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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९ )
अनुसन्धान - ७५ (२)
सम्पादन खण्ड
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
श्री हेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य
नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अमदावाद
September-2018
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देवकुमार अरूकुमारी घणो प्रकारकावाजा बजावर समकाले वाहे मकान इज इ नाचैव चाहा बकरी घूमताजा ॥
हम
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९ ) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसन्धान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य - विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
७५ (२)
सम्पादन खण्ड
सम्पादक :
विजयशीलचन्द्रसूरि
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद सप्टेम्बर - २०१८
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अनुसन्धान - ७५ (२) आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्क: C/o. अतुल एच. कापडिया
A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ९९७९८ ५२१३५
E-mail:s.samrat2005@gmail.com प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम
जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्यायमन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६६२२४६५ श्रीविजयनेमिसूरि ज्ञानशाला शासनसम्राट् भवन, शेठ हठीभाईनी वाडी, दिल्ही दरवाजा बहार, अमदावाद-३८०००४ मो. ९७२६५ ९०९४९ E-mail: nemisuri.gyanshala@gmail.com सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
फोन : ०७९-२५३५६६९२ प्रति: 250 मूल्य : ₹450-00 (सेट) मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल
९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
सम्पादन तेमज संशोधनमा द्विविध अङ्गो छ : बाह्य अने आन्तरिक. कोई एक कृति विषे काम करतां तेना कर्ता, रचनाना तथा लेखनना समयनु, पाठy, अर्थ- - इत्यादि बाबतोनुं निर्धारण करवू ते आन्तरिक संशोधन गणाय. तो ते कृतिनी हाथपोथी परथी प्रतिलिपि करवी, पाठभेदो नोंधवा, लखाय के छपाय त्यारे प्रूफवाचन द्वारा अशुद्धिनुं निवारण करवू ते बधुं बाह्य संशोधन अथवा संशोधन-कार्यनां बाह्य अङ्गरूप गणाय.
प्रश्न ए थाय छे के प्रूफवाचन (Proofreading) ए संशोधन, अङ्ग गणाय के केम? केमके आपणे त्यां सामान्यतः एवं जोवा मळे छे के जे संशोधके कृति विषे शोध-कार्य कर्यु होय ते विद्वान् ते कृतिनुं प्रूफ वांचवानुं कार्य नथी करता होता; ते काम माटे अलग प्रूफवाचक (Proofreader) रखातो होय छे. युनिवर्सिटीओ के ते कक्षानी संस्थाओ तरफथी थतां प्रकाशन-आयोजनोमां आQ खास जोवा मळतुं होय छे. सामयिकोनां तथा प्रकाशन-गृहोनां प्रकाशनो माटे पण आ प्रकारनी ज व्यवस्था थती होय छे. आनो अर्थ ए के संशोधक के सम्पादक विद्वान् प्रूफवाचनना कामने हलकुं अथवा मजूरी, काम गणे छे, अने तेवू काम हुं के अमे नहि करीए - एवी तेमनी मान्यता होय छे.
परिणामे गमे ते प्रूफरीडर पासे प्रूफो तपासाववामां आवे, तेमने मूळ कृति, लखाण के विषय साथे कशी निसबत ना होय, तेना शब्दो, वाक्यरचना, विरामचिह्नो इत्यादिथी ते अजाण होय, अने वधुमां वधु ते पोतानी सामेनी मूळ प्रत (Script) साथे मेळवीने मुद्रणमां जवा देशे. फलतः कृति के लेख घणीवार अशुद्ध के भूलभरेल छपाय छे.
हवे जो ए प्रूफ तेना संशोधक-लेखक ज वांचे तो घणीवार तेने सम्पादित कृतिमा रही गयेली क्षतिओ जडे, लखवामां पोताना हाथे थयेली भूलो ध्यानमां आवे, पदच्छेद, अर्थसङ्गति, विरामचिह्ननी योजना वगेरेनी दृष्टिए सुधारा सूझे, पाठान्तर तरीकेना पाठने मूळ पाठ तरीके लेवानुं स्पष्ट थाय, आq घjबधुं थाय, अने तो कृति के लखाण वधु सारा ने साचा स्वरूपमा उपलब्ध थई शके. आ रीते विचारवामां आवे तो, प्रूफवाचन पण संशोधन- एक अने बहु महत्त्व- अङ्ग
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होवानुं स्वीकारी शकाय.
प्रूफवाचन ए हलकुं के मजूरीनुं काम होवानी मानसिकता, आथी ज, बदलवी जरूरी छे. नबळां प्रूफवाचनने कारणे आपणां केटकेटलां सामयिको तथा पुस्तको अशुद्ध रूपमां छपाय छे ! घणीवार तो उत्तम सामग्री पण प्रूफ-दोषोने कारणे वांचवानुं छोडी देवू पडे !
सामयिकोए तथा प्रकाशन-गृहोए जे ते संशोधक तथा लेखक पासे ज तेमनी सामग्रीनां प्रूफो वंचाववां जोईए, अने शुद्ध रूपमां ज ते छपाय तेवो आग्रह राखवो जोईए. तो विद्वानोए पण प्रूफवाचनने पोताना मान-मोभाने बिनअनुरूप काम न मानीने, संशोधन के सम्पादननो ज ए एक हिस्सो छ एम समजीने, कोई जुदा वळतरनी अपेक्षा राख्या वगर ज, प्रूफो सुधारी आपवां जोईए. तो ज तेमनुं कृति-संशोधन सम्पूर्ण थयुं गणाय अने तो ज कृतिने पण उचित न्याय आपी शकाय. प्रूफवाचन शीखवं ए पण एक अभ्यासक्रम बने अने न आवडतुं होय तेवा जनो ते शीखे, तो संशोधन-सम्पादननी दुनियामां पायानो फेरफार अवश्य आवे.
- शी.
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आवरणचित्र - परिचय
आवरण पृष्ठ १ : ७५-१मां जे पोथीनां चित्रो तथा परिचय आपेल छे, ते ज पोथीनां अन्य ४ चित्रो आ अङ्कमां लीधां छे.
प्रस्तुत चित्र तीर्थङ्करोना जन्माभिषेकनुं छे. मेरुपर्वत उपर एक वखते एक साथै, बे भिन्न शिलाओ उपर बे तीर्थङ्करनो जन्माभिषेक थई शके छे. तदनुसार, अहीं एक विभाजक अवरोध द्वारा जुदी पाडवामां आवेली बे शिलाओ पर, इन्द्र खोळामां भगवान तीर्थङ्कर (नवजात शिशुरूप) ने लईने बेठा छे. जमणे सौधर्मेन्द्र वृषभनुं रूप लई शींगडारूपी नाळचामांथी प्रभुने न्हवरावे छे. तो डाबी तरफ कळश वडे प्रभुने न्हवरावे छे. बन्ने दृश्यमां शिशु-जिन इन्द्रनी गोदमां आडा सूतेला स्वरूपे जोवा मळे छे. बन्ने बाजुए विविध देव-देवीओ छे, तो नीचे मेरु परनां ३ उद्यान-वनोनां प्रतीकरूप वृक्षो पण छे. आ विषयनुं वर्णन तो ग्रन्थोमां मळे, पण तेनुं चित्राङ्कन जलदी नथी जोवा मळतुं.
आवरण ४ : विशाल कद धरावता सूर्याभ देव बे हाथ फेलावे छे अने तेमांथी नाट्य अने नृत्य वगेरे करनार देव-देवीओ-अभिनेतागण सर्जाय छे, तेनुं एक मनभावन दृश्य. तेनो परिचय " अनेक खंभके मकान में एक वेदका उपर बेठी जमणी भूजा पसारके १०८ देवकुमार नीकालै, बाहि भूजाथी देवकुमारी नीकालइ " एवो प्रतमां आप्यो छे.
आवरण २ : सूर्याभे निर्मेला १०८ - १०८ देव-देवीओ विविध रीते वार्जित्रवादन, वन्दन, नृत्य, रास आदि करे तेनुं समग्रदर्शी चित्राङ्कन. मथाळे लखेली वर्णनात्मक नोंध : " देवकुमार अरू कुमारी घणे प्रकार का बाजा बजावइ, समकाले वांदे, समकालइ उठइ नाचै, उंचा हाथ करी घूमता जाय. "
आवरण ३ : सूर्याभ देव द्वारा प्रगटेला देव - देवीओ ३२ प्रकारनां नाटक वगेरे रचे, तेमां कक्को - बाराखडीना आकारे पण ते देवो गोठवाय, नाट्यनृत्य करे, अने विविध वृक्षना आकारमां गुंथाईने पण नृत्यादि करे, तेवो उल्लेख ग्रन्थमां छे. तेनुं चित्राङ्कन आ चित्रमां थयुं छे. चित्रना प्रथम अंशमां ८ देवो एवी ते गोठवाया छे के जेथी एक वृक्षनुं चित्र सर्जाय. तो पछीना पांच अंशोमां एवी
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ते तेओ नृत्य करे छे के तेमनी गुंथणी के गोठवणी आपोआप 'क, ख, ग, घ, च' एवो आकार धरी ले. परिचय आपतां लख्युं छे के "कके का रूप, खखे का रूप, गगे का रूप, इम सर्व हरफा; असोकवृक्ष अंबा जंबूवृक्ष इम वृक्ष के रूप बनाय बनाय नाटक करे". आपणने संयोजनाचित्रो याद आवी जाय.
पोथीनां तमाम पानांना बन्ने तरफना हांसिया वेलबूटाना सुशोभन वडे एकधारा सुशोभित छे, ते पण खास नोंधवुं जोईए.
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सौजन्य
अनुसन्धान – ७५ (१ - २) ना प्रकाशन माटे श्री आदीश्वर जैन देरासर ट्रस्ट - पालघर श्रीसंघनी श्राविकाबहेनोए ज्ञानद्रव्यनी आवकमांथी उदार सहयोग आपेल छे. अनुमोदना
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अनुक्रम
८९
श्रीसीमन्धरस्वामीनी स्तवनारूप
त्रण प्राकृतभाषामय रचनाओ पं. कल्याणकीर्तिविजय चतुर्विंशति-जिनराज-स्तुति ( सावचूरि) पं. कल्याणकीर्तिविजय ८ अज्ञातकर्तृक अजितशान्तिस्तवनम् विजयशीलचन्द्रसूरि अज्ञातकर्तृक उपाख्यानकानि विजयशीलचन्द्रसूरि १९ मुनि संवेगदेव-रचित पिण्डविशुद्धि-बालावबोध
विजयशीलचन्द्रसूरि ३० गौतममाई
गणि सुयशचन्द्रविजय ८३
मुनि सुजसचन्द्रविजय रत्नसिंहसूरिशिष्य उदयधर्मरचित गणि सुयशचन्द्रविजय उपदेशमाला-सर्वकथानक-षट्पदाः मुनि सुजसचन्द्रविजय कवि मोहन-कृत
गणि सुयशचन्द्रविजय १२१ षष्ठिशतक प्रकरण दूहा
मुनि सुजसचन्द्रविजय आणंद कवि-रचित श्री चोवीशजिनस्तवन विजयशीलचन्द्रसूरि १३५ श्रीसुखविजय-रचित नव वाड भावभास विजयशीलचन्द्रसूरि १३८ गणि केसरविजय-कृत तत्त्वत्रिकपूजा (तत्त्वपूजा)
विजयशीलचन्द्रसूरि १४७ केटलीक हरियालीओ
उपा. भुवनचन्द्र १६३ गूढा - प्रहेलिका - समस्या - हरियाली (३) उपा. भुवनचन्द्र १७० एक मराठी स्तवन
उपा. भुवनचन्द्र १७४ मिथ्यात्वविरह-सम्यक्त्वकुलकम् मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १७७
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खेटकपुर[खेडा]मंडण भीडभंजन पार्श्वनाथ- स्तवन मुनि मुक्तिश्रमणविजय १८३ पाठक श्रीराजसोमजी विरचित
श्री अट्ठोत्तर सो गुण नवकारवाली स्तवन आर्य मेहुलप्रभसागर १८९ भावप्रभसूरिजी-रचित सुकडि ओरसिया संवाद रास
साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री १९४ श्रीसिद्धिविजय-कृत श्रीसीमन्धरस्वामी स्तवन
साध्वी समयप्रज्ञाश्री २३४ श्रीकनकसोम-कृत आषाढभूति-धमाल प्रा. अनिला दलाल २४५ श्रीपुण्यसागर मुनि-रचित अंजनासुन्दरी पवनंजय रास | प्रा. अनिला दलाल २५४ बाजिंद विलास - अक वैराग्यबोधनी रचना निरंजन राज्यगुरु २७४ केशवदास-कृत नेम-राजुल बारहमासा निरंजन राज्यगुरु २८४ श्रीचतुरसागर-कृत श्रीमदनकुमार रासो किरीटकुमार के. शाह २८७ ढुंढक चर्चा ॥ कर्ता : मुनिश्री वृद्धिचन्द्रजी विजयशीलचन्द्रसूरि ३१५
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सप्टेम्बर - २०१८
श्रीसीमन्धरस्वामीनी स्तवनारूप ऋण प्राकृतभाषामय रचनाओ
सं. - पं. कल्याणकीर्तिविजय
प्राकृतभाषामां रचायेल आ त्रणे कृतिओ अत्यन्त भाववाही, मञ्जुल अने. प्राञ्जल छे. आ रचनाओमां एक तरफ प्रभुभक्तिथी छलकाता हैयानो उल्लास अनुभवायः छे, तो बीजी तरफ काव्यतत्त्वनी ऊर्मिओनो उछाळ पण परखाय छे.
श्रीसीमन्धरस्वामिस्तव नामक प्रथम रचना २० मात्राना गेय छन्दमां रचायेली छे अने तेमां मुख्यत्वे महाराष्ट्री प्राकृत भाषा प्रयोजायेल छे, परन्तु केटलाक स्थळे अपभ्रंश भाषाना प्रयोगो पण देखाय छे. (जेमके जिम ४, राखि ९, करवि १०, करि १०, लागि ११, उं छउं लग्गउं १२, तीह जीह १३ वगेरे). आ रचनामां कुल २१ पद्यो छे अने ते दरेकमां कविए पोताना हृदयना उत्कट भावो साथे शब्दालङ्कारो, अर्थालङ्कारो वगेरे काव्यगुणोने पण छूटथी प्रयोज्या छे.
श्रीसीमन्धरस्वामिस्तोत्र नामक बीजी रचना आर्या छन्दमां रचायेली छे अने तेमां पण २१ पद्यो ज छे. आ कृति महाराष्ट्री प्राकृतभाषामां रचायेली छे. अहीं पण कविए पोताना उत्कट भावोने मुख्यत्वे उपमा, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास वगेरे अर्थालङ्कारो साथे प्रयोज्या छे. आ स्तोत्रमा कविनी भावाभिव्यक्ति एटली प्रबळ छे के अनेक स्थळो महाकवि धनपाल विरचित ऋषभपञ्चाशिकाना भावोनु स्मरण करावे छे.
त्रीजी कृति श्रीसीमन्धरस्वामिस्तुति छे. आ स्तुति शार्दूलविक्रीडित छन्दमां रचाई छे. तेमां प्रथम श्लोकमां सीमन्धरस्वामिनी स्तुति, बीजामा १७० जिनवरोनी स्तुति, त्रीजा श्लोकमां जिनेश्वर प्रणीत आगमनी स्तुति तथा चोथा श्लोकमां श्रुतदेवतानी स्तुति करवामां आवी छे. प्रतिपरिचय
___ कुल एक पानानी आ प्रति पूज्य गुरुभगवन्त श्रीविजयशीलचन्द्रसूरीश्वरजी म.ना अंगत संग्रहनी छे. पानानी आगली बाजुए १७ पङ्क्तिओ छे तथा पाछली बाजुए १८ पङ्क्तिओ छे. प्रत्येक पङ्क्तिमा ७०-७७ अक्षरो छे. प्रथम बे कृतिनी लेखनशैली पडिमात्रानी छे, प्राचीन लागे छे, ज्यारे त्रीजी कृतिनी शैली थोडी अर्वाचीन लागे छे. एथी एवं लागे छे के पहेला बे कृतिओ लखाई हशे अने त्रीजी कृति थोडां वर्षों पछी उमेराई हशे.
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अनुसन्धान-७५(२)
____त्रणेय कृतिमां क्यांय रचनाकार के रचनासंवत्नो उल्लेख नथी तेम ज लेखनसंवत्नो पण उल्लेख नथी. मात्र लेखनशैली अवलोकतां तेनुं लेखन १६मी सदीना उत्तरार्धमां थयुं होय तेवू अनुमानी शकाय.
अक्षरो सुन्दर छे तथा शुद्धि पण प्रायः सर्वत्र जळवाई छे.
(१)
श्रीसीमन्धरस्वामिस्तवः नमिरसुर-असुर-नरविंदवंदिअपयं रयणिकर-करनिकर-कित्तिभरपूरिअं । पंचसय-धणुह-परिमाण-परिमंडिअं थुणह भत्तीइ सीमंधरं सामिअं ॥१॥
मेरुगिरि-सिहरि धयबंधणं जो कुणइ गयणि तारा गणइ वेलुआकण मिणइ । चरमसायरजले लहरिमाला मिणइ
सो वि न हु सामि ! तुह सव्वहा गुण थुणइ ॥२॥ तह वि जिणनाह ! निअजम्मसफलीकए विमलसुहझाणसंधाणसंसिद्धए। असुहदलकम्ममलपडलनिन्नासणं तात ! करवाणि तुह संथवं बहुगुणं ॥३॥
मोहभरबहुलजलपूरसंपूरिए विसयघणकम्मवणराजिसंराजिए। भवजलहिमज्झि निवडंतजंतूकए
सामि सीमंधरो पोअ जिम सोहए ॥४॥ तेअभरभरिअदिसिविदिसिगयणंगणो पबलमिच्छत्ततमतिमिरविद्धंसणो। भविअजणकमलवणसंडबोहंकरो सामिसीमंधरो दिप्पए दिणयरो ॥५॥
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सप्टेम्बर - २०१८
३
सुजण-मण-नयण-आणंदसंपूरकं दुरितहरतार-तारकमणीनायकं । सयल जगजंतु-भवताप-पापापहं
नमउ सीमंधरं चंदसोभावहं ॥६॥ सुरभवणि गयणि पायालि भूमंडले नयर-पुरि नीरनिहि-मेरुपव्वयकुले । देव-देवीगणा नारि-नर-किन्नरा तुम्ह जस नाह ! गायंति आदरपरा ॥७॥
नाणगुणि झाणगुणि चरणगुणि मोहिआ सार-उवसारसंभारसंसोहिआ। रयणि-दिणि हरिसवसि सुत्त-जागरमणा
तात ! पई नाह ! झायंति तिहुअणजणा ॥८॥ सिद्धिकर-रिद्धिकर-बुद्धिकरसंकरा विसयविस-अमिअभर सामिसीमंधरा । पुव्वभवविहिअवरपुन्नचयपामिआ राखि हिव भूरिभव-भवण गोसामिआ ! ॥९॥
कम्मभर-भारसंभार-अइभग्गओ घणउँ फिरिऊण जिण ! पाय तुह लग्गओ । मज्झ हीणस्स दीणस्स सिवगामिआ
करवि करुणारसं सार करि सामिआ ॥१०॥ कठिणतरघाइ तिरअत्तणे ताजि(तज्जि)ओ नरयगइ करुण विलवंत न हु लज्जिओ । मणुअगइ हीणघरि कम्मवसि पडिअओ लागि तुह चलणि आणंदि हिव चडिअओ ॥११॥
के वि तुह दंसणे देव ! सिवसाहगा के वि वाणी सुणी चरणि भवमोअगा। भरहखित्तंमि हउं झाणि छउं लग्गउं देहि आलंबणं नाह ! जइ जुग्गओ ॥१२॥
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४
धन्न ते नर जहिं सामिसीमंधरो विहरए भविअजण - सव्वसंसयहरो । कामघट - देवमणि-देवतरु फलिअओ तीह घरि जीहरइं सामि ! तूं मिलिअओ ||१३||
करजुअल जोडि करि वयण तूं (तुह) निसुणिसो बाल जिम हेल दे पाय तुह पणमिसो । महुरसरि तुम्ह गुणगणह हउं गायसो रूव निअनयणि रोमंचिओ जोइसो ||१४|| तुम्ह पासे ठिओ चरण परिपालिसो
हणि कम्माणि केवलसिरि पामिसो । तुम्ह करु निअय जिण ! सिरसि संठाविसो सो वि कइआ वि मम होइसइ दिवसओ ॥ १५॥ भरहखित्तंमि सिरिकुंथु - अरअंतरे जम्म पुंडरगिणी विजय पुक्खलवरे । मुणिसुवयतित्थ - नमि अंतरं इह जा रज्जसरि परिहरिअ गहिअ संजम तया ॥१६॥
हणिअ कम्माणि लहु लद्ध-केवलसिरी देहि मे दंसणं नाह ! करुणा करि । भाविए उदयजिण सत्तमे सिवगए बहुअकालेण सिद्धिंगमी सामिए ॥१७॥
अनुसन्धान- ७५ (२)
मोहभर-मानभर-लोहभरभरिअओ दंभभर - रागभर - कामभरपूरिअओ । एह परि भरहखित्तंमि मूं सामिआ !
सार करि सार करि तारि गोसामिआ ! ॥१८॥
भोगपद-राजपद-नाणपद - संपदं
चक्किपद - इंदपद जाव परमं पदं ।
तुझ भत्तीइ सव्वं पि संपज्जए एह माहप्प तुह सयलि जगि गज्जए ॥१९॥
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सप्टेम्बर
२०१८
जगति हमिति तुह जि मम जीवनं
तात ! तूं परमगुरु कम्ममलपावनं । कम्मरु विययरु जोडि करु वीनवउँ देहि मूं अलजया दंसणं अभिनवं ॥२०॥ इअ भुवणभूसण दलिअदूसण सव्वलक्खणमंडणो मद-मानगंजण मोहभंजण वामकामविहंडणो । सुररायरंजण नाण- दंसण - चरणगुणजयनायगो जिणनाह ! भवि भवि तात भव मे बोधिबीजह दायगो ॥ २१ ॥
॥ इति सीमन्धरस्वामिस्तवः ॥छ ।
*
(२) श्रीसीमन्धरस्वामिस्तोत्रम्
केवलनाणसणाहं, विदेहवासंमि संठिअं धीरं । सुर-मणुअनमिअचलणं, सीमंधरसामिअं वंदे ॥१॥ जय सीमंधर सामिअ!, भविअमहाकुमुयबोहणमयंक ! | सुमरामि तं महास!, अहं ठिओ भारहे वासे ॥२॥ सीमंधरदेव ! तुमं, गामागर - पट्टणेसु विहरंतो । धम्मं कहेसि जेसिं, सहलं चिअ जीविअं तेसिं ॥३॥ किं भयवं ! मह कम्मं, समुट्ठिअं तारिसेहिं पावेहिं । जं न हु जाओ जम्मो, तुह पयमूले सयाकालं ॥४॥ चिंतामणिसारिच्छो, अहवा कप्पहुमु व्व सुहफलओ । अप्पुव्वकामधेणू, न हु न हु ताणं पि अहिअयरो ॥५॥ छज्जइ तुह सामित्तं, तिहुअणमज्झमि न उण अन्नस्स । जहा एरिसरिद्धी, न हु दीसइ सेसपुरिसस्स ॥६॥ कइआऽहं सामि ! तुमं, सिंहासणसंठिअं सपरिवारं । धम्मं वागरमाणं, पिच्छिस्सं निअयनयणेहिं ? ॥७॥ पुज्जंतु ते मणोरह, निच्वं जे हिअयसंठिआ मज्झ । पावइ रंको वि फलं, संपत्ते कप्परुक्खंमि ॥८॥
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६
अनुसन्धान- ७५ (२)
निच्चं झामि अहं, तुह पयकमलं सुनिम्मलं धीरं । तह करि देव ! पसायं, जह दरिसायं ममं देसि ॥९॥ ते धन्ना कयपुन्ना, देवा देवी अ माणवा सव्वे | जे संसयवुच्छेअं, करंति तुह पायमूलंमि ॥१०॥ अहयं पुन्नविहूणो, ठाणे ठाणंमि संसयावडिओ | अच्छामि विसूरंतो, छउमत्थो नाणपरिहीणो ॥११॥ कुणसु पसायं गरुअं, वुच्छित्ती संसयाण जह होइ । जम्हा महाणुभावा, सरणागयवच्छला हुंति ॥ १२ ॥ कम्मवसेण य अहयं, भारहवासंमि जइ वि चिट्ठामि । तह वि तुमं मह हिअए, रयणायर - चंदनाएणं ॥ १३ ॥ तं पहु तं मज्झ गुरु, तं देवो बंधवो तुमं चेव । गुरुसंसारगयाणं, जीवाणं हुज्ज तं सरणं ॥१४॥ संसारजलहिमज्झे, निबुड्डुमाणेहिं भव्वसत्तेहिं । पइदिवसं समरिज्जइ, सीमंधरसामिपयकमलं ॥१५॥ जइ इच्छह परमपयं, निव्विन्ना तह य जम्म - मरणाणं । ता सुमरह जिणनाहं, विदेहवासंमि विहरंतं ॥ १६ ॥ जो निच्चं भव्वाणं, विदेहवासंमि सामि विहरंतो । सद्धम्मदेसणाए, मिच्छत्तपणासणं कुणइ ॥१७॥ पच्चूसे मज्झण्हे, संझासमयंमि सव्वकालंमि । सीमंधरतित्थयरं, वंदेहं परमभत्ती ॥१८॥ पंचधणुस्सयमाणो, चउरासीपुव्वलक्खवरिसाऊ । सो सीमंधरनाहो, अनंतनाणी सया जयउ ॥ १९ ॥ सुव्वय-नमितित्थयर-अंतरे रज्जलच्छिवच्छि (विच्छ)ड्डुं । छड्डिअ पवन्नदिक्खं, सीमंधरसामिअं वंदे ॥२०॥ इअ सीमंधरनाहो, थुओ मए भत्तिरायकलिएण । सासयसुहिक्कजणओ, नयनाहो होउ भविआणं ॥ २१ ॥
॥ इति सीमंधरस्वामिस्तोत्रम् ॥छा|
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सप्टेम्बर - २०१८
श्रीसीमन्धरस्वामि-स्तुतिः जो रज्जं पविहत्तु सुव्वय-नमीतित्थेसराणंतरे दिक्खं गिन्हिअ पत्तकेवलमहो बोहेइ भव्वे जणे । वंदे पुव्वविदेहवासवसुहासिंगारहारोवमं तं सीमंधरसामिअं जिणवरं कल्लाणकप्पद्रुमं ॥१॥
जुत्तं सट्ठिसयं विदेहपणगे एरावए भारहे पत्तेअं पण पंच सत्तरिसयं एवं अहेसी पुरा । इक्किक्कंमि विदेहि संपइ पुणो चत्तारि चत्तारि जे
ते सव्वेऽईअऽणागए जिणवरे बद्धंजली वंदिमो ॥२॥ जो गंभीरभवंधकूवकुहरुत्तारे करालंबणं जो नीसेससमीहिअत्थघडणाकप्पडुमो पाणिणं । मिच्छत्ताइमहंधयारलहरीसंहारसूरुग्गमं तं दुदंतकुवाइदप्पदलणं वंदे जिणिदागमं ॥३॥
जा सीमंधरसामिपायकमले सिंगारभंगीसया खुद्दोवद्दवविद्दमं(व)मि निउणा सव्वस्स संघस्स जा। जा अट्ठारस बाहुदंडकलिआ सिंहासणा सोहए। सा कल्लाणपरंपरा दिसउ मे पच्चंगिरादेवया ॥४॥
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अनुसन्धान-७५(२)
चतुर्विंशति-जिनराज-स्तुति (सावचूरि)
सं. - पं. कल्याणकीर्तिविजय
आ एक यमकबद्ध अनुपम रचना छे जेमां चोवीश तीर्थंकरोनी एक-एक अनुष्टुप् श्लोकमां स्तुति करवामां आवी छे. साथे ज, छेल्ले ४ श्लोकोमा द्रुतविलम्बित छन्दमां सामान्य जिननी स्तुतिनो जोडो छे जे पण यमकबद्ध ज छे. प्रस्तुत २८ श्लोकोमा दरेकमां बीजुं तथा चोथु चरण समान छे, परन्तु बन्ने चरणोनो पदच्छेद तथा तेने लीधे थतो अर्थभेद चमत्कारपूर्ण छे.
__ आवां अन्य यमकबद्ध काव्योनी जेम, अर्थसङ्गति करवामां आ पण एक अघरी ज रचना छे, परन्तु तेनी साथे आपवामां आवेल अवचूरि तेने सरल बनावी दे छे.
__ अवचूरिनुं लाघव, जरूर पडे तेटला ज शब्दोनो अर्थ-वगेरेथी जणाय छे के कृतिना कर्ता तथा अवचूरिना कर्ता एक ज होवा जोइए । जो के, बन्नेमांथी एकेय कर्तानो क्यांय उल्लेख करायो नथी. छतांय, छेल्ला (२८मा) श्लोकमां सकलश्रुतनायिका - ए पदथी एवं अनुमानी शकाय के आ रचनाना कर्ता उपाध्याय श्रीसकलचन्द्र गणि होई शके, कारण के तेमनी विद्वत्ता तथा कवित्वशक्तिने अनुरूप ज आ रचना छे; अथवा सकल पद जेमना नाममां आवे तेवा बीजा कोई कवि पण होई शके. प्रतिपरिचय
स्तम्भतीर्थनगर (खम्भात) स्थित श्रीतपगच्छ अमर जैनशाळाना ज्ञानभण्डारनी ४७१/३८७२ क्रमाङ्कित प्रतनी झेरोक्ष कोपी परथी आ रचना सम्पादित थई छे. आ प्रतनी नकल पू. उपाध्यायजी श्रीभुवनचन्द्रजी म. द्वारा प्राप्त थई छे, तेथी तेमनो तथा ज्ञानभण्डारना कार्यकर्ताओनो आभार मानुं छु. प्रस्तुत प्रति पञ्च-पाठी शैलीनी पडीमात्रामां, १६मा सैकामां लखायेल होय तेवू जणाय छे. रचनासंवत् के लेखनसंवत्नो उल्लेख नथी. अक्षरो सुन्दर छे तथा अवचूरि सह समग्र रचना अत्यन्त शुद्ध छे.
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सप्टेम्बर - २०१८
चतुर्विंशतिश्रीजिनराजस्तुतयः
(सावचूरयः)
श्रीनाभेयजिनः सोऽव्याद्, रागसागरमन्दरः ।
मुक्तं यं नाऽऽप भवभू-रागसाऽगरमन्दरः ॥१॥ अवचूरिः स श्रीनाभेयजिनोऽव्याद् - रक्षतात् । अर्थात् युष्मान् संसारतः ।
राग एव यः सागरः - समुद्रस्तत्र मन्दरो - मेरुः, तन्मथनादिकर्तृत्वेन तत्तुल्यत्वात् । यं - जिनं, [भवभूः-] संसारोद्भवो दरो - भयं, नाऽऽप - न प्राप्तवान् । यं किम्भूतम् ? - आगसा - पापेन मुक्तं; यदुक्तमनेकार्थे - 'आगः स्यादेनोवदघे मन्ता'विति । यश्च पापेन मुक्तस्तस्य संसारभयं न स्पृशत्येवेति भावः । पुनर्यं किंविशिष्टम् ? - अगरमम् - अगः - शैलस्तद्वन्निश्चला, यद्वा न गच्छतीति व्युत्पत्त्या अगा - स्थिरा रमा - अनन्तज्ञान-दर्शनादिसम्पद् यस्य स तथा, तम् ॥१॥ तं नमस्कुर्महे भक्ते-रजितं विनतामरम् ।
यः पाति जनतां दोषै-रजितं विनतामरम् ॥२॥ अवचूरिः विनता अमरा यस्मै स तथा, तम् अजितनाथम् । दोषैर्न जितम् ।
अरम् - अत्यर्थम् । विनताम् - अर्थात् संसारदुःखभारेण भुग्नां - कुटिलामुद्विग्नामित्यर्थः । यदनेकार्थः - विनतः प्रणते भुग्ने इति । एवंविधां जनताम् ॥२॥ भवतो भवतः पायात्, सदा शम्भवनायकः ।
न यं शिवश्रियः स्तौति, सदाशं भवनाय कः ॥३॥ अवचूरिः भवतो - युष्मान्, भवतः - संसारतः । शिवश्रियो - मोक्षश्रियो,
भवनाय - प्रादुर्भावाय, यद्वा भूधातोः प्राप्त्यर्थस्याऽपि भावात् भवनाय - प्राप्तये । सती - शोभना - जगद् मुच्यतामित्यादिरूपाऽऽशा - वाञ्छा यस्य तं तथा ॥३॥
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अभिनन्दनतीर्थेश !, भवताऽपाप ! नोदितः । उत्तार्योऽहं भवाम्भोधे, भवतापापनोदितः ॥४॥
अनुसन्धान- ७५ (२)
अवचूरि: हे अपाप!, भवता - त्वया, अहं भवाम्भोधेरुत्तार्यः - उत्तारणीयः । नोदितः न उदयं प्राप्तः । भवतापेन
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अहं किम्भूतः ? संसारतापेन, अपनोदितो - विरुद्धं प्रेरितः ॥ ४ ॥
रतिस्तवाऽस्तु मे स्वामिन्!, सुमते ! सुमते ! हिते । आसन्नश्रेयसा प्राप्त-सुमतेऽसुमतेहिते ॥५॥
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अवचूरिः हे श्रीसुमते ! - सुमतिनाथ !, तव सुमते - सुष्ठु मते, मे - मम, रतिरासक्तिरस्तु, इति क्रियादिसम्बन्धः । तव सुमते किंविशिष्टे ? हिते - सर्वेषु हितकारिणि, पुनस्तव मते किंविशिष्टे ? [आसन्न - श्रेयसा -] आसन्नकल्याणेन, असुमता प्राणिना, ईहिते - आश्रयितुं वाञ्छिते, हे प्राप्तसुमते ! प्राप्ता शोभना मतिः केवलज्ञानरूपा येन स प्राप्तसुमतिस्तत्सम्बोधनम् ॥५॥
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शिवश्रीदानतो नम्रान्, पद्मप्रभ ! समोदय ! |
यः स्मर: ( रं? ) जितवान् भाऽस्तप्रद्मप्रभ ! समोदय ! ॥६॥ अवचूरि: हे श्रीपद्मप्रभ !, स त्वं [शिवश्रीदानतो ] मोक्षलक्ष्मीदानात् नम्रान् अर्थादङ्गिनो मोदय - हर्षयेति क्रियाकर्त्रादिसम्बन्धः । यस्त्वं, कन्दर्पं जितवान् । हे भास्तपद्मप्रभ ! भया रक्तया स्वदेहकान्त्याऽस्ता पद्मानां – पदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचारात् - पद्मरागमणीनां - पद्माभरक्तमणीनां प्रभा येन स भास्तपद्मप्रभस्तत्सम्बोधनम् । समोदय ! शिवस्थत्वेन कदाऽप्यविनश्वरत्वात् सम्पूर्ण उदयो यस्य, यद्वा, सह मा (म) या - ज्ञानादिलक्ष्म्या उदयेन वर्तते यः स तथा, तत्सम्बोधनम् ॥६॥
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श्रीसुपार्श्वजिनाधीश !, भवतापापहारिणा ।
सनाथेयं मही जज्ञे, भवता पापहारिणा ॥७॥
अवचूरिः पापहारिणा भवता - त्वया । भवस्य - संसारस्य यस्तापस्तमपहरती • त्येवंशीलो यस्तथा, तेन ॥७॥
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सप्टेम्बर - २०१८
स्तुमस्ते पुनतः स्वामिन् !, महसेननृपान्वयम् ।
पादान् मोदयतो ज्ञान-महसेन ! नृपान् वयम् ॥८॥ अवचूरिः हे स्वामिन् ! महसेनराजकुलं तव पुनतः पादान् वयं स्तुम इति
क्रियादिसम्बन्धः । तव किं कुर्वतः ? मोदयतः नृपान् - प्रमोदं प्रापयतः । हे इन ! - सूर्य !, केन? ज्ञानमेव यन्महस्तेजस्तेन ॥८॥
कुरु श्रीसुविधे ! बोधि, मम मोहमहोजयी ।
यया संसारशत्रोः स्यामममोऽहमहोऽजयी ॥९॥ अवचूरिः भवान्तरे श्रीजिनधर्मप्राप्तिर्बोधिः, यत्तदोनित्यसम्बन्धादत्र तामित्य
ध्याहार्यम् । मोहस्य यन्महः - प्रतापस्तज्जयवान् । यया बोध्या कृत्वाऽहमममो निर्ममः सन् संसारशत्रोर्जयकरः स्याम् । अहो इति विस्मये । संसारशत्रुजयकार्याद्धि न परं विस्मयकरं कार्यमिति भावः । यद्वा जयीति पौनरुक्त्यभीत्या संसारशत्रो रजः क्षेपकः स्याम् । अहेति किलार्थे, उ इति चादौ सम्बोधनार्थे, ई इति पादपूरणे, तेनाऽखण्डाहो इति शब्दाभावादत्र सन्धिरिति ॥९॥ त्रिकालं चरितं चित्ते, स्मरामोऽभयवर्धनम् ।
श्रीशीतलजिनेन्द्रस्य, स्मरामोभयवर्धनम् ॥१०॥ अवचूरिः अभयस्याऽभयदानस्य संसाराद् भयाभावस्य वा वृद्धिकरम् । स्मरश्चा
ऽऽमश्च रोगो बाह्याभ्यन्तरस्तदुभयस्य वर्धनं - छेदकं, वर्धण् छेदनपूरणयोरिति वचनात् ॥१०॥ भावतो यैः श्रितः सिद्धौ, श्रेयांसः सत्वराशयः ।
ते भवन्ति सदा लब्ध-श्रेयांसः सत्त्वराशयः ॥११॥ अवचूरिः सिद्धौ - सिद्धिप्राप्तिविषये सत्वर आशयोऽभिप्रायो यस्य स तथा।
श्रीश्रेयांसजिनः । लब्धानि श्रेयांसि - कल्याणानि यैस्ते तथा । सत्त्वराशयः - प्राणिगणाः ॥११॥ मानवैर्दानवैर्देवैर्वा सुपूज्य ! शिवालयः । यैः श्रितस्त्वं भजन्त्येतान्, वासुपूज्य ! शिवालयः ॥१२॥
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अनुसन्धान-७५(२)
अवचूरिः वा समुच्चये । नराद्यैर्हे सुपूज्य !, शिवमेवाऽऽलयो यस्य स तथा ।
[शिवालयः] - कल्याणश्रेणयः ॥१२॥
यस्त्वं धत्से नृणां देव !, भवाब्धौ तारकप्रभाम् ।
विमल ! श्रेयसे बिभ्रद्, भवाऽब्धौतारकप्रभाम् ॥१३॥ अवचूरिः संसारसमुद्रे तारकतुलाम् । हे श्रीविमल! स त्वं श्रेयसे भवेति
क्रियादिसम्बन्धः । अद्भिः पानीयैधौतं यदारमेवाऽऽरकं - पित्तलं, तस्य प्रभां - कान्ति बिभ्रद् - दधान इति; सुवर्णवर्णत्वात् निर्मलपित्तलप्रभां बिभ्राण इति भावः ॥१३॥
वन्देऽनन्तजितः पादान्, परमानन्ददायिनः । ।
कर्मणां मर्मणां लक्ष्या, परमानन्ददायिनः ॥१४॥ अवचूरिः परम आनन्दो यत्रेति व्युत्पत्त्या परमानन्दो - मोक्षस्तद्दातुरनन्तजितः
श्रीअनन्तनाथस्य पादानहं वन्दे इति सम्बन्धः । कर्मणां यानि मर्माणि तेषाम् 'अदु बन्धने' इति वचनात् अन्दनमन्दो - बन्धस्तं द्यति - छिनत्तीत्येवंशीलो यस्तस्याऽनन्तजित इदं विशेषणं, कर्ममर्मबन्धच्छेदकस्येति भावः । पादान् किंविशिष्टान् ? - गज-वृष-चक्राङ्कुशादिश्रिया परमान् - प्रकृष्टान् ॥१४॥ श्रीमद्धर्मजिनो जीयाद्, वारितापदघ-स्मरः ।
नृणामन्तर्मलापोह-वारि तापदघस्मरः ॥१५॥ अवचूरिः आपदश्च, अघानि च, स्मरश्चाऽपदघस्मराः, वारिता-निषिद्धा
आपदघस्मरा येन स तथा । अन्तर्मलः कर्माष्टकादिरूपस्तदपोहे वारि - पानीयं जिनः । तापदानां - सन्तापदानां घस्मरो - विध्वंसनशीलः ॥१५॥ श्रीमत् शान्तिप्रभो ! पाहि, जगतीं दुरितापहः ।
भवद्वेषी नवो यस्त्वं, जगतीन्दुरितापहः ॥१६॥ अवचूरिः जगतीं - भुवनं पाहि - रक्ष । दुरितमपहन्तीति तथा । अग्रे
यच्छब्दयोगादत्र स इति लभ्यते । तेन स त्वं जगतीं पाहि, यस्त्वं
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सप्टेम्बर - २०१८
जगति - विश्वे, नवो - नव्य इन्दुश्चन्द्रोऽसि । भवं - संसारं द्वेष्टीत्येवंशीलो भवद्वेषी । भवमौलौ स्थितत्वादपरश्चन्द्रश्च न भवद्वेषी, भवशब्देनेश्वरोऽपि । ए: - कन्दर्पस्य तापमपहन्तीति इतापहः । चन्द्रस्तु विरहिणां कन्दर्पतापकृदिति ततो नवत्वं भगवतः ॥१६॥
कुन्थुनाथ ! प्रसादात् ते, सुरमानवमानितः ।
न कः पुमान् भवेद् ? भोगान्, सुरमानवमानितः ॥१७॥ अवचूरिः सुर-मानवैर्मानितः - पूजितः, कः पुमान् न भवेद् ? अपि तु
सर्वोऽपि, तव प्रसादात् भवत्येव । [सुरमानवमान् -] शोभनरमाप्रधानान् भोगान् इतः - प्राप्तः सन् ॥१७॥
अरनाथ ! श्रियाऽपार-परभागमनोहरः ।
न केषां प्राप्तसंसार-परभाग ! मनोऽहरः ? ॥१८॥ अवचूरिः अपारो-ऽप्रमाणो यः परभागो - गुणोत्कर्षस्तेन मनोहरः - प्रधानः ।
प्राप्तः संसारस्य परभागो येन तत्सम्बोधनम् । हे श्रीअरनाथ ! श्रिया - प्रातिहार्यादिलक्ष्म्या त्वं केषां न मनोऽहरः? - हृतवान् ? अपि तु सर्वेषामिति भावः ॥१८॥ श्रीमन्मल्लिजिनाधीश!, समतासारमानसः ।
नतस्त्वं येन काः प्रापाऽसमतासा रमा न सः ? ॥१९॥ अवचूरिः समतया सारं मानसं यस्य स तथा । त्वं येन नतः स - पुरुषः
का रमा न प्राप? अपि तु सर्वा अपि प्राप्तवान् । रमाः किम्भूताः? असमताम् - असम्पूर्णतां स्यतीत्यसमतासाः, क्विप् इति डप्रत्यये रूपनिष्पत्तिः । असमतासाः - सम्पूर्णा इत्यर्थः ॥१९॥
श्रये त्वां शरणं दोषाजित ! पद्मातनूद्भव ! ।
श्रीसुव्रत ! जगज्जैत्र !, जितपद्मातनूद्भव ! ॥२०॥ अवचूरिः पद्मानामा (म्नी) भगवतो जननी । तत्तनूजो भगवान्, तत्सम्बोधनम् ।
जगज्जैत्रः । जितः पद्मातनूद्भवो - मन्मथो येन, तत्सम्बोधनम् ॥२०॥
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अनुसन्धान-७५(२)
श्रीनमेः पुनतः पादान्, विशालं विजयान्वयम् ।
पूज्यस्य संस्तुमः सर्व-विशाऽऽलम्बिजयान् वयम् ॥२१॥ अवचूरिः सर्वविशा - सर्वजनेन, पूज्यस्य आलम्बी - आश्लेषी जयो येषां
येभ्यो वा ते तथा, तान् । पादविशेषणमिदम् ॥२१॥
श्रीनेमे ! क्रियते येन, विभयाऽसमयाऽऽदरः ।
स्तुतौ ते भासुराऽयं स्याद्, विभया समयाऽदरः ॥२२॥ अवचूरिः हे विभय ! - विगतसंसार !, हे [वि] भय ! ते - तव स्तुतौ, येन
- पुंसा, समो - निरुपम आदरः क्रियते, अयं - पुमान्, अदरः - सप्तभयादिरहितः स्यादिति क्रिया-कळदिसम्बन्धः । हे भासुर ! - दीप्र!, कया ? - विभया - देहकान्त्या भामण्डलादिकान्त्या वा, किंभूतया? - समया - साध्व्या, यदनेकार्थः - "समं साध्वखिलं सदृ"गिति । यद्वा, सह मया प्रातिहार्यादिलक्ष्म्या वर्तते या विभा सा समा, तया । प्रातिहार्यादिलक्ष्म्या देहादिकान्त्या च भासुर इति भावः ॥२२॥
श्रीमत्पार्श्वप्रभोर्वन्दे, पादद्वयमुदारताम्।
बिभ्रद् विश्वां यदापद्भ्योऽपादद्वय ! मुदा रताम् ॥२३॥ अवचूरिः भक्तजनेभ्योऽभीष्टदानादिहेतोरुदारतां बिभ्राणं श्रीपार्श्वप्रभोस्तत् पादद्वय
महं वन्दे । यत् पादद्वयमद्वयमद्वितीयं मुदा रतामासक्तां, विश्वांपृथ्वीमापद्भ्यो अपात् - अरक्षत् ॥२३॥
यः श्रीवीर ! स्तुते तेऽस्तपरमान ! यशोऽभितः ।
लभतेऽसौ श्रियः का नो, परमा नयशोभितः ? ॥२४॥ अवचूरिः हे श्रीवीर ! अस्तः - क्षिप्तः, परः - प्रकृष्टो, मानो येन स तथा,
तत्सम्बोधने हे अस्तपरमान!, ते - तव, अभितः - सर्वतो विस्तृतं यशः स्तौति, असौ - पुरुषो, नयशोभितः सन् काः परमाः श्रियो नो लभते ? अपि तु सर्वा अप्यसौ श्रियः प्राप्नोत्येवेति ॥१२४॥
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सप्टेम्बर - २०१८
अथ साधारणवृत्त्या सर्वजिनस्तुतिमाह -
जिनपतिर्भवतो भवतोऽवता
दमर-दानव-मानवनायकैः । श्रितपदो यदुपास्तिरकारि ना
ऽदमरदाऽनवमानवनाय कैः ॥२५॥ अवचूरिः भवतः - संसाराद्, भवतो - युष्मान्, अवताद् - रक्षतात् । देव
दानव-मानवस्वामिभिः, श्रितपदकमलः । यस्य जिनपतेः उपास्तिः - सेवा, कैर्नाऽकारि ? अपि तु सर्वैरपि कृतैव । किमर्थम् ? अवनाय - रक्षणाय, अर्थात् संसारादिभयात् । उपास्तिः किम्भूता? - अदमं "रदति लेखने" - इति वचनात्, रदतीत्यदमरदा - अशमच्छेदिका। भवतः किम्भूतान् ? - अनवमान् - भक्त्यादिना प्रकृष्टान् ॥२५॥ शिवसुखाय भवन्तु जिनेश्वराः
समतया हितयाऽमलमानसाः । सुरवरैर्महिता बहुरूपया
__ऽसमतयाऽऽहितया मलमानसाः ॥२६॥ अवचूरिः समतया हितया - हितकारिण्या, अमलं मानसं येषां ते तथा,
बहुप्रकारया, सुरवरैराहितया - स्थापितया, असमतया - निरुपमप्रातिहार्यादिलक्ष्म्या कृत्वा सुरवरैः पूजिताः । कर्माद्यन्तर्मलं मानं च स्यन्तीति मलमानसाः ॥२६॥ जिनपतेर्मतमस्तु शिवाय तद्
_ विततभं गमहारि नयालयम् । परकुशास्त्रजुषा गतयाऽपि यद्
विततभङ्गमहारिनया लयम् ॥२७॥ अवचूरिः वितता - सर्वत्र विस्तृता भा - दीप्तिः शोभा यस्य तत् तथा ।
यद्वा, अग्रे विस्तीर्णार्थ-विततशब्दग्रहणेनाऽत्र पौनरुक्त्यपरिहाराय "ततं वीणाप्रभृतिक "मिति वचनात्, विशिष्टा ततस्य वीणादिवादित्रगणस्य भा - दीप्तिः, स्वरूपप्रतिपादनादिरूपा यत्र तत्तथेति आख्येयम् ।
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१६
अनुसन्धान- ७५ (२)
गमाः - सदृशपाठास्तैर्हारि- मनोज्ञं, नया - नैगमाद्यास्तानालीयते आश्लिष्यतीत्यचि नयालयं, तद्गृहमित्यर्थः । यन्मतं परशास्त्रसम्बन्धिन्याया लक्ष्म्या लयं - प्रकर्षं गतयाऽपि नाऽहारि - न हृतम् । लक्ष्मीवाचकेन ईशब्देन तृतीयान्तेन या रूपनिष्पत्तिः । यत् किम्भूतम् ? वितता - विस्तीर्णा भङ्गस्त- तद्वस्तुप्ररूपणप्रकारा
यत्र तत्तथा ।
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भवतु विघ्नविघातविधायिका तनुभृतां सकलश्रुतनायिका । श्रयति या स्वतनुं विशदद्युता
तनुभृतां सकलश्रुतनायिका ॥ २८ ॥ छ ॥ ग्रं० ३०॥ अवचूरिः सकलश्रुतस्य द्वादशाङ्गरूपस्य नायिका - स्वामिनी - श्रुतदेवता, प्राणिनां विघ्नविघातविधायिका भवत्विति क्रियादिसम्बन्धः । यातनु यथा स्यादेवं निर्मलकान्त्या भृतां स्वतनुं श्रयति । किंविशिष्टं ? - सकलं - सातिशयं यत् श्रुतं, तस्य नायिका प्रापिका ॥२८॥
॥ इत्यवचूरिः समाप्ता ॥ छ ॥ अवचूरिग्रन्थाग्रं श्लोक - ७३ ॥
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सप्टेम्बर
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२०१८
अज्ञातकर्तृकं अजितशान्तिस्तवनम्
१७
सं. - शी.
मुनि नन्दिषेणनी रचेली, प्राकृतभाषाबद्ध अने विविध छन्दोमय रचना 'अजितशान्ति' जैन संघमा अत्यन्त भावपूर्वक अने श्रद्धापूर्वक बोलाती - गवाती अनुपम स्तोत्र - रचना छे. तेनुं अनुकरण तेमज अनुसरण करीने मध्यकाळना विविध कविओए 'अजितशान्ति स्तव' नाम धरावती केटलीक कृतिओ संस्कृत भाषामां रची छे. तेवी एक बे रचना अन्यत्र प्रकाशित पण होवानुं ध्यानमां छे.
तेवी ज एक नानकडी रचना अत्रे आपवामां आवी छे. 'झुलणा' छन्दमां, विद्वत्ताप्रचुर संस्कृत भाषामां रचायेल आ अजितशान्ति स्तवन, परम्परागत रीते ज, अजितनाथ तथा शान्तिनाथ ए बे तीर्थङ्करोनी स्तुतिस्वरूप छे. भाषा समासप्रचुर, प्रासमय, प्राञ्जल छे. १६ पद्यो झुलणामां अने १७मुं आर्यागीतिमां छे. अशुद्धिओ छे, तेने सुधारवा माटे तेनी बीजी प्रति आवश्यक गणाय उपलब्ध बे पत्रोनी एक प्रतिना आधारे आ वाचना आपी छे.
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प्रति १८ मा सैकामां लखाई होवानुं अनुमान छे. कर्ताना नामनो के रचनासमयनो कोई उल्लेख के संकेत जडतो नथी. कर्ता संस्कृतना उत्तम विद्वज्जन हशे तेमां सन्देह नथी.
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अजितशान्तिस्तवनम् ॥
सकलसुखनिवहदानाय सुरपादपं पादपङ्कजनतानेकनाकाधिपम् ।
अचलशिवनिलयमप्रलयगुणशोभितं नौमि जिनमजितमहमजित मुदितोदितम् ॥१॥ शान्तिमुपशान्तभवभूरिभयपरिभवं भवनवनसुघनघनवारिवरवैभवम् । परमशममिन्दुसममसममहिमोदधे ! नन्तुमीहामनन्तामहं सन्दधे ॥२॥ पुण्यरथसुपथनयनाय वृषभक्षमौ विपुलसंसारसरिदोघपुलिनोपमौ । सिद्धिसीमन्तिनीश्रुतिवतंसायितौ सम्पदे जिनपती अजितशान्ती युतौ ॥३॥ यः समूहो मुदामजनि जनकाम्बयो - स्तारमवतारमवगम्य सम्यग् ययौ । गजवृषभप्रमुखसुस्वप्नसन्दर्शनात् तमलमवगन्तुमन्ये न मन्ये जना ॥४॥ जननसमये ययोरसुरसुरनायका नवनवानेकनेपथ्यपरिधायि (य) का । विदधुरुत्सवमतुच्छं गिरौ मन्दि (न्द) रे वासये तौ जिनौ निजमनोमन्दिरे ॥५॥
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अनुसन्धान- ७५ (२ )
कोशलापुरवरे पूतविजयोदरं भूपजितशत्रुकुलकमलवनदिनकरम् । द्विगुणनवशतकरप्रमितवरभूघनं नौमि कनकाभमिभचिह्नमजितं जिनम् ||६|| गजपुरे विश्वसेनेशकुलभूषणं रुचिरमचिराङ्गरुहमनघमृगलक्षणम् । षष्ट्यधिकहस्तशतवपुषमुत्तमसुखं शान्तिनाथं च गाङ्गेयगेयत्विषम् ॥७॥ जलधिरसनावनीविततवरसा (शा) सनं चिन्तितोपस्थितद्विरदतुंरगासनम् । ललितललनाजनाबद्धबहुबर्करं यौ चिरं राज्यमवतः स्म विस्मयकरम् ॥८॥ नदनुदमुजाहिनप्रथितमहिमोदयं (?) वर्षदानेन परिपुष्टजनसमुदयम् । जगृहतुः स्वहितकामावकामं व्रतं तौ नमस्कृत्य तोषं भजेऽनवरतम् ॥९॥ तमसि जी(जा?)ते ययोरखिलदोषोदिते निपुणनीरजवने निव (बि) डमामोदिते । उदितवति केवलज्ञानभानौ द्रुतं दिवसपतिनाऽपि खद्योतपोतायितम् ॥१०॥ यत्पदाम्भोजभजनाय जातत्वरैः संघसंघट्टन (ना) घृष्टभूषणभरैः । व्यूढमपि रुचिरचिररूढरसनिर्भरैः पाणितलमानमभवन्नभो निर्जरैः ॥११॥ भरितभवदुरितदवदहनपरितापिता सदसि यद्वाचमपि पुण्यबुद्धयापिता । सत्यसन्धा सुधासारसेकं नरे- शामरेशा मुदा सर्वदा मेनिरे ||१२|| आतपत्रत्रयं चारवश्चामराः कोटिसङ्ख्या भजन्तेऽभितश्चाऽमराः । अनुपहतदुन्दुभिध्वनितमच्युतपदे यदतिशयराजिरेखा न केषां मुदे ? ॥१३॥ बोधयित्वाऽथ तत्त्वानि धीरं जनं यो गतो योगतो धाम नीरञ्जनम् । तमहमजितं च शान्तिं च चञ्चद्युतिं सुचिरमञ्चामि पञ्चेषुविजयोद्यतम् ॥१४॥ द्विप-रिपु- व्याल - वेताल-रोगा -ऽन - ऽनला - नीर - चौरादयोऽन्येऽपि सकलाः खलाः। तं न लुम्पन्ति कञ्चुकिन इव वञ्जुलं नमति यो विमदमिदमेव जिनयामलम् ॥१५॥ पाक्षिके किल चतुर्मासिके वार्षिके पर्वणी (णि) प्रकृतपरपुण्यनरनायि(य?)के। योऽमुमतिसोममतिरजितशान्तिस्तवं पठति निशृणोति लभते सुखं स ध्रुवम् ॥१६॥ गुणराजिविराजिततमरिपुराजित-मजितशान्तिजिनयुगलमिदम् ।
मति सु(?) सभाजनमतिशयभाजन - मुपजनयतु संघस्य मुदम् ॥१७॥ इति श्रीअजितशान्तिस्तवन सम्पूर्णं ॥
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अज्ञातकर्तृक उपाख्यानकानि
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सं. - शी.
उपाख्यान एटले उपाख्यायिका, उपकथा अर्थात् कथाने पूरक एवां पेटा उदाहरण. भाषामां प्रचलित 'उखाणां' शब्दनुं मूळ आ 'उपाख्यान' मां जडे. देशी भाषामां उखाणां एटले जलदी न बूझाय तेवी पहेली - प्रहेलिका- समस्या; अने ओठां. जैन आगम 'नायाधम्मकहाओ मां करोडो कथाओ होवानी वात छे. त्यां तेनो परिचय आपतां जणाव्युं छे के "दस धम्मकहाणं वग्गा । तत्थ एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयासयाई, एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासयाई, एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइयोवक्खाइयासयाई ।" अर्थात् एकेक धर्मकथामा ५०० आख्यायिकाओ, एकेक आख्यायिका - अन्तर्गत ५००-५०० उपाख्यायिकाओ, अने प्रत्येक उपाख्यायिकामां ५००-५०० आख्यायिकोपाख्यायिकाओ. 'आख्यायिका' एटले 'आख्यान' मुख्य कथा, एम अर्थ करीए तो, 'उपाख्यायिका' एटले 'उपाख्यान' पेटा कथा के उपकथा, एम अर्थ थई शके. तो आ 'उपाख्यानक'ने उपाख्यायिका गणाववानुं संगत न गणाय.
