 // स्कन्धाबारेऽस्य नैरुज्यराज्यप्रमुदितो जनः / न गीष्माल्लक्ष्मसेनाद्वा कोऽप्या तंकलयं दधौ // 42 // सूरराजो लक्ष्मसेनं चरैत्विान्तिकागतम् / भट्टैईत्तस्वर्णपट्टैरवोचदिति वाचिकम् // 43 // चतुर्दशानां विद्यानां | पारदृश्वाऽपि किं नृप!। अविचारकतामेव स्वयमादृतवानसि ? // 44 // ज्ञातयोगरहस्योऽपि किं ? विवेकमपाकृथाः। ख्यातिहिं प्राप्यते तेन विना यत्नं कदाचन // 45 // अथाऽधिपत्यमचलं श्रितो लध्वीक्षसे जगत् / भ्रान्तोऽसि यच्चलत्वेन खं तेनापीक्ष्यसे लघुः॥४६॥ तद् व्यवाय इवाऽपायहेतुर्गीष्मे नरेन्द्र ! ते / युज्यतेऽयमारम्भसंरंभः क्षयकारणम् / / 47|| नष्टं न किञ्चिदद्यापि तद् व्यावर्तस्व मा मुहः / लाभच्छेदौ दीर्घदर्शी भृत्वा स्वस्य विचारय // 48 // कृपाधीबोंधिसत्यो व्याघ्राय स्खं वपुर्ददौ / तद्ध्यातुरु| चितस्तत्तेऽन्यम्म द्रोहो हृदापि न // 49 // सुदूरमीयुषोऽप्यस्मात् स्थानात्ते चलतः स्वयम् / मर्यादा स्मरतो वा रिवोद्वेलस्य का पा ? // 50 // लक्ष्मसेनोऽवदत् वीरः कीरवत् भवतां प्रभुः। वाचाटः पाटवं वाचि नाटयन्न विरंस्यति // 51 // तावत् यावदयं / / 515 // Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेटा चरित्रम् / // 516 // * लक्ष्मसेनेन गुप्तवृत्या सूरसेना परिवेषिता धृत्वा न क्षिप्वा काष्ठपञ्जरे। क्षुधातुरः पुरः कुरकणानां याचकः कृतः॥५२॥ युग्मम् // अविनीतो ह्ययं वन्हिरिवान्हाय निजं | कुलम् / अकाले भस्मसात्कर्ता भवन्नतिविचारकः // 53 // असौ विवेकी केकीव सुधारसकिरा गिरा / भूत्वा व्यालंगिलोऽप्यद्य प्राप्तो मद्वाणगोचरम् // 54 // कथं ? वासतलस्थो मां लघु द्रष्टा मयाऽधुना / लोष्ठैः पिष्टीकृतस्तुंगक्षमाभृन्मौलिवत्तिना // 55 // बलाधिकस्य मे ग्रीष्मेऽप्यारम्भोऽयं व्यवायवत् / महाभ्युदयसन्तानाधानहेतुर्भविष्यति // 56 // बोधिसच्चाराधकं मां वर्णयन् बन्दिवच्च सः / स्वजीवितार्थी शूरोऽपि कातरखं व्यनक्ति किम् ? // 57 / / त्रपा न वलतस्तेऽब्धेरिवेत्यपि न युक्तिमत् / किं ? कल्पान्तेऽस्तमर्यादो दृष्टो वार्द्धिः क्वचिद् वलन् // 58|| तद्यात सत्वरं संनाहयताऽभिमुखं युधे / सूरं स्वस्वामिन बौद्धधर्मांगीकृतयेऽथवा // 59 // इत्थं विसृज्य भट्टांस्तांस्तदानुपदिकं निजम् / हास्तिकाश्वीयपादातरथ्याभिः सहित तदा // 60 // सेनान्यमादिशल्लक्ष्मसेनः श्येनकनामकम् / संग्रामनाटकमहासूत्रधारमभंगुरम् // 61 // युग्मम् / / कल्पाब्धिनेव तेनापि जलैरिव बलैः क्षणात् / शस्राशस्त्रि कुन्ताकुन्ति शराशरि मिषाद् भृशम् // 62 // विस्तारयद्भिः कल्लोलानालोलयितुमंजसा / प्रारेभे शूरराजस्य सर्वतः सकलं बलम् // 63 // युग्मम् // सूत्थानद्धन्विभिः सादिनिषादै रथिकैरपि / भटैः श्रीसूरराजस्य स्वस्वामिजयकांक्षिभिः॥६४॥ मेषापसृत्याग्रे कृष्ट्वा घातैः पिष्ट्वा च दुःसहैः। श्रान्तं तृषार्त तद् वैरिसैन्यं दैन्यमनीयत // 65 // युग्मम् / / अबद्धकेशं तद्भग्नं विवग्नं चातिवेगतः। क्वापि व्याघुटितं नास्थाद् वेलावारीव वारिधेः॥६६।। अथाग्रसैन्यभंगेन क्रुद्धो बुद्धोपसेवकः / अस्खल्यमानप्रसरः कल्पान्तोद्भ्रान्तवातवत् // 67 // सेनान्यमादिशच्छन्नां नीत्वा सेनां निजां निशि / वैरिसैन्यं वेष्टयन्तीं न्यस्येवलयरूपिणीम् / / 68 // युग्मम् // निरुद्धवीवधासारप्र| सारं तत्तया कृतम् / प्रक्षीयमाणप्राचीनसंचयं क्रमशः स्वयम् / / 69 / / विगलत्पौरुष रंकीभूय भूयस्तरैदिनैः। अश्रमेणैव तेऽवश्यं सग-१८ // 516 // Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 517 // वचनम् | वश्यंभावीति चान्वशात् / / 70 // युग्मम् / / चक्रे तथैव सेनान्याऽर्द्धरात्रे गुप्तवृत्तिना। सूरसैन्यात्सुरेण नदीमुत्तीर्य धैर्यतः // 71 / / प्रातराकस्मिकं शूरः परिवेषं विभाव्य तम् / स्वस्याऽशंकिष्ट कष्टैकहेतुमुत्पातवन्नृपः / / 72 / / प्रत्युपन्नमतीन राज्यमूलस्तम्भानसा सद्धर्माच्चावथ / आह्वाय्य मंत्रिणः कृत्यं सामन्तादींश्च पृष्टवान् // 73 // तेऽप्यूचुर्देव देवेज्यमप्यतीत्याऽद्य वर्त्तते / शेमुषी लक्ष्मसेनस्य विरश्च-| लयितु स्याप्यगोचरे / / 74 / / सप्तांगस्यापि राज्यस्य सम्प्रत्युत्कर्षमीयुषः / बलेनानेन भूपालाश्चक्रिरे कति नाबलाः ? // 75 / / सर्व बलवतः | सूरराज *प्रति मत्रिपथ्यमिति तथ्यं वचो यतः / अकालयात्राप्यस्याऽभूत्कालयात्रेव पुष्टिकृत् / / 76|| नचेदिदमगात्कल्ये बलमस्यातिविव्हलम् / भग्न मण्डलस्य | मद्य कथं स्वस्य वेष्टनायोदयच्छत ? // 77|| युग्मम् / / धीरत्वसाहसोत्साहप्रज्ञाविकमशक्तिभिः / नवं प्रयुज्य षाड्गुण्यं विजेता दैवमप्ययम् / / 78|| तदनेन समं युद्धेऽधुना प्रत्याशमागते / युध्यते चेत्तदा सैन्यक्षये स्वस्य क्षयो ध्रुवः / / 7 / / स्वत्राणौपयिकं सम्प्रत्येतत्संश्रय एव वा / प्रतिग्रहोऽथवा पक्षपातिनो दैवतस्य ते // 80 // जितकासितया लक्ष्मसेनस्तु भवता समम् / न योद्धा सिद्धकार्यत्वात् कर्त्ताच्छादनिकामपि / / 81 / / निरुद्धवीवधासारप्रसारं कटकं तव / पिपत्स्यते क्षुधाक्रान्तं मिलिष्यत्यऽहितस्य वा // 82 / / एकश्चटकवत्ताभ्यन् व्याधस्येव रिपोर्भवान् / ततो वशे स्वयं याता मानतस्तमनाश्रयन् / / 8 / / भृत्वा निरभिमानस्तदेनं सत्वरमाश्रय / स्वस्य | क्षेमकरं देव दैवतं वा प्रसादय / / 84 // मुख्यैरमात्यैः सामन्तैस्तैरित्यभिहिते हिते। विमर्श नाटयामास राजा हस्तांगुलीभ्रमैः / / 85 / / * | प्रत्युचिवांश्च तानेवं मद्राज्यक्षेमकांक्षिभिः / युष्माभिर्युक्त एवोक्तो मंत्रोऽयं मंत्रवेदिभिः / / 86 / / किन्तु कल्पद्रुमादिभ्योऽप्यपि च. क्रित्ववैभवात् / इन्द्रत्वादपि मानुष्यजन्मकोटीभिरप्यलम् / / 87 / / दुःप्रापस्य मुक्तिलक्ष्मीपरीरम्भफलस्य च / कर्मनिर्मूलनकलालंक- // 517 // मीणक्रियस्य च / / 88 // निकलंकस्य सकलधर्मचूडामणेरहम् / कथं ? श्रीजिनधर्मस्य कलंक रोपयेऽधुना / / 89 / / कथं ? नित्यमकी Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश चरित्रम् / सूरराजस्य प्राणात्ययेऽपि धर्मपरावर्तन निषेधः श्रीश्रमम भातेश्च पटहं स्वस्य घोषये / मिथ्यात्वहेतोधर्मस्य संश्रयादैवतस्य वा // 10 // च० क०॥ तत्वांगीकृतधर्मस्यावश्यं प्रेत्योपकारिणः।। रक्षार्थ यान्ति चेद्राज्यप्राणास्तद्यान्तु कात्र भीः // 9 // काऽस्था ? विवेकिनां प्राणेष्वद्यश्वो वा यियासूषु / राज्ये च दुर्गतिफले // 518 // करिकर्णचलाचले / / 92 / / अभूम सार्वभौमाश्च नैककृखो वयं भवे / धर्ममहत्प्रणीतं तु नासेदिम सुदुर्लभम् / / 13 / / श्रुत्वेति कुपिताः प्रोचुर्मत्रिणः पितृमूर्तयः। राजन्न युज्यते तेऽर्हद्धर्मस्यैवं कदाग्रहः // 9 // भिन्नः किमहतो बुद्धो? बुद्धाद्वाऽहंस्ततो भ्रमः / वृथैव | | तेऽसौ स्वानर्थहेतुः केतुरिवोद्गतः // 95|| धर्मश्चेदस्ति सत्यस्ते वीतरागश्च देवता / तत्त्वां कष्टादतः स्पष्टात्त्रायतेऽधुना किमु ? / / 96 / / | राजाऽथ मन्त्रिणोऽवादीद् वादीवाऽऽक्षेपदक्षधीः / धिग् वो बुद्धाहतोः काचमण्योरिख समाशयान् / / 97 / / अस्त्येव मुक्तिकद्धम्मोऽर्हतः | सोऽपि विमुक्तिदः। तयोराराधनं पुंसामपि केवलमुक्तिदम् // 98 / / निग्रहानुग्रहौ चेत्तौ कुर्यातामहिते हिते / विरुध्यते तदाऽवश्यं मुक्त्येकमयता तयोः // 99 / / इष्टानिष्टफलोगस्तद्भक्ताभक्तयोस्तु यत् / शुभाशुभैव तन्नूनं वासना तत्र वीजति // 300 // अथो मि| थोऽश्रुक्लिन्नाक्षाः सामन्ताः सचिवा अपि / प्राहुः स्म धर्मग्रहिलो राज्यं हा नाशयन्नृपः // 1 // भवितव्यं भवत्येव यदेवमवमन्यते / अस्मान् भृतात्तवन्नव ग्रहं मुश्चति भृपतिः // 2 // ततस्तद्वचसा राजा राहुणेवातिपीडितः / क्षणं वैवर्ण्यमापन्नश्चक्रे सत्यापनामिति // 3 // अर्हन्तः सन्ति यद्याप्तास्तद्धम्मोऽस्ति शुभो यदि / सम्यक्त्वमस्ति चेद्धर्ममूलं स्वर्गापवर्गदम् // 4 // शासनानां प्रधानं चेदस्ति जैनं च* शासनम् / व्यक्तो व्यतिकरेऽमुष्मिन्नस्तु तन्महिमा ततः / / 5 / / युग्मम् / / अत्रान्तरे च सौधर्माधिपतिर्भारती भुवम् / पश्यन्नवधि| नाऽद्राक्षीच्छ्रीसूरस्य महिपतेः / 6 // परमार्हतधुर्यस्य सम्यक्त्वेऽतिदृढस्य च / लक्ष्मसेनेन तं ताथागतेनाकारणद्विषा // 7 // बलोसिक्तेन | विहितं सैन्यरोधं समन्ततः / मनःक्षोभं च सामन्तमत्रिभिर्विहितं मुहुः // 8 // त्रि. वि० / / प्राणान्तिकोपसर्गेऽपि स्थैर्य श्रीजिनशा- | सर्ग-१८ 518 // Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सने / प्रेक्ष्य सूरस्य देवेन्द्रश्चित्तेऽत्यर्थ चमत्कृतः // 9 / / प्रतिग्रहेऽस्य सानीकमनीकाधिपतिं निजम् / नगमेषिणमादिक्षदविलक्षम॥५१९।। | रिक्षये // 10 // युग्मम् / / सोऽथ स्वसेनया व्योम्नोऽवातरत् सहितः क्षणात् / वर्षन्त्या दिव्यनाराचान् वैर्यन्धकरणान् रणे // 11 // | माययेव त्रिगुणया तयावेष्ट्य द्विपद्धलम् / अवोचत्सकरोत्क्षेपमित्याखण्डलसैन्यपः॥१२॥ रे सौगतगतोऽस्यद्य लक्ष्मसेन विसंशयम् / इन्द्रसेनापतिर्यस्मादागात् सूरप्रतिग्रहे / / 13 / / यद् वीतरागवत् सूरः परसाहाय्यनिःस्पृहः। तेनाऽतिरञ्जितः शक्रः प्राहिणोदिह मां जवात् // 14 // तत्प्रणश्य रणाद् यात मा मृध्वं पशुवद् भटाः / आकण्येति लक्ष्मसेनसुभटाः प्रकटामिमाम् // 15 / / उद्घोषणां प्रण| श्यन्तः क्षोभादन्धंभविष्णवः। एत्याचख्युनिजविभोरेन्द्रीसेनां च दुर्जयाम् // 16 // युग्मम् / / स पलायिष्यति यावत्तावद् दृक्कर्मवजिंतः / बोद्धश्राद्धोगतश्राद्धो बौद्धधर्मेऽभवद् यथा // 17 // अहो आहेतधर्मस्य प्रभावो यदमुं नृपम् / साहाय्यनिःस्पृहं शक्रः सेनान्यं प्रत्यजिग्रहत् // 18 // अहं त्वेवं बौद्धधर्म सेवमानोऽपि तत्कृते / अन्धीभूतोऽपि नो देवैः प्रत्यग्राहिषि कैरपि // 19 // न्यायपक्षेऽथवा late | पक्षपातिनः स्युः सुरा अपि / सूरराजे महाजने मिथ्या वैरायिषि न्वहम् / / 20 // गत्वा तदेनं क्षमयाम्याहतं धर्ममाद्रिये / स्यां। येनात्र परत्रापि सर्वकल्याणभाजनम् / / 21 / / ध्यात्वेत्यर्ध्वमुखः शक्रसेनान्यं नैगमिषिणम् / भक्त्या प्रसादयन्नूचे देवाऽऽदिश करोमि | किम् ? // 22 // पं० कु०॥ नैगमिष्यपि तं कण्ठकुठारव्यक्तभक्तिकम् / हृतदर्प सहादाय पादचारं नभश्चरः // 23 / / उपतस्थे सूरराज विनयेन प्रणम्य च / योजिताञ्जलिरित्यूचे द्युतिद्योतितदिग्मुखः // 24 // युग्मम् / / कस्बया स्पद्धतां ? जैत्रजिननायकसेविना। भूपते ! घुपतिर्यस्य पक्षे संनद्यति स्वयम् / / 25 / / न यत्तवार्हते धर्मे स्थेमा स्थानाधिकरपि / अचालि स्वैः परैर्वापि हिताहितधियो- द्यतैः // 26 // सहस्राक्षः पूरिताक्षस्तेनानन्दाश्रुवारिभिः / त्वद्भक्त्यै मां समादिक्षद्दक्ष ! ब्रूहि करोमि किम् ? // 27 // लक्ष्मसेनः कण्ठ निश्चलता दृष्ट्वा स्वरराजसाहाव्याथे शऋणस्व सेनापतिः प्रेषित: 519 // Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 520 // पीठकुठारेण निमूलयन् / स्वागस्तरं गुरुं खां प्रत्युल्लासितमकारणम् / / 28 / / हस्त्यश्वलक्षया स्वर्णकोट्या च त्वत्पदाब्जयोः। पूजां विधाय क्षमयत्येष त्वामादृतः स्वयम् / / 29 / / युग्मम् // धम्मों जयति नाऽधर्म इत्याप न मृषावचः / इति स्वमत्रिसामन्ता जल्प|न्तोऽक्षमयन्नमुम् // 30 // स्थास्याम्यतः परं देशे त्वदादेशेन पत्तिवत् / जैन धर्म करिष्ये च दर्शितप्रत्ययं खया // 31 // इत्युल्लपन्तं श्रीलक्ष्मसेनं गुरुरिव स्वयम् / देवधर्मगुरुतत्त्वान्युपदिश्य यथाविधेः॥३२।। सम्यक्त्वं ग्राहयित्वा च सूरराजोऽथ बीटकम् / दत्वा | सत्कृत्य वस्त्राद्यैः स्वदेशायादिदेश तम् // 33 / / त्रि वि०॥ विदेहाद् विहरमाणं जिनं नत्वा यशोधरम् / अत्रान्तरे सुरेन्द्रोऽपि * तत्रागाद् विस्मयोत्सुकः॥३४॥ प्रीतः सूरनृपोऽप्येनं प्रत्युद्गम्य महासनम् / अध्यास्योवाच सुदिनमहो अद्याजनिष्ट मे // 35 / / मनोरथानामपथं मत्यैर्दुःप्रापदर्शनः / स्वयमेत्य सहस्राक्षः प्रत्यक्षत्वमियाय यत् // 36 // उद्ीर्णः सर्ववेदानां प्रणवः प्रथितो यथा। | तथाद्याऽहमभृवं खद्योगतः क्ष्माभृतां धुरि ॥३७स्वर्गापवग्गी श्रीधर्मकल्पद्रोझै फले श्रुते / साक्षाद् दृष्टं तयोराद्यमद्य बद्दर्शन च्छलात् // 38 // शक्रोऽवदद् वदत्येवं यद्भवान्न तदन्यथा / परं स्वतोऽपि खामेव धन्यं मन्यामहे वयम् / / 39 / / भगवान् यशोधरोऽ| ईन् स्वयं श्लाघां तवानघाम् / यच्चके परिपच्चके सम्यक्त्वेऽतिद्रढीयसः॥४०॥ युग्मम् // स्वातिभादिव सम्यक्त्वान्मेषाम्भोबिन्दुवच्छचिः। मुक्तात्मा तेन ते जीवो मुक्तौ शुक्ताविवौच्यत // 41 // फलं श्रीधर्मकल्पद्रोमुख्यं मोक्षं भवेत्र यत् / ख लप्स्यते तद बागां धन्यं खामीक्षितुं सखे ! // 42 / / अवोचल्लक्ष्मसेनं च रे दुराशय ! संशयम् / मा कार्कीजिनधर्मस्य फले प्रत्यक्षमीक्षिते // 4 // नटानिव रक्तपटान् पितृवंशागतानपि / मुश्चेः प्रतारकान् देशादपि निर्वास्य सत्वरम् // 44 / ज्ञानेन बामहं ज्ञाता दूरतोऽपि शठाशयम् / अयं मदीयो दम्भोलिः शासिता तु तवान्तिके // 45 // प्रमाणं मे त्वदादेश इति जल्पन्तमादरात् / स्वदेशे प्राहिणोल्लक्ष्मसेनं | जिनेश| चरित्रम् / गर्वोत्तारण पूर्वकं स्वीकर्ता लक्ष्मसेनः जैनधर्म सेवकत्वं च साक्षादागमन शक्रस्य भविता सग-१८ // 520 // Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 521 // * सेनासमन्वितम् / / 46 // सूरमर्द्धासनेऽध्यास्य वजी प्राह स सौम्य ! ते / प्रियं करोमि किं ? भृयः शाधि साधितदुर्मत ! // 47 // *सरोऽपि प्राञ्जलिः प्रोचे धर्मबाधानिवारणात् / त्वया तत्कृतमेवाऽतः किं ? प्रियं मे यदर्थये // 48 // तथापि जैनधर्मस्योन्नत्या | नित्यापितश्रिया / वं देवराज ! निर्व्याजं स्वसम्यक्त्वमलंक्रियाः॥४९।। धर्मोपरि / अस्तुंकारस्तद्वचसः स्वप्रश्नालापपूर्वकम् / जगाम धाम सेनान्या सहितः खं दिवस्पतिः // 50 // सूरराजोऽपि विजयी क्रमेणैत्य राजसुत मत्रिपुत्र| निजां पुरीम् / प्रविश्य नागरैः क्लुप्तोत्सवो राज्यमशाच्चिरम् // 51 // श्राद्धधर्म यतिधर्म क्रमादाराध्य साध्यकृत् / स क्षीणकर्मा संजा दृष्टान्तो |तकेवलो मोक्षमासदत् // 52 / / कथयित्वेति सम्यक्त्वकथां पुण्यप्रथां प्रभुः / दुःकर्मसूदनं धर्म यथावत् कथयिष्यति 53 // स्फूत्तिः स म्यक्त्वमन्त्रस्य कस्य स्याद् गोचरे गिराम् / दुर्विधोऽपि यया धर्मराज्या) जायते जनः॥५४॥ परिग्रहादऽनगारागारिणोरधिकारिणोः / | धर्मराज्यं द्विधा सर्वदेशतंयमनामतः॥५५॥ तत्राऽस्पृहः स्वदेहेऽपि निर्ममः खजनादिषु / भक्तिकारिण्यभक्ते च जने तुल्यमन:स्थितिः // 56 // मैत्र्यादिभिर्भावनाभिर्भावितात्मा निरन्तरम् / परीषहोपसर्गेभ्यो निभयः स्थिरसंश्रवः // 57 / / गुणैर्जात्यादिभिर्युक्तो | विनयी च क्षमी दमी / अनुशिष्टौ गुरोस्तुष्टोऽगारदारपराङ्मुखः॥५८॥ सर्वसंयमराज्यस्याधिकारी कथितो जिनः / देशसंयमराज्य| स्यागारीत्वे तद्विलक्षणः // 59 / / च०क०। तयोर्यथोक्तया नीत्या खस्वराज्यानुपालनात् / फलं मुख्य मुक्तिसौख्यं गौणं स्वर्मय॑शर्म |तु // 60 // यथाशक्ति द्वयेऽप्यस्मिन् यतते कोऽपि पुण्यवान् / राज्ञः पुत्रश्च मन्त्री च द्वावप्यत्र निदर्शनम् // 61 // यथाऽस्ति भरत-12 | स्याङ्गभूमेमोलिविभूषणम् / आमोदमन्दिरं पुष्पपुरं पुष्पावतंसवत् // 62 // श्रीपुष्पकेतुरित्यासीत् पुष्पकेतुरिवापरः / तत्र भर्ता भुवः | || प्रीतिरत्योजनका दधत् // 63 // अपूर्वा पुष्पमालेव पुष्पमालेति वल्लभा / चित्रैर्गुणैर्युक्ता सा जज्ञेऽस्याऽलिपराङ्मुखी // 64 // तयोः // 521 // Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / पुष्पसार क्षेमकर स्वरूपम् // 522 // कुमारः श्रीपुष्पसार इत्यङ्गजोऽजनि / येनाशु तापो भ्रमरहितेनाऽशमि कस्य न ? // 65 / / वाल्यानदवत्सोऽभूत् प्रभात्यागदयाऽन्वितः / सुरेन्द्रवचनात्सत्यवचनाराधनाग्रही // 66 // द्वेधा स धर्मविजयी पद्मिनीश इवाऽभवत् / शक्तिमानऽपि निःकांक्षो द्वेधा परपरिग्रहे // 67 / बभूव तस्य नव्यार्थोत्पादनप्रौढशालिनः / सुकवेरिख नान्यार्थग्रहणप्रवणामतिः // 68 // कलाचार्योपनीताश्च तस्याऽथ मकलाः। कलाः / संक्रम्य हृदयादशे चित्रं वृद्धिं परां दधुः / / 69|| श्रुतशीलबलौदायगुणैर्वथरपूपुरत् / कीत्तयों दिग्जयस्फेत्तश्चतुष्कं मूलमंगलम् / 70 / / यौवराज्यश्रियः पूर्वमकार्यत परिग्रहम् / स पित्रा नृपकन्यानामष्टानां तदनन्तरम् // 7 // शृंगारदेवतागारसोपाने यौवनेऽप्यसौ / दधौ विकारं न मधौ चूतद्रुम इवाद्भुतम् / / 72 / / सतीर्थ्यः सवयास्तस्य मित्रं मत्री च जज्ञिवान् / क्षेमंकर इति ख्यातो नियोगितनयो नयी // 73 // स्थितः सद्वृत्तः पादान्ते सरलात्माऽप्यवाप सः। गुरुत्वं विबुधश्लाघ्यं निर्विकल्पं तु कौतुकम् // 74 // | स देहे वाचि हृदये युगपन्मार्दवं दधत् / केनोपमीयतां मर्त्यजन्मना सन्मुनीन् विना // 75 / / पुरे तत्राऽन्यदा बाह्योद्याने चन्द्रोदया| भिधे / सूरिः सूरप्रभः श्रीमांस्त्रिज्ञानः समवासरत् / / 76 // अन्या कन्यामृदन्ये च सम्भाराः सृष्टिकृन्नवः / सृष्टो यैरेष रूपादिलोको|त्तरगुणोत्तरः // 77 / / भुवि दोपोदये ध्वस्ते तपसा यशसाऽस्य च / पौनरुक्त्यभयाद् धात्रा खे क्षिप्तौ रविशीतगू // 78 // भक्त्या त | वन्दितुं केचित् धर्म श्रोतुं च केचन / छेत्तु केचित्स्वसंदेहान् / केचित्तद्रूपमीक्षितुम् // 79 / / स्वर्णाम्भोजासनं पुष्पवृष्टिं गन्धाम्बुवर्षणम् / तत्रोपास्यां च देवानामपरे द्रष्टुमुत्सुकाः // 80 // अहंप्रथमिका व्यग्राः समग्रा अपि नागराः। तत्राजग्मुः सशृंगाराः सुरा इव निजद्धिभिः // 81 // त्रिवि०॥ उद्यानपालाद् ज्ञात्वेदं पुष्पकेतुनरेश्वरः। नन्तुमागासावरोधः सपुत्रः सपरिच्छदः // 82 / / उत्तीर्य | हस्तिनः सूरि वन्दित्वा विधिना नृपः / पुष्पसारः कुमारचोपाविक्षदुचितासने // 83 // कुमारेण समं तत्र प्राप्तः क्षेमंकरोऽप्यथ / न्य सर्ग-१८ // 522 // Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 523 // त्रिज्ञानिसुरप्रभमुनिदेशना पीदद् गुरुमानम्य निजस्वामिसमीपगः // 84 / / इत्थं पीयूपवर्षिण्या वाण्या मूरिरथाख्यत / अहिकामुष्मिकश्रीणां धर्म एवादिकारणम् | // 85 / / राधावेधोपमानेन मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम् / किं ? मुधा विषयग्रामचिन्तया नीयते बुधाः / / 86 / / मन्ये मौलिधृतच्छत्रच्छन्नो | पथदर्शनाः / कष्टमिष्टजनैः शोच्या यान्त्यधोऽधो नरेश्वराः॥८७॥ वारनारीकरोद्धृतैश्चामरैरिव ताडितः / विवेकदीपो हृत्सौधे भूभु जा क्वावतिष्ठते ? // 88 / / पालिध्वजालीवातालीलीलालोला क्षणे क्षणे / ब्रूने क्षणिकतां राज्यश्रीरिवोत्क्षिप्तदोलता / / 89 / / वाजिपुच्छा|ञ्चलैर्दन्तिकर्णतालैश्चलाचलैः / चलमेवाचलास्वाम्य साध्यते पृथिवीभुजाम् // 10 // कुम्भिकुम्भद्वयोत्तम्भकुचकुम्भभराकुलाः / अबलाः किमु ? रक्षन्ति भूपतीन् यमराक्षसान् // 91 // आदिमान्तिमयोरेतद् वाधकं पुरुषार्थयोः / साधकं मध्ययोरेव राज्यं त्याज्यं विवेकि| नाम् // 92 // निःसपत्नेन भोश्चिन्तारत्नेनेव नृजन्मना / साम्यं देवतमाराध्य मुक्तिसाम्राज्यमय॑ताम् / / 93 / / साम्य सबैकदेशाभ्यां | द्विधा प्रोक्तं जिनेश्वरैः / सवैकदेशत्यागेन कृतं सावद्यकर्मणाम् // 94 // चतुर्महाव्रती तत्र साम्यं स्यादऽनगारिणाम् / अगारिणां तु सम्यक्त्वसहिता द्वादशवती // 95 // त्रिविधेन त्रिधा तत्र विरतियतिनां भवेत् / चतुर्महाव्रती हिंसामृपास्तेयपरिग्रहात् // 96 / / अथवा | पञ्च समितिगुप्तित्रितयसंज्ञया। क्षान्त्यायेर्दशभिवयमेव नामभिरुच्यते / / 97 / / पापभीरुनिशाभुक्ति सम्यग्दृष्टिविवर्जयन् / भवत्यधि कृतो नूनमगारी व्रतपालने // 98 // हिंसानृतवचःस्तेयपरस्त्रैणपरिग्रहात् / देशतो विरतिया पश्चकाणुव्रतस्थितिः // 99 / / गुणव्रतानि *त्रीण्येव तत्राद्य दशदिग्गतौ / अबधेरनतिक्रान्तिः कृतस्य निजशक्तिः॥४००॥ प्रत्यहं क्रियते शक्त्या संख्या भोगोपभोगयोः / या | सैव कथ्यते द्वैतीयिक स्फीतं गुणवतम् / / 1 // तत्राऽज्ञातफलं मांसं मद्योदुम्बरपञ्चकम् / द्विदलं गोरसोन्मिथ नवनीतं तथा मधु | // 2 // तक्रं दधि द्वयहातीतं यन्ताकं पुष्पितौदनम् / अनन्तकार्य सन्धानं कुथितान्नं च वर्जयेत् // 3 // त्याज्यं चैतद् व्रतस्थेन खरकर्म // 523 // Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 524 // * विवेकिना / मलस्त्वस्य पञ्चदशकर्मादानी विशेषतः // 4 // अङ्गारशकटारामभाटकस्फोटजीवनम् / दन्तलाक्षारसकेशविषवाणिज्यकर्म जिनेश*च // 5 // असतीपोषणं यत्रपीडा निर्लाञ्छनं तथा / दवदानं सर-शोषो मलाः पञ्चदशाऽप्यमी // 6 // दुर्ध्यानस्यातरौद्रस्य प्रमादा- चरित्रम् / चरणस्य च / पापकर्मोपदेशस्य हिंसाहेत्वपणस्य च // 7 // पुष्पसार कुमार स्वशरीराद्यर्थदण्डप्रतिपक्षस्थितस्य च / त्यागादऽनर्थदण्डस्य तार्तीयं स्याद् गुणवतम् / / 8 // शिक्षात्रतानि चत्वारि तत्राऽपध्या दीक्षा नवजिनः / त्यक्तसावद्ययोगस्य मुहूर्त मुनिराजवत् // 9 // अनौपम्यस्य त्रिशुद्ध्या साम्यस्य पालनाद् भवेत् / गृहिणोऽप्यादिम शिक्षाव शात्सामायिकवतम् // 10 // युग्मम् // संक्षेपादिग्नतोक्तस्याऽध्वमानस्य दिवानिशम् / देशावकाशिकं शिक्षाव्रतस्याद् गृहिणोऽप- | रम् // 11 / / तृतीयं स्याच्चतुःपयाँ पौषधं तूपवासतः / स्नानादित्यागतो ब्रह्मचर्यादारम्भवर्जनात् // 12 // आहारवस्त्रपात्रौकःप्रदाना| दऽतिथौ मुनौ / स्यादतिथिसंविभागस्तुर्य शिक्षाव्रतं पुनः // 13 // पञ्च पश्चातिचारांचाऽमीषां सद्दर्शनस्य च / वर्जयन्नित्यशः सप्तक्षेत्र्यां भक्त्या धनं वपन् // 14 // कृपया चातिदीनेभ्यो यच्छंस्तीर्थ प्रभावयन् / गृहवास्यपि संसारवाड़िपारंगमो भवेत् // 15 // युग्मम् / / नयतेऽध्या मुक्तिपुरी सर्वसाम्यात्मकोऽद्भुतम् / अदवीयान् दवीयांस्तु देशसाम्यात्मको जनाः // 16 // तयोराद्रीयते धीरः साहसिक्यनिकेतनम् / पूर्वमेव द्वितीयं तु सुकुमारमनाः पुमान् // 17 // श्रुत्वेमा देशनां सूरेः पुष्पसारो नृपात्मजः / सर्वसाम्यमुपा-| सर्ग-१८ दित्सुराप्रष्ट पितराविति // 18 // लोकोऽयं तृणवेश्मेव जरामरणवहिना / आदीप्तः सर्वतस्तस्मात्का कष्टादवाप्यते // 19 // न चायं शक्यते विध्यापयितुं विषयामृतैः / प्रत्युत ज्वलति क्षिप्यमाणैस्तैस्तु घृतेरिव // 20 // निर्यातुमस्मात्तदनुजानीतं मां प्रियं सुतम् / / * // 524 // पितरौ विधुरौ स्नेहाद् व्याहन्तुं नाहतो युवाम् // 21 // यद्यस्ति मयि वात्सल्यं तत्प्रसद्यानुमन्यताम् / निर्गत्याऽस्माद्यथा यामि Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 525 // पुष्पसारदीक्षास्वरूपम् | लोकाग्रं क्लेशवजितम् // 22 // पौनःपुन्यादयं कुर्वन्न व्यरंसीद् यदाग्रहम् / तदा पितृभ्यामुबाष्पनेत्राभ्यामन्वमन्यत // 23 // त्यक्त्वा राज्यस्य देशस्य मोहमन्तःपुरस्य च / तत्रैव देवतादत्तोपधिनिरुपधिक्रमः // 24 // प्रवर्द्धमानसंवेगसारः संसारपारदाम् / दीक्षा कुमारः श्रीपुष्पसारः सूरेस्तदाददे ॥२५|युग्म // साम्यमत्रे श्रुतिपथं प्राप्तेऽप्याः सद्गुरोर्मुखात् / मेने कुमारः ख लोकातिवर्तिपदसंश्रितम् // 26 // अथ क्षेमंकरो भक्तिचन्द्रिकाप्रसरादिव / इत्यूचे मौलिमुकुलत्करपंकजकोरकः / / 27 / / यद्यस्ति भगवन्मेऽपि सर्व | साम्यस्य योग्यता / आशु तद्दीयतां दीक्षा क्व ? वीक्षा सद्गुरोः पुनः // 28 // श्रीमान सरप्रभः सरित्विा ज्ञानोपयोगतः। तस्य | भोगफलं कर्म देशसाम्यमुपादिशत् / / 29 / / स देशसाम्यलाभेऽपि सर्वसाम्यैकबद्धधीः। प्रतिवेशिनमात्मानं मेने मुक्तिश्रियस्तदा। | // 30 // विजहार ततोऽन्यत्राऽप्रतिबद्धः समीरवत् / मुनिना पुष्पसारेणाऽन्वितो गणधराग्रणीः // 31 // हारे प्रहारे खजनेऽरिजने | पत्तने बने / नवपिनिर्विशेषोऽपि विशेषज्ञाग्रणीरभूत् // 32 // स्वमानसान्मोहजालं धीवरस्याऽस्य कर्पतः / मन्ये त्रासात्पीड्यमानमीनो मीनध्वजो ययौ // 33 // परीषहचमू निनन्नुपसर्गाश्च हेलया / स जज्ञे यत् क्षमानाथस्तच्चित्रायाऽस्य चातुरी // 34 // तपांसि तप्यमानश्च द्वादशांगधरः क्रमात् / पुष्पसारो मुनिर्नव्योऽप्यभूच्चित्रं पुरातनः // 35|| रक्षितः पञ्चसमितिबलैगुप्तित्रये स्थितः। गुणैश्चित्रं स बद्धाक्षोप्युद्यमे मुक्तयेऽधिकम् // 36 // तथ्यं पथ्यं चेदऽवादी सिद्धं शुद्धमभुक्त चेत् / चेदऽयासीदिने पश्यन् स सिद्धान्तानुर|क्तधीः // 37 // स जडाशयदूरस्थोऽप्याश्चित्रं प्रतिमा व्यधात् / द्वादश द्वादशविधां मूर्ति विभ्रत्तपोमयीम् // 38 // द्रढिम्ना समिति वस्य तपसां महसापि च / रञ्जितेन स्तुतिश्चक्रे शक्रेणेति दिवि स्वयम् // 39 // पुष्पसारो मुनिर्नाम्ना वज्रसारस्तु तेजसा। शक्यश्चलयितुं देवैरपि नात्मव्रतस्थितेः // 40 // श्रुत्वेत्यऽश्रद्दधन्मिथ्यादृष्टिरेकः मुरस्ततः। प्राप्तः क्षमामपि प्राप्तोऽक्षमा श्रीपुरवर्तिनम् / / // 525 // Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / पुष्पसार मुनिपरीक्षा देवकृता ||526 // * // 41 // वासु तं बहिर्यान्तं ददर्शाऽथ परीक्षितुम् / चक्रेऽग्रे पथि मण्डूकीर्मक्षिकाभ्योऽप्यणीयसीः / 42 // पृष्ठतश्च व्यधान्मत्तमाप तन्तमनेकपम् / न विभेद गतिं साधुम्बीर्यासमितितत्परः // 43 // त्रि० वि०॥ प्राप्तेन हस्तिना हस्तेनो मुक्षिप्य भृतले / पात्यमानोऽपि कृपया मिथ्यादुःकृतमुगिरन् // 44 // खं निनिन्देति मयका धिग् धिग् जीवाः प्रजनिरे। तद्भाव प्रेक्ष्य देवोऽपि श्रद्दधे | शक्रवर्णनाम् // 45 // वैरिभिश्चान्यदाऽवेष्टि श्रीपुरं शरदागमे / तद्राजा जीववदर्भ मध्ये संकुच्य तस्थिवान् // 46 // कोट्टे स्थिताः श्रीपुरेशारविन्दनृपतेर्भटाः। बहिर्भटः समं काण्डखेलिकां चक्रिरेऽनिशम् // 47 // दुर्ग ग्रहीतुं नो बायैः प्रवीरप्यशक्यत। राज्यागमत एवोक्तं दुर्ग स्वस्वामिरक्षणात् // 48 // मध्ये धान्येन्धनस्नेहवारितृण्यादिसञ्चये। क्षीयमाणे नागराणां कष्टं स्पष्टं व्यज़म्भत , // 49 / / भक्षं भेक्षभुजां मध्येपुरमासीसुदुर्लभम् / पुण्यसारयतिस्तस्मात् कात्तिकीप्रतिपदिने // 50 // निगत्य गुरुणा सार्द्ध बहिः कटकमीयिवान् / तस्थौ तदन्तर्भव्यस्यावासे नन्दवणिक्पतेः // 51 // युग्मम् / / अत्रान्तरे च देवेन स परीक्षाकृते पुनः। कटकारक्षिकीभूय मुनिम्यिन्नपृच्छथत / / 12 / / आगान्मुने भवान्मध्यात् तद्वार्ता शंस काश्चन / हस्त्यश्वं रथपादातं कियच्छ्रीपुरभूपतेः॥५३॥ सञ्चयस्तृणधान्यादेरपि भावी कियञ्चिरम् / पौराः पुरावरोधाच निविनाः किमु ? वा नहि / / 14 / पुष्पसारमुनिर्भाषासमितिप्रवणः सदा / तमूचे न वयं विद्मः किश्चित्स्वाध्यायलालसाः / / 55|| अवादीकैतवनरः पुरान्तः भ्रमतां न किम् ? / अदृश्यताऽश्रूयत वा * त्वया किमपि कथ्यताम् // 56 // प्रत्यूचे मुनिरप्येवमपश्यान् पश्यतोऽपि नः / अशृण्वतश्च शृण्वानानपि जानीहि भो यतीन् // 27 // | तस्येत्थं भापासमिती दृढं तं मुनिपुंगवम् / दृष्ट्वा सुरस्य देवेन्द्रवचसि प्रत्ययोऽजनि // 58 // अरविन्दनृपो दण्डं दत्वा शत्रून्न्यवर्तयत् / पुष्पसारान्मुनेनैव व्यावर्तत सुरः पुनः॥५९॥ सोऽन्यदा गुरुणा सार्द्ध मुनिर्जयपुरं ययौ / एषणासमितो मासपारणे तत्र चाऽभ्रमत् Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 527|| केवलं लब्ध्वा मुक्तिगमनम् | // 60 // अनेषणां पुरश्चक्रे प्रतिवेश्म सुराधमः / तामलंपिष्ट न मुनिः स्पर्द्धा काप्युभयोरहो // 6 // कृत्वा सञ्चातिरेकेण सुरं तमव | कीणिनम् / स मुनिः पारणं चक्रे तद्वहिःसन्निवेशने // 62 / / भूयोऽप्यकारणद्वेषी सुरस्तं मुनिमन्वगात् / लुम्पेदादाननिक्षिपोत्स- | वेष क्रुधा खिति // 63 / / मुनिस्त्वाश्रयमागत्य विधिनालोचयेद् गुरोः। प्रमृज्य पात्राद्यादत्त दण्डकं चामुचन्मृदु // 64 // इत्थं चतु-15 र्थसमितेः पारं प्राप्ते मुनौ सुरः / चकार श्लेष्माद्युत्सर्गस्थण्डिलं कीटिकाकुलम् // 65 // उत्सर्गसमितिज्ञोऽथ सजीवं स्थण्डिलं त्यजन् / श्ल माधुत्सर्गमातेने शुद्ध तत्र मुनीश्वरः // 66 // इष्टानिष्टषु भावेषु रागद्वेषकहेतुषु / दर्शितेष्वपि देवेन नात्मारामः स तौ व्यधात | // 67 / / ग्राम्यीभूय सुरे मिथ्याजल्पं तन्वति नो मुनिः। चकार क्वापि वाग्वृत्तिसंवृतिप्रवणः सदा // 68 / / आतापनापरस्याऽन्हि | रात्रौ तूर्वासनस्थितः / नोपसगैरपि सुरः साधोः कायमकम्पयत् / / 69 / / इत्थं तत्क्रियया तुष्टः साक्षाद्भूय मुनि सुरः / इन्द्रप्रशंसामाख्यायाऽस्तावीदऽक्षमयच्च तम् // 70 // नत्वा गते यथास्थानं देवेऽथ मुनिकुञ्जरः। प्रसन्नया स्वयुयापि न लेभे मदमद्धृतम् // 71 // पञ्चप्रकारमाचारमतीचारपराङ्मुखः। आराधयन्नयं मूलाद् घातिकर्माणि जनिवान् / / 72 / / केवलश्रियमर्जित्वा दुविधानुपकृत्य सः / क्रमानिर्विग्रहो भेजे मुक्तिवेश्याभुजंगताम् // 73 // इतः क्षेमकरः पुष्पसारस्य सुहृदित्यथ / श्रीपुष्पकेतुना राज्ञा सप्रसादमदृश्यत / / 74|| राजसेवारसज्ञेन कुमुदेनेव सम्पदम् / प्रा|प्तुं तेन निजस्वामिमानसे विदधे स्थितिः // 75 // स द्वादशव्रती भंगकैरंगीकृतामपि / अप्राप्तभंगामाश्चर्य यावजीवमपालयत् // 76 // श्रावकप्रतिमा चैकादश चान्द्रीः कला इव / शंकरो निःकलंकास्ताः स क्रमान्निरवाहयत् / / 77 / / विभ्रचतुर्विधां बुद्धि विद्यां नीति च भूपतेः / मृत्तिमर्हन्निवाभ्यर्थ्यः सोऽभूद्विश्वप्रियंकरः // 78 // निजराज्यधुरां वोढुमशक्यां जीर्णमत्रिभिः / वृद्धोक्षैरिव विज्ञाय पुष्प // 527 // Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेश| चरित्रम् / RAHMAESH 528 // | मत्रिपदे क्षेमंकरो परिप्राचीनमत्रिरोषः | केतुर्नृपः स्वयम् // 79 // न्यास्थत् क्षेमंकरे मन्त्रिपुंगवे सत्कृते निजः / वस्त्रालंकरणैर्मुद्रामर्पयित्वा महोत्सवात् // 80 // युग्मम् / / आज्ञा राज्ञामनुल्लंध्येत्यादद्रे क्षेममत्रिणा / मुद्रा नत्वर्थलोभेन निलोंभेन मुनीशवत् // 8 // राजा राज्यभरं न्यस्य समर्थ तत्र मत्रिणि / | निश्चिन्तोऽभूद् विधिविश्वभरं विश्वंभरे यथा / 82 / / वाचस्पतिरिवेन्द्रस्यासुरेन्द्रस्योशना इव / क्षेमंकरो गुरुरिवाभूद् राज्ञः क्षेमक चतः / / 83 / / राज्ञः सर्वोपधाशुद्धः स नामी गुरुरप्यभूत् / चित्रं गुणास्पदं क्वापि नैवाऽप्रत्ययकारणम् // 84 // राज्ञः स वर्द्धयामास | कोशं चित्रं विना करम् / भुक्तिं च कौतुकं विद्यासिद्धवत् संगरं विना // 85 // स सिद्धदैवत इबारक्षद्देशांश्च सर्वतः / अकुर्वन् प्राणिनां प्राणदण्डनं दण्डनीतिवित् / / 86 // राजा राज्यशरीरस्याधिष्ठायकतया स्थितः / तस्याऽप्यद्वैतवृत्त्यासीत् क्षेमो मन इवानुगः // 87 // तद्बुद्धिसिद्धानर्थांश्च स्वीकुर्वन्नभवन्नृपः / अकर्ता निर्गुणो भोक्ता सांख्योक्त इव देहभृत् / / 88 // अन्तःपुरीयुवराजादयो राज्ञः स्व| काश्च ये। प्रसादवित्तकार्येव नादिसचिवाश्च ये // 89 // ये चान्ये देशराजन्याः सामान्याः पत्तयश्च ये / बभूव तेषां सर्वेषामपि | मन्त्री स वल्लभः // 90 // युग्मम् / / प्रियंकरोऽप्यप्रियोऽभृञ्जीर्णानामेव मन्त्रिणाम् / स मन्त्री चक्रवाकाणामिव पीयूषदीधितिः॥