________________ // 333 // मातगृहे मोचनम् स्वयम् // 55 // नाद्भुतं ते प्रभो! मूत्तिः स्निग्धा कजलवत्तिवत् / मूतिः कर्पूरगौरस्य महसो यत्तदद्भुतम् // 56 // नाथ! त्वत्कान्तिकालिन्दी भृयान्मन्दीकृता शुभा। गंगासंगाकृतिर्दधे यत्र क्षीरोदवारिभिः॥५७॥ लेभे मेरोरियं चूला चूला रम्येषु यत्त्वया। अलंचके स्वयं नाथ ! तमालश्यामलश्रिया // 58 // नवनीलोत्पले विश्वसरोलंकरणे त्वयि / जातेऽद्य मुमुदे हंसैश्चित्रं त्यक्तजडाशयैः॥५९।। | शखो यद्दक्षिणावर्तः कीर्ति कामप्रदेष्वधात् / जगत्रयेश! तत्तेऽहिसेवाहेवाकजृम्भितम् // 60 // त्वया घनश्रिया कामवर्षिणाऽलंकृतं | मम / इदं क्षेत्रं द्विधाप्यद्य सद्यः शस्यर्द्धिमासदत् // 61 // भयंकराऽप्यभृन्नाथ सर्पिणीवावसर्पिणी। आनंदकृत् त्वया चूडारत्नेनाद्य | विभूषिता // 62 // प्रभो भीष्मभवग्रीष्मसन्तापं शमयन्तु नः। लक्ष्मीगेहभवदेहरुचो रम्भागृहश्रियः॥६३।। स्तुत्वेति जिनमाधाय शक्रः स्वं पञ्चरुपिणम् / ईशानात्तं गृहीत्वा च नीत्वा मात्रन्तिकेऽमुचत् // 64 // श्रीदामगण्डकं सोऽथ वितानान्तरतिष्ठिपत् / लम्ब मानं लोचनानां विनोदायोपरि प्रभोः // 65 // उपधानेऽमुचद् देवदृष्यं दिव्ये च कुण्डले / वक्त्रनिर्जितसज्योत्स्नजम्बूद्वीपविधू इव Ka66 // पग्रिन्या इव मार्तण्डः शिवादेव्याः स च क्षणात् / जहेऽवस्वापनी जैनी प्रतिमूर्तिं च तां निजाम् // 67 // अथाभियोगिकै देवैः सुत्रामैवमघोषयत् / सुरासुरमनुष्येषु यः कश्चिदिह दुर्मतिः॥६८॥ जिनस्य श्रीशिवादेव्याचानिष्टं चिन्तयिष्यति / तस्यार्जकमञ्जरीव सप्तधा भेत्स्यते शिरः॥६९॥ सुवर्णरत्नवस्त्राधैर्यथाकामीनवस्तुभिः। श्रीदः शक्राज्ञयाऽवर्षत् समुद्रविजयौकसि // 7 // सुधा सुधाभुजां भर्ता स्वांगुष्ठे निहितां प्रभुः। अपिवत् क्षुधितोऽस्तन्यपाननिष्ठा जिना यतः॥७१।। धात्रीत्वाय प्रभोः पश्चाप्सरसः समितीरिख / आदिश्येन्द्रो ययौ नन्दीश्वरे मेरोः परे पुनः॥७२।। तत्रार्हतां शाश्वतानां ते कृत्वाऽष्टान्हिकोत्सवम् / जग्मुः सर्वे यथास्थानं दधानाः परमां मुदम् / / 73 / / उदितस्तमसा छेत्ता नवः प्रद्योतनो जिनः / इत्यनश्यद् भुवं त्यक्त्वाततिनीव तमस्विनी // 74 // शिवा // 333 //