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आ बधुं शुं होय अने केवुं - केवी रीते होय ते विषे मनमां प्रश्न रह्या करतो. आ 'उपाख्यानक'नी प्रति हाथमां आवी त्यारे एक समाधान जड्युं के 'उपाख्यानो' आमां छे ते प्रकारनी उपाख्यायिकाओ होई शके. अलबत्त, आ सम्भावनामात्र छे, विधान नथी. प्रस्तुत कृति कोई विद्वज्जने करेला काव्य - साहित्य - विनोदरूप कृति छे. आवुं संकलन अनेक सर्जकोने पोतानी रचनामां वैविध्य अने चमत्कृति आणवा माटे उपयोगी बने छे. आमां उपमा-रूपक - विनोक्ति - दृष्टान्त वगेरे विविध अलङ्कारोथी अलङ्कृत दृष्टान्तो आपवामां आव्यां छे.
कृतिना बे विभाग छे. कुल ५४ लघु-विभागोमां वहेंचायेली आ कृतिमां प्रथम २१ विभाग संस्कृतमां छे, अने २२ थी ५४ सुधीना बधा विभाग मध्यकालीन गुजरातीमां छे. तेमां २१ मो विभाग तीर्थङ्करनां विशेषणोनो मात्र छे. १ थी २० विभागो 'उपाख्यानात्मक' छे, अने ते बधामां मुख्यत्वे उपमाओ तथा कहेवत प्रकारनां वाक्यो छे.
गुर्जर भाषाना विभागोमां क्यांक विशेषणो छे, क्यांक उपमारूप के कहेवत जेवां वाक्यो छे, तो क्यांक कोई कोई विषयनुं रसप्रद वर्णन छे. समग्रपणे जोतां आमां 'उपाख्यानक' नी विभावना जळवाती नथी, अने सरवाळे एक वर्णनात्मक कृति बनीने रही जाय छे.
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अनुसन्धान- ७५ ( २ )
क्र. ९नां उपाख्यानो क्र. ५४ पछीना फकरामां पुनः जोवा मळे छे. ए ज रीते क्र. १३नां उपाख्यानो ज क्र. ५५ (५४) मां पुन: लखायां छे.
आकृतिना कर्ता विषे जाणकारी प्राप्त करवानुं कोई साधन नथी. परन्तु कोई जैन साधु आना कर्ता वा संकलनकार हशे ए तो आमां आवतां जैन सन्दर्भों द्वारा स्पष्ट जायतेम छे.
लीक अशुद्धि पण जोवा मळे छे. बीजी प्रति मळे तो आ वाचना शुद्ध थवानो संभव खरो.
निजी संग्रहनी, सम्भवतः १७मा शतकमां लखायेली, ३ पत्रोनी एक प्रति परथी आ सम्पादन थयुं छे.
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उपाख्यानकानि ॥
यथा रजनी चन्द्रेण शोभते, नभः सूर्येण, प्रासादो देवेन, मुखं नासिकया, वल्ली कुसुमेन, कुलं पुरुषेण, कुलवधूः शीलेन, प्रेक्षणकं गीतेन शोभते ॥१॥ सिंहेन वनं वनेन सिंहः, मुखेन नासिका नासिकया मुखं, पात्रं गुणैश्च गुणा: पात्रेण, कमलं जलाशयेन जलाशयः कमलेन, सुवर्णं रत्नेन रत्नं सुवर्णेन, अमात्येन राज्यं राज्येनाऽमात्यः ॥२॥
यथा शस्त्रहीनो वीरः, मन्त्रहीनो मन्त्री, प्राकारहीनं नगरं, स्वामिहीनं बलं, दन्तहीनो गजः, कलाहीनः पुमान्, तपोहीनो मुनिः, प्रतिज्ञाहीनः पुरुषः, शीलहीनो मुनिः, नायकहीना नायिका, दानहीनं धनं, स्वामिहीनो देशः, वेदहीनो विप्रः, गन्धहीनं कुसुमं, नयनहीनं मुखं, वनहीनं सरः, शीलरहिता नारी, दयाहीनो धर्मस्तथा न शोभते ॥३॥
नायिकानेत्रवत्, विद्युल्लताविलासवत्, सन्ध्याभ्रडम्बरवत्, वातान्दोलितध्वजाग्रवत्, समुद्रकल्लोलवत्, सज्जनकोपवत्, दुर्जनमैत्रीवत्, वेश्यास्नेहवत्, गिरिनदीवेगवत्, गजकर्णवत्, शरत्कालमेघवत्, चञ्चलं जीविताद्यम् ॥४॥
मर्कटो नालिकेरेण, काको रत्नेन, वणिक् खड्गेन, बधिरो वीणया, दरिद्रो लीलया, दिगम्बरो दुकूलेन, मुनिः आभरणेन किं कुरुते ? ॥५॥
इन्दुः स्वैरिणीनां, उद्योतश्चौराणां, दीपः पतङ्गानां, सूर्यः कौशिकानां,
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वृष्टिर्जवासकानां, सुभिक्षं धान्यसङ्ग्राहकाणां, गजितं शरभानां, चन्दनं विरहिणीनां ॥६॥
चन्द्रे कलङ्कवत्, कज्जलवत् दीपे, मेघे विद्युद्वत्, चन्दनेऽग्निवत्, जले सेवालवत्, विभवे मदोऽसारः ॥७॥
सर्पात् मणिः, मृगात् कस्तूरिका, पङ्कात् कमलं, क्षीरसमुद्रात् चन्द्रः, कृमेः कौशेयं, तथा शरीरात् तपः सारः ॥८॥
यदि मेय(घ)धारासंख्या स्यात्, दिवि तारकाणां संख्या, गङ्गातटे रेणुसंख्या, समुद्रे बिन्दुसंख्या, सर्वज्ञे गुणसंख्या, मातृस्नेहसंख्याऽपि तदा स्यात् ।।९।।
__ निजैरेव गुणैश्चमरी बन्धनं प्राप्नोति, कस्तूरिका मर्दनं, चन्दनं छेदं, अगरुर्दाहं, रोहणः खन्यते, धवलो वाह्यते, फलिततरुराक्रम्यते, समुद्रो ममन्थे देवैः ॥१०॥
सुवर्णं करे, दानं दुर्भिक्षे, पौरुषं रणे, शीलं संकटे, वाग्मिता सदसि, साहसं दुर्दशायां, मित्रं व्यसने, कलत्रं आपदि, पुत्रं वृद्धत्वे जायते ॥११॥
कमलेनातपत्रं करोति, चन्दनेन लाङ्गलं, सुवर्णेन कुशी, रत्नेन काकोड्डायनं, अमृतेन पादशौचं, गजेनेन्धनवाहनं, मौक्तिकैः सारमेयाभरणम् ॥१२॥
यथा सूर्यं विना दिवसं न, पुण्यं विना सुखं न, गुरूपदेशं विना विद्या न, हृदयशुद्धि विना धर्मो न, दानं विना कीर्तिन, साहसं विना सिद्धिर्न, कुलस्त्री विना गृहं न, वृष्टिं विना सुभिक्षं न, तथा वीतरागं विना मुक्तिर्न ॥१३॥
____ कासः परार्थ(र्थे) विडम्बनां सहते, मौक्तिनि(क) वेधं, सुवर्णं तापताडनं, अगरुर्दाहं, चन्दनो घर्षणं, कस्तूरिका विमर्दनं, नागवल्ली दन्तपीडनं, तरवस्तापं, दधि मथनानि, इक्षुर्यन्त्रपीडनं, जलधराः पानीयवहनं, मञ्जिष्ठा वेदनाम्
॥१४॥
दन्ताश्चर्वन्ति उपकारो रसनायाः, क्रमेलको वहति उपकारः पुण्यवतां, खरश्चन्दनं वहति उपकारो धनिनां, लिखन्ति लेखकाः फलमागमवेदिनः, युध्यन्ते सेवका जयः स्वामिनः ॥१५॥
सुवचनेन मैत्री, चन्द्रदर्शनेन समुद्रः, शृङ्गारेण रागः, विनयेन गुणः, दानेन कीर्ति(तिः), अभ्यासेन विद्या, न्यायेन राज्यं, औचित्येन महत्त्वं, औदार्येण प्रभुत्वं,
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अनुसन्धान-७५(२)
क्षमया तपः, पूर्ववायुना जलदः, घृताहुत्या वह्निः, भोजनेन शरीरं, पुत्रदर्शनेन हर्षः, मित्रदर्शनेन आल्हादो वर्द्धते ॥१६॥
दुर्वचनेन कलहः, तृणैर्वैश्वानरः, उपेक्षया रिपुः, अपथ्येन रोगः, कण्डूयनेन खर्जः ॥१७॥
असन्तोषेण तृष्णा, व्यसनेन विषयाः, निन्दया पापं, विरहेण रात्रिः, घृतेन ज्वरो वर्धते ॥१८॥
___ वामनः शाखिफलानि ग्रहीतुं कथं शक्नोति?, अन्धश्चित्रमवलोकयितुं, बधिरो वीणानिनादं श्रोतुं, पङ्गस्तीर्थानि गन्तुं, निम्बो मधुरीभवितुं, काको हंसायितुं, मूर्खः पण्डितं स्थातुम् ॥१९॥
दरिद्रस्य मनोरथाः हृदये एव विलीयन्ते, कूपस्य छाया, सुरङ्गाया धूलिः, सत्पुरुषस्य कोपः, वनस्य कुसुमं, कृपणस्य लक्ष्मीः ॥२०॥
जगत्भूषण गतसर्वदूषण तीर्थङ्कर पापक्षयङ्कर निस्तीर्णसंसारसागर गुणरत्नाकरः करुणानिधान सकलदेवप्रधान भुवनश्लाघनीयरूप प्रकाशितसंसारस्वरूप लोकोत्तरचरित्र गङ्गाजलपवित्र परमानन्ददायि(य)क चतुर्विधश्रीसंघनायि(य)क निर्मथितकलिकाल निर्नाशितदुरितजाल निर्दलितस[कल]दोष निःप्रतिमसन्तोष मुक्तिनगरीस्वामी धर्मस्य लघुबान्धवः कल्याणलक्ष्मीभाण्डागार संघस्य तिलक मोक्षयाचककल्पवृक्ष सत्यकमलाराजहंस क्रोधराजसिंहः मोहतिमिररविः विषयसर्पगरुडः संसारसमुद्र पोतः मुनिः ॥२१॥
जसु रायतणइ खड्गि राजलक्ष्मी वसइ, सरस्वती जिह्यं वसइ, वचनालापि अमृत वसइ, महाजनकिहिं गौरव दरिसइ, सेवकजन मन संतोसइ, दीठउ आनंद करइ, तूठउ दारिद्र हरइ, रूठउ सर्वस्व हरइ, नीति अणुसरइ, अन्याय परिहरइ, कीर्ति काहरइ, देवगुरु मेल्ही कुणहइ सिरु न नामइ, मधुर प्रसन्न मुख, प्रीतरंगितमन, दानसन्मान, आलापअमृतसहोदर, चतुर चौरेवाचा(?), सारु शौर्यनु, शमश्रीविलास तत्त्वविचारणैकबुद्धिः, अस्खलितसर्वत्रकीर्तिः सत्पात्रसंयोगधनोपार्जनः ॥२३(२२)।
जइ सूकी तोई बउलसिरी, जइ वींधी तोई मोतीसरी, जइ भागउ तोई सेराहुं (राहु?), जइ खंडउ तोइ चंद्रमा, जइ ताविओ तोइ कांचन, जइ घसिओ तोइ चंदन, जइ काली तोइ कस्तूरी, जइ वादल तोइ दीहु, जइ लहुडउ तोइ सीहु,
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जइ थोडउं तोइ सुपात्रदान || २४ (२३) ॥
ठीकरी कारणि कुण हेमकुंभ फोडइ, निःकारण कुण आजन्मस्नेह त्रोडइ, कामधेणु कुण ढीली मेल्हइ, चिंतामणि हाथि पेलइ, कल्पद्रुमकु उन्मूली लंषेइ, लक्ष्मी आवती कुण राखइ, जिणधर्म लिही कुण प्रमादु सेवइ || २५ (२४) |
२३
विरह त्रोडती, वलय मोडती, आभरण भंजति, वस्त्र गांजती, किंकणी कलाप छोडती, मस्तक फोडती, वक्षस्थल ताडती, कुंतल कलाप रोलती, पृथ्वी लोटती, सकज्जलि बाष्पांजलि कुंचक सिंचती, दीनु बोलती, सखीजन अपमानती, पाणीरहित माछली जिम टलवलती, विकल थाती, क्षणि म्हझइ रूरुइ, तसु तणउं तणुसंतापइं चंदणु मृणालन ( ना?) ल मेल्हइ, झाल्य चंद्रज्योत्स्ना ज्वलइ, चंद्रोपल बलइ, हारु भावइ अंगारु, कदलीहर मान (नु) जमघर, जे सीतलोपचार ते जि भइ विकार, इणि प्रकारि प्रबल ज्वलिता स्नेहपटलु एवंविध विरहानल नीपजइ 1128 (24)11
द्राक्षातणी आकांक्षा किसिउं महूडे फीटइ, शर्करा श्रद्धा किं गुलि पूजइ, अमृतकाजि किं कांजी पीजइ, कस्तूरी वानउ किं काजल कीजइ, इंद्रनीलमणि काजि किं काचु लीजइ, तथा वल्लभ माणुसतणउ ऊमाहउ न ईतरि पूजइ ॥२७(२६)॥
छेदरी छासि केतलउ पाणी खमइ, पातली छाया केतलउ आतपु शमइ, कायर केतलउं रणांगणि झूझइ, निरक्खर केतलउं कहिउं बूड (झ) इ, पाछिलउ मेघ के. (केतलउं) गाजइ, तथा कारमउ नेह केतलउं छाजइ ॥२८ (२७)॥ अथ कलिकाल
सपापु लोक, तुच्छू नरेन्द्र, सकारण स्नेह, विश्वासघातक मित्र, दुश्चारिणी कलत्र, अर्थलुब्ध पुत्र, स्वापक्षीया बांधव, असन्तुष्ट मित्र, पाखंडी यति, प्रतापहीन पुरुष, अपूज्य देव, अमेध्यरत सुरभी, देव-गुरु प्रतिं अभावु, अल्प वृष्टि, अविवेकी राजपुत्र, कुलवधू निर्लज्ज, अहंकारी मूर्ख, विद्वांस दरिद्र, वृद्ध कामुक, प्रजा कष्टित, मुहरु रवाई करु(?) लोकु, सहू एकाकारु ॥२९(२८)॥
राजवर्णनं
आदित्य जिम प्रतापी, सिंह जिम सूरु, हंस जिम उभयपक्षविशुद्ध, हारु
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अनुसन्धान- ७५ ( २ )
जिम कामिनीवल्लभ, चंद्रमा जिम कलावंतु, पटी जिम गुणवंतु, हस्ती जिम दानवंतु, कंदर्प जिम रूपवंतु, निजविक्रमाक्रान्तक्षोणीमण्डलु, सकलमहीपालमौलायिमौलिशासनु, रिपुकुलकालकेतु, सरणागतवज्रपंजरू, पंचमलोकपालु, सीमाल वसिवर्त्तीया कीधा, गढ सघला ढाल्ला, सर्व दुर्ग आपणा कराव्या, समुद्र पर्यंत आज्ञा प्रवर्तावी, इणि परि एकछत्र निःकंटक राज्य परिपालइ ||३० (२९)॥
अथ प्रतीहार : रायनिर्देशकारी, सुवर्णमयदंडधारी, कंठकंदलितप्रलंबमान- मौक्तिकहारु, पहिलउं भेटी इक प्रतीहारु || ३१ (३०) ||
महोत्सव करावइ, मुशलादिक उचावइ, प्रधानपुरुष तेडावइ, सुवर्णमय कलश थपावइ, तलिया तोरण बांधई, प्रासाद वैजयंती झलकावइ, जोति मेल्हावइ, एकत्र जोइसी जोइं सुचाहिउ, ए० (एकत्र?) मंगल चारु दीजइ, तूरु वाजइ, कूरु खाजइ, बीडां दीजइ, अक्षतपात्र आवई, अर्थव्ययतणी संभाल नही ॥३२ (३१)॥
आस्थानसभा : भूमिका चढालिउ, बहुल कुंकुम तणउ छडउ, कस्तूरिकातणा स्तबक, बावन श्रीखंड गूहली, काचईं कपूरि स्वस्तिक, अवींधि मोती चउक पूरु, प्रवालातणे खंडि नंद्यावर्त्त रच्या, पुष्पप्रकर भारिया, कृष्णागरु ऊखेविउ, पंचवर्ण पट्टकूल उल्लोच, प्रलंब मोतीसरि, राजा स्वयमेव आस्थानि बइसइ |
ऊपरि मेघाडंबर छत्र, मस्तकि मुकुट, दीप्तिनिर्जितमातृमंडल, कर्णि कुंडल, वक्षस्थल स्थूल मुक्ताफल नवसर हारु, हस्ति सहस्रदल कमल, पुरुषप्रमाण सिंहासन, कटी प्रमाण पादपीठ, पश्चिमदिग्भागि थईयायतु, वामप्रदेशि मंत्रि, जिमणइ पुरोहित, बिहु पक्षे अंगरक्षकतणी ओलि, इसउ आस्थानमंडप ||३३(३२)॥
पवनोद्धूतध्वजपटलसहस्र, छत्त तरणिकिरण, सुभटहक्कारवित्रासितकारमण, भंभाभेरीनि:स्वानबधिरितदिगंत, बंदितणे वृंदि जयजयाकारि, प्रयाणक राजा चालिए, जाणे करि ब्रह्मांडभांड फूटइ लागउं, नक्षत्र तूटी पडइ लगां, धरा फाटी पाताल प्रवेस करइ, इसिउं राजाप्रस्थान ||३४ (३३) ॥
जयकुंजरि चडिउ, तुरंगमतणि थाटि परिकरित, पताकां फरकती, मेघाडंबरतणइ आडंबरि, सीकरि तणा डमालि, मंडलीकतणइ परिवारि चालिउ ॥३५ (३४) ॥
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अथ रावण
लंका राजधानि, त्रिकूट गदु, अनेकि अक्षोहणि दल, अढाल कोडि तूरी, जिणि मृत्यु बांधी पातालि घालिङ, नवग्रह खाट पाए बांधा, वाउ आंगण ओछुहारइ । ८४ मेघ छडउ दिइ । वनस्पती फूलपगरु भरइ । आदित्य रसवती करइ | चंद्रमा घडी घडी अमृत श्रवइ । यमु घांट बांधी पाणी वहइ । सातसमुद्र मांजणउं करावइ । सात मातर आरती ऊतारइं । विश्वकर्मा शृंगार करावइ । आस्थानि तेत्रीस कोडि देव ओलग आवई । गंगा यमुना चामर ढालई । तुंबरु गाईं । नारद नाडु करइ । सरस्वती वीण वायइ । रंभा नाचइ । बृहस्पति पुस्तक वांचइ। इंदु माली, ब्रह्मा पुरोहित, भृंगिरिटि आचमनु करावइ । जीमूत ऋषि छोरू खेलावइ । कामदेव कटारडं बांधइ । वासुकि खाट पुहरउ दिइ । कुलिक हुष (?) उपकुलिक बेउ पाय तलांसइ । अर्धपुहरू श्रीखंड घसइ । वैश्वानर कपडां पखालइ । चामुंडा तलाउं करइ । विनायक गर्दभ चारइ । विहि बइठी कोद्रवा दलइ । इसिउ महाशासनु अरडकमल्लु जगरुषणा ( ? ) ॥३६ (३५) |
निर्मांस तुंड नाभि, कानि टूंकउ, पश्चिम प्रदेशि स्थूलु, वेगि वायरहइं जिणइ, वक्रीकृत कंधर, विशिष्ट पार्श्व, समुद्रकल्लोलवच्चंचलु, अत्यायि (य) त पृष्टतलु, शंखशक्ति भद्र रोमावर्ति रमणीयु, सर्वांगि रेवंत, देवताधिष्ठित, स्निग्ध रोमराजि, अत्यद्भुत तेज, जिसउ साक्षादुच्चैश्रवा हुइ ||३८ (३७) |
विकट फटाटोप, जिह्वाद्वय संवलित, फार फूत्कार घोणा, चूडामणिप्रहतांधकार, विषमविषोद्गार, अवनिवनितावेणीदंडायमान, यमुनाप्रवाहश्यामायमान, कुटिलप्रकृति, वक्रगति, कृतांतकोपक, गुंजाफलारुणलोचन, एवंविध सर्प ॥३८॥
आभरणानि : हारु, अर्द्धहारु, त्रिसरक, चतु:सरक, नवसरक, कुंडलक, एकावली, कनकावली, बह्वावली, प्रवरावली, सूर्यावली, चन्द्रावली, नक्षत्रावली, श्रोणीसूत्र, कटीसूत्र, रसना, मुकुट, पट्ट, शिखरु, चूडामणि, मुद्रामंतक, दशमुद्रिका, मुद्रिकांगुलीयक, हस्तांगुलक, हेमजाल, मणिजाल, रत्नजाल, गोपुच्छक, उरस्त्रिक, मर्मक, वर्णसरिक, कदंबपुष्पक, तिलभंगक, कर्णपीठ, कर्णपालिका, वृषभक, वक्रक, अलर, मषमुदक, संकलक, विशिष्टमौक्तिकभंगक, उत्तेरिका, संकलिका, पदक, ग्रैवेयक प्रभृति ॥३९॥
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अनुसन्धान-७५(२
बहुत्तरि कला वणिग् कला, वेश्याकला ७४, जूआरी कला ७५, रस्य(स?)वणिक् ॥४०॥
अथ पिशाचः - सागरवत् उत्कटदंष्ट्राकरालः, ज्वालाजाल (ला)कुल, अट्टहास करतउ, फोकारव मूकउ, किलकिलारव विस्तारतउ, चर्मपरीधान, यमजिह्वासमान, हाथ काती ॥४१॥
राजकुलिका: - युवराज, कुमार, राजेश्वर, सामंत, महासामंत, श्रीकरण, वइकरणा, कुमार करणिक, धर्माधि०, अंतःपुर क०, रसवती कo, जीणशाल क०, श्वानपाल क० सुवर्णधारणि क(क०) आखंडल क; कोट क; ईट क; आराम क०, खड क० ॥४२॥
रोगवर्णनं - खास, श्वास, भगन्दर, गुल्मवात, गडवात, रक्तवात, कंपवात, भस्मवात, उष्णवात, अग्निवात, लोहवात, लूतावात, हर्षावात, आमवात, शोफवात, विगंचिवात, शाकिनीवात, रक्तपित्त, षाठवात, राजकपित्तक, कृमिकोष्ठ, गलितकोष्ठ, कृष्ण मो(को?)ष्ट, षसरु कोष्ट, महोदरु, अतिसारु, कृच्छ्रविकार, उदरशूल, हृदयशूलु, कुक्षिशूल, स्कंधशूल, पृष्टिशूल, शिरशूल, शिरोरोग, नेत्ररोग, कर्णरोग, दंतरोग, ओष्ठरोग, कपोलरोग, जिह्वारोग, कंठरोग, ग्रंथिरोग, अरोचकरोग, क्षयरोग ||४३||
आलानस्तंभ मोडिओ, निबिड शृंखला त्रोडी, कपाटसंपुट फोडी, आवास पाडतउ, आवास मारतउ, वृक्ष उन्मूलतउ, मूर्त्तिमंतउ कृतांत, मदपरवश, गजराज चालिउ ॥४४॥
प्रज्ञा बृहस्पतितणी, प्रतिज्ञा परशुराम र. (त.), मर्यादा समुद्र त०, स्थिरता मेरु त०, गुरुआई गगन र . ( त.), निर्मलता गगन त, क्षमा धरणी त., मान दुर्योधन त., सत्यु हरिश्चंद्र त., साहसु विक्रमादित्य [त.] ॥४५॥
प्र (प्रा) सादथरा: - खरशिर १, आडथरु २, जादूभउ ३, कणाली ४, गजपीठ ५, अश्वपीठ ६, सिंहपीठ ७, नरपीठ ८, कुंभउ ९, कलसउ १०, कवाजि ११, मांची १२, जंघा १३, उदढाइउ १४, भरणी [१५] प्रमुखाः || ४६ ॥
सुभट किया हुई ? - जींहं तणउं जाणीतउं कुल, स्वामी तणउं छलु, भालातणउं बलु, आवासि आचारु, थोडउं बोलई, निगर्व चालइं, षटदर्शन नमइ, वाकु रही गमइ, संग्राम दुर्धरु, परनारि सहोदरु, पागुडइ प्राण करइ, स्वामी -
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सप्टेम्बर
कार्यि रमइ,
बोलावी दिइ थाउ जाणइं युद्धोपाउ ||४७||
मं(म) दोदाहरणानि - जातौ मेतार्य पूर्वभव १, कुले मरीचि : २, रूपे सनत्कुमारः ३, बले रावणः ४, श्रुते सिंहरूपधारी श्रीस्थूलभद्र ५, तपसि स्थूलभद्रस्य ai (सिंहगुहा मुनि ६, लाभे सुभूम चक्रवर्त्ति ७, ऐश्वर्ये दशार्णभद्र राजा ८ ॥४८॥
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नलु परघरि सूयारु, हरिश्चंद्र चंडाल - घरि पाणी वहइ, परशुराम मायतणुं शिर छेद करइ, बावन्न वीर पयठाण तणा राज्यकारणि आवज्या, माघ जेवडउ विद्वांस अणाथियग सूडी मुउ, गांगेय जस प्राण गिया, नागार्जुन रस पूंठि मूउ, सगरचक्रवर्त्ति साठि सहस्र बेटा दुःख देखइ, वासुदेव द्वारिका बलती देखइं, तस्मात् परोपकार करिव ॥४९॥
दु गरूड, गरुई पोलि, निबिड कपाल (ट), लोहमय भोगल, विजहरीतणी पद्धति, यंत्रतणी श्रेणि, ढीकलीतणी परंपरा, खाई तणउ दुर्ग, बल तणउ दुर्गा, परप्रवेश नहीं, हस्तीतणउ ढोउ नहीं, नींसरणी ढोउ नहीं, भेदसंभावना नहीं, जिसउ वज्रमय घडिउ, विश्वकर्मा निर्मापित, किं बहुना ? देव रहई अगम्यः ॥५०॥
अथ राजा: माहान्यायपालकः, धर्मनउ पात्र, मकरध्वजावतार, श्रीदेवगुरुपरमभक्तिकः, विक्रमनिवासु, सप्तव्यसननिषेधनतत्परु, पुरुषप्रमाण सिंहासन, कटीप्रमाण पादपीठ, आजानबद्ध उपविष्ट, देवतावसरु, मंत्रावसरु, तिलकावसरु, आरूतीवसरु, सर्वत्र परे उपविष्ट युवराजकुमार, राजेश्वर, मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, सामंत, लघुसामंत, अमात्य, महामात्य, सभ (भ्य), महासभ्य, प्रधान प्रमाणी(णि)क, सेनापति, मंत्रि, महामंत्रि, राणा, श्रीगरण, वयगरणा, रायगरणा, देवगरणा, नायक, दंडनायक, आंगलेखक, भांडागारिक, संघिविग्रही, साहणी, पट्टसाहणी, अग्रे दंडाधिपति, प्रतीहार, अंगरक्षक, कडू, वहकराज, द्वारलेखक, कथगर, कविवर, काठिया, मसूरिया, दीवटीया, उपाध्याय, बयकार, आलवणिकार, वंशकार, आउजी, पखाउजी । पाश्चात्यपक्षे तार्किक, ज्योतिषी, वैद्य, महावैद्य, गजवैद्य, अश्ववैद्य, मांत्रिकादि, पंडित, महापंडित ॥५१॥
पुनः राजवर्णनं - निशितकरवालधाराप्रहार, विदलितारातिकुंभिकुंभोच्छलितमुक्ताफलसुवलितविश्वंभराभोग, वसुंधरा (रो) द्धारवराहावतार, विजयलक्ष्मीविवाहस्वयंवरा(र)मंडपु, संग्रामकरणरसिक, दूरपक्षविक्षेपदक्ष, रूपरेखामकर
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अनुसन्धान-७५(२) ध्वजावतार, मानिनीमानज्वरवैद्य, धनुर्विद्याहितअर्जुन, अकीतिलंकाहनूमंत, सेवकजनवत्सल, विवेकनारायण, परनारीसहोदर, अखंडितप्रताप, वेलाऽवनिनिखातकीर्तिस्तंभ, पराक्रमि करी भीम, दानि कर्णनरेंद्र, सत्यवाचा युधिष्ठिरः, चातुर्यतुरंगमवाहियालि, याचककल्पवृक्ष, दुष्टनिग्राहकु, साधुपालक, राजसमान, चक्रवर्ति, नीतिनिधान, साहसिकस्थान, जेहिं जेहिं प्रति प्रसन्नु तिहां तिहां दातारू, जिहां जिहां कुपित तिहां तिहां कृतांतावतार, दोषई दरिद्र, गुणद्रविणईश्वर, परदूषणान्वेषणजात्यंध, तत्त्वविलोकनसहस्राक्षः ॥५२॥ राजावर्णनं ॥
अथ राज्ञी - जिसी हमकामलोचन(?), पसइ प्रमाणलोचना, कलकंठ, कुंडलाभरणकणयमंडित, एरावणकरिकुंभविभ्रमकारि, मदनमुद्रावतारि, विततहारि ॥
__ केतला इसउं भणइ : धर्माधर्म पदार्थ नथी । ते किम बूझवीइ ? । तउ किसिउ निमित्त एक राय एक रांक, एकि ईश्वर एकि दरिद्र, एक पंडित बीजा मूर्खः, एकि नायक बीजा पायक, एकि सुखी बीजा दुखी, एकि प्रचुर परिवारि बीजा दुर्भग, एक सावरण बीजा निरावरण, एक सुचक्षु बीजा विगतचक्षु, एक सुवर्णस्थालिभोजी बीजा खपरभोजी, एकि सुवर्णमयसिंहासनोपविष्ट बीजा भूमितलोपविष्ट, एक उत्तम जाति बीजा नीच जाति, एक प्रशस्य कुलि बीजा कुच्छितु कुलि, एक लक्षभरि बीजा उदरंभरि, एकि सुरूप बीजा कुरूप, इसउ सुकृत-दुःकृततणउ विशेष प्रकट दीसइ छइ ॥५३॥
यथा सूर्यं विना दिवसं न, पुण्यं विना सुखं न, पुत्रं विना कुलं न, गुरुपदेशं विना विद्या न, हृदयशुद्धि विना धर्मो न, धनं विना प्रभुत्वं न, दानं विना कीतिर्न, भोजनं विना तृप्तिन, श्रीवीतरागं विना मुक्तिर्न, साहसं विना सिद्धिर्न, जलं विना शुद्धिर्न, उद्यम विना धनं न, कुल स्त्री विना गृहं न, वृष्टिं विना सुभिक्षं नहि ॥५५(५४)॥
यदि मेघस्य धारासंख्या भवति, गगने तारकसंख्या भवति, अवनि रेणुकणसंख्या भवति, समुद्रे मत्स्यसंख्या भवति, मेरुगिरौ सुवर्णसंख्या भवति, श्रीसर्वज्ञे गुणसंख्या न, मातरि स्नेहसंख्या न ॥
इति उपाख्यान ॥
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काहरइ
बउलसिरी = बकुलश्री-बोरसल्ली
सेराहुं
= राहु (?)
कुंचक = कुच (?) म्हझइ = मध्ये (?)
रूरुइ = रुए (?)
झाल्य = झाळ
गुलि = गोळ वडे
छेदरी = ?
अमेध्यरत = उकरडे पडेली
पटी = ?
सीमाल = सीमाडा, सीमाडाना राजाओ
ढाल्ला = ढाळ्या (?)
ओलि = आवलि, श्रेणि
सीकर = श्रीकरी - एक राज्याधिकारी
श्रीकरण दुया
डमाल = डाकडमाल - दमामभेरा ?
पलंग - खाटलो
खाट =
घांट:
= घाट
मांजणउं = मार्जन, मंजन, मज्जन (?) नाडु नाद (?)
=
रिटि = रिषि (?) पुहरउ =
पहेरो
*
लाक शब्दो
तलांसइ = चांपे- चंपी करे, पगनां तळियां घसे तलारउं = रखवाळुं
विहि = विधि-विधाता
जगरुंखणा ( ? )
वायरहइं = वायराने
गुरुआई = गुरुता - गौरव - गरिमा
सूयारु = सूपकार- रसोईओ
विजहरी = ?
ढीकली = ?
ढोउ = ढौक
श्रीगरण = श्रीकरण
वयगरणा = व्ययकरण कडू = ?
वहकराज = ?
कथगर = कथाकार
काठिया = ?
मसूरिया = ? दीवटिया = ?
बयकार = ? आलवणिकार = ? आउजी = ? पखाउजी = ?
२९
*
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अनुसन्धान-७५ (२)
मुनि संवेगदेव - रचित पिण्डविशुद्धि - बालावबोध
सं. शी.
'पिण्डविशुद्धि' ए जैन मुनिना आचारनुं प्रतिपादन करतो लघुग्रन्थ छे. 'पिण्ड' एटले आहार, तेनी 'विशुद्धि' केवी होय ? केवी रीते संभवे ? तेमां केवा केवा दोषो लागे ? अने तेने निवारवा केवी रीते ? इत्यादि विषयनी चर्चा आ प्रकरणमा थई छे. 'अन्न तेवुं मन' एवी लोकोक्ति छे. आहार जो अशुद्ध तो चित्त मलिन अने आचरण पण अशुद्ध; आथी आहारनी शुद्धता पर जैन आचार्योए बहु भार आप्यो छे. एमां पण अहिंसा - संयम - तपना नियमोनुं कठोर पालन थाय ते बाबत मुख्य रही छे. साधु पोते रांधे नहि, रंधावे नहि, खरीदे नहि, पोताना माटे रांधेलो के खरीदेलो पदार्थ ले नहि लूखो - सूको - नीरस आहार ज ग्रहण करे; कोई मनुष्य के याचक के पशुने पण तकलीफरूप न थवाय ते रीते ज आहार ग्रहण करे; आ प्रकारना अनेक नीति-नियमोनी विशद बात आ ग्रन्थमां थई छे.
मूळ रचना प्राकृतभाषामां गाथाबद्ध छे. १०२ लगभग गाथाओमां पथरायेला आ ग्रन्थनी रचना प्रख्यात जैन आचार्य जिनवल्लभसूरिए करी छे. तेमनो सत्तासमय बारमो शतक होवानुं इतिहास - ग्रन्थोए नोंध्युं छे.
तेमनी आ रचना उपर तपगच्छना आचार्य सोमसुन्दरसूरिना शिष्ये बालावबोधात्मक विवरणनी रचना करी छे. ऐतिहासिक नोंध प्रमाणे आ. सोमसुन्दरसूरि शिष्य रत्नशेखरसूरिना शिष्य मुनि संवेगदेवे संवत् १५१३मां पिण्डविशुद्धि पर बालावबोध लख्यो छे. ते आज बालावबोध होवानुं मानवुं जोईए (जैन सा.सं.इति; मो.द. देसाई, पृ. १५७). गुर्जर के मारुगुर्जर भाषामा थता विवरणने 'बालावबोध' तरीके ओळखवामां आवे छे.
बालावबोधो हमेशां गद्यात्मक होय छे. आपणा भण्डारोमां आवा अनेक बालावबोधो सचवायेला छे. गमे ते कारणे पण, आपणे त्यां बालावबोधोनुं अध्ययन के प्रकाशन करवानी पद्धति नथी जळवाई. आधुनिक भाषामां ग्रन्थोनां भाषान्तरो घणां थाय ने छपाय छे, परंतु प्राचीन आ प्रकारनां भाषान्तरो प्रत्ये कोई ध्यान आपतुं नथी. जो ते प्रत्ये ध्यान अपाय तो प्राचीन शास्त्रोना घणाबधा महत्त्वना अर्थो ने ऐदम्पर्यो सुधी आपणी पहोंच होय. भाषाशास्त्रनी दृष्टिए पण आ बालावबोधो बहु मोटुं महत्त्व धरावती रचनाओ गणाय. प्रस्तुत बालावबोधमांथी पसार थवानुं बन्युं त्यारे तरत ज तेमां थयेला अनेक प्रयोगो, क्रियापदो, विभक्ति - प्रत्ययो इत्यादि प्रत्ये ध्यान गयुं. थयुं के भायाणीसाहेब जेवा
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भाषाविद् होत तो तेमणे आ बधी सामग्रीनो केटलो भरपूर ने अद्भुत उपयोग कर्यो होत, अने आपणने भाषा-विकासना केटलाबधा पडावो तरफ ए लई गया होत ! अथवा जयन्तभाई कोठारी जेवा अभ्यासी विद्वज्जनने आमांथी केटलाबधा शब्दो जड्या होत अने केटला बधा खुलासा पण तेमणे मेळवी दीधा होत ! ढूंकमां, भाषाशास्त्रनी दृष्टिए आ बालावबोध खूब नोंधपात्र अने अभ्यासनो विषय बने तेवो छे.
जैन आचारनो आमां विषय होवाथी सहेजे ज जैन पारिभाषिक शब्दोनी आमां भरमार छे. तेना अर्थ जाणवा माटे तो जैनधर्मनी वातोनो अभ्यास ज करवो पडे. जिज्ञासु अने अभ्यासी जन तो आq अध्ययन करवामां "आ तो साम्प्रदायिक छे, अमुक धर्मनुं छे, साहित्यने कांई लागे वळगे नहि'' एवो छोछ के आभडछेट राखता नथी होता. जाणवू ज होय तेने सम्प्रदाय नडतो नथी. अहीं एवा पारिभाषिक शब्दोनो संग्रह के अर्थ आपवानुं जरूरी नथी लाग्यु. केटलाक शब्दो, जे व्यवहारमां वपराता हशे, पण अर्थ स्पष्ट थवो जरूरी लाग्यो, तेवा थोडाक शब्दो अहीं अलगथी आप्या छे. जाणकारो तेमां उमेरो करी शके.
वि.सं. १६८५मां लखाएली, निजी संग्रहनी, २८ पत्रनी एक जीर्णप्राय पोथी परथी आ प्रतिनी प्रतिलिपि वर्षों पूर्वे करी राखेली, ते आजे अहीं प्रकाशित थई रही छे.
__ मूळ गाथाओमां केटलांक कथानकोना शब्द-संकेत आपेला छे ते परथी बालावबोधकारे ते ते कथानको पण सरस रीते आलेख्यां छे. गाथा १३मां, ४४मां, ४५मां, ६९मां - एम अनेक स्थाने आवां कथानको जोवा मळे छे. क्यांक ढूंकाणमां, तो क्यांक विस्तारथी. कथा-सामग्रीमां तथा कथा-कथनमां रस धरावता शोधकोने माटे आ महत्त्वपूर्ण संग्रह के सामग्री छे.
मूळ पिण्डविशुद्धि प्रकरण, तेनां संस्कृत विवरण, तेनां गुजराती भाषान्तरो इत्यादि तो प्रकाशित रूपे उपलब्ध थाय छे. आ बालावबोध अद्यावधि अप्रगट हतो ते आजे प्रगट थाय छे. आ बालावबोधने कारणे मूळ रचनाना अर्थ अने तात्पर्य सुधी पहोंचवामां घणी सहाय मळशे ए नक्की छे.
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अर्हं ॥ श्रीवीतरागाय ॥
अनुसन्धान- ७५ (२)
श्रीमद्वीरजिनेशं नत्वा श्रीसोमसुन्दरगुरूंश्च । पिण्डविशुद्धेर्बालावबोधरूपं तनोम्यर्थम् ॥१॥
देविंदविंदवंदिय-पयारविंदे ऽभिवंदिअ जिणिंदे । वुच्छामि सुविहिअं हिय पिंडविसोहिं समासेणं ॥१॥
देविंद० ॥ देवताना इंद्र- स्वामी, तेहना वृंद - समूह, तेहे करी वंदितवांदिउं, पादारविंद-पदकमल छइ जेहनउ, एहवा जिनेंद्र- सर्वज्ञ प्रतइ अभिवंदिअवांदीनइ । वुच्छं-बोलिसुं । सुविहित चारित्रीया ऋषीश्वरहुइ हितई । पिंडविसुद्धि आहारनी सोधि-पिंडनिर्दोषपणू, संक्षेपिइं, हूं बोलुं छउं ॥१॥
जीवा सुहेस (सिणो, तं सिवम्मि, तं संजमेण, सो देहे । सो पिंडेण, सदोसो सो पडिकुट्ठो, इमे ते अ ॥२॥
जीव सघलाइ सुखना वांछणहार हुई। पुण ते सुख साच मोक्षि छइ । अनइं ते मोक्ष चारित्रिइं जि लाभइ । अनइं ते चारित्र देहे जि करी हुइ । अनइ ते देह पिंड जि करी निर्वहइ । अनइ ते पिंड सदोष तीर्थंकरे पडिकुट्टो कही निषेधिउ छइ । हिव ते पिंडना दोष महात्माइ इस्या जाणिवा ॥२॥
हिव पहिल्लं सोल उद्गमदोष नामिदं करी कहइ छइ
आहाकम्मु १ द्देसिअ २ पूईकम्मे अ ३ मीसजाए अ ४ ।
ठवणा ५ पाहुडिआए ६ पा[ ओ]अर ७ कीअ ८ पामिच्चे ९ ॥ ३ ॥
१. सव्वे वि सुक्खकंखी सव्वे वि हु दुक्खभीरुणो जीवा । सव्वे वि य जीवियपिया सव्वे मरणाउ बीहंति ||१|| तत् पुनः सुखं स्वाभाविकं निरुपममनन्तं शिव एवसर्वकर्माभावलक्षणमोक्ष एव । यदुक्तं - नवि अत्थि माणवाणं तं सुक्खं नवि य सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं. सुक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं ॥२॥ संसार (रे) सुखमेव न भवति, विपर्यासरूपत्वात् ॥
२. संजमेन - पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति ॥ ३. आधाय साधून् षड्जीवनिकायविराधनादिना कर्म भक्तादिपाकक्रिया आधाकर्म १। तदेव याचकादीनुद्दिश्य कृतमौद्देशिकं २। आधाकर्मावयवः पूतिः तद्योगात् पूतिकर्म ३। किंचित् गृहियोग्यं किञ्चित्साधूनां मिश्रजातं ४। साध्वर्थं पृथक् कृतं स्थापना ५ ।
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परि[य]ट्टिए १० अभिहडु ११ ब्भिन्ने १२ मालोहडे अ १३ अच्छिज्जे १४ । अणिसिट्ठ १५ ज्झोअरए १६ सोलस पिंडुग्गमे दोसा ॥४॥
आहा० ॥ पहिलु आधाकर्म दोष १ । बीजउ औद्देशिक २ । त्रीजउ पूतिकर्म दोष ३ । चउथउ मिश्रजात दोष ४ । पांचमउ स्थापना दोष ५ । छठउ प्राभृतिका दोष ६ । सातमउ प्रादुष्करण ७ । आठमउ क्रीत दोष ८ । नवमउ प्रामित्य दोष ९ । तथा दसमउ परिवर्तित दोष १० । इग्यारमउ अभ्याहृत दोष ११ । बारमउ उद्भिन्न १२ । तेरमउ मालापहत दोष १३ । चवदमउ आच्छेद्य दोष १४ । पनरमउ अन(नि)सृष्ट दोष १५ । सोलमउ अध्यवपूरक १६ । पिंड नीपजतां सोल दोष ऊपजइं । तेह भणी ए सोलहुई 'उद्गम' इसिउं नाम । एतलइ ए सोलइ उद्गमदोष जाणिवा ॥४॥
हिव पहिलुं आधाकर्म दोष वखाणई छड् । मूल सिद्धांतमाहि आधाकर्महुई च्यारि नाम कहिया छइ । ते किम आधाकर्म १। आत्मघ्न २। अधःकर्म ३। आत्मकर्म ४। हिव ए च्यारि नाम जूजूयां वखाणइ छइ । तेहमाहि पहिलउ आधाकर्मनउ अर्थ कहइ छइ -
आहइ वियप्पेणं जईण कम्ममसणाइकरणं जं ।
छक्कायारंभेण तं आहाकम्ममाहंसु ॥५॥
आहा० ॥ आहा कहीइ विकल्प चीतवीनइं । यति-ऋषीश्वरहुइ निमित्त जि काई छ ज्जीवनउ आरंभ करीनइ जे गृहस्थ आहार दिइ ति आधाकर्मदोष पहिलं वीतराग कहइ ॥५॥ हिव बीजूं त्रीजूं नाम वखाणइ छइ -
अहवा जं तग्गाहिं कुणइ अहे संजमाउ नरए वा ।
हणइ व चरणायंसे अहकम्म तमाइहम्मं वा ॥६॥ विवाहोद(?) श(प)श्चात्पुरःकरणं प्राभृतेन भवा प्राभृतिका ६ । यत्यर्थं दै(?)वस्तुनः प्रकटीकरणं प्रादुःकरणं ७। क्रीतं द्रव्यादिना ८। साध्वर्थे(थ)मुद्धारानीतं प्रामित्यं ९। तथा कृतपर(रि)वर्तं परिवर्तितं १०। साध्वालयमानीय दत्तमभ्याहृतं ११॥ घटादिकमुद्भिद्य ददत उद्भिन्नं १२ । मालादेरुत्तारणान्मालापहृतं १३। भृत्यादेरनिच्छतो गृहीतमाच्छेद्यं १४। --संसक्तं शेषैर[न] नुज्ञातमेकेन दत्तमनिसृष्टं १५। स्वार्थ पाकारम्भेऽधिक्षेपोऽध्यवपूरकः १६।
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अनुसन्धान-७५(२)
अहवा० ॥ अथवा ए आधाकर्म दोष अहं(ह)कर्म । आहारना जिमणहार महात्माहुइ चारित्र थकउ हेठउ करइ-चूकवइ, नरकि घालइ । तेह भणी आधाकर्महुइ 'अधःकर्मु' इसिउं बीजउ नाम जाणिवउं । अथवा चारित्ररूपीआ आत्माहुइ हणइविणासइ, तेह भणी आधाकर्महुइ त्री 'आत्मघ्न' इसिउं नाम जाणिवउ । एतलइ अधःकर्म अनइ आत्मघ्न बि नाम वखाण्यां ॥६॥ हिव चउथउ आत्मकर्म नाम वखाणइ छइ -
अट्ठवि कम्माइ अहे बंधड़ पकरेइ चिणइ उवचिणई।
कम्मिअ भोई साहू जं भणि भगवई[इ] फुडं ॥७॥
अट्ठवि० ॥ तथा आधाकर्मनो लेणहार महात्मा, आठइ कर्म, अहे-हेठानीचां नरकमाहि बंधाइ । अनइ पकरेइ - आठ कर्मनी उत्तरप्रकृति बांधइ । अनइ चिणइ - स्थितिं करी पुष्टा करइ । तथा उवचिणइ - आठ कर्म प्रदेशि करी वधारइ। इम आधाकर्मनउ भोगवणहार महात्मा आठ कर्म वधारइ, तेह भणी आधाकर्महुइ चउथउं आत्मकर्म इस्यूं नाम । एह भणी ए आधाकर्म आश्री भगवतीइं अंगमाहि एह ज वात स्फुट-प्रकट कही छइ, ते जाणवी ॥७॥
हिव ए आधाकर्म दोष गाढउ-भारी, एह भणी नवे द्वारे व्यक्ति वखाणइ छइ -
तं पुण जं १ जस्स २ जहा ३ जारिस ४ मसणे अतस्स जे दोसा ५।
दाणे ६ अ जहा पुच्छा ७ छलणा ८ सुद्धी अ ९ तह वुच्छं ॥८॥ १. तत्सूत्रम् - आहाकम्मन्नं भुंजमाणे समणे निग्गंथे कि बंधइ किं पकरेइ किं चिणइ
किं उवचिणइ? । गो० आहाकम्मन्नं भुंजमाणे आउवज्जाउ सत्त कम्मपगडीओ सिढिल-बंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेति । हुस्वकालठिईयाउ दीहकालठिईयाओ पकरेति । मंदाणुभावाउ तिव्वणुभावाउ पकरेंति । अप्पपएसग्गाओ बहुपएसाओ करेति । आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ सिय नो बंधइ । असायवेयणिज्जं च कम्मं भुज्जो २ उवचिणति । अणाइयं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टइ । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति? । आहाकम्मन्नं भुंजमाणे जाव परियट्टइ ? गोयमा ! आहाकम्मे भुंजमाणे आयाए धम्मं अइक्कममाणे पुढविकायं नावकंखइ । जेसिपि य णं जीवाणं सरीराइं आहारमाहरेति ते वि जीवे नावकंखति । से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चति आहाकम्मं भुंजमाणे जाव अणुपरियट्टेइत्ति ।।
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तं० ॥ जे अशनपानादिक १ । जस्स - जेहनइ काजिइ २ । जहाजेतलइ प्रकारे आधाकर्म लागइ ३ । जारिस - जे-सरीखउं ४ । असणे य तस्स ये दोषा ५ । आधाकर्मनउ दान देतां जे दोष ६ । पुच्छा-ते आधाकर्म जिम पूछीइ ते मेल ७ । आधाकर्मिइं करी जिम छलीयइ ८ । ते आधाकर्मनी शुद्धि किम हुइ ते प्रकार ९ कहुं छउ ॥८॥
हिव ए नवइ द्वार जूजूयां वखाणइ छड् । तेहमाहि पहिलूं जे अशनपानादिक इस्युं द्वार कहइ छइ -
असणाइचउब्भेयं आहाकम्ममिह बिंति आहारं ।
पढमं चिय जइजुग्गं कीरंतं निट्ठियं च तहिं ॥९॥
असना० ॥ अशन १ पान २ खादिम ३ स्वादिम ४ एहि चिहुं प्रकारि आधाकर्म आहार हुइ इम वीतराग बोलई । हिव आधाकर्म आहार किम नीपजइ ते वात करइ छइ । पहिलुं लगइ महात्मा निमित्त करिवा आरंभिउं, अनइ तेह जि निमित्ति नीठिउं-सिद्धिइं गयउ-आहार नीपनउं ॥९॥
तस्स कड तस्स नि8िअ चउभंगो तत्थ दुचरिमा कप्पा ।
फासुं(सु)कयं रद्धं वा निट्ठिअमियरं कडं सव्वं ॥१०॥ हिव तेहनइ काजिई आरंभिउं, अनइ तेहनइ काजिइं पूरउ नीपनउं, इहां च्यारि भांगा हुई । ति किम ? - तेहनइ काजिइं आरंभिउं अनइ तेहनइ काजि नीपनउं १ । तथा तेहन[इ] काजिइ आरंभिउं अनइ अनेराइंनइ काजिइं नीपनउ २। तथा अनेरानइं काजिई आरंभिउं अनइ तेहनइ काजिइ नीपनु ३। [तथा अनेरानई काजिइं आरंभिउं अनइ अनेरानइं काजिइं नीपनउं ४] । इम च्यारि भांगा ऊपजइ । तेहमाहि बीजउ अनइ चउथउ भांगउ महात्मानइ कल्पइ । बीजा न कल्पइ । महात्मा निमित्ते जे फासू कीधउं अथवा रांधिलं, पूरउं नीपनउं ते निट्ठिअ कहीइ । अनेरउ सहू वाविवउ लुणिवउं प्रमुख 'कृत' इसिइं नामिइं कहीइ ॥१०॥ हिव एह जि वात वली व्यक्तिई कहइ छइ -
साहुनिमित्तं ववियाइ ता कडा जाव तंदुला दुछडा । तिछडा निट्ठिया पाणगाइ जहसंभवं निज्जा ॥११॥
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अनुसन्धान-७५(२)
साहु० ।। महात्मा निमित्त वावइ लुणइ, इम तां लगइ करइ जां लगइ ते तांदुला नीपना । छड्या - बि वार खांड्या, अनइ जउ त्रीजी वारइं छड्या, तउ महात्मा निमित्त निष्टित-नीपना-सीधा । ते आधाकर्म कहीइं । इम बीजाई सूधाइ तांदुला महात्मानिमित्ति राध्या - कूरादि भात नीपनउं, तेहइ निष्टित आधाकर्म कहीइ । इम अशननी परिइं बीजाई पान, खादिम, स्वादिम ए तिण्णिइ आहार महात्मा निमित्त । कूयानइ खणाविवई १, चीभडी २ हरीतकी ३ प्रमुख वस्तुनइ वाविवइ करी आधाकर्म थाई तेहइ यथायोग्य जाणिवां । एतलइ पहिलउ द्वार कहिउ ॥११॥
हिव बीजउ द्वार, जेहनइ काजई आहार कीधउं आधाकर्म कहिवराई ते वात कहइ छइ -
साहम्मियस्स पवयणं १ लिंगेहिं २ कए कयं हवइ कम्मं । पत्तेअबुध(द्ध) १ निन्हव २ तित्थियरट्ठाइ पुण कप्पे ॥१२॥
साह० ॥ प्रवचन-सिद्धांत तीणइ करी, अनइ लिंग-वेष तीणइ करी जे साहम्मी सरीषुउ, हिव ईहां च्यारि भांगा ऊपजइ । ते किम ? - प्रवचन करी सरीखु अनइ लिगि करी असरीखउ [१] । लिंगि करी सरीखु अनई प्रवचनइ करी असरीखउ २ । तथा प्रवचनई करी सरीखउ अनइ लिंगइ करी सरीखउ ३ । तथा प्रवचनि करी असरीखउ अनइ लिंगि करी असरीखं ४ । एह चिहुं भांगा माहि जे प्रवचनइ अनइ लिंगि करी सरीखउ हुइ तेहनइ काजिइं जे आहार नीपजइ ते आधाकर्म कहीइ, ते न कल्पइं । बीजा भांगा सूझता जाणिवा ॥ हिव पहिलइ भांगइ दस प्रतमाधर श्रावक आवई १ । बीजइ भांगई निन्हव जमालि प्रमुख
१. अत्रोदाहरणं - एकस्मिन् ग्रामे कदशनाहारिणि सूरियोग्यभक्ताऽलाभात् साधवः सूरिं
नानयन्ति । श्रावकश्चैकस्तदु[परि?] ऋठितः (?) । अन्यदा केषांचित् साधूनां वर्षाक्षेत्रं विलोक्यानिच्छया गच्छतां तेन साधुरेकः पृष्टः - कुतः क्षेत्रं न रुचितं ? । स च ऋजुको 'गुरुप्रायोग्यशालाऽ(ल्य) भावाद्' इत्याह । ततः तेन काले शालिरुप्तो बहुकश्च जातः । यतिष्वागतेषु स्वजनगृहेषु शालीन् दत्वा भणितं 'स्वयं भोक्तव्यः साधूनां च दातव्यः' । तैस्तथा कृते 'साध्वर्थं शालि'रिति बालकाद्यालापा बाह्यलिङ्गैश्चाऽनेषणां ज्ञात्वा ते न जगृहुः । एवं पानाद्याहारेष्वपि लक्ष्यमिति गाथार्थः ॥
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सप्टेम्बर
जाणिवा २ । त्री चउथइ भांगइ तीर्थंकर - प्रत्येर्कबुद्ध जाणिवा ४ ॥
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छइ
२०१८
एह भी सूत्र माहि इम कहिउं छइ - प्रत्येकबुद्ध अनइ निन्हव अनइ तीर्थंकर, एहनइ काजि जे आहार नीपनुं हुइ ते आहार अनेरा महात्मा प्रतिइ कल्पइ । जिम तीर्थंकरनइ काजिरं समवसरण नीपनउ हुइ ते अनेरा महात्मा वावरइ, तिम आहार कल्पतर जाणिवउ ॥ १२ ॥
हिव जेतलइ प्रकारै आधाकर्म दोष लागइ ते वात दृष्टांतसहित कहइ
महात्मा अनइ इग्यारमी प्रतिमाधर श्रावक जाणिवा ३ । अनइं
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पडिसेवणा १ पडिसुणणा २ संवास ३ अणुमोयणा ४ य तं चउहा । इह तेण १ रायसुय २ पल्लि ३ रायदुद्वेहिं ४ दिनंता ॥१३॥ पडिसे० ॥ प्रतिसेवना आधाकर्म आहारनउ जिमवउ १ । तथा प्रतिश्रवणा - आधाकर्म आहार जिमवानी अनुमतिनउ देवउ २ तथा संवास - आधाकर्म आहार जे जिमइ तेहसिउं एकठउं वसिवउ ३ । तथा अनुमोदना आधाकर्म आहारना जिमणहारनी प्रशंसा करइं ४ । इम चिहुं प्रकारे आधाकर्म दोष लागइ । वि ए चिहुं प्रकारि आधाकर्म दोष ऊपरि च्यारि दृष्टांत कहई छ । पहिलु स्तेन चोरन दृष्टांत १ । बीजउ रायना बेटानउ दृष्टांत २ । त्रीजउ पालिनउ दृष्टांत ३ । चउथउ रायना विरोधीनउ दृष्टांत ४ । ए च्यारिइ दृष्टांत आगलि कहीसइ ॥ १३॥
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हिव एहवि च्यारि प्रकार वली वखाणइ छइ -
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सयमन्नेण वि दिन्नं कम्मियमसणाइ खाइ पडिसेवा १ । दक्खिन्नादुवओगे भणउ लाभुत्ति पडिसुणणा २ ॥१४॥ सय० ॥ सयं आपहिणी विहिरिंडं, अथवा अनेरइ महात्मानं आणिउं,
१. प्रत्येकबुद्धा जघन्यतः एकादशाङ्गिनः । उत्कृष्टतस्त्वभिन्नदशपूर्विणो देवतार्पितलिङ्गा अङ्गाश्च ॥
२. अर्हबिम्बबल्याद (द्य) र्थमपि कृतं कल्पते, तृतीयभङ्गोक्तसाधर्मिकजीवार्थं तु नैव । ननु यद्यर्हदर्थं कृतं कल्पते तत् कथं न तव (त्र) नो (नि) वास: ? सत्यम्, महाशातनादोषादिति ॥
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अनुसन्धान- ७५ (२ )
अथवा अनेरइ गृहस्थिइ दीधउं जे आधाकर्म अशनपानादिक, जि महात्मा खाइजिमइ ते प्रतिसेवा कहीइ १ । ते प्रतिसेवना ऊपरि चोरनउ दृष्टांत जाणिवउ । ते किम ? |
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इकइं गामइ भिल्लादिक चोर वसई । ते चोर भील अनेरा गामथकउ ढोर चोरी आव्या | आंपणा गाम दूकडा आव्या तिवारइ निर्भयपणईं जिमवानइ काजि एक दूकडा वनमाहि आवी रह्या । गाइ विणासीनइ ते गोमांस खावा लागा। केटलाएक तेहजि माहिला भील सूग भणी जिम्या नही । पुण प्रीसणउ करिवा लागा । तेहे बीजा भील मार्गि जाता देखी जिमवा निमंत्र्या । तिस्यइ अवसरि पूठि वाहर आवी । तीणइ वाहरइ ते चोर भील विणास्या, अनइ 'अम्हे मार्ग, चोर माहिला नहीं' इम बोलताइं हूंतां वटेवाहू भील चोर साथिई जिमता देखीनइ तेहइ विणास्या ।
इम जे महात्मा आधाकर्म आहार आणी जिमइ, अनइ अनेरा अणजीमता महात्मा ते साथिइं आधाकर्म आहार जिमई, जे बिन्हइ कर्मिदं र्विणासीइं, माहि रोलवीइं, इसुं जाणिवउ । ए प्रतिसेवना दृष्टांत ॥
नरक
तथा पडिसुणणा २ । विहाणा माहि महात्मा उपयोग करतां गुरुकन्हलि विहरवानी अनुज्ञा मांगईं । तेह भणी जे गुरु आधाकर्म आहारना जिमणहार, जिमवानउ आदेश मांगई उपयोग करतां 'लाभ' इसिउं वचन कहइं ते प्रतिश्रवणा कहीइं । इम आज्ञाइ देतां आधाकर्मनुं दोष लागइ || हिव प्रतिश्रवणा ऊपरि रायना बेटा दृष्टांत जाणिव । ते किम ?
