________________ // 44 // दीक्षाकल्याणकस्वरूपम् *नाथ नैतामजीगणः // 31 // हृदि वाचि च कौटिल्यममूल्यं विभ्रता त्वया / जितः श्रितश्च त्वामेव शखोऽन्तःकुटिलोप्यतः // 32 // | दत्वा भरतलोकाय कनकं कोटिशस्त्वया / दृशापि तामसंभाव्याऽङ्कितः संवत्सरो नवः // 33 // अथवालमुपालम्भैरेभिः स्त्रीसुलभै यतः / नीलीरागोऽसि देहेन न स्नेहेनेति निश्चितम् // 34 // इति पर्यनुयुक्तोऽपि तया साम्यैकलीनधीः / मौनेनैवापकण्ण्यतां ययाव| स्खलितः प्रभुः // 35 // | इतो राजीमती साम्भःकदलीदलवीजनैः। श्रीखण्डसेचनर्मात्रा स्वास्थ्यं कृच्छ्रेण लम्भिता // 36 // सख्या व्यावृत्तयाऽभाणि निःस्नेहस्यास्य हेतवे / किमेवं ? ग्लपयस्यात्मदेहं मुग्धे मुहुर्मुहुः // 37 // मद्वाक्यभिंद्यतेऽमापि नत्वसावतिनिष्टुरः। मौनी व्रतश्रीज्ञा*नश्रीमुक्तिश्रीसस्पृहस्त्वगात् / / 38 // उवाच भोजभूर्माऽपवद सखि ! मम प्रियम् / अनिषिद्धमनुमतमित्यहं तेन मौनिना / / 39 / / स्वीक-* तैवाऽस्मि यद्वाऽस्मि कुलीना तत्प्रियाऽत्र यम् / आराध्य तं च सेवित्वा भूत्वा द्वेधा पतिव्रता // 40 // भविष्याम्यहमेवास्याऽभिन्ना भेदेऽपि | वल्लभा ।विप्रलम्भेति भोगातिरिक्तनित्यसुखास्पदम्।।४१॥ त्रि०वि०॥अथाससाद भगवान रैवताद्रिं श्रिया निजम् / नीलं दुकूलं मेधावि| स्तारितमिव क्षितौ // 42 // लक्षाम्रवणमप्युर्त्यां सहस्राम्रवणाख्यया / ख्यातमुद्यानमुद्यानीकरणायातनागरम् // 43 // युग्मम् / / तेना त्र शिविकोतीर्णेनाऽस्तं भूपांशुकादिकम् / विष्णोर्दत्वा न्यथाद् देवयं स्कन्थे हरिः प्रभोः॥४४॥ आकम्प्यमानं तच्छीतसुगन्धि* मृदुवायुना / दक्षैरलक्षि चारित्रश्रीकटाक्षच्छटाकृति // 45 // पूर्वाण्हे श्रावणे श्वेतषष्ट्यां स वाष्ट्रागविधौ / केशोत्पाट कृतषष्ठश्चक्रेऽब्द| त्रिशतीवयाः // 46 // प्रतीक्ष्य केशानिन्द्रेण क्षिप्ता क्षीरोदधौ जवात् / उपेत्य तुमुले रुऽऽग्रहीत्सामायिक विभुः॥४७॥ ज्ञानं मनःपर्यायाख्यं श्रीनेमिश्च तदाऽऽसदत् / लेभिरे घ क्षणं सौख्यमद्भुतं नारका अपि // 48 // सहस्रं पावजन् भूपाः संविनाः प्रभुणा सह / // 44 //