११॥ | जगत्प्रियोऽपि कस्यापि कोऽपि द्वेष्यो भवेजनः / जवाजवासकः शोषं किं ? नैत्यभ्युन्नते घने // 92 / / क्षेमकरस्य छिद्राणि विचि न्वन्तोऽपि यत्नतः। दुर्जनाः सुजनस्येव न प्रापुर्जीर्णमन्त्रिणः॥९३।। छिद्राऽप्राप्तौ च ते क्षेमपुरुषान् परुषाशयाः। द्रविणादिभि| रावय॑ चक्रुः प्रत्ययितानिव / / 94 // द्वेधा क्षेमकरनरा अप्यक्षेमकरास्तदा / बभूवुर्द्रव्यलोभेन घ्नन्ति खं च कुलं च धिक् // 15 // | तैश्चामी शिक्षिताः माभृगृहद्वारक्षितौ प्रगे। भवद्भिगूढशस्त्रीकैभ्रमितव्यमितस्ततः // 96 / / राजपुंभिधृतैर्वाच्यं क्षेमकरनरा वयम् / | तेनैव नियुक्ताः स्मो घातकत्वे महीपतेः / / 97 / / युग्मम् / / द्रव्यक्रीतैरथ प्रातस्तैस्तथैव कृते नरैः। आरक्षवद्ध पाग्रे नीतैः स्वस्याऽभयं RAE38* | सर्ग-१८ // 528 // Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 529 // ततः // 98 // याचित्वाऽऽख्यायत क्षेमंकरादिष्टा वयं तव / घातकाः स्मो महाराज ! मात्राथै संशयं कृथाः // 99 / / स्वयं दत्ताभयान्मुक्त्वा तान्नरान् सत्यवाक् नृपः। क्षेमकराय सहसा चोक्रुधीति स्म चेतसि // 500 // मन्ये राज्ञां विधिश्चक्रे नीचमेव मनोत्र क्षेमंकरोप| यत् / प्रविशन्ति सुखं नीचाः कथश्चिद् गुरवो नतु // 1 // रिनुपरोषः _____ अन्धकारी बभूवादी भिन्द्याद् राज्ञस्ततो मुखम् / पूर्व रागो हृदि स्थानं लेभे तदनु चक्षुषोः // 2 // दुर्यशः पोस्फुरीति स्म पूर्व राज्ञस्ततोऽधरः / भ्रश्यति स्म मतिः पूर्व पश्चान्मुक्तावली क्रुधा // 3 // अविचारकतां स्वस्थ व्यक्तुं पामरवन्नृपः / आह्वाय्य पत्तिभिः क्षेमकरं तूर्णमजिग्रहत् // 4 // त्वद्घातका अमी इत्यपराधं भूपतिः स्वयम् / प्रकाश्य तमपृष्ट्वैव क्रोधनो वध्यमादिशत् / / 5 / / सर्वत्र शुचयो धीरा इत्यभिन्नमुखद्युतिः / मन्त्री क्षेमकरो भूपमुपैयव व्यजिज्ञपत् // 6 // देव ! त्वत्मनुना पुष्पसारेण सह संयमम् / आददानस्त्वत्समक्षं गुरुणाऽस्मि विलम्बितः // 7 // ततस्त्वया सह मया जग्रहे द्वादशव्रती / गुरोः पाश्व न चैतां त्वत्पदेऽपि व्यराधयम् || // 8 // क्षेमकरोऽस्म्यऽहं नाम्ना क्रिययाऽपि च भूपतेः / सर्वेषामपि सत्त्वानां विशेषात्स्वामिनो तव // 9 // आकर्यैवं नृपस्तस्य वाच ||* | मायिनृणामपि / अभृद् गम्भीरवेदीव क्रुधा बोधाद्वहिःकृतः॥१०॥ विस्मार्य तस्योपकृतीभक्तीः शक्तीश्च भूपतिः / इति क्षेमकरं प्रोचे | निःकृपो निष्टुरं वचः // 11 // त्वं जानास्येव मत्सौधप्रागशोकवनान्तरे / अस्त्यऽगाधा पुष्करिणी पद्मखण्डविराजिनी // 12 // साचान्तर्मकरग्राहैर्दुस्तराऽतिभयंकरा / तदम्भोजानि नोच्चतुमलं कोऽप्यभवद् भटः // 13 / / अस्मद्राज्ये पूर्वजानां क्रमोऽयं यो जिघांस्यते / / | वापीमध्यात्समानेतुं पद्मान्यादिश्यतेऽसकौ // 14 // ततस्त्वमपि पद्मानि वाप्याः शीघ्र समानय / मंत्रिनलं विलम्बेन स्वस्यापि च // 529 // विकत्थनैः // 15 // राजा मित्र केन दृष्ट श्रुत वेति पुरातनी / वागऽन्यथा युगान्तेऽपि न स्यादित्येष निश्चयः // 16 // सोश्वासं मरणं *HHP-9-038-24998- HAHIR-1894-9. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / क्षेमकरकृत राजसेवेत्यपि विपश्चिताम् / वागऽसत्यव स्याञ्चेदं यनिरुच्छ्वासमागतम् // 17 // का चिन्ता मरणे यद्वाऽद्य श्वो वा ध्रुवभाविनि / अखण्डितश्रीजिनेशोदितव्रतततेर्मम / / 18 / मिथ्यापवादारोपस्तु मामय स्वामिना कृतः / बाधते शल्यवद् वाढं सोऽपि धर्मानुभा| वतः / / 19 / / उत्तरिष्यत्यवश्यं मे दुर्लध्यं धर्मवैभवम् / सुमनोभिरपि प्रौढेः किं ? पुनर्जड जन्मभिः // 20 // ध्यात्वेति मंत्री श्रीक्षेम- कर क्षेमकरं ततः / आराधनाविधि चक्रे साकारानशन तथा // 21 // पभिः॥ भूपोऽपि भूभुजा प्रोक्तः साक्षेप क्षेममन्त्रिराट् / | तेनैव सार्द्धमुत्थाय ययौ पुष्करिणीतटे // 22 / / स्मृत्वा पञ्चपरमेष्ठिमन्त्रं मत्रीश्वरः स्वयम् / साक्षीकृत्य लोकपालानुच्चैःकृत्वैवमूचिवान् | // 23 // त्रिविधं त्रिविधेनाऽहं पुष्पकेतुनृपे यदि / अर्हद्धर्मे च यद्यस्मि नापराधी ततोऽधुना / / 24 // प्रकटस्तत्प्रभावोऽस्तु राज्ञः प्रत्ययकारकः / इत्युक्त्वा प्राविशद् वाप्यां स विभ्रत्पटलीं करे // 25 / / युग्मम् / / जैनो धर्मो जयत्येप इत्यमात्यो चदन्नथ / मध्ये वापीजलं यावत्पदं दत्ते स्म निर्भयः // 26 // तावद् वापीतलात दूरात्पुच्छाच्छोटनकर्मणा / उच्छालितजेलरुष्णातेरप्यूष्णता हरन् / / 27 // कृतान्तक्रकचाकारस्फारदंष्ट्राग्रघर्षजैः। वन्हिज्वालैः स्वस्य नीराजनं रौद्रेषु सूत्रयन् // 28 / / दधत्क्रोधानलध्मातां शस्त्रिकामिव चानने / प्राणान् प्राणभृतां हर्तुं जिह्वां विद्युल्लतारुणाम् // 29 / / वेगेन दुर्द्धरः माक्षाद् बभूव मकरः पुरः / चक्रे हाहारवो लोकैरस्तोकैर्द्धर्मपक्षगैः // 30 // चक०|| दुर्द्धरं मकरं वीक्ष्यापतन्तं मंत्रिदुजनैः / निदर्यमुमुदे करतयाऽतिक्रान्तराक्षसः // 31 // वीक्षको स नृपो यावत्तदानीं निनिमेषदृक् / तावदेवतया धाकृष्टया क्षेममन्त्रिणः ||32|| भयंकरोऽपि मकरो नीत्वा शान्तात्मतां तदा।। | विनीतोऽश्व इवासन्नश्चक्रे पृष्टप्रदः स्वयम् / / 33 / / युग्मम् / / आरूढो मकरे तुंगक्षेत्रे क्षेमंकरस्तदा / रेजे दीप्ततमो मन्त्री धरित्रीमनुवद् भृशम् / / 34 // अधिष्ठितश्च तन्पृष्ठं गत्वाग्र नलिनीवनम् / उचित्य कमलान्याशु भृत्या पटलिकां च तैः // 35 // उत्तीर्य बाप्याः सर्ग Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 531 // क्षेमंकरस्य दीक्षा सोपानपंक्तौ मकरस्ततः / एत्य क्षेमकरः पद्मरायद् भूपतेः पदौ // 36 / / युग्मम् / / भुजोपपीडमालिंग्य राज्ञा हृष्टेन मन्त्रिराट् / स्वस्मै निगर्हमाणेन स्वयमेवमवर्ण्यत // 37 // विवेकनेत्रहीनस्य ममाप्रेक्षाविधायिनः / क्षम्यतामपराधोऽयं साधो धृय ! महात्मनाम् | | // 38 // धर्मः स्वात्यम्बुवजज्ञे शुक्तिकोश इव त्वयि / मुक्तात्मत्वाय मयि तु विषादित्वाय सर्पवत् / / 39 / / त्वया धर्मो गुणारोपाचक्रे भव्येषु मुक्तिदः / मया तु भग्नो मूर्खण दत्तोऽपि गुरुणा समम् // 40 // नासीन्नास्ति नवा भावी त्वत्समः कोऽपि बुद्धिमान् / | मजन् घटशतेन ख यच्छुप्तो बिन्दुनापि न // 41 // सहजं कालकूटस्य पीयूषं मारयेदऽपि / क्षेमकरस्तु नो सच्चान् किं ? पुनर्मां निजप्रभुम् // 42 // कार्य यथा श्रुतग्राही विनाशयति निश्चितम् / इयं वागन्यथा नैव यन्मया परवाक्यतः // 43 / / जिघांसया तेऽनपराधस्याऽसद्दोपरोपणैः / धर्मो जने निज एवाऽक्षेपि स्वात्मा च दुर्गतौ // 44 // युग्मम् / / मुहुरित्यनुतापेन मापतिः स्वमशोधयत् / अग्नि| शौच हि वसनं किं ? न शुध्यति बन्हिना // 45 / / ताड्यमानैश्च भूपेन कोपतो मायिभिनरैः / आचख्ये जीर्णसचिवः सर्वमेतद|ऽकार्यत // 46 // | क्रुद्धोऽथ क्ष्मापतिः सार्धं कुटुम्बैर्जीर्णमन्त्रिणः / विमुच्य जीवतः क्षेमोपरोधान्निरवासयन् // 47 // सत्कृत्य वस्त्रालंकारैः स्वपा श्वेऽध्यास्य हस्तिनि / नीत्वाऽऽवासे स्वासनार्द्ध निवेश्याधिकगौरवात् // 48 // प्राञ्जलिभूपतिः क्षेमकरं मन्त्रिणमब्रवीत् / सर्वेश्वरस्वमुद्रा | ते पुराऽप्यस्त्येव मन्त्रिराट् // 49 // किं ? वदान्य वदाऽन्यत्ते प्रियं कुर्वेऽधुना ततः / राज्यप्रदानमप्यल्पं भक्तनिरुपधेस्तव // 50 // |त्रि०वि०॥ त्वया नच परिव्रज्या ग्राह्या सा स्वत एव यत् / अस्ति स्वस्तिकरी मंत्रिस्तव भावयतेः सदा // 51 // राज्ञा निषिद्धेनापीत्थं | प्रव्रज्या प्रार्थि मंत्रिणा / निरन्ध्याद् वाद्धिवारीव प्रसरत् कः ? सतां मनः // 52 // युग्मम् / / बाष्पायमाणनेत्रेण भूभुजाऽनुमतस्ततः / // 53 // Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेश // 532 // द्रव्यव्ययात् तेनैव कृतनिःक्रमणोत्सवः // 53 // ज्ञाततन्मनसः सूरप्रभसूरिगुरोस्तदा / प्राप्तस्योद्यानमागत्य पाव क्षेमकरः स्वयम् // 54 / / जग्राह दीक्षा मंत्रीशः स्तुतो राज्ञा सुरैरपि / तपस्तत्वा क्रमाजातकेवलो मोक्षमासदत् // 55 // त्रि०वि०॥ ज्ञानदर्शनचारित्र- चरित्रम् / त्रयीं तनुमिम नवम् / इत्थं धर्म भजन्नंगी कर्मरोगैविमुच्यते // 56 / / घनश्रियः प्रभोरित्थं देशनामृतपुष्टिभिः / मा अमास्ति- | अममस्वा | मिगणधरायञ्चो नीरजाक्षेत्रभूमयः / / 57 / यतिधर्म श्राद्धधर्म सम्यक्त्वं च यथोचितम् / पंक्तिस्थिता ग्रहीष्यन्ति बीजबच्छस्यसम्पदे // 58 / / | दिवर्णनम् युग्मम् // सप्तपञ्चाशतो राज्ञां गणभृत्कर्मशालिनाम् / तदैवात्तसंयमानां तत्वं प्रश्नयतां मुहुः / / 59 / / सनातनस्य श्रुतस्य त्रैलोक्य| व्यापिनी प्रभुः / उत्पत्तिविगमध्रौव्यात्मिका वक्ता पदत्रयीम् / / 60 // युग्मम् / / द्वादशांगीकृतां तेषां स्वामी सूत्रार्थतद्वयैः / स द्रव्यगुणपर्यायैरनुयोगं गणं तथा // 61 / / अनुज्ञाता मूर्द्धनि चूर्णमिन्द्रानीतं क्षिपन्स्वयम् / नरामरैः क्षेपयंश्च दिव्ये नान्दीध्वनी सति // 62 / / युग्मम् / / पूर्णायामादिपौरुष्यामममस्वामिना ततः / विस्रक्ष्यते जितकान्ता देशना धर्मदेशना // 63 // चतुःप्रस्थप्रमः वर्णस्थालस्थोत्रान्तरेऽचिंतः। द्विधा सुगन्धिः कलमतन्दुलः सकलैः कृतः॥३४॥ अमन्ददुन्दुभिध्वानः खद्धवलमंगलः / तत्रेष्यति बलिः पूर्वद्वारा भूपोपनायितः // 65 // उत्क्षिप्तस्य जिनाग्रेऽस्य व्योम्न्यद्धं ग्राहितामरैः / राज्ञा तु पतितस्यार्द्ध शेष तदितरैजनैः // 66 / / बलेस्तस्य प्रभावेन प्राचीना व्याधयः क्षणात् / नक्ष्यन्ति न परोक्ष्यन्ति षण्मासावधि नूतनाः // 67 // स्वाम्यथोत्तरदिग्द्वारा निःसृत्य सहितः सुरैः / गत्वेशदिस्थिते देवच्छन्दके विश्रमिष्यति // 68|| अममस्वामिनः पादपीठस्थो गणनायकः / प्रथमो देशनां कर्त्ता द्वितीयां पौरुषी ततः // 69 / / देशनाविरते तस्मिन् गणाग्रण्यां जिनेश्वरम् / नखा सुरेन्द्रराजाद्या यास्यन्ति | // 532 // स्वस्खमास्पदम् // 70 / / षण्मुखाख्यः शिखिरथो यक्षः षभिर्भुजैः सितः / दक्षिणैः फलचक्रेषुखगपाशाऽक्षसूत्रिभिः 71 / / वामैः | Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 533 // शासनदेवी वर्णनम् सनकुलचक्रकोदण्डफलकांकुशैः / अभीदेन च तीर्थेऽस्य भावी शासनरक्षकः // 72 // युग्मम् // हरितालद्युतिदेवी विदिताख्या तु भाविनी / पद्मस्थिता बाणपाशभृद् दक्षिणभुजद्वया // 73 // कोदण्डफलभृद्युक्तव्यक्तवामभुजद्वया / अममस्वामिनस्तीर्थे रक्षाकी तपाकृता / / 74 // युग्मम् // चत्वारः सहजा एकादश कर्मक्षयोद्भवाः / एकोनविंशतिर्दैव्याः शोभिनोतिशयाः प्रभुम् // 75 / / / तारकैरिव ताराधिपतिस्तीर्थपतिस्ततः / महर्षिभिर्वृतः पृथ्व्यामममो विहरिष्यति // 76 // युग्मम् / / जघन्यतः कोटिमितरमत्यैः संसेव्यमानाहिसरोजयुग्मः। अत्यून्नतां साधुजनावनत्यार्जितां श्रियं दर्शयिता जनानाम् // 77 // अममचरिते भाविन्येवं तयोः सहजन्मनोर्लघुरमम इत्यर्हन्नेकादशाधिकतां दधत् / अधरितसुरवर्णाम्भोजस्थितिः स्वपदाम्बुजैः जगति जयिनी कर्त्ता यात्रा जनप्रतिबुद्धये // इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते अममस्वामिचरिते महाकाव्ये षष्ठभवे भाविश्रीअममदीक्षा-छद्मस्थकाल केवलोत्पत्तिसमवसरणस्थिति-धर्मदेशना-संघगणधर शासनदेवतादिस्वरूपवर्णनोऽष्टादशः सर्गः / / ग्रन्थानम् // 587 / / एकोनविंशः सर्गः। इतश्च जम्बूद्वीपस्यास्यैव भारतभूषणे / आनन्दनगरे भावी वज्रजङ्घाख्यया नृपः॥१॥ मातृदृष्टमहास्वमाख्यातचक्रादिरत्नभृत् / / स धर्ता प्रतिविष्णुत्वमर्द्धचक्रिश्रियोर्जितम् // 2 // स षष्टिवर्षलक्षायुः श्यामः षष्टिधनूनतः। ओजस्वी भरतस्यार्द्ध लीलया साधयिप्यति // 3 // नास्य मृर्त्या पृथोराज्ञा कैश्चिल्लऋयिष्यते नृपैः / समुद्रैरिव बहुलहरीभरणकर्मठैः // 4 // इतः पुर्या शुभाख्यायां द्वारवत्या // 533 // Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम 11534 // जिनेश| चरित्रम् / सुन्दरबाहु वनजंघ वासुदेवप्रतिवासुदेवयो मिव श्रिया / भावी राजा महातेजाश्चित्रं शक्तित्रयान्वितः // 5 // साक्षात् पृथ्वी च लक्ष्मीश्च तस्य लोकोत्तराकृती। उभे शुभे जनि- | प्येते वल्लभे सुरदुर्लभे // 6 // विदेहे प्राग्भवे कोऽपि राजाऽऽराध्याहतं व्रतम् / मृत्वा समाधिना भृत्वा विमानेऽनुत्तरे सुरः // 7 // च्युतस्ततस्तस्या राज्ञः प्रथमायाः समेष्यति / कुक्षौ प्रियायाः सरस इव हंसोऽब्जिनीयने / / 8 / / युग्मम् / / महास्वप्नश्चतुर्भिः सा सीर- भृजन्मसूचकैः दृष्टैनिशान्ते व्याख्यातैर्भा मोदिप्यतेतराम् // 9 // सा पूर्ण समये सूनुमनूनं शशिनस्त्विपा / प्रसोता द्वादशाहे च कर्ता धर्माभिधं पिता // 10 // विदेहे नृपः कोऽपि वैराग्यादात्तसंयमः / प्राच्यभवे स्मृतमित्रावमानोऽन्ते निदानवान् // 11 // विपद्यानशनी भृत्वाऽच्युते कल्पे सुरस्ततः / च्युत्वा तस्य राज्ञो द्वितीयदयितोदरे / / 12 / / युग्मम् // (भावी) महास्वमान् सप्त विष्णुजन्मनिवेदकान् / निशान्ते द्रक्ष्यति मुखे विशतः सुखशायिनी // 13 / / काले प्रसविता पूर्ण सा नव्यान्जसिति सुतम् / विरशैलव| सुधावैडूर्यमिव भासुरम् // 14 // तस्यापि सुन्दरबाहुरिति नाम करिष्यति / द्रव्यव्ययेन भूपालः कारयित्वा महोत्सवम् / / 15 / / धात्रीभिः पाल्यमानौ तौ पञ्चभिः पञ्चभिः पृथक् / वद्धिष्यते भावनाभिमुनेराद्यौ यमाविव // 16|| सितासितरुची प्रीत्या धर्मसुन्दरबाहुको / सङ्गस्येते मिथो बाहाविव तौ गांगयासुनौ // 17 // क्रीडयाऽपि तयोलत्ताभिघाताद्योरिख / ऋक्षवद्भाविनः कार्याक्षमा राज| कुमारकाः // 18 // तालतायध्वजौ पृथ्वीं नीलपीताम्बराविमौ / रूप्याञ्जनाद्रिवल्लीलाचलावपि धुविष्यतः // 19 // प्रौढिभवित्री | शास्त्रेषु शस्त्रेषु च तयोभुवि / विद्यावीरयुद्धवीरदर्पसर्पमहौषधी // 20 // प्राप्तौ तौ क्रीडयाऽन्येयुः पुर्याः परिसरे बरे। द्रक्ष्यतः कोशहस्त्यश्वोत्कटं कटकमास्थितम् / / 21 / / केनेदं प्रहित कस्मै विति धर्मेण मन्त्रिमः / सदाच्छायेव पार्श्वस्थः पृष्टः स्पष्टं गदिष्यति // 22 // देवेदं वनजङ्घाय भरतार्द्ध वर्णनम् सग-१९ // 534|| Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / 535 // वज्रजंघमत्रिविज्ञप्तिः महीभुजे / प्राहिणोत्प्राभृतं दण्डे क्षेमार्थी कोशलेश्वरः // 23 // श्रुत्वा सुन्दरबाहुस्तत् कोपाटोपात्प्रवक्ष्यति / दण्डोऽयं युज्यते नास्य खामिष्वस्मासु सत्स्विह // 24 // दण्डः काष्ठमयस्तस्य जरतस्तूचितोऽधुना / द्रक्ष्यामि पौरुषं सैन्यरूपदण्डग्रहोत्सुकम् // 25 // आच्छिद्य हठतः सर्वमिदमादीयतामिति / आदेष्टा पाणिमुत्क्षिप्य भटान् शौर्योत्कटान्निजान् / / 26 / / त्रि०वि० / / असन्नद्धाः कोशलेन्द्रसुभटाः शाङ्गिणो भटैः। गदायैस्ताडयिष्यन्ते पादपाः फलिता इव // 27 // सौप्तिकैरिव ते सुप्ता इवाऽचिन्तितघातकैः / ताड्यमानाः प्रणक्ष्यन्ति प्राणत्राणाय काकवत् / / 28 // हस्त्यश्वादि ग्रहीता तत्सर्व सुन्दरबाहुकः / हठात्परश्रियं वीरा गृह्णते न परस्त्रियम् // 29 // कोशलेश्वरवीराश्च कीरा इव भयाकुलाः / वज्रजङ्घाय तत्सर्वं गत्वाऽऽख्यास्यन्ति हीनताः॥३०॥ वज्रजङ्घः प्रकुपितः कृतान्त इव संसदि / | उल्लास्य भ्रूलतां भीमां धूमोर्णामिव वक्ष्यति // 31 // प्रबोधः सुप्तसिंहस्य मृगेणेव स्वमृत्यवे / अदो मदोद्धतधिया चके सुन्दरबाहुना // 32 / / आसन्नविपदः पुंसो विपर्यत्यथवा मतिः। मुरः करं स्वशीर्षेऽदाद्यन्मायो मा हरेगिरा // 33 / / तदमुं निग्रहीष्यामि सपितृभ्रातृकं नवम् / अन्तराले मामकीनप्राभृताच्छेदनाद्रिपुम् // 34 // अथैकः सचिवो वनजङ्घ वक्ता प्रसादयन् / बालचापलतोऽकारि तेन नूनमिदं प्रभो! // 35 // तत्पितुः सम्मतं नैतद्भावि त्वद्भक्तिजीविनः। आरिराधयिषुः स त्वामद्य श्वो वा समेष्यति // 36 / / अथवा प्रथमा नीतिः सामैवेति प्रभोः ततः। मामेवादिश तं येनानये सप्राभृताग्रजम् // 37 // एवमस्त्वित्युचुपाऽथ वज्रजोन सत्व| रम् / प्रहितः सचिवो गन्ता धर्मसुन्दरयोः पुरीम् // 38 // धर्मसुन्दरबाहुभ्यां सहितं तत्र भूपतिम् / प्रेक्ष्य प्रेक्षावतां मुख्यो मत्री सा| नेति भाषिता // 39 // किमिदं तव वत्साभ्यां स्वामिनो दण्डमुत्कटम् / विस्मार्य क्षीरकण्ठाभ्यामज्ञाभ्यां विदधे मुधा // 40 // नष्टं न | किश्चिदद्यापि प्राभृतं सर्वमप्यर्पय / मया सह समेत्याशु वज्रजङ्घ प्रसादय // 41 // मा भैपीरपराधं यच्छादयिष्यति पुत्रयोः / अज्ञा 1 // 535 // Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / सुन्दरबाहोरुत्तरम् // 536 // नतैव बालखोद्भवा चापलकारिणी // 42 // अथो सुन्दरबाहुस्तं वक्ता मत्रिन्निदं त्वया। स्वामिभक्त्याऽखिलं तातं प्रत्यार्यत्वेन चौच्यत // 43 // वीरभोग्या वसुमतीत्येतत्सत्यं मृषाऽथवा / सत्यं चेन्न मया वज्रजङ्घस्याच्छेदि किश्चन // 44 // ग्रहीष्ये पश्यतोऽप्यस्य सर्ववीराग्रणीरहम् / सर्वां वसुमती तत्त्वं याचसे प्राभृतं मुधा // 45 // कर्ता प्रत्युत ते स्वामी स्वराज्यं प्राभृतं मम / आयासस्तद् | वृथैवाऽयमस्थाने ते धियांनिधे ! // 46 // हत्वा त्वत्स्वामिना गोपान् बहूनाऽतिमदस्पृशा / गवेन्द्रेणाददे गोमण्डलं भोः सकलं बलात् | // 47 // अहं तु सुभटव्याघ्रस्तमेकोऽपि हठाबूथे / निहत्येतत्स्वसात्कृत्य त्रास्ये पश्य कुतूहलम् // 48 // युग्मम् / / त्रिखण्डभरतस्वाम्यं | तेनाप्तं स्वबलेन चेत् / अस्तु तद्वन्ममाप्येतत्क्रमस्तद्दर्शितो ह्ययम् // 49 // स्वरीत्या वर्तमानान्नः सहते चेत्स तद्वरम् / अथ नो तत्स|मायातु द्रष्टुमुत्कोऽस्मि तं भृशम् // 50 // धर्मस्यो| जयः ख्यातस्तत्साहाय्यान्ममापि च / युद्धे तदावयोः को वा सोढा दोर्दण्डचण्डताम् // 51 // इति तायध्वजस्योक्त्या युगपद्विस्मयं भियम् / हियं च लम्भितो मत्री सदसो निर्गमिष्यति // 52 // तेजोऽद्भूतं मनुष्येषूदियाय कथमीदृशम् / न तावदेतन्निरभिसन्धि मे प्रतिभासते // 53 // ध्यालेति वेगानिर्गत्य समेत्यानन्दपत्तने / तत्सर्व वज्रजङ्घाय स मत्री कथयिष्यति // 54 // युग्मम् / / वाचा दुःसहया तस्य क्रुद्धो मत्तेभवत्क्षणात् / प्रस्थास्यते वज्रजङ्घो न्यश्चयन् |क्ष्मां चमूभरैः // 55 // | इतः पित्रा बलदेवेनापि भ्रात्रान्वितः स्वयम् / सिंहोदर्या इव पुर्याश्चलिता तायकेतनः // 56 // जगद्भयंकरौ तौ च क्षये पूर्वापराब्धिवत् / मिलिष्यतः क्रमाद्वीरजयन्तीगजिंदुर्द्धरौ // 57 // भावी तत्सैन्यवीचिनामभ्यामर्दः परस्परम् / हस्त्यश्वरथपादातनक्रविक्रमभीषणः // 58 // ततः पूरयिता पाश्चजन्यं सुन्दरबाहुकः। द्विषद् बलाभिचारायाऽथर्वाणमिव वेदवित् // 59 // नादेन तेन श सग-१९ // 536 // Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्य सिंहस्येव श्रुतेः पथम् / प्राप्तेन शत्रोनक्ष्यन्ति त्रस्ताः सैन्या मृगा इव // 60 // आरुह्याथ रथं वज्रजङ्घः स्वान् कुक्कुटानिव / / // 537 // * सैन्यान् संस्थापयन् योद्धं धाविष्यत्यभिसुन्दरम् // 61 // मुधैवानपराधस्य स्वसैन्यस्य क्षयेण किम् / उक्त्वेति ढौकिष्येते तो हरिप्र वासुदेव| तिहरी युधे // 62 / / मिथः कोदण्डटंकारमन्त्रोच्चारमिवाथ तौ। समं जयश्रियं क्रष्टुं कर्तारौ मात्रिकाविव // 63 / / स्वयंवराया विजय- प्रतिवासुदेKel श्रियो वरणमण्डपम् / चिकीर्षु इव तो बाणवृष्टिं व्योम्नि विधास्यतः॥६४॥ धनुस्तूणीरयोरग्रपश्चाद्भागस्थयोरपि / समप्रवृत्त्याऽऽविः / | वयोर्युद्धम् कर्ता दक्षिणत्वं तयोः करः // 65 // तिरस्करिष्यते बाणैः सौर मण्डलमम्बरे / वीरव्रतं तु न तयो रणाश्रमतपखिनोः // 66 // अजय्यं | | वज्रजङ्घोऽथ ज्ञात्वा बाणैर्बलानुजम् / शक्तिप्रायैर्वपितास्तैः क्षयानल इवाद्रिभिः / / 67 // प्रत्यौविफलीकर्ता तानि सुन्दरबाहुकः / | स्वप्रमाणेमहावादी प्रमाणानीव वादिनः // 68 // पारं यियासुः सङ्ग्रामवारिधेः संस्मरिष्यति / वज्रजङ्घः पोतचक्रमिव चक्रममर्षणः // 69 // स्मृतमात्रं च तत्पाणौ तस्याशु निपतिष्यति। आराद्धसिद्धवाग्बद्धचेटकार्पितवस्त्विव // 70|| शौर्यश्रियः कुण्डलवत्करेण भ्रमयंश्च तत् / वज्रजङ्घः प्रवदिताऽऽक्षिप्य सुन्दरबाहूकम् // 71 // रे क्षीरकण्ठ ! कुण्ठवं त्यज खं भज वण्ठताम् / मृगशावो भवेद्युद्धोत्कण्ठी कण्ठीरवस्य किम् ? / / 72 / / वराककाकवच्छीर्षच्छेद्योऽसि त्वं ममामिषम् / हरन् मार्गस्थमथवा त्रातव्यः शिशुरित्यसि // 73 के | तद्विमुक्तोऽसि रे नश्य का त्रपा ते कृपास्पद ! / भवादृशा स्थास्यते न सङ्गरे भङ्गुरेण भोः // 74 / / बदिता तं महाबाहुः श्रीमान् सुन्दरबाहुकः / प्रौढंमन्य क्षीरकण्ठ इति मां मा वजीगणः / / 75 / / प्रतिपचन्द्रवद् बालोऽप्युदयाभिमुखोऽस्म्यहम् / खं तु पूर्णेन्दुवद्वृद्धिमानपि क्षयमाप्स्यसि // 76 / / काकवत्वं कृपापात्रं शिशुरित्यसि नश्य तत् / इति प्रलपताऽऽख्यायि स्वस्यैवोन्मत्तता त्वया // 77 // // 537 // धीराणां कातराणां च कपः सङ्ग्राम एव तत् / काकख केशरिखं च स एव व्यञ्जिताऽऽवयोः // 78 // किश्चयमामिपं पृथ्वी वीराणां तां Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रमम जिनेशचरित्रम् / | सुन्दरबाहुजयवृत्तान्तः // 538 // |च ते यदि / गृह्णन्तः स्युबलात्काकास्तेष्वाद्योऽभृत्स्वमेव तत् / / 79|| तवैवापक्रमः प्राप्तोऽर्थापत्या नश्य तद् द्रुतम् / शूरोऽसि यदि | तत्तण ढोकस्वालं विकत्थनः / / 80 // रथाङ्गेणाथ ते दो भृतकस्येव वल्गति / स वृथा मुश्च वैतस्य पश्यौजो माऽनुतप्स्यसि // 81 // श्रुत्वेति कुपितो वनजङ्घश्चक्र नभस्तले / भ्रमयित्वा स्फुरज्ज्वालं क्षयार्कमिव मोक्ष्यति // 82 / / वक्षःपीठं शाङ्गपाणेस्तेनाहन्ता हृदात्मनः / दुरादास्फाल्य मल्लेन मल्लस्येव रणाङ्गणे / / 83 / / चक्रतुम्बाभिघातेन मूछौं सुन्दरबाहुकः / लप्स्यते स्यन्दनोत्सङ्गे क्षीववच्च पतिष्यति // 84 // धर्ता धर्मस्तमुत्सङ्गे बलभद्रः प्रियानुजः / तद्वाष्पपूरसेकस्तु संज्ञां प्रापयिता क्षणात् / / 85 / / उत्थायादाय तचक्र हरिः सुन्दरबाहुकः / आक्षिप्य तिष्ठ तिष्ठेति वज्रजङ्घ वदिष्यति / / 86 // नूनं पुण्यक्षयस्तेऽभूधजीवितमिवापरम् / चक्रमव्यभिचारीदं| मित्रं शत्रुत्वमादधौ // 87 // अन्यस्य कस्यावष्टम्भाद्रणारम्भाद्भवान्नहि / निवृत्यापसरत्याशु पृष्टदान हन्मि नो परान् / / 88 // भाषिप्यते वज्रजङ्घो मचक्रेण मदः स मा। निःस्व ! परस्य लब्धेन धनेन किमु ? दृप्यति // 89 / / अथवा भवताऽप्येतन्मुक्त्वा मयि परीक्ष्यताम् / भन्नः पदातिः स्वाम्यग्रेऽन्यत्राविश्वास्य एव हि // 90 // तेनेत्युक्तश्चक्रपाणिभ्रमयित्वाऽथ मोक्ष्यति / चक्रं तद्वज्रजङ्घस्य मौलिं| कर्त्यति पद्मवत् / / 11 / / कबन्धो वनजङ्घस्य तदा भुवि पतिष्यति / मूनि सुन्दरबाहोश्च पुष्पवृष्टिनभस्तलात् / / 92 // उत्सर्पिण्यां तृतीयोऽयं हरिः सुन्दरबाहुकः / बन्धुः कनीयान् धर्मस्य बलस्य जयति क्षितौ // 93 // वाचं श्रुत्वेति देवानां वनजङ्घनृपाः स्वयम् / सेविष्यते हरि लोकयों ख़ुदेति स वन्द्यते // 94 / / भरतार्द्धस्य राजन्यचक्र संसाधयिष्यति / दिक्चक्रेण समं पाणौ बिभ्रच्चक्रं जयोर्जितम् // 95 / द्रष्टा सुन्दरबाहुश्च दिग्यात्रावलितः पथि / समुत्पाट्यां / नृणां कोट्या मगधेषु महाशिलाम् / / 16 / / वामेन पाणिनोत्पाट्य | तां च सुन्दरबाहुकः / तार्तीयीको हरिद्धा यावदूरू चटवलः // 97 / / स्वस्थाने तां शिलां मुक्त्वा शक्त्या विस्मापयन्नृपान् / दिनैः सर्ग-१९ // 538 // Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कतिपयैगन्ता स्वां पुरीं गरुडध्वजः // 98 / / तत्र पित्रा सीरिणा च नृपैश्चान्यैः करिष्यते / अर्द्धचक्रित्वाभिषेकः सुन्दरस्योत्सवा॥५३९॥ *न्वितः // 99 / / तदा व्योमगतैश्छत्रचामरध्वजविष्टरैः / पुरो दुन्दुभिना व्योमगामिनोद्दष्टमङ्गलः॥१००॥ सुरसञ्चारितस्वर्णाम्भो जव्याजान्महीतले / पद्माश्रयां श्रियं न्यस्यन्नममो द्वादशो जिनः // 1 // | उद्याने समवसर्ता तत्पुर्या रम्यकाभिधे / निर्मास्यते च समवसरण पूर्ववत्सुरैः // 2 // सुरासुरैः कोटिसयैः सेव्यमानो दिवानिहैशम् / रत्नसिंहासनं तत्रालङ्कर्ता भगवानपि // 3 // च. क० / / उद्यानपालकास्तूर्ण तदा सुन्दरबाहुकम् / स्वाम्यागमोत्सवेनत्य वर्द्ध यिष्यन्ति केशवम् // 4 // कोटी द्वादशरूप्यस्य सार्दास्तेभ्यः प्रदास्यति / स पारितोषिके तुष्टः क्रमोऽयं सर्वशाह्मिणाम् / / 5 / / सुन्दरो. ऽथ सशृङ्गारः सान्तःपुरपरिच्छदः / सह भ्रात्रा च पित्रा च पौरैपि महद्धिभिः // 6 // हस्त्यारूढो धृतच्छत्रो वारस्त्रीधूतचामरः / हृष्टः | समवसरणे प्रभुं वन्दितुमेष्यति // 8 // युग्मम् / / तत्रोत्तीर्य करिस्कन्धाद्विहिताभिगमो हरिः / वन्दित्वा विधिवनाथमनुशक्रं निवेक्ष्यते // 8 // मनुजत्वादिसामग्री स्वामी बोधिं च दुर्लभाम् / प्रकाश्य कृत्यं सुयतिश्राद्धधर्म गदिष्यति // 9 // प्रभोर्देशनया बुद्धाः | साधुधर्म धना जनाः / प्रपत्स्यन्ते सुन्दरस्तु सम्यक्त्वं श्राद्धतां बलः // 10 // इति जिनमममं निषेव्य भक्त्या प्रमदवलेन बलेन चान्वितः स्वाम् / पुरममरपुरीमिवाप्तशोभा हरिरथ सुन्दरबाहुकः प्रवेष्टा // 11 // अममचरिते भाविन्युत्सर्पिणीकथितात्मनां प्रतिहरबलश्रीकृष्णानां जिनागममध्यतः / चरितमममस्योञ्चैः काले जिनस्य भविष्यतां किमपि गदितं सुश्रोतृणां प्रमोदविवृद्धये // 12 // इत्याचार्यश्रीमुनिरत्नविरचिते श्रीअममस्वामिचरिते महाकाव्ये अममसमयभावि तृतीय प्रतिबासुदेव 'बलदेव-वासुदेव-चरित्रवर्णन एकोनविंशः सर्गः // ग्रन्थानम् // 11 // // 539 // Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 540 // विंशः सर्गः। जिनेश चरित्रम् / ततो विहृत्य चम्पायां पुर्यां प्राप्तो जिनेश्वरः। नन्तुं श्रीपद्मराजस्य सपौरस्येयुषो मुदा // 1 // इत्यादेष्टा यतिधर्मश्राद्धधर्मश्च मुक्तये / विवेकवद्भिः कर्तव्यः सम्यग्दर्शनपूर्वकः // 2 // युग्मम् // अशक्तैस्तदनुष्ठाने पुनः पश्चनमस्कृतिः / अधीत्यावश्यमाराध्या सदा साध्यार्थसिद्धये // 3 // साध्यौ स्वर्गापवर्गौ च धर्मो बीजं तयोः पुनः / तस्यापि श्रीनमस्कारस्ततस्तत्रैव यत्यताम् // 4 // नम-la, स्कारात्सर्वपूर्वोद्धाराद्धपोऽरिमर्दनः / यथाऽऽसदत्पुरा बोधं धर्म स्वर्गापवर्गदे // 5 / / अवन्त्यामभवद्राजा नाम्ना स्थानाऽरिमर्दनः / तत्प्रिया धारिणी कामप्रियासारूप्यधारिणी // 6 // श्रीमांस्तत्रावसज्जैनो धनः पुण्यजनाग्रणीः / अभूतां तस्य पद्मश्री बुद्धिश्रीरिति वल्लभे // 7 // गुणगौरोऽपि वर्णनाभिधानेन च कालकः / आसीत्तद्नेहसंवासी जन्मतः शुनकोऽस्तु सः॥८॥ बढाश्यऽप्यल्पसन्तोषी सनिद्रोप्याशु चेतनः / शूरोऽपि स्वामिनो भक्तः सोऽभून्मूकोऽपि बुद्धिमान् // 9 // अन्यदा स धनोऽचालीद्यात्रायां पयसां निधौ / लाङ्गलं चालयन्नुच्चैस्तेन सार्धं चचाल सः // 10 // ततस्तमूचे बन्धुभ्योऽप्यधिक कालकं धनः / वं तिष्ठ पश्चात्कल्याणिन् ! विश्वासोऽन्यस्य मे नहि // 11 // रक्षणीयं त्वया गेहद्वयं कान्ताद्वयं च मे / मित्र मत्री च पुत्रश्चाव्यभिचारी त्वमेव यत् // 12 // पुत्र सर्ग-२० | वच्च तदादेशं प्रतीच्छन् शिरसा नतः / धनस्य संस्पृशन्नहिद्वयं ज्ञापितवानयम् // 13 // प्रेयस्योरपि तं बन्धुसाक्ष्यमाख्याय यामिकम् / वेलाकूलं धनो गत्वा पोतेन प्रास्थिताऽम्बुधौ // 14 // त्रिसन्ध्यं कालकोऽप्यस्य कञ्चुकीय प्रियाद्वयम् / गेहद्वयं चावहितः // 540 // प्रत्यहं प्रत्यजागरीत् // 15 // तिलपेषकवद्दधे बुद्धिश्रीस्तु कुशीलताम् / खलार्थिनी कालकं च तिलवत्पेष्टुमैहत // 16 // कालकोऽपि Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 54 // नमस्काराराधनोपरि अरिमर्दनदृष्टान्तकथनम् | जागरूकः प्रवेशमपरस्य न / दत्ते स्म पुंसः कोकूयमानो यामिकवन्मुहुः // 17 // पद्मश्रीस्तं गृहे प्राप्तं संज्ञयाऽवारयदरम् / अगण्यमा नस्त्वं कस्मान्न मौनेनाऽवतिष्ठसे ? // 18 // विरुद्धयाऽनया दैवहतया मारयिष्यसे / न व्यरंसीत्तथाप्येष स्वामिभक्तशिरोमणिः // 19 // | युग्मम् / / विश्वस्तस्यान्यदा तस्य गृहद्वारे निषेदुषः / पापानपेक्षिणी पापा बुद्धिश्रीवैरिणीव धिक् ॥२०॥अत्यन्तोष्णं कलकलायमानं वह्निरूपिणम् / वेगानिक्षिप्य निश्रावमधाक्षीसंमुख मुखम् / / 21 / / युग्मम् // व्यथाः करुणं क्रन्दन् कालः पद्मश्रियो गृहे / ययौ तयाऽपि सदयमयमाश्वासितो गिरा // 22 // मया खं वार्यमाणोऽपि यत्सौम्यास्या गृहेऽगमः / तत्तेऽवश्यमुदीर्णानि पूर्वकर्माणि भोस्ततः // 23 // विमुच्य तत्त्वं क्लीबत्वं कुरङ्गारित्वमाश्रयन् / कर्मभ्यः कुप्य शत्रुभ्यस्तस्यै मा तु मनागपि // 24 // आराधना | कारयित्वाऽनशनं कारितस्तया / उक्तश्च भो नमस्कारं सारं मनसि चिन्तये // 25 // नमस्कारमनस्काराद्वैरसंस्कारवर्जितः / स्मृत्वाऽभूद्देवलोके महद्धिः प्रथमे सुरः // 26 / / उत्पन्नमात्रस्तत्रायं वकृतं सुकृतं स्मरन् / ple ददर्शावधिना पूर्व भवं पूर्वतरं तथा // 27 // पद्मश्रिय नमस्कारामृतदानोपकारिणीम् / आराद्धं चलितः सोऽब्धौ पोतगं धनमैक्षत | * | // 28 // तस्याग्रेऽदर्शयच्चायं स्वं कृत्वा कालकाकृतिम् / दध्यौ धनोऽप्यसावागात्कथं ? नु जलधाविति / / 29 / / रूपं दिव्यं स्वमादर्य कालकोऽपि धनाग्रतः / सर्व वृत्तान्तमाख्यायाऽकथयत् प्राग्भवं निजम् // 30 // अहं शैलपुरे मिथ्यादृष्टिरासिषि पण्डितः / त्व-| प्रिये साम्प्रतं ये स्तस्ते मेऽभूतां तदा प्रिये // 31 // भवे प्राच्येऽपि पद्मश्रीः सुशीलाऽभून्मम प्रिया / बुद्धिश्रीस्तु कुशीला धिक् | | पूर्वाभ्यासः सुदुस्त्यजः // 32 / / दृष्टप्रदोषा दोषावजानतेव मया लघु / ताडयित्वा करविश्वादिवाक्षेपि गृहान बहिः // 33 // पद्मश्रीरेकदा गेहे पक्त्वा रसवतीं पराम् / अदत्वा गृहदेवेभ्यो मह्यं च पतिदेवता // 34 // प्राप्तेभ्यो भिक्षितु जैनतपखिभ्योऽतिभक्तितः / // 541 // Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 542 // अदत्त तुष्ट्या परया श्रद्धासत्कारपूर्वकम् // 35 // युग्मम् // मयाऽपि मिथ्यादृष्टित्वादुर्द्धरक्रोधवह्निना। अदाहि दुर्वाक्ज्वालाभिः | जिनेश| करालाभिरसौ भृशम् / / 36 // ततः साऽनशनं कृत्वा मृत्वा सद्वंशजा तव / पद्मश्रीरभवत्कान्ताऽपराप्यन्ते स्वगर्हणात् // 37 // ते | चरित्रम् / उभेऽपि मत्कान्ते जाते मृत्वा तव प्रिये। प्राचीनजन्मसंस्कारानुवर्तितगुणान्विते / / 38 // अहमप्यात्मपाण्डित्याभिमानग्रस्तमानसः। पद्मश्रीबुद्धि श्रीस्वरुपम् मृत्वाऽभूवं सारमेयस्तबामेयगुणौकमि // 39 // ततः प्राक्तन एवायं रागः पद्मश्रियो मयि / बुद्धिश्रियस्तु विद्वषो विशेषोपचितोऽजनि 40 // पद्मश्रीस्वमुखप्राप्तनमस्कारप्रसादतः / क्लीवेनापि मया देवश्रीरियं भुज्यतेऽद्भुतम् // 41 // एतां प्रत्युपकर्तुं चागच्छंस्त्वां पोतग धन ! / वार्डावदर्श देवानां चामोघं दर्शन ततः // 42 // इदं गृहाण तिलकचतुर्दशममूल्यकम् / दिव्यमाभरणं पद्मश्रियोऽपि | * |च समर्पयेः // 43 / / मम शंसेः प्रणाम चेत्युक्त्वा देवस्तिरोदधे / वेलाकूले धनोऽप्येत्योजयिन्यामाययौ क्रमात् // 44 // त्रि. वि०॥ गृहे प्राप्तः कृतातिथ्यक्रियां पद्मश्रियं प्रियाम् / भुक्त्वाऽपृच्छद्धनो गेहे कालकः किं ? न दृश्यते // 45 // पद्मश्रीः कथयामास मृतः प्राणेश ! कालकः / कथं न्विति धनेनोक्त साऽभ्यधानिजकर्मणा // 46 // धनोऽभाणीद् गृहसे किं ? जानेऽहं स यथामृतः / कथं ?* विति तयोक्तोऽसाविति वृत्तान्तमाख्यत // 47 // त्वत्प्रदत्तनमस्कारप्रभावात्कालको दिवि / देवोऽभृद्वाद्धिमध्ये च प्राक्प्रीत्याऽऽगत्य | मेऽमिलत् // 48 // प्रणामपूर्व तेनेदं चाप्यताऽऽभरणं मया / तब प्रिये ! नमस्कारोपकारं स्मरताधिकम् // 49 / / पद्मश्रिया गृहीत्वा तत्सुदिने च शुभे च भे / सर्वाङ्गीणं पर्यधायि दिव्यं विश्वकमोहनम् // 50 // अलङ्कारेण तेनैपा भूचरी सुरीव व्यभात् / पश्यन् | | सर्ग-२० |लोकोऽपि तां देव इवानिमिषलोचनः / / 51 / / लोकोक्तिपंक्तिपङ्कत्या च तदाभरणकौतुकम् / राज्ञो राझ्याश्च कर्णान्तमागाद्रागातिवृद्धि // 542 / / कृत् // 52 // अन्यदा तन्महादेव्या प्रेष्य दासीमयाच्यत / पद्मश्रियाऽपि सा नोचे दिव्यमाभरणं बदः // 53 / / मत्तोऽन्या परिधातुं Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 543 // भरणं नो शक्नोतीति निवेद्यताम् / महादेव्याः स्वामिनां हि क्षेमकायैव युज्यते // 54 // युग्मम् / / गत्वा दास्यपि पद्मश्रीप्रोक्तं राज्य न्य| वेदयत् / साऽपि दध्यौ वणिग्योषा मद्भयादुत्तरं व्यधात् // 55 / / निषेधद्विगुणोद्भूताग्रहग्रहिलचेतसा / महादेव्याऽशंसि राज्ञस्तदिच्छा | प्रत्यर्पित पूत्तये स च // 56 / / आनाय्य मन्त्रिणा तस्यास्तदाभरणमार्पयत् / भर्तुः प्रसादः कान्तानामाज्ञाकृत्यैव सूच्यते // 57 / / युग्मम् / / पर्य * राज्ञा दिव्या धात्कोतुकात्तच्चाभरणं भृपतेः प्रिया / दिव्यशक्त्याऽगमञ्चास्याः सङ्गि नागपाशताम् / / 58 // सर्वाङ्गं फणिफूत्कारदारुणाङ्गीमृगेक्षणा।। प्रीत्यै भीत्यै च सा जज्ञे भर्तुश्चन्दनयष्टिवत् / / 59 // राज्ञोऽशंसि समीपस्थरिदमाभरणं प्रभो! / धनप्रियायै देवोऽदात्तुष्टः पद्मश्रिये कपद्मश्रियः | स्वयम् / / 60 // आदिष्टं च सुरेणास्याः कामिन्या न त्वदन्यया / परिधेयमिदं देवी संविदानाच्च पर्यधात् // 61 // निरीक्ष्य दक्षो | राजापि दृष्ट्या निपुणयाऽथ तद् / देवताधिष्ठितं मेने मनस्याभरणं धिया // 62 // नृपस्ततो धनं पद्मश्रियं चाजूहबजवात् / ऊचे चाभ| रणं स्वीयमिदमादीयतां द्रुतम् / / 63 / / पद्मश्रीस्तन्नमस्कारसमुच्चारणपूर्वकम् / उत्तार्य देहतो राज्ञी प्राज्ञी चक्रे गतव्यथाम् // 64 // परमेष्टिमहामन्त्रप्रभावात्कान्तकान्तिमत् / दिव्यमाभरणं जज्ञे सर्पोपद्रववर्जितम् / / 65 / / राज्ञा कौतुकित्वेनाथ धनोऽपृच्छयत भोः कथम् / कुतो? वाऽऽभरणं प्राप्तं त्वयेदमिति कथ्यताम् ||66 / / धनेनापि यथावृत्तं सर्वमामूलचूलतः / राज्ञो न्यवेदि तेनापि विस्मयं | दधता हृदि // 37 // चमत्कारो नमस्कारमन्त्रस्याऽलौकिकः श्रुतः। निषण्णानां पुरोऽस्तावि भावितेनेति पर्पदि // 68 युग्मम् // विषधरज्वरदुर्द्धरशाकिनीग्रहसुरासुरविवरचैरिणाम् / दलितविप्लवमाप्तकृतस्तवं जयति पञ्चनमस्कृतिवैभवम् // 69 / / तदा प्राप्तः श्रीति-| | लकचन्द्रसूरिगुरुबहिः / उद्याने तन्नियुक्तेन नरेणाऽज्ञापि भूपतेः // 70 / / महद्धया तत्र राजाऽपि गत्वा तं विधिनाऽनमत् / पप्रच्छ | // 543 // नमस्कारमहामन्त्रस्य वैभवम् / / 71 / / ज्ञानत्रयादित्यबन्धुरप्यनेकान्तदेशकः / मूरुिचे नमस्कारमहिमानं जिनैरपि // 72 // पार्यते Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम // 544 // जिनेशचरित्रम् / अममस्वा| मिपरिवार कथनम् वचसा वक्तुं नानन्तस्तारकाध्ववत् / तथापि कथ्यते कश्चिद्विपश्चिच्चित्तहर्षकृत् // 73 / / युग्मम् // आकर्षन मुक्तिकान्तां सुरपतिकमलां | | दुर्विधस्यापि वश्यं कुर्वन्नुच्चाटयंश्चाशुभमथ रचयन् द्वेषमन्तद्विषां च / तन्वानः स्तम्भमुच्चैर्भवभवविपदां किश्च मोहस्य मोहं, पुंसस्तीफैशलक्ष्मीमुपनयति नमस्कारमत्राधिराजः / / 74 // श्रुत्वेति तन्मुखाद्भूमिवासवो धर्ममार्हतम् / अच्युतं श्रीपरिष्वङ्गमङ्गलाश्रयमाश्रयत् | // 75 // श्रुत्वेत्यममनाथेनाख्यातं पश्चनमस्कृतेः / प्रभावं पद्मराजाद्याः सभ्या शुद्धक्रियार्थिनः // 76 // केचिद्दीक्षा ग्रहीष्यन्ति श्रावकलं च केचन / सम्यक्त्वं केचनान्ये तु पाठतः पञ्चमङ्गलम् / / 77 // श्रमणानामष्टषष्टिसहस्री शुद्धचेतसाम् / श्रमणीनां लक्षमेकमष्टशत्या | समन्वितम् // 78 // शतान्येकादश चतुर्दशपूर्वभृतामपि / अष्टचत्वारिंशच्छती त्वधिज्ञानशालिनाम् // 79 // मनः पर्ययिणां पञ्चसहस्त्री * पश्वशत्यपि / एतावत्येव सङ्ख्यातिः केवलज्ञानिनामपि / / 80 // स्फुरद्वैक्रियलब्धीनां सहस्राणि तथा नव / बादलब्धिमतां त्रीणि सह स्राणि द्विशत्यपि / / 81 / / लक्षद्वयं श्रावकाणां सहस्ररष्टभियुतम् / चतुर्लक्षी श्राविकाणां चतुस्त्रिंशत्सहस्रथपि // 82 // द्विवर्षोना पञ्चदशाब्दलक्षाः केवलात्परम् / अयं भावी परीवारः पृथव्यां विहरतः प्रभोः ॥८शाषकु० // विज्ञाय स्वस्य निर्वाणमासन्नमममप्रभुः। ततो यास्यति समंतसंमित पर्वतं गुरुम् // 84 // षड्भिः सहस्रैः साधूनां सह तत्र जिनेश्वरः। मासं यावदनशनं शुक्लध्यानी ग्रहीष्यति // 85 / / स्वासनानां प्रकम्पेन ज्ञात्वा मोक्षक्षणं प्रभोः / सुरासुरेश्वरास्तत्र सर्वेऽप्येष्यन्ति सत्वराः // 86 // जिनेश्वरं प्रणम्यते तत्पादा. |न्तेऽतिभक्तितः / स्थित्वा मुखेन्दोः पास्यन्ति ज्योत्स्ना दृक्शुक्तिभिश्चिरम् // 87 / / आषाढकृष्णसप्तम्यां मासान्ते पौष्णगे विधौ / पर्यङ्कस्थः काययोगे बादरे स्थास्यति प्रभुः // 88 / / तत्स्थो रोत्स्यति वाकचित्तयोगावथ स बादरौ / स्थितः सूक्ष्मे काययोगे काय-| | योगं च बादरम् // 89 // सूक्ष्माङ्गयोगभृद्योगी सूक्ष्मौ वाक्चेतसोरपि / रुवा ध्याता सूक्ष्मक्रिय शुक्लध्यानं तृतीयकम् // 90 / / रुद्धा रतावत्येव सङ्ख्याति कवितामपि / अष्टचत्वारिंशच्छता वाहस्री शुद्धचेतसाम् / श्रमणीना सर्ग-२० // 544 // Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 545 // अममस्वामिनिर्वाण महोत्सव स्वरूपम् | सूक्ष्मकाययोगमप्युत्सनक्रियं प्रभुः / ध्याता ध्यानं शुक्ल तुर्य पञ्चहखोक्तिकालयुक् // 11 // विना बन्धमूर्ध्वगामी यास्यत्येरण्डबीजवत् / अममः सिद्धिसौधेऽर्हन् स्वभावऋजुनाचना // 92 // नित्यं सौख्यं प्रभोस्तत्र संप्राप्तस्य प्रभावतः / सौख्यास्वादस्तदा भावी नारकाणामपि क्षणम् // 93 // षट्सहस्री च साधूनां प्रपन्नानशनं समम् / प्रभोरेवाधना गत्वा मुक्तिमानन्दमाप्स्यति // 94 // कौमारव्रतयोः पञ्चदशलक्षाः पृथक् प्रभोः / राज्ये त्रिंशत्समानामित्यायुः षष्ट्यब्दलक्षभृत् // 15 // श्रीसुव्रतस्य निर्वाणादममस्वामिनिवृतिः। भविष्यति व्यतीतेषु नवसवेषु वादिषु // 16 // समं सुरेश्वरैर्मत्यैश्वरैश्चास्तोकशोकतः। शक्रः संक्रन्दनाख्यां खां क्रन्दन सत्यापयिष्यति // 97 // गोशीर्षचन्दनधोभिनन्दनाद्याहृतस्ततः / सौधर्मेन्द्रश्चितायुग्मं नैऋत्यां कारयिष्यति // 98 // क्षीरोदवारिभिदेहं प्रभोः संस्नप्य वासवः / स्वयं विलेपनैर्दिव्यैर्विलिप्य च सुगन्धिभिः // 99 // नव्ये दिव्ये परिधाप्यांशुके शोकेन विक्लवः। सुरैः कृतायां नव्यायां शिविकायां निधास्यति // 100 / युग्मम् // कृतस्नानादिकृत्यानि श्रमणानां वपूंषि तु / शिविकासु निधास्यन्ति | नव्यास्वन्ये दिवौकसः // 1 // स्वामिनः शिबिकामिन्द्रः स्वयमुत्पाटयिष्यति / अश्रुपूर्णक्षणः साधुशिबिकास्तु मरुद्गणः // 2 // गन्धाम्भोभिः समं बाष्पाम्भोभिः सिञ्चन्ति भूतलम् / पुष्पाब्दवच्च कुर्वाणे पुष्पवृष्टिं मरुद्गणे // 3 // वादयत्सु पुरो वाद्यान्यनवद्यानि केषुचित् / तन्वानेषु च देवेषु के चित्ताण्डवं नवम् // 4 // रागैनवेनवर्गायत्स्वेकेष्वहद्गुणावलीम् / अपरेषु स्तुवत्सूच्चैः सोल्लासं बन्दिवृन्दवत् // 5 / / शिविका वस्त्रपुष्पाद्यैरर्चयत्सु च केषुचित् / तालरासांश्च देवीषु ददतीष्वभितो मुहुः // 6 // जगत्तातस्य विरहे स्वामिनो बालकेष्विव / केष्वप्यमन्दमाक्रन्दमातन्वत्सु बृहत्स्वरम् // 7 // इन्द्रश्चितान्तिके नेष्यत्यर्हतः शिविकां ततः / वृन्दारकगणः साधुशिविकास्त्वाकुलः शुचा / / 8 // प० कु०॥ शक्रश्चितायां निक्षेप्ता पूर्वस्यां खामिनो वपुः / अन्यस्यां तु साधुदेहान् विस्तृतायां सुखजः // 9 // | // 545 // Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेश // 546 // Y2-246392683HP*EHRAMP*8633284 5 | वह्नि वह्निकुमाराश्च निर्मास्यति चितान्तरे / वायुं वायुकुमाराश्च देवास्तस्य प्रदीपनम् // 10 // ज्वलन्त्यां स्वामिचितायां मधुसर्पिघ| टान् बहून् / क्षेप्स्यन्त्यगुरुकर्पूरभारैः सह सुराः परे॥११॥ दग्धेषु स्वामिनस्तस्यामस्थिशेपेषु धातुपु / विध्यापयिष्यन्त्यस्थीनि झगि- त्यब्दकुमारकाः // 12 / / दक्षिणाऽदक्षिणे दंष्ट्रे पभोरुन ग्रहीप्यतः / शक्रेशानावधस्त्ये तु चमरेन्द्रबली क्रमात् // 13 // दन्तानिन्द्राः परेऽस्थीनि शेषाणि तु सुरासुराः / स्वीक रश्चिताभस्म मास्तु क्षेमकालिणः॥१४॥ रत्नरहच्चितास्थाने स्थानं लोकद्वयश्रियाम् / करिष्यन्त्यमराः स्तूपं चैत्यरूपं मनोहरम् // 15 // लक्षणानां सहस्रं चाप्टोत्तरं नाम च प्रभोः / उल्लेखिष्यति वत्रेण वत्री मुक्तिशिला| तले // 16 // इति कृत्वा प्रभोर्मोक्षोत्सवं गत्वाऽथ वासवाः / नन्दीश्वरे करिष्यन्तेऽष्टाह्निका शाश्वताहताम् / / 17 / / गीर्वाणपतयस्तस्मा| सर्वेऽपि सपरिच्छदाः / गत्वा निज निजं स्थानं भोक्ष्यन्ते सौख्यमद्भुतम् // 18 // तत्र स्वस्वविमानान्तर्माणवस्तम्भवतिषु / वृत्तवत्र समुद्रेषु दंष्ट्राः क्षेप्स्यन्ति तेऽर्हतः / / 19 / / यत्पुष्पवयॆकस्तूरिकर्पूरागुरुचन्दनैः / पूजितास्ताः श्रियं दास्तेषां तजिनवैभवम् // 20 // | अथश्रीसुन्दरबाहुरप्यैश्वर्यमदोद्धतः। हरिः सदैव निःशंकः पञ्चेन्द्रियवधादिषु // 21 // वन्यो महागज इव महारम्भपरिग्रहः / विवि|क्तिमर्गलां भक्त्वा कर्ता कर्माशुभं न किम् ? // 22 / / युग्मम् / / स पष्टिवर्षलक्षायुः प्रान्ते राज्यादिमृच्छितः / पष्टीं पातालनगरी | गमिष्यति तमःप्रभाम् / / 23 / / (कौमार्ये माण्ड)लिकत्वे सहस्रा द्वादशास्य च / पृथक पृथक् वत्सराणां दिग्जये नवतिः पुनः // 24 // | एकोनपष्टिलक्षाणि सहस्राः पंचसप्ततिः / दशाग्रा च नवशती हरे राज्ये भविष्यति / / 25 / / युग्मम् / बलस्तृतीयस्तद्वन्धु धर्मःक्ष्माराज्यशर्मसु / बिरक्तस्तद्वियोगेन दमस.