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एकइ नगरि एकइ रायनउ बेटउ । पिता राजाहुइ विणासी आपणपइं राज्य लेवा वांछतउ । केतलाएक ते वात सांभली पुरखास्युं वात करिवा लागइ । तिसइ केतले - एके सुभटे कहिउं - ए वात रूडी तूं करि । तथा केतले कहिउ - इणइ वातइ अम्हे तूहुइ सखाईआ । तथा केतलेएक ते वात सांभली मौन करी रह्या ।३। तथा केतलाएक जे गाढा पाटहुइ भक्ता हूता तेहे जइ रायहुई वात जणावी । राजाइं ते वात जाणीनइ वेढउ । अनइ जेहे ते वातनी अनुज्ञा दीधी ते
१. अत्रोपनयः - चौराभा आधाकर्मप्रतिसेवि (व) काः । पथिकाभास्तन्निमन्त्रणाभोजिनः । परिवेषकाभास्तत्सहायाः । पथावस्थानाभं नृजन्म । गोमांसाशनकल्पमाधाकर्मभोजनम् । व्याहरकाभानि कर्माणि । मरणान्तं नरकादिगमनमिति ॥
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सप्टेम्बर - २०१८ सुभट सघलाइ विणास्या । अनइ जेहे ते वात सांभलीनइ रायहुई जाण कीबूं ते पाटभक्त जाणी गाढा मान्या ।
तिम जे गुरु आधाकर्म आहार जिमवानी जे महात्मा अनुज्ञा मागइं तेहनूं वचन काने सांभलीता, अनइ वारइ नही ते गुरु अनइ महात्मा इणइ कर्मइं करी विणासीइं संसारमाहि रोलवीइं । इति प्रतिश्रवणादृष्टांत : ॥१४॥
संवासो - सहवासो, कम्मियभोई तहिं तप्पसंसाउ।
अणुमोअणित्ति तो ते तं च चए तिविह तिविहेणं ॥१५॥
तथा जे महात्मा आधाकर्म आहार जिमई, तेह साथई एकठा एक उपाश्रयि वसइ, ते संवास कहीइं । एकठाई वसतां आधाकर्मनउ दोष लागइ इस्यिउं जाणिवउं । हिव ए संवास उपरि पालिनउ दृष्टांत जाणिवउ । ते किम् ?
एक पर्वतमाहि पालि छई, तिणइ पालिई घणा चोर वसई । ति पर्वतना विषम स्थानक भणी बीजा ब्राह्मण वाणीयादिक घणा आवी वस्या । इम करतां एकई राजाइ आपणाइ देसि ते चोरनउ उपद्रव घणउ जाणीनइ ते पाली अछतां आवीनइ वीटी । ते चोर, अनइ बीजाइ साधुलोक सहूइ साहिउं । ते चोर विणास्या। केतलाइ नाठा । तथा बीजा वाणीआ ब्राह्मणादिक साधुलोके सहू कहिउं, 'अम्हे निरपराध छउ । स्या भणी विणासउं?' इम बोलताइं हूंता पुण चोरना सहवासी भणी साधुलोकई राजाइ ते विणास्या । पालिनइं ठाम जि भांगउ । इम ते पालिना लोकनी परइं आधाकर्मी आहारना जिमणहार, अनइ ते साथइ अनेरा महात्मा, जे एकई उपाश्रयि वसइ ते बिन्हई कर्मिइं विणासी(इ)ए । संसारमाहि रोलवीइ । इति संवास दृष्टांतः ॥
तथा जे महात्मा आधाकर्मी आहार जिमता हुई तेहनी, जे अनेरा महात्मा अनुमोदना करई । ए बापडा किस्युं सरस सुस्वाद रूडउ आहार जिमइ छई - इम प्रशंसा करई, ते अनुमोदना कहीइ । इम अनुमोदनाइ करतां आधाकर्म जिम्यानुं
१. अत्र योजना - कुमाराभाः कार्मिकनिमन्त्रकाः, पितृवधाभस्तद्भोगः । प्रथमभटत्र[या]...
भास्तत्प्रतिश्रवणादिकारकाः । चतुर्थभटाभास्तन्निषेधकाः इति ॥ २. अत्रोपनयः - नृपाभानि कर्माणि । पल्लितुल्या वसतिः । चौराभा: कार्मिकभोजिनः ।
वणिगाभास्तद्भोजिसंवासिनः । निग्रहाभा दुर्गतिरिति ।
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अनुसन्धान-७५(२)
पाप लागइ । हिव ते अनुमोदना ऊपरि राज्ञद्विष्टवणिकपुत्रनउ दृष्टांत जाणिवउ । ते किम् ?।
एकइ नगरि एक व्यावहारियानउ बेटउ अतिरूपवंत अनइं स्त्रीलंपट वसइ । एकवार ते कुंअर रायनी बेटी-अंतेउरीनी दृष्टिइं पडिउ । अति रूपवंत देखी रायनी स्त्रीहुइ अनुराग उपनउ । अनइ कुंअरहुई ते रायनी स्त्री देखी अनुराग हूओ। इम परस्परइ राग हूओ। एकवार रायनी स्त्रीए ते कुंअर व्यवसायनउं मिस करीनई छानुं अंतःपुरमाहि तेडाविउ । तीणइ कुंअरइ रायनी स्त्री भोगवी पाछउ आविओ। ते वात राजाइ जाणीनइं कुंअर विणासीनइ चहुटामाहि नंखाविओ। जिम आज पूंठई अनेरउ कुणहुं एहवउ अन्याय न करई तेह भणी । पछइ वली ते कुंअर पाखती आपणा जण हेरू छाना मूक्या । ते मागि पडिउ देखी केतलाक स्त्रीलंपट लोक तेहुइ वखाणवा लागा । बापडउ किसिउ मांटी हूउ, जे ईणइ कुंअरइ रायनी स्त्री भोगवी । ते वात रायने जणे सांभली । ते लोक सगलाइ साह्या रायनइ लेई आप्या । कुमारीयानी प्रशंसा करता भणी राजाइ तेहे विणास्था । तथा केतलेएके लोके ते कुंअर निदिउ । ए किस्यिउं पापी हूंतु, जे ईणइ माता सरीखी रायइनी स्त्री न मूकी । एहवा जे कुकर्म करइ, ते इम जि विणास पामइं। रायनउ स्यउ दोष इम घणे निंदा कीधी । ते राजाइ मान्या । तिम जे महात्मा आधाकर्मी आहार भोगवइ, अनइ जे अनेरा महात्मा तेहनी प्रशंसा करइ ते कुंअर अनइ लोकनी परइ ते बिन्हइ महात्मा कर्मि करी विणासीइ । संसारमाहि रोलवीइं। इस्युं जाणिवउ । इति अनुमोदना दृष्टांतः ।।
__इम चिहं प्रकारे आधाकर्म दोष लागइ । एह भणी आधाकर्म त्रिविधत्रिविधिई मन ।१। वचन ।२। काई ।३। करी करवइ, कराविवइ, अनुमोदनि करी सर्व प्रकारिइ महात्माइ वजिवउ ॥१५॥
हिव ए आधाकर्म कहिहुई सरीखुं कहिवराइ ? ते वात कहइ छइ -
वंतु-च्चार, सुरा, गोमंस, - सममिमंति तेण तज्जुत्तम् ।
पत्तं पि कयतिकप्पं, कप्पड़ पुव्वं करिसघट्ठम् ॥१६॥ १. अत्रोपनयः - अंतःपुराभं आधाकर्म । वणिक्सुताभास्तद्भोजिनः । प्रशंसकाभास्त
दनुमोदकाः । निंदकाभास्तद्गर्हकाः । नृपाभानि कर्माणि । मरणाभः संसारः । एषु दृष्टान्तेषु एकमुख्यार्थत्वे प्रसंगादन्यदपि योज्यम् ।
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सप्टेम्बर २०१८
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वंतु ॥ ए आधाकर्म वांत' - वमन सरीखू सुरा जाणिवउं |१| तथा उच्चार-विष्टा, सुरा-मदिरा, तथा गोमंस - गाइना मांस सरीखू जाणिवउ । तेह भणी आधाकमआहार जीणई पात्रइं विहरिउ हुइ ते पात्रूइं त्रिणि काप जउ - त्रिणि वार धोईइ त कल्पइ । अनइ पहिलुं करिस-सूकइ छाण इसिउं घसीइ, पछइ धोईए । तउ ते पात्रउं सूझतू थाइ । बीजी परिइ न थाई । इसुं जाणिव ॥१६॥
हिव ते आधाकर्म जिमतां केहा दोष लागई ? ते कहइ छइ -
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कम्मग्गहणे अइक्कम १ - वइक्कमा२ तह इयार३ - ऽणायारा । आणाभंग१-ऽणवत्था२ मिच्छत्त३ - विराहणाइ ४ भवे ॥१७॥ कम्म० ॥ आधाकर्मी आहार जिमतां अतिक्रम दोष हुइ १। तथा व्यतिक्रम दोष हुइ २। तथा वली अती (ति) चार दोष लागइ ३ । तथा अनाचार दोष हुइ ४ ए च्यारि दोष मूलगा जाणिवा । तथा आणाभंगं - वीतरागनी आज्ञानउ भंग | १ | तथा अनवस्था - धर्मन विषइ अनास्था हुइ |२| अनइ मिथ्यात्व कूडानउ दोष लागइ ।३। तथा आत्मविराधना संयमविराधनादिक अनेराइ घणा दोष लागइ ॥१७॥
हिव ए च्यारि मूलगा दोष सूत्रमाहि वखाणाइ छइ
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ओहाकम्माऽऽमंतण पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ, । पइभेयाइ वइक्कम, गहिए तइउ इगे गलिए ॥१८॥
३
आहा० ॥ कुहुं गृहस्थ आधाकर्मी आहार जे महात्मा जिमइ-गिलइ तउ १. अत्र 'सुरा' ग्रहणं शिष्टानुसारेण, अन्यथा वातादीन्यपि कुकुराद्यशनाद्भक्ष्याणि स्युः । अतो वांतादिवत् सर्वथेदं साधुभिस्त्याज्यम् । अत्रार्थे दृष्टांत - कश्चित्सेवको मिलनायातभ्रातृकृते स्वमहिलाया मांसमार्पयत् । तद्व्यापृतायां माजरिण भक्षितम् । सा तदभावे भर्तृभीता मृकमांसं शुना वांतं दृष्ट्वा तदेव संस्कृत्य तयोर्ददौ । तौ च गंधादिना विज्ञाय तां च निर्भर्त्स्य नवीनमानीय तु ( भुक्तौ । मा ( आ ) धाकर्माप्यभोज्यमिति ।
२. आधाकर्माऽऽमंत्रणं तद्दायकस्यार्थनं प्रतिशृण्वति - अनिषेधयति स साधावतिक्रमो मनाक् चारित्रोल्लंघनं भवति । पदभेदादौ तद्ग्रहणार्थं चलनादौ व्यतिक्रमः पूर्वस्मादधिकः ॥ गृहीते - स्वीकृते तस्मिन् तृतीयोऽतीचाराख्यो द्वितीयादधिकः । इतरः चतुर्थोऽनाचाराख्यस्तृतीयादधिको गिलिते तस्मिन् भक्षिते स्यादिति ॥
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अनुसन्धान-७५(२)
अनाचार दोष हुइ । इम बीजाइ दोष ऊपजइं । पुण ते सोहिला भणी नथी कहीता। इस्युं जाणिवउ ।।१८।।
भुंजइ आहाकम्मं सम्मं न य जो पडिक्कमइ लुद्धो।
सव्वजिणाणा विसु(मु)हस्स, तस्स आराहणा नत्थि ॥१९॥
[भुंजइ० ॥] जे महात्मा विचरिइं आधाकर्मी आहार जिमइ । अनइ जिमीनइ पछइ जउ गुरुकन्हलि आलोइ नही । लुब्ध-लोभीओ-आहारलंपट हूंतउ। प्रायश्चित्त न पडिवज्जइ । ते सर्व वीतरागनी आज्ञाई करी विमुख-रहित महात्माहुई आरांधिवउ नथी ते महात्मा आराधक न कहीइ । किंतु, विराधक जि जाणिवउ ॥१९॥ हिव ते आधाकर्म देवानउ प्रकाररूप छठउ द्वार कहइ छइ –
जइणो चरणविघाइत्ति, दाणमेअस्स' नत्थि आहेण । बीअपए जइ कत्थवि, पत्तविसेसेण हुज्ज जउ ॥२०॥
जइणो० ॥ महात्मानइ चारित्रनइ विघात-विणास करइ । तेह भणी ते आधाकर्मनउं देवउं उघतउ-मूलगई भांगइ विवेकीया श्रावकहुइ निषेधिउं छइं । तथा बीजइ पदि-अपवादपदि किवारइ अनिर्वाहादिक कारणि छतइ, अथवा ओषधादिक कारण विशेषिइं, अथवा पात्रनइ विशेषिइं, अथवा ए आधाकर्मनउ देवउं-इम कहिउं छइ एतलई अतिमोटइ कारणविशेषइ महात्माहुई आधाकर्म कोइ निषेधिउंइ नथी । लेवउ कहिउं छइ ॥२०॥
जेह भणी सिद्धांतमाहि इसी वात कहइ छइ -
संथरणम्मि असुद्धं, दुण्हंवि गिण्हेंतु दितियाणऽहिअं।
आउरदिलुतेणं, तं चेव हिअं असंथरणे ॥२१॥ संथरणं० ॥ शुद्धान्ननइ लाभिं छतइ, निर्वाह छतइ ए आधाकर्मी आहार
१. पंचमयस्स पंचमुद्देसे भगवत्याम् - कहं णं भंते! जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं करेंति? ।
गो० ! तिहिं ठाणेहिं पाणे अतिवत्तित्ता मुसं वइत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाहेत्ता । एवं खलु अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंत्ति । तथाविधस्वभावं भक्ति-दानोचितपात्रमित्यर्थः ।
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सप्टेम्बर
असूध विरूड बिहु जणहुइ लेणहारनइ अनइ देणहारहुई अवगुणकारिउ जाणिवउ। रोगियानइ दृष्टांतिइ - जिम रोगियाहूइ से जि अन्न किवार गुण करइ, अनइ अवगुण करइ तिम महात्माहुइ ते आधाकर्म निर्वाह छतइ अवगुण करई, अनइ अनिर्वाह छतइ दुर्भिक्ष - ग्लानादिक अवसरि छतइ मोटइ कारणि तेहजि आहार गुणकारी प्रजाणिवउ ॥२१॥
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भणिअं च पंचमंगे, सुपत्त-सुद्धन्नदाण- - चउभंगो I पढमो सुद्धो बीए, भइणा सेसा अणिट्ठफला ॥२२॥ भमिअं० || जेह भणी पंचमांग श्रीभगवइ अंगमाहि आठमइ सइ इसिउं छइ सुपात्रनइ सूधउ दान - ईहई च्यारि भांगो हुइ । ते किम् ? - सुपात्र अनइ सूधउ दान १ । तथा सुपात्र अनइ असूधउं दान २ । कुपात्र अनई सूधउ दान ३ | कुपात्र नइ कुसूधउ दान ए च्यारि भांगा हुई । एहमाहि पहिलउ भांगउ सूधउ, अनइ बीजइ भांगइ भजना विकल्प ४ जाणिव । किवार कल्पइ, जेह भणी तिहां पाप थोडउं अनइ लाभ घणउ । बीजा बिन्हइ भांगा अणिट्ठफला कहीइं । विरूआ जाणिवा । ते महात्माहुइं निषेध्या छइ ॥२२॥
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कहइ छइ
आधाकर्म पूछ्या पाखइ जाणीइ नही । तेह भणी महात्माइ पूछिइवरं । हिव ते आधाकर्म पूछिवानी परि कहे छ
देसाणुचिअं, बहुदव्व,-मप्पकुल, - मायरो अ तो पुच्छे । कस्स कए केण कयं, लक्खिज्जइ बज्झलिंगेहिं ॥२३॥
देसा० ॥ जे वस्तु देश हुई अनुचित देसमाहि थोडउं वापरइ १ । अथवा घणूं रांधिउं दीसइ २ । अथवा कुण जिमणहार माणस थोडा दीसई ३ | अने विहरवान आदर घणउ ४ दीसइ । तेह भणी महात्माइ इम पूछिवउं एतलउ कहीनइ काजि नीपनुं छइ ? अथवा सहिजिई राधुउ छ ? इम पूछिवउं; तथा किवारइ देवा भणी व्यगतूं न कहाई । तउ महात्माइ बाह्य लिंगे करी शरीरमुखचेष्टादिक अहिनाणे करी आपहिणी महात्मानं विचारीनइ सुझतुं आणी आहार लेव | असूझत हुइ तउ टालिवउ ||२३||
किवारइ महात्मा आधाकर्मइ छलीइ, तउ तेहुइं केतलुं दोष? । ते वात
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अनुसन्धान-७५(२) थोवंति न पुढे न कहियं च, गूढेहिं नायरोव्व कओ।
इअ छलिउ वि न लग्गइ, सुओवउत्तो असढभावो ॥२४॥
थोवं० ॥ हिव किवारइं महात्माइं थोडउ आहार जाणीनइ कांई पूछई नही । अनइ गृहस्थई पुण व्यगतउं कहिउं नही । तथा गूढपणइं-धूर्तपणई विहरवानउ आदर गाढउ न कीधउं । ईय छपइम आधाकर्मनइ देणहारिइं महात्मा छलिउइ हूतउ पाप न बंधाई । आधाकर्मनू पाप तेहुइ न लागई। जेह भणी ते महात्मा सूझता आहारनइ विषइ सिद्धांतनइ उपयोगिइं जाणिवई करी गाढउ सावधान छइ । अनइ अशठभाव-निर्मल चित्त छइ । एतइ दोष टालिवा ऊपरि तेहनउं मन गाढउं चोखउं छइ । तेह भणी ते पाप न लागइ ॥२४॥
हिव आधाकर्म लेतउ महात्मा किम सूझइ ? इस्युं नवमुं द्वार कहइ छइ
आहाकम्मपरिणउ बज्झइ लिंगिव्व सुद्धभोई वि। सुद्धं गवेसमाणो, सुज्झइ, खवगुव्व कम्मे वि ॥२५॥
आहाक० ॥ जे महात्मानिइं आधाकर्म टालिवा ऊपरि मन काई न हुई, ते महात्मा सूधउ आहार लेतउइ हुतुं आधाकर्मनइ पापइ-बंधाइ । लिंगी-वेषधारकनी परिइ । किवारइ सूझतउई आहार लिइं तेहइ आधाकर्म- पाप लागई। तथा जे महात्मा सूझता आहार ऊपरि घणी खप करइ, अनइं तेहनूं मन एकांतिइं सूझता जि लेवा ऊपरि छइ ते महात्मा आधाकर्मनइ पापइ न बंधाइ । क्षपक-शुद्ध महात्मा जिनकल्पीनी परइं आधाकर्म लेतउ सूधउ जि कहीइ ॥२६॥
वली एहजि वात आश्री शिष्य पूछइ - नण मुणिणां ज न कयं, न कारिअंनाऽणुमोइअंतं से । गिहिणो कडमाययउ, तिगरणसुद्धस्स को दोसो ? ॥२६॥(२७॥)
ननु० ॥ हे भगवन् ! ते आधाकर्मी आहार महात्माइं कांई कीधउ नथी। १. वेषधारकसाधुवत् । तत्कथा-कश्चित्साधुरेकस्याऽपि श्रावकस्य गृहे संघभोज्यं श्रुत्वा
तीरग्गाइ स लोल(:) तत्र जगाम । तद्भिक्षार्थं श्रावकप्रेरिता पत्नी सर्वमग्रे दत्तमित्युवाच । ततो मम भक्तादपि देहीत्युक्त्वा दापितसंपूर्णमिष्टान्नः संघधिया विहत्य बुभुजे। स
चैवमशुद्धपरिणामादशुद्धः ॥ २. तत्कथेयम् - यथा कस्मिंश्चिद्गच्छे साधुरेको निरीहस्तपस्वी । मासक्षपणान्ते पारणार्थ
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सप्टेम्बर - २०१८
अनइ अनेरा पाहिं कांई कराविउं नथी । अनइ अनुमोदिउई काई नथी । पुण गृहिस्थिई आपणी बुद्धिइं आपहिणी ते आहार नीपायुं छइ । तउ त्रिकरण सुद्ध - मन वचन कायनइ सुद्धपणाई जे महात्माहुइं ते आहार लेतां स्युं दोष हुइ ? इम शिष्यई पूछिउं ॥२७॥
हिव गुरु ए वातनउ ऊतर कहइ छइ -
सव्वं तह वि मणतो, गिण्हंतो वट्टए पसंगं से । निद्धंधसो अ गिद्धो न मुअइ सजीअं पि सो पच्छा ॥२७॥
[सव्वं०॥] हे शिष्य ! ए वात साची । पुण तुहइ जउ महात्मा जाणतउ हूंतउ आधाकर्मी आहार लिइ, तउ घणउ प्रसंग वधारइ । ते किम् ? । गृहस्थ इम जाणइ एम महात्मा ए आहार लिइ छइ । निषेधउ कांई नथी। तेह भणी हं किस्या भणी न दिउं?-इम ते महात्मा वारइ नही अनइ गृहस्थ करतउ रहइ नही । इम आघउ घणउ प्रसंग वाधइ । अनइ महात्माइ मउडइ निद्धंस निस्सूग थाइ । तथा गृध-लोभिई वाहिउं हूंतउ पछइ सजीव-सचित्तइ आहार न मूकइ । सच्चित्तइ लेतउ कांई काण न करइ । तेह भणी आधाकर्मी आहार सर्वथा वजिवउ । एतलइ पहिलउ आधाकर्मदोष नव द्वारे वखाणिउ ॥२७॥
'हिव बीजओ औद्देशिकपिंड वखाणइ छइ ।
उद्देसिअमोह१ विभागउ अ२ ओहे सए समारंभे । भिक्खाउ कइ वि कप्पइ जोएही तस्स दाणट्ठा ॥२८॥
मनेषणीयभयाद् ग्रामांतरं ययौ । तत्रैका श्राविका विज्ञाततत्पारणा दानश्रद्धया झटितिकृतपरमान्ना प्रगुणितघृत-गुडा आधाकर्माऽऽच्छादनाय बहिःक्षिप्तपायसोपलिप्तपत्रादिपुटिका 'नित्यं न रोचते इद'मिति शिक्षितक्षीरान्नभोजिबालका तं क्षपकं गृहमायातं वीक्ष्य क्षीरान्नपूर्णभाजन-सघृतगुडमुत्पाट्य बालकपरिवेशनछद्मनाऽभ्युत्थिता तेषां शिक्षावशादगृह्णता क्षपको जल्पिको(तो) भो ! यदि तव रोचते तदा गृहाणेत्युक्ते शुद्धधिया विहत्येतदशुद्धमप्यमूर्छितो भुञ्जानः शुद्धाऽध्यवसायवशात् तदनेके च (तदन्ते केवल)
ज्ञानमाप । एवमसावशुद्धभोज्यपि शुद्धान्वेषणाच्छुद्ध इति । १. हिव उद्देसिकपिंडनउ विभागरुप बीजउ भागउ वखाणइ छइ-उद्देश-१, समुद्देस-२,
आदेस-३, समादेस-४ । एकेका बोलना त्रिणि भांगा । केहा?-उद्दिष्टोद्दिष्ट-१, उद्दिष्ट-२ समादेस-३ एवं बारह भांगा हुवइ ।
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अनुसन्धान-७५ (२)
उद्देसि० ॥ औद्देसिकपिंड बिहुं प्रकारे हुइ । एक- ओघ - सामान्यई उद्देश १। बीजउ विभागिइं विशेषिरं जे उद्देश २ |
हिव ते बिहुं भांगामाहि पहिलुं सामान्य वखाणइ छइ - पहिलूं गृहस्थ आपण काजिइ पाकादिक आरंभ मांडइ । अनइं अन्नपाक नीपजतां विचालाई सामान्यइ भिक्षा देवानउ विकल्प चींतवइ, ए आहारमाहि केतलूइं माहरइ काजि आविसिइं । अनइं एह माहिल कैतलू एक जि को भिक्षाचर आविसिइ तेहुइं देवा हुसिइ । इम जे गृहस्थ सामान्यइ भिक्षाचरहुई देवानउ विकल्प चींतवइं ते 'ओघऊद्देसिक' पिंड कहीइं १ । ए पहिलुं भांगउ जाणिव ॥२८॥
हिव उद्देसिकपिंडनउ विभागरूप बीजओ भांगउ वखाणइ छई
बारसविहं विभागे चहुद्दिवं१, कडं२ च कम्मं३ च । उद्देस, समुद्देसा, देस, माएस, एणं ॥ २९ ॥
बारस० || विभागिइ विशेषई जे औद्देशिकपिंड कहीइ ते बार भेद हुइ । ते किम् ? | पहिलूं उद्दिष्ट' कृत' कर्म - ए त्रिणि भांगा मूलगा जाणिवा । हिव ए तिन्निइ भांगांइ वली चिहुं भेदे हुइ । ते किम् ? उद्देश१ समुद्देसर आदेश३ समादेश४ । हे चिहुं भेदे पाछिलुं एकेकउ भांगउ चिहुं प्रकारे कीजइ । इम औद्देशिकनइ बीजउ भांगउ बार भेद जाणिवउ ॥२९॥
I
हिव ए वार भांगा जूजूया वखाणइ छइ
-
-
जावंतियमुद्देसं, पासंडिणं भवे समुद्देसं ।
समणाणं आएसं निग्गंथाणं समाएसं ॥३०॥
३
जावंति० ॥ आपणाइ काजि पाकादि आरंभ करतां गृहस्थनइ मनि जि को याचक आविसिइ, तेहहुइ दीजिसि इस्यियुं विकल्प ऊपजइ ते 'उद्देशक' कही - १ | अनइ जे पाखंडीया - परिव्राजकादिकनउ विकल्प जे मनमाहि चींतवई, ते 'समुद्देसपिंड' कहीइ - २ । तथा श्रमण - बौद्ध-तापसादिकनउ जे विकल्प चींतवइ ते 'आदेशपिंड' कहीइ ३ । तथा निर्ग्रथ चारित्रीयाहुइ देवानउ विकल्प चींतवइ ते 'समादेशपिंड' कहीइ - ४ । एतलइ उद्देशादिक च्यारिइ भांगा वखाण्या । हिव मूलगा उद्दिष्ट - १, कृत - २, कर्म - ३ ए त्रिणि भांगां कह्या ते वखाणइ छइ
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संखडिभत्तुव्वरिअं चउण्हमुद्दिसइ जंतमुद्दिढ़ ।।
वंजणमीसाइ कडं तमग्गि तवियाइ पुण कम्मं ॥३१॥
संखडि० ॥ संखडि-विवाहादिक महोत्सव, तेहनूं ऊगरिइ भात, पाछिलि जे जे दर्शनी कह्या तेहनइ काजिइ अधिसइ कल्पइ ते 'उद्दिष्ट' कहीइं १ । अथवा कूरादिक भात दध्यादिक व्यंजने करी मिश्र करइ, दही भेलीनइ करंबादिक करइ ते 'कृत' कहीइ २ । तथा जे संखडनउ ऊगरिउं आहार अग्नि करी अथवा लवणादिके करी विशेष संस्करीनइ महात्मा प्रतई दिइ ते कर्मपिंड कहीइ । इम बीजउ भांगउ १२ भेद । अनइ पहिलं भांगउ १ भेदे एवं १३ भेदो औद्देशिकपिंड बीजउ दोष थयउ।
हिव त्रीजउ 'पूतिकर्म' दोष वखाणइ छइ -
उग्गमकोडि-कणेण वि असुइलवेणं च जुत्तमसणाई।
सुद्धं पि होइ पूई तं सुहुमं, बायरं, ति दुहा ॥३२॥
उग्गम० ॥ उद्गमकोटि-आधाकर्मादिक दस दोषे करी जे आहार दुष्ट हुइ, ते आहार न लेवउ । एकइ कण-एकइ सीथ जे शुद्ध आहारमाहि आवी पडइ तेहइ आहार सघुलोई पूति-अपवित्र थाइ । जिम असुचि-विष्टानउ लवइ जे रूडी वस्तुमाहि आवी पडइ ते अपवित्र थाइ । तिम आधाकर्मादिक दस दोष संबंधी आहारमाहिलु कणइ जे माहि आवी पडइ ते 'पूतिकर्मपिंड' कहीइ । ते पूतिकर्मदोष बिहुं प्रकार हुइ । एक सूक्ष्म पूतिकर्म-१ अनइ बीजउ बादरपूतिकर्म - २ ॥३२॥
हिव ए पूतिकर्मनां बिन्हइ भांगा वखाणइ छइ -
सुहुमं, कम्मिय गंधगि, धूव पुष्पेहिं तं पुण न दुटुं ।
दुविहं बायर-मुवगरण, भत्तपाणे, तहिं पढमं ॥३३॥
सुहमं० ॥ जे आधाकर्मा आहारनउ गंध, अथवा धूम, अथवा फल जे अनेरा आहार पूति आइ-आवी लागइ ते सूधइ, आहार पवित्र थाइ ते असूक्ष्मपूतिकर्म कहीइ । पुण ते दुष्ट-विरुउ-असूझतउ न कहीइ । ते महात्मा प्रतइ कल्पइ, इस्युं भाव । तथा बीजउ बादर भांगउ बिहुं प्रकारे हुइ । एक उपगरण-भाजनादिक आश्री, बीजउ भात-पाणी आश्री-२ ।
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अनुसन्धान-७५(२)
ते बिण्हइ भांगा वखाणइ छइ -
कम्मिय चुल्लिय भायण डोवठिअं पूड़ कप्पई पुढो ।
तं, बीअं कम्मिअ वाघार हिंगु लोणाइ जत्थ छुहे२ ॥३४॥
[कम्मि० ॥] आधाकर्मी आहार जीणइ चूल्हइ अथवा भाजिन रांधिउ हुई, अथवा जीणइ डोईइ विहराविउ हुइ, तीणइ चूल्हइ भाजनि अथवा डोईइ जे अनेरु सूधउ आहार घालीइं ते उपकरण आश्री पूतिकर्म कहीइ । पुण ते आहार महात्मा प्रति कल्पतउ हुइ । पुण जउ ते गृहस्थ ते भाजन थिकउं ते वस्तु अलगी करइ, अनेरइ भाजनि आपहणी घालइ तउ सूझतइ । तथा बीजइ भांगइ आधाकर्मी वघार अथवा हींगु अथवा लूण प्रमुख वस्तु जे अनेरा आहारनइं संस्करवानइ काजिइ माहि घालीयइ ते भातपाणी आश्री बीजइ पूतिकर्म कहीइ । ते महात्माहुइं न कल्पइं ॥३४॥
हिव एह जि भातपाणीनउ बीजउ बादरपूतिकर्मनउ भांगउ वली वखाणइ छइ -
कम्मिय वेसण धूमिअ-महव कयंकम्मखरडिए भाणे ।
आहारपूइ तं कम्म-लित्तहत्थाइ छक्कं च ॥३५॥ [कम्मिय० ॥] अथवा आधाकर्मी वेसणइ-तप्तघृतादि प्रमुख वस्तुइ करी जे आहार धूपीइ वा संस्करीइ ते बादर पूतिकर्म कहीइ, ते वर्जिवउ । अथवा आधाकर्मी आहारइ जे भाजन खरडिउं हुइ, तीणइं भाजनि सूधउ आहार घालीइ ते पूतिकर्म कहीइ । अथवा आधाकर्मी आहारइ खरडिउ जे हस्तादिक तीणि हाथिई जे आहार विहरीइ; तेहे बादरपूतिकर्ममाहि आवइ । तेह भणी ते हस्तादिकइ वर्जिवउ ॥३५॥ हिव एह जि दोष आश्री वली विशेष कहइ छइ -
पढमदिणंमि कम्मं तिन्निय पूइकम्म पायघरं ।
पूड़ तिलेवं पिढरं कप्पइ पायं कयतिकप्पं ॥३६॥
पढम० ॥ कृतकर्मपाकं गृहं जीणइ घरि आधाकर्मी आहार पवित्र नीपनु हुइ, ते घरइ पिहलइ दिहाडउं आधाकर्मी कहीइ । तथा त्रिणि दिहाडा ते घर पूतिकर्म कहीइ । एतलइ च्यारि दिहाडा ते घर वर्जिवउं, इस्यिउ भाव । अथवा
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सप्टेम्बर
जी भाजनि आधाकर्मी आहार पचिउ हुई, तीणइं भाजनि त्रित्रिवार जउ अनेरउं धान रांधिउ हुइ, तउ तिणइ भाजनि विहरिउं सूझइ । बीजी परिइ न सूझइ । तथा जीणई पात्रइ पूतिकर्म आहार विहरिउ हुइ ते पात्रूंइ त्रिणिवार घस्या पूठिंइ जउ त्रिणिवार धोईइ तउ सूझइ । बीजी परिहं न सूझई । एतलई त्रीजउ पूतिकर्म कहिउ
॥३६॥
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हिव चउथउ मिश्रजात दोष वखाणइ छइ
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जं पढमं जावंति, पासंडि, जईणइ अप्पणो विकए । आरंभइ तं तिमीसं तु मीसजायं भवे तिविहं ॥ ३७ ॥
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जं पढमं० ॥ जे आहार पहिलू जि को याचक आविसिइ तेहनइ काजिई -१ | अथवा पासंडि - सन्यासी प्रमुखहुई - २ । अथवा यति चारित्रीयाऋषिहुइं देवाहुइं अनइं आपणहूं काजि हुसिइ । इम विकल्प चींतवीनइ जे पाकनउ आरंभ करइ, ते याचक - १ । पाखंडी - २ । यति - ३ ए त्रिहुंने विकल्पे करी अनइ आपणइ विकल्पइं करी मिश्र हुई ते 'मिश्रजात' दोष कहीइ । इम बिहुंनइ विकल्पे करी मिश्रजातदोष त्रिहुं प्रकारे हुई । हिव जे पहिलू आंपणइ का आरंभ माड्या पूठिउं विचालइ वली भिक्षाचरादिकनउ जे उद्देस विकल्प आवइ ते औद्देशिकदोष कहीइ । अनइ पहिलूं आरंभ करतां धुरि जि जे पाचकादिकनउ विकल्प आवइ, ते मिश्रजात दोष कहीइ । इस्युं भावा ॥३७॥ हिव पांचमउ स्थापनादोष कहइ छइ
सट्ठाण, परट्ठाणे, परंपराऽणंतरं, चरि, (चिरि ) तरिअं दिविह-तिविहा विठवणाऽसणाइ ठवइ [जं] साहुकए ॥ ३८ ॥
सा० ॥ स्वस्थानकि अथवा परस्थानकि जे अशनादिक स्थापइ । तथा परंपर१ अथवा अनंतर२, तथा चिर - घणउ काल राखीइ अथवा इत्वरथोडा काल लगइ राखीइं । इम त्रिहुं प्रकारे बिहु भेदे जाणिवी । जे गृहस्थ महात्माहुइ विहरवानइ काजिई जि काई अशनपानादिक स्थापई - राखीनइ मूंकइ ते स्थापना दोष कही ||३८||
I
हिव स्वस्थान परस्थाना१ परंपरानंतर२ चिर इत्वर३ ए त्रिहुं प्रकारे जे स्थापना कही । ते त्रिणि भांगा वखाणइ छइ
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चुल्लखाइ सद्वाणं, खीराइ परंपरं परंघया इयरं, I दव्व ठिई जावचिरं अचिरंति घरंतरं कप्पं ॥ ३९ ॥
अनुसन्धान- ७५ (२)
चुलु० ॥ जीणइ चूल्हइ अथवा भाजनि धान्यादिक राधिउं हुई, तिणि जि स्थानकि जि काई महात्मा निमित्त स्थापइ - राखी मूकइ; ते स्वस्थान कहीइं १ । अथवा ते स्थानक थिकइ लेईनइ अनेरइ स्थानकि राखइ ति परंपरस्थापना
२ । अनइ जे घृतादिकनइ काजिरं दूध दही प्रमुख महात्मानिमित्त राखइ; ते अनंतर स्थापना कहीइए३ । तथा घृत पक्वान्नादिक जे वस्तु घणुं काल राखी हूंती कांइ विणस नही । ते वस्तु महात्मा निमित्त राखइ; ते चिरस्थापना कहीइ४ । इम इ त्रिहुं, घरमाहि महात्मा आव्या देखी विहरवानइ काजिइ जे वस्तु हाथि लेई गृहस्थ ऊभउ रहइ ते अचिर स्थापना कहीइ । ते अचिरस्थापना महात्माहुइ कल्पइ । बीजी न कल्पइ । जेह भणी स्थापनाइ घणा जीवनी विराधना हुइ तेह भणी तेहे दोष मोटर महात्माई टालिवड ॥ ३९॥
हिव छउ प्राभृतिका दोष वखाणइ छइ
-
बायर सुहुमस्सक्कण,- मोसक्कण, मिहडुहेहपाहुडिया | पुरउकरण उस्सक्कण, - मोसक्कणमारउकरणं ॥ ४०॥
बार० ॥ प्राभृतिका बिहुं प्रकारि हुइ । ते किम् ? बादर - १ | बीजउ सूक्ष्म-२ । गृहस्थ बादर-मोटक अथवा सूक्ष्म-नाहानु जिमणवारादिक आरंभ करणहार हुइ ते आरंभ महात्मानिमित्त उस्सक्कण कहीइ । बिहु त्रिहुं दहाडे मोडेरुउं करइ । अथवा उस्सक्कण कहीइ अरहुं - वहिलेरडं करइ । इम प्राभृतिकाना विभेद जाणिवा । कुणहूं गृहस्थ काईं नाहनुं अथवा मोटउं साखडउ करणहार हुइ । अनई ते महात्मा आवणहार जाणी मउडेरउं करइ । ते उस्सक्कण कहीइ । तथा महात्मा आव्या देखी ज जिमणवारादिक आरंभ विहलउ करइ ते उस्सक्कण कही । इम जे महात्मानिमित्ति गृहस्थ आरंभ आघउ पाछउ करइ ते महात्मानउ दोष लागइ । तेह भणी एहइ दोष गाढउ भारी भणी महात्मानइ टालिवउ । एतलइ छट्ठउ प्राभृतदोष कहिउ ||४०||
हिव सातमउ दोष 'प्रादुष्करण' वखाणइ छइ
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सप्टेम्बर - २०१८
५१
पाउअरणं दुविहं पायडकरणं पयासकरणं च ।
स तिमिरे पयडणं समणट्ठा जमसणाईणं ॥४१॥
पाउअ० ॥ प्रादुष्करण प्रकट करिवउं । ते बिहुं प्रकारे हुइ । एक-प्रकट करिवठं, बीजूं-प्रकाशकरण । उजुयालानउकस्वि इम विभेद जाणिवा । जीणइं घरि अंधारई करी कांइं माहि दीसतउं न हुइ ते घरि थिकउ महात्माहुइं विहरावा निमित्त जि कांई अशनपानादिक आहार बाहरि अगासइ काढी मूंकइं ते प्रादुष्करण कहीइ ॥४१॥
हिव ए बिन्हइ भेद व्यगति वखाणइ छइ -
पायडकरणं बहिआकरणं देयस्स अहव चुल्लीए ।
बीअं मणि-दीव-गवक्ख-कुड्ड-छिद्दाइ करणेणं ॥४२॥ पाय० ॥ महात्मा हुई जे देवा जोग्य जे वस्तु घरिमाहि थिकउ काढी देवानइ बाहिरि मूंकइ अजूआलइ अथवा चूल्हा थकउ बाहिरि आगसइ आणइ ते प्रगटकरण इस्यिई नामइं पहिलउ भांगउ जाणिवउ ।१। हिव बीजउ प्रकाशकरण वखाणइ छइ-मणि-रत्नादिके करी, अथवा जालीइं करी, अथवा कुट्ट-भीतिज्ञ छिंद्रनइ करिवइ करी अजूआलूं करी जं गृहस्थ महात्माहुई विहरावइ । ते प्रकाशकरण बीजउ भांगउ जाणिवउ । एहनउ दोष घणउ । तेह भणी टालिवउ । एतलई सातमउ प्रादुष्करणदोष बिहुं प्रकारे कहिउ ॥४२॥
हिव आठमउ क्रीतदोष वखाणइ छइ - किणणं कीयं मुल्लेणं चउहा तं सपर-दव्वभावेहिं ।
चुन्नाइ, कहाइ, पणाइ, भत्तमंखाइ, रूवेणं ॥४३॥ किणणं० ॥ जे वस्तु महात्मानिमित्त मूलि करी वेचातूं लीजइ, ते क्रीत कहीइ । ते क्रीत चिहुं प्रकारे हुई । एक-स्वद्रव्यक्रीत-१, अनइ स्वभावक्रीत-२, तथा परद्रव्यक्रीत-३, अनइ परभावक्रीत-४ । हिव ए च्यारिइ भांगा वखाणइ छइ- जे महात्मा आपणू चूर्णादिक औषध आपीनइ जे भोजन लहइ, ते स्वद्रव्यक्रीत१। तथा लोकप्रीतिइं कथादिके करी रंजवीनइ जे आहार लिइ, ते स्वभावक्रीत२ । तथा जे गृहस्थ महात्मा निमित्त आपणइ धर्मिनई काई देवानूं लेई नइ दिइ । महात्मा आश्री ते पारकू द्रव्य । तेह भणी ते परद्रव्यक्रीत कहीइ ।३। तथा जे
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५२
अनुसन्धान-७५(२)
कुणहुं भक्तिवंत गृहस्थ आपणी मंख कहीइ - नटवादिक लाइं करी अनेरा लोक प्रतिइं रंजवी । ते कन्हलि द्रव्य लेई जं महात्मा प्रतिइ भोजन दियइ ते पर भावक्रीत जाणिवउ ।४। इम चिहुं भेदे क्रीतदोष जाणिवउ ॥४३॥
हिवइ नवमउ प्रामित्यदोष वखाणइ छइ -
समणट्ठा उच्छिदिअ जं देयं देइ तमिह पामिच्चं ।
तं दट्ठ जइ भइणी उद्धारिय तिल्लनाएणं ॥४४॥
समण० ॥ श्रमण-महात्मा निमित्त उछंदिय कहीइ ऊधारउ लेईनइ दान दियइ । आवतइ वरसिइं हूं बिमणूं आपिसु । इम कहीनइ जे वस्तु ऊधारइ लेई महात्मा प्रतिइं दिइ, ते प्रामित्यदोष कहीइ । तेहे दोष भारी । महात्माइ वर्जिवउं । हिव ए दोष ऊपरि महात्मानी बहिनिनउ दृष्टांत जाणिवउ । ते किम् ?।
___ एकई नगरि एक कौटंबिक वसइ । तीणइ कौटंबिकई वैराग्यइ दीक्षा लीधी । पछी तेहनूं कुटुंब सगलूं विणठउं सांभलिउं । एक बिहिनि ऊगरी छइ । ते वात जाणी ते महात्मा आपणी बहिननइ वंदाविवा आविउ । ते भाई महात्मा देखी बहिन अपार हर्षी । हिव रखे मूंनि निमित्त नवउं कांई करइ, इम महात्माई बहिननि वारी । पुण तुहइ तीणई बहिनि आवतइ वरसि हुं बिमणू आपिसु इम ऊधारउ तेल लेई नइ आपणा भाई महात्माहुइं विहराविठं । महात्मा वंदावी ग्यिउ। पछइ तीणइ स्त्रीइं बीजइ वरिसि निर्धनपणइ तेतलइ बिमणूं आपी न सकिउं । इम त्रीजइ वरिसि वली बिमणूं थिउं । इम मउडइ मउडइ कूणउ घणउ वाधिउं । तिणइ स्त्रीइं दारिद्र्य करी आपी सकिउं नही । तेह भणी ते स्त्री व्यवहारिआनइ घरि दासी थईनइं रही । पछइ ते वात तीणइं महात्माइं जाणीनइ महात्मा वली तिहां आविउ । आपणी बहिनिनउ स्वरूप जाणिउं । ते व्यवहारिउ प्रतिबूझवी आपणी बहिनि छोडावीनइ दीक्षा लिवरावी । ईणइं दृष्टांतिइं प्रामित्यइ दोष भारी जाणीनइ महात्माई वर्जिवउ । एतलइ नवमउ प्रामित्य दोष कहिउ ॥४४॥
हिव दसमउ परावर्तित दोष वखाणइ छइ -
पल्लट्टिअं जं दव्वं तदन्नदव्वेहिं देइ साहूणं । तं परिअट्टिअ मिच्छं वणि(ग)दुगभइणीहि दिटुंतो ॥४५॥
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५३
पल्लट्टि० ॥ जे गृहस्थ महात्माहुइं देवा योग्य वस्तु पालटइ अनेरी वस्तुस्यिउं दुर्गंध घृतादिक इस्यू पालटीनइ दिइ, ते परिवर्तित दोष कहीइ । ए दोष ऊपरि वाणीया बिहुनी बहिननउ दृष्टांत जाणवउ । ते किम्? ।
वसंतपुरि नगरि देवदत्त अनइं धनदत्त इस्यिई नामिइं वाणीया वसई । तेहे बिहुंए आपणी बहिनि माहोमाहि परणी । देवदत्तइ धनदत्तनी बहिनी बंधूमती इसिइ नामिइं परणी । तथा धनदत्तइ देवदत्तनी बहिनि लक्ष्मी इसिइ नामिइ परणी। इम करतां देवदत्तना लहुडा भाईहुई वैराग्य ऊपनउं । दीक्षा लीधी । विहार करिवा लागउ । केतलई एकइ कालिइं ते महात्मा आपणा भाई बहिनहुइ वंदाविवा आविउ । ते महात्मा देखी बहिनि अपार हर्षी । महात्मा विहरवा निमंत्रिउ । तिसिइ तीणइ बहिनिइ भाईनी भक्ति भणी आपणा घरनउ कोद्रवानुं कूर देखी देवदत्त रीसाविओ । आपणी कलत्रहुई रीस करिवा लागउ । तीणइ स्त्री रीस करि त्तां इम कहिउं । तुम्हारी बहिनि भाइहुइ विहरवा पालटी लेई गई। पछइ धणदत्त ए वात. जाणी आपणी स्त्रीहुइ रीस कीधी। अनेरा घर थकउ धान आणी जे महात्माहुई दीधउं । तीणइं करी तइ हूं लज्जाविउ। इम बिहुंनइ घरि कलह ऊपनउ । पछइ माहात्माइ ए वात जाणी । आपणा भाई बहिनि प्रतिबूझवी दीक्षा लिवराव्या । इम जे महात्माहुइं आहार पालटीनइं दीजइ, तिहाई घणाइ दोष ऊपजइं । तेह भणी महात्माइ ते दोष वजिवउ । एतलई दसमउ परावर्तित दोष कहिउ ॥४५॥
हिव इग्यारमउ अभ्याहृत दोष वखाणइ छइ -
गिहिणो सपरग्गामाउ आणियं अभिहडं जईणट्ठा ।
तं बहुदोसं नेयं पायड-छन्नाइ बहुभेयं ॥४६॥
गिहिणा (णो०) ॥ जे गृहस्थ आपणा गाम थिकउ अथवाऽनेरा गाम थिकउ अथवा आपणा घर थिकउ जे वस्तु आणीनइ महात्मा प्रतिइ दीजइ ते अभ्याहृत करीइ । मार्गि आवतां जातां विराधना घणी हुइ । तथा केतलाइ प्रकट आणइं । केतलाई छानाई आणीनइ महात्माहुई दिइं । इम घणा भेद जाणिवा । ईहइ घणा दोष ऊपजइं । तेह भणी ए अभ्याहृत दोष कहिउ ॥४६॥
हिव ए अभ्याहृत केतलाएक थिकउ आणिउ सूझइ ?। ते वात कहइ छइ
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५४
अनुसन्धान-७५(२)
आइन्नं उक्कोसं हत्थसयंतो घरेउ तिन्नि तहिं ।
एगत्थ भिक्खग्गही जीउ दुसु कुणइ उवओगं ॥४७॥
आइन्न० ॥ हाथ सउ माहिथिकंउ आणिउं महात्माहुइं आकीर्ण कहीइ कल्पतउंहु । त्रिहुं घरमाहिलू आणिउं महात्मा प्रतिइं कल्पइ । पुण जउ ते त्रिहुं घरमाहि एकई घरि भिक्षा ग्राही आगिलउ विहरणहार महात्मा उपयोग दिइ, दृष्टि दिइ । अनइं बीजे बिहुं घरे जउ बीजु पाछिलउ महात्मा उपयोग दियइ । आवतां मार्गि विराधनादिक हुइ ते चीतवइ । तउ ते त्रिहुं घरिमाहिलूं आणिउ कल्पई । बीजी परि न कल्पई । एतलई इग्यारमउं अभ्याहृत दोष कहिउ ॥४७॥
हिव बारमउ उद्भिन्नदोष वखाणइ छइ -
जउ-छगणाइ विलित्तं उभिदिय देइ जं तमुन्भिन्नं ।
समणाणमपरभोगं कवाडमुग्घाडिअं वावि ॥४८॥
जउ० ॥ जतु-लाख अथवा छगणा-छाण मृत्तिकादिक, तेहे करी जे भाजन लीपिउं मूद्रिउं हुइ, दाटउ दीधउ हुइ । ते उखडीनइ जे वस्तु महात्मा प्रतइं दीजइ, ते उद्भिन्न कहीइ । ते महात्माहुई अपरिभोग्य-अकल्पतउं जाणिवउं । अथवा महात्मानिमित्त कमाड ऊघाडीनइ कोई आहार दिइं, ते उद्भिन्न कहीइं । ईहाइ भाजन ऊघाडतां बार हलावतां जीवविराधनादिक घणा दोष ऊपजइं । तेह भणी एहइ दोष गाढउ-भारी जाणीनइ महात्माइ वर्जिवउ । एतलइ बारमउ उद्भिन्न दोष कहिउ ॥४८॥
हिव तेरमउ मालापहृत दोष वखाणइ छइ - उड्ड-महो:-भय,-तिरिएसु, माल, भूमिहर, कुंभि, धरणि-ठिअं। करदुब्भिज्झंदलई जं तं मालोहडं उ8 ॥४९॥
उड्ड० ॥ ऊपरली भुंइ अथवा छींकई काई मूकिउ हुइ । अथवा अहोहेठली-नीचउं भुंइहरामाहि कांई कांई मूकिउ हुइ । अथवा उभय विचालइ कुंभिकोठी-गुढादिकमाहि काई मूकिंउं हुइ । अथवा तिरछउं धरणि-भूमिकाइ विषमस्थानकि कांई मूकिउं हुइ । तिहां थकउ लेई महातमा प्रतिइं दिइ । तथा जे वस्तु हाथे लेतां गाढी दोहली लवरायि पग ऊपाडीनइ गाढइ कष्टि लेईनइ महात्मा प्रतिइं दिइ, ते मालापहृतदोष कहीइ । इम ए मालापहृत बिहु प्रकारे
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सप्टेम्बर - २०१८ जाणिवउ । इहाइ आत्मविराधना संजमविराधनादिक घणा दोष ऊपजइ । तेह भणी ए दोष महात्माइ वर्जिवउ । एतलइ तेरमउ मालापहृत दोष कहिओ ॥४९॥
चवदमो आच्छिद्य दोष वखाणइ छइ -
अस्सि(च्छि)दियमन्नेसिं बलावि जं दिति सामि, पहु, तेणा । तं अच्छिज्जं तिविहं, न कप्पए नणुमयं तेहिं ॥५०॥
अच्छि० ॥ अनेरा कन्हलि थिकुं बलात्कारि छिदिय कहीयं उदालीनइ जे वस्तु महात्मा प्रतिइं दिइ ते आछिद्य कहीइ । ते त्रिहं प्रकारे हुइ । ते किम् ? । ठाकुर सेवक कन्हलि थिकउ ऊदालीनइ दिइ १। तथा प्रभु कहीइ सेठि वाणउत्र कन्हलि थकउ बलात्कारिइं ऊदाली जे वस्तु महात्मा प्रतिइं दियइ २। तथा तेनचोर अनेरां लोक कन्हलि थिकउ ऊदाली महात्मा प्रतिइ दिइ ३। ते आच्छिद्य दोष कहीइ । इम स्वामि-१, प्रभु-२, चोर-३ आश्री विचारतां आछिद्य दोष त्रि प्रकारे जाणिवउ । तेहइ महात्मा प्रतइ न कल्पइ । तेह भणी ते वस्तुना धणीनी अनुमति तिहां नथी, एह भणी ए दोष वजिवउं । एतलइ चवदमउ आछिद्य दोष कहिउ ॥५०॥ हिव पनरमउ अनिसृष्ट दोष वखाणइ छइ -
अणिसिट्ठमदिन्नमणणुमयं च बहतल्लमेग जं दिज्जा। तं च तहा साधारण, चुल्लग, जह निसिटुंति(?) ॥५१॥
अणि० ॥ अनिसृष्ट कहीइ अणदीधउ अथवा अनुमं(म)त अणु(ण)जणाविउं हुइ । जे वस्तु घणे जणे मिली कांई एकठउं रांधिउं हुइ । ते माहिलुं एक जण बीजानी अनुमति पाखई जे महात्मा प्रतिइं दीजइ ते अनिसृष्ट दोष कहीइ । तेहइ त्रिहुं प्रकारे जाणिवउ । ते किम् ? । घणे जणे मिली जे भोजन एकठउं कराविउ हुंइ, ते साधारण कहीइ । ते भोजन सविहुंनी अनुमति पाखइ न सूझइ । तथा चुल्लग-राजानू भोजन । राजाई घणा सेवकहुई एकठउ-समुदायिइं भोजन मोकलियुं हुइ । ते सेवकमाहि कुणहु एक ते वस्तु माहिलं कांई एक महात्मा प्रतिइं दिइ । ते राजानी अनइ बीजा सेवकनी अनुमति पाखइ न कल्पइं । तथा कुड्ड कहीइ हाथीओ। तेहनी पिंड माहिलं आहार कुणंहू एक पुत्तारहुई भाव ऊपजइ । अनइं महात्माहुइं दिइ ते आहार हाथीआनी अनुमति पाखइ न सूझई ।
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अनुसन्धान-७५ (२)
इम अनिसृष्ट दोष त्रिहुं प्रकारे हुइ । एतलई पनरम अनिसृष्ट दोष कहिओ ॥५१॥
हिव सोलमउ अध्यवपूरक दोष वखाणइ छइ
जावंतिअ' जइ' पासंडिअ ' - त्थेमो अरइ तंदुलेपज्जा । सद्धामूलारंभे तमेस अज्झोअरो तिविहा ॥५२॥
५६
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सद्धामू० ॥ (जावंति० ॥ ) मूलि गृहस्थ काजिरं रंधनादिक आरंभ मांड हुइ । अनइ पछइ जिका भिक्षाचर आविसिइ तेह निमित्त १ । अथवा यति महात्मा निमित्त-२ । अथवा पाखंडी तापसादिक, तेह निमित्त - ३ । इम त्रिहुंनउ विकल्प मनमाहि चींतवीनइ वली ऊपरि अधिकेरो तंदुल ओरावइ । ते अज्झोअरइ नामिइ दोष इम त्रिहुं प्रकारे जाणिवउ । एतलई सोलमउ अध्यवपूरक दोष कहिउ। एतलइ सोल उद्गमदोष वखाण्या ॥५२॥
हिव ए सोल दोषमाहि केहा केहा भारी हुईं, ते वात कहइ छइ
इअ कम्मं उद्देसिअ मीस - ज्झोअरंतिमदुगं च' । आहारपूइबायर' पाहुडि अविसोहिकोडित्ति ॥५३॥
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इअ कम्म० ॥ पहिलं आधाकर्म दोष (१) अनइ ऊद्देसिकदोषना
छेहिला त्रिणि भांगा, अनइ मिश्रदोषना छेहिला बि भांगा, तथा अज्झोराना छेहिला बिभांगा तथा आहारपूतिकर्मनउ बादर भांगउ - ९ । अनइ दसमउ प्राभृत दोष । ए दसइ दोष अवसोधि कोटि कहीइ । सर्वथा असुध्यमान असूझता जाणिवा । एह भणी ए दस दोष सर्वथा महात्माइ टालिवा । जेह भणी सिद्धांतमाहि इसी वात कही छइ ॥५३॥
तिइ जुअं पत्तं पिहुं करीसनिछोडिअं कयतिकप्पं । कप्पइ जं तदवयावा सहस्सघाई विसलवव्व ॥५४॥
तीइजु० ॥ एहे दसे दोषे करी जे आहार दुष्ट हुइ ते आहार जीणई पात्रइ विहरीयइ; ते पानूइ करीस कहाइ राख तीणइ करी ऊगटीइं । अनइ ऊपरि वली त्रिणि काप दीजइ । तउ सूझइ । बीजी परिहं न सूझइ । जेह भणी ते आहारनउ कणइ सहस्रघाती विषलव सरीखउ । जिम सहस्रघाती विषनउ लवइ मनुष्य सहस्रंइहुइं विणासइ, तिम ते आहारनउ कणइ अनेरा सूधा आहारना सहस्रहुइ
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सप्टेम्बर - २०१८
विणासइ-अयोग्य करइ । तेह भणी महात्माइं ए दस दोषना भांगा सर्वथा वर्जिवा ॥५४॥
सेसा विसोहिकोडी तदवयं जं जहिं जया पडिअं।
असढो पासइ तं चिअ तउ तया उद्धरे सम्मं ॥५५॥
सेसा० ॥ शेष-थाकता-बीजा उद्गम उत्पादनादिक दोषना भेद विसोधि कोटि कहीइ । अल्प दोष जाणिवा । तेह भणी तिनि बोल असूझता न कहिरावइ । जेह भणी ते दोष संबंधी आहारनउ कणइ जीणइ पात्रइ सूधउ आहार विहरिउ हुइ, तेहमाहि किवारइं आवी पडइ । तउ ते कण तिवारई जि ते आहारनउ कण अशठ निर्माय हुंतउ तत्काल ऊधरइ-अलगउ करइ । बीजउ सूधउ आहार जिम इ सम्यक्-रुडी परइं-विधिपूर्वक ते सदोष आहारनउ कण अलगउ करीनइ बीजउ वावरइ ।
