________________ श्रीअमम // 382 / / * 18*43HARASHTR * वल्लभः। शाम्बोऽभवत्तनुच्छायेवासीत्सहचरः सदा // 6 // रुक्मिणी रुक्मिणः पार्श्वे भ्रातुर्भोजकटेऽन्यदा / नरं प्रेषीत्सुतां तस्यार्थयितुं *जिनेश निजसूनवे // 7 // तेनोचे कृष्णरुक्मिण्योोगो धात्रोचितः पुरा / चक्रे प्रद्युम्नवैदाः सम्प्रत्यस्तु भवत्कृतः॥८॥ रुक्मी वैरं स्मर- चरित्रम / न्पूर्वरोपात्प्रोचे सुतामहम् / मातङ्गेभ्यो वरं दास्ये केशवस्य कुले न तु // 9 // यथातथं नरोप्येत्य रुक्मिणी तदजिज्ञपत् / साऽप्यभू- वैदर्भापरिन्यग्मुखी तेन प्रदोषेणेव पद्मिनी // 10 // सा खेदहेतुं पृष्टा च प्रद्युम्नेन न्यवेदयत् / वृतान्तं सोऽवदन्मातर्धाता शामोचितो न ते णयनाथ | // 11 // तातं (दुक्खाकरोत्त)स्योचितं सम्प्रत्यहं पुनः / करिष्ये तत्सुतां व्यूह्य खां द्रक्ष्याम्याव तत्सुखम् // 12 // जननीमिति संबोध्यो प्रद्युम्नस्य भोजकटे त्पत्य शाम्बेन संयुतः / प्रद्युम्नोऽगागोजकटे कूटविद्या बलं मतम् // 13 // चण्डालरुपौ तत्रोभावभूतां किन्नरस्वरौ / गीत्या मधुरया गमनम् पौरांश्चाक्षिपेतां मृगानिव // 14 // जनोक्त्योत्कण्ठितो रुक्मी तोच प्राहाय्य सुस्वरौ / अगाययत्सुतां बिभ्रद्वेदी क्रोडवर्तिनीम् 15 / / रुक्मी तुष्टस्तयोर्दत्वा प्रभृतं पारितोषिकम् / प्राप्तौ कुतौ युवामित्यपृच्छत्तावप्यशंसताम् / / 16 / / आवां स्वर्गात्समायातौ द्वारकां सा हि निर्ममे / इन्द्रादेशात्सुरैर्देवस्योपेन्द्रस्य कृते पुरी // 17 // हृष्टा पप्रच्छ वैदर्भी तो तत्र युवयोः किमु / श्रीजनार्दनरु| क्मिण्योः प्रद्युम्नो विदितः ? सुतः॥१८॥ जगाद शाम्बः प्रद्युम्नं प्रद्युम्नं रुपसम्पदा / विश्वकवीरं सकलकलापात्रं न वेत्ति कः ? // 19 // वैदर्भीति निशम्योचैरकुण्ठोत्कण्ठयाकुला / नागवल्लीव निगूढरागजागरभृरभृत् // 20 // कोऽपि कोपाद् द्विपो मत्तः स्तम्भ सग-९ मुन्मूल्य तत्र च / भ्राम्यन् कृतान्तवत्तान्तमुद्धान्तमतनोजनम् // 21 // स भञ्जन गेहहट्टादि विद्वपीव बलोत्कटः। शेके निषेधुं न भटैरपि मिण्ठकथा तु का ? // 22 / / य एनं वशयत्यस्मै ददामि हृदयेप्सितम् / इत्यातों रुक्मिभूपालः पटहेनोदघोषयत् // 23 // धृतो // 382 / / न पटहः कैश्चिच्चण्डालाभ्यां तु वारितः। सुधामधुरया गीत्या स्तम्भितश्च स कुञ्जरः // 24 // तमारुह्याथ तौ पौरैः साश्चयँर्वीक्षितौ |