________________ // 303|| न्तप्रणतः पितृभ्यामभ्यषिच्यत // 85 // ताभ्यां चाभ्यधिकस्नेहाखेचरः परिरभ्य सः। दिव्यालंकृतिवत्राद्यैरनिच्छन्नपि सत्कृतः॥८६॥ सुयश के आपप्रच्छे श्रीसुमित्रं मित्रं गन्तुं निजे पुरे। सतां न स्याजनिस्थानोत्कण्ठा कुण्ठा कथश्चन // 87 // सुमित्रोऽप्यवदन्मित्र! सुयशाः वलिदेशना केवली मुनिः / आसन्नो विहरन्नत्राऽप्यागमिष्यति निश्चितम् / / 88 // ततस्तमागतं नत्वा ख सखे गन्तुमर्हसि / सुखेन गमयस्वेह तेषामा| गमनावधिम् // 89 // तथा चके चित्रगतिः कियद्भिर्वासरैरथ / सुयशाः केवली साधुस्तत्रोद्याने समाययौ // 10 // सिक्त्वा गन्धोदक मि खर्णाजे स्थापिते सुरैः। मुनिनिषेदिवान् साक्षाद् ब्रह्मेव चतुराननः॥११॥ कौतुकेन चित्रगतिसुमित्रौ तत्र चागतौ। कल्पद्रुमिव तं | दृष्ट्वा नत्वा चाग्रे निषेदतुः // 92 // देवकोलाहलाद् ज्ञात्वा श्रीसुग्रीवनृपोऽपि तम् / एत्यानमदमीषां च सोपि धर्ममुपादिशत् // 13 // | द्वावेव मागौं गन्तूनां जन्तूनां मोक्षपत्तने / प्राञ्जलौ साधुसुश्राद्धधम्मौ शौचदायकौ // 14 // द्वैतीयीकः स्तोकवनोऽप्यवक्रोग्रेतनस्य * यत् / मिलित्वा प्रापयत्येव भव्यान्मुक्तिमहापुरीम् // 95 // कल्पद्रुकामधुचिन्तामणिप्रभृतयः खलु / अनन्तसौख्यदस्याहद्धर्मस्य / * पदपांशवः // 16 // इति चित्रगतिः श्रुत्वा जगाद ज्ञानिनां वरः / त्वयाऽस्मि बोधितः साधुर्मोहदारित्र्यबाधितः // 97 // इयत्कालं कुला-ING यातमप्यहं गृहिणां यतः। निधिवनाबुधं धर्म निर्भाग्यैकशिरोमणिः // 98 // मित्रं सुमित्र एवायमतुल्योपतिर्मम / यस्त्वामदर्शयज्ज्ञाननिधिं दौर्गत्यवारणम् ॥१९॥ज्ञानिनाऽस्य मनःस्थाने सिक्तो बोधामृतस्ततः / न्यस्तः सम्यक्त्वकल्पद्रुर्ब्रतशाखामनोहरः // 20 // प्रणम्य ज्ञानिनं राजापाक्षीदस्य सुतस्य मे / विषं दत्वा नाममात्रभद्रा भद्राऽगमक्क सा ? // 1 // मुनिराख्यदितो नंष्ट्वा प्रयान्ती तस्करै| वने / आच्छिद्याऽलंकृतीः पल्लिखामिने सा समपिता // 2 // तेनापि वणिजः पार्श्वे व्यकीयत ततोप्यथ / नष्टा दवाग्निना दग्धा सा // 303 // ययौ प्रथमावनीम् // 3 // तबृता च चाण्डाली भवित्री गर्भिणी च सा / हता सपल्या कलहे तृतीयां भुवमाप्स्यति // 4 // तन्नि