हिव पाछला दस दोष अविसोधिकोटि जे कह्या ते जीणइ पात्रइ विहरइ, ते पात्रू असूझतउं थाइ । तेह भणी तेहहुई अविसोधिकोटि इसिउं नाम । अनइं बीजा दोष संबंधीया आहारनउ कण जि सूधा आहारमाहि पात्रइं आवी किवारइं एकठउ मिलइ, तउ ते कण अलगउ कीधा पूंठई बीजउ आहार अनइ पात्रउं असूझतई काई न थाई । तेह भणी ते सविहुं दोषहुई विसोधिकोटि इसिउं नाम । इस्युं भाव जाणिवउ ॥५५॥ .. हिव बीजा दोष टालिवा आश्री वली विशेष कहइ छइ -
तं चेव असंथरणे संथरणे सव्वमवि विगिचंति ।
दुल्लह दव्वे असढा तत्तिअमित्तं घिअवयंति ॥५६॥
तं चेव० ॥ हिव [अ]संथरण कहीइ अनिर्वाह छतइ महात्मा जेतलुं सदोष आहार हुइ, तेतलउ छांडइ-अलगउ करइ परिठवइ । अथवा संथरणेनिरवाहित छइ जउ ते आहार पाखइ निर्वाह करी सकतउ हुइ जे सूधा आहारमाहि आवी पडिउ हुइ ते सूधउं लइउ आहारपिंडि परिठवइ । अथवा दुर्लभ-दुःप्राय गुर्वादिकहुइ योग्य घृतादिक वस्तु काई विहरिउं हुई अनइ तेहमाहि सदोष आहारनउ कणइ आवी पडिउ हुइ, तउ तेतलउ कण ते परहुं करीनइ बीजउ आहार वावरइ।
एतलइ सोल उद्गमदोष कहिया ॥५६॥
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अनुसन्धान-७५(२)
भणिया उग्गमदोसा संपइ उप्पायणाइ ते वुच्छं।
जेणज्ज कज्ज सज्जो करिज्ज पिंडट्ठमवि ते अ ॥५७॥ __ भणिआ० ॥ आहार नीपजतां जे दोष ऊपजइं ते उद्गम दोष कहीइं । ते सोल उद्गमदोष भणिया-कह्या । हिव आहार लेवानइ काजिइ जीणइ करी मांडइ भाव ऊपजावीइ ते उत्पादना दोष कहीइ । तेहना सोल दोष हुं बोलउं छउं । जे दोष महात्मा अनार्यकार्य-सावध व्यापार तेहनइ विषइ सज्ज हुतु पिंडमात्रआहारमात्रनइ काजिई करइ, ते सोल उत्पादना दोष हूं कहउं छउं ॥५७।। हिव पहिलूं तां ते सोलनां नाम कहइ छइ -
धाई दुइ निमित्तं आजीव वणीमगे च (चि)गिच्छा य ।।
कोहे माणे माया' लोभे य हवंति दस एए ॥५८॥
पहिलउ धात्रीपिंड दोष ।१। बीजउ दूतीपिंड दोष ।२। त्रीजउ निमित्तपिंड दोष ।३। चउथउ आजीवनापिंड दोष ।४। पांचमउ वनीमगपिंड दोष ।५। छ?उ चिकित्सापिंड दोष ।६। सातमउ क्रोधपिंड दोष ।७। आठमउ मानपिंडदोष ।८। नवमउ मायापिंड दोष ।९। दसमउ लोभपिंडदोष ।१०। ए दस दोष जाणिवा।
पुविपच्छासंथव विज्जा मंते ३ य चुन्न" जोगे य५ ।
उप्पायणाइ दोसा सोलसमे मूलकम्मे अ६ ॥५९॥
पहिलू अथवा पछइ जे प्रसंसा कीजई ते संस्तवपिंड ।११। बारमउ विद्यापिंड दोष ।१२। तेरमउ मंत्रपिंड दोष ।१३। चऊदमुं चूर्णपिंडदोष ।१४। पनरमउ योगपिंड दोष ।१५। तथा सोलमउ मूलकर्मदोष ।१६। इम उत्पादनादोष जाणिवा ॥५९॥
हिव सोल दोष जूजूया वखाणतउ पहिलूं धात्रीपिंडदोष कहइ छइ -
बालस्स खीर मज्जण मंडण कि की)लावणंकधाइत्तं ।
करिय कराविय वा जं लहइ जई धायपिंडो सो ॥६०॥
बालस्स० ॥ बालकहुई खीर-दूध धवरावानी चिंता तथा मज्जन-स्नान न्हवरावानी चिंता तथा मंडन-अलङ्करिवानी चिंता तथा कोलावण-रमाडवानी चिंता तथा अंकधाइऊं-उत्सङ्गि-खोलइ लेवउं इत्यादिक धाविनी परिइं आपण
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सप्टेम्बर
पइ पिंड लेवानइ काजिइं बालकनी चिंता करइ । अथवा अनेरा पाहि करावइ । ते महात्मा इम करी आहार लिइ ते धात्रीपिंड कहीइ । एतलइ पहिलउ धात्रीपिंडदोष कहि ॥६०॥
-
२०१८
हिव बीजउ दूतीपिंडदोष वखाणइ छइ
-
कहिअ मिहो संदेसं पयडं छन्नं च सपरगामेसु ।
जं लहइ लिंगजीवी दूइपिंडो अणिट्ठफलो ॥ ६१॥
कहिअ० ॥ जे महात्मा मिथ - परस्परइं संदेसउ कहई । दूतीनी परइ अरानु परि परानु अरइ परस्परइ - माहोमाहि संदेसो कहइ । अथवा अनेरइ गामि जिहां विहरवा जातउ हुइ तिहां परस्परइं संदेसउ कही जं आहार लिइ ते दूतीपिंड कही । ते लिंगजीवी - वेषधारक महात्मा जाणिवउ । तेहइ पिंड महात्मा हुई अनिष्टफल-विरूओ-अवगुणहेतु जाणिवउ, तेह भणी वर्जिव । एतलइ बीजउं दूतीपिंड कही ं ॥६१॥
I
हिव त्रीजउ निमित्तपिंडदोष वखाणइ छइ -
―
जो पिंडाइ निमित्तं कहइ निमित्तं तिकालविसयं पि । लाभ(भा)लाभसुहासुह-जीविअमरणाइ सो पावो ॥६२॥
५९
जो पिंडा० ॥ जे महात्मा पिंडादि आहार वस्तु पात्रादिकनइ काजइ त्रिकाल अतीत १ | अनागत २। वर्तमान ३। कालविषईउं निमित्त कहइ - ज्ञान प्रकासइ। अथवा लाभ - अलाभ, सुख-असुख अथवा जीवितव्य - मरण आश्री काई निमित्त प्रकास । अथवा अनेरउं काई चमत्कार गृहस्थई हुई प्रकासी जं आहार लिइं, ते निमित्तपिंड कहीइ । तीण निमित्तिरं गृहस्थ घणां घणां पाप व्यापार करइं । तेह भणी तेहे पाप विरुउ महात्माइ सर्वथा वर्जिवउ । एतलई त्रीजउ निमित्तपिंड दोष कहिउ ||६२||
हिव चउथउ आजीवनृापिंड कहइ छइ
-
जच्चाइधणाण पुरो तग्गुणमप्पं पि कहियं जं लहइ ।
सो जाई, कुल, गण, कम्म, स (सि)प्पा, आजीवणापिंडो ॥ ६३ ॥ जच्चाइ० ॥ जात्यादि - धनवंत, ब्राह्मण, क्षत्रियादिक उत्तम जातिवंत
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६०
अनुसन्धान- ७५ (२)
जे पुरुष आंपणी जात्या कनइ अर्जिव करी हर्षीइ अनइ हर्ष हूंता दान दिई । तेह आगलि आपणूपू तद्गुण - ते जात्यादिके करी सरीखूं करइ । जे महात्मा पिंडनइ काजिई अम्हारी अमुकडी जाति अमुकउं कुल इम आपणपूं सरीखुं करीनइ जं आहार लिइ । अनइ गृहस्थ उत्तम जातिवंत भणी महात्माहुइ दान दिइ, ते आजीवनापिंड कहीइ । तथा जाति' अनइ कुल अनई गण अनइ कम्म अनइ शिल्पविज्ञान' एतलां वांना प्रकासी जं आहार लिइं ते आजीवनापिंड इम । पांचे प्रकारे हुइ ।
"
हिव पांच प्रकार वखाणइ छइ
-
माइभवा विप्पा व जाई' उग्गाइ पिउभवं च कुलं । मल्लाइ गणो किसिमाइ कम्म चित्ताइ सिप्पं तु ॥ ६४ ॥
माइभवा० || मातानी जाति अथवा ब्राह्मणक्षत्रियादिकनी जाणवी १ |
तथा उग्र - भोगादिक कुल अथवा बापनउ कुल जाणिवउं २ तथा मल्ल सारस्वतादिक गण जाति गणइ लोकप्रसिद्ध जाणिवउ ३ । तथा कृषि वणिज्यादिक कर्म जाणिवा ४। तथा चित्रकरादिकना चित्रामादिक अट्ठोत्तरसउ श (शि) ल्पविज्ञान जाणिवा ५ । एतां वानां प्रकासीनइ जे महात्मा आहार लिइ ते आजीवनापिंडदोष कहिउ छइ
॥६४॥
हिव पांचमउ वनीपकदोष वखाणइ छइ
पिंडट्ठा समणा'-ऽतिहि' माहण' किवण सुणगाई भत्ताणं । अप्पाणं तब्भत्तं दंसइ जं सो - वणीमुत्ति ॥ ६५ ॥
पिंडट्ठा० ॥ जे महात्मा श्रमण, चारित्रीया, बौद्धतापसादिक १ । तथा अतिथि-परहुणादिका तथा ब्राह्मण तथा कृपण अंधादिक दीन दुस्ठ ( स्थ) तथा श्वान-काक-बकादिक पांक्षीया हुई तेहहुईं जे महात्मा अम्हेइ गृहस्थपणाइ ऋषीश्वर ब्राह्मणादिकहुई घणी भक्ति करतां इम कही आपणपूं तेहहुईं भक्तउ जणावीनइ जे आहार लिइ ते वनीपर्कापिंड कहीइ । एतलई पांचमउ वनीपकपिंड दोष कहिउ
॥६५॥
हिव छट्ठउ चिकित्सापिंड दोष वखाणइ छइ
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सप्टेम्बर
२०१८
भेसज्ज' विज्ज' सूयण-मुवसामण वमणमाइ किरियं वा । आहारकारणेण वि दुविहि चिगिच्छं कुणइ मूढो ॥६६॥
भेसज्ज० ॥ चिकित्सा बिहुं प्रकारे हुइ । एक सूक्ष्म १। बीजी बादर २ अम्हारइ अमुक रोग हुतउ, अनइ अमुकई औषधि गुण हूउं । इम औषधनी सूची जणाविवउं करइ । तथा रोग प्रतिकार वैद्य कन्हलि पूछीइ । अम्हारे जिवारइ रोग हुइ तिवारई अमुका वैद्य कन्हलि पूछीइ । वैद्य रोगनउ मर्म सघलुं जाणइ, इम वैद्यनी सूचा करइ । ए ओषध वैद्यसूचारूप पहिली सूक्ष्म चिकित्सा कहीइ । तथा पित्तादिक रोग उपशमवानी औषधक्रिया करइ । अथवा वमन विरेचादिकनी औषधक्रिया प्रकासइ । ते बादरचिकित्सारूप बीजउ भांगउ कहीइ । वे (जे) महात्मा मूढ-अजाण हंतुं आहारमात्रनइ काजिई सूक्ष्म - बादररूप बिहुं प्रकारे चिकित्सापिंड दोष कहीइ । एतलइ छट्टउ चिकित्सापिंडदोष कहिउ |
हिव सातमउ क्रोधपिंड दोष वखाणइ छइ
विज्जा-तवप्पभावं निवाइपूअं बलं व से नाउं ।
'व कोहफलं दिति भया कोहपिंडो सो ॥६६॥
६१
-
हिव आठमउ मानपिंड दोष कहइ छइ
विज्जा० ॥ विद्या - मंत्रादिकनउ प्रभाव देखी, अथवा तपनउ प्रभाव देखी, अथवा राजादिकनी पूजा बहुमान देखी, अथवा शरीरनउ बल देखी, अथवा जे महात्मा कन्हलि तेजोलेश्यादिक लब्धि, अथवा कर्कशवचन सिद्ध्यादिक क्रोधन फल देखी ए महात्माहुइं दान दीजइ, रखे अम्हहुइ शापादिकि करी ए भस्म करइ । इम जे गृहस्थ बीहतउ हूंतुं भइ करी दान दिइ ते क्रोधपिंड दोष कही । एतल सातमउ क्रोधपिंडदोष कहिउ ।
-
द्धिपसं [स]इओ परेण उच्छाहिओ अवमओ वा । गिहणोभिमाणकारी जं मग्गइ माणपिंडो सो ॥६७॥
द्धि० ॥ जे महात्मा इम जाणई, मू कन्हलि विहरवानी लब्धि छइ । मू-हुइ विहरणहार भणी वखाणइ छइ इम लब्धि करी अथवा प्रशंसाई करी गविउ हुंत । अथवा विहरवइ समर्थ अनइ जोइती वस्तू तेहइ जि आणई, अणेरा काई न आपेइ । इम अनेरे महात्माए उछाहिड गर्वि चडाविउ हूंतउ । अथवा तूं
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अनुसन्धान-७५(२)
स्ठू (स्यूं) आणिसि? तइ काई सीझइ नही ।' - इम अनेरे महात्माए अपमानिउअवगणिउ हूंतउ अहंकारिइं करी जे महात्मा पिंड आणइ अथवा गृहस्थहुइ वखोडीनई ए मुंहुइं वखाणइ छइ तेह भणी एहहुई रुडी परिइं दान दिउं इम गृहस्थनई अहंकारि चडावी जे महात्मा आहार मागइ ते मानपिंड (दोष) कहीइ । एतलइ आठमउ मानपिंड कहिउं ॥६७॥
हिव नवमउ मायापिंड दोष अनइ दसमउ लोभपिंड ए बिन्हइ एकइ गाथाई वखाणइ छइ -
माया य विविहरूवं रूवं आहारकारणे कुणइ ।
गिहिस्समिमं निद्धाओ तो बहुं अडइ लोभेण ॥६८॥
माया० ॥ जे महात्मा मायाइ करी आहारनइ काजिइं नवा नवां रूप करइ, ते तेहे रूपे करी लोक इम जाणइ आगिलउ विहरी गिउ ते जउ, ए नवउ आविओ । एहुनई दान दीजइ । इम रूपे करी लोक प्रति जे महात्मा आहार मागई, ते मायापिंड कहीइ । एतलइ नवमुं मायापिंड दोष कहिउ । तथा स्निग्धसरस मोदकादिक आहार नवे नवें घरे जईइ तउ पामीइ, इम मनमाहि लोभ आणी जे महात्मा नगरमाहि घणूं घणूं भमइ ते लोभपिंड कहीइ । एतलइ दसमउ लोभपिंड [दोष] कहिओ । एतलइ ईणइ गाथा बिन्हइ दोष कह्या ॥६८॥
हिव क्रोधादिकपिंड ऊपरि च्यारि दृष्टांत जूजूया कहइ छई -
कोहे घेवरखवगो माणे सेवई खुडुओ नायं । माया आसाढभूई लोहे केसरइ साहुत्ति ॥६९॥
कोहे० ॥ क्रोधना पिंड ऊपरि घेवरनउ मागणहार महात्मानुं दृष्टांत जाणिवउ । ते किम् ? – हस्तिकल्पा नगरीइ ब्राह्मण एक मोटउ गृहस्थ वसइ । एकवार तेहनइ मूयानी जिमणवार हुई । तीणइ दिहाडइ घेवर दिवराता जाणीनइ महात्मा एक मासखमणनइ पारणइ आविउ । ते ब्राह्मणिनइ घरि घडीवार ऊभउ रहिउ, पुण कुणइ कांई दीधू नही । तेह भणी महात्मा रीसाविउ, नो सहिउ । 'अम्हरइ अनेथिई घणू देसिइ । ईहा आणीवारइ नही दीवू स्युं हुं ? बीजीवारइं दिइं लगो'। - इम रीसइ काई काई बोलतउ पाछउ वलिउ । अनेथि भिक्षा लेई पारगूं कीधउं । इम करतां केतलेएक दिहाडे ते ब्राह्मणनइ घरि बीजी वारइ वली
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सप्टेम्बर - २०१८
मूयानी जिमणवार हुई । वली घेवर दिवराता देखी बीजा मासखमणनइ पारणइ ते महात्मा वली ते ब्राह्मणनइ घरि आविउं । बीजीवारइं काई दीधू नहीं । महात्मा रीसाविउ । तिमजि कांई कांई बोलतउ पाछउ वलिउ । वलतउ प्रोलीइ दीठउ । तीणइ जई ब्राह्मणनइ कहिउं, 'महात्मा एक रीसाविउ पाछउ वलिउ छइ । अनइं एह बार तीणइ वचन बोल्यां' । ते वात सांभली ते ब्राह्मण बीहतउ मनमाहि चीतविउं, रखे ए महात्मा रीसाविउं काई शापादिक देतउ हुइ । इम तीणई ब्राह्मणेइ बीहतइ हूंतइ महात्मा पाछउ वली घरि घेवर विहराविया । इम जे गृहस्थ बीहतउ हूंतउ दान दिइ, ते क्रोधपिंड दोष कहीइ । इति क्रोधोपरि घेवरसाधनउ दृष्टांतः ॥
हिव मान ऊपरि सेवतिका क्षुल्लनउ दृष्टांत जाणिवउ । ति किम् ? -
कोशला इस्यिइं नामइ देस छड् । तिहां गिरिपुष्पित नगरि । एकवार एक महोत्सवनउ दिहाडउ आविउ । तीणई दिहाडइ लोकनइ घणूं सेव जि वापरई । हिव तिहां महात्माइं चउमासूं रहिया छेइ । ते महात्माए पुण विहरवा गए हूंतइ सेव घणी विहरी । जिमवा लागा। जिमतां एकइ महात्माइ कहिउं, 'आज घणीइ सेव लाभइ छई । पुण जि को काल्हि सेव विहरी आणइ ते लब्धिवंत जाणइ ।' तिवारइ वली बीजइ महात्मा बोलिउ, 'लूखी सेवीइं सूं कीजइ ? जउ गुल पी(घी) सहित सेव जि आणइं ते लब्धिवंत अम्हे' । ए वात सांभली एकई बोलिई अहंकारि चडिउ । इम कहिउं 'काल्हि मइ घणी सेव गुल घी सहित आणवी' इम प्रतिज्ञा कीधी । बीजइ दिहाडउ ते चेलउ विहरवा गिउ । तिसिइं एक व्यवहारीयानइ घरि सेव घणी वापरती देखीनइ घरिमाहि गिउ । ते स्त्री कन्हलि सेव मागी । पुण तीणइ स्त्रीइं माग्यां पूठइ दीधी नही । तिवारई चेलई ते स्त्री प्रतइ कहिउ हूंतउ 'मां दीजउ आज ए सेव विहरउं' । तिवारई तीणइ स्त्रीइ वलतूं कहिउ, 'जइ तूं आज ए सेव विहरई, तओ माहरूं नांक जाइ' । तिवार पूठिउं ते चेलउ पाछउ वलिउ । ते स्त्रीनइ भर्त्तारि सभामाहि बइठउ । चेलउ ते कन्हलि ग्यिउ । तिहां जई पूछिउं, 'अमुकउ व्यवहारिउ कुण कहीइ ?' तिसिइ तेहे सभाने लोके कहिलं, 'तीणइ व्यवहारिइं ताहरउं स्यूं काज?' तिवारइ चेलइ कहिउं, 'हूं ते कन्हालि कांई वस्तु मागिसु' । ते वात सांभली तीणई व्यवहारी; लाजइं इम कहिउं, 'हूं ते व्यवहारीउ। चेला ! ताहरइ जि कांई जोईइ ते मूं कन्हलि
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मागि ।' तिस्यि चेलइ वली कहिउं, 'तइ दिवरासइ कांई नही' । तीणइ व्यवहारीइ कहिउं, ‘जि कांई मागिसि ते हु सर्व देसु' । तिवारई 'आगई छ पुरुष स्त्रीना वशवर्त्तिया हुया तेह सरीखुं जई तूं न हुइ तुं कन्हलि मांगीइं' । तिवारई ते सभाने लोके कहिउ, 'केहा ते छ पुरुष ?' । तिवारई चेलइ ते छहं पुरुषनी कथा कही -
यथा -
'श्वेतांगुलि' - कोड्डावी तीर्थस्नानाश्चरे किड्ङ्करः । हदनो" गृध्ररंखीवः षडेते स्त्रीवशा नराः ॥ १ ॥
पछइ कथा प्रसिद्ध भणी कांई जूई वखाणी नथी । ए छ कथा जिवारइ चेलै कही, तिवारइं ते सभाने लोके कहिउं, 'तेहे छए एकलुं ए नीपायुं छइ इस्यूं जाणिजे' । तिवारइं तीणइ विवहारीइ चेलानइ कहिउं, 'ए लोक जे काई बोलइ ते बोलवाइ जि दिइ तांहरई जि काई जोईइ ते मू कन्हलि मागि ।' तिवारई चेलइ कहिउं, 'तउ गुल घी सहित सेवई दिइ ।' तिवारइं व्यवहारीइ कहिउं, 'चालि, घरि जईइ ।' तिवारइं चेलइ कहिउं, 'आगइ हुं ताहरइ घरि गयउ हूंत । पुण ताहरी स्त्री कपिला । तीणई कांई दीधुं नही । तिवारइ पूठइ मइ मनमांहि चींतविडं, जु आज ताहरइ जि घरि सेव विहरावसिइ तब बार कीजसई । तेह भणी आंपणा घरनउ मेल जोइ मूहुई तेडिजे ।' तिवारइ तीणइ विवहारीयइ कहिउ, 'तूं घरिनी वात इस्यूं करिसि । तूहुइ सेव घणी हुं विहराविसु । तूं मूं साथि आवि । ' इम कही ते चेलउ साथि टेडी व्यवहारीओ घरि गिओ । चेलानई कहिउं, 'तू लगारेक पडखीनइ घरि आविजे । जेतलई हूं मेल करउं ।' तिवार पूठिइं तीणइ व्यवहारी घरि जई काई काजनूं मिस करी आपणी स्त्री ऊपरिली भुइ चडावीना(न)इ नीसरणी परही कीधी । तिवार पूठि चेलउ घरि तेडी सेवगुल-घी झाझा विहराव्यां । चेलउ सेव-गुल-घी विहरी पोसालिई जई ते महात्मा हुई आपइं । ते महात्मा ईर्ष्या । इम जे महात्मा अनेरा गृहस्थहुई अहंकारि चडावी अहंकारिइं आहार मागई ते मानपिंड कही ॥ इति मानपिंड दृष्टांतः ॥
किम् ? |
हिव मायापिंड ऊपरि आषाढभूति महात्मानउ दृष्टांत जाणिवउ । ते
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राजगृह नगरि । सिंहरथ राजा राज्य करइ । एकवार तिहां श्रीधर्मरुचि आचार्य पावधारिया । तेहनउ शिष्य आषाढभूति इसि नामिदं महात्मा नगरमाहि
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विहरवा ग्यिउ । फिरतउ फिरतउ एक नटावानइ घरि काई उत्सव हुइ छइ । तेहनइ घरि गिउ । तेहनी स्त्रीइ उत्सव भणी ते महात्माहुई मोदक दीधउ। हिव ए मोदक गुरुनइ काजि हुसिई इम चीतवीनइं ते महात्मा पाछउ वलिउ । रूप पालटी काणायूँ रूप करीनइ काजि हुसिई इम चीतवीनइं ते महात्मा पाछउ वलिउ । रूप पालटी काणानूं रूप करीनइ वली ते नटावानई घरि आविउ । तीणइं स्त्रीइं विभ्रम पडिउं जाणिउ । ए बीजउ महात्मा ते भणी तेहेइहुई एक मोदक दीधउ । ए उपाध्यायनइ काजि हुसिइं इम चीतवीनइ नवउं कूबडानूं रूप करीनइ वली तेहनइ घरि विहरवा गिउ । वली तेहनइ घरि आवी चउथउ मोदक लीधउ । तिवारई गवाक्षि बइठइ नटावइ ते महात्मा नवनवां रूप करतउ देखी अपार विस्मइ मनमाहि चीतवा लांगउ । जउ ए महात्मा नटावउ थाइ तउ अम्हारइ एहवी अद्भुत कलानउ धणी घणइ काजि आवइ । इम चीतवीनइ आंपणी स्त्रीहुई आपणी बेटीनई इम कहिउं, ए महात्माहुइं अपार रूप करवानी कला छइ । तेह भणी जिवारई ए महात्मा आपणइ घरि आविइ तिवारइ घणी भगति करिज्यो । आपणी बेटी करी लोभ(भा)विज्यो । आहार हावभाव शृंगार करी तिम आवर्जिज्यो। जिम आपणाई वसि थाइं । इम करतां ते महात्मा बीजइ दिहाडे तेहनइ घरि आविउं । तेह भणी भक्ति कीधी । इम तेहनी भक्ति जाणीनइं ते महात्मा सदैव ते नटावानइ घरि आवइं । घर सघलूंइं अपार आदर करइ । हासा कउतिगा करइं। इम महात्मा ते स्त्रीनी हावभाव शृंगारे करी इम कांइ वाहिउ जिम चारित्र छांडीनई ते नटावानइ घरि ते नटावीनी बेटी परणी । नटावउ अपार मनमाहि हर्षिउ। वली तीणई नटावइं आपणा कुटुंब सघलाइनइ कहिउं, ए महात्मा नवउ आविउ छइ । तेह भणी एहनी दृष्टिइं मद्य मांसादिक केतलाएक दिहाडा टालिवउ । एकवार ते महात्मा आपणाउ नटावानउ समुदाय सघलउइ लेईनइ एकइ नगरि गिउं। आपणउं कुटुंब एकई स्थानकि मूंकी राय प्रतिइं मिलवा गिउ । तिवारइ तेहनी स्त्रीए तिवरूं अवसर देखी मद्यपान कीधुं । तिवारइ ते महात्मा नटावाहुइं राय मिलवानउ अवसर न हूउ । तेह भणी ते नटावउ पाछउ वलिउ आपणइ स्थानकि आविउ । इसिइ ते स्त्री मद्यपानिइ करी विसंस्ठुल थईनइ पडी दीठी । ते महात्माना मनमाहि पश्चात्ताप थिउ । वैराग्य ऊपनउं। पाछउ वलिउ । तिवारइं तेहे स्त्रीए पाछउ वलतउ देखी पगे लागी मनाविउ । इम प्रार्थना कीधी, 'स्वामी ! अम्हहुई
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काई जीवितव्यनउ उपाय प्रसाद करी' । तेहनी प्रार्थनाइ करी अनइ काई मोहि करी वली पाछु वलिउ। घरि आविउ । साते दहाडे श्री भरतेश्वर चक्रवर्त्तिनूं नवउं नाटक रचिउं । ते नाटक आपणा कुटुंबनइ सीखवी एक राजा आगलि जईनइ प्रकासिउ । ते राजा महात्मानी नाटककलाइं करी आपार रीझिउं । तीणइं राजाइ वस्त्राभरणालंकारादिक घणुउ द्रव्य दीधउ। ते लेइ पाछउं आपणइं नगरि आविउ। ते भरतेश्वर चक्रवर्तिनउं नवं नाटक कुमारपदवी थिकउ आरंभीनइ आदर्शभवनि आपणूं रूप जोतां, हाथनी मुद्रिका पडी देखी भरतेश्वरहुई भावना भावतां केवलज्ञान ऊपनुं तां लगइ ते नाटक प्रकाशउं । भरतेश्वरनी भावना देखी महात्माहुई वली वैराग्य ऊपनउ । पश्चात्ताप करतां भावना भावतां ते महात्माहुइ केवलज्ञान ऊपनऊं। पछइ घणा जीव प्रतिबूझवी मुक्तिं पुहतउ । इति माया ऊपरि आषाढभूतिनउ दृष्टांतः ॥
अथ लोभ ऊपरि केसरिकसाधुनक दृष्टांत जाणिवउ । ते किम् ? -
चंपानगरीइं एक महात्मा मासखमणनई पारणई नगरमाहि गिउ । तीणइं महात्माई इम चीतविउ, आज सिंहकेसरा मोदक जउ आविसिइ तउ पारj कीजिसिइ । इम चीतवीनइ नगरमाहि घणूंइ भमता तिणइ सिंहकेसरा मोदक न प्राम्या । तेह भणी ते महात्माहुइं ते मोदकनउ अध्यवसाय घणु वाधिउ । तीणिइं अध्यवसायिइं करी ते महात्मा सूनउ हूंतउ । लोभिई वाहिउ घणेरुं नगरिमाहि भमवा लागउ । फिरता फिरतां बि पहुर रात्रि थई । पुण लोभनइ अध्यवसायिई करी तीणई महात्माइ रात्रि कांई जाणी नही । रात्रिनइ समइ एकई श्रावकइं ते महात्मा विहरवानइ काजिइं फिरतउ दीठउ । तीणइं श्रावकिई मोदकनउ अध्यवसाय जाणी घरि तेडीनइं ते महात्माहुइं सिंहकेसरा मोदक विहराव्या । ते मोदक देखी महात्मा संतुष्ट थिउ, अनइ सावधानइ थिउ । तिवारउं तीणइं श्रावकिइं रात्रिनउ अवसर जणावानइ काजिइ महात्मा कहलि पूछिउं, 'भगवन् ! मई आज पुरिमढ कीधउ छइ, ते पूगउ ? अथवा नथी पूगंउ ?' ते वात सांभली महात्माई साम(व)धानपणइ उपयोग दीधउ। बि पुहर रात्रि जाणी महात्मा अपार मनिमाहि लाजिउ । श्रावकहुई कहिवा लागउ, 'तई अपार रूडइउं कीधउं, जे हुं तुम्हे जागविउं । मइ मोदकनइ लोभिई वाह्यां रात्रिइं जाती जाणी नही' । इम कही मोदक लेई महात्मा पाछउ वलिउ । वनिमाहि जई मोदक चूरी परिठवा लागउ। ते
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सप्टेम्बर
मोदक परठवतां अनइ भावना भावतां ते महात्माहुइं केवलज्ञान ऊपनउं । इम जे महात्मा लोभिरं वाहिउ नगरमाहि घणूं घणूं भमी आहार मागइ, ते लोभपिंड कही ॥ इति लोभ ऊपरि केसरकसाधु दृष्टांतः ||४||
एतलइ क्रोधादिक च्यारि दृष्टांत कह्या ॥ हिव इग्यारमउ संस्तवपिंडदोष
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वखाणइ छइ
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संबंधे थवो दुहा सोअ पुव्व पच्छा वा ।
दायारं दाणाओ पुव्विं पच्छा व जं थुणइ ॥७०॥
॥ संस्तव बहुं प्रकारे हुइ । जे गुणस्तुति करीनई जे स्तविवउं, ते पहिलउं संस्तव कहीइ । अनइ बीजउ संबंधिई - सगपणिइं अथवा परिचय करी संस्तव हुइ । ए बिन्हइ जूजूआ वखाणइ छइ । ते किम् ? जे महात्मा विहरवा गिउ इंतउ पहिलुं । अथवा पछइ देणहार प्रतिइं वखाणइं । छता अथवा अछता गुणनी स्तुति करई, तुम्हे उदार, आगइ तुम्हे घणां घणां पुण्य करउ छउ इम साचउं अथवा जूठउं वखाण करी जे महात्मा आहार लिइ ते गुणस्तुतिरूप पहिलं संस्तव कहीइ ॥७०॥
हिव बीजउ संबंधरूप संस्तव वखाणइ छइ
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जणणि-जणगाइ पुव्विं पच्छा सास-ससुराइ जं च जई । आय-परवयं नाउं संबंधं कुणइ तदुण गुणं ॥ ७१ ॥
जणणि० || जे महात्मा विहरवा गिउ आहारनइ काजिइं माता- - पितानूं सगपण काढइ अथवा सासू-सुसरादिकनउ सगपण काढइ । तथा आपणउ अथवा आगिली विहरावणहार स्त्रीयादिकनउ मेल जाणीनइ संबंध काढइ । जउ ते स्त्री वडी हुइ तउ कहइ, तुम्हे माहरी माता अथवा सासू सरीखी छउ । अथवा समानवय हुइ, तुम्हे माहरी बेटी सरीखां छइ । इम जि परिचय करी जे आहार लिइ ते संस्तवपिंड कहीइ । ते महात्मानं सर्वथा वर्जिवउ । जेह भणी महात्माहुइ विहरवा ग्या, संबंध काढतां घणां घणा दोष ऊपजइ । तेह भणी ए दोष टालिवउ । एतलई इग्यारमउ संस्तवपिंड दोष कहिउं ॥७१॥
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हिव बारसमु विद्यापिंड, तेरमउ मंत्रपिंड, चउदमुं चूर्णपिंड - ए त्रिणि दोष सामटा वखाणइ छइ -
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साहणजुत्ता थीदेवया य विज्जा विवज्जए मंतो । अंतद्वाणाइ फला चुन्ना नयणंजणाईआ ॥७२॥
साह० ॥ जाप - होमादिके करी जे साधिउ जोइई । अथवा जेहनउ अधिष्टायक स्त्रीरूप देवता हुइ, ते अक्षरहुईं 'विद्या' इसिउं नाम कहीइ । तथा जे साधिउ न जोइए गुणवेइ जि करी फल दिइ, तथा जेहनउ अधिष्टायक पुरूषरूप देवता हुइ ते अक्षरहुइ 'मंत्र' इसिउं नांम कहीइ१३ । तथा जीणइ चूर्णिई करी आंखि आंजीइ अथवा निलाडि तिलकादिक कीधइ हूंतई अंतर्द्धान आपणपाहुईं कुहूं देख नही अथवा वशीकरणादिक फल हुइ ते नयनांजनादिक चूर्ण कहा । हिव जे महात्मा विद्या, मंत्र, चूर्ण प्रकासीनइ आहार लिइ ते दोष वर्जिवा । एतलइ विद्यापिंड मंत्रपिंड चूर्णपिंडरूप ए त्रिणिइ दोष कह्या ॥७२॥
हिव पनरमउ योगपिंड वखाणइ छइ
सोहग्ग-दोहग्गकरा पायलेवाइणो वि जे जोगा । पिंडट्ठमिमे दुट्ठा जईण सुअवासिअमईणं ॥७३॥
सोहग्ग० ॥ जीणइ औषधनइ योगिई करी सोभाग्य वाधइ अथवा दौर्भाग्य हुइ । अथवा जीणइ औषधइ पगे लेप कीधइ जलस्तंभ अग्निस्तंभादिक फल हुइ ते चंदनधूपादिक औषधना योग कहीइ । एहवा योग आहारनइ काजिइ महात्माहुइ दुष्ट विरूया निषेध्या छइं सिद्धांतेइ करी जे महात्माना मन वास्या हुंइ जेहहुईं चारित्र ऊपरि घणी खप हुई ते महात्माहुंइ आहारनइ काजिई एहवी विद्या, मंत्र, चूर्ण, योग ए च्यारइ बोल सर्वथा टालिवा कह्या छई, इस्युं जाणिवउं । घणां औषध कूटीनइ जे भूकइ कीजइ ते चूर्ण कहीइ । अनइ ते औषध घसी एक ठांमे ली गुटिकादिक कीजइ, ते योग जाणिवा । एतलइ बारमउ, तेरमउ, चऊदसमउ अनइ पनरमउ ए च्यारि दोष का ||७३ ||
हिव सोलमं मूलकर्म दोष वखाणइ छई.
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मंगलमूली न्हवणाइ गब्भवीवाहकरण घायाई । भवणावणमूलकम्मंति मूलकम्मं महापावं ॥७४॥
मंगल० ॥ मंगलीकनइ काजि जे जडी-मूली आपीइं । तथा सौभाग्यादिकनइ काजिइ स्नान, रक्षाबन्धादिक कीजरं । तथा गर्भनउं करिवउं सातन
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पातनादिक । अनइ विवाहकरणादिक योग कहीइं । हिव जे महात्मा आहारनइ काजिइं एतला वानां उपरिदसइ ( उपदिसइ ? ), ते मूलकर्मपिंड कहीइ । ए कर्म संसाररूपिडं वन वधारिवानू मूलगू कारण जाणिवउं एह भणी मूलकर्म महापापनउ कारण महात्माइ सर्वथा टालिवउं । ए मूलकर्म करतां जीवहिंसा, मैथुनप्रवृत्त्यंतरादिक घणा दोष ऊपजइं । अनइ जीव ए कर्म करतां गाढ निद्धंधस थाइ । तेह भी महापाप जाणीनइ वर्जिवउ ॥ ७४ ॥ एतलइ सोल उत्पादना दोष वखाण्या ।
इय वृत्ता सुत्ताउ बत्तीस गवेसणेसणादोसा । गहणेसणदोसे दस लेसेण भणामि ते मो ( ? ) ॥७५॥
1
इय वुत्ता० ॥ मूलि महात्मानइ त्रिहुं प्रकारि एषणा कहीइ छि । ते किम् ? एक गवेषणा १) बीजी ग्रहणेषणा २) त्रीजी ग्रासेषणा ३) । ए त्रिहुं एषणामाहि पहिली गवेषणाना इय० इम वुत्ता - कहा - बोल्या । बत्रीस दोष सिद्धांतनइ मेलिइं आहारनी शुद्धि आश्री बत्रीस दोष कह्या । हिव बीजी ग्रहणेषणा भक्तादिक आहार विहरतां जे दोष ऊपजइं, ते ग्रहणेषणा कहीइ । तेहना दस दोष हूं वखाणूं छउ ॥७५॥
हिव ते दस दोषना पहिलूं नाम कहइ छइ
संकिय' मक्खिय' निखित्त' पिहिय' साहरिय' दायगु - म्मी । अपरिणय' लित्त' छड्डिय" एसणदोसा दस हवंति ॥७६॥
हिव पहिलउ शंकितपिंड वखाणइ छइ
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संकिय० । शंकित - आधाकर्मादिक दोषे करी जि आहार संदिहालुं हुइ - १ । प्रक्षित - सचित्तादिके करी खरडिउं जे भाजनादिक २। तथा सचित्ताचित्तादि करि जे भाजनादिक निक्षप्तुं - मूंकिउं ३ | तथा पिहित- सचित्ताऽचित्तादिके करी जे ढाक हुइ - ४ । तथा संहत विहरावानइ काजिइ अनेथि ऊपाडी लीधुं - ५ । तथा दायकि - विहरावणहारनउ मेल - ६ । तथा उन्मिश्र - सचित्ताऽचित्तादिके करी मिश्र - एकठउं - भेलिउं ७ । अपरिणत द्रव्य भाव आश्री अणपरिणमिउं ८ । तथा लिप्त - हस्तादिक खरडिउ ९ । तथा छर्दित - छंडातउ नंखातउ १० । सूधाइ आहार विहरतां ए दस दोष महात्मानं चीतव्या जोईइं । तेह भणी ए दस दोष जूजूया वखाणइ छइ ॥७६॥
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अनुसन्धान-७५(२)
संकिय गहणे भोगे चउभंगो तत्थ दुचरिमा सुद्धा ।
जं संकइ तं पावं दोसं सेसेसु कम्माई ॥७७॥
संकिय० ॥ आधाकर्मादिक दोषे करी संदेहालुं आहार विहरइ । अथवा लज्जादिक करी संदिहालुं जिमइ; ते शंकितपिंड कहीइ । हिव ईहां विहरवा अनइ जिमवां आश्री च्यारि भांगा ऊपजइं । ते किम् ? संदिहालुं विहरइ, संदिहालुं जिमइ -१ । अथवा पहिलूं संदिहालूं विहरइ अनई पछइं पूछयां पूठिइं सूधउं जाणीनई जिमइ -२ । अथवा पहिलूं सूधउं जाणीनइ विहरिउ अनई पछई जिमतां कांई मनमाहि विकल्प ऊपजिइ तीणइ करी संदिहालुं जिमइ-३ । तथा सूधउ जाणीनई विहरिउ अनइं सूधउं जाणीनई जिमइ -४ । हिव ए चिहउ भांगामाहि बीजु भांगउ अनइ चउथउ ए बि भांगा सूधा महात्माहुइं कल्पता हुई । बीजा बि भांगा वजिवा। जेह भणी तेहे सेष बीजे बिहु भांगे आधाकर्मादिक बत्रीसदोषमाहि जे दोष श्सांक (शंका?) मनमाहि आवई ते दोष लांगइ । तेह भणी ते भांगा निषेध्या छइं । एतलई पहिलूं शंकितदोष कहिउ ॥७७॥ . हिव बीजउ म्रक्षित दोष वखाणइ छइ -
सचित्ता'ऽचित्त मक्खियं दुहा तत्थ भू-दग'वणे हि तिविहं ।
पढम' बीअं गरिहिअ- इयरेहिं दुविहं तु ॥७॥
सचित्त० ॥ सच्चित्ते करी' अथवा अचित्ते करी' जे हस्त अथवा भाजनादिक खरडियुं हुइ, तीणइ जे आहार विहरी ते प्रक्षितपिंड कहीइ । ते मेक्षित बिहुं प्रकारे हुइ । एक सचित्ते करी खरडिउं-१ अनइं अचित्ते करी खरडिउं -२ । हिव जे सचित्ति करी खरडिउं हुई ते त्रिहुं प्रकारइ जाणिवउं - पृथ्वीकाय' अपकायरे वनस्पतिकाय ए त्रिहुं प्रकारे सचित्त करी खरडिउं हुइ । तेह भणी पहिलुं सचित्त भांगउ इम त्रिहुं प्रकारे जाणिवउ १ । हिव बीजउ अचित्ते करी खरडिउ हुइ तेहइ भांगउ बीहुं प्रकार हुइ । एक गृह्या-निद्या वस्तु-मद्य, मांस, विष्टादिके अचित्ते करी खरडिउं हुइ । तथा बीजी रूडी वस्तु - घृत, कर्पूरादिक अचित्ते करी जे हस्त भांजनादिक खरडिङ हुइ । इम अचित्तना बि भेद जाणिवा ॥७८॥
हिव ए बि भेद वली वखाणइ छइ -
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सप्टेम्बर
२०१८
संसत्तमचित्तेहिं अ लोगाऽऽगमगरहि पहिअ जाईणि । सुक्कुल्लसचित्तेहिं अकरमत्तं मक्खियमकप्पं ॥७९॥
संसत्त० ॥ संसक्त - एकेंद्रियादिक जीवे करी आहार संसक्त - मिश्र लिप्यउ हुइ, तथा अचित्तसंसक्त लोकमाहि अनई आगम-सिद्धांतमाहि निंद्य मद्यमांसादिक अचित्त वस्तु, तेह करी जे हस्त भाजनादिक खरडिउं हुइ, ते महात्माहुई अकलपतरं जाणिवउं । तथा सूका, नीला, सरस अनइ नीरस जे सचित्त वस्तु, तेह करी जे भाजनादि खरडिउ हुइ ते प्रक्षित कहीइ । तीणइ खरडिइ भाजनि अथवा हस्ति जे आहार विहरीइ ते महात्मानइ न कल्पइं । एतलइ बीजउ प्रक्षित दोष कहिउ ॥७९॥
हिव त्रीजउ निक्षिप्तदोष वखाणइ छइ
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पुढवि - दग - अगणि-पवणे परित्तणंते वणे तसेसुं च । निक्खित्तमचित्तं पि हु अनंतर १-परंपर२- मगिज्झं ॥८०॥
हिव चउथउ पिहितदोष वखाणइ छइ
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पुढवि० ॥ पृथ्वीकाय१ अपकाय२ तेउकाय३ वाउकाय४ प्रत्येकवनस्पतिकाय५ अनइ अनंतकाय६ अनइ बेइंद्रियादिक त्रसकाय७ । एह ऊपरि जे भाजन आहार मूंकि हुइ ते अने (नं) तरनिक्षिप्त कहीइ । तथा अथवा पृथ्वीकायादिक ऊपर अनेरी वस्तु हुईं, तेह ऊपरि देवा योग्य वस्तु मूकी हुइइ, ते परंपरनिक्षिप्त कहीइ । इम जे आहार पृथ्वीकायादिक ऊपरि अ ( नं) तर अथवा परंपर मूंकिउ हुइ ते आहार महात्माहुई अग्राह्य अकल्पतर जाणिवउ । एतलई त्रीजउ निक्षिप्त कहिउ ॥८०॥
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सचित्ताचित्तपिहिए चउभंगो तत्थ दुट्ठमाइतिगं ।
गुरु - लहु चउभंगिल्ले चरिमे दुचरमगा सुद्धा ॥८१॥
I
सचित्त० || जे आहार अथवा भाजनादिक सचित्ते करी, अचित्ते करी ढांकिउ हुइ, ते पिहित कहीइ । हिव ईहा च्यारि भांगा ऊपजई । ते किम् ? चित्ते करी अचित्त वस्तु ढांकी हुइ १ । अथवा अचित्ते करी सचित्त वस्तु ढांकी हुइ २ । अथवा सचित्त करी सचित्त वस्तु ढांकी हुइ ३ । अथवा अचित्ते करी अचित्त वस्तु ढांकी हुइ ४ । इम च्यारि भांगा जाणिवा । हिव ए चिहुं भांगामाहि
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-अनुसन्धान- ७५ (२)
पहिला त्रिणि भांगां दुष्ट - विरूया, महात्माहुइ अकल्पता जाणिवा । छेहलउ भांगउ कल्पत हुइ । पुणतिहां गुरु- भारे ठाम अनइ लघु-हलूडं ठाम आश्री वली च्यारि भांगा ऊपजइं । ते किम् ? - मोटउं ठाम अनइ ढांकणइ मोटउं -१ । अथवा मोटउं ठाम अनइ नाहनुं ढाकणउं २। अथवा नाहनुं ठाम अनइ ढांकणुं मोटउ-३ । अथवा नाहनुं ठाम अनइ नाहनुं ढांकणुं - ४ । इम च्यारि भांगा ऊपजई । तेहमाहि बीजउ अनइ चउथउ ए बि भांगा सूधा । बीजा बि भांगा वर्जिवा । एतलइ चउथ पिहितदोष कहिउ ॥८१॥
हिव पांचमउ संहृतदोष कहइ छइ
—
खिवि अन्नत्थमजुग्गं मत्ताउ देइ तेण साहरिडं । तत्थ सचित्ताचित्ते चउभंगो कप्पई चरिमे ॥८२॥
खिवि० || जे वस्तु महात्माहुइ देवा अयोग्य ते वस्तु अनेथि पृथ्वीकायादिकमाहि ठालवीनइ तीणइ ठालइ भाजनि जे आहार महात्माहुइ दियइ ते संहृतं कहीइ । हिव ईहां च्यारि भांगां ऊपजई । ते किम् ? - संचित्त वस्तु सचित्तमाहि ठालवइ - १ | अथवा सचित्त वस्तु अचित्तमाहि ठालवइ - २ । अथवा अचित्त वस्तु सचित्तमाहि ठालवइ - ३ | अथवा अचित्त वस्तु अचित्तमाहि ठालवइ४ । ए चिहुं भांगामाहि छेहलउ भांगउ महात्माहुइ कल्पइं । बीजा त्रिणि भांगा न कल्प ॥८२॥
तत्थ वि अथोव- - बहुपय चउभंगा पढम तइअगाइन्ना । जड़ तं थोवाहारं मत्तग मुक्ख बिय वियरिज्जा ॥८३॥
तत्थ० ॥ हिव एह छेहला भांगामाहि थोडा अनइ घणां आश्री वली च्यारि भांगा ऊपजइ । ते किम् ? - थोडामाहि थोडउं घालवइ-१ । अथवा थोडामाहि घणउं घालइ - २ । अथवा घणामाहि थोडउं घालइ - ३ । अथवा घणामाहि घणउ घाल - ४ । हिव ए चिहुं भांगामाहि पहिलउ अनइ त्रीजउ ए बि महात्माहुई देइ सकइ, तर ते भांगा कल्परं । बीजा बि भांगा वर्जिवा । जेह भणी ते मोट भाजन ऊपाडतां हलावतां चलावतां आत्मविराधना संयमविराधनादिक घणा दोष ऊपजइ । एतलइ पांचमउ संहृतदोष कहिउ ॥८३॥
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विछट्ट दायक दोष वखाणइ छइ
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थेर [अ]पहु पंड वेविर जरि अंधव्वऽत्त मत्त उम्मत्ते । कर-चरणछिन्न पगलिअ नियलंडुअ पाऊअ(आ)रूढो ॥८४॥
थेर० ॥ - स्थविर-डोकर-१, अप्रभु-सामान्य दासादिक-२, पंडनपुंसक-३, वेवकर-कंपवाई करी धूजतउ-४, जरि-जूरीउ-५, अंध-दृष्टिरहित६, तथा सातमउ बालक-७, मत्त-मदिराई मांत (८), उन्मत्त-भूतचेष्टित-९, करचरणछिन्न-जेहना हाथ-पग छेद्या हुइ-१०, पगलिअ गलि-अगल कोढनउ धणी११, अनियलिय अठीलि थालि-१२, अंडुअ-लाकडाना हाथ-पगनउ धणी१३, पाऊआरूढो- पावडी पहरिइं जे विहरावइ-१४ एतलानइ हार्थि महात्मानइ विहरिउं न सूझई ॥८४॥ तथा
खंडइ पीसइ भुंजइ कत्तइ लोढेइ विकेणे पिंजइ ।
दलइ विलोलइ जेमइ जा गुव्वणि बालवच्छा य ॥८५॥
खंडइ० ॥ जे स्त्री खांडती हुइ, तथा जे स्त्री पीसती हुइ, तथा जे स्त्री चिणादिक सेकती, तथा जे स्त्री कातती हुइ, तथा जे स्त्री कपास लोढती हुइ, तथा जे स्त्री कपास वीखणती हुइ, तथा जे स्त्री पीजती हुइ, [जे स्त्री दलती हुइ,] तथा जे स्त्री विलोती हुइ, तथा जे स्त्री जिमती हुइ, तथा जे स्त्री गुर्विणी-आठ मासनउ गर्भवती हुइ, तथा जे स्त्री बालकहुइ धवरावती हुइ । एतली स्त्रीनइ हाथिई महात्मानइ विहरिउं न सूझई ॥८५॥ तथा
तह छक्काए गिन्हइ घट्टइ आरभइ खिवइ दुट्ठजई।
साहारण चोरिअं तं देइ परक्कं परढे वा ॥८६॥
तह छ० ॥ तथा जे स्त्री पृथ्वीकायादिक छज्जीव हाथि लेती हुइ, अथवा छज्जीवनइं आंभडती हुइ, अथवा छज्जीवनउं आरंभ करती हुइ, तथा महात्मा आवता देखी छज्जीव हाथि थकउ भुंइ मूंकइ । एतली स्त्रीनइ हाथिई विहरिउं महात्मानइं न सूझई । अथवा जे वस्तु साधारण-घणा जणनइं संबंधि हुइ तथा जे वस्तु चोरीनइ दिइ । तथा पारकी-अनेरानी वस्तु दिइ । तथा अनेरा तापसादिकनइ कल्पी हुइ । जे वस्तु देवा वांछी हुइ । एतली वस्तु महात्मानइं विहरी न सूझइं ॥८६॥ तथा
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ठवइ बलिं उच्चत्तइ पिढराइ तिहाइ सपच्चवायं जो । दिंतेसु एवमाईसु ओहेण मुणी न गिण्हंति ॥८७॥
अनुसन्धान- ७५ (२)
तथा जे स्त्री विहरावती बलि अग्रभक्त-उपलुं भात थोडिस्यिउं राखती हुइ ते न सूझ । तथा जे स्त्री उच्चत्तइ-भाजन नमाडीनइ विहरावइ । तथा जे स्त्री हुई त्रिधा - त्रिहुं प्रकारे ऊपरि हेठिलि अनइं विचालई काष्ट कंटक गर्विक थिकउ अनर्थ ऊपजतउ जाणीइ, तेहनइ हाथि विहरिडं न सूझइं । एन्हाहार देणहारनउ हाथिर्इं महात्माइं सर्वथा विहरिवउ वर्जिवउं । एह भणी जेहनइ हाथिई विहरी, तेहनइ मेल महात्माइ घणउ चींतविउ जोईइ । एतलई छठउ दायक दोष कहिउ
॥८६॥
हिव सातमउ उन्मिश्रदोष वखाणइ छइ
-
जुग्गमजुग्गं च दुवे वि मिस्सिउं देइ जं तमुम्मीसं ।
इह पुण सचित्तमीसं न कप्पमियरम्मि उ विभासा ॥८७॥ (८८)
जुग्ग० I जे वस्तु महात्माहुइं योग्य अथवा अयोग्य कल्पतरं अनइ अकल्पतरं जे हुइ ते बिन्हइ एकठा भेलीनइ दिइ । थोडा भणी अथवा ऊतावलिइं अथवा राग द्वेषनइ भाविई करी एकठा मेलइ, ते उन्मिश्र कहीइ । ईहाई संहृतदोषनी परिइं च्यारि भांगा ऊपजइं । तेहमाहि सचित्तिई करी जे एकठउ - भेलिउं हुइ ते महात्मानइ विहरिउं न सूझइ । अनइ अचित्तिई करी जे भेलिउं हुइ तेहनउ विकल्प जाणिवउ | जीणइं भेलिई आहार शरीरहुई अवगुणकारिउ न थाइ ते कल्पइं । जीणइ भेलिइं अवगुण ऊपजइ ते न कल्पइ । एतलई सातमउ उन्मिश्रदोष कहिउ ॥८७॥
हिव आठमउ अपरिणतदोष वखाणइ छइ
अपरिणयं दव्वं चिअ भावो वा दुण्ह दाणमेगस्स । जो वेगस्स मणो सुद्धं नन्नस्स परिणमियं ॥८८॥ (८९)
अपरि० ॥ अपरिणत बिहुं प्रकारे हुइ । एक द्रव्य आश्री अपरिणत -१, बीजू भाव (आ) श्री अपरिणत २ । तथा द्रव्यआश्री अपरिणत कांई सचित्तादिक वस्तु फासू कीधुं हुई, पुण परिणमिउं न हुइ । अथवा अपरिणत - फासू न हुइ यि सचित्तजि हुइ ते अपरिणत कहीइ । ए पहिलउ भांगउ तथा विहरावणहार
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हुइ भाव परिणमिउ न हुई, विहरवानउ भाव हीयामाहि गाढउ आविउ न हुई ते भाव आश्री अपरिणत कहीइ । अथवा विहरणहार बिहुं महात्मामाहि एकइ मनि आहार सूझतउ परिणमिउ छइ, बीजा महात्मानइ मनि आहार सूझवा आश्री संदेह छइ-तेह भाव आश्री अपरिणत कहीइ । एन्हउ आहार महात्मानइ न कल्पइं । एतलई आठमउ अपरिणतदोष कहिउं ॥८८॥
हिव नवमउ लिप्तदोष वखाणइ छइ -
दहिमाइलेवजुत्तं लित्तं तमगिज्झमोहओ इहयं । ___ संसट्टमत्त१-कर२-सावसेसदव्वेहि अडभंगा ॥८९॥ (९०)
दहि० ॥ दध्यादि लेप जे भाजन दही, खीर, तक्र शाकादिक लेपिइ करी खरडिउ हुई ते ल(लि)प्त कहीइ । सामान्यइं ते अग्राह्य, कारण पाखइ तीणइ भाजनि महात्मानइ विहरिउं न सूझइ । हिव इहां हाथ अनइ भाजन खरडिवा आश्री अनइ भाजननइ तलइ ऊगरवा आश्री आठ भांगा ऊपजइं । ते किम् ? हाथ भाजन खरडाइ अनइ तलइ काई ऊगरइ नही । तथा हाथ खरडाइ अनइ भाजन न खरडाइ पुण तलइ काई न ऊगरइ । अथवा हाथ न खरडाइं भाजन न खरडाई अनइ तलई कांई ऊगरइ । तथा हाथ न खरडाइं भाजन खरडाइं अनइ तलई कांई ऊगरइ । तथा हाथ न खरडाइं भाजन खरडाइं पुण तलइ कांई न ऊगरइ । तथा हाथ न खरडाइं भाजन न खरडाइं अनई कांई ऊगरइ । तथा हाथ न खरडाई भाजन न खरडाइं तलइ कांई न ऊगरई । हिव ए आठ भांगामाहि विसमां भांगा पहिलं-१, त्रीजउ-२, पांचमउ-३, सातमउं-४ ए च्यारि भांगा महात्मानइ सूझता हुइ । बीजा च्यारि असूझता जाणिवा । एतलइ नवमउ लिप्तदोष कहिउं ।।८९॥
हिव ए आठ भांगामाहि जे कल्पता हुइ, ते बोल अनइ दसमउ छर्दितदोष वखाणइ छइ -
इत्थ विसमेसु धिप्पइ छड्डियमसणाइ हुंति परिसाडि । तत्थ पडते काया पडिए महुबिंदुदाहरणं ॥१०॥ (९१) इत्थवि० ॥ हिव ए 'आठ भांगामाहि विषम भांगा महात्माहुई कल्पइं,
१. (हाथ, भाजन खरडाइ अनइ तलइ कांई ऊगरइ ।१।।
हाथ, भाजन खरडाइ अनइ तलइ कांई न ऊगरइ ।२। →
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अनुसन्धान- ७५ (२)
बीजा न कल्पइं । हिव दसमउ छर्दितदोष कहइ छइ । जे अशन - पानादिक विहरतां छाडइ, अरहउ परहउं नाखइ, तिम महात्मानइ विहरिडं न सूझई । जेह भणी छंडाती भिक्षा विहरतां छज्जीवविराधनादिक घणा घणा दोष ऊपजई । एह वात ऊपरि मधुबिंदुनउ दृष्टांत जाणिवउ । ते किम् ?
