________________ श्रीअमम जिनेशचरित्रम् / [ विवाहार्थ प्रेषितो दूतः सिंहराज्ञा // 296 // | ध्याने धनस्यैकताना योगिनीव परात्मनः / साऽद्राक्षीत्तन्मयं विश्वं चित्रं मुकुलितेन्द्रिया // 51 // कौतुकं प्राप्तरूपापि विमुच्यैकं धनं च सा। मेने विश्वमिदं क्लीबमथवा स्त्रीमयं हृदि // 52 // धनस्य सुमनोज्येष्ठस्याश्चर्य ध्यानतोऽपि सा / देवीत्वमाप प्रक्षीणनि| द्राक्षुत्तर्षवेदना // 53 // कमलिन्यन्यदोचे तामाधिना व्याधिनाऽथ किम् / नीताऽसि ? काश्य वं कृष्णपक्षेन्दोस्तनूरिव // 54 // कुत्रिमा क्रुधमादाऽवदद् धनवती ततः। एवं पृच्छसि मामालि! वं बाह्यजनवत् किमु // 55 // जीवितव्यं ममासि वं द्वितीयं यदिवा वपुः। नवं वयस्यामात्रं मे तत् त्वत्प्रश्नो हिये मम // 56 // ततः कमलिनी वाचमुवाच ननु मानिनि / त्वया युक्तमुपालब्धाऽस्म्यहं ते जानती मनः // 57 // आलेख्यदर्शनात्तस्मात्तस्याश्चित्रकरस्तुतेः। धने बद्धाभिलाषाऽसि क्षोणी नवपुरन्दरे // 58 // अजानत्येव पृष्टाऽसि यन्मया कार्यकारणम् / क्षमस्व तत्सखि ! ख मे नर्मचापलचेष्टितम् / / 59 / / स्थानेऽनुरक्तां त्वां ज्ञात्वाप्राक्षं | दैवज्ञमादृता / अस्या मम वयस्यायाः किं? भावी चिन्तितो वरः॥६०॥ सोऽपि सप्रत्ययोऽशंसदऽवश्यं भवितेत्यतः। त्वं धैर्य भज कातयं त्यज सन्देहमुत्सृज // 1 // तयेत्याश्वासिता लेमे स्वास्थ्यं धनवती तदा। मातृमत्रितशृंगारा पितरं वन्दितुं ययौ। // 2 // वरान्वेषणचिन्ताब्धौ राज्ञि मजति धीवरः / आगात् प्राक् प्रेषितो दूतः श्रीविक्रमधनाम्तिकात् // 63 // स राजकार्यमाख्याय | तूष्णीम्भावं स्थितः स्वयम् / किं ? तत्र चित्रमद्राक्षीरित्युक्तो भृभुजाऽवदत् // 64 // विद्याधरेष्वसुरेषु सुरेष्वपि न यत्प्रतिः। अद्राक्षं | विक्रमधनसूनोस्तद्रूपमद्भुतम् // 65 // तदैवाऽचिन्तयं तं च धनवत्यास्तुल्यं वरम् / औचितीचतुरः स्रष्टाऽप्यनयोरस्तु योजनात् // 66 // | तुष्टो राजाऽवदत्साधु स्वयं दूत ! त्वया कृतम् / वरान्वेषणभारो मे हेलयैवोदतारि यत् // 67 / सुधीस्त्वमेव तद्गच्छ श्रीविक्रमधनान्तिकम् / धनं कुमारं वरय वरं धनवतीकृते // 68 // नृपं नमन्ती धनवत्यऽनुजा चन्द्रवत्यदः। तदा श्रुत्वा द्रुतं गत्वा हृष्टा तस्यै सर्ग-७ // 296 //