________________ श्रीअमम // 386 // | कारूपं शाम्यं तु नगरीजनः // 8 // प्रज्ञप्त्याशु तथाक्लप्ते शाम्ब दक्षिणपाणिना / धृत्वा प्रावेशयत्पुयाँ भामा कन्याकृति स्वयम् जिनेश८१।। पौराः प्रोचुरहो चित्र विवाहे भीरुकस्य यत् / प्रसाद्य बाहौ धृत्वा च शाम्बं भामाऽऽनयत्स्वयम् // 82 // उवाह शाम्बः स्वं चरित्रम् / | कुर्वन् कर भीरोः करोपरि / धृत्वा एकोनशतकन्याहस्तान् दक्षिणपाणिना / / 83 / / देवात्कन्याः पतिं प्राप्य ताः शाम्यं वासवेश्मनि / / कूटेन शत| अन्वमोदन्त तत्रायान् भीरुः शाम्बेन भेपितः // 84 // भीरुणा कथिते भामा ययावप्रत्ययात्स्वयम् / स्मित्वा ननाम शाम्बस्तां साप्यु कन्यापरि णयनेन | वाचेति कोपतः // 85 // रे धृष्ट ! केनानीतोऽसि शाम्बोप्यूचे ननु त्वया / मातः स्वयमिहानीय कन्याभिः पर्यणायिपि // 86 // साक्षी गर्वीजातो चात्र पुरीलोको मध्यस्थो देवि ! पृच्छयताम् / तयाऽऽकार्य जनोऽप्रच्छि सोऽपि शाम्बोक्तमाख्यत // 8 // रे मायिनीपुत्र ! मायि-* शाम्ब: जात ! मायिकनिष्ठकः / आः पाप! कन्याकूटेन च्छलिताऽस्मि त्वया शठ ! // 88 // उक्त्वेति भामाऽगाद्गहं कन्यास्ताः स्वयमच्युतः / वसुदेवेन शाम्बायादालोकसाक्ष्यं जाम्बवत्युत्सवं व्यधात् // 89 // अवदत्कद्वदः शाम्यो वसुदेवं नमन्निति / तात वैदेशिको भूत्वा त्वं बह्वीः तिरस्कृतश्च स्त्रीरूपायथः // 90|| व्यवाहि स्थानस्थेनैव स्त्रीशतं युगपन्मया। भवतो मम च व्यक्तं तदेवं महदन्तरम् // 9 // दुन्दुस्तमूचे रे कूपभेक ! स्खं स्तौपि किं? मुधा / भस्मतोऽप्यसि निस्तेजास्त्याज्यः स्वगृहतो बहिः // 92 // पित्रा निर्वासितोऽप्येवं कृत्वा चण्डाल| कर्म च / कूटात्त्रैणकरालम्बात्पुनःप्राप्तोऽसि यद्गृहम् // 93 // तत्ते नामापि को नाम गृहीते मानवर्जित ! अस्मत्कुलकलङ्कस्त्वमेवाभू सर्ग-९ | निस्त्रपाग्रणीः / / 14 / / युग्मम् / / अहं तु बन्धुना लुप्तमानो निर्गत्य वीरवत् / पृथव्यां खेचरवद् भ्रान्त्वा व्यवहं स्त्रीसहस्रशः॥९५॥ प्रसङ्गान्मिलितरेभिर्वन्धुभिश्चातिगौरवात् / राजन्यसाक्ष्य संमान्यानीतोऽस्मि स्वगृहान्पुनः / / 96 / / विगुप्यन्नागतस्त्वं तु निज गेहं दुराशय / ततः करोषि रे स्पर्धी कथं ? मूर्ख ! मया सह // 97 / / ज्ञात्वा स्वयं कृतां शाम्बः पितामहतिरस्कृतिम् / निपतन्पादयोरुच्चैः // 386 //