I
एक महात्मानइ विहरतां खीर खांड घीनउ बिंदूर एक भुइ पडिउं । तेहनी गंधिइं माखी आवी । अनइ मांखी देखी घिरोली आवी । घिरोली देखी मार्जारी आवी । मार्जारी देखी श्वान आविउ । श्वान देखी बीजउ श्वान आविउं । ते श्वान माहोमाहिं विढिवा लागा ते श्वान विढता देखी तेहना धणी लोक आव्या । तेहनइ माहोमाहि वेढि लागी । इम आघउं घणउं ऊ ( झ ) गडउ हूउं । तेह भणी छंडातउ आहार महात्माहुइ विहरिडं न कल्पइ । एतलइ दसमउ छर्दितदोष कहिउ । एतलइ ग्रहणेषणाना दस दोष कह्या ॥९०॥
इय सोलस' सोलस' दस उग्गम' उपा( प्पा ) यणे - सणा दोसा' ।
इय सोल० ॥ इम सोल उद्गमदोष - १ तथा सोल उत्पादनादोष - २ दस एषणादोष- ३ । एतलई महात्मानई आहारशुद्धि आश्री बइतालीस दोष वखाण्या । ए दोष सघलाइ केन्हां छइ । ए पहिला दोष सोलइ गृहस्थना कीधा । बीजा सोल दोष महात्माना कीधा । अनइ त्रीजा दस दोष महात्मा अनइ गृहस्थ बिहुं जणना कधा । इम त्रिहुं प्रकारे ४२ दोष जाणिवा । हिव सूधउ आहार जिमतां वली पांच दोष ऊपजइं । ते पांचे ग्रासैषणाना दोष वखाणइ छइ I
-
संजोयणा' पमाणे इंगाल सधूम' को (का) रणे पढमा । सहि बहिरंतरे वा रसहेउं दव्वसंजोगा ॥९२॥
ज० ॥ आहार सरस करवा भणी जे द्रव्यांतरनउं संयोग मेलइ, ते
(पृ. ७६नी टि.) हाथ न खरडाइ, भाजन खरडाइ अनइ तलइ कांई ऊगरइ |३| हाथ न खरडाइ, भाजन न खरडाइ अनइ तलइ कांई ऊगरइ |४| हाथ न खरडाइ, भाजन खरडाइ अनइ तलइ कांई न ऊगरइ |५| हाथ न खरडाइ, भाजन न खरडाइ अनइ तलइ कांई ऊगरइ |६| हाथ न खरडाइ, भाजन न खरडाइ अनइ तलइ कांई ऊगरइ |७| हाथ न खरडाइ, भाजन न खरडाइ तलइ कांई न ऊगरइ II)
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संयोजना कहीइ-१ । तथा प्रमाण - आहारनी मात्राधिक जिमइ - २ । तथा इंगालचारित्र हुइ अंगार सरीखूं जिमई - ३ | तथा सधूम चारित्र हुई धूम सरीखुं जिमइ४। तथा अकारणिइ जिमइ - ५ । ए पांच ग्रासेषणा जाणिवा । तेहमाहि पहिलुं संयोजनादोष वखाणइ छइ । वसति - उपाश्रयमाहि विहरी आव्या पूठइं अथवा बाहिर विहरतां जि रसनइ काजिइ खीर खांड घृतादिकनउ संयोग मेलइ ते संयोजना कहीयइ | रसगृद्धिना कारण भणी महात्मानं संयोजना वर्जिवी । एतलई पहिलउ संयोजनादोष कहिउ ॥९२॥
हिव बीजउ प्रमाणदोष वखाणइ छइ -
-
छइ
धिइबल - संजमजोगा जेण न हायंति संपइ पए वा । तं आहारपमाणं जइस्स सेसं किलेसफलं ॥९३॥
धिइबल० ॥ जेतली आहारनी मात्राइ लीधइ महात्मानइ धृति- मननउ संतोष तथा बल- शरीरनउ बल संयमयोग - चारित्रनी क्रिया सीदाइ नहीं, संप्रति तीणइं दिहाडइ अथवा पए कहीइ बीजइ दिहाडइ जेतली मात्राइ लीधी हूंती चारित्रनी क्रिया रुडी परिइ करी सकइ ते आहारनी मात्रा प्रमाण जाणिवउं । अधिकउं जिमवउ इहलौकि अनइ परलोकिइ क्लेशफल- अनर्थनूं जि कारण हुइ । तेह भणी महात्माइ मात्राधिक आहार न लेवउ ॥९३॥
हिव अधिक जिमलां महात्मानइ घणा दोष ऊपजई । ते वात कहइ
७७
जे बहु अइबहुसो अइप्पमाणेण भोअणं भुत्तं । हादिज्झ व वामिज्झ व मारिज्झ व तं अजीरंतं ॥९४॥
जेण य० ॥ जेह भणी घणूं घणूं भोजन घणीवार बिवार अथवा त्रिणिवार ऊपहिरउं आकंठ लगइ भोजन कीधउं हूंतउं स्या स्या दोष करइ ? हादिज्झ वं० - विरेच करइ । अथवा वमन करइ । अथवा विसूचिका ऊपजावीनइ ते आहार अजरिउ हूतउ जिमणहार प्रतिइं मारइ जि । अथवा घणूं जिमिउं रागादिक उन्माद ऊपजावइ । तेह भणी मात्राधिक आहार महात्माइ सर्वथा वर्जिवओ
॥९४॥
हिव त्रीजउ अंगार अनइ चउथउ धूमरूप, ए बिन्हइ दोष वखाणइ छइ
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अंगार- सधूमोवम चरणिधणकरणभावउ जंमि । रत्तो दुट्ठो भुंजइ तं इंगालं च धूमं च ॥ ९५ ॥
अनुसन्धान- ७५ ( २ )
1
अंगार० ॥ जे आहार चारित्ररूपीया इंधणहुइ विणासवानूं कारण थाइ, ते अंगारसरीखुं जाणिवउ । अनइ धूमसरीखुंइ जाणिवउं । जे महात्मा सुस्वादसरस आहार रागिइं-मननउ हर्षित हूंतउ जिमइ, ते अंगारसरीखूं जाणिवउं। भोजन तथा जे नी (नि)रस आहार द्वैषिइ करी मननई अगमतई अभावतउ जिमइ, ते भोजन चारित्रहुईं विणास करइ । तेह भणी महात्मा (इ) वर्जिवउं । एतलइ त्रीजइ (इ) चउथउ (४) दोष कहिया ॥९५॥
हिव छ जिमवाना कारण कहियइ छइ -
-
छुहवेयण' वेयावच्च' संजम सुहझाण' पाणरक्खट्ठा' । इरिअं च विसोहेउं भुंजइ न य रूव- रसहेडं ॥ ९६ ॥
६
छुहवे० ॥ भूखनी वेदना सही न सकइ, तेह भणी जिमइ १ । तथा जिम्या पाखइ भूखिउ महात्मा वेयावच्च करी न सकइं, (तीणइ) कारण जि २ । तथा जिम्या पाखइ चारित्रनी क्रिया पडिलेहण - प्रमार्जनादिक करी न सकइं, तीणई कारणिइ जिमइ ३ । तथा जिम्या पाखइ शुभध्यान- सूत्रार्थ चिंतन-भणनादिक ध्यान करी न सकइं, तीणइं कारणि जिमइ ४ । तथा जिम्या पाखइ प्राणजीवितव्य राखी न सकई ५ । ईर्यासमति सोधी न सकइं, तीणइ कारणिई जिमइ ६ । एहे छए कारणे महात्माए जिमवउं । निष्कारण न जिमवउं । अनइ रूप वधारिवा भणी न जिमइ । तथा शरीरपुष्ट (ष्टि) भणी न जिमइ । तथा आहारनां स्वाद भणी न जिम । इम जिमतां महात्माहुइं प्रमाद निद्रादिक घणा दोष ऊपजई । तेह भणी निष्कारण न जिमवउं ॥ ९६ ॥
हिव छ अणजिमवानां कारण कहइ छइ
अहव न जमिज्झ रोगे' मोहुदए' सयणमाइ उवसग्गे । पाणिदया' तवहेउं अंते तणुमोअणत्थं च ॥९७॥
—
अहव० ॥ रोग - ज्वरादिक रोगि छतई न जिमवउं |१| तथा मोहुदए - जिवारइ मोहनउ उदय रागाध्यवसाय गाढउं ऊपनउ जाणीइ तिवारइं महात्माई न जिमवउं । उपवास कीधइ लाभ |२| तथा सयणमाइ - स्वजनादिकनइ उपसग्गि
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छतइ, माता-पितादिक दीक्षा मूकीवादिक उपसर्ग करतां हुइ । अथवा अनेरोई काई जिवारइं उपसर्ग जाणइ तिवारइ न जिमवउं ३ | तथा जिवारइ प्रथम वृष्टि अथवा अतिवृष्टि हुइ तिवारइं एकेंद्रियादिक सूक्ष्म जीव घणा ऊपजई, तेह भणी महात्माइ ते जीवदयानिमित्त न जिमइ । उपवास करइ ४। तथा छट्ट-अट्टमादिक तप करवा भणी न जिमई ५। तथा छेहिलइ समइ सरीर वोसिरावानइ अर्थिअणसण लेवा भणी महात्मा न जिमई । जेह भणी छेहली वेलाई सविहुं जीवे आपणी शक्तिनइ मानई आहारनउ मोह छांडिवउ ६ । एहे कारणे महात्माए न जिमवउं । एतलइ पांचमउ कारणदोष वखाणिउ ॥९७॥
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इतिविहेसणदोसा लेसेण जहागमं मए भणिआ । सु गुरु' लहु विसेसो सेसं च मुणिज्ज सुत्ताओ ॥ ९८ ॥ इय ति० ॥ इम त्रिहुं प्रकारइ एषणा - गवेषण - १, ग्रहणेषणा - २, ग्रासेषणा३ रूप एषणा । आहारनी सुद्धि आश्री ४७ दोष जहागमं - जिम सिद्धांतमाहि कहिया छइ तीणई मेलइं भणिया कहीइ बोल्या । हिव ए सतितालीस दोषमांहि केतलाएक गुरुया - १ -भारी छ । केतलाएक लघु-हलूया । केतलाएक गुरुलघु हलूआ । केतलाएक गुरु लहु- कांई गुरु कांई लघु । इस्या विशेष अनई थांकतां बीजाइ विशेष, अनइ वाचा थिकउ बीजाइ नाम भांगादिकनी विचारणा प्रमुख विशेष सिद्धांतमाहि थकउ आपहिणी विचारवी । विस्तर भणी ते सूक्ष्म दोष कहीता नथी इस्युं जाणिवउ
॥९८॥
सोहंतो अ इमे तह जइज्ज सव्वत्थ पणगहाणीए । उस्सग्गऽववायविऊ जह चरणगुणा न हायंति ॥ ९९ ॥
सोहंतो ० ॥ ए सतितालीस आहारना दोष सोधतउ हूंत महात्मा तिम जया करइ, जि को सदोष आहार लिइ तेहुई सिद्धांतमाहि पंचम (क) पंचक इस्य नामिदं प्रायश्चित्त तप विशेष कहिउ छइं, तेहनी हाणि । जिम राजा अपसंधि कीधउं दंड करइ | तिम रायना दंड द्रव्यनी परिइं ते तप प्रायश्चित्त माटइ जाइ । तेह भणी तेहनी हाणि करी सर्वत्र क्षेत्र काल आश्री तिम जयणा करइ, सावधान थाइ, जिम चारित्रना गुण हीणा न थाइं । जिम चारित्रना गुण वाधइ तिम महात्माइ जया करवी ॥ ९९ ॥
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अनुसन्धान-७५(२)
जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमा(म)ग्गस्स । सा होइ निज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥१००॥
जा जय० ॥ हिव महात्माहुइं सावधानपणइ जयणा करवी । किवारइ कांई विराधना ऊपजइ संपूणी(ण) सिद्धांतना मार्गना जाण महात्माहुइं विधिइं चालतां हूतां किवारइ कांई विराधनां हुइ । पुण ते विराधनाइ निर्जराफल जाणिवी। कर्मक्षयनउ कारण जाणिवी । जेह भणी ते महात्मानइ अध्यात्मविसोधित निर्मलाई गाढी छइ । अनइ ते महात्मानइं आहारनी विशुद्धि ऊपरि खप घणी छइ । तथा मन एकांति सर्व दोष टालिवा ऊपरि छइ । तेह भणी ते विराधना कर्मक्षयनउ कारण थाइ । जेह भणी सविहुं जीवनइ सविडं स्थानके मन जि चोखउ जोईइ । सूधइ मनइ जि करी प्राहिइ जीव हुई घणउं धर्म हुइ । अत एवोक्तं श्रीदशवैकालिके
"देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो।" तेह भणी महात्मानइ आहारशुद्धि ऊपरि मननी गाढी खप जोईइ ॥१०१।।
(१००) इच्चेयं जिणवल्लहेण गणिणा, जं पिंडनिज्जुत्तीओ, किंचिय(किंची) पिंडविहाणजाणणकए, भव्वाण सव्वाण वि । वुत्तं सुत्तनिउत्त मुद्धमइणा, भत्तीइ सत्तीइ तं सव्वं भव्वममच्छरा सुअहरा बोहंतु सोहंतु आ ॥१०२॥
इच्चेयं० ।। इसी परिइं श्रीजिनवल्लभ इसिइं नामिइ गणि आचार्यिइ जं पिंड० पिंडनियुक्तिइ सिद्धांत, तेह थकउ ऊधरीनइ आहार लेवानी विधि मार्ग जाणिवा काजिइ भव्य जोग्य जे साधु अथवा श्रावकहुई पिंडविशुद्धि प्रकरण वुत्तं - कहीइ बोलिउ । सुत्तनि० - सिद्धांतनइ विषय वापरी निर्मलमति-बुद्धि जेहनी; एन्हीं श्रीजिनवल्लभसूरि आचार्यिइं सिद्धांतनी भक्तिई अनइं आपणी शक्तिई बुद्धिनइं अनुसारिइं ग्रंथ बोलिउ। हिव ए ग्रंथ रुडी परिइ मच्छररहित जे श्रुतधरसिद्धांतना जाण तेह, आपणा शिष्यहुई, बोहंतु०-पिंडविशुद्धिनउ विचार बूझिववउ - जणाविवउ - प्रकासिवउ । तथा ए ग्रंथ सिद्धांतने जाणे मच्छर छांडीनइ, सोहंतु०-सोधिवउ । जेह भणी ए सतितालीस आहारना दोषनउ विचार अत(ति)गहन-गाढउ सूक्ष्म छइ । अनइ सिद्धांतना सूत्र अनंतार्थ छइ । तेह भणी
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बुद्धिनइ विशेषिइ करी किवारइ निरतउ प्रकासणउ न हुइ तेह भणी सिद्धांतनइ जाण आचार्ये ए ग्रंथ सोधवउ । इम श्रीजिनवल्लभसूरि सिद्धांतना जाणइ निगर्व बोलइ छई । इसू जाणिवउं ।१०३। इति श्रीजिनवल्लभसूरिविरचित पिंडव(वि)सुद्धि-प्रकरणस्यार्थो बालाविबोधरूपः । इति संवत्सरेऽस्मिन् विक्रमार्के रूप५-वसु८-षट्६-चंद्रे१ कार्तिकमासे शुक्लपक्षे तृदशायां दिने लाभपुरमध्ये लिखितमिदं पुस्तकं ताराचंदर्षिणा पाठणार्थं भूयात् ।
श्रेयमस्तु ।। श्री।। श्री।। श्री॥
केटलाक शब्दो
जूजूयां आपहिणी विहिरिंउं प्रीसणउ
वटेवाहू
विहाणा
गाढा
पाटहू वेढउ पालि बिन्हई
जुदाजुद्दां आपे - पोते ज वहोर्यु - ग्रहण कर्यु पीरसवं वटेमागु वहा[-सवार गाढ-प्रबल पाटना-गादीना घेरो घाल्यो पल्ली-चोरोनी वसाहत बन्ने गुप्तचर मर्द ओघथी-सामान्यथी वहोराववानो व्यक्त-साचुं अभिज्ञान-चिह्न शुद्ध-कल्पे तेवू अशुद्ध-न कल्पतुं निक्स-निःशूक निर्दय
मांटी उघतउं विहरवानउ व्यगतूं-व्यगतउं अहिनाण सुझतुं असूझतउं निध्वंस निस्सूग
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संखड
सीथ
भाजिन
मोडेर
अरहुं-वहिलेर
साखडउ
मंख
बिमणू
मूद्रिउं
दाटउ
छींकई
उदालीन
ओरावइ
अंकाई
खोलइ
अरानु परि परानु अरइ
परहुणा
पांक्षीया
दिवा
अनेथि
प्रोली
हासा कउतिगा
थिकउ
सूनउ
गणवे
निलाडि
संदिहालुं
गृह्या
डोकर
जूरीउ
अगल
संखडी - जमणवार
सिक्थ- दाणो
भाजन- वासण
मोडुं
वहेलु-वहेले
संखडी
नटवो - नाटक करनार
बमणुं
मुद्रित - सील क
दाटो
- बूच
छींके - शीका पर
पडावीने
ओरावे- रंधावे
खोळे रमाडनारी धाव
खोळे
पेलानुं आने, आनुं पेलाने
प्राहुणा - महेमान
पंखी
अपाता
अन्यत्रथी
पोळियो- दरवान
थकी
सुनो - शून्य गणवाथी - जापथी ज
ललाट पर
सन्देहग्रस्त
गर्हित
डोसो
वृद्ध - जीर्ण
गलत कोढ (?)
*
अनुसन्धान- ७५ (२)
३१
३२
३४
४०
४०
४०
४०
४४
४८
४८
४९
५०
* * * * ° °
६९
६९
६९
६९
६९
६९
3 3 3 0 * * *
७२
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गौतममाई
सं. - गणि सुयशचन्द्रविजय
मुनि सुजसचन्द्रविजय
माईनो पर्याय थाय छे मातृका अने बावनी एटले ५२ संख्या प्रमाणवाळी रचना। अहीं कविए प्रस्तुत काव्यमां मातृकाक्षरो एटले १६ स्वरो तथा ३६ व्यंजनोने केन्द्रमा राखी १-१ अक्षरोथी पद्य प्रारम्भी ५२ गाथानी रचना करी छे । जो के काव्यनो विषय योग (हठ योग?)नी प्रक्रिया सम्बन्धी होवाथी अथवा अन्य कोई पण मर्यादाने कारणे कविए पण अहीं बधा ज मूळाक्षरोनो प्रयोग कर्यो नथी ।
काव्यनी शरुआतनां १२ पद्योमा कवि ध्याननी अवस्थानुं वर्णन करी तेनी विशेष वातोनी वर्णना त्यारबादनी गाथाओमां करता होय तेम अमने लागे छे. जो के आ विषय योगाभ्यासीओनो छे. साथे अमारी समज बहारनो, तेथी तेवा ज विद्वान बाबत पर पूरतो प्रकाश पाडे ते वधु इच्छनीय छ । पू. उपा. श्रीभुवनचन्द्र म.ना कथन अनुसार रचना गम्भीर होई ते विषयना मर्मज्ञ ज ते समजावी शके।
प्रान्ते सम्पादनार्थे कृतिनी हस्तप्रत नकल आपवा बदल श्री विद्या-दयाजैनानन्द ज्ञानमन्दिर (लुणावाडा)ना व्यवस्थापकोनो तेम ज कृतिनी मेटर जोई आपवा बदल पू. उपा. श्रीभुवनचन्द्र म.नो खूब खूब आभार.
॥६०॥ अथ गौतममाई
आदि प्रणव समरूं सविचार, माया-बीजी त्रिभुवन सार, श्रीमंत भणी जपुं निसि दीस, अरिहंत-पय नितु नामिसु सीस १ गणहर गरुउ गोयमसामि, अखइ निधि हुई जेहनई नामि, नव निधान तिह चौद रयण, जे नितु समरइ गोयम-वयण २ गौतम-वचन अछइ अति सार, माई बावन तणउ विचारु, चऊद पूर्व अंग बावन जाणि, आगम वेदसु स्मृति पुराण ३ अक्षरि अक्षरि आपु विचार, पद पिंड रूविं अछइ अपार, अक्षरि पामइ मुक्ति-संयोग, अक्षरि मनकामित अ(उ)वभोग ४
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अनुसन्धान-७५(२)
भले भणे जे सुखमन-शक्ति, इड पिंगल त्रीजी तिह विगति, कामह विषह निरंतर भेउ, शक्ति-संयोगि अकल अजेउ ५ बिंदु-ध्यान गुरुवयणि विचार, एक पुरुष मिलइ त्रिण्हिइ नारि, नारि बिहुं नर करइ विलास, जागइ त्रीजी मन अभ्यासि ६ लीहडी नारि बिहुं नर वाधि, नर पश्चिम लेई त्रीजी साधि, गगन-चहुटइ चाचरिवास, निश्चल वससि तु थिर करि सास ७ ॐकारिं ध्याननु विचार, ॐकार जग[नु] आधार, ॐकार विश्व, रूप, ॐकारि मुक्ति-स्वरूप. ८ न(ना)सा नयणि ते निरखी जोइ, प्रणव-रूपि पदमासन होइ, आसन बीजउं दृढ करि कमल, कला-बिंदु-नाद जोइ तुं निर्मल ९ मन पिंड-रूप अपार, षट् चक्र-भेदि जोइ विचार, मनु अनुमति जउ खिण इकु रहइ, रूपातीति सु केवल लहइ १० सिद्ध निरंतर साधइ जोग, विषइ पंच ते मागई भोग, विद्या मंत्र यंत्र रस सिद्धि, गुटिका मूली चरण बुद्धि ११ धंधइ पडिया तत्त्व नवि लहई, मूढा योग निरालंब कहइं, गुरु विण नवि जाणइ न(ते) करम, मन मरिवा धुरि केहउ मरम. १२ अरिहंत अविगत अकल अपार, हरि हर बंभ बोधर(इ) विचार, ए सवि दीसइं शक्ति-संयोग, अहनिसि लीणा विषयाभोगि १३ आसणि आदि सकति अवधारि, सासती बइठी ब्रह्म-दूआरि, अध भीडी उरधि जागवइ, विषयासुख ते मनि भोगवइ १४ इड पिंगल सवि साधक का(कहइ, सुखमन त्रीजी विरला कहइ ए वीस ग्रंथ भेद जो जाणइ, निश्चल रवि ससि द्रवि अहिनाण[इ] १५ ईणि परि जोउ हंस विचारु, दस प्रवेसि तस निरगमि वा(बा)र, एकवीस सहस छ सई निसि दीस, अजपाजप इति मुनि जोगीस १६ उदरि अंग सवि व्याधि विनाश, क्षय कुक्षा(ष्टा)दिक स्वासन कास, सहू कहइ ते लोक प्रचार, हंस जपई तउ योग विचार १७ ऊरध अधह विगति तू जाणि, पूरी प्राणि भीडउ उडि आणि, आकुंचनि ऊरधि लिउ पवन, इणि परि सी(सा)धक गगनिहिं गमन १८
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सप्टेम्बर
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ऋषि जिणशासणि साधनं योग, संयमि सतरि भेदि उपयोगि, नियमासन करइ प्राणायाम, ध्यान धारण धेउ लय शम-ठाम १९ ॠझइं योगी जीतइ सासि, मन मृगलेप दिखाडई पास, प्राणायाम प्रसिद्ध करम, मन मरिवा धुरि एह जि मरम २० लइ लागइ जउ ध्याइ रूप, आपाआपि जोइ सरूप, आपह परह ज भांजइ विगति, तु तिह नर छइ निश्चइं मुक्ति. २१ नृपि ठाए नावई मुनिराय, मन पवनह जउ पूरइ ठाय, षट्चक्र ग्रंथ भेद जो करइ, कला- बिंदु-नाद मनु मरई. २२ एकाकार हइ सहू कोइ, उच्च नीच कुल एक न होइ, त्रिवेणी संगम चेतन मिलइ, एकाकार तिहां नवि न टलइ. २३ ह्रीँकार करउ हृदय कमलि, क्लौंकार [...? ] व्यो तस ज मिलि (?), जपइ लक्ष एक जो नालि, तेजि फ(फु) रंतइं जगति विशालि २४ ओंकारि जिनवर चउवीस, हरिहर ब्रह्मा अनइ जगदीस
२५
ॐ औपजइ अधर मझारि, पवन संजोगिई प्रिउ बारि, आधारह अंबर विचार, सुखमनु झरइ गजदंत मझारि. २६ अंबर - रति संयोगइं भरइ, योगी जो सो अंबर सरइ,
अंबर झरइ त जगत आधार, अनभवि साधक साधकुमारु. २७ अप्प - तेजह आकुंचन करउ, रेचक पूरक कुंभक धरउ, मात्र बार चउवीस छत्रीस, प्राणायाम करई ते ईस. २८ कमल हृदय केवलि विचार, ज्ञान-पयोगि वस्तु-1 -विचार, जीव- करमनउ सिउ संयोग, उतपति विगम ध्रुव- उ[प] योग. २९ खग तव मुणिवर खेहमाहि भमइ, परिजन वाडी एकलउ रमइ, तिहां तउ पुग्गल - देस-विचार, तु ते केवलि अनंत अपार. ३० गंगा यमुना शोषइ नीर, सरसति अंग पखालइ धीर,
ते नवि ऊपजई दसमइ मरइ, ते साधकि त्रिभुवनि विस्तरइ ३१ घरि घरि मंदिर साधइ योग, विषय - विरत ते शक्ति-संयोगि, शक्ति - कुंडलिनी ब्रह्म-विलास, अधि ऊरधि जु हुई अभ्यास. ३२
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अनुसन्धान- ७५ (२)
निर्मला चित्त करीनइ जोइ, त्रिभुवनि नही अनेरउ कोइ, प्रकृति पुरुष तम्हि करउ विभेद, तु तम्हि मुगता मुणिवर भेद. ३३ चंद्र सूर बिहु पूरउं ठाउ, काल रूप राखे तू राहु,
रवि जो अंबर ससिहर गिलइ, तउ ते मुणिवर मुगता (ती) मिलइ . ३४ छइलपणइ छइदरिसण मिलइ, जिणसासण जयणा नवि टलइ, मूरति इसी नवि दीसइ देव, जीहं पन्नग सुर नर करइ सेव. ३५ जगि सचराचर देखइ आप, दहइ करम तउ एक ज व्याप, केवलि बोलइ मुगतिनउं रूप, दीपकोडि तेजिसउं सरूप. ३६ झंखइ जोगी महूइ आल, जो नवि जाणइ वंची काल, कालिइ सुर नर पन्नग ग्रसिया, योग-विहूणा कालिई ग्रसिया. ३७ निम्मल शिसि - खंड निकलंक, सकति कुंडलिनी वदन मयंक, अमृत-कला ते अहनिसि झरइ, जीरवइ योगी तउ नवि मरइ. ३८ टलइ व्याधि सर्वंगिइ वीर, चंदु झरइ जो खारउं नीर,
त्रूटइ कुष्ट अढार जाइ, वलीपलित कषाय नवि थाइ ३९ झरतउ घृत मधु साकर जिसिउ, अमर विद्याधर सिद्धरूपइं तिसउं, चंद्र झरइ जउ भीडइ शक्ति, रवि शशि बिहूं जण करइ ते विगति. ४० डाहिम साची जोसी जाणि, नव ग्रह लगन बार करि बाणि,
भू अप्य उ वाउ आकाश, जाणइ मुणिवर वहन ( त ? ) इ सासि. ४१ ढालइ जल भूमंडल रही, अंबर भरइ सु मुणिवर सही, बालइ नीर न बंधइ कूल, सींचइ तरुअर ऊरधि मूल. ४२ raण एक त्रिहुं मेलो होइ, इड पिंगल नई सुखमनइ सोइ, मन-पवनि चेतम (ण) सिउं वहइ, तत्त्व विचारउ साधक लहइ. ४३ तत्त्वतउं जो परमाण, पल पंचास पुछवि अहिनाण,
वीस च्यालीसह ए अनुक्रमी, त्रीस जि नवइ अंति एउ मरण(?) ४४ थिर थाईन जोउ जाण, एह वात नवि प्राण विनाण,
एउ वात नवि अनुभवी कही, सहूइ जोउ निश्चल रही. ४५ दाखइ जोसी शास्त्र अपार, लक्ष बिहुं किम जाउं पार, अतीत अनागत बोलइ ज्ञान, तउ तीह तत्त्व ब्रह्मनउं ज्ञान. ४६
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धरु धनुष तूं करउ संधान, अधिसंधि ऊरधि जोउ ठाण, षट्चक्र भेदि जो करइ मनसा, बल-पद निश्चई मरणा. ४७ (?) नाद निरंतर निरखी जोइ, स्वर्गि मृत्यु पातालि न होइ, स्वर व्यंजन न दीसइ नादि, मुगति मारगि ए उबाहि (?) ४८ पद तो पंडित बिंदु विचारी ....
......... ४९
..............................
सुर मुरइं तूं जोइ(?), लोकालोकि तूं अवर न होइ, त्रिहुं भवनि हिउं जि दीसइ तेज, रूप करम सिउं म करिसि हेज. ५० बइठा लाभइ ज्ञान विचार, सरस बहत्तरि नाम प्रचार, तीहं सारी दस बोलउं साधु, इड पिंगलमइ सुखमन लाध. ५१ भेल पडी राखीतइ खेत्रि, बां(वां?)झि बाई अणलाधइ वेत्रि, जाणउ तेह नवि नाम न रूप, ते तो अवगत ज्ञान सरूप. ५२ मन जलि मन थलि मन अंधारि, स्वर्ग मृत्यु मु(म)नि फिरइ पयालि, भू अप तेउ वाउ सिउं रंग(रम)इ, एकाकाश किमू(म)इ त(न?)विगमइ. ५३ योगी सो जे जाणइ योग, मन आकासि करइ संभोग,
....................... ५४ रवि ससि बालइ अंतरालि, वाय अगनि वहइ शुभ कालि, पुढवि अप मुनि शुभ संयोगि, गगन वहंतइ मुगति-पयोगि. ५५ लहइ बिंदु मुनि गुरु आदिसइ, अंगुलि थिरु करि जगह-प्रवेस. लहइ बिंदु करि वर्ण विचार, पीलु धउलउ ए बे सार. ५६ विगत थाइ विचारी जोइ, नीलइ कालइ निवृत्ति न होइ, गुरु आदेसिइं गगन विचार, तिहां तूं केवलि-कर्म निवारि. ५७ सहजिइं जोउ वस्तु विचार, जं दीसइ ते सहू असार, पुढवि आउ तेउ वाउ कर्मरूप, गगनि निहालइ मुगति-सरूप. ५८ खंड-ग्यान जो बाला कर्म, मन-मृग मरिवा सघला मर्म, एकेकइ क्रमि सिद्धा हूया, प्राणायामि जीवंता मूआ. ५९ हीयडा भोलिम बोल्या बोल, जोगी न कहइ जि मरइ निटोल, अनुभव जोइ घटमई कहिया, जे साधइ ते त्रिभुवनि रह्या. ६०
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अनुसन्धान-७५ (२)
खणि चक्रि विवर जल दह[इ], साधक - वचनि अनागत कहइ, तिहां तउ देखइ एकाकारु, ता नवि छंडइ जन - विवहार. ६१ लक्ष चउरासी आसण जाणि, कर्म तेतला अछई नियाणि, कर-वकरी कर - मंतर सार, साधक जो जिह कर्म- विचार. ६२ खरता दीस सुरासुर - इंद, हरि हर ब्रह्माइनइ चंदु, उत्पत्ति - विगम करइ सवि जंतु, अक्षर एक अछइ अरिहंत. ६३ गौतम - माईअ विगत हुई, अनुभवि जइसूरि ति गिणि कही, लोक लोक एहनउ व्याप, यति जाणइ जइ बोलइ आप. ६४ ॥ इति गौतम - माई समाप्ता ॥छ। ग्रं. ९५ ॥ श्रीः ॥ श्रीः ॥
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सप्टेम्बर - २०१८
रत्नसिंहसूरिशिष्य उदयधर्मरचित उपदेशमाला-सर्वकथानक-षट्पदाः
सं. - गणि सुयशचन्द्रविजय
मुनि सुजसचन्द्रविजय श्रीधर्मदासगणिनी 'उपदेशमाला' ए जैन संघना एक मूल्यवान घरेणारूप ग्रन्थ छे. तेना उपर अनेक विवरणो रचायां छे. केटलांक प्रकाशित पण छे. लगभग अभ्यासु साधु-साध्वी आ प्रकरण कण्ठस्थ करे ज. तेनी गाथाओमां अने शब्दोमां एक प्रेरणा छे - संयमनी, शुद्धिनी, कल्याणनी.
आ ग्रन्थमा प्रतीकात्मक रूपे अनेक कथानकोना संकेत के निर्देश मळे छे. कोई कोई साधुजने आ बधी कथाओ ज संस्कृत विवरणरूपे आलेखी छे. ते विविध कथाओना सम्बन्धित प्रसङ्गोनुं जरा विस्तारथी कथन करवाना आशयथी एक साधुजने 'उपदेशमाला-षट्पद'नी रचना करी छे. षट्पद एटले जे छन्दमा छ चरण के पद होय ते : षट्पद - छप्पय - छप्पो. संस्कृतमा 'षट्पदी', तो भाषामा 'छप्पो'. आपणने तरत ज 'अखा'ना वा 'शामळ भट्ट'ना छप्पा याद आवे. मध्यकालमां आ छन्दप्रकार सारो एवो खेडातो हशे, प्रचलित पण हशे. तो ज एक जैन साधु-कवि प्राकृत गाथाओ पर, तेना अनुवादरूपे के विवेचनरूपे आवा छप्पा रचवा पसंद करे.
छप्पानी भाषा अपभ्रंश-प्रचुर मध्यकालीन गुजराती छे. भाषाना अभ्यासीने आमां घणो मसालो मळी रहे. उपदेशमालानी कुल गाथाओ तो ५४४ जेटली छे. परन्तु ते पैकी जेमां कथानो संकेत आवतो होय ते गाथा पर ज अनुवादात्मक छप्पा रचवाना होई, छप्पानी कुल संख्या ८९ जणाय छे. जो के कथानो निर्देश करती गाथा घणे स्थाने एकेक छे, तो क्यांक ते २ के ३ के ४ गाथामां पण निर्दिष्ट जोवा मळे छे. षट्पद-कर्ताए ते तमाम गाथाओने सांकळीने एक ज छप्पामां ते सघळो अर्थ समावी दीधो छे.
५-६ ठेकाणे, ते ते कथा अगाउ आवी गई होय अने तेने अंगे षट्पद अगाउ के अन्यत्र आपी दीधो होय तो त्यां तेमणे अगाउनी गाथानो अतिदेश आपेल छे के आ विषयनो षट्पद अगाउ । अन्यत्र अमुक गाथामां आपी दीधो छे.
छेल्ला-८९मा षट्पदमां 'रयणसिंहसूरीस-सीस' एवो स्पष्ट उल्लेख छे, अने तेनी पछीनी पंक्तिमां 'उदयधम्म' एवो पण उल्लेख छे. तेथी आ आ.रत्नसिंहसूरिना शिष्य 'उदयधर्म' नामना साधुजननी होय तेम मानी शकाय. कर्ताना समय विषे सन्दर्भो तपासवाना छे. परन्तु १६मा शतकनी हाथपोथी (सम्भवतः) परथी आ प्रतिलिपि अमे
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करी छे तेथी १५मा शतकमां थया होवानुं सहेजे कल्पी शकाय .
वडोदरानी सेन्ट्रल लायब्रेरी - ( प्राच्यविद्यामन्दिर ग्रन्थालय ) नी प्रतिनी फोटो नकल परथी आ सम्पादन करेल छे. प्रतमां मूल गाथानां प्रतीक मात्र छे. ते स्थाने आखी गाथा अमे लखी छे. प्रतनी नकल आपवा माटे प्राच्यविद्यामन्दिर - वडोदराना आभारी छीए.
अर्हं ॥ श्रीवीतराग ॥
अनुसन्धान- ७५ (२)
*
नमिऊण जिणवरिंदे, इंदनरिंदच्चिए तिलोयगुरू । उवएसमालमिणमो, वुच्छामि गुरूवएसेणं ॥२॥
विजयनरिंद जिणिंद वीर - हत्थहिं वय लेविणु', धम्मदासगणि नामि गामि-नयरिहिं विहरई पुणु, नियपुत्तह रणसीहराय पडिबोहण सारिहिं, करई ए उवएसमाल जिणवयण - वियारिहिं सय पंच ब्याल गाहारयण मणिकरंड महियलि मुणउ, सुभाविसुद्ध सिद्धंत समसवि सुसाहु सावय सुणउ. १
वच्छरसभजिणो, छम्मासा वद्धमाण जिणचंदो । इअ विहरिआ निरसणा, जइज्ज एओवमाणेणं ॥ ३ ॥ रिसहनाह निर (रा) हार वरिस विहरिउ अपमत्तउ, वद्धमाण छम्मास करइ तप गुणिहिं निरुत्तर', अवर वि जिणवर दिक्ख लेवि तव तवई सुनिम्मल, तिणि कारण उपदेशमाला धुरि तप किय बहुफल, निय सत्ति सारि अणुसारि णित ए आदर अहनिसि करउ, भोभवि भावि जम्मण - मरण- दुह- समुद्र दुत्तर' तरउ. २ जड़ ता तिलोयनाहो, विसहइ बहुआई असरिसजणस्स । इअ जीअंतकराई, एस खमा सव्वसाहूणं ॥ ४ ॥ सव्व साहु तुम्हि सुणउ गणउ जग अप्प - समाणउ, कोह कहवि परिहरउ धरउ समरस सपराणउ,
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तिहुयण-गुरु सिरि वीर धीरपणि धम्म-धुरंधर, दास पेस-दुव्वयण सहइ घण° दुसह निरंतर, नर-तिरिय देव-उवसग्ग बहु जहर जग-गुरु जिणवर खमइ, तिम खमउ खंति अग्गलि करी जेम्म रिउ-दल नमइ. ३ भद्दो विणीअविणओ, पढमगणहरो समत्तसुयनाणी। जाणतो वि तमत्थं, विम्हिअहियओ सुणइ सव्वं ॥६॥ सव्व सुणइ जिण-वयण नयण उल्हासिहि गोयम, जाणइ जइवि सुयत्थर तहवि पुच्छइ पहु, कहु किम, भद्रक चित्त पवित्र [पवित्त] पढम गणहर सुयनाणी, न करइ गव्व अपुव्व करवि मनि मन्नइ वाणी, छंडीइ मान ज्ञानह तणउ विणउ'३ अंगि इम आणीइ, गुरुभत्ति कहवि नवि मिल्हीइ ग्रंथ कोडि जइ जाणीइ. ४ अणुगम्मइ भगवई, रायसुयज्जासहस्सर्विदेहि। तहवि न करेइ माणं, परिअच्छइ तं तहा नूणं ॥१३॥ दिणदिक्खिअस्स दमगस्स, अभिमुहा अज्जचंदणा अज्जा। नेच्छइ आसणगहणं, सो विणओ सव्वअज्जाणं ॥१४॥ वरिससयदिक्खियाए, अज्जाए अज्जदिक्खिओ साहू। अभिगमणवंदणनमंसणेण, विणएण सो पुज्जो ॥१५॥ दहिवाहण-निव-धूय वीर-जिण-पढम-पवत्तणि, चंदनबाल विसाल गुणिहिं गज्जइ गुहिरप्पणि५, अहनिसि रायकुंयारि सहस सेवइं पय भत्तिहि, जाणइ नाण६-निहाण माण पुण नाणइ चित्तिहि, दिणदिक्खिय देक्खिय आवतु द्रमक-साधु सा उठि करि, अभिगमण नमण वंदण विनय सुणइ वयण आनंदभरि. ५ संबाहणस्स रण्णो, तईआ वाणारसीए नयरीए । कन्नासहस्समहिअं, आसी किर रूववंतीणं ॥१७॥ तहवि असा रायसिरी, उल्लटुंती न ताइआ ताहिं । उअरहिएण एगेण, ताइआ अंगवीरेण ॥१८॥
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अनुसन्धान-७५ (२)
वाणारसि नयरी नरिंद नामिहिं संबाहण, पुर अंतेउर पवर" अवर हय गय बहु साहण, २० कन्ना सहस सुरू अछइ पुण पुत्त न इक्कय, २१ राय पत्त पंचत्त र लच्छि लिवइ रिउ ढुक्कय, २३ नेमित्ति४-वयणि राणी-ऊयरि कुंयर जाणि पट्टिहिं ५ च (ठ) विउ तिणि अंगवीरि अरि त्रासवी रज्ज बंध सहु राहविउ. २६६ किं परजणबहुजाणावणाहिं, वरमप्पसक्खियं सुकयं । इह भरह चक्कवट्टी, पसन्नचंदो य दिठंता ॥२०॥ किय- शृंगार उदार अंग आरीसइ ७ पिक्खइ ", पाणि-पडी मुंद्रडी सयल तणु तिणि परि दिक्खई", अंतेर आवासि पासि भव-वासि विरत्तउ", भरहेसर वर झाण नाण केवल संपत्त, एउ चक्कवट्टि विसयारसिहिं रमइ रंगि जणु इम गणइ, तसु अप्प - कज्ज अप्पि हिं सरिडं किं पर जण जाणावणइ. सेणिय करइ पसंस दुमुह दुव्वयणि निवारइ, रायरक्षि कासग्गि रसिउ रणि अरिअण मारइ, सिक्ख - कज्जि सिरि हत्थ घल्लि " संजम संभालइ, मनिहिं बद्ध बहु पाप आप आपिर्हि" पक्खालइ, गति कहइ वीर सत्तम नरय मगहराय अचरिज भरउ, तिणि समइ देव जय जय भणई प्रसन्नचंद्र केवलि जयउ. ८ धम्मो मण हुंतो, तो नवि सीउण्हवायविज्झडिओ | संवच्छरमणसिओ, बाहुबली तह किलिस्संतो ॥२५॥
३२ ७
रह सरिसु बल झुज्झि बुज्झि ७ संजम अणुसरयु, कुण वंद लहु भाय ठाय तिणि कासग" करयु, इह ऊपा (प्प?)नं नाण माण धरि वछर ९ रहियु, सहइ भुक्ख बहु दुक्ख तहवि नहु केवल लहियु, निय बहिनि बंभि सुंदरि - वयणि मयगल जव परिहरइ, रिसहेसर-नंदण बाहुबलि सयल कज्ज ततक्खणि सरइ. ९
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थोवेण वि सप्पुरिसा, सणंकुमारुव्व केइ बुझंति । देहे खणपरिहाणी, जं किर देवेहिं से कहियं ॥२८॥ कहिय इंदि अति रूप सुणिय सुर बंभणवेसिहि, पुहवि-पत्त मज्जणइ५० रूप पिक्खई सुविसेसिहि, कीया सिणगार ४ सणंकुमार नरनाह निरंतर४२, हक्कारइ अत्थाणि४ जाणि आविय देसंतर खणि देहि हाणि इम वयण सुणि रज्ज छंडि संजम ग्रहिउ, सय सत्त वरिस चारित्तधर सहइ रोग लद्धिहिं सहिउ. १० उवएससहस्सेहिं वि, बोहिज्जंतो न बुज्झई कोइ। जह बंभदत्तराया, उदाइनिवमारओ चेव ॥३१॥ करइ रज्ज कंपिल्लनयरि छ क्खंड नरेसर, जाईसमरणि जाणि पुव्व-भव-बंधव मुणिवर, बोहइ बहु उवएस-सहसि५ पुण तोइ न बुज्झइ, भोग भवंतरि बद्ध तिण विसयारसि मुज्झइ, सो बंभदत्त बंभणि कीउ अंध अधिक पातग करी, संपत्तउ सत्तम नरगि मुजि (सु जि) साधु पत्त सिद्धहं पुरी. ११ सेणियकुलि कोणियनरिंदसुय निवई५७ उदाईय८, पाडलिपुरि गुरुभत्त रत्त पोसइ सामाईय, खत्तियपुत्त---[असि उज्?] जाणि तिणि देसह कड्डिउ, उज्जेणि पज्जोय राय ओलगई.९ अणिठिउ९, इणि वयरि अवर अलहंत छल वरिस बार व्रत धारयु, तिणि दुठि तहवि अवसर लहवि२ निव उदाई निसि मारयु. १२ वुत्तूण वि जीवाणं, सुदुक्कराइंति पावचरिआई। भयवं जा सा सा सा, पच्चाएसो हु इणमो ते ॥३३॥ चंपापुरि सूंनार नारि-सय-पंचह-सामी, . सासिमत्त अहरत्ति गेह नवि छंडई५२ कामी, तिणि मारी इक नारि अवर नारिहिं सो मारीउ पढम भज्ज नररूपि विप्पकुलि सो पुण नारीउ, सय-पंच भज्ज जे चोर तस घरणि इकु सा नारि हूय, पहु वीरपासि पुच्छइ सु नर जा सा सा सा विप्प-धूय. १३
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पडिवज्जिऊण दोसे, नियए सम्मं च पायपडियाए । तो कर मिगावईए, उप्पन्नं केवलं नाणं ॥३४॥ कोसंबी ससि सूर वीर वंदई स - विमाणय ३, मिग्गवइ४ महासत्ति जंत" वंदण नवि जाणइ, निसि एकल्ली" जाइ पाइ लग्गेवि " खमावई, पडिवज्जइ तियदोस रोस मिल्हइ" मिल्हावई ", सुह भावि विसुद्ध केवल भयु भुजग विनाणि हि जाणियउ, जिम पवत्तणी स भवपार गय विनय अंगि तिम आणियउ. ६१ १४ संतेवि कोवि उज्झइ, कोवि असंते वि अहिलसइ भोए । चयइ परपच्चएण वि, पभवो दट्ठूण जह जंबू ॥३७॥ - विलासभवणि पडिबोहइ भज्जह,
प्रभव पंच-सय-जुत्त पत्त तर्हि पर धण कज्जह, कण नवाणूं कोडि छोडि व्रत वंछइ सुहमणि, तं पिक्खवि तसु वयणि सयल पडिबुज्झइ तक्खणि, सगवीस - अधिक सय - पंचसिउं रायग्गिहि संजम लय, ६५ सो दूसमि पंचम गणहरए सीस चरिम केवलि भयउ. १५ दीसंति परमघोरा वि, पवरधम्मप्पभावपडिबुद्धा । जह सो चिलाइ पुत्त, पडिबुद्धो सुंसुमाणाए ॥३८॥ सुंम - गिहिं रत्तपत्त रायग्गिहनयरिहिं, दास-चिलाईपुत्त जुत्त धणघरि बहु चोरिहिं, कुंरि करीय करि नट्ठ दुट्ठ अडवि" हि अणुसरिउ, वाह पत्तउ पुट्ठि सिट्ठिपुत्तिहिं परिवरिउ,
सो रिक्षि दिक्षि" त्रिह अक्षरिहिं खग्ग सीस छंडइ करम, कीडियहं कड्डि अढई दिवसि सहस्सारि दीसइ परम. १६ पुप्फिअफलिए तह पिउघरंमि, तण्हाछुहासमणुबद्धा । ढंढेण तहा विसढा, विसढा जह सफलया जाया ॥३९॥ जायवपुत्त जिणिंदसीस ढंढण गुण-जुग्गह",
अंतराय जाणिइ लेइ निय-लद्धि अभिग्गह, ७५
बारवई छम्मास (अट्ठमास ? ) भमइ गुणि रमइ समिद्धउ, ७६
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भुक्ख दुक्ख बहु सहइ लहइ आहार न सुद्धउ, मोदक्क सीहकेसर-सहिय कर्म कूदि(टि) केवल कलिउ, संपत्त-सिद्धि-संपत्ति सुहतपतरू इम पुष्पिअ फलिउ. १७ जंतेहिं पीलिया वि हु, खंदगसीसा न चेव परिकुविआ । विइअपरमत्थसारा, खमंति जे पंडिआ हुंति ॥४२॥ हुंति- जि पंडिय-पवर अवर दुव्वयणि न कुप्पई, खंदगसूरि-सुसीस जेम आयार न लुप्पई९, पालय -कय-उवसग्ग लग्ग मण तीहं सज्झाणिहिं, जंत्रिहिं २ जीविय चत्त पत्त सवि सिद्धह-ठाणिहिं, सो अग्गिदड४ नरगिहिं गयउ वाडव५ भव भमिसिइ६ घणउ, भो भविय भावि इम कोह-अरि खंति-खग्गि हेला हणउ. १८ न कुलं इत्थ पहाणं, हरिएसबलस्स किं कुलं आसि । आकंपिआ तवेणं, सुरा वि जं पज्जुवासंति ॥४४॥ पुज्जई सुरवर-पाय राय नितु नमई निरग्गल, तपि सिज्झइं नव निद्धि सिद्धि सवि “सरई समग्गल,९ तपह लेस हरिएसबलह जिम जगि जस होवइ, न कुलक्रम न प्रसिद्धि रिद्धि नवि तसु कुइ° जोवइ, तिदुक्ख जक्ख पयतलि लुलई बहु बंभण बोहिय बलिहि, कोसलिय-धूय परिणी त्तिजीय भजीय सुद्धि अछिय कुलिहिं. १९ कोडीसएहिं धणसंचयस्स, गुणसुभरियाए कण्णाए। नवि लद्धो वयररिसी, अलोभया एस साहूणं ॥४८॥ ए सुसाहु-आचारसार जइ लोभि न डुल्लई१२, वयरसामि संपत्त नयरि-पाडल३ समतुल्लई, सुणवि तासु गुणवत्त रत्त धणसिट्ठिकुमारी, कणय-कोडि-संजुत्त पत्त सा सइंवरनारी, गुरुरयण-वयण पडिबोह सुणि सुद्ध सील संजमि रही, जिम तेणि मुक्क तिम मुक्कीइ रमणि रयणकोडिहिं सही. २० किं आसि नंदिसेणस्स, कुलं जं हरिकुलस्स विउलस्स । आसी पियामहो सुचरिएण, वसुदेवनामुत्ति ॥५३॥
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विज्जाहरीहिं सहरिसं, नरिंददुहिआहिं अहमहंतीहिं । जे पत्थज्जइ तइआ, वसुदेवो तं तवस्स फलं ॥५४॥ नंदिसेण दोहग्ग" नडिउ निद्धण बंभण-सुय, भवविरत्त चारित्त गहवि तव तवइ अच्चब्भुय, वेयावच्च पसंस इंद किय कसि हिं पहुत्तउ, बंधिय अंति नियाण सग्गि सत्तमि सो पत्तउ, दसमउ दसार नरखयर-धूय सहस बहुत्तरि रमणि- वर, सोहग्ग-सार वसुदेव हूय हरिवंस पयासकर. २१ सपरक्कमराउलवाइएण, सीसे पलीविए निवए । गयसुकुमालेण खमा, तहा कया जह सिवं पत्तो ॥ ५५ ॥ पत्त दिवसि चारित्र कण्ह" लहु बंधव रयणिहिं, गयसुकमाल मसाणि रहिउ कासगि जिण - वयणिहिं, बंभणि बंधवि पालि सीसि वइसानर दिद्धउ, सिरह सरिस दुक्कम्म दहवि मुणि तक्खणि सिद्धउ, तस दुट्ठ- दुरिय-भार भूरिय१०१ - उयर फुट्ट नरयग्गमह, जिम सहिउं तेणितिम संसहु २ लहु लच्छिसु परक्कमह. २२ ते धन्ना ते साहू, तेर्सि नमो जे अकज्जपडिविरया । धीरा वयमसिहारं, चरंति जह थूलिभद्द मुणी ॥५९॥ थूलभद्र गुरुवयणि कोसा - वेसाहरि०३ पत्तउ, चित्रसाली चउमासि रहिउ रस - विगइ निरत्त १०४, पुव्व वेर संभारि समर समरंगणि जित्तउ ०५, जिणसासणि जयवंत सुहड १०६ सुपरिहिं" सुविदित्तउ, ' खर-खग्ग-धार सिरि संचरिउ सहिउ सीह जिम इक्कमन, जे सील-भार दुद्ध[र] धरइ ते सुसाहु ते धन्न धन. २३ जो कुइ अप्पमाणं, गुरुवयणं जो न लहेइ उवएसं । सो पच्छा तह सोयइ, उवकोसघरे जह तवस्सी ॥ ६१ ॥ तवसी इक उपकोसगेहि गिउ गुरु अवमन्निय १०९, थूलभद्र मुणि सरिसु करिसु तव इम मनि मन्निय११०, अत्थलाभ सुणि वयण रयणकंबल भणि ११ चल्लइ ११२,
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सहविअवत्थ ९३ सुवत्थ आणि वेसा करि मिल्हइ, चंपेवि१४ खालि पडिबोहिउ सुगुरुपासि पत्तउ भणइ, निंदीइ लोकि सो गुरुवयण अप्पमाण रह जो कुणइ. २४ जइ दुक्कर दुक्करकारओ त्ति, भणिओ जहडिओ साहू । तो कीस अज्जसंभूअ-विजयसीसेहिं नवि खमिअं॥६६॥ गुणिअण सरिसउ गव्व म करि मूरख मच्छर १५ वसि, न हु निव्वडइ समत्थ जइवि गद्दह गयमक्खसि,११६ सुहड भणी संभूतविजय 'दुक्कर'ति पसंसिय १७, तसु सीसिहिं पुण थूलभद्र-मुणिवर-गुण खिसिय १८, तिणि कम्मि कोसावसिहिं नडिउ चडिउ हत्थि दुज्जण तणइ, अपकित्ति अलिय १९ १२०अज्जवि अजस महिमंडलमाहि रूणझणइ. २५ अइसुट्टिओ त्ति गुणसमुइओ त्ति, जो न सहइ जइपसंसं । सो परिहाइ परभवे, जहा महापीढ पीढ रिसी ॥६८॥ म करउ मच्छर माण जाण सरिसउ जगि कोई, पूरउ-पुण्य-प्रभावि, पावि पुण हीणउ होई, बाहु सुबाहु सुसाहु सुणवि गुण किउ मनि मच्छर, तिणि हीणत्तण२१ पत्त पीढ महपीढिहिं दुहकर २२, पर जम्मि बंभि सुंदरि सुधूय महिला महियलि मुणउ, सिरि रिसह भरह बाहुबलिहिं त्रिहु प्रभाव पुन्नह तणउ. २६ सर्व्हि वाससहस्सा, तिसत्तखुत्तोदएण धोएण। अणुचिन्नं तामलिणा, अण्णाणतवुत्ति अप्पफलो ॥८१॥ अणगल-नीर-विपार सुहम जीवाइ अरक्खण, . इण कारणि बहु कट्ठ अप्प फल कहइं वियक्खण१२३, छट्टिहिं सट्टि सहस्स वरिस तप तपइ अज्ञानिहिं, पारण पुण इकवीस वार जल-धोइय [धोय]धानिहिं, सो तामलिरिसि एरिस तपी मास दुन्नि अणसणि स(म?)रिउ, उप्पन्नई ईसाणि तिणि मुक्खमग्ग नहु अणुसरिउ. २७ मणिकणगरयणधणपूरिअम्मि, भवणंमि सालिभद्दो वि। अन्नो किर मज्झ वि सामिओत्ति, जाओ विगयकामो ॥८६॥
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सुंदर सुकुमाल सुहोइएण, विविहेहिं तवविसेसेहिं । तह सोसविओ अप्पा, जह नवि नाओ सभवणे वि ॥८७॥ कंबलरयण विनाणि जाणि जग-उत्तम चंगिम(२४, नरवर पिक्खणि जाइ माइ पुत्तह पभण[इ] इम, आवि इक्क-खण१२५ पुत्त पत्त सेणिय तुह मंदिरि, लेउ क्रियाणउं माइ ठाइ ठांवउ जिणि तिणि१२६ परि, न क्रयाणउं कुइ एउ१२७ सामि तुम्ह सालिभद्द इय वयण सुणि, भववासविरत्त चरित्त लिई छंडि सुक्ख सहू कणय मणि. २८ दुक्करमुद्धोसकर, अवंतिसुकुमालमहरिसीचरियं । अप्पावि नाम तह तज्जइत्ति, अच्छेरयं एयं ॥४८॥ अवयंतिसुकुमाल नयरि उज्जेणि पसिद्धउ, नलिणीगुलमविचार सुणव(वि) तक्खणि पडिबुद्धउ, अज्जसुहत्थि मुर्णिदहत्थि वय लेवि१२८ मसाणिर्हि, का[उ]सगि रहिउ सीयालि खद्ध२९ मण लग्गु९३० विमाणिहिं, सुह झाणि ठाणि तिणि सुर हूउ रमणि बत्रीसे व्रत लीउ, तसु नंदणि तिणि थानकि पछइ महाकाल देउल कीउ. २९ सीसावेढेण सिरम्मि, वेढिए निग्गयाणि अच्छीणि। मेयज्जस्स भगवओ, न य सो मणसा वि परिकुविओ ॥११॥ रायग्गिहि मेयज्ज भज्ज नव वर विवहारिउ, पुव्व-मित्त सुरि बोहि दिक्ख दुक्खिहि लेवारिउ३९, विहरंतउ तिहिं पत्त दुट्ठ सोनारह-मंदिरि, क्रौंचि चणय जव खद्ध बहु बद्धउ तिणि तस सिरि, दढ घाइ दिट्ठि दुइ नीकलीय ढलीय धरणि निच्चलु भयउ, तस पंखि-प्राण रक्षा करी धरी ध्यान सिद्धिर्हि गयउ. ३० सीहगिरिसुसीसाणं, भदं गुरुवयणसद्दहंताणं । वयरो किर दाही वायणत्ति न विकोवियं वयणं ॥१३॥ धणगिरि-घरणि सुनंद-ऊयरि जायु जाईसर, छम्मासिउ पिउ पासि वयर संपत्तउ वयधर, तस समीवि१३२ मुणि-कज्जि गुरिहि वायण१३३ अणुजाणीय३५,
