________________ // 447 // *त्राष्टकां मुनिः॥११॥ लक्षितानपि तानङ्गचेष्टया च हृदापि च / निर्णतुं तु द्वितीयेऽह्नि गत्वाध्याक्षीदसौ प्रभुम् // 12 // आख्यजि नोऽपि देवक्याः पडमी ते सुता इति / तजीवितकथां चाथोत्प्रश्रवा तान्ननाम सा // 13 // ऊचे च दिष्ट्या दृष्टाः स्थ पुत्रा युक्तं च | मद्भवाम् / राज्यं व्रतं वा खिये तु स्वयं नैकोप्यलालयत् // 14 // प्रभुः प्रोचे देवकि ! ख सपत्न्या रत्नसप्तकम् / अहार्षीः प्राग्भवे भ लालनला लसा गजतस्या रुदत्याश्चकमार्पयः॥१५।। अतस्त्वं स्वयगुप्तस्य कर्मद्रोः फलमिदृशम् / किं ? विपीदसि भुञ्जाना यदभृद् भूतमेव तत् // 16 // 17 सुकुमार के श्रुत्वेति देवकी प्राच्य निन्दन्ती दुःकृतं ययौ / स्वसौधे दुर्मनाश्चास्थात्काया पुत्रजन्मनः // 17 // सा नन्तुमीयुषा पृष्टा शाङ्गिणा है जन्म च मातरीक्ष्यसे / किं ? दुर्मनाः साऽप्यवादीदमि यद् व्यर्थजीविता // 18 // वद्धितस्त्वं नन्दगृहे नागगेहेऽग्रजास्तु ते / तन्निन्द्याऽस्मि | पिकीवाहं स्वापत्यालालनात्स्वयम् // 19 // ककोंटीव बरं वन्ध्या नारी नापत्यसूः पुनः / पशुभ्योऽप्यतिहीना या खाङ्गजं लालयेन्नहि // 20|| स्त्री पुत्रिण्यपि भौरकमठीह कमठीव सा / उत्सङ्गरङ्गेरङ्गन्तं न लालयति याऽङ्गजम् // 21 // प्रसूतिवेदनाभाजां धिक् तासां जन्म योषिताम् / अपत्यलालनासौख्यं यकाभिर्नानुभूयते // 22 // स्त्रीणां साम्राज्यभोज्यालङ्कारमारोपभोगजम् / सुखं तृणायते बाललालनाशर्मणः पुरः // 23 // तद्वत्स! पुत्रमिच्छामि लालनोद्गाढकौतुकात् / त्वयैकेनाप्यन्यथाऽस्मि पूरितापरकौतुका // 24 // पूरयाम्पेष तेऽभीष्टमित्युक्त्वा तां हरिगृहम् / गत्वा देवमष्टमेनाराधयन्नैगमेषिणम् // 25 // तुष्टो देवोऽवदत्कृष्णं मातुस्ते भविता | सुतः / किन्तु प्रबजिता प्रौढ इत्यम्बां सोऽप्यजिज्ञपत् // 26 // तदेव देवकीकुक्षि देवः कोऽपि दिवश्युतः / अलंचक्रे गजखमसूचितोऽथावृधत्सुखम् / / 27 / / जातः काले विश्वरूपरूपः सूनुरथोत्सवात् / तेन गजसुकुमाराभिधः स्वमार्थतः कृतः // 28|| देवकी देवरूपं तं लालयन्ती स्वयं करैः / प्रीतिमुल्लापनैश्चोल्लापयन्त्याऽऽपन्नवैनवैः // 29 // मातुर्धातुश्च जज्ञेऽसौ प्राणेभ्योऽ // 447 //