रमुनीशितुः // 26 / / पाश्वे प्रवज्य कर्माणि तपोभिरतिदुस्तपैः / निहत्य (शाश्वत्सौख्यार्थ) मु. क्तिदृतमवाप्स्यति / / 27 / / युग्मम् / / विहृत्यायुःपञ्चपष्टिवर्षलक्षाः प्रपूर्य च / अक्षय्यसौख्यं परमं पदं धर्मः प्रपत्स्यते // 28 // चरित्रम् / मुन्दरबाहुहरिस्वरूपं तथा कृष्णभातृबलदेव मुक्तिगमन कालकथनम् सर्ग-२० *कोनपटिलाद्वियोगेन // 546 // विहत्यायुःपन Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 547|| इतश्च बलदेवात्मा ब्रह्मलोकात्परिच्युतः / भवितोत्सर्पिणीकाले भारते राजनन्दनः // 29 // विश्रुतः स च भूपालो भावी श्रीनगरे पुरे। एकच्छत्रं चिरं राज्यं करिष्यति महीतले // 30 // श्रीकृष्णस्य पूर्वभव (बहादु)न्सर्पिणीजनेः। तीर्थेशस्य द्वादशस्याऽममनाम्नः शिवस्थितेः // 31 // प्रवर्त्तमाने सत्तीर्थे बलजीवनृपः स च / मुनिचन्द्रमुनेः पार्श्व विरक्तः प्रवजिष्यति // 32 // युग्मम् // उस्तपोभिविनिहत्य कर्माण्यवाप्य कैवल्यमयं क्रमेण / आयुश्च संवत्सरसप्तपष्टिलक्षाः प्रपूर्याऽऽप्स्यति मुक्तिलक्ष्मीम् / / 33 / / भिनत्तु दुरितावली प्रथयताद्वि(नयावली)पुनावऽममतीर्थपः श्रियमयं भविष्यन्नपि / निरस्यति निशां जगन्नयति बोधमम्भोजिनीवने दिशति | सम्पदं रविरिहाभ्युदेष्यन्न किम् / / 34 / / एतत्कुण्डलवत्सुवर्णघटितं यत्राममस्वामिनो, वृत्तं वृत्तमनोहरं निदधते कण सकाः | सदा / चित्रं नैव यदेककुण्डलकला तेषां समुज्जम्भते तचित्र (नृषु)रागजागरभु(बस्तुर्यपु)मर्थश्रियः // 35 / / मूलान्मोक्षावधिनिरव|धिप्राम्भवाश्चर्यवयं, सामस्त्येनाऽममजिनपतेः कश्चरित्रं पवित्रम् / वक्तुं शक्तस्तदपि किमपि प्रोजगारागमाब्धेः संगृह्याहं धन इव | लवं पुण्यकल्पद्रुवृद्ध्यै / / 36 // ग्राम्यस्त्रीय गुणोज्झितापि कवितुर्वाक्षुद्र देवाश्रयादप्युश्चर्जनमोहनं वितनुते सौभाग्यमासाद्य यत् / / / (प्रधत्ते सुमनोमनोमुदमहो देवाधिदेवत्रयी, सत्सानिध्यमयी मदीयभणितिनैषा विशेषात् कथम् // 37 // ख्यातस्याममसंज्ञया जिनभये कृष्णस्य तदातुरप्णेतन्मूलहरेः कुलम्य च कथाग्रंथस्य लक्षण यां / ग्रथ्नाति स्म स भद्रबाहुगणभृन्माति स्म साऽब्धेः समा | यन्नावीव कृतौ ममेह महिमा श्रीपाश्वनाथस्य सः।३८|| उ(निद्रमणिरत्न दीपमसितप्रौढांशुदूर्वांकुरं नम्राखंडलमौलिमौक्तिकरुचिश्रीखंडपिंडस्थिति / श्रीनीराजनभाजनं क्रमयुगं चंचत्कटाक्षाक्षतं श्रीपाश्वस्य दधत्यनर्गलमलं पुष्णातु वो मंगलम् // 39 // अममचरिते भाविन्येवं तयोः सहजन्मनोजिननृपतया पष्ठो भावी भवः शिवशर्मवान् / तदनुचरयोः सीरिश्रीशाङ्गिण(णश्चषष्ठी पेवः किमपि | // 547 // या पवः किमपि Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / प्रशस्तिः // 548 // कथितः स्वाहा श्रोत्रद्वयाय मया सताम् // 40 // इत्याचार्य श्रीमुनिरत्नविरचिते महाकाव्ये श्रीअममस्वामिचरिते भाविश्रीअममस्वामिसंघादिसंख्या-निर्वाणमहोत्सव-तद्भातृबलदेवजीव निर्वाण-तत्समयभाविविष्णुबलदेवस्वरूपवर्णनो विंश सर्गः सम्पूर्ण चेदं श्रीअममस्वामिचरितं महाकाव्यम् / / ग्रं० 151 // __ अपूर्वा यस्य पूर्वयं चतुर्वर्णमनोहरा / चकास्ति क्ष्मा शिलापट्टे श्रीवीरः सोऽस्तु वः श्रिये // 1 // जयतात्तत्पंचमगणनायक| संताननन्दनप्रभवात् / कोटिकगणकल्पद्रोः प्रसृता श्रीवज्रमुनिशाखा // 2 // अतुच्छः पुण्यगुच्छश्रीश्चन्द्रगच्छस्तदुद्भवः। नन्द्यात्सौ. रभ्यसंलुल्यत्साधुरोलम्बचु(बकः) // 3 // श्रीमांश्चन्द्रप्रभः सूरिस्तस्माद् वाद्धिरिवोदगात् / चक्रे कलाभिर्यः पूर्णः पूणिमां प्रकटां जनः(ने) // 4 // सूरिः श्रीधर्मघोषोऽभूत्तत्पट्टे देवताकृतिः / सिद्धराजस्तुतः कर्ता स्वमूर्तेः सूरिविंशतः॥५॥ निष्ठामतीतविषयामपि वर्तमाने, व्युत्पादयन् विरचयन् गुणवत्सु वृद्धिम् / सूत्रार्थयुक्तिकलनासुविशुद्धबुद्धिर्यः शब्दसिद्धिमक(रोच्च सुबोध)काराम् // 6 // तेन स्वगच्छे प्राधान्यं दवाचार्यपदे स्वयम् / / प्रतिष्ठितः श्रीसमुद्रघोषसूरिरजायत // 7 // यो मालवोपात्तविशिष्टतर्कविद्यानवद्योपशमप्रधानः / विद्वज्जनालिश्रितपादपद्मः केषां न विद्यागुरुतामधत्त / / 8 // धारायां नरवर्मदेवनृपतिं श्रीगोभद्रहूदक्ष्मापति, श्रीमत्सिद्धपतिं च गूर्जरपुरे विद्वजने साक्षिणि / स्वैयों रञ्जयति स्म सद्गुणगणैर्विद्यानवद्याशयो, लब्धीः प्राक्तनगौतमादिगणभृत्संवादिनीर्द्धारयन् | // 9 / / मुख्यस्तदीयशिष्येषु कवीन्द्रेषु बुधेषु च / सूरिः सूरप्रभश्रीमानवन्तीख्यातसद्गुणः // 10 // दुर्वादिकैरवकुले ददताऽऽस्यमुद्रा| मन्वर्थतां गमयता निजमत्र नाम / गोभिर्न भव्यकमलाकर एव बोधं सच्चक्रपर्षदपि हर्षमलंभि येन // 11 // अथापरः श्रीमुनिरत्नk| सूरिनामा निकामा तमूर्तिकीतिः / कैः पौनरुक्त्येन न यद्गुणौघः श्लाघाचलन्मौलिभिरभ्यवर्णिण // 12 // सिद्धान्तसाहित्यपदप्रमाण // 548 // Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * // 549 // ** यशोधवलपुत्र जगद्देव बालक वि स्वरूपम् * / स्कन्धत्रयज्योतिषशास्त्ररूपान् / सप्तापि वार्डीन् भजतो यदीये स्पर्धानुबन्धादिव बुद्धिकीर्ती // 13 // तार्तीयकः श्रीतिलकचन्द्रसू- | | रिरजायत / सूरिस्तिलकयामास नभोयुद्धद्धिनिर्जितः // 14 // पट्टे स्वे जिनसिंहसूरिसुगुरुं सूरप्रभस्य प्रभोः,पट्टे किं च जिनेश्वराभिध| गुरुं संस्थाप्य मध्ये तयोः / आसीनो मुनिरत्नसूरिंगणभृद्रेजे जगन्नन्दिनोमेरुः सूर्यशशांकयोरिव लसज्जात्याश्वयोर्वा रथः // 15 // इतश्च वाराही नगरी तनूमिव शुचिर्मुक्तोपमो भूपयन्, श्रीश्रीमालकुले यशोधवल इत्यासीत्स कोशाधिपतिः। निश्छिद्रोपि गुणान्वितस्तूल्लसत्तेजाः सुवृत्ताग्रणीयश्चौलुक्यपुरश्रियो विहितवान् सीमन्तशृंगारणम् // 16 / / तत्सूनुधिषणानिरस्तधिषणारंभोऽस्ति | दंभोज्झितस्त्रविद्यो विदुषां स्थितो धुरि जगद्देवो नृदेवाचिंतः / बालत्वे स्वकवित्वरंजितहृदः श्रीहेमनरेर्मुखाद्, द्वितीयीकमवाप बाल कविरित्युद्दाम सन्नाम यः॥१७॥ प्राक् चक्रे किल धर्मघोषगणभृद् यान् षोडशश्रावकान् , गच्छे स्वे व्रतिनां जिनागमविधि | ka व्यालंपतां शासकान् / धर्मस्थीयविशारदो नयपटुर्विद्याब्धिपारंगमस्तेष्वप्येष ययावशेषविबुधानुल्लंध्यवाग्मुख्यताम् // 18 // यत्प्रश्नाशंकया शंके सरस्वत्यपि पुस्तकम् / हस्ते यत्सर्वदा धत्ते तत्सूरीणां कथैव का? |19|| आचार्याः कतिनाम नामरगुरुस्पद्धिष्णवः प्रज्ञया, विद्यन्ते प्रभुधर्मघोषगणभृद्गच्छे गुणैरुल्बणैः। किन्तु श्रीमुनिरत्नसुगुरोवृत्तैरुदात्तैविधा चेतः केतकसौरभैभ्रमरवद् | यस्याध्यवास्यद्भुतम् / / 20 / / श्रीरुद्रस्य कुमारभूपतिमहामौहर्तिकस्यात्मजो, मन्त्री निर्नय इत्युदात्तचरितो विप्रोऽपि सुश्राद्धवत् / भट्टः | चूदनसंज्ञितश्च सुगुरोस्तस्यैव बोधाद् व्यधात्साई येन जिनेन्द्रशासनघनौन्नत्यं धनस्य व्ययात् / / 21 // मंत्रिणा बालकविना विद्वज्जन* सभेस्थितः / प्रार्थ्यत श्रीमुनिरत्नमरिस्तेनान्यदा मुदा // 22 / / च० क० // विद्यावल्लिफलं कवित्वमथ यद्वक्तृत्वमाहुर्बुधाः, पार्षद्यै| नरवर्मदेवनृपतेः श्रीउज्जयिन्यां पुरि / तद्विद्या शिववादिनः किल महाकालाग्रतो निर्जये, यौष्माकं गुरुसाक्षिकं परिमलात्तुष्टैर्मुहुस्तु * * // 549 // * * Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेशचरित्रम् ** मुनिरलसरि परिचयः ** श्रीअमम Aष्टुवे // 23 // श्रीनेमिना यदुकुलाधिपतिमुकुन्दो, भावी जिनोऽस्ति कथितोऽममसंज्ञया यः / कृत्वा नवं चरितमस्य सदस्यसाक्ष्य, | व्याख्याय तत्फलयुगं मम दत्त पूज्याः // 24 // युग्मम् // इत्यथितो मंत्रिवरेण भक्त्या, तेनाममस्वामिजिनेश्वरस्य / भविष्यतश्चारुरसैः | | पवित्रं संपल्लताचैत्रसमं चरित्रम् / / 25 / / समुद्रसूरेश्वरणकरेणुः समग्रविद्यासरसीकरेणुः / स्वान्योपकृत्यै श्रुतरत्नभूरिधिनिर्ममे श्रीमु॥५५०॥ निरलसरिः // 26 // पुग्मम् / / खयं भगवता तेन जैनान विद्वजनान् प्रति / अभ्यर्थनेयं विदधे विबुधेश्वरचित्र कत् // 27 // विद्वांसः | सकलश्रुतार्णवनवागस्त्याः स्वमध्यस्थताप्रख्याताः सहृदः परिश्रमविदो युष्मासु बद्धोऽञ्जलिः / यद्विद्यासुविरुद्धमागमगमासिद्धं निबद्धं मया, ग्रन्थेऽस्मिस्तदिदं विशोध्यमधिकं कृता प्रसन्नं मनः // 27 // गूजरवंशोद्योतनपुत्रोदयराजमंत्रितनुजन्मा। विद्वान् सागरचन्द्रः प्रथमादर्श लिलेखास्य / / 28 // एतद्विक्रमतो द्विपचदिनकद्वर्षे (1252) कृतं पत्तने, सम्यक् शोधितवान् नृपाक्षपटलाध्यक्षः कुमारः कविः / सद्वैयाकरणाग्रणीविधिरुचिः श्रीपूर्णपालो यशःपालो बालकविस्तथा मणमहानंदौ च सभ्याग्रिमौ // 29 / / श्रीशांतेमुनिरत्नसरिगुरून व्याख्यापयन्मन्दिरे, तस्मिन्नेव पुरे महर्द्धिकसभे संलेख्य तत्पुस्तके / मंत्री बालकविविधाप्य च घनरर्थव्ययैरुत्सवान् , प्रीतः कौतुकमार्जयजयमयः कल्याणकोटिश्रियः // 30 // यावत्तीर्थेशकीर्त्तस्त्रिभुवनोत्संगरंगे नटन्त्याः सर्वाशादेवतास्ताः सलि| लनिधिमहामर्दलान् बादयन्ति / व्योमश्रीश्चार्कचन्द्रौ कलयति सततं तालवत्तावदेष, ग्रन्थः प्राबोधिकश्रीर्जनयतु कृतिनां मंगलान्यु| ज्वलानि // 31 // मंत्री बालकविः सदाशयबुधानंदी चिरं नंदताद् , दोषानुच्चपदस्थितो हरेच यो लग्नेषु दत्ते श्रियम् / चित्रं | साभ्युदयो जयोत्सवकरो यत्संमुखो यत्पुनस्रधा श्रीमुनिरत्नमरिसुगुरौ लीनस्तदत्यद्भुतम् // 32 // विद्यासु यः श्रीमुनिरत्नगुरुप्रसादेन | मनागधीती / स निर्ममे मूरिषु लब्धरेखः प्रशस्तिमेतां जिनसिंहमूरिः॥ इति प्रशस्तिः / / मंगलं महाश्री ** 30-4530** 1550 // Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम संवत् 1998 वर्षे श्रीखंभातस्थ श्रीशांतिनाथ ताडपत्रीयभाण्डागारताडपत्रीयपुस्तकाद् लिखितेयं प्रेसकोपी, शुभं भवतु // WW ॥श्री अममस्वामिचरित्रं समाप्तम् // Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ வாபாபவபைபவைபவளைபவபாபவர் செயலகபயனர் // श्री अममस्वामिचरित्रं समाप्तम् // கவலையர் * RKAAKAARRA பலாபலயைவாயலபைவபை