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धन्न सीहगिरि-सीस जेहिं मन्निय इय वाणीय, जे माण- गण मनि परिहरी सुगुरु-वयण इम सद्दहई, ते सुद्ध साधु सुकुलीण सवि गुण-निहाण गुरु पडिलहइं. ३१ वुड्डावासे विठियं, अहव गिलाणं गुरुं परिभवंति । दत्तुव्व धम्मवीमंसएण, दुस्सिक्खियं तं पि ॥९९॥ संगमसूरि गिलाण १३५ वासि संजम - विहि रक्खइ, धम्मत्थलि तस सीस दत्त गुरुदोस निरिख, खित्त-विहार सविज्ज - पिंड अंगुलि- दिप्पंतिय १३६, नित्य वास नितु सरसु१३७ असण दीवय भणि चिंतिय, १३८ मन्नंतर मनि अप्पउं सगुण निगुण तणवि गुरु परिभवइ, १३९ घोरंधयार घण-१४°सइ करि सम्मदिट्ठि-सुर सिक्खवइ . ३२ आयरियभत्तिरागो, कस्स सुनक्खत्त महरिसीसरिसो । अवि जीवियं ववसिअं, न चेव गुरुपरिभवो सहिओ ॥ १०० ॥ वडूमाण विहरंत नयरि सावत्थिहिं आवइ, गोसालउ चउसाल१४१ आप तित्थयर भणावइ, मंखलि - पुत्त - सरूव कहइ पहु पुच्छिउ सीसिहिं, जिणवर - संमुह मुक्क ते १४२ - लेसा तिणि रीसिहि, तं पक्खि सुगुरु- परिभव असह सुनक्खत्त मुनि विचि१४२ थयउ, तिणि तेजि - दद्ध आराधना करवि सग्गि अच्युति गयउ ३३ बहुसुक्खसयसहस्साण, दायगा मोयगा दुहसयाणं । आयरिआ फुडमेयं, केसिपएसी य ते हेऊ ॥१०२॥ नरयगइगमण पsिहत्थए, कए तह पएसिणा रन्ना । अमरविमाणं पत्तं तं आयरिअप्पभावेणं ॥१०३॥ नाहियवादि १४४ नरिंद नयरि सेतंबी पएसी १४५, पास सीस विहरंत पत्त तहिं गणहर केसी, नरयगमणि इक - चित्त सुगुरु- वयणिहिं पडिबोहिउ, सावय- धम्म सुरम्म करवि तिणि अप्पउ९४६ सोहिउ९४६, बहुकालि काल करि सु जि सरिउ सूरिआभ विमाणि सुर, इम दुरिय दुक्ख दूरिहिं हणी सयल सुक्ख साधइ सुगुरु. ३४
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जीयं काऊण पणं तुरमिणिदत्तस्स कालिअज्जेण । अवि अ सरीरं चत्तं, न य भणियमहम्मसंजुत्तं ॥१०५॥ तुरमिणिपुरी नरिंद दत्त बंभणकुलि बहु-बल, माउल१४८ कालिगसूरियासि पुच्छइ जन्नह'४९-फल, अंग-पीड अंगमिय५० सुगुरु सव्वं चिय जंपइ, जागि जीव-वधि नरय सुणवि सु जि कोपिइं कंपइ, सहि नाण जाणि सत्तम दिवसि मल-प्रवेश मुहि तुझ तणइ, दुक्खिन्न दुट्ठ भय परिहरिय धम्मवयण मुणि इम भणइ. ३५ फुडपागडमकहतो, जहट्ठियं बोहिलाभमुवहणइ। जह भगवओ विसालो, जरमरणमहोअही आसी ॥१०६॥ आसि मरीइ मुणिंद भरह-सुय निय वय छंडइ, किय परिवा५'यग-वेस रिसह-पहु सरिसउ५२ हिंडइ, पडिबोहइ बहु लोय दिक्ख जिण-पासि लिवारइ१५३, अन्न दिवसि अति कुटिल कपिल तसु वयण विचारइ, तसु शिष्य-काज फुड५४ नवि कहइ इत्थ ओत्थ बिहु धम्म छइ, भव कोडि-सागर भमिउ हूउ वीर जिण तउ पछइ. ३६ अप्पहियमायरंतो, अणुमोयंतो अ सुग्गइं लहइ। रहकारदाण-अणुमोयगो, मिगो जह य बलदेवो ॥१०८॥ कन्ह-मरणि बलभद्द तवइ तव तुंगियगिरि-सिरि, जाइसरण इक हरिण रहइ अह निसि रिषि परिसरि, कट्ठ-कज्जि रहकार पत्त वनि संख५६ कपावइ, जिमण-वेल जाणेवि लेवि मुणि मृग तहिं५० आवइ,
ओदियइ दानउ मुद्ध तपउ बिहु गुण मनि चितवइ, सिरि पडइ डाल समकाल त्रिहुं बंभलोय-सुरगति हवइ. ३७ जं तं कयं पुर पूरणेण, अइदुक्करं चिरं कालं । जइ तं दयावरो इह, करितो तो सफलयं होतं ॥१०९॥ पूरणसिट्ठि बिभेल गामि लिइ तापस दिक्खा, दीन-खयर१५८-जलचरह-अप्प चिहु भागिहिं भिक्खा, बार वरिस बहु कट्ठ छ?-तप करइ दया विण,
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पायालिहिं चमरिंद चमरचंचा हिव हूय तिण, अभिमाणि सग्गि सोहम्मि गयुं वज्ज-दंड पिक्खवि पु(प)लिउ,१६० सिरि वीरनाह-पयतलि रहिओ तउ सयल वि घंघलु'६१ टलिउ. ३८ कारणनिययवासे, सुट्टअरं उज्जमेण जइअव्वं । जह ते संगमथेरा, सपाडिहेरा तया आसि ॥११०॥ अस्याः षट्पदस्तु 'वुड्डावासे वी'ति गाथायामुक्त एव ।। थेवोवि गिहिपसंगो, जइणो सुद्धस्स पंकमावहइ । जह सो वारत्तरिसी, हसिओ पज्जोयनरवइणा ॥११३॥ सुंसुमारपुर रोहि कहइ निव सउण समीहओ६२, वारत्तय'६३-रिषि भीय बाल प्रति भणइ म बीहउ, इय वयणह-बलि धंधमारि पु(प)ज्जोय सु जितउ, नेमित्तिउ६५ भणइ हसइ राउ रिसि-पासि पहुत्तउ, इम गिहि-पसंग सुद्धयं मुणिहं थोडउ अइ-मालिन्नकर'६६ परिहरइं दूरि इण कारणिहं सव्व संग चारित्त-धर. ३९ जो निच्छएण गिण्हइ, देहच्चाए वि न य धिई मुयइ । सो साहइ सकज्जं, जह चंदवडिंसओ राया ॥११८॥ चंदवडिंस६७ नरिंद नयरि साकेइ१६८ सुसावय, निश्चिई निय आवासि सुद्ध सामाइय ठावय,१६९ दीव अवधि कासग्ग करिय निच्चल पालइ, दासी पुण दीवेल घल्लि चउ पहर ऊजालइ, पूरिय-प्रतिज्ञ प्रह ऊगमणि परम प्रीति पामिउ पवर, सुकुमाल-अंग सुह-झाण-मण सग्गलोइ संपन्न सुर. ४० धम्ममिणं जाणंता, गिहिणो वि दढव्वया किमुअ साहू। कमलामेलाहरणे, सागरचंदेण इत्थुवमा ॥१२०॥ सावय सागरचंद रहिउ कासग्गि महा वनि, कमलामेला-हरण-वैर नभसेन धरइ मनि, १७°घल्लइ सिरि अंगार तहवि सो झाण-निरत्तउ, पोसहव्रत द्रढ पालि टालि दुह सग्गि पहुत्तउ,
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अनुसन्धान-७५(२)
जइ हुंति दुसह-उवसग्ग सहइ इम गिहत्थ सुकुमाल-तणु, ता अइदुद्धर-चारित्तधर साहु केम न सहति पुण. ४१ देवेहिं कामदेवो, गिही वि न वि चालिओ तवगुणेहि । मत्तगइंदभुअंगम, रक्खसघोरट्टहासेहिं ॥१२१॥ चंपापुरि अड्डार कोडि धणवइ कोडुबिय, पोसह करि कासग्गि रहिउ निसि भुज-आलंबिय, इंद्र-प्रसंस असद्दहंत७२ अमरेहिं परक्खिय७३, मत्त-गइंद भुयंग घोर रक्खस-भय दक्खिय७४, नहु चलिउ मेरुचूला-अचल कामदेव-गिहवइ सुथिर, पहुवीर पयासिउ प्रह समई सीसवग्ग-अग्गलि सुचिर. ४२ भोगे अभंजमाणा वि, केइ मोहा पडंति अहरगई। कुविओ आहारत्थी, जत्ताइजणस्स दमगुव्व ॥१२२॥ रायग्गिहि इक रंक अछइ अइ-दुक्खिउ-अग्गई।७५, उज्जाणी जण जत्त पत्त तर्हि भिक्ख सु मग्गइ, अलहंतउ७६ अइ-रोसि दोसि निय कम्मिहि नडिउ, चूरिसु लोग समग्ग एम चिंतिय गिरि चडिउ, ढोले इटोल परबत तणा गडघडाट सुणि नट्ठ सु(स)हु, पाषाणि तेणि सो चंपिउ नरय दुक्ख पामिउ दुसहु. ४३ माणी गुरुपडिणीओ, अणत्थभरिओ अमग्गयारी अ। मोहं किलेसजालं, सो खाइ जहेव गोसालो ॥१३०॥ वद्धमाण वय लिद्ध जाव बीजउ वरसालउ८, मुंड-तुंड१७९ मंडेवि१८० पुट्ठि विलगउ८१ गोसालउ, जिण-वयणिहि विधि जाणि तेजलेश्या तपि साधीय १८२तह अठंग निमित्त कहवि विज्जा तिणि लाधीय८३, उम्मग्ग-चारि अनरथ भरिउ गुरुद्रोही गरविहिं नडिउ, मंखलि-सुय मोघ-किलेस करि दुह-सायरि दुत्तरि पडिउ. ४४ अक्कोसण तज्जण ताडणाओ, अवमाण हीलणाओ अ। मुणिणो मुणिअपरभवा, दढप्पहारिव्व विसहति ॥१३६॥
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दड्ढपहारि वड चोर जाइ कुर्सीथलिसिउं चोरिहिं, खीरकज्जि धावंत विप्प मारिउ तिणि थोरिहिं८५, बंभण-भज्ज सगब्भ हणिय बालक फुरकंतउ८१, पिक्खवि भव-वेरग्गि लेइ संजम दिप्पंत १८७, १८८ संभरण-अवधि छंडिय असण तिणि जि गामि छम्मास रहि, १८९ अक्कोस बंध वह९० दुसह सह सिद्धि पत्त दुष्कर्म दहि. ४५ अहमाहउत्ति न य पडिहणंति, सत्ता वि न य पडिसवंति । मारिज्जंता विजई, सहंति सहस्समल्लु व्व ॥१३७॥ १९१वीरासण-सेवक्क सहसमल्लत्ति पसिद्धउ,
कालसेन रिउ-राउ जेण बिहुं बाहिहिं बद्ध, तिणि गुणि संख - नरिंदि किद्ध सामंत विदित्तउ, वेरग्गिहिं व्रत लेवि तीण अरिदेसि पहुत्तउ, १९२ पच्चारिय पूरव बाहुबल कालसेनि कु( क ) ढाविउ९९३, सव्वट्टसिद्धि सुरवर सरिउ कोह तहवि तस नाविउ. ४६ अणुराएण जइस्स वि, सिआयवत्तं पिआ धरावे । तहवि य खंदकुमारो, न बंधुपासेहिं पडिबद्धो ॥ १४१ ॥ सावत्थी-निव कणयकेतु-सुय खंदग नामिहिं, दिक्ख लेवि जिणकप्प१९४ करइ विहरइ पुर गामिहि, व्रत लिद्धइं तस ताय नेहि सिरि छत्त धरावइ, तहवि अबद्धउं बंधु पासि कंतीपुरि ९४ आवइ, तस बहिन सुनंदा राय- घरि मग्गिजंतु तिणि दिट्ठ मुणि, नरवर अलीक शंका धरिय हरिय प्राण तस तिणि रयणि ४७ माया नियगमइविगप्पिअम्मि अत्थे अपूरमाणमि । पुत्तस्स कुणइ वसणं, चुलणी जह बंभदत्तस्स ॥ १४५ ॥ दीर्घसिउं रइ-रत्त-चित्त- चुलुणी मयणा १९ तुरि, बंभदत्त निय पुत्त दहण दक्खइ १९८ लक्खाहरि९९९, वरधन मंत्रि सुरंग संगि रक्खिउ परपंचिर्हि ", फिरिय फिरिय महि-मज्झि रज्ज पुण लहइ सुसंचिहिं,
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इह कस्स०१ कोइ नहु वल्लहउ२०२ भवसरूपनउ पिक्खणउं०३, २०"मुहिया जि मूढ मोहिया भणइं हणई कज्ज परतहतणउं. ४८ सव्वंगोवंगविगणत्ताओ, जगडणविहेडणाओ य। कासी अ रज्जतिसिओ, पुत्ताण पिया कणयकेऊ ॥१४६॥ तेयलि२०५पुरि निव कणयकेतु पउमावइ राणी, मंत्री तेयलिपुत्त-भज्ज तस पुट्टिल२०६ नाणी, जायमत्त०७ सवि पुत्त राय निय लोभि मरावइ, राणी मंत्रि कहेवि एक सुय छन्न२०८ रहावइ२०, नरनाह-पत्त-पंचत्त१० सु जि कुंयर राय महतइं२११ कियउ, २१२महतउ पुण पुट्टिल सुर-वयणि पडिबुद्धउ केवलि थियउ. ४९ विसयसुहरागवसओ, घोरो भाया वि भायरं हणइ ।
ओहाविओ वहत्थं, जह बाहुबलिस्स भरहवई ॥१४७॥ रज्जलोभ मनि धरवि भरह पहुत्तउ समरंगणि, बाहुबलिहि तर्हि दिट्ठि मुट्ठि झुज्झिहि जित्तउ१३ खणि, रोसि चडिउ रणि चक्क भरह भाई सिरि मिल्हइ, धिग विसयारसि लुद्ध मुद्ध१५ सासय-सुह ठिल्लई२१६, इम चित्ति चिंति संजम सबल बाहुबलि कासगि रहिउ, भरहेसर पत्त अवज्झपुरि भाय-नेह कित्तिम कहिउ. ५० भज्जा वि इंदिअविगारदोसनडिआ करेइ पइपावं । जइ सो पएसिराया, सूरिअकंताइ तह वहिओ ॥१४८॥ भज्जा विसय-विकारि भारि पइ२१७-मारणि चल्लइ, सूरियकंत२१८ कलत्त भत्त१९-भीतरि विस घल्लइ, राय पएसि सुधम्म रम्म पोसह-वय पारिय, करइ पारणउं जाव ताव तक्खणि विसि घारिय, सुह-झाणि ठाणि निअ आणि मण सग्ग-लोइ संपन्न सुर, दुक्कम्मचारि सा नारि पुण भमइ भूरि भव भीड-भर. ५१ सासयसोक्खतरस्सी, निअअंगसमुब्भवेण पिअपुत्तो। जइ सो सेणिराया, कोणिअरण्णा खयं नीओ ॥१४९॥
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वीर-वयणि जाणेवि नरय सेणिय चिंतइ मनि, कोणिय रज्ज ठवेसु लेसु संजम २२० जाई वनि, हल्ल - विहल्लहं हार गुरुय गयवरसिउं दिद्धउ, कूड करी कोणिक्कि राय सेणिय तव बद्धउ, नियताय कट्टपंजरि धरी खाण पाण बेराहवइ, सय पंच घाय२२१ दिणि दिणि दियइ पुत्तनेह एरिस २२२ हवइ . ५२ लुद्धा सकज्जतुरिआ सुहिणो वि विसंवयंति कयकज्जा । जह चंदगुत्तगुरुणा, पव्वयओ घाइओ राया ॥ १५०॥ चणियपुत्त२२३ चाणिक्क२२४ कवड२२५ बहु बुद्धि वियाणइ, चंद्रगुत्त साहिज्ज २२६ कज्जि पव्वय२२७ निव आणइ तस सरिसी अति प्रीति करीय अरि-कंटय २२८ टालिय नंद - नरिंदह - रज्ज नयरि पाडलि२२९ उद्दालिय २३०, विस - कन्न जाणि परिणाविउ सोवि मित्त जमपुरि लयउ २३१, नियकज्ज करवि विहडिउ ३२ पछइ मित्त - नेह एरिस भयउ ५३ नियया यि निअयकज्जे, विसंवयंतम्मि हुति खरफरुसा । राम सुभूमकओ बंभक्खत्तस्स आसि खओ ॥ १५१ ॥ फरसुराम जमदग्गि२३३ - पुत्त रेणुय २३४ - अंगुब्भम२३५, २३६कत्तविरिय नरनाह हणइ मासीसुय२३७ दुद्धम, अप्पणपइं तस रज्ज लेवि हत्थैिणपुरि रहियउ, खत्तिय - वंस असेस फरसुझालिहिं ३९ तिणि दहियउ, निव-घरणि नट्ठ२४० पच्छन्न ठिय तस सुभूम सुय चक्कवइ, निद्द २४९लय वंस बंभणतणउ नियय२४ २ नेह एरिस हवइ . ५४ कुलघरनिअयसुहेसु अ सयणे अ जणे अ निच्च मुणिवसहा । विहरति अणिस्साए, जह अज्जमहागिरी भयवं ॥ १५२ ॥ अज्ज महागिरिसूरि भूरि- भव- पाव निवारण,
गिइ २४३ जिण - कप्पि करंति तस्स तुलणा अइदारुण,
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कुल घर निय सह सुयण-संग निस्सा २४४ सवि छंडिय,
अप्पडिबद्ध विहार सार-संजम - गुण-मंडिय,
सावय घरि अज्ज सुहत्थि गुरि (रु) गुण - पसं[ स ] हरषिहिं करिय,
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अइ आदर दिक्खि२४५ सु कारणिहिं पाडलपुर तिणि परिहरिय. ५५ रूवेण जुव्वणेण य, कन्नाहिं सुहेहिं घरसिरीए य । न य लुब्भंति सुविहिआ, निदरिसणं जंबुनामुत्ति ॥१५३॥ अस्याः षट्पदः संतेवि० प्रागुक्तः ॥ उत्तमकुलप्पसूआ, रायकुलवर्डिसगा वि मुणिवसहा । बहुजणजइसंघट्ट, मेहकुमारुव्व विसहति ॥१५४॥ सेणिय-धारणिपुत्त मेह भज्जठ२४६ विमुक्किय२४७ वीरपासि वय लिद्ध बुद्धि निसि संजम चुक्किय४८, पुव्व जम्म परिकहिय२४९ पुण वि थिर किद्धउ वीरिहिं, बहु जइजण-संघट्ट सहइ अइ दुसह सरीरिहि, सो रायवंस-अवयंस मणित अप्प तृण सम गणइ, २५ चापरइ विजय-वेमाणि सुह रहिउ सिद्धि घर अंगणइ. ५६ सम्मद्दिट्टी कयागमो वि, अइविसयराग-सुहवसओ। भवसंकडंमि पविसइ, इत्थं तुह सच्चई नायं ॥१६४॥ चेडय५१-धूय सुजिट्ट'५२ सुद्ध महासय-अंगुब्भम, विज्जाहर पेढाल पुत्तु विज्जाबल दुद्दम, खायग२५४ सम्मदिट्ठि अंग इग्यारइ जाणइ, तहवि विसयरस-रंगि अंगि अति दूषण आणइ, उज्जेणि उग्ग वेसा५५वसिहि करेवि कूड हेला हणिउ, सो सव्वइं२५६ सच्चइ२५७ नरय गय विसय-दोस एरिस भणिउ. ५७ सुतवस्सिआण पूआ-पणाम-सक्कार-विणयकज्जपरो । बद्धपि कम्ममसहं, सिढिलेण दसारनेआ वा ॥१६५॥ बार२५“वईपुरि पत्त नेमि पहु केवलनाणी, दसदसार-नरनाह कन्ह निसुणइ जिनवाणी, सहस अढार मुनिंद-चंद विधि-वंदणि वंदइ, नरयभूमि चिहु दुक्ख-२५९रुक्ख निम्मूल निकंदइ, तित्थयर-गु२६०त्त बंधइ सुदृढ असुह-कम्म हेलां हरइ, पूजा प्रणाम वंदण विणय सगुण साहु संगति करइ. ५८ केइ सुसीला सुहमाइ, सज्जणा गुरुजणस्स वि सुसीसा ।
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विउलं जणंति सद्धं, जह सीसो चंडरुद्दस्स ॥ १६७॥ चंडरुद्द गुरु रुद्द रोसि रीसाल २६१ विदित्तउ, उज्जेणि उज्जाणि२६२ सगुण सीसिहिंसिउं पत्तउ, नव-परिणीत कुमार हसिय पभणइ दिउ दुक्खा, सूरि सीस तस चंपि२६३ केस लुंचिय दिइ सिक्खा २६४ सो सीस भावि संजम लियइ मग्गि लग्ग २६५ गुरु सिरि धरी, तिम सहइ घाय २६६ दुव्वयण जिम लहइं बेउ केवलसिरी ५९ अंगारजीववहगो, कोइ कुगुरू सुसीसपरिवारो ।
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जिहिं दिट्ठो, कोलो गयकलहपरिकिन्नो ॥ १६८ ॥ सो उग्गभवसमुद्दे, सयंवरमुवागएहिं राएहिं । करहो वक्खरभरिओ, दिट्ठो पोराणसीसेहिं ॥ १६९ ॥ गयकल२६७भे परिवरिउ सूयर २६८ सुमिणइ २६९ मुणि दिट्ठण [3], तिणि सहि नाणि सुसीस सहिय पुण कुगुरु अणिट्ठउ, निसि चंपइ अंगार सूगविण२७१ मन्नइ प्राणिउ, तव अंगारयमइ सूरि अभविय २७२ इम जाणिउ, सीस सवे निव-पुत्त हूय सूरि करह वक्खर २७४ भरिउ, तिर्हि देखि सयंवरि २७५ आवते २७६ पुव्व जम्म तक्खणि सरिउ. ६० संसारवंचणा न वि गणंति, संसारसूअरा जीवा । सुमिणगण विकेई, बुज्झति पुप्फचूल व्व ॥१७०॥ जो अविकलं तवं संजमं च, साहू करिज्ज पच्छा वि । अन्निअसुअव्व सो निअग - मट्ठमचिरेण साहेइ ॥ १७१ ॥ पुप्फवई - सुय पुप्फचूल भइणी २७७ तह भज्जा, सुमिणि नरयदुक्ख देखि पुप्फचूला वय - सज्जा २७८, अन्निय २९ सुय गुरु कज्जि खीण-जंघाबल जाणी, २८०आणंती सा भत्त-पाण हूय केबलनाणी, पुच्छे सूरि मह नाण कहिं सु२८१ पण गंग-भीतरि कहइ, तव दुट्ठ देवि-उवसग्ग सहि सुगुरू तत्थ केवल लहइ. ६१ देहो पिपीलियाहिं, चिलाइपुत्तस्स चालणि व्व कओ । तणुओ वि मणपओसो, न चालिओ तेण ताणुवरिं ॥१७४॥
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अनुसन्धान-७५(२)
पाणच्चए वि पावं, पिपीलियाए वि जे न इच्छंति । ते कह जई अपावा, पावाई करेंति अन्नस्स ॥१७५॥ अत्रार्थे षट्पदः दीसंति० गाथायां उक्तः ॥ के इत्थ करंति आलंबणं, इमं तिहुअणस्स अच्छेरं । अह नियमा खविअंगी, मरुदेवी भगवई सिद्धा ॥१७९॥ सिद्धि पत्त मरुदेवि तपिहिं विणु इणि आलंबणि, केवि करंति पमाय ति पणि अच्छेरय८२ सम गिणि, जिणि कारणि पुव्वंमि जम्मि थावर तरु भीतरि, बोरसंगि बहु अंगि सहिय दुह कम्म वि निज्जरि, सुह भावि पावि परि मुक्कमण सरल सार संतोसमय, जि(ज)णणि नाभिकुलगर२८३-घरणि रिसह-झाणि२८४ निव्वाणि गय. ६२ किंपि कहिपि कयाई, एगे लद्धीहि केहिं वि निभेहिं । पत्तेयबुद्धलाभा, हवंति अच्छेरयम्भूआ ॥१८०॥ निहिसंपत्तमहन्नो, पत्थितो जह जणो निरुत्तप्पो । इह नासइ तह पत्तेअबुद्धलच्छि पडिच्छंतो ॥१८॥ लद्धि२८५पत्त पत्तेयबुद्ध-सुह सिद्धि समाणई, अच्छेरय सम तुल्ल बुल्ल२८६ कि वि ते मनि आणइं, निहि संपत्ति सचित्ति धरवि विवसाय२८७ ति छंडइ, सामग्गी परिहरिय करिय पातग निय दंडई, करकंडु दुमुह ८ नमि नग्गई चिहु चारित्त चिंतिय सुपरि, धरि धम्म रम्म उज्जम सहिय सुक्कमाय२८९ अपमाय२९० करि. ६३ सोऊण गई सुकुमालियाए, तह ससगभसगभइणीए। ताव न वीससितव्वं, सेअट्ठी धम्मिओ जाव ॥१८२॥ ससग२९१ भसग२९२ निवपुत्त-बहिणि सुकुमालिय२९३ कुमरी, चंपापुरि चारित्त लेइ रूपिहिं किर अमरी, फिरइ तरुण तस पासि रागि रत्ता गयगमणी२९५, रक्खइ बंधव बेउ लेइ तिणि अणसण समणी२९५, बहु दिवसि तापि तपि मूरछी मूईय२९६ जाणि वनि परिठवी,२९७ ओसह-विसेसि सु जि२९८ सज्ज करि सत्थवाहि गेहिणि भवी२९९. ६४
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पुरनिद्धमणे जक्खो, महुरामंगू तहेव सुयनिहसो । बोहेइ सुविहिअजणं, विसूरइ बहुं च हियएण ॥२९१॥ सुबहु-सीस परिवार सार सिद्धत विदित्तउ,३०० महुरा पुरि सिरिमंगुसूरि रसणिदिइ जित्तउ, नरय-खालि.०३ उप्पन्न जक्ख बहु दुख निहालइ, सुविहिय२०४-जण पडिबोह-कज्जि०५ निअ जीह दिक्खालइ,३०६ जिप्पह२०० मुणिंद रसणिदियह अणजित्तइ३० एरिसु हूउ, जग्गह जि जोग जुगतिहिं सदा मम मोह निद्रा सूउ. ६५ परितप्पिएण तणुओ, साहारो जइ घणं न उज्जमइ । सेणियराया तं तह, परितप्पंतो गओ नरयं ॥१९६॥ अत्रार्थे षट्पदः सासय० गाथायां प्रागुक्त एव ॥ गिरिसुअपुप्फसुआणं, सुविहिअ आहरण कारणविहिन्नू । वज्जिज्ज सीलविगले, उज्जुअसीले हविज्ज जई ॥२२७॥ गिरिसुय०९ ग्रहिउ भु(भी)लिहिं पुप्फसुय तवसी सेवइ, सूयडा३१० अडवी मज्झि अछई पक्कोदर११ बेवइ, इक्क भणइ लिउ मारि अवर पुण विणय पयासइ,३१२ अंतर संग-विसेसि दोस-गुण नरवइ पासइ, इम जाणि निगुण-संगति ति(त)ज उत्त]म गुण-संग अणुदिण करउ, झगमगइ जेम जगमज्झि जस भवसमुद्र तक्खणि तरउ. ६६ सीएज्ज कयाइ गुरू, तंपि सुसीसा सुनिउणमहुरेहिं । मग्गे ठवंति पुणरवि, जह सेलग पंथओ नायं ॥२४७॥ सिरिथावच्चापुत्र सूरि सुक सूरि-अणुक्कमि,३१४ सेलग"सूरि पमाय१६-पंकि पडियउ अइदुद्दमि, गया सीस सवि छंडि एक्क पंथग३१७ मुणि रहिउ, खमंतइ पगि लागि पूर्व वासर१८ तिणि कहियउ, मिय३१९-महुर-वयणि सुनिपुणपणइं ठविउ सुद्ध संजमि सगुरु, सो सूरि सुणविचारिन्त चरि सित्तुंजय सिद्धउ सधरु२०. ६७ दस दस दिवसे दिवसे, धम्मे बोहेइ अहव अहिआयरे । इअ नंदिसेण सत्ती, तहवि अ से संजमविवत्ती ॥२४८॥
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अनुसन्धान-७५ (२ )
सेणिय - नंदण नंदिसेण बारस संवछर, वीर-सीस वय छंडि वेस - घरि वसइ समच्छर, दस प्रतिबोध्या विणु न लेइ आहार निरंतर, इक्क न बुज्झइ भणइ वेस दसमा तुम्हि सुंदर, इण वेस वयणि पुण वेस धर चरण ३२१ चरवि३२२ सुर संपजइ, इय जस्स सत्ति देसण तणी अहह सो वि संजम तिजइ, ३२३ ६८ कम्मेहिं वज्जसारोवमेहिं, जउनंदणो वि पडिबुद्धो । सुबहु पि विसूरंतो, न तरइ अप्पक्खमं काउं ॥ २५०॥ अस्य षट्पदः सुतव० गाथायां प्रागुक्तः ॥ वास सहस्सं पि जई, काऊणं संजमं सुविउलं पि । अंते किलिट्टभावो, न विसुज्झइ कंडरीउव्व ॥ २५१ ॥ अप्पेण वि कालेणं, केइ जहागहिअसीलसामन्ना । साहंति निअयकज्जं, पुंडरीअ महारिसिव्व जहा ॥ २५२॥ वरस सहस तव-कट्ठ करिय कंडरिय३२४ न सुद्धउ, अंति युद्ध परिणाम काम-वश नरय निबद्धउ, अचिरकालि परिपालि सुद्ध सुद्ध संजम संपन्नउ, पुंडरीक ३२५ सव्वट्ठसिद्धि २६ सुहबुद्धि निरुत्तर,
बहु दुःख सहवि नवि लद्ध सुह अप्प दुक्खि बहु सुख लहिउ, बिहु बंधव ए वड अंतरउ भाव-भेदि भगवति कहिउ. ६९ नरयत्थो ससिराया, बहु भाइ देहलालणासहिओ । पडिओ मि भये भाऊअ तो मे जाएह तं देहं ॥ २५६ ॥ को तेण जीवरहिएण, संपई जाइएण हुज्ज गुणो । जइसि पुरा जायंतो, तो नरए नेव निवडतो ॥२५७॥ जावाउ सावसेसं, जाव य थेवो वि अत्थि ववसाओ । ताव करिज्ज अप्पहियं, मा ससिराया व सोइहिसि ॥ २५८ ॥ नयरि कुसुमपुरि राय-भाय दुइ ससि सूरप्पह, ससी न मन्नइ धम्म रम्म मन्नइ विसू ( स ) यासुह, तप जप विण सो पत्त नरगि त्रीजइ दुह ३२७ तत्तउ, करवि सुर दुह- शूर सग्गि सत्तमइ संपत्तउ,
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ससि रडइ सूर सुर-अग्गलिहिं तणु तच्छिय दुह दिक्खवउ, सो भइ जीव विणु तणु दहिहिं नरयदुक्ख किम रक्खिवउ. ७० सुग्गइमग्गपईवं, नाणं दितस्स हुज्ज किमदेयं । जह तं पुलिंदएण दिन्नं सिवगस्स निअगच्छ ॥२६५॥ सुग्गइ - मग्ग-पईव ३२९ नाण जे दियई निरुप्पम, तिहं गुरु किंपि अदेय नत्थि जगमज्झि जगुत्तम, दिद्धउ जेम पुलिंदि२० सिवग जक्खह निय लोयण, तिण सरिसउं सुर वत्त करइ भत्तह दिइ चोयण, ३२१ केवलई दाणि तूसइ १२२ न गुरु अंतरंग भत्तिर्हि वर, तिणि कारण बिहु परि करि विणय जिम बाहिरि तिम अंतरइ. ७१ सीहासणे निसन्नं, सोवागं सेणिओ नरवरिंदो ।
विज्जं मग्गइ पयओ, इअ साहुजणस्स सुअविणओ ॥ २६६॥ अंब-चोर चंडाल चडिउ अभय करि कंपइ,
दय नामिणी २२३ सुविज्ज मज्झ इम सेणिउ जंपइ, विणय-विवज्जिय विज्ज- कज्ज करिवइ नवि जग्गइ २२४, सिंहासणि बइसारि भारि गुरु करि सो मग्गइ,
ओ कहइ विज्ज ओ लहइ फल बिहुह कज्ज तक्खणि सरिउ, इण कारणि जिणसासणि विणय सुगुरु-सीस अणुक्रमि करिउ. ७२ विज्जाए कासवसंतिआए, दगसूयरो सिरिं पत्तो ।
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पडिओ मुसं वयंतो, सुअनिन्हवणा इअ अपत्था ॥ २६७॥ सूर२५ तिदंडि तामलित्तीपुरि अच्छइ,
नापित पासि सुविज्ज लेवि संतरि गच्छइ, महिमा मोट्टिम पत्त-दंड गयणंगणि रहियउ, पुच्छिउ नरवरि जाम ताम सच्चउ नवि कहियउ, गुरु लोप कोपि विज्जा गई गयण- दंड गडयडि पडिउ, लज्जियउ लोकि हसिउ सयल इम सुनाण- निण्हवि नाडिउ. ७३
सुठु वि जई जयंतो, जाइमयाईसु मज्जई जो अ । सो मेअज्जरिसि जहा, हरिएसबलु व्व परिहाइ ॥ ३३३॥
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अनुसन्धान- ७५ (२)
मेतार्य-हरिकेशबल-षट्पदौ प्रागुक्तौ ॥
जो विअ पाडेऊणं, मायामोसेहिं खाइ मुद्धजणं । तिग्गाममज्झवासी, सो सोअइ कवडखवगु व्व ॥३८६ ॥ बंभण एक अनेक कूड कवडाइ निरुत्तर, उज्जेणिहिं कड्डियउ देसि चम्मारि२६ स पत्तउ,
त्रिहु गामहं विच्चालि २२७ करइ तप वेसि त्रिदंडी, भगत लोक घरसार ३२८ मुसइ ३२९ निसि सु जि पाखंडी, अह चडिउ हत्थि नरवर तणइ नयण कड्डि नडियो घणउं, बहु झूरइ अति सोचइ सुचिर निंदइ निय कूडप्पणउं. ७४ केसिंचि परो लोगो, अन्नेसिं इत्थ होइ इहलोगो । कस्सवि दुन्नि वि लोगा, दोवि हया कस्सई लोगा ॥४३९॥ दुइरंग३३० वरदेव कुट्ठि ३३रूपहिं पहु वंद,
छींक करइ जव वीर ताम मरि कहि अभिणंद, सेणिय प्रति चिर जीव अभय प्रति जावड३ बिहुपरि, कालसूर प्रति कहइ म मरि म जीविय अणुसरि,
मगहेसर पुच्छइ ए कवणु३३४ कवण एस परमत्थ पुण, जिण भणइ विप्प सेड्डुय-चरिय चिहु प्रकारि नर आचरणु (ण). ७५ अवि इच्छंति अ मरणं, न य परपीडं करंति मणसाऽवि । जे सुविइअसुगइपहा सोअरिअसुओ जहा सुलसो ||४४५॥ वरिअं गमीइ मरण सरण जिण - धम्म धरिज्जइ, जिय-हिंसा पुण घोर घोर दुह- हेउ न किज्जइ, कालसूरियह*५ - पुत्त सुलस जिम पाव निवारउ, पर पीडा परिहरह तरह संसार असारउ, कुल-कारणि किंपि म लिखवउ गुणह रूप गैरैयडि धरउ, परलोग- मग्ग जाणउ सुपरि कुपरि ३३७ कुकम्म म आयरउ. ७६ अरिहंता भगवंता, अहिअं व हिअं व नवि इहं किंचि । वारंति कारवंति अ, घित्तूण जणं बला हत्थे ॥४४८॥ उवएसं पुण तं दिति, जेण चरिएण कित्तिनिलयाणं । देवाण विहुति पहू, किमंग पुण मणुअमित्ताणं ॥ ४४९॥
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वरमउडकिरीडधरो, चिंचईओ चवलकुंडलाहरणो । सक्को हिओवएसा, एरावतवाहणो जाओ || ४५०॥ रयणुज्जलाई जाई बत्तीसविमाणसयसहस्साइं । वज्जहरेण वराइं हिओवएसेण लद्धाई ॥४५१ ॥ सुरवइसमं विभूई, जं पत्तो भरहचक्कवट्टी वि । माणुसलोगस्स पहू, तं जाण हिओवएसेण ॥४५२॥ जि हित अरिहंत कहवि नवि प्राणि करावइ, तं पुण दिइ उपदेस जेण किद्धइं३३८ सुख आवइ, जं सुखइ३९ सुर-वग्ग सग्गि एरावण वाहण, जं भरहाहिव रज्ज सज्ज२४० भुंजइ सुह- साहण, जं जं अवर विसुर-असुर नर मुक्ख सुक्ख माणइ घणउं, तिहुयणमज्झ तं सयल फल जिणवर - उवएसह तणउं. ७७ सव्वगुणेहिं गणो, गुणाहिअस्स जह लोगवीरस्स । संभंतमउडविडवो, सहस्सनयणो सययमेइ ॥ ४५६ ॥ वीर० षट्पदः प्रागुक्तः ॥ आजीवगगणनेआ, रज्जसिरिं पयहिऊण य जमाली । हिअमप्पणो करिंतो, न य वयणिज्जे इह पडतो ॥ ४५९ ॥ खत्तियकुंडि जमालि वीर - जामाई खत्तिउ,
सु३४९ सण - भत्तार सार-वय- भार पवत्तिउ नवि मन्नइ किज्जत किद्ध ३४३ इय आगम-वाणी, निण्हवि तेण कुदिट्ठि दुट्ठि किय बहु गुण-हाणी, निय कित्ति मुसिय सुर किब्बिसिय मिलिउ मिच्छमइ मोहियउ, सय पंच साहु साहुणिसहस ढंक २४४ सड्डि पुण बोहियउ. ७८ साहंति अ फुडविअडं, मासाहस- सउण- सरिसया जीवा । न य कम्मभारगरुअत्तणेण तं आयरंति तहा ॥ ४७१ ॥ वग्घमुहम्मि अहिराओ, मंसं दंतंतराउ कड्डेइ ।
' मा साहस' ति जंपड़, करेइ न य तं जहा भणियं ॥ ४७२ ॥ जिम मासाहस २४५ पंखि मुखिहि मा साहस जंपइ,
वग्घ- वयणि ३४६पइसेवि मंस लिंत २४७ नवि कंपइ,
तिम अवरह उवएस दिति किवि फुड-वयणक्खरि २४८,
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अनुसन्धान-७५(२)
पणि अप्पणि न करंति रम्म जिण-धम्म तणी परि, वेरग्ग-वाणिनइ उच्चरइ जलहि जालि पाणी गलइ, इम कम्म-भारि भारिय भणी जाइं भूर भव-जल तलइ.३४९ ७९ निब्बीए दुब्भिक्खे, रन्ना दीवंतराउ अन्नाओ। आणेऊणं बीअं, इह दिन्नं कासवजणस्स ॥४९५॥ केहि वि सव्वं खइअं, पइन्नमन्नेहिं अद्ध सव्वं च । वुत्तंग्गयं च केई, खित्ते खुटुंति संतत्था ॥४९६॥ राया जिणवरचंदो, निब्बीअंधम्मविरहिओ कालो। खित्ताई कम्मभूमी, कासववग्गो अ चत्तारि ॥४९७॥ अस्संजएहिं सव्वं, खइअं अद्धं च देसविरइएहिं। साहहिं धम्मबीअं, वुत्तं नीअं च निष्फंति ॥४९८॥ जे ते सव्वं लहियं, पच्छा खुटुंति दुब्बलधिइया । तपसंजमपरितंता, इह ते ओहरिअसीलभरा ॥४९९॥ धम्म-बीय जिणराय आणि दीवंतर२५० विद्धउ, अविरति५१ सयल वि खद्ध देसविरते२५२ अध खद्धउ, पास५३त्थे पुण खुट्टि खित्ति खाइवि सहु हारिउ, संजमीए सुभखित्ति सव्व वावीय वद्धारिउ, त्रिहु भेदि जीव ते करसणी३५५ राजदंडि अप्पउं दहइ, सुविहिय-मुणिराय-पसायवसि सुख-सुगालि.५६ लच्छी लहइ. ८० इत्थ समप्पइ इणमो, मालाउवएसपगरणं पगयं । गाहाणं सव्वग्गं, पंचसया चेव चालीसा ॥५४०॥ इण परि सिरि उवएसमाल सुविसाल कहाणय५७, तव संजम संतोस विणय विज्जाइ पहाणय:५८, सावय संभरणत्थ३५९ अत्थ पय छप्पय छंदिहि, रयणसिंहसूरीस-सीस पभणइ आणंदिहि, अरिहंत-आण अणुदिण उदयधम्म-मूल मत्थइ२६० हउ, भो भविय भत्ति-सत्तिहिं सहल२६१ सयल लच्छि-लीला लहउ ८१ ॥ इति श्रीउपदेशमाला सर्व कथानक षट्पदाः ॥छ। ग्रंथाग्र-३००
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सप्टेम्बर
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१. लेविणु = लीधु
२.
पुणु = वळी
३. वियारिहिं = विचारो वडे ४. मुणउ = जाणो
५. निरुत्तउ
= आसक्त ?
६. सारि
= बळ
७. दुत्तर = दुखे तरी शकाय एवो दुस्तर
८. सपराणउ =
श्रेष्ठ
९. पेस = नोकर = प्रेष्य
१०. घण = घणुं
११. जह = जे प्रमाणे
१२. सुयत्थ = श्रुतना अर्थो
१३. विणउ = विनय
१४. गज्जइ = गाजे छे
१५. गुहिरप्पणि = गंभीर पणे
१६. नाणनिहाण = ज्ञाननिधान
शब्दकोश
१७. दिणदिक्खिय = एक दिवसना दीक्षित
१८. देक्खिय = देखी
१९. पवर = श्रेष्ठ (प्रवर)
२०. साहण = साधन (रथ)
२१. इक्कय = एक पण २२. पंचत्त = पंचत्व (मृत्यु) २३. ढुक्कय = आवी चड्यो २४. नेमित्ति = निमित्तना जाणनार २५. पट्टिर्हि = पाट (राजगादी) पर ? २६. राहविडं = राख्युं = दूर कर्या २७. आरीसइ = आरीसामां
२८. पिक्खइ = देखे छे ३०. विरत्तउ = वैराग्य पाम्या ३१. अप्पिहिं = पोता थकी ज
=
३२. जाणावणइ जणाववाथी ३३. रिक्षि = ऋषि
३४. घल्लि = घाली, नांखी
३५. आपिहिं = पोते ज
३६. झुज्झि = युद्धमां
३७. बुज्झि = बोध पामी
३८. कासग = काउसग्ग
३९. वछर = वरस
४०. मज्जणइ = स्नान वखते
४१. सणकुमार = सनतकुमार (नाम) ४२. निरंभर = ?
४३. हक्कारइ = निमंत्रे
४४. अत्थाणि = राजसभामां
४५. सहसि = हजारो वडे
४६. मज्झइ = डूबे छे ४७. निवइ = नृपति
उदायी (नाम)
४८. उदाइय =
४९. ओलगइ = सेवा करे
५०. अणिठिउ = अखूट
५१. लहवि = पामी
५२. ठीवइ = रहेवुं
५३. सविमाणय = विमाण सहित
५४. मिग्गवइ = मृगावती (नाम) ५५. जंत = जती
५६. एकल्ली = एकली
५७. मिल्हावइ = मूंकावे छे
६०. विनाणिर्हि = ज्ञान वडे
६१. आणियउ = आणवो
११५
६२. भज्जह = भार्या, पत्नी ६३. सुहमणि = सुधर्मिणी, पत्नीओ
६४. तसु = तेना (?)
६६. लयउ = लीधुं
६६. सुंसम = सुसीमा (नाम) ६७. पत्त = प्राप्त थयेला
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अनुसन्धान-७५(२)
६८. अडविहिं = जंगलमां ६९. पत्तउ = प्राप्त थयेला ७०. रिक्षि = मुनिराजे = ऋषि ७१. दिक्षि = दीक्षित कर्यो ७२. कद्धि(ट्ठि) = कष्ट वडे (?) ७३. जायव = यादव ७४. जुग्गह = योग्य ७५. अभिग्गह = अभिग्रह, प्रतिज्ञा विशेष ७६. समिद्धउ = समृद्ध ७७. कलिउ = युक्त ७८. हुंति = हता ७९. लुप्पई = लोपवू ८०. पालय = पालक (नाम) ८१. तीहं = तेमनां ८२. जंत्रिहिं = यंत्र वडे ८३. चत्त = त्यज्या ८४. अग्गिदढ = अग्निथी बळेलो ८५. वाडव = ब्राह्मण ८६. भमिसिइ = भमशे ८७. निरग्गल = मद वगरनो? ८८. सरई = थाय छे. ८९. समग्गल = सर्व ९०. कुइ = कोई ९१. लुलइ = लळे छे (नमे छे) ९२. डुल्लइ = डोले ९३. पाडल = पाडल पुष्प ९४. समतुल्लइ = समान ९५. दोहग्ग = दुर्भाग्य ९६. अचब्भुय = अति अद्भुत ९७. कसिहि = परीक्षा माटे ९८. कण्ह = कृष्ण ९९. मसाणि = स्मशानमां १००. वइसानर = अग्नि
- १०१. भू(भ)रिय = भरायेलु
१०२. संसहु = सारी रीते सहन करूं १०३. वेसाहरि = वेश्याने घरे १०४. निरत्तउ = आसक्त १०५. जित्तउ = जित्यो १०६. सुहड = सुभट १०७. सुपरिहि = सारी रीते १०८. सुविदित्तउ = प्रसिद्ध १०९. अवमन्निय = अवमान्या करी ११०. मन्निय = मानी १११. कंबल भणि = कंबल माटे ११२. चल्लइ = चाल्यो ११३. अवत्थ = अवस्था ११४. चंपेवि = लूंछी ११५. मच्छर = मत्सर ११६. मक्खसि = ? मानवं, कहे, ११७. पसंसिय = प्रशंसा करी ११८. खिसिय = उद्वेग पामी ११९. अलिय = खोटी १२०. अज्जवि = आजे पण १२१. हीणत्तण = नीचापणुं १२२. दुहकर = दुख करनारु १२३. वियक्खण = विचक्षण पुरुषो १२४. चंगिम = श्रेष्ठ १२५. खण = क्षण १२६. तिणि = तेणे १२७. एउ = तेओ १२८. लेवि = लो १२९. खद्ध = आघु १३०. लग्गु = लाग्यु १३१. लेवारिउ = लेवडाव्यु १३२. समीवि = पासे १३३. वायण = वाचना
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(वर्षावास)
१३४. अणुजाणीय = अनुज्ञा करावी १६७. चंदवडिस = चंद्रावतंसक (नाम) १३५. गिलाणवासि = ग्लानपणाथी १६८. साकेइ = साकेतपुर (नाम) १३६. दिप्पंतिय = दीपति
१६९. ठावय = ठावे, (स्थापे छे, ले छे) १३७. सरसु = समान
१७०. घल्लइ = घाले छे १३८. मन्नंतउ = मानतो
१७१. धणवइ = धनपति (नायक) १३९. परिभवइ = पराभव पमाडे १७२. असद्दहंत = श्रद्धा न करतो १४०. घणसद्द = मेघनो गडगडाट १७३. परक्खिय = परिक्षा करी १४१. चउसाल = शाळा(?)
१७४. दक्खिय = दाखवी १४२. तेउ = तेजो (लेश्या)
१७५. अग्गइ = आगलो १४३. विचि = वच्चे
१७६. अलहंतउ = न पामतो १४४. नाहियवादि = नास्तिक वादवाळो । १७७. इटोल = इंटाळा १४५. पएसी = प्रदेशी (नाम)
१७८. वरसालउ = वरसादनो समय १४६. अप्पउ = आत्मा १४७. सोहिउ = शुद्ध कर्यो
१७९. मुंड-तुंड = माथु-दाढीमूंछ १४८. माउल = मामा
१८०. मुंडेवि = मुंडावी १४९. जन्नह = जन्मनुं
१८१. विलगउ = वलग्यो १५०. अंगमिय = अवगणीने (?) १८२. तह = तथा १५१. परिवायग = परिव्राजक
१८३. लाधीय = पाम्यो १५२. सरिसउ = समान
१८४. कुसथलि = कुशस्थल पुरी (नाम) १५३. लिवारइ = लेवडावे छे । १८५. घोरिहि = घोर पुरुष वडे १५४. फुड = स्पष्ट
१८६. पुरफुरंत = टळवळतो १५५. तउ = तो
१८७. दिप्पंतउ = दीपतुं १५६. संख = शाखा(?)
१८८. संभरण = स्मरण १५७. तहि = त्यां
१८९. अक्कोस = आक्रोश १५८. खयर = खेचर
१९०. वह = वध १५९. चंचहिय = चंचाधिव
१९१. वीरासण = वीरासन (नाम) १६०. पुलिउ = दोड्यो
१९२. पच्चारिय = शत्रू (?) १६१. धंधलु (धंधलु) = धमाल (धांधल) १९३. कड्डाविउ = कढाव्यो १६२. समीहओ = ?
१९४. जिणकप्प = जिनकल्प १६३. वारत्तय = वारित (नाम) १९५. कंतीपुरी = कांतिपुरी (नाम) १६४. पु(प)ज्जोय = प्रद्योत (नाम) १९६. दीरघसिङ = दीर्घ (नाम) १६५. नेमित्तिउ = नैमित्तिक
१९७. मयणातुरि = मदनथी व्याकुल १६६. मालिनकर = मालिन्यने करनारुं १९८. दक्खइ = दक्ष
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१९९. लक्खोहरिं = लाक्ष (ख) ना घरमां २००. परपंचिर्हि = प्रपंच वडे २०१. कस्स = कोनुं
२०२. वल्लहउ = वल्लभ
२०३. पिक्खणउं = प्रेक्षणक, नाटका २०४. मुहिया = मोह पामेला २०५. तेयलिपुरि = तेतलिपुर (नाम) २०६. पुट्टिल = पोट्टिल्ल (नाम) २०७. जायमत्त = जन्मपामेला २०८. छत्र = छुपी रीते २०८. रहावइ = राखे छे
२१०. पंचत्त = मृत्यु २११. महतइं = महेताए
२१२. महतउ = महेतो
२१३. जित्तउ = जीत्या २१४. सिरि = मस्तके
२१५. मुद्ध = मुग्ध
२१६. ठिल्लई = ठेले छे, आघु करे छे २१७. पइ = पति
२१८. सूरियकंत = सूर्यकांता (नाम) २१९. भत्त = भोजन
२२०. जाई = जईने
२२१. घाय = घात (मार ) २२२. एरिस = ए रीते, एम
२२३. चणियपुत्त = चणिकपुत्र (नाम)
२२४. चाणिक्क = चाणक्य (नाम)
२२५. कपड = कपट २२६. सहिज्ज = सहेज २२७. पव्वय = पर्वत (नाम) २२८. कंटय = कंटक, कांटो
२२९. पाडलि = पाटलीपुत्र (नाम) २३०. उद्दालिय = छीनवी २३१. लयउ = = लीधुं
अनुसन्धान-७५ (२)
२३२. विहडिउ = छुटुं थयुं
२३३. जमदग्गि = जमदग्नि (नाम) २३४. रेणुय = रेणुका (नाम) २३५. अंगुब्भम = पुत्र २३६. कत्तविरिय = कार्तवीर्य (नाम) २३७. मासीसुय = मासीनो पुत्र २३८. हत्थिणपुरि = हस्तिनापुर (नाम) २३९. झालिहिं = ज्वाला वडे
२४०. नठ = नासा
२४१. निद्दलय = चूरी
२४२. नियय = पोतानो
२४३. गिइ = ?
२४४. निस्सा = निश्रा
२४५. दिक्खि = देखी
२४६. भज्जठ =
पत्नी
२४७. विमुक्किय = मूंकी २४८. चुक्किय = चूकी
२४९. परिकहिय = कही
२५०. चापरइ = बीजा भवे ? २५१. चेडय = चेटक (नाम) २५२. सुजिठ = सुज्येष्ठा (नाम) २५३. पेढाल = पेढाल (नाम) २५४. खायग = क्षायिक २५५. वेसा = वेश्या २५६. सव्वइं = स-वृति (?) २५७. सच्चइ = सत्यकि (नाम) २५८. बारवई = द्वारावति (नाम) २५९. रुक्ख = वृक्ष २६०. गुत्त = गोत्र
२६१. रीसाल = रोषीला २६२. उज्जाणि = उद्यानमां
२६३. चंपि = खेंची
२६४. सिक्खा = शिक्षा
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२६५. लग्ग = लाग्या (चाल्या) २६६. घाय = मार २६७. गयकलभे = मदनीयु २६८. सूयर = भंड २६९. सुमिणइ = स्वप्नमां २७०. अणिठउ = अनिच्छनीय (?) २७१. सूगविण = विशेषे तपास्या वगर २७२. आभविय = अभव्य २७३. करह = ऊट २७४. वक्खर = घरवखरी २७५. सयंवरि = स्वयंवरमां २७६. आवते = आवता २७७. भइणी = बेन २७८. वयसज्जा = व्रतने माटे तैयार २७९. अन्नियसत = अणिका पत्र (नाम) २८०. आणंती = लावती २८१. सु = ते २८२. अच्छेरय = अच्छेरुं २८३. कुलगर = कुलकर २८४. झाणि = ध्यानमा २८५. लद्धिपत्र = लब्धिने पामेला २८६. बुल्ल = बोल २८७. विवसाय = व्यवसाय २८८. दुमुह = दुर्मुख (नाम) २८९. सुक्कमाय = २९०. अपमाय = अप्रमाद २९१. ससग = ससक (नाम) २९२. भसग = भसक (नाम) २९३. सुकुमालिय = सुकुमालिका (नाम) २९४. गयगमणी = गजगामिणी २९५. समणी = श्रमणी, साध्वी २९६. मूईय = मरेली २९७. परिठवी = त्यजी
२९८. सुजि = ते ज २९९. भवी = थई ३००. विदित्तउ = विदित ३०१. महुरा = मथुरा (नाम) ३०२. मंगुसूरि = मंगू नामना आचार्य ३०३. खालि = आठमां ३०४. सुविहिय = सुविहित ३०५. कज्जि = कार्य माटे ३०६. दिखालइ = देखाळे छे ३०७. जिप्पह = जीतो ३०८. अणजित्तउ = नहि जीतायेल ३०९. सुय = शुक, पोपट ३१०. सूयडा = सूडा ३११. पक्कोदर = पोपट (?) ३१२. पयासइ = कहे छे ३१३. सुकसूरि = शुक नामना आचार्य ३१४. अणुक्कमि = अनुक्रमे ३१५. सेलगसूरि = शेलग नामना आचार्य ३१६. पमाय = प्रमाद ३१७. पंथग = पंथक (नाम) ३१८. वासर = प्रसंग ३१९. मिय = मित ३२०. सधर = ३२१. चरण = चारित्र ३२२. चरवि = पाळी ३२३. तिजइ = त्यजे छे ३२४. कंडरिय = कंडरिक (नाम) ३२५. पुंडरीक = पुंडरिक (नाम) ३२६. सव्वद्ध(त्थ)सिद्धि = सर्वार्थसिद्ध =
देवलोक (नाम) ३२७. दुह = दुख ३२८. दिखवउ = देखाड ३२९. पईव = प्रदीप
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३३०. पुलिंद = भील ३३१. चोयह = उपदेश
३२२. तूसइ = खुश थवुं ३२३. दयनामिणी = डाळ नमाववानी ३२४. जग्गइ = आवडती (?)
३२५. दग सूयउ = नाम ३२६. चग्मारि = देशनुं (नाम) ३२७. विच्चालि = वच्चे
३२८. घरसार = घरनी चीजवस्तुओ ३२९. मुसइ = चोरे छे
३३०. दुदरंग = (देवनुं नाम) दुर्दरांग ३३१. कुठि = कोढी
३३२. मरि = मरो
३३३. जावड =
३३४. कवणु = कोण
३३५. कालसूरियह = कालसौरिक (नाम)
३३६. गरूयडि = मोटा (?)
३३७. कुपरि = खराब रीते (?)
३३८. किद्धङ्गं = कर्याथी
३३९. सुखइ = सुरपति ३४०. सज्ज = साज (शोभा)
पवत्तणि - प्रवर्तिनी, मुख्य साध्वी
नाणइ न आणइ
अभिगमण- सामा जवुं
-
ठविउ स्थाप्यो
मुंद्री - अंगूठी - मुद्रा कासग्ग - कायोत्सर्गे
सिरि- शिरे - माथे
-
ऊपानं - उत्पन्न करवाने (?) सूंनार - सोनी
अनुसन्धान-७५ (२
३४१. सुदंसण = सुदर्शना (नाम) ३४२. किज्जंत किद्ध = करातुं करायेलुं ३४३. ढंक = ढंक नामना श्रावक
*
३४४. मासाहस = पंखीनुं नाम ३४५. पइसेवि = प्रवेशी
३४६. लिंतउ = लेता
३४७. किवि = केटलाक
३४८. फुडवयणक्खरि
*
= स्फुट वचनवाळा शब्दोथी
तळीयामां
३४९. तलइ = ३५०. दीवंतर = द्वीपांतरथी
३५१. अविरति = चारित्र वगरनो
३५२. देशविरति = संयमनो एक भेद ३५३. पासत्थ = पार्श्वस्थ - संयममां दोषवाळो ३५४. संजमी = संयमी
३५५. करसणी = खेडूत ३५६. सुगालि = सुकाळमां ३५७. कहाणय = कथानक
३५८. पहाणय = प्रधान ३५९. संभरणत्थ = संभारवा
छप्पय
५
५
५
६ दूसमि दुःषमां कालमां
७
३६०. मत्थइ = माथे
३६१. सहल = सरळताथी
चरिम केवलि - छेल्ला केवलज्ञानी
८ वाहरि - वहार-मददे आवतुं सैन्य
८
सइंवर - स्वयंवरा
९
इत्थ ओत्थ - अत्र तत्र, अहीं, त्यां
१३
दुक्कम दहि- दुष्कर्मने बाळीने
*
सासिमत्त - शङ्काशील (?)
