________________ श्रीअमम // 540 // विंशः सर्गः। जिनेश चरित्रम् / ततो विहृत्य चम्पायां पुर्यां प्राप्तो जिनेश्वरः। नन्तुं श्रीपद्मराजस्य सपौरस्येयुषो मुदा // 1 // इत्यादेष्टा यतिधर्मश्राद्धधर्मश्च मुक्तये / विवेकवद्भिः कर्तव्यः सम्यग्दर्शनपूर्वकः // 2 // युग्मम् // अशक्तैस्तदनुष्ठाने पुनः पश्चनमस्कृतिः / अधीत्यावश्यमाराध्या सदा साध्यार्थसिद्धये // 3 // साध्यौ स्वर्गापवर्गौ च धर्मो बीजं तयोः पुनः / तस्यापि श्रीनमस्कारस्ततस्तत्रैव यत्यताम् // 4 // नम-la, स्कारात्सर्वपूर्वोद्धाराद्धपोऽरिमर्दनः / यथाऽऽसदत्पुरा बोधं धर्म स्वर्गापवर्गदे // 5 / / अवन्त्यामभवद्राजा नाम्ना स्थानाऽरिमर्दनः / तत्प्रिया धारिणी कामप्रियासारूप्यधारिणी // 6 // श्रीमांस्तत्रावसज्जैनो धनः पुण्यजनाग्रणीः / अभूतां तस्य पद्मश्री बुद्धिश्रीरिति वल्लभे // 7 // गुणगौरोऽपि वर्णनाभिधानेन च कालकः / आसीत्तद्नेहसंवासी जन्मतः शुनकोऽस्तु सः॥८॥ बढाश्यऽप्यल्पसन्तोषी सनिद्रोप्याशु चेतनः / शूरोऽपि स्वामिनो भक्तः सोऽभून्मूकोऽपि बुद्धिमान् // 9 // अन्यदा स धनोऽचालीद्यात्रायां पयसां निधौ / लाङ्गलं चालयन्नुच्चैस्तेन सार्धं चचाल सः // 10 // ततस्तमूचे बन्धुभ्योऽप्यधिक कालकं धनः / वं तिष्ठ पश्चात्कल्याणिन् ! विश्वासोऽन्यस्य मे नहि // 11 // रक्षणीयं त्वया गेहद्वयं कान्ताद्वयं च मे / मित्र मत्री च पुत्रश्चाव्यभिचारी त्वमेव यत् // 12 // पुत्र सर्ग-२० | वच्च तदादेशं प्रतीच्छन् शिरसा नतः / धनस्य संस्पृशन्नहिद्वयं ज्ञापितवानयम् // 13 // प्रेयस्योरपि तं बन्धुसाक्ष्यमाख्याय यामिकम् / वेलाकूलं धनो गत्वा पोतेन प्रास्थिताऽम्बुधौ // 14 // त्रिसन्ध्यं कालकोऽप्यस्य कञ्चुकीय प्रियाद्वयम् / गेहद्वयं चावहितः // 540 // प्रत्यहं प्रत्यजागरीत् // 15 // तिलपेषकवद्दधे बुद्धिश्रीस्तु कुशीलताम् / खलार्थिनी कालकं च तिलवत्पेष्टुमैहत // 16 // कालकोऽपि