________________ श्रीअमम // 418 // तविकल्प उत्तीर्य रौद्रमस्ताघमप्येवं तेऽवदन्मिथः // 34 // ज्ञास्यतेऽद्य बलं विष्णोविना नावमसौ यदि / उत्तरिष्यति गंगा तदिहैव ध्रियतामि जिनेशयम् // 35 // इत्थं विधाय संकेतं पाण्डुपुत्राः परस्परम् / श्रित्वा कृतघ्नतां दैवरोपादुत्पन्नदुर्धियः / / 36 / / घूका इव निलीनास्तु तटि- चरित्रम् / नीतटकोटरे / कथं ? कर्मपरिणामः सतोऽपि नटयत्यहो // 37 / / युग्मम् / / उपगंगमितोऽध्यागात्कृतकृत्यो जनार्दनः / तत्राऽवीक्ष्य गंगोत्तीर्ण| तरी सर्वकर्मीणभुजविक्रमः // 38 // सवाजिन रथं धृत्वा दोणकेनापरेण तु / स्वयं गंगां तरन् मध्ये श्रान्तश्चैवमचिन्तयत् // 39 // पाण्डवाकयुग्मम् / / पाण्डवानामहोशक्तियत्तस्तेरे तरी विना। अगाधापि सरिनाथमूलकान्ता सरिद्वरा // 40 // गंगादेव्यपि तचिन्तां ज्ञात्वाऽ जन्यरोपेण स्ताघ(नाव)मदाद क्षणात् / स तां तीर्चा सुखेनापत्तटीमापत्तटीमिव // 41 // उत्तीर्णाः स्थ कथं ? गंगामिति कृष्णेन पाण्डवाः / पृष्टाः / निर्वासिता कष्टाद्विना नाथ ! नावेत्यावेदयन्मुदा // 42 // वालयित्वा तरी प्रैपि किं ? नेत्युचुषि केशवे / ते स्म प्राहुर्भवराहुबलं देव ! परीक्षि- कृष्णेन तुम् // 43 // आसन्नविपदा पुंसां विपर्यति मतिभ्रुवम् / शैले गर्जद्घनं हन्ति केशरी यच्चपेटया // 44 // क्रुद्धः कृष्णोऽवदत् किं मे दोर्बलं पाण्डवाः ज्ञास्यथाऽधुना / किं ? वार्द्धस्तरणे पारणेऽप्यास्त न सन्निधौ // 45 // कृतविद्यो गुरुं द्वेष्टि कृतकार्यः प्रभुं नरः / कृतपुत्रा पतिर्दृष्टि स्त्री| त्या न मृषा वचः॥४६॥ आक्षिप्येति रथांस्तेषां स ममर्दाऽतिनिदयः / लोहदण्डेन तत्राऽभूत्पत्तनं रथमर्दनम् // 47 // त्रि०वि०॥ स्थेयं मदाज्ञाभूमौ नेत्युद्भः कंसनिपूदनः / कृत्वा निविपयान् पाण्डुपुत्रान् ख कटकं ययौ / 48 // ततः ससैन्यः कृष्णोऽगात्स्वां पुरी नातोरणाम् / परेऽपि स्वपुरे गत्वा सर्व कुन्त्यै न्यवेदयन् // 49 / / विश्वस्यात् कर्मणां को नु? महात्मानोऽपि यैरिमे / चक्रिरे बालवन्मादमुखाः कुनमुखा अपि / / 50 // अन्त्यपि द्वारकामेत्योवाच सास्रहगच्युतम् / मत्पुत्राः कुत्र तिष्ठन्तु देव ! निर्वासितास्त्वया // 418 // // 51 // वत्साऽस्ति भरताढ़े का भूमिराज्ञा न यत्र ते ? / आकाशेऽपि सुरेन्द्रस्त्वद्भयात् स्थानं ददाति न // 52 // तत्क्षमखाऽपराध