महासति - महासती
जंत - जतां
छप्पय
१३
१४
१४
१५
१५
१६
२०
३६
४५
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सप्टेम्बर
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कवि मोहन - कृत
षष्ठिशतक प्रकरण दूहा
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सं. - गणि सुयशचन्द्रविजय मुनि सुजसचन्द्रविजय
खरतरगच्छीय श्रीजिनपतिसूरिजीना उपदेशथी प्रतिबोधित थयेला मरोठना श्रावक नेमिचंद्र भांडागारिके (भंडारीए) १३मी शताब्दीमां प्राकृत भाषामां एक विशिष्ट ग्रन्थनी रचना करी तेनुं नाम आप्युं 'षष्ठिशतक'. कुल १६० गाथानुं काव्य होवाथी कविए 'षष्ठिशतक' एवं कृतिनुं नाम प्रयोज्युं हशे, पण कृति साद्यन्त तपासतां, कवि तीखी कलम जोतां एवं लागे छे के कदाच कृतिना नामनी आगळ जो 'समालोचना' शब्द उमेरी कृतिनुं 'समालोचना षष्ठिशतक' नामाभिधान करायुं होत तो खरेखर कृतिने अनुरूप गणात.
कविए मूळ काव्यमां गच्छना रागथी प्रवेशेली वाडाबंधीथी बंधाएला, स्वपक्षमां ज सम्यक्त्वनी ठेकेदारी समजनारा, स्वमतिथी कल्पेला पदार्थोंने शास्त्रसंमत गणावी उत्सूत्रभाषण करनारा, मनस्वी रीते धर्मनी व्याख्या करनारा एवा सुगुरु (?) नी के सुश्राद्ध (?) नी जे आकरी आलोचना करी छे ते खरेखर कविनी शुद्ध धर्मनी प्रीति जणाय छे. तो वली तत्कालीन समाजव्यवस्थामां प्रवेशेली कुनीति अने कुरीतिनी वर्णना द्वारा कविनो समाजसुधारानो दृष्टिकोण आजेय समजवा स्वीकारवा योग्य लागे छे.
-
प्रस्तुत सम्पादित कृति षष्ठिशतक ग्रन्थनी भाषाबद्ध रचना होइ कवि मोहने उपरोक्त दरेक भावोने ओछा पण सुन्दर शब्दोमां रजू कर्या छे. कविनी परम्परा, तेमनो समय के ग्रन्थरचनासमयादिनी काव्यमां कशी ज नोंध नथी, पण काव्यरचना जोतां प्रायः १९ मी शताब्दीनी आसपासनी रचना छे एम जणाय छे.
*
प्रान्ते प्रस्तुत काव्यनी तुलना जो वर्तमान काळनी अपेक्षाए करवानो अवसर मळे तो कदाच आवा ५-६ के तेथी वधु शतको रचाय. तेवुं कहेवामां जराये अतिशयोक्ति नथी लागती.
प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रतनी Xerox सम्पादनार्थे आपवा बदल श्रीशीतलवाडी जैन ज्ञानमन्दिर (सुरत) तथा श्रीआत्मानन्द सभा ज्ञानमन्दिर (भावनगर) ना व्यवस्थापकोनो खूब खूब आभार.
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अनुसन्धान-७५(२)
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॥ ० ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ अथ सष्ठि शतकना दुहा ।।
धन्य कृतारथ के हिये, श्रीअरिहंत सुदेव, सुगुरु वसे जिनधर्म फुन्', पांच नमण नित मेव १ जो न करे तप दान तुं, न पढे न गुणे तंत, तद आणंद जपो सदा, देव एक अरिहंत भवदुखहरन जिनेंद्रमत, धर्म एक रे जीव !, पर-सुर नमतो तूं मुस्यो', सुभ कारज मेहलीव ३ सुंण्यो देव अरु दानवे, मरणथी राख्यो कोय ?, बहुत वि अजर अमर थया, निश्चल समकित जोय ४ जिम वेश्यारत कोई नर, मने ठगातो सर्म, तिम मिथ्या-वेश्या ठग्यो, लखे न गत-विधि-धर्म ५ लोकप्रवाह स्वकुलक्रमे, धर्म होय जो बाल !, तो धर्मी ! मिथ्यात्वकुल-थकी अधर्म की चाल ६ कुलाचार करि जो नही, राजनीति मे न्याय, जैन राजमे तो किसुं, कुलाचार करि भाय ? कर्मे जिनमत-निपुण को, जो भव-विरति न होय, तो मिथ्यात्वहत मूढ के, पास विरति किम जोय? ८ देख अविरति जीव कुं, ताप विरति मन होय, हा ! हा ! किम भवकूप में, बूडता नाचे जोय आरंभज पापे करी, जीव महादुख पाय, वलि मिथ्यात्व-लवे करी, लहे न समकित भाय! १० देशना य उत्सूत्र की, होय जिणाज्ञा-भंग, आज्ञाभंगे पाप तद्, दुःकर जिण धरमंग केई मूढ अन्याय करि, आणभंग जिम थाय, तिम जिणद्रव्य वदारतां, बुडे भवोदधीमांहि कुग्रह-ग्रह-ग्रही जीवकुं, जो ऋजु धर्म सुणाय, चर्मभखि-कूकर-मुखे, सो कर्पूर चवाय
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सूत्र-भाख्यित नर धन्य तस, रोष वि उपसम-कोश, उत्सूत्री की पण क्षमा, महा-मोह-घर-दोश जो शिवसुख जिणधर्मथी, एकभि नहि संदेह, पुन्यहीण के जाणवो, कठिण मोक्षसुख तेह चतुराई सब ही कला, लहिये जगत सुजाण, पिण दुर्लभ एक जैनमत, विधि-रत्न-विज्ञान बहुलता य मिथ्यात्व की, दुर्लभ सुसमकित ज्ञान, जिम पापी नृप के उदे, वर-नरनाथ-कथान बहु-गुण विद्यागेह जो, तदपि उत्सूत्री हेय, जिन वर-मणि-जुत विघ्नकर, विषधर लोक विषे य १८ स्वजन-नेह धन-लोभ करि, सेवे लोक मिथ्यात, रम्य धरम मे नवि रमे, हा ! अग्यान-उतपात ग्रह-चिंताये दुखित नर, तसु विसा(श्रा)मनो थान [...] नारी हुवे अवरन के प्रभु-ध्यान सम पिण उदर भरे जूओ, मूढ अमूढ विपाक, मूढ लहे नरकादि-दुख, निपुण लहे शिव नाक' जिनमत-कथा प्रबंध सब, जण संवेग उपाय, संवेग तु समकित छते, समकित सुद्ध गिराय' तो जिनआण-परे धरम, सुंणवो सुगुरु सकाश अथवा तत उपदेश को, कथक सुश्रावक पास कथा ज्ञान उपदेश ते, जाणे जाते जीव, समकित अरु मिथ्यात्वनो, भाव त्रिलोक-थितीव २४ जिनगुण-मणि-निधि पायकर', किम न था(जा)य मिथ्यात?, निधि पाये पिण कृपण के, वलि दरिद्र विख्यात २५ धर्म-पर्व संवत्सरी, चतुर्मासि आदेय, थाप्या तेणे जयतु ते, पापी सुमति धरेय पाप-पर्व जेणे रच्या, असुभ नाम पिण तास, धर्मीने पिण जेहथी, पाप-मती(ति)नो पास
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जेहवे संगे जेहवो, ते नर मध्यम होय, अति धर्मी अति पातकी, ते तो फिरे न कोय अतिसे पापी पाप-रत, रहे सुपर्वे जेम,
अनुसन्धान-७५ (२)
प्रशंसिये कुगुरुपिण, जसु मोहादिक देख, सुगुरु- परि भविजीव के, थाये भगति विशेष
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पाप कुपर्वे धर्मथी, धन्य चले जही तेम लक्ष्मी दो विध एक तो, नर - गुण - धण (न) - क्षयकार, एक दीपावे पुरुष कुं, पाप-पुन्य-अनुसार भाट थया गुरु श्राद्धने, स्तवी लेत दानादि, तत्त्व-अजाणद्ध ए बूडे, दुसमसमये प्राि मिच्छप्रवाहे रत घणा, लोक स्तोक संबुद्ध, गारवि रस- लंपट गुरु, गोपे धर्म विसुद्ध अरिहंत देव सुगुरु गुरु, नाम मात्र सवि कहत, ताके सुभग सुरूप कुं, पुण्यहीण नही लहत सुद्ध जिनाज्ञारत हुवे, केई खलने शिरसूल, जेहने ते शिरसूल फुन्, ते गुरु सठ-अनुकूल गुरु अकार्य हा ! नहि घ (ध) णी, करिये कहा पुकार ?, सुगुरु श्राद्ध जिनवचन कह (हा ) ?, कहा अकार्य असार ? ३५ साप देख नासे कुई, लोक कहे कछु नाहि, कुगुरु साथी जे नसे, मूढ कहे खलताही एक मरण कुं साप दे, कुगुरु मरण अनंत, श्रेष्ठ साप ग्रहवुं तदा, कुगुरु सेव नहि संत ! जिण - आज्ञाथी रहितने, गुरु कहि जो शिर नाय', गडर"-प्रवाहे जण छल्यो, तो सु करिये भाव (य)? लोक अदाक्षणि(क्षिण) कोई जो, मागे रूटिया ११ - भाग, कुगुरु- - संग - त्यागन - विषे, दाक्षणता धिग ! राग नाखे नरके मुग्ध जन, जे देखाडि मुनिवेष, ते हताश खल धीठने, कहिये किसुं विशेष ?
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जिम जिम खलनो अति उदे, जिम जिम बेटे धर्म, तिम तिम समकित-जीव को, उलसे समकित सर्म जगजननी सम जिनमते, जो अति उदय न होय, कलिकालज-जणनो अति, पाप-महातम सोय जिसके माया धरम मे, लागो ग्रह मिथ्यात, सो उत्सूत्री भर मनह, कहे उलटी सवि वात जिनपूजादि कार्य पिण, सफल जिनाज्ञा थाय, आणा-भंग-रहित दया, कार्य सवि दुखदाय कष्ट करे आपा दमे, द्रव्य तजे पिण जोय, तजे नहि मिथ्यात्व-लव, बुडे जेहथी लोय वधे मीत ! सतसंगथी, वर-विधि-धरमसु राग, घटे कुसंगे प्रति दिवस, विदुनो पिण ते राग सुद्ध गुरु जे सेवतो, ते असुद्ध-जण-शत्रु, तो बल-रहित वसो नहि, जिहां असुद्ध-जण तत्र जिनमत-विदुः२ असमर्थ जण, जिहां समर्थ अजांण, धर्म न वाधे तह लहे, गुण-रागी अपमान सबल कुमार्गी धर्म मे, जो न करे अति भाव, तो सुंदर ! अथ जो करे, तो सुधर्मि-दुखदाव मिथ्यावादे होय जो, श्रावक जन सब एक, धर्मीजन कुं वर तदा, किम दिये दुख अविवेक? सुगुण-महर्घ-महागिरि, जय सो पुरुषरतन्न, जसु आश्रय आचार-रत, करे सुधर्म-जतन्न ते सुपुरुष के मूलकुं, सुरतरु मणी न पाय३, विधिरत जन कुं जो दिए, धर्म सहाज्य सदाय लाजे निज नामोच्चरे, हुं मानुं सतपुरुष, वली तेहना गुण गाय हम, कर्म टले कटु तुरुष आणाभंग-क्रोधादि-जुत-आप-प्रशंस-निमित्त, धर्म सेवता लोकने, नाही धरम नहि कित
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अनुसन्धान-७५(२)
णीच प्रशंसाये भणे, उत्श्रुत धीठ नीलाज, जो भावी दुख तेहने, सो जाने जिनराज बोधिनास उत्सूत्रि के, जामण५ मरण अनंत, प्राण तजे पिण धीर तत, नहि उत्सूत्र भणंत अविधि-कीर्ति न करे कदा, ऋजुजन-रंजन-हेत, सुभ कुल कि वधू भि क्या, वेश्या-चरित थुणेत ? ५८ भवभयथी अति भीरु जे, आण-भंग-भय तास, भवभयथी अभीरुने, आणा-भंजन हास जो नसि स्तुत-युत चेतना, किसो अस्तुतनो दोस?, धिग् ! धिग् ! कर्मन कुं यदा, लभध अलभ जिन-पोस६० करवू पर उपहास जे, ते अयुक्त जिनदास !, कुल-प्रसूत के अगनि ले(जे), धरम विषे जो हास ६१ मिथ्यात्वे संतोष जसु, जिनवर-वचने द्वेष, तसु पिण सुद्ध मना दिए, परम सुहित उपदेस ६२ सरल सुभावी स्वजन हुये, निर्विकल्प सब ठोर, डसित साप उपर १६अपी, करे कृपा क्या ओर? ६३ गृहव्यापार-रहितं घण, मुनि पिण समकित-हीन, इह सालंबन श्राद्ध कू, कहिये किसुं ? कुलीन ! किमहि न उत्श्रुत भाखवू, उत्श्रुत भाख्युं जोय, तो सहि बूडिस भव्य ! तूं, निर्थक जप तप होय ६५ जिम जिम जिनवच सुमनने, प्रगमे८ सम्यक् प्रकार, तिम तिम लोकप्रवाहमे, धर्म-भाति नटचार९ सुद्ध ज्ञान-कर जसु हिये, सम्यक् वसे जिनेश, तसु आगे तण जिम दिपे, मिथ्याधर्मि अशेष लोकप्रवाह-पवन-उदंड, चंड प्रचंड लहरेय, दृढ समकित अति बल, गुरुआ पिण हल्लेय जिनमतनी निंदा करी, जो अज्ञानी दुख पाय, ते सांभरि ज्ञानि तणो, भय करि कंपे काय
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मिथ्यादृष्टि अज्ञानिनो, दोष जूये सूंयोध, नहि जांणे स्युं आपने ?, कष्टे समकित - बोध आचरता मिथ्यात्वने, जे चाहत जिनधर्म, ज्वर - पीडत ते पय पिवा, वांछे विकल विमर्श जिम केईक सुकुलवधू, व्रतहत लिये कुल नाम, आचरता मिथ्यात्व तिम, वहे सुगुरु अनुगाम आचरता उत्सूत्र जे, माने आप सुसड्ड, रौद्र दरिद्रे दुखित ते, तुले साथ सुधनड्ड केई कुलाचारे रता, केई रत जिनमतमांहि, जूओ भ्रात! इति अंतरे, लखे न्याय सठ नाहि अहितकारि जसु संग पिण, जे तसु धर्म करेय, चोर - संग तजि चोरिने, करे पापि नर तेय पातक-नवमी पर्वमे, पसु मरता जसु पास, तेहने पूजित श्राद्ध-जन, हा ! जिन - हेला हास गृह-कुटुंब- स्वामी छतो, थापे मिथ्यात, नाख्यो तेणे वंस सब, भवसमुद्रमे भ्रात ! बारस नवमी चौथ मृत- - पिंड प्रमुख मिथ्यात, जे नर सेवे तेहने, नहि समकित - अवदात जिम कादव खूतो शकट, काढे केईक धोरि, तिम कुटुंब मिथ्यात्वथी, काढे केई सजोर जेसे महितल - प्रगट भी, घनयुत रवि न दिखाय, तेसे उदय मिथ्यात्व के, नहि दिसत जिनराय किम ते जायो जानिये, जायो तो किम पुष्ट, मिथ्यामगन थयो जदी, तिम गुण-मच्छर दुष्ट वैश्या ब्राह्मण भाट डुंबर, जख्य सिक्ष इनकाय, २३ भक्षस्थान स्वभगत छे, विरतीथी अलगाय २४ सुखे सुद्ध मारग चले, थया सुद्ध मग जेय, जात कुमार्गि मार्गमे, चाले अचरज तेय
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मिथ्यात्वी के विघन-सत, पिण बोलत नही दुष्ट, पडे विघन-लव धर्मिके, तो नाचे अघ-पुष्ट ८४ समदृष्टी के विघन पिण, ओछव सारिख्यो होय, अति ओछव मिथ्यात्वजुत, महा विघ्नमय जोय निज संपत कुं हीलतो, नमे इंद्र पिण तास, जे समकित छंडे नही, पडे मरण की त्रास मोक्षार्थी त्रण जिम तजे, निज जीवित न समत्त, जीवित वलि पिण पामीये, ह(हा)j समकित कत्त? ८७ विभवरहित पिण विभवजुत्त, समकितरत्नसमेत, समकितरहित छते धने, दारिद्री वनप्रेत
८८ पूजा-अवसर श्राद्ध कुं, कोइ दिए धन कोडि, ते असार तजि सार जिन, पूजा रचे निचोडि२५ दर्शनादि-गुणकारणी, कहि जिनवर पूजाय, वलि मिथ्यात्वकरी कही, सा पूजा जिनराय जो जो जिनआज्ञा-सहित, ते हि ज माने जोय, शेष न माने तत्वन्हे, लोकिके विदु सोय आणारहित अधर्म फुट, धरम जिनाज्ञा-तार, ए य तत्त्व जाणी करो, धरम जिनाज्ञा-सार भवभय-रहित सुभट तथा, दुष्ट धीठ नर तेय, छते सुगुरु स्वाधीन जे, सुध धरम न सुणेय सुकुल-धर्म-जाति गुणी, पर न रमे लिय सम्म, पछे विसुद्ध चरण पछे, उपकारे शिव रम्म नीका नारक जेहनो, दुख सुणि भविजणकेय, हरिहर ऋद्धि समृद्धि पिण, तनु-उत्कंठ जणेय धरमदास गणिवर रचित, उपदेशमाल सिद्धांत, श्रमण श्राद्ध माने सवि, पठे पाठवे खांत मान मोह भूते छल्या, अधम केई किरियाय, तेह मालने हीलता, न गणे भवदुख भाय !
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एक मर[ण] लघु-भूपनी, आणा भंगथी थाय, सुं वलि त्रिभुवन-भूपनी, आण हणे कहवाय?
९८ जग-हितकर जिनवर-वचन, ते कारण भविलोय !, तास विरोधे धर्म किम ?, जीवदया किम होय? ९९ सूत्र-रहित दर्शि अधिक, क्रिया तणो मंडाण, ऋजु-रंजण मुनि-हीलवा, फिरे मूढ गत-त्राण सुद्ध धर्म कुं जो दिए, सो जिनराज न ओर, सुरतरु सम तरु अन्य क्या ?, होय कहो किणि ठोर२६ १०१ जे गुण दोष अज्ञात ते, किम बुध मे बुध होय, अथ ते जो बुध होय तो, सम विष अमृत दोय मूल जिनेश्वर तद् वचन, गुरुजन गाढा सयन, शेष पाप-थानक तजूं, निज परनो दिन रयन राग रोस किनि उपरे, नहि हमने छे एक, धर्म तेह जिनआण-रत, छे गुरु ओर विवेक निज-पर गुरु न करे कदा, तत्त्वज्ञात-गतगर्व, जैनवचन-मणिमंडणे, मंडित ते गुरु सर्व सुद्ध पुण्ययुत सजन जन, तसु जइये बलिहार, जस लघु संगमथी हुवे, धर्मबुद्धि-विस्तार
१०६ केई आज पिण आकरा, दीसे गुणि गुरु सुद्ध, प्रभु जिनवल्लभ सारिखा, वलि जिनवल्लभ बुद्ध १०७ गुरु जिनवल्लभ-वचनथी, उलसे सम्म न जास, हरे घूक कि अंधता, केसे भानु-प्रकास? . मरता जगजन जोइने, जे न करे वस मन्न, पाप थकी विरमे नही, ते नर धीठ अधन्न सोक विलाप करी उदर, सिर कूटी उर देह, नाखे नरके जीवने, धिग् ! धिग् ! ते दुर्नेह प्रिये मरणनो एक दुख, बीजुं नरक मझार, इक तो पडवू मालथी, बीजुं दंड-प्रहार
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धर्मार्थि दूषम समें, दुल(र्लभ साधुने श्राद्ध, नाम-साधु-श्रावक बहु, दृग-रागादि-सबाध सुध धर्मनी वात पिण, धनने रति उपजाय, मिथ्या - मोहित मूढने, मिथ्यात्वे रति थाय जिन-मत- जाण विमल-हिये, तास एक गुरु दुख, धर्म कहीने सेवतो, पाप प्रते जो मुख महाभाग जिनवचन - रत, संवेगी भवभीत, विरला जे सम सक्तिये, व्रत पाले श्रुत-रीत इक धुरि विण सर्वांग पिण, शकट जेम न चलंत, ते धर्म-मंडाण सब, विन समकित न फलंत धर्मतत्व श्रुत आत्महित, अहित न जाणे जेह,
अजां पर रोष किम, जिनमत - कुसल करेह जसु वैरी निज आतमा, तसु पर दया न होय, याचक चोर तणो ईहां, उदाहरण जग जोय जे छे राज-धनादिनो, हेतु - भूत - व्यापार, ते अति पाप वणिज तजे, उत्तम भवभीतार मोहित धन स्वजनादिके, लुब्ध सत्त्व करि हीण, पाप भजे व्यापार मे, मध्यम - पेटाधीन
अनुसन्धान- ७५ (२)
अधम अधम कारण विना, करि अज्ञान - अभिमान, जे उत्श्रुत भाषन करे, धिग् ! धिग् ! तेहनो ज्ञान जीव मरीची वीरनो, उत्श्रुत-लेस - उच्चार, सागर कोडाकोडी जो, भमियो भवकांतार वार वार ए श्रुत-वचन, सांभलि जो तोहेय, सेवे बहु उत्सूत्र - पद, दोस न मांने जेय तसु जिनधर्म किहां नथी, ज्ञान सु-दुख वैराग, कूट - मान पंडित - नटित, नरके खेलत फाग
जे बांध्या खल कर्म करि, ते सबही के थाय, हित - उपदेश सुदोषमय, 'बहु मा भण' इण न्याय
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जसु कुसुद्ध मन केम सो, जिनवचने बुझेय ?, तो तेहने अर्थे गुणी, फोकट आत्म दमेय करनो अरु साधन तथा, रहो प्रभावण दूर, सुद्ध धरम श्रद्धान पिण, हरे कठिन दुख - पूर ते दिन क्यारे आवसे, ज्यारे सद्गुरु पास, उत्सूत्रां से रहित जिन-धर्म सुंणीसूं खास दीठा पिण केइक गुरू, न गमे जाण हियेय,
अदीठाहिं जग मे, जिम जिनवल्लभ श्रेय आरंभी अति पापीने, जिनवर सुगुरु समान, जे जाणे ते जीव जिन-धर्म-विमुख बेभान वांदे पूजे जेहने, हीले तेहनो वे (व) यण, वांदे पूजे किम तदा ?, जन-थिति जूये न सयन कह जन जे आराधिये, न कोपाईये तेह, मांनीजो तसु वेन जो, वंछित तुं वांछेह दुष्ट-उदय दुख प्रगटजन, दूषम-दंड छतेय, तसु प्रणमुं जे धन्यनो, समकित - गुण न चलेय समय सुबुद्धि व्यवहार- नय, निज मतिने अनुसार, काल क्षेत्र अनुमांनथी, सुपरिक्षत गुरु धार तो पण निज जडता करी, न गुरु-कर्म-विश्वास, पुन्ये धन्य कृतार्थने, मिले सुगुरु गुण-रास वलि हुं अन्य तदा जदी, लाधो नवि लाधोय, तो पण ते मुझ सरण अब, जुगप्रधान गुरु जोय सम्यग् जांणे केवली, जैन धर्म दुर्ज्ञेय, तदपि जाणणा योग्य हे, श्रुत-व्यवहारे तेय सोधित - श्रुत-व्यवहारने, निर्मल समकित थाय, जिन आज्ञाराधन थकी, जे कारन जिन गाय जे जे गुरु अब देखीये, ते न मिले श्रुत-न्याय, पिण श्रद्धा इक छे चरण, दुपसह अंत गवाय
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तो मध्यस्थ मनेयि इक, युगप्रधान श्रुत-न्याय, रूडी रीते परिखवो, तजि प्रवाह हलवाय अब दशमचरज नाम गणि, जनित-नीच-जन-कर्म, लोकप्रवाहे निपुण पिण, पडिआ तजि शुभ धर्म पडनालंबन आचरे, मिथ्यादृष्टि तेय, जे समदृष्टि तेहनो, मन चडते पगथेय सुलभ सकल पि कनक मणि, आदि वस्तु-विस्तार, मार्ग-निपुणनो संग जग, अति दुर्लभ अवधार मान-विषोपसमाववा, सुद्ध देव गुरु धर्म, ते सेवे पण मद थयो, हा ! ते पूर्व कुकर्म जिन-आचरण थकी जुदो, जे जण तसु आचार, रे ! सठ करतो किम कहे, हुं जिन-भगत उदार जाकू माने लोक तसु, माने लोक अनेक, माने जास जिनेंद्र तसु, माने कोईक छेक सार्मिथी अधिक जसु, परिजन ऊपर प्रेम, तास न समकित मानिये, आगम नीति एम जिनपति लोकाचारथी, जो तूं जांणे भिन्न, तो किम लोकाचारने, तुं मांने ? प्रभु-मन्न जिनवरने प्रणमी वली, जे प्रणमे अन देव, सन्निपात मिथ्यातहत, तस कुंण वैद इहेव? गुरु इक वली श्राद्ध इक, चैत्य विविध चित्रैव, तामे तो जिन-द्रव्य ते, दिए परस्पर नेव .. ते गुरु नहि श्रावक नही, नही प्रभु-पूजक तेय, मोह-थिती मूढो तणी, जाणी श्रुत-निपुणेण
चैत्य भुवन वलि श्राद्धजन, साधारणद्रव्यादि, । तास भेद जसु वचनमे, ते गुरु छे झगडादर प्रगटे न विधि-विवेक अब, प्रभु-वचने पिण जाव, ताव निवड मिथ्यात्वनी, गंठि तणो अनुभाव
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बंधन मरण भयादिदुख, नही तीक्षण दुख जांण, जे अविनय प्रभु-वचननो, ते दुख दोष-निधान १५४ वीर-वचन विधिसार लखि, जब निज आतम जोय, तो कहां ते गृहीधर्म जे, ग्रह्यो धीर पुरुषोय? जदपि शुश्रावक-सेढीए, चरण-करण-असमर्थ, तदपि मनोरथ मुझ हिये, कब हुं करूं तदर्थ ? तो शुभ भावे प्रभु नमत, चरणे जाचूं एक, होय सदा मुझ तुम वचन-रतन-लोभ अतिरेक मिथ्यावाससु मलिन मन, गत-विवेक हम मांहि, कहांथी सुख संभाविये, स्वपन विषे पण नाह ! धरूं जो जीवित मात्र पिण, नाम श्राद्धनो सार, ते पिण अति अचरिज प्रभू !, दूषम काल मझार १५९ इम विचार करि तिम सुगुरु, हमने करो सनाथ, सुलभ होय जिम नर-पणो, शिव-सामग्री-साथ १६० नेमिचंद भंडारि कृत, गाथा केइक एम, विधि-मग-मग्न भविक भणो, लखो लहो शिव-क्षेम १६१ सष्टिशतक प्राकृत थकी, दोधक किया सुभास, दोधक-सोधक बुधिजन, सेवक मोहन तास
वक माहन तास १६२
॥ इति श्रीषष्टिशतकभाषादूहा समाप्तं ।। ग्रं. १८५ ॥ लि. पुनमचंदः ।
शब्दकोश
१. फुन् = पुनः २. मुस्यो = लूटायो ३. मेलीव = मूंकी ४. नाक = स्वर्ग ५. गिराय = वाणी (देशना)
६. थितीव = स्थिति ७. पायकर = पामीने ८. प्रादि = सौथी पहेलां(?) ९. शिर नाय = मस्तक नमावे १०. गडर = घेटां
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११. रूटिया = रोटली
१२. विदु = जाणनार
१३. पाय = पामी शके १४. नीलाज
१५. जामण = जन्म
१६. अपी = पण
२४. अलगाय =
अळगो
= लज्जा रहित = निर्लज्ज २५. निचोडि = निचोवीने (?)
१७. णिर्थक = निरर्थक
१८. प्रगमे = उदय पामे (?)
१९. नटचार = नटना चारित्र २०. हल्लेय = हले
२१. हास = हास्य
*
२२. डुंब = चांडाल
२३. इनकाय = एमने
अनुसन्धान-७५ (२)
२६. ठोर = स्थान, ठेकाणुं
२७. दमे
दमन करे
२८. कोपाईये
=
कोपित करे
२९. दुपसइ = दुप्पसहसूरिजी (नाम)
=
* *
३०. हलवाय =
३१. पगथेय = पगथिये
३२. झगडाद = झगडाळु (?)
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आणंद कवि-रचित चोवीशजिनस्तवन
सं. - शी.
२४ तीर्थङ्करोना पांच बोलना वर्णनपूर्वक तेमनी स्तुतिरूप आ चौपाई छे. तेमां एक एक कडीमां तीर्थङ्करनुं नाम १, तेमनां माता-पितानां नाम २-३, तेमनुं स्थळ ४ अने तेमनुं लाञ्छन ५ - आ पांच विगतनी नोंध आ चौपाईमां कविए करी छे.
२९ कडीना आ स्तवननी रचना, तपगच्छपति श्रीहेमविमलसूरिना शिष्य गणि साधुविजयना शिष्य कमलविजयना शिष्य आणंदविजय नामे साधु-कविए संवत १५६२मां करी छे. तेनी सम्भवतः सत्तरमा शतकमां लखायेली प्रति परथी आ वाचना तैयार करी छे.
पण्डित सैद्धान्तिक सिरोमणि पण्डित श्रीगुणसागरगणिगुरुभ्यो नमः ॥ सयलजिणेसर प्रणमुं पाय, सरसति सामिण द्यो मति माय । हइडइ समरूं श्रीजिनगुरुनाम, जिम मनवंछित सीझइ काम ॥१॥ चोवीसिं जिनवर मायपिता, नाम गांम लंछन जे हता। पांचे बोले करी प्रणाम, करुं तवन मुंकी अभिमान ॥२॥ पहिलुं प्रणमुं ऋषभ जिणंद, नाभिराय मरुदेवी नंद । उंची काय धनुष पांचिसिई, वृषभ लंछन वनीताइ वसिइ ॥३॥ बीजा अजित अज्योध्या ठाम, गज लंछन प्रणमु अभिराम । जितसत्रु विजयाराणी पुत्र, जेणि जीत्या सघला शत्रु ॥४॥ त्रीजा संभव सुखदातार, सावत्थी नयरी अवतार । पिता जितारि सुसेना माय, हय लंछन सोवनमइं काय ॥५॥ चोथो चउगतिगंजन स्वामि, विनीतानयरी जेहनुं ठाम । संवर पिता सिद्धार्था माय, प्लवग लंछन अभिनंदन राय ॥६॥ समरूं सुमति जिणेसर देव, लंछन Qच करिइ जस सेव । नयरी जास भली कोसला, मेघ पिता माता मंगला ॥७॥
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अनुसन्धान-७५(२)
कोसंबी नयरी धर राय, राणी सुसीमा जेहनी माय। पदमप्रभ प्रणमुं जिन पाय, पदम लंछन रत्तुप्पल काय |८|| स्वस्तिक लंछन स्वामि सुपास, जे तूठो टालइ गर्भवास । पइठ नरेसर प्रथवी माय, वाणारसी नयरी वर ठाय ॥९॥ शशि लंछन चंद्रप्रभ देव, चोसठि इंद्र करइ जस सेव । महसेन पिता माता लख्यमणा, नयरी जेहनी चंद्रानना ॥१०॥ काकंदी नयरी अभिराम, लंछन मगर सुविधि जिन नाम । पिता सुग्रीव माता तस राम, पुफदंत बीजुं जसु नाम ॥११॥ सीतल सहर्जि सुखदातार, भद्दलपुर स्वामी अवतार । द्रढरथ राजा नंदा माय, श्रीवछ लंछन प्रणमुं पाय ॥१२।। श्रेयांस सुणीइं अग्यारमो, षड्गी लंछन भावि नमो। सीहपुरी राजा श्रीविन्ह, माता जेहनी सुणीइ विन्हु ॥१३॥ चंपानयरी वसपूज्य राय, जया देवी राणी तस माय । वासुपूज्य जिनवर बारमो, काछब (?महिष) लंछन भावि नमो ॥१४॥ कंपिलपुर राजा कृतवर्म, स्यामा राणी अछि सुधर्म । सूअर लंछन स्वामी विमल, तूठो आपइ पदवी अमल ॥१५॥ उवझा नयरी उत्तम ठाम, अनंतनाथ स्वामीनुं नाम । सीहसेन राजा सुजसा जसु माय, सीचाणो लंछन तस पाय ।।१६।। रतनपुरी राजा श्रीभानु, सुव्रता राणी मायनुं नाम । मुगतिपुरीनो सूधो साथ, वज्र लंछन प्रणमुं धर्मनाथ ॥१७॥ शांतिनाथ सोलमो जिणंद, जास प्रसंसा करिं सुरिंद । मृग लंछन गजपुरि जस ठाम, विश्वसेन अचिरा मायनु नाम ॥१८॥ कुंथुनाथ पुहुवि प्रसिद्ध, तूठो आपइ पदवी सिद्धि । सूर राय माता जस सिरी, लंछन छाग नयरी गजपुरी ।।१९।। गजपुर नयर सुदरसन राय, देवी राणी अरजिन माय । लंछन नंदाव्रत प्रधान, त्रीस धनुष सामी तनुमान ॥२०॥ मिथिलानगरी महिमा घणो, राजा कुंभ पिता तेह तणो । प्रभावती राणीनो जात, कलस लंछन प्रणमुं मल्लिनाथ ॥२१॥
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सप्टेम्बर - २०१८
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राजगृही राजा सुमित्र, पद्मावती मातानुं पुत्र । मुनिसुव्रत लंछन काछिबो, प्रणमुं भावि जिन वीसमो ॥२२॥ विप्रा राणी राजा विजय, मिथिला नयरी रिपुजन अजय । नील्लुपल लंछन जसु चंग, नमिजिन प्रणमुं मननइ रंगि ॥२३।। सौरीपुर स्वामी श्रीनेमि, मुगतिवधू ज(जे)णइ परणी खेमि । समुद्रविजय शिवादेवीनंद, संख लंछन प्रणमुं आणंद ॥२४॥ अश्वसेन वामा जसु माय, वाणारसी नयरी लंछन नागराय । त्रेवीसमो जिणेसर पास, प्रगट प्रभावि पुरिइं आस ॥२५॥ श्रीसिद्धार्थ त्रिसला माय, कुंडणपुर लंछन मृगराय । वर्द्धमान जिन चुवीसमो, कर जोडीनइ भावि नमो ॥२६॥ चोवीसिं जिनवरनां नाम, बोल्यां सदा समरणा काम । भवि भवि मागुं एह ज देव, बोधिबीज साची जिन सेव ॥२७॥ इंदु' बाण' रस नयेण प्रमाण, ए संवच्छर संख्या जाण।। तपगच्छगयणविभासण भाण, श्रीहेमविमलसूरी जुगह प्रधान ॥२८॥ पूज्य सिरोमणि पंडितराय, साधुविजय गिरुआ गणराय । कमलसाधु जयवंत मुर्णिद, तास सीस पभणइ आणंद ॥२९।।
इति श्री चोविश जिनस्तवनं ॥
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अनुसन्धान-७५(२)
श्रीसुखविजय-रचित नव वाड भावभास
सं. - शी.
ब्रह्मचर्यव्रत ए धर्मसाधनानुं प्राणभूत व्रत गणायुं छे. साधुना पांच महाव्रतमां अने श्रावकना पांच अणुव्रतमां ते चतुर्थ-चोथु व्रत छे. तेनुं ग्रहण कर्या पछी ते पालन करवू, अने तेमां छींडु के भांगो न पडे ते माटे शास्त्रकारोए नव वाडो निधरिली छे. खेतरना रक्षण माटे जेम वाड होय छे तेम आ व्रतना रक्षण माटे १ ने बदले ९ वाडो होय छे. ते आ छे :
१. वसति - स्त्री रहेती होय तेवी वसतीमा रहेवू नहि. २. कथा - स्त्री विषेनी कथा न करवी; स्त्रीओ साथे वात न करवी. ३. निषद्या - स्त्री साथे एक आसने न बेसबुं स्त्री बेठी होय त्यां न बेसवू. ४. इन्द्रिय - स्त्रीनां अङ्ग-प्रत्यङ्गो न निहाळवां. ५. कुड्यन्तर - दीवालनी के मकाननी पछीते चालतां स्त्री-पुरुषना शब्दादि न
सांभळवां. ६. पूर्वक्रीडा - पूर्वावस्थामां माणेलां विषयसुखनी वातो न संभारवी. ७. प्रणीत भोजन - घी-दूध-गोळथी रसकसवाळो गरिष्ठ आहार न लेवो. ८. अति-आहार - लुखोसूको आहार पण वधु पडतो न ठांसवो. ९. विभूषणा - शरीरनी टापटीप आदि नखरां न करवां.
आ नव वाडोनुं वर्णन तथा तेनुं जतन करवानी शीख, ते माटेनां उदाहरणो, जतन न करवाथी थतां नुकसान आदिनी वात शास्त्रोमां तो वारंवार ने ठेर ठेर आवे ज छे, उपरांत अनेक गुजराती कविओए भाषामां ते विषे रास, सज्झाय, चौपाई, ठाळियां इत्यादि प्रकारनी रचना पण करेली मळे छे. १० ढाळोमां पथराएली आ रचना छे. प्रथम ९ ढाळोमां एकमां एक एम नव वाडनी वात थई छे. छेल्ली ढाळमां शीलना माहात्म्यनुं वर्णन छे. प्रत्येक वाडने जुदा जुदा दृष्टान्तथी निरूपवामां आवी छे.
१. जेम बिलाडाथी मूषक (उंदर) सतत डरे, तेम संयमी स्त्रीवाळी वसतीमां न रहे, कां फफडतो रहे. २. स्त्रीनां रागभां मीठां वेण शूरवीरने युद्धमा जता पण ढीला पाडे छे, तेम स्त्रीनां वेण संयमथी पण चूकावे. जेम मेघ गाजे ने हडकाया श्वानने हडकवा उपडे, कुपथ्य सेवनार रोगीनो रोग जेम वकरे, तेम स्त्रीनां वेण मुनिनां मनने पण चळावे. ३. गरीब वाणियो छोकरानी हठ पूरी करवा घऊं लावीने पत्नीने रांधवा
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सप्टेम्बर
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आपे, पोते शाक लेवा चौटे जई कोळं लई आवे, पण कोळानां पाणीथी बधुं बगडतां तेनुं काम सरे नहि, एम स्त्रीनी बेठक पर बेसनार मुनिनुं पण काम सरतुं नथी पण बगडे छे. ४. एक माणसने आंखनो रोग थयो, पडल बाइयां. वैद्ये ते मटाडीने कां के सूर्य सामे कदी आंख मांडीने जोतो नहि. जोईश तो रोग पुनः थशे. पेलो ते वात भूली गयो, अने सूर्य सामे जोयुं, ए साथे ज रोग थई गयो. भगवान पण मुनिने कहे छे के संसारनो रोग मटाडवो होय तो स्त्री तरफ जोवानुं टाळजे. ५. व्यापारीए मीण ने लाख संघर्यां, पण ते चूलानी पासे मूकी दीधां ! चूलो चेत्यो के तेनी आंचथी पेलुं पीगळी गयुं नका पड्युं. एम मुनि पण पोताना स्थाननी भींतने अडीने रहेतां, गृहस्थ- स्त्री आदिनी वातोनी आंचमां आवे तो एनो संयम ओगळवा लागे. ६. बे माणसो इंधणां लेवा वनमां गया हशे, त्यां एकने साप डंख्यो ( पण साप करड्यो तेवी खबर नहि पडी). काम करतां वरस वह्यं. पछी बन्ने फरीवार ते वनमां आव्या, तेमां एक जणे साप करड्यानी वात याद करी, ए साथे ज ते त्यां ढळी पड्यो. ए रीते विषय तज्या पछी पुनः तेने संभारे ते पण संसारना झेरथी ढळी पडे छे. ७. कोढीने आमिषाहार न करवानी चेतवणी साथे दवा आपीने वैद्ये तेनो कोढ तो मटाड्यो. पण ते सखणो न रह्यो ने थोडा वखत पछी खूब मांसाहार करवा मांड्यो, तो तेने पुनः कोढ लाग्यो. एम गरिष्ठ ने रसकसवाळा आहार करनार साधुने पुनः वासना कनडे छे. ८. बे माणसो. जंगलमां नानी हांडीमां रांधवा बेठा. हांडी नानी, तेमां अन्न बहु-वधु पडतुं चडाव्युं परिणामे गरम थतां ज हांडी फाटी ने अन्न वेरातां बन्नेए बधुं गुमायुं मुनि पण अति-आहार ले तो चित्त विकारथी फाटी - ढोळाई जाय. ९. कुंभारने माटी खोदतां रत्न जड्युं. सरोवरना पाणीथी धोने एक बाजु मूकी ते कामे लाग्यो. रत्न लाल हतुं, तेथी तेने लोही - मांसनो टुकडो समजीने समडी उपाडी गई, ने पत्थर समजातां तेणे ऊंडा कूवामां नाखी दीधुं. ते जोई कुंभार घणो पस्ताय के मेलुं ज रहेवा दीधुं होत तो सारुं थात. एम साधु पण टापटीप करेतो संयमनुं रत्न गुमाववुं पडे.
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२०१८
आम सुन्दर रीते कविए नव वाडो वर्णवी छे. कर्ता कवि सुखविजयजी, तपागच्छना विजयराजसूरि शिष्य पं. दयाविजयजीना शिष्य लेखे पोताने वर्णवे छे. समयनो निर्देश नथी, पण तेमनो समय विक्रमनो सत्तरमो सैको होवानुं अनुमान थई शके. (इतिहासनां साधनो जोवाथी स्पष्ट जाणकारी मळी पण शके.) कृतिने 'भाव भास' तरीके कर्ताए ओळखावी छे. लेखकनुं नाम के ले.सं.नो पण उल्लेख नथी. कदाच कर्ताना हस्ताक्षर पण होय. प्रान्ते 'जमालपुर लिषीतं' एवा उल्लेख आ अमदावाद नजीकना जमालपुरमा लखाई होवानुं समजाय छे. ४ पत्रनी निजी संग्रहनी प्रति परथी आ सम्पादन थयुं छे.
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अनुसन्धान-७५(२)
नववाडनो रास ढाल - करि शृंगार कोश्या कहि नागर नंदन - ए देशी ॥ वीर जिणेसर इम कहिं संयमना वासी, साधु सकल उपगार रे, सं० चोथु व्रत विधिसुं धरो सं०, पालो निरतीचार रे । सं० ॥१॥ पांच भावन नव वाडि छई सं०, अंग आगममां साखि रे, सं० ते जोइ चित्त राखजो सं०, समता रंग रस चाखि रे । सं० ॥२॥ जे चारित्रनो खप करइ सं०, नर ती वाडि टालइ दूरि रे सं० देखत दीवी हाथई करी सं०, कुण कूप झंपावई करूर रे । सं० ॥३॥ सूत्र अर्थ जाणइ बहु सं०, विनय विचारना ठाम रे, सं० गीतारथ गुणवंत जे सं०, कुशीलपणइं खोइ नाम रे । सं० ॥४॥ भवियण मन ठामि करी सं०, राखो शीयल सदा सुख खाणि रे, सं० वाडि विशेषज्ञ जूजूइ सं०, ब्रह्मचर्य व्रतिनी जांणि रे । सं० ॥५॥ बिलाड देखी बीहत्तो रहि सं०, मुषक रहि दिन-राति रे, सं० नारी पसु पिंडग जिहां सं०, तिहां रहित्तो संकाइ निरांत्ति रे, सं० ॥६॥ तरूअर प्रौढ उपरि रहि सं०, बीहइ पतन थकी कपी जेम रे, सं० पोपट पंजरमा रहि सं०, शब्द खटकई बीहइ तेम रे । सं० ॥७॥ तिम मुनिवर संका धरइ सं०, रहितो हृदय मझारि रे, सं० प्रथम वाडि जिनवर कहि सं०, श्री सी(सि)द्धांतमां सार रे । सं० ॥८॥ मोह मदननइं जीतवा सं०, मांड्यो एह उपाय रे, सं० सुखविजय कहिं आदरो सं०, जिम वाधि सुजस सवाय रे । सं० ॥९॥
इति प्रथम वाडि । ढाल - प्रथम जिनेसर प्रणमीइ - ए देशी ॥ बीजी वाडि विराधतां हां रे लागां पोढा पाप रे संयम रंग लागो
रंग लागो जिम चोल रे सं० वचन विलास नारी तणां, हां रे करम बंध होइ आप रे सं० ॥१॥ वात विविध परि केलवी, हां रे म करो नारी वात रे सं० । सराग वचन सुंदरी तणां, हां रे लागई मीठा मन साथि रे सं० ॥२॥
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सप्टेम्बर - २०१८
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खाटइ अमल जिम ऊतरइं, हां रे तिम नारी केरी वांणि(णी) रे सं० सांभलतां सूरा तणा, हां रे मनडुं न रहि ठाम रे सं० ॥३॥ संग्रामइ सूरा घणा घणा, हारे राखइं घणुअ अयाण रे, नालीयर केरा नीरनइं, हां रे त्रिविध करइ विन्नांण रे सं० ॥४॥ जिम गर्जारव मेहनई, हां रे हडक स्वांन विष जगाइ रे सं० जिम कुपथ्य करतां मनुष्यनइं, हां रे सबल रोग जिम थाई रे सं० ॥५॥ माया मांडि माननी, हां रे वचन सुणावि चंग रे सं० निवड मन मुनीवर तणां हां रे तिहां उपाय कुरंग रे सं० ॥६॥ मयणरायनइं विस करो हां रे राखो कबजई आणि रे सं० सुखविजय तेहनइं नमइं हां रे जस मन होइ ठांम रे सं० ॥७॥
इति द्वी(द्वि)तीय वाडि ॥२॥
ढाल - पूण्य प्रसंसीइ - ए देशी ॥ त्रीजी वाडि हवि सांभलो रे आसण बिसण जेह । राखो सीयल सदा तुम्हे तो जालवजो जांणी एहो रे ॥१॥ संयम राखीइ, आंणी हृदय मझारो रे, धरम फल चाखीइं । जिम कोइ निरधन वांणीउ, रलिं खपई दिन-राति । पूरी तणि न संपजइं, तेल-हिंगनी जाति रे ॥सं०॥२॥ परव दीवाली दीपतुं रे, सविडं शिरोमणि जेह । लोक करई पकवान ते, दीठु बालकें तेहो रे ॥३।। सं० रढि लागी तेहनई घणी रे, आंणी कीजइ रे एम।। ते तो निरधन वांणीओ रे, भमइं गामनई सीमो रे ॥सं०॥४॥ भमतइ भोलई पामीउं रे, गोधूम आण्या रे तेणि । नारीनई कहिं एहना रे, दली पडसूधी करो एणि रे ॥सं०॥५॥ ते तिम कीधुं नारीइं, सेठ गया स्याकनई काज रे, चोहटइ जइनइं ल्यावीउं, कोहलुं जिमवानई साजि रे ॥सं०॥६॥ कोहला केरइ पाणीइं रे, कणको नइ त्रूटो रे वाक। काज न सीधुं तेहरे, है है करतो वराको रे ॥सं०॥७॥
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तिम नारी र बिसणई रे, बिठो साधु महंत । वाड न रहि तेहनी, इम भाखइ भगवंतो रे ॥ सं०॥८॥ तिण कारण थइ एकमनां रे, राखजो आतम ठांम, सुखविजय कहि एहथी, पामई अमर विमानो रे ||सं० ॥९॥ इति तृतीयवाडि ||३||
ढाल
अनुसन्धान- ७५ (२)
भोलीडा हंसा रे विषय न राचीइ
चोथी वाडि चतुरनर राखजो, नारी अंग म जोइ ।
निज आतमनई रे पापईं भारीइं, नयण संवर करो सोय ॥१॥ ब्रह्मचारीनई रे जाउ भामणई, जे नर पालइ रे सील ।
इहभवि परभविं सुख पामहं घणां, निसदिन पांमई रे लील ॥०॥२॥ एक नर आगई रे चक्षु खंजन थयो, वैद्य मिल्यो तस एक । आंखि तणां पडल उतारीयां, वली कहि वांणी विवेक ||०|| ३ || दिनकर सनमुख मत निहालजे, घणुअ घणुअ कहुं तुझ । इम करतां ते नयण विकासीयां, पणि ते थयो रे अबुझ ||०||४|| एक दिन तेण रे निज नयणे करी, सहसकरीण निरखति । पूर्या पडल ते पाछा वल्या, हाहा करतो भखंति ॥० ॥५॥ तेह तणी परि साधु समण तुम्हे, एह ज सीक्षा रे साच । नारी रूप न कहीइ नीरखीइं, मत कोइ राचो रे काच ॥०॥६॥ कांम कठणनइ रे बंधन पाडवा, मांड्यो एहवो रे पास ।
सुखविजय कहिं तेहनई सहु नमई, त्रिभुवन जन तस दास ||०||७|| इति चतुर्थ वाडि ।
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देशी ॥
जिनवर आया जाणीनइ रे - ए देशी ॥
ढाल पांचमी वाडि जो जो ब्रह्मनी रे, साचवजो अणगार भाविसुं मीठी जिनदेशना जी । तो तुम्हे कुडखला आंतरइ रे, रहितां थाइ व्रत छार भा०मी० ॥१॥
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सप्टेम्बर
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२०१८
१४३
सूधा अणगारजीनइं सीखडी रे, सीखडली मुगति दातार भा०मी० विधिसुं वइरागी पालजो रे, जिम पामो भवथी पार ॥ भा०मी० ॥२॥ श्रीपुरनयरमांहि वसई रे, वीवहारी कांमराज भा०मी०
मी - लाख तेण संग्रह्या रे, वोहर्यां वणीजनई काज ॥ भा०मी० ॥३॥ मूक्यां चूला पाछलि रे, तापइं गलीया लाख नई मीण भा०मी० आव्या ग्राहग लेवा भणी रे, वसुत देखी भाखइ दीण ॥ भा०मी० ||४|| एणि दृष्टांति जाणजो रे, न सुणवा काम विभाव भा०मी० भगवंतीइं इम भाखीउ रे, तुम्हे रहिजो सदा समभाव भा०मी० ॥५॥ रंग विलास विनोदसु रे, म करो मन अभिलाष भा०मी० सुखविजय कहि भविजना रे, ज्ञांन अमृत रस चाखि भा०मी० ||६|| इति पांचमी वाडि ॥५॥
ढाल - थाहरां मोहला उपरि मेह झरुंषई वीजली हो लाल ए देशी ॥ छठी वाडि विचार कि श्रमण सोहामणा हो लाल कि श्रव (म) ण०, पुरव नारीभोग कि समर म प्रांणी आपणा हो लाल कि स० । एक दिन मूली का कि जाइ बिं जणा हो लाल कि जाइ बिं० तिहां सूको देखी वृख कि पाडइ इंधणा हो लाल कि पाडइं० ॥१॥ तिहां पूठि विभाग एक नर तेहनइ अही डसइ हो लाल कि तेह०
जो देखता कि घरवासो वसई हो लाल कि घ० ॥२॥
इणि परिं करतां कांम कि वरस दिन नीगमइ हो लाल कि वर० एक दिन आव्यां तांम कि बिं जणा तिणइ वनि हो लाल कि ति० ॥३॥ बीजइ संभारी वात कि अही - डस - केरडी हो लाल कि अ० । संका था तांम कि काया तिहां पडी हो लाल कि का० ॥४॥ इणि परि सुरति संभार कि प्राणी बापडो हो लाल कि प्रा० । भांजि व्रतनी वाडि कि दुरगति कां पडो हो लाल कि दु० ॥५॥ मयणरायनिं काज कि जापो प्रांणी तुम्हो हो लाल कि जा० । सुखविजय कहिं एम कि शील साथि रमो हो लाल कि शी० ॥६॥ ॥ इति षष्टमी वाडि ॥६॥
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१४४
अनुसन्धान-७५(२)
ढाल - कोइलो परबत धुंधलो रे लो - ए देशी ॥ सातमी वाडि विचारीइं रे लो, रसना केरी जांणि रे रंगीला लाल काया कूडी म पोससो रे लो, आपणी नही निरधार रे, रं० ॥१॥ सुंदर हृदय विचारजो रे लो, जीवा(हा) लंपट टालि रे रं० । सरस आहार निवारीइं रे, विरस आहार प्रतिपाल रे रं० ॥२॥ एक नर कुष्टी हतो घणुं रे लो, वैद्य मिल्यो तस एक रे रं० ते कहि उंषध तो करू रे लो, जो आमीष न खाइ मेक रे रं० ॥सु०॥३॥ ते आगलिं तेणिं हा भणी रे लो, कीधो वैद्यइं चंग रे रं० सरस आमीष रस वावर्यो रे लो, कीधी प्रतिज्ञा भंग रे रं० ॥सु०॥४॥ अति खावाथी तेहर्नु रे लो, कुष्ट रोग थयो ततकाल रे रं० । संकाई सोचीइ घणुं रे लो, कुष्टीइं कीधो काल रे रं० ।।सु०॥५॥ जिम नारी जल वहिं घणुं रे लो, लटकई लहिकई तन रे रं० । पोद् बेहडु सार धर्यु रे लो, जिम राखइ तिहां मन्न रे रं० ॥सु०॥६॥ तिम ग्रंथई इणि परि कहुं रे लो, बल-रूप न काजि आहार रे रं० । वीर जिणंदइ नथी कहु रे लो, लेवो प्रांण आधार रे रं० ।।सु०॥७॥ शील सुरंगइ रंगई रंगजो रे लो, अथीमीजी तन रे रं० । सुखविजय सोभा लहि रे लो, जस चोखुं व्रत मन्न रे रं० ॥सु०॥८॥
इति सप्तमी वाडि ॥७॥ ढाल - सलूणा रे साधु तोरी ओलगडी मुज सफल होज्यो - ए देशी ॥
आठमी वाडि आदरो जी, अकंठ म लेस्यो आहार अणोदरी व्रत आदरो जी, तिहां मुरख केरो विचार ॥१॥ मनमोहन मुनिवर राखजो सीअल रतन, त्रिविधि त्रिविधि करी भावसु जी, करजो धरम जतन ।।म०॥२॥ अटवीमांहि बि जणा जी, भोजन वेला रे ताम । लाव्या भोजन रांधवा जी, जिमवानइ तिण ठांम ।।म०॥३॥ भाजन नानू अन घणुं जी, ओरइ तव होइ अभरांण । तिणइं कुबूधइ तिहां कर्यु जी, हाडी उपरि मुकइ रे पाहांण ।।म०॥४॥
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सप्टेम्बर - २०१८
१४५
भाजन भागु अन्न गयुं जी, भूख्या रह्या त्ते ह गमार । इणि दृष्टांति जांणजो जी, उणुं उठ्युं कवल बि-च्यार ।।म०॥५॥ श्रीजिनराजइ इम कडं जी, सीअल समो नही कोइ। सुखविजय कहि सांभलो जी, एह ज परमनिधांन ।म०।६।।
इति अष्टम वाडि ॥८॥ ढाल - बिं बिं मुनिवर विहिरण पांगर्या जी - ए देशी ॥ नवमी वाडि सुणो शिणगार तणी जी, सोभा म करो अंग रे, वेस विवधि परि आछां लूगडां जी, क्षणि-क्षणि म धुओ अंग रे ॥१॥ ऋषजी राखोनइं मन वसि आपणुं जी, हरसइ नारी तुझ मन रे, सिवसुख पामइं शीलई प्राणीउ जी, पालई नर ते धन रे ॥३०॥२॥ जिम एक प्रजापति माटी दिन-दिनई जी, लेवा जाइ घरकांम रे । खणतां मूढई रे पूण्ये पामीउ रे, रयण अमुलिक धांम रे ॥ऋ०॥३॥ सरोवर कांठई आणी धोइउ जी, मुकीओ एक पासइ लेइ रे । रात्तु रंगई रयण ते झलहलइं जी, आमीष संकाइ धरीउ तेइ रे ॥ऋ०॥४॥ झडपी चील लेइ गइ वेगली जी, नाखू कूप मझारि रे । देखी कुभार करइ तेहां ओरंतो जी, तिम ब्रह्मचर्य हरसई नारि रे ॥ऋ०॥५॥ इम नव वाडि विशेषइं आदरो जी, जिम लहो अविचल ठांण रे। सुखविजय कहिं मनमथ सु करइं जी, जे होइ चतुर सुजांण रे ॥३०॥६॥
इति नव(म) वाडि ॥९॥ ढाल - गीरुआ रे गुण तुम्ह तणा - ए देशी ॥ गीरुआ रे गुण शीलना, जे पालई नर-नारी रे । जगमां कीरति तेहनी, मली गावि देवकुमारी रे ॥गी०॥१॥ शीलई नवनिधि पांमीइ, शीलइ अरथ भंडार रे । शालई नारद उधर्या, शीलइ शिवकुमार रे ॥गी०॥२॥ शीलई सुदर्शनजी जाणीइ, शीअलई जंबूकुमार रे । शीअलई शी(सी)ता रामनी, वली सती सुभद्रा नारी रे ॥गी०॥३॥
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शील राणी कलावती, कर नवपलव थाइ रे । शीलइ द्रुपदी गहगही, लेइ संयम सुरगति जाइ रे || गी० ॥४॥ इणि परि शीअल तणा गुण गातां, मुज रसना पावन थाइ रे । जे नर-नारी सांभलइ, तस दुरगति दूरि पलाइ रे ॥ गी०॥५॥ श्रीविजयराजसूरीस्वरू, तपगछपति गुणखांणि रे । दयाविजय विबुध तणो, सुखविजय वदि शुभ वांणि रे ॥ गी० ॥६॥
करूर = क्रूर
गीतरथ = गीतार्थ - शास्त्रज्ञ साधु
पिंडग = पंडक नपुंसक
मांननी = मानिनी
विस
वश
रलिं = रळवामां पूरी तूणि = ?
।। इति श्रीनववाडि भावभास संपूर्णम् : श्री जमालपुर लिखीतं ॥
*
शब्दकोश
अनुसन्धान-७५ (२)
स्याकनइं = शाकने कोहला = कोळं
कुडखला = कुड्य - दीवाल, खला - खळं (?)
वसुत = वस्तु (?) अही-डस = सर्पदंश
सुरति = सुरत- क्रीडा अणोदरी = ऊनोदरी व्रत
* * *
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सप्टेम्बर - २०१८
१४७
गणि केसरविजय-कृत तत्त्वत्रिकपूजा (तत्त्वपूजा)
सं. - शी.
क्रियोद्धारक अने संवेगमार्गी गीतार्थ पं. श्रीसत्यविजयजीनी पाटपरम्परामां थयेला मुनि केसरविजय गणिकृत 'तत्त्वपूजा' अत्रे प्रथम वार प्रकाशित थाय छे. पं. सत्यविजय - कपुरविजय - खीमाविजय - जिनविजय - उत्तमविजय - रूपविजय - कीर्तिविजय - जीवविजय - केसरविजय - आम पोतानी परम्परा कर्ताए कलशढाळमां वर्णवी छे. वि.सं. १९२१मां आ पूजा कर्ताए रच्यानो निर्देश पण त्यां ज थयो छे.
३-३ तत्त्वोनी ३ त्रिपुटीने विषय बनावीने आ पूजा रचाई छे. १८-१९मा सैका ए 'पूजा'ना सैका छे. ए गाळामां विविध कवि-साधुओए अनेक पूजाओ बनावी छे, जेमांनी घणी सुप्रसिद्ध छे. केसरविजयजीनी गुरुपरम्परामां तो अनेक कविओ थया छे अने ते बधाए विविध पूजाओ रची छे. ते परम्परामां केसरविजयजी, कदाच, छेल्ला होई शके.
पहेला त्रिकमां देव-गुरु-धर्म ए ३, बीजामां ज्ञान-दर्शन-चारित्र ए ३, त्रीजामां संवर-निर्जरा-मोक्ष ए ३ - एम ९ तत्त्वोनी पूजा बनावी छे. क्रमशः जैन शास्त्रोनी परिभाषानो विनियोग करीने नवेनव तत्त्वो माटे एकेक ढाळ-एकेक पूजा रची छे. पूजा देरासरोमां भणाववा माटे ज रचाई होवानुं स्पष्ट छे, तेथी छेवाडे तेनो विधि पण वर्णव्यो छे.
__पूजा नवसारीमा रहीने रची छे, त्यां 'ओलीमासमां - दीवाळीना पक्षमां' रची होवानो उल्लेख छे ते जोतां कवि नवसारीमां चातुर्मास हशे. त्यां पार्श्वनाथना सांनिध्यनो तथा अधिष्ठायक द्वारा मध्यरात्रे देरासरमां ३ डंका वाग्यानो उल्लेख रोमांचक छे.
पूजामा तत्कालीन बोलचालनी भाषा ज प्रयोजाई छे, जे साव गामठी जणाय. भाषा तथा कल्पनानी कोई विशेषता जणाई नथी. जूनी देशीना ढाळो प्रयोज्या होवा छतां शब्दोनी वधघटने कारणे मात्राओ खास जळवाती नथी, तेथी गानारनी कसोटी थाय तेवी रचना गणाय.
शास्त्रना कठिन विचारो तथा पदार्थो तथा शब्दावली कर्ता ए ए रीते प्रयोज्या छे के जाणे पोते आ विषयनो स्वाध्याय करता होय !
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१४८
अनुसन्धान-७५(२)
१३ पत्रोनी आनी एकमात्र प्रति निजी संग्रहनी छे. जीर्ण थवा आवी छे, कोई ज पुष्पिका वगेरे नथी, जेथी अनुमान थाय छे के कर्ताए स्वहस्ते लखेली ज प्रति होवी जोईए. एक पानांमां एक अंश खवाईने फाट्यो छे.
श्रीवीतरागाय नमः ॥
दूहा
सिरिनवसारिमंडणो, प्रणमी पासजिणंद । जास चरण-करसें करी, सेवें सुरासुर-इंद ॥१॥ वलि निजगुरु-चरणे नमी, विद्यादाइ जेह । सारद दीजें सारदा, तत्त्वपुजा करणेह ॥२॥ उद्दाम चित्त करी आणिई, मेवाम्रादिक सर्व । तिन तिन वस्तु जघन्यथी, मुणिगुणसमि निगर्व ॥३॥ उकोसय तेह पद समी, थापी अरिहा-पूर । अष्ट प्रकार बीजा वली, मेलीजें भरपूर ॥४॥ बहुविध शास्त्रे तत्त्व छे, कहुं इहां उपादेय । पुजनलायक विश्वनें, बीजां हेय गनेय ॥५॥ ज्ञेय प्रथमथी निपजें, तत्त्व सवे जगमांहि । पण भवि-पुजनजोग जे, भाव धरी मनमांहि ॥६॥ तत्त्वत्रिक त्रणनो इहां, भाषिस लेश विच्यार । अष्टप्रकार करमें धरो, पुज्यपुजादिट्ठ सार ॥७॥ रत्न मणि हेम रजतना, कलस भरी अंभिराम । तत्त्ववरगसम सहु मली, करो अभिषेक उद्दाम ॥८॥ वाजित्रादि वाजतें, स्फार धरी सणगार । आसायण टाली सवे, धूपी जिन-घरबार ॥९॥ जिम असंख्य इंद्रे मिली, भक्ती करी जिनराय । तिम नगर-नारी-संघ मली, पुजो अरिहा-पाय ॥१०॥ नाम 'देव' जग छे बहु, ते पण शत्रुसमेत । श्रीअरिहंत अरिहंत नमो, धूर उपगार उपेत ॥११॥
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सप्टेम्बर - २०१८ [अथ ढाल । रेहनें रेहनें रेहनें अलगी रेहनें । अथवा,
____ मां जो मां जो मांजो अडसो मांजो - ए देशी ॥] सेवो सेवो सेवो भवियण सेवो, देव दुजो नवी एवो भवियण सेवो । अरिहंतसम नहि मेवो भवियण सेवो । ए आंकणी ॥ एकादिक विस ठाण आराधि, त्रिजें भव निकाची । अवधिसंयुत गर) आवी, जनम्या भानु ज्युं प्राची ॥भवि० १॥ तदा सुरासुर सर्व मलीनें, मेरुसिखर न्हवरावें । साठ लाख एक कोडी कलसें, अढीसें अभिषेक थावें ॥भ० २॥ पचविस जोयण ऊंचा कलसा, जोजन एकनुं नालु । इम पूजी स्तवीया बहु भक्ते, ठवी जावें घरें अघ टालू ॥भ० ३॥ अनेक औषधीसंजुत पूज्या, तिम प्रभुभक्ति करिनें । दिक्षाई मनपर्यव लहीनें, अनुक्रमे केवल वरिजें ॥भ० ४॥ सोधि सुगंधि करें तिहां पुढवी, समोवसरण सुरवासें । जोजन एक अढी गाउ उंचा, जिनजी वाणी प्रकासें ॥भ० ५॥ शब्द सातगुण जास वीराजें, अर्थे अठाविस भरिया। वाणी-गुणथी कदीय न निष्फल, देशना गुणना दरिया ॥भ० ६॥ जन्म थकी वर च्यार सोहंता, ओगणिस देवना कीधा । कर्म खपें इगियार भणिजें, ए अतिशय परसिद्धा ॥भ० ७|| द्वादश गुण अड प्रातिहार्यजुत, घनघाती क्षय पावें । जीरण वस्त्र परापचउ(?) सुत्तमें, आयु साथै समावें ॥भ० ८॥ अष्टादश दोष दुर्य निवार्या, प्रथम पंच अंतराया। हास्यादिक षट काम मीथ्यात्व, अज्ञान निंद्रा पलाया ॥भ० ९॥ नमुक्कारी विणवि अविरति नाहि, रागद्वेष तिम गलिया । प्रति प्रदेशथी इम अनंता, टलिया समगुणकलिया ।भ० १०॥ समय अंतर श्रेणि प्रदेशा, फरस्या विण शिव वरिया। त्रयांश नुन्य ते कायना घनसें, सिद्धा अट्ठ गुण वरिया ॥भ० ११॥ नामनिक्षेप श्रीअरिहंत ध्यांने, ठवणा ते तास पडिमा । द्रव्यथी सिद्ध पण अरिहा थासें, भावथी विद्यमान महिमा ॥भ० १२।।
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अनुसन्धान- ७५ ( २ )
मन वच काया शुधिरं आराधो, अन्यत देव सवे छंडी । हरि हर देव मति दुरगतिदाता, सेवें कुंण रढ मंडी ॥ भ० १३ || नागादिक अन्य देव पूजाथी, हिंसा सुगडांग भाषे । संवर द्वारें पुजा जिनवरनी, दशमे सुअंगें दाखें ॥ भ० १४ ॥ ठवणादि सत्य ठाणंगे बोलें, जिनवर कहें पडिमानें । रायपसेणि में सिरिसुधरमा, उवाई समफल दानें ॥ भ० १५ ॥ श्रेणिक दशकंधर मुख भगतें, श्रीओं धूर पद पावें । इम अनेक तरिया जिनभक्तें, पेखत पाप समावें ॥ भ० १६ ॥ देव ते अरिहंत विण नवी नमि, को करें कोड्य उपाया । जीव जीवन देवें जस पुजा, केसरकी तेह बनाया ॥ भ० १७॥
ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय पुरुषोत्तमाय जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमते जैनेन्द्राय जलं १ चंदनं २ पुप्फं ३ धूपं ४ दीपं ५ अक्षतं ६ नैवेद्यं ७ फलं ८ यजामहे स्वाहा ||
इम कही कलस ढाली जावत अष्टप्रकारें पुजा करी, पछे वली पूर्वनी परें नवा अष्टप्रकार लेइ बीजी पूजाने अर्थे उभा रहे ॥
इति प्रथम तत्त्वत्रिके प्रथमपूजा ॥१॥
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दूहा
साधू संजमजूत नमो, भाषें शुद्धगतिमाय । विचरें भवि पडिबोहता, जंगमतीरथप्राय ॥१॥
अथ ढाल:
[प्रभु तें भाषी अंगउवंगें, वरणवसुं तिम रंगें रे, धन धन जिनवाणी: ए देशी ॥] मेधावी आवो मुनिराया, दाखें अनेक उपाया रे, धन धन मुनिराया सुर पण प्रणमें पाया रे धन धन मु० ॥ ए आंकणी ॥ प्राणातिपातादिक पंच, विरमी करणेच्छा संच रे धन० ||१|| टालें यार कषाय त्रिदंड, संजम सत्तर प्रचंड रे धन० ।
षटविध बाहिरभ्यंतर तपसा, पडिमा भावण दोथी विकसा रे, धन० ॥२॥
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सप्टेम्बर - २०१८
सज्झाय सुमति पंच प्रकारें, धरें त्रिगुप्ति वध वारें रे, ध० । वली दोय ध्यानसहित दोय छंडे, राग-द्वेष दूर्ग खंडें रे, ध० ॥३॥ अष्टादश भेदें जे अब्रह्म, टालें अनेषणाश्रम रे, ध०। चारित्र-सीतरीइं नित्य वसिया, सीतरि करणे उलसिया रे, ध० ॥४॥ षटव्रत षटकाय-रखवाला, टालें इंद्रिय लोह चाला रे, ध० । खांतिभावजूत पडिलेहणाइ, करणे विशुद्धता पाइ रे, ध० ॥५॥ संजमजोगसुं मन वच काया, अकुसलाइ घटाया रे, ध० । छुहाइ मरण विउसग्गा, सहिते लहें सिवमग्गा रे, ध० ॥६॥ समरथ , पण समताजोगें, सेंहता सिरि उपयोगे रे, ध० । एह सगविस गुणें अलंकरिया, अनेक गुणना भरिया रे, ध० ॥७॥
----- खाया, गछनायक गरु ठाया रे, ध० । आचारज छत्रिस गुणें आखें, सारणादिकें थीर राखें रे, ध० ॥८॥ सार करें गणनी उवज्झाया, पचविस गुण युवराया रे, ध० । एहवा गुरु नमतां अघ नाशें, कान तीर्थंकर थासें रे, ध० ॥९॥ काल जोगे संजम खप करता, नमिइं आज विचरता रे, ध० । खांत्यादिक निज धर्म अभ्यासें, स्वपर सुद्ध प्रकासें रे, ध० ॥१०॥ विश्व विसंवाद श्रेष्ठ न भाषे, सिद्धांतकार ज्यूं दाखें रे, ध० । सिथल विसेवी कारणरूपें, सरधाई शुद्ध परूपेरे, ध० ॥११॥ शुद्धपरूपक शास्त्रे वखांण्या, त्रिजें मारगें आण्या रे, ध० । संजम हारंता पण टालें, भाषा दोष अघजालें रे, ध० ॥१२॥ इहांथी गुणाधिकसेवी कहीइं, यथायोग्यपणे लहीइं रे, ध० । गिरिमहात्मे वंदनिक जे दाख्या, प्रायें सम्यकसुं आख्या रे, ध० ॥१३॥ आस(सा)यणजोग जैन न लिंगी, यद्यपि भृ(भ्र)ष्ट कुसंगी रे, ध० । कुलिंगिया सिवादिक भक्त, नमिइं न कामें विसक्त रे, ध० ॥१४॥ मीथ्यात्वी मुख सेवना करतां, काल अनंत गयो फरतां रे ध० । जीवहेतें जिनमें सवीगुणधारी, पुजो केसरें नरनारी रे, ध० ॥१५॥
[ ही श्री. पूर्ववत् ॥ इति प्रथम तत्त्वत्रिके द्वितीयपूजा ॥२॥
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अनुसन्धान-७५ (२
२ )
दूहा
केवल भाषित धर्म जे, ते जैन आगममांहि । सुत्र अरथ मुनि भणें, श्रावक अरथ उछांहि ॥१॥
अथ ढालः
[ ए व्रत जगमें दीवो मेरे प्यारे ए व्रत जगमें दीवो - ए देशी ॥] धर्म जिनेश्वर दीवो हो प्राणि, धर्मजिनेश्वर दीवो लोक लोकन पईवो हो प्राणि, धर्मजि० ॥ ए आंकणी ॥
मूल धर्म दोय सूत्रं भेद अनेका, सहुनें अभ्यास न दाख्या । गणधराचार्य उपाध्याय साधु, जैनकल्पि थीर आख्या, हो प्राणि, धर्म० १ ॥ संवेगपक्षी श्रावक व्रतधारी, गतविरति तिम जांणो,
उत्सर्ग में अपवाद प्रमुखा, स्याद्वादें चित्त आणो, हो प्राणि, धर्म० २ ॥ जिम अहिंसक मुनिवर महीमें, कारणें कह्युं रूप हिंसा । चुन्निज्जा चक्कवट्टीसैनं, लब्धिधारी न खिंसा, हो प्राणि, धर्म० ३ ॥ प्रकारांतरें त्युं स्याद्वाद सगलें, अन्यथा एकहिज भाषा । इति -
-- धर्म, योगविण भणें ते लाखा, हों प्रांणि, धर्म० ४ ॥
चमासी अघ वाचना देतां, गृहीने आगम केरी ।
कह्युं निसिथमांहि नंदिसूत्रे वली, जोग वही सुत्त हेरी, हो प्राणि, धर्म० ५ ॥ श्रावकधर्ममें वहें उपध्यान, तिम एकादश पडिमा । एकविस गुणधारी पणतिसा, मार्गानुसारी लहें महिमा, हो प्राणि, धर्म० ६ ॥ गण-पुरवधर दश पर्यांतें, प्रत्येकबुधें जे भाष्यां ।
ते सगलां सुत्रमांहि कहिइं, बीजां प्रकरणादि आख्यां, हो प्राणि, धर्म० ७ ॥ विण जोगें पर (प्र) करणादि भणतां, आसायण कोनें न छापें ।
आसातना जिन आगम करतां, दोनुं वि दुट्ठफल आपें, हो प्राणि, धर्म० ८ ॥ नरग सरग अपवरग जीवादिक, षट द्रव्य वस्तु स्वभावा ।
उत्पाद-वय- ध्रुव धर्म अनेका, आगमथी लहें भावा, हो प्राणि, धर्म० ९ ॥ आज आगम पीस्तालिस कहियां, दश पयनांजूत तेह |
पयनां जिनजी शिष प्रमाणें, प्रायें प्रत्येकबुध एहि, हो प्राणि, धर्म० १० ॥
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सप्टेम्बर - २०१८
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पयनां सुत्रे छे ए अनुमानें, वरते बहु तस जोगा। कुंण कारण शेष सूत्रे न ठवियां, बहुश्रुत तस उपयोगा, हो प्राणि; धर्म० ११ ।। सादिसांतपणे भरतादि दशमें, गणिपीटकनी वाख्या । विदेह पंचें अनादि अनंता, भाव सवें तस आख्या, हो प्राणि, धर्म० १२ ।। तत्त्व एह सहु जैन में वरतें, मुढ मीथ्यात्वी न जांणें । हेमफलभक्षी ज्युं हेम ज देखें, सर्वनें त्युंहि वखांणे, हो प्रांणि, धर्म० १३ ।। जिम फल(ला?)हार नंतकाय उपवासें, - नतां तीरथ लेखें । होली बलेव नोरता इत्य करणी, श्राध ते सर्व उवेखें, हो प्राणि, धर्म० १४ ॥ एहि तत्त्व शुद्ध श्रधा करीने, सम्यक धरम ले तरिया ।। गोयमाइ जीव धर्मनायक पुजो, केसर सुं सिव वरिया, हो प्राणि, धर्म० १५ ॥ __ ही श्री. पूर्ववत् ॥ इति प्रथम तत्त्वत्रिके तृतीयपूजा ॥३॥
दूहा शुद्धि तत्त्वसरधा थकी, तेहy कारण एक । नाण विना कछु नवि लहें, त्रिजग भाव अनेक ॥१॥
अथ ढालः [हारें तुमें भावे पूजो रे मनमोहना - ए देशी ॥] हारें तुमें नाण सेवो भवि प्राणिया, हारे पंच भेद सवे तस जाणिया जी हो,
___ नाण लोयण जगजंतुमें ।। ए आंकणी ।। हारे वली श्रधाविण जे ते अनाण छे, हां रे आदित्रणमांहि भव अकांण , जीहो, ना०
॥१॥ हारे मति उपजें तेह मतिनाणसुं, हारे निज जातिसमरण पण ताणसुं जीहो, ना० । हरि इहां अडविस भेद तस चालणा, हारे अत्थुग्गह इहा वाय धारणा जीहो, ना० ॥२॥ हारे एह च्यारे करण मनसें करो, हारे चउविस चउ वंजण आइ संवरो जीहो, ना० । हरि सूतबलें करी सूत्रगति आवडे, हारे चउदश वली भेद इहां वावडें जीहो, ना० ॥३॥ हारे अक्षर सुत्त सन्नी समकितना, हारे सादि सांत गमिक कालिकना जीहो,ना० ।
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अनुसन्धान-७५(२)
हरि सवे सूत्तना प्रतिपक्षी कीजिइं, हारे इम चउदश विस पण लिजिइं जीहो, ना० ॥४॥ हारे अवधि उपयोग ओहीनाणथी, हारे भेद असंख्य षट सामानथी जीहो, ना० । हरि अनुगामि वढमाण प्रतिपातिमें, हारे करतां इतर षट तस जातिमें जीहो, नां० ॥५॥ हारे मनना भाव लहे मनपर्यवी, हारे नुन्याधिक मानुषोतर मध्ये सवी जी हो, ना० । हारेरजूमति विपुलमति होय भेदछे, हारे केवल एकपण सहुथी अभेद,जीहो, ना० ॥६॥ हारे इम एकावन भेद एम जांणिइं, हारे मन हीणें आदि दो अनाण मांणिई जीहो ना० । हारे सुर निरयगतिइं तिन तिन छे, हारे गब्भ तिरी नरें पुन्य आधिन छे जीहो, नां०॥७॥ हारे पण मानुषमांहि पंच पामिई, हारे तस अंतराय उद्यमें वांमीइं जीहो, नां। हरि उपगारी स्व पर सुत्त एक छे, हरि हाल में इहां एह अंत छेकछे जीहो, ना० ॥८॥ हारे अष्टादश लिपी सुत्त द्रव्यनी, हारे तास बोधता भाव सुत्त सर्वनी जीहो। हरि नमें सुधर्मा पंचमां अंगमें, हां रे द्रव्य सुत विभाव असंग में जीहो, नां० ॥९॥ हारे देशदोषि क्रियाहीण एहमें, हारे नांणहीण ते दोष अछेहमें जीहो, नां। हारे द्रव्यअभ्यासें सवें भावनें वरें, हारे खेद विण महातुष परें करें जीहो, नां० ॥१०॥ हारे च्यार पुरव रहें अभिमानसुं, हरि थूलीभद्रनें वारें एह सानसुं जीहो, नां०।। हारे समभावें आसातना टालीनें, हां रे सेवो स्वपरसिद्ध संभालिने जीहो, नां० ॥११॥ हारे भवकोटी तपें अघ ना टलें, हारे ग्यांने खिण धर्ममांहि जेतुं गलें जी हो, नां० । हारे जग में जेजे भाव प्रकासिया, हां रे ते ते नाण विना न विकासिया जी हो, नां० ॥१२॥ हारे एह नांण सेवी नाणने वर्या, हारे वरदत्तादि जीव सिवें धव कर्या जीहो, नां० । हारे तेह माटे पुरणनाणी पूजतां, हां रे केसरसुं ते अघ जाय ध्रुजतां जीहो, नां. ॥१३॥
ई ही श्री. पूर्ववत् ॥ इति द्वितीय तत्त्वत्रिकें प्रथम पुजा ॥४॥
दूहा इहां सरधा कही ते सुणो, पुरव तत्व प्रतीत । तेंणेथी दरसण अनुभवी, लहें वली अक्षय वीत ॥१॥
अथ ढालः [तमे आगमपुजा करजो रे हो मनमान्या मोहनिया - ए देशी ॥] हरि दरसण पद बहु सुखदाई रे सुणजे आतम अलबेला । ए आंकणी ।
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सप्टेम्बर - २०१८
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गत काल अनंत विण पाइ रे सुं० । भमियो तुं मीथ्यातनी साजें रे सु०, त्रणसें में तेतालिस राजे रे, सुं० ॥१॥ वालाग्रमीत नवि छोडी रे सुं०, वय उत्पत्ति सगले जोडी रे, सुं० । एकेकीइं वार अनंति रे, सुं०, होय दरसनथी तस शंति रे, सुं० ॥२॥ अनादि मीथ्यातना वासी रे, सुं०, कोटा कोटीमांहि भवरासी रे, सुं० । सग कर्म-थीति इहां लावेरे, सु०, पुन्योदयें ग्रंथी ते पावें रे, सुं० ॥३॥ जब पावें तब सग पगइ रे, सुं०, उपसमी उपसम होय सुगइ रे, सुं० । एह भेदे ग्रंथी विकारा रे, सुं०, अन्य उपसमश्रेणि विच्यारा रे, सुं० ॥४॥ पंच वार को भवमें लाधे रे, सुं०, अंतरमहुरतें सहु साधे रे, सुं० । खय उपसम सगथी खयोपसम रे, सुं०, वरे वार असंख टलि विभ्रम रे, सु. ॥५॥ बासठ सागर [अ]धिक थीति रे, सुं., जघनांतरमहुरत प्रतीति रे, सुं० । क्षय करिइं जब तब खायक रे, सुं०, सादि[अनंत अद्धा लायक रे, सुं० ॥६॥ पण खायकें इह भव च्यारा रे, सुं०, पूर्वबंधित आयु प्रचारा रे, सुं० । सगमें चउ प्रथम कषाया रे, सु०, त्रण मोहनी एह भव पाया रे, सुं० ॥७॥ तासोदय टालिने इलिई रे, सुं०, एह दरसण समझणे भलिई रे, सुं० । तुछबुधिइं जिनवरवाणी रे, सुं०, सवी सत्यपणे धरें प्रांणी रे, सुं० ॥८॥ तेहने पण समकित साचूं रे, सुं०, जस मिथ्याई चित्त न माच्यु रे, सुं० । इहां सडसठ बोल सोहाया रे, सुं०, जे पाया ते मानमें आया रे, सुं० ॥९॥ उकोसय अरद्ध पुगलमें रे, सुं०, सवी लोकें ज्युं रेहा कर जलमें रे, सुं० । एह समकित विण सहु थोथां रे, सुं०, जिम चावलहीण रहें फोतां रे, सुं० ॥१०॥ पण सय एकादश गज समरे, सुं०, मसिपुंजे लिखियुं अन्यन्य ब्रह्म रे, सुं० । धरें एतलुं पण अगन्यानि रे, सुं०, जो समकितनी न सें नानि रे, सुं० ॥११॥ चारित्र चरें तेह जूळू रे, सुं०, जुओ जमालि]जिनें सुं तुर्छ रे, सुं० । लंपट सतकीइं जिनभाषी रे, सुं०, वांणी तहत करी चित्त राखी रे, सुं० ॥१२॥ तेह तीरथंकर पद पासें रे, सुं०, सरधाई [अ] नंत थया थासें रे, सुं० । एह सुंणि करण जीव करसुं रे, सुं०, पुजो दरसनी केसरसुं रे, सुं० ॥१३॥
भू ह्रीं श्री० पूर्ववत् ॥ इति द्वितीयतत्त्वत्रिके द्वितीय पुजा ॥५॥
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अनुसन्धान-७५(२)
दूहा
एह तत्त्व तरुमुल जसां तरुसम चारित्र जोय । सर्वथी देशथी सेवता, साधु श्रावक होय ॥१॥
अथ ढाल:
[नांणपद भजिई रे जगतसुहंकरु - ए देशी ॥] चारित्र सेवो रें चतुर चिंतितमणी, जेहमें गुण छें अनंता रे । सामान्यें सित्तेर ते दाखिया, सत्तर पण इह गुणवंता रे,
चारित्रसेवोरे चतुर चिंतितमणी ॥ १॥ ए आंकणी ॥ सर्ववीरतिना रे पंच प्रकार छें, पुलाक बकुस पडिसेवा रे । कुसिलमें कषायकुसिल वली, निग्रंथ सनातक देवा रे ॥चा० ॥२॥ पहिला त्रण गुणठाण नवम सुधि, सराग पर्यंतनें साधें रे । संजम कषायकुसिलवंत जें, निर्ग्रथ अग्र दोयें लाधें रे ॥चा० ॥३॥ स्नातक तेरमें चउदमें केवलि, निर्ग्रथ कषाय चउ जाव रे 1 नाण अवधि सुधित्रण जे धुरना, पांमें ते चरण प्रभाव रे ||चा० ||४|| संजम पंच इहां वली भाषियां, तेह सामायक प्रमुख रे ।
त्रण नियंठा रे एहमें होय तां, कषाय चतुर सनमुख रे ||चा० ||५|| छेहला होय ते पंचम चरणमें, महाविदेहें पंच राजें रे । इहां हाल बिजुं त्रिजुं होय छें, पुलाक तो पुरव साजें रे ॥चा० ॥६॥
दोय अंत टालि रे जहन सुधर्म लहें, उकोसय धूर सहसार रे । बकुस पडिसेवा रे बारांत कषाय जे, उतर निर्ग्रथ एहि धार रे ||चा० ||७|| एक भावें रे स्नातक सिव वरें, विराधितव्रत असुराइ रे ।
कहें सुधर्मा रे अंग ते पंचमें, वली संजम जे अवराइ रे ॥ चा० ||८|| सामायक धूर पछिम दोय मली, त्रण ए विदेहें सदाई रे । आ कालें दोय धूरनां इहां लहो, दशमें पणमें तुलाई रे ॥० ॥९॥ देशचारित्र रे दश दोय व्रतसुं, तेहना अनेक प्रकार रे । देशविरति पंचम गुणठाणमें, उकोस अचुत ओही सार रे ॥ चा० ||१०|| जहन सुधर्मा रे समकित बंध ए, विरति महद फल आपें रे । जिम द्रुमकनें रे कमल सेठनें, संजमि संगें तेह व्यापें रे ॥चा० ॥११॥
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सप्टेम्बर २०१८
साधुजननी रे संमतिथी वर्या, चारित्र लही निखाण रे । अक्खय चरणधर पुजो ए जीवतां, केसर सुं ते जगभाण रे ॥चा० ॥१२॥
ह्रीं श्रीं पूर्ववत् ॥ इति द्वितीयतत्त्वत्रिकें तृतीय पुजा ||६||
पत्र विना तरुवर किसो, तेणें संवर इहां जांणि,
*
दूहा
न टलें कोनें उताप । संवरें अघसंताप ॥१॥
अथ ढालः
[त्रिजी द्रष्टी बला कही मनमोहन मेरे - ए देशी ॥]
संवर तत्त्व सोहामणुं धर संवर प्यारे,
सत्तावन जस अंस धर संवर प्यारे । ए आंकणी ॥ चरण संगें होवें सदा, ध०, हरे पाप ताप भवांस, ध० ॥१॥ इरिया भाषा एषणा ध०, आदान निखेवण सार ध० । परिष्टापनका तिम वली ध०, पंच सुमति कर प्यार ध० ॥२॥ मन वच काया गोपवी ध०, अघथी, तिगुपति मुंण ध० । बाविस परिसह जीपवा ध०, क्खुहा पीवासा सीउंण ६० ॥३॥ डांसा वस्त्र अरतिनो ध०, विषया विष विहार ध० । सज्झाय भूमिसज्जातणो ध०, आक्रोस वध प्रहार ध० ||४|| जाचना अलाभ नें पीडा ध०, तरणादिकनो फास ध० । मल सतकार प्रज्ञा वली ध०, अज्ञान समकितवास ६० ॥५॥ जीपी एह धरो खांतिनें ध०, मार्दव आर्जव मुत्ति ध० । तप संजम सत्य सौचसुं ध०, अकिंचन बंभगुत्ति ६० ॥६॥ दश ए यतिधर्म धारिइं ध०, भावण तिम दश दोय ध० । अनित असरण भवतणी ध०, एकत्व अन्यत्व जोय ध० ||७|| असुचि आश्रव संवरि ध०, निर्जरा लोकस्वभाव ध० । बोधिदुर्लभ धर्मनी ध०, भावतां टलें विभाव ध० ॥८॥
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अनुसन्धान- ७५ (२)
चरण सामायक सिचीइं ध०, छेदोपस्थापन आय ध० । इहां परिहारविशुद्धि दो ध०, चोथुं सूहमसंपराय ध० ॥ ९ ॥ यथाख्यात तिम पांचमुं ध०, एह संवर परकार ध० । जेथी आश्रव रोकिइं ध०, तेह संवर निरधार ध० ||१०|| एह संवरने सेवता ध०, टालि कर्म आताप ध० । जीव साधु नंत सिव गया ध०, पुजो केसरसुं ते आप ध० ||११|| ह्रीँश्रीँ० पूर्ववत् ॥ इति तृतीयतत्त्वत्रिकें प्रथम पूजा ॥७॥
*
दूहा
कर्म निरजरे निरजरा, जेहना द्वादश रेह । एह तरुइं कुसुम जिसा, जास सुगंध अछेह ॥१॥
अथ ढालः
[अनि हां रे वाहलो वसें विमलाचलें रे - ए देशी ॥] भवियां रे निरजरा ते तप सेवीइं रे, जेहना छे बारह भेद । षटविध बाहिर षटभ्यंतर बली रे, सामान्यथी एह संवेद ।
निरजरा ते तप सेवीइं रे ॥१॥ ए आंकणी ॥ भवियां रे अणसण दोय अणोदरि रे, व्रतीसंखेवण रसत्याग । कायकिलेस करणादि गोपना रे, एह बाह्य तप करो याग | नि० ॥२॥ भवियां रे अपराध शुद्धि विनय करो रे, वेयावच सज्झाय झांण । उत्सर्ग एह अभ्यंतरतणा रे, धूरथी कहुं भेद विनाण | नि० ||३|| भवियां रे अपराधशुद्धि दशविध कही रे, विनयना सात प्रकार । नाण दंसण चरण जोगनो रे, सातमो तिम लोकोपचार | नि० ||४|| भवियां रे नांणनो पंच परकारसुं रे, दरसननो दुविह जोय । चरण त्रिविध विनय आदरो रे, मनादि जोगें दोय दोय | नि० ॥५॥ भवियां रे सातमो सात विनय करि रे, सेवो वेयावच दश भेद । पंचविधानें सज्झाय सेवीइं रे, दोय ध्यान वारी दो विभेद | नि० ||६||
T
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सप्टेम्बर
भवियां रे उत्सर्ग ते त्याग कीजिइं रे, द्रव्यथी ना च्यार भाग । भाव उत्सर्ग ति नांसि भण्यो रे, दिझं अभ्यंतर सिवमाग | नि० ॥७॥ भविया रे एकेकें भेद अनेक छें रे, तपना पण बाह्यथी होय । अनंतगुणि सुविशुद्धता रे, तेह अभ्यंतर तपें जोय । नि० ॥८॥ भवियां रे एह अभ्यंतर तप सेवता रे, भरत बाहुबली मुनि थाय । एवि बाह्य तपथी सुं फलें रे, विराधकभाव न जाय । नि० ॥९॥ भवियां रे सेवी सवें तप नांणसुं रे, निरजरिया कर्म अनंत । जीव लहें सिवसंपदा रे, पुजो केसरें ते भगवंत । नि० ||१०||
नहीँ श्रीँ० पूर्ववत् ॥ इति तृतीयतत्त्वत्रिकें द्वितीयपूजा ॥८॥
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२०१८
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दूहा
मोक्षफलित एह पुफसें, जैन कलपतरू सार । एहि तत्त्व फल मुखथी, नव जस भेद उदार ॥१॥
अथ ढालः
[ सिद्धचक्र वर सेवा कीजें, नरभव लाहो लिजें जी रे ॥ अथवा मारा प्रभु साथें जो प्रीतिकरो तो, नारी संग निवारो जी रे - ए देशी ॥] मोक्षतत्त्व नवविद्ध छे शास्त्रे, सूणजो लेश विचाराजी रे । विद्यमान छें खपुफवत नहि, छें वली दाखणहारा, प्रणमी पुजो जी रे । तत्त्व ए जग आधार, पण नवि दुजोजी रे ||१|| ए आंकणी ॥ एह पण तत्त्व इहां हि ज पावें, अड दोय मार्गणा मांहे जी रे । सिद्धसिला उपर तस वासो, तेहना भेद ए आहि । प्र० ॥२॥ जीवद्रव्य जोतां सहु सिद्धमें, प्रतिप्रदेशें अनंता जी रे । सर्वलोक असंखित भागे, रहिया रेहेसे भदंता प्र० ||३|| सिद्ध फरसा आकाश प्रदेशा, चोफेर एकेक अहिया जी रे । सादि अनादि अनंत अद्धा तां, एक अनंता रहिया । प्र० ||४|| अंतर हीण सिद्ध ते कहीई, इहागमन अभावेंजी रे । सर्वजीवने नंतमें भागें, जोतां सिद्ध सभावें । प्र० ॥५॥
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अनुसन्धान- ७५ (२ )
ग्यांन दरसन क्खायकभावें छें, परणामिकनुं जांणोजी रे । जीवित सर्व सिद्धनुं मुणिई, अल्प बहुत्व वखाणो | प्र० ||६|| कृत नपुंसक सिद्धथी इत्थी, संख्यातगुणि सिद्धि जी रे । तेहथी संख्यगुण नर पण लहिइं, सिद्ध में सम हि ज रिद्धि ||प्र० ||७|| एह सिद्धमें नहि मोटा छोटा, राजा रंक नें इत्थी जी रे ।
नर नपुंसक बाल वरद्धनें, नहि तिहां नगर ने विथी ॥ ० ॥८॥
सुक्षम बादर सपज्ज अपज्जा, त्रस थावरपणुं नांहि जीरे । इंद्रिय प्रांण प्रमुख कर्म ज्यांहि, अनंत चतुष्टय त्यांहि ॥ प्र० ||९|| ग्यांन ध्यांन किरिया तप सेवें, जीवा संख एहि कामें जी रे । पुजो ते तत्त्वधरा केसरसुं, भाजें ए सवी दुक्ख नामें ॥ प्र० ||१०|| नहीँ श्रीँ० पूर्ववत् ॥ इति तृतीयतत्त्वत्रिकें तृतीयपूजा ॥९॥
१६०
*
अथ कलशनी ढाल
[तुठो तुठो रे मुझ साहेब जगनो तुठो - ए देशी ॥] गायो गायो रे भलै जैन कलपतरु गायो । सय पणयालिस गाथा करिनें, सुरतरु जैन कहायो रे भलें जैन कलपतरु गायो ॥१॥ ए आंकणी ॥
तत्त्वभंग भणतां भवमांहि, पार कदीय न पायो । पण तुछबुधिरं नाम ज कहिनें, जिनशासन ओलखायो रे भ० ॥२॥ समकिति सरल दोनुं नरनारी, दो भव हित निपायो । अभ्यासि ओलखी जैन तत्त्व, पुजो बहु सुखदायो रे भ० ॥३॥ विधिशुद्ध राग अह फलदाइ, दो अनुष्ठानें ठरायो ।
अन्यथा भवफल लेखें न कहीइं, समजी चित्तमें लायो रे भ० ||४|| मांड्यो तब ए मनोरथ पुर्यो, प्राये पास अधिष्ठायो ।
जब पच्छिम रयणि त्रण डंका, देहरासरमांहि थायो रे भ० ॥५॥ भनु नंद चंदंवरषें आदि, दीपाली पक्षे पुरायो ।
सिंह सुरि सुंनु सत्यविजयो, कपुर खेमा जिन जायो रे भ० ||६||
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सप्टेम्बर
उत्तम गुरुपद रूप अनोपम, कीर्तिविजय जीव ध्यायो ।
तास शिष गणि केसरविजयें, ए अधिकार बनायो रे भ० ||७||
अथ कलसः
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इम जैन शासन शुद्ध भासन आदरें ऊलट धरी भवदुक्ख कापी जगतव्यापी लहेसूं ते सिवकरी ॥१॥ में पासचरणा पापहरणा सेवतां चउमासमें
त्रिक तत्त्वपुजा हरण रुजा रचि भगवइसार में ॥२॥ निजरूप लेवा जगतदेवा स्थूणां कीरतिजीववरें नवसारिइं जस केसरे ओली मासमें पूजा करें ॥३॥ इति त्रण तत्त्वनी पूजा समाप्ता ॥
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१६१
अथ विद्धि, प्रगट, परं किंचित् लिख्यते ॥ प्रथम आसातना टाली सर्वे ठेकाणें बाहिर ने मांहि धूप उखेवी पछें त्रगडें प्रभू नव तथा त्रण तथा एक पधरावी स्नात्र भणावी तेहनी आगळ मेवा फलादिक सर्व त्रण त्रण वस्तु जघन्यथी सत्ताविस तो ढोकवी ज, अथवा एकासी, अथवा मलें ते सर्व नव नव । अने उत्कृष्टी केहवा मात्रथी तत्त्वत्रिकमां गुणभेद गणिनें तेली वस्तू सर्व नव नव लावें । यथा अरिहंत पदें १२, साधुपदे २७, धर्मपदें ४८, नांणपदें ५१, दर्शनपदें ६७, चारित्रपदें ७०, संवरपदें ५७, निरजरापदें १२, अने मोक्षपदें ९, सर्व मली ३५३ वस्तु नव नव ढोकीइं । जे माटें नैवैदपूजा श्रीश्राद्धविधिमें नित्य करवि कीधी छें, महाफलंदाइ छें । अने नकरो पण यथाशक्ति त्रण सोनानाणुं वा रूपानाणुं, त्रण अर्धा पण मुंकवा । शक्तिई नव नव मुकवा । अने जिहां थालना चाल होय ते ए नैवदादिकना नव थाल करी मांहि नाणुं मुंकी पुजादीठ ते लेइ उभो रहें । अनें प्रभूनी पूजानें अर्थे अष्ट प्रकार मेलवी नव तथा त्रण, अणहुंतें एक पण कलस धारी पुष्पचंदनादिक आठें वस्तु कलसनी जोडें थालमां लेइ उभो रहें । परं बीजो कोय न होय तो । अनें होय तो बीजो पूजानी वस्तुनो थाल लेइ कलसधारी सामे उभो रहें । पुजादीठ कलश ढाली अंगलुंणुं करी ओ पुजानी वस्तुनो थाल लेइ उभो होय तेमाथी लेइ अष्टप्रकारी पूजा करें। बीजी पूजाई पाछो बीजो सामान नवो लेवो । अनें जो इंद्राणिओ करे तो गाजते वाजतें बडे आडंबरें इंद्राणीओ थइ होय
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अनुसन्धान-७५(२)
ते प्रभुपुजानें अर्थे रकेबीमां ढांकीने अष्टें प्रकार लेइ आवें । ते इंद्र लेइ उभा रहें । इम पुजा दीठ । पण छेहडें अधिक भक्ती करवी । अनें पुजा थयें जे दीपक करें ते सर्वे पूजा यावत् नवें साचववा । इति विद्धि । अविद्धिनो मिच्छामि दुक्कडं ॥ श्रीरस्तु कल्याणमस्तु ।
केटलांक शब्दो मेवाम्रादिक - मेवो, आम्रफल वगेरे नुन्याधिक - न्यूनाधिक मुणिगुणसमि - २७
रजूमति - ऋजुमति उकोसय - उत्कृष्टथी
महातुष - माषतुष मुनि गनेय - ज्ञेय
वय - व्यय-नाश तत्त्ववरगसम - ८१
फोतां - फोतरां आसायण - आशातना
अन्यन्य - अनन्य विस ठाण - वीशस्थानक
अगन्यानि - अज्ञानी दुर्य - दूर
सतकी - सत्यकी विद्याधर नुन्य - न्यून
जहन - जघन्य सुगडांग - सूत्रकृताङ्ग नामे आगमग्रन्थ सीउंण - शीतोष्ण दशकंधर - रावण
डांसा - डांस-मच्छर श्रीओं - पांच परमेष्ठी
संवेद - जाणो सुमति - समिति
खपुफवत - आकाशकुसुमवत् कान - श्रीकृष्ण
अद्धा - काळ सिथल - शिथिल
इत्थी - स्त्री गिरिमहात्मे - 'शत्रुजयमाहात्म्य' ग्रन्थमां अधिष्ठायो - अधिष्टायक देव
नोंघ : आखी रचना जैन धर्मसम्बन्धित धार्मिक अनुष्ठानपरक छे. तेमां जैन नव तत्त्वोनुं विस्तारथी वर्णन छे, तेथी घणा बधा शब्द शास्त्रोक्त परिभाषाना छे, जे तत्कालीन बोलचालनी भाषामां अपभ्रष्ट रूपे ढांळेला छे. ते बधाना अर्थ अहीं आप्या नथी. केमके ते माटे घणो अभ्यास करवामां आवे तो ज वाचकने ते परिभाषा समजमां आवे.
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केटलीक हरियालीओ
सं. - उपा. भुवनचन्द्र
'हरियाली'ए प्रहेलिकाना एक सुविकसित प्रकाररूपे कविजगतमां स्थान मेळवेलुं - ए तथ्य, हरियालीनी उपलब्ध थती हस्तप्रतो परथी तारवी शकाय छे. उत्तम कक्षाना विद्वान मुनिवरो तथा कविओए हरियाली पर हाथ अजमाव्यो छे. केटलीक हरियालीओ पर बालावबोध रचाया छे. एक ज कविनी रचेली हरियालीओनो संग्रह करेलो होय एवी हस्तप्रतो पण मळे छे.
कोई एक ज वस्तुने विषय बनावी ५-६ के तेथी वधारे कडीओनी हरीयाली रचाय छे. दरेक कडीओमां भिन्न भिन्न प्रश्न होय एवी हरीयाली पण होय छे. कोई कोई हरीयालीमां कडीना प्रत्येक चरणमां नवा नवा प्रश्न गूंथाया होय छे. आवी हरीयाली मोटा भागे तात्त्विक / आध्यात्मिक विषय धरावती जोवा मळे छे.
विविध ह.लि. ग्रन्थोना भण्डारोमांथी अमने सांपडेली थोडीक हरीयालीओ सम्पादित करी अहीं रजू करी छे. अभ्यासी जनोने ते जरूर आनन्द आपशे. ज्यां उकेल नथी मळ्यो त्यां [ ] कौंस खाली राख्यो छे.
सद्गुरु पदपंकज प्रणमीनई, कहिस्युं एक हरियाली; मास पांचनी अवधि विचारी, अरथ कहो संभाली;
रे पंडित, कहीइं अरथ विचारी; वात विचारीनई कहस्य, तास बुद्धि जगि सारी रे,
रे पंडित० १ गुणवंतइं एक नर नीपायो, चरण नंद तस दीसइं; हाली-चाली तेह न जाणइ, सांभलतां मन हींसइ,
रे पंडित० २ महाव्रत संख्या स्वामी सिर परि, बिहुं स्वामी छइं सरिखा; सेव्य-सेवक भेदई करी जूदा, शिवनेत्र पुण्यई निरख्या,
रे पंडित० ३
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अनुसन्धान-७५(२)
वरणसंस्था जो तेहनी कहिई, दीसइ साठि ने आठ; हूस्व-दीरघ इगसठि साते, पंच वरणनो ठाठ,
रे पंडित०४ पांडव संख्या कहो सी कहीइं, गुरुने किम कही नमीइं; पृथवीसुत नामिइं अनुभवीइं, परममित्र इम स्तवीइं,
रे पंडित० ५ भाव धरी भवियण आराधई, ते होइं शिवगति वासी; वाचक जयसौभाग्य नितु भजतां, सिद्धि लहे शाबासी,
रे पंडित०६
[नवकार मन्त्र]
अचलसुतापति तसु रिचिइं रे, रिपुधा कंत वखाणि; तसु रिपु भज्जा नाम छइ रे, तसु प्रथमाक्षर जाणि, गुणियण सेवउ सुह गुरु पाय, तसु नामई दुरित पलाइ, जसु जपतां सिवसुख थाइ...
गुणि० १ तसु सह नामइं जे अछइ रे, तासु तणउ मल्हार; तसु नामई मन उल्हसइ रे, पामउं हरख अपार गुणि० २ वनरिपु तसु रिपु तेहनी रे, धूय तणा तनुवान; महियलि महिमा महमहइ रे, धइ इन्द्रादिक मान गुणि० ३ समुद्रसुतासुततनु तुलई रे, निर्मल दीपइ जासु; अखंड कीरति छइ तेहनी रे, कीधउ अतिहि प्रकास गुणि० ४ जासु नाम प्रगटउ जगि रे, हेलिइं जीतउ मार: संजमसिरि सहजई वरी रे, तरिया भवसंसार गुणि०५ सहगुरु दीठइ ऊपजइ रे, हरि सिरि जेणि सोभंति; ए गूढारथ तिणि कीयउ रे, पंडितजण बूझंति
गुणि०६
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सप्टेम्बर
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ऋषि हापराज इम वीनवइ रे, ए गूढारथ गीत, साधु तेय सूध सदा रे, अवर न बइसइ चीति
गुणि० ७
(सागरचन्द्रसूरि ज्ञानभण्डार, पार्श्व ग. सं., खम्भात, पो. ७२/ प्र. ११२९) [
1
( ३ )
जण - जण सउं पाणिग्रहण करती, निरती जे जगि दीसइ रे; बेटी षट बेटी तिणि जाई, सील प्रमाणि सई रे, १ कहि न विदुर नर एह कुण नारी, चाचरि चुहटइ जाई रे; पवण पउहर उरवणि धरती, निरउती ते जगि दीसई रे, २ चलणविहूणी दोइ कर चालइ, बिहुं पक्षि पूरी सोहइ रे; एइ हीयाली जोउ रे निहाली, हाली हेलां जाणइ रे, ३ ए न कह्या विण मूरख पंडित, मुहियां मनि गर्व आणइ रे....
[
१६५
(५) राग : असाउरी
(8)
रुधिर विना जे मांस कहीजइ, पंखी प्राणह पाखइ, सात-पंच जउ एकठ थायइ, तउ सरव अपूछउ भाखइ रे १ एह हीयाली अर्थ ज आवइ, तेह मांहि च्यार विशेषइ रे, दान - शील- तप-भावना नइ, धर्मवंत धर्म देखइ रे एह० २ सीतल-उष्ण तणी संति छइ, चरण विहूणउ चालइ रे, . ऊजल-कृष्ण व[र]ण सोभइ, अढी द्वीप मांहि माल्हइ रे एह० ३ श्रीपासचंदसूरीसर पय नमी, विजयदेवसूरि भाखइ रे; त्रीस दिवस लगी अरथ विमासी, पंडित विणु कुण दाखइ रे एह० ४
[
]
कहु पंडित कुण नारी कहीइ, गामि गामि ते प्राहीइ लहीइ; कहु० निरमल जलि ऊपन्नी नारी, जनमकालि हुइ अति सारी कहु० १
]
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अनुसन्धान-७५ (२)
बाप हणंता बेटी जाई, जातई निरमल ते नीपाई; कहु० २ वड-वडाऊआ सुं संग करती, बापि नीपाई जनदुख हरती, कहु० ३ पाणिग्रहण करइ जव नारी, रूपहीण तब थाई बिचारी, कहु० ४ कवि कहइ ये एहना गुण जाणइ, लाज मूंकी तेहनइं घरि आणइ; कहु०५ [
( ६ )
एक पुरुष छइ रूअडउ, सखी चिहुं नारी वरिउ रे, वरीउ नइ परवरीउ चिहुं पुत्रसुं ए;
एक पाहि बीजु बिमणु सखी डुटउ रे,
डुटउ नि लहुटउ सविहूं आगलू ए. १ दूरि देशांतर ऊपनु पूरवई काया तेहनी मोटी रे,
मोटी नइ खोटी वात नवि उच्चरइ ए. २ वदनविहृणु कुंअर मुखि बोलइ, पायविहणु पंथ चालइ रे; चालइ नई हालइ परनारी मिल्यु ए; ३
लावण्यसमय कहि हीआलडी, सखी ये नरवर कहस्यइ रे; कहस्यइ नई लहस्यइ लील ते घणी ए. ४
(७)
इक नान्हडली कामिनी, तसु नाह छइ मोटउ; कामिनी कहि तितिम करइ, मनमां नहीं खोटउ; परघरमांहि कामिनी, खात्र देवा पइठी;
[
तु दीठी निज नाहलइ, तु भीमांहि पइठी; इक० ते पापणी नासि गई, निज नाह बंधाई;
वली कीधु बीजु नाहलु, तुहि लाज न आई, इक० ३ धनहर्ष पंडित इम कहइ, कहु ते कुण नारी; अरथ विचारी ये कहइ, तेहनी मति सारी;
इक० ४
]
]
[ ]
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सप्टेम्बर
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(८)
राग : असाउरी
पु० १
पुरुष नपुंसक नामि निसुण्यु, पंडित कहु कुण कहीइ रे, अरथ ऊकेली आपु एहनु, नहीतरि गर्व न वहीइ रे, नयन-नाक- दंत-मुख न केसह, हाथ-हीउ काय पाखइ रे, अकल सरूप कहिउ नवि जाइ, खट नारी रस चाखइ रे, ठामि ठामि भमतु नवि भाजइ, रहई लिखमी घरि वासु रे, पभणइ प्रीतिविमल भाई पंडित, एहनउ अरथ विमासु रे, (गणेश रंगसुंदर लिखितं श्रा. कान्हबाई पठनार्थं ।)
पु० २
पु० ३
[
( ९ )
एक पुरुष छइ सहजिरं सुंदर, वर्णइं श्वेत कहाइ; नारि मनोहर साथ लीधी, कइयइ विरहउ न थाइ, १
विदुर विचारज्यो हो, एहनउ अरथ कहउ लहि लाव; अडसठि छोरू तेहना हूआ,
अर्द्ध न भेटी माव, विदुर०
नर-नारीसउं छेहडा बांध्या,
कहियइं बाल कुंआरि;
तिणि नारी ते पुरुष न दीठउ,
पुरिषि न दीठी नारी, विदुर० ए बेवइ ब्रह्मा नीपाया, जोवउ जगनी रीत, तेहनइ बेहइ ब्रह्मा जायउ,
बेटी मधि गावइ गीत, विदुर०
जि नर-नारी एहनइ वंचई,
ते पामहं शिवराज; वरस पंच की अवधि कही छइ, अथवा कहिज्यो आज, विदुर०
१
३
१६७
]
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अनुसन्धान-७५(२)
इति हीयाली गीतं. कृतं वा० हर्षचंद्रेण ॥
(खं. पार्श्व. ग.भण्डार, २/७२/११२९)
(१०)
हरीयालीरूप महावीर स्तुति ऊठी सवेरे सामायिक लीधुं, पण बारणुं नवि दीधुं जी, काळो कूतरो घरमां पेठो, घी सघळु तेणे पीधुं जी. ऊठो वहुअर आळस मूको, ए घर आप संभाळो जी, निज पतिने कहो वीरजिन पूजी, समकितने अजुआळो जी. बडे बिलाडे झड़प झडपावी, उत्रेवडी सवि फोडी जी, चंचल छेयां वार्या न रहे, त्राक भांगी माल तोडी जी; ते विण ए रेंटीओ न चाले, मौन भलु कुने कहीए जी, ऋषभादि चोवीश तीर्थंकर, जपीए तो सुख लहीए जी. २ घरवासीदुं करो ने वहुअर, ओजीसाळु टाळो जी, चोरटो एक करे छे हेरां, ओरडे द्यो ने ताळो जी; लबक्या प्राहुणा चार आवे छे, ते ऊभा नवि राखो जी, शिवपद सुख अनंता लहीए, जो जिनवाणी चाखो जी. घरनो खूणो कोल खणे छे, वहू तुमे मनमां लावो जी, पोढे पलंगे प्रीतम पोढ्या, प्रेम धरीने जगावो जी; भावप्रभ कहे नहीं ए कथलो, अध्यातम उपयोगी जी,
सिद्धायिका देवी सान्निध्ये, थइए शिवपद भोगी जी. ४ (बारj - संवर. कूतरो - मिथ्यात्व. घी - धर्म. आळस - अनुपयोग. पति - आत्मा. बिलाडो - कामदेव. उत्रेवडी - नव वाड. छैयां - इन्द्रिय - नोइन्द्रिय. त्राक - शुद्ध उपयोग. माळ - क्रिया. रेंटीओ - धर्म. वासीदुं - अतिचारनी शुद्धि. ओजीशाळु (कचरो) - दुर्ध्यान. चोर - मोहादि विभाव. ओरडो - स्वभाव. ताळ - शुभध्यान / प्रत्याख्यान. खूणो - आयुष्य. लोक - काळ. प्राहुणा - चार कषाय. पलंग - प्रमाद.)
१. आ रचना प्रसिद्ध अने प्रकाशित छे.
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( ११ )
अजब तमासा देखा संतो, गातें सुहणा पाया है, कीडीने जो कुंजर गलीया, दरिदं गगन डुबाया है; ऊंदरने जो बिल्ली मारी, काल मड़ेने खाया है, 'मींडव आगलि मणिधर नाचइ, सबने छाबई छाया है; आंख छती अपना घर भूला, अंधला अपने जागा है, कपड़े पहिरे पट जा बइठा, राजा ठाढा नागा है; कूप तलइ पाणी वहि ऊपरि, जल मांहि आगि जलावे है, मुख विण आहार करइ मयल का, कर विन ढोल बजावे है, पाय विना परवत पर दोडइ, कंठ विना जो गावे है; दास गोपाल मसी के लोचन, कुंजर को समावे है.
* * *
१. मेडक - देडको । २. आ रचना कोई जैनेतर कविनी जणाय छे.
१६९
[?]
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अनुसन्धान-७५(२)
गूढा - प्रहेलिका - समस्या - हरियाली (३)
सं. - उपा. भुवनचन्द्र
हस्तलिखित ग्रन्थभण्डारोमां प्रकीर्ण पत्रो मोटी संख्यामा प्रायः होय छे. छूटा पानां/चिठ्ठीओमां कर्ताए अथवा संग्रह करनार पोताने जोइती वस्तुओ - स्तवन, सज्झाय - दूहा-पद-शास्त्रीय के ऐतिहासिक नोंधो-श्लोको वगेरे - लखी राखे. कोई नानीमोटी प्रतना अन्तिम पत्रमा - छेडे थोडी जगा बची होय त्यां पण आवी रचनाओ लखी राखवानी एक परिपाटी ज बनी गएली. गुटका (बांधेली चोपडी जेवी हस्तप्रत) तो एक प्रकारनी नोंधपोथी ज गणाय. गुटकाओमां जुदा जुदा समये अने जुदा जुदा हाथे आवी नानी-मोटी रचनाओ लखाती रहेती. गूढा-प्रहेलिका-समस्या-हरियाली जेवी रचनाओ आवा प्रकीर्ण पत्रोमां तथा गुटकाओमां ज मोटा भागे स्थान पामती होय छे. कोईक रसिक जन गूढा वगेरे माटे स्वतन्त्र प्रति पण लखी-लखावी राखता.
___आवा विविध स्रोतमांथी सांपडेली आवी रचनाओनो एक संचय अहीं रजू कर्यो छे. समस्या / प्रहेलिकाना उत्तर क्यांक प्रतमांथी मळया, क्यांक विचारीने शोध्या छे, जे कृतिना अंते कौंसमां आप्या छे. ज्यां जवाब नथी मळ्यो त्यां कौंस खाली राख्यो छे.
हीआली -
समरथ नारी छइ अति सारी, पण ते बालकूआरी; मानवीनी घरि ऊपनी, तेहनी परणी तउ ब्रह्मचारी, समरथ नारी० १ ए नारी त्रणि नान(मि?) प्रसिद्धि