________________ // 337 // धनुःसभा गत्वाऽऽरोपितं धनुः कृष्णेन वीशा गर्जन्तः शारदाब्दवत् / वेगात्तु मुमुचुर्दिव्यं धनुस्तद्गलितौजसः // 28 // श्रुत्वैतन्मदनवेगाकुक्षिजो वसुदेवभूः / अनाधृष्टिवीरमानी चापारोपाय कौतुकी / / 29 / / आगच्छन्नाकुलो दृष्ट्वा गोकुले रामकेशबौ। तत्स्नेहमोहितो रात्रि निन्ये तल्लालनासुखैः // 30 // | रामं विसृज्य च प्रातः स चचाल रथस्थितः / आदाय मथुरामाग्र्गदेशक केशवं सह // 31 // रथोऽस्य मार्गे वृक्षौधैः संकटे व्यलगद् | वटे / नालं तन्मोचने प्रौढोऽप्यनाधृष्टिरभूद्भटः // 32 // उन्मूल्यदोबलोदग्रो न्यग्रोधमनयद्यथा। रथं रथांगपाणिस्तमृजुनैवाशु हेलया // 33 // बलं लोकातिगं तस्यानाधृष्टिवीक्ष्य विस्मितः / उत्तीर्यालिंग्य तं पत्तिं रथमारोपयदलात् // 34 // उत्तीर्य सरयूं गत्वा मथुरान्तधनुःसभाम् / तामलंचक्रतु/रौ वीरौघैर्भूषिताविमौ // 35 // तौ वीक्षामासतुः सत्यभामां रामाशिरोमणिम् / धनुःपावे स्थितां साक्षा| भृतां तद्देवतामिव // 36 // असिस्नपद् भूपकूपभीरुके सुमुखी च सा | कृष्णांगे पुण्यलावण्यसुधाकुंडे खचक्षुषी // 37 // बहिदृष्टिरनाधृ. | ष्टिरपि तत्कन्यकामनः / अजानन्नेतदर्थी च धन्वारोपं प्रचक्रमे // 38 // कन्याभावविदा मन्ये चापेनाप्यस्य चापलम् / निषेद्धं पाणिना गृह्णन्नप्यपाति स भूतले // 31 // पंकिले करभस्येव तत्रास्य भ्रश्यतो ध्रुवम् / अशंसि भ्रष्टता भ्रष्टै खिन्नादेहान विभूषणैः॥४०॥ सत्य |भामासखीवृन्दै राजानः स्वपरिच्छदैः / सार्द्ध मेरदृशस्तेऽभिनिन्युः प्रहसनं घनम् // 41 // असहिष्णुस्तदा विष्णुः खभ्रातुर्लाघवं ध्वम् / तदादाय धनुः पद्मनालवल्लीलया करे // 42 // अनेकक्ष्माप-तपन-तत्यांग्या इव निवृतिम् / कतु तद् वलयीचक्रे कांताया विजय-1 श्रियः॥४३॥ स रेजे धनुपा तेन हस्तस्थेन प्रभाजुषा। श्रितस्ततार चक्रेण चक्रेणेव भविष्यता // 44 // अथैत्य धृष्टोऽनाधृष्टिः पितु| वेश्मनि सत्वरम् / मुक्त्वा रथस्थितं द्वारे हरिमित्याख्यदुद्धतम् // 45 // कोटिप्राप्तगुणं चक्रे तात ! शार्ङ्गधनुर्मया। यत्राभिरुपैरप्यन्यै राजन्यैर्वालिशायितम् / / 46 // आक्षिप्य वसुदेवस्तमवादीनश्य सत्वरम् / कंसो ज्ञात्वाऽन्यथा धन्वारोपकं त्वां हनिष्यति // 47 // ||337 //