________________ श्रीअमम // 312 // चरः। सोऽहं वीक्ष्यानुरक्तस्ता विवाहार्थमयाचिपि // 57 // साऽप्युवाच करं गृह्णात्यपराजित एव मे / अंगे लगति वा वन्हिः प्रति जिनेशज्ञेयं ममाचला // 58 // इति श्रुत्वापि मृोऽहं निर्गत्य नगराद् बहिः / विद्याः संसाध्य दुःसाधाः पुनरेताममार्गयम् // 59 // उक्ता- चरित्रम् / प्युपायैस्तैस्तैामैपीनेपा यदा तदा / आनिन्येव मया हृत्वा विवेकः कामिनां क्व वा ? // 60 // प्रतिज्ञां पूरयाम्यस्या ज्वलज्ज्वलनसं- पितृदत्ता गतः / इत्येतां खण्डयित्वाऽनौ यावत्क्षेप्स्यामि कोपतः // 61 / / तावदेषा त्वयागत्याऽरक्षि दक्षाऽऽतरक्षिणा / अयं जनश्च नरकादुपक परिणिता ताऽसि तद्वयोः // 62 // शंस त्वमपि मे कोसीत्युक्तोऽशंसदमात्यमः / कुमारस्य कुलं नाम सकलं च कलादिकम् // 63 // रत्नमाला रत्नमा लाया प्यऽमोदिष्ट चिन्तितेष्टागमोत्सवात् / स्वस्यापदमपि प्रीता मेने मनसि सम्पदम् // 64 // पितरौ रत्नमालायाः पृष्ठतस्त्रातुमागतौ / तुष्टौ रूपान्तरं ज्ञात्वा मंत्रिपुत्रात् त्रातारमपराजितम् / / 65 / / ताभ्यां दत्तामुपायंस्त तां मुतां हरिणन्दिनः / प्रदक्षिणय्य कुण्डाग्निमेव त्रिःप्रज्वलच्छि- कृत्वा विदेखम् // 66 // अभयं सूरकान्ताय तयोश्च वचसा ददौ / कोपोहि महतामीपत्प्रशमः सामवादिभिः // 67 // ददौ ते व्रणरोहिण्यौ खेचरोशगमनम् मणिमूलिके। कुमारायाऽनिच्छतेऽपि मन्वानः प्रत्युपक्रियाम् // 68 // गुटिकाः तद्वयस्यस्य रूपान्तरकरीः पुनः। सूरकान्तोऽर्पयामास गौरव्यः स्वामिनो हि सः॥६९॥ निजपुत्रीयमानेया मम स्वस्थानमीयुषः / उक्त्वेति कन्यापितरौ विसर्सजाऽपराजितः // 7 // | तौ संयुतौ स्वपुत्र्याऽथ सूरकान्तश्च खेचरः। स्थानं निजं निजं जग्मुः स्मरन्तस्तेऽपराजितम् // 74 // कुमारमंत्रिपुत्रौ तु गच्छन्तौ पथि | दैवतः। कान्तारे भ्रमतुर्दीधै व्योम्नीवेन्दुरवी चिरम् / / 72 // ततः कुमारस्तृषार्तश्चतच्छायमुपाविशत् / वारिणे मंत्रिपुत्रस्तु समदुःखसुखो ययौ // 73 // स दूरातोयमादाय यावतागान तावता। तत्राऽद्राक्षीनिज मित्रमनतिरपराजितम् // 74 // सोऽतर्कयच्च दिग्मोहात् // 312 // | किमन्यत्राऽहमागमम् / तृष्णातुरः कुमारो वा ययौ कि ? स्वयमम्भसे // 75 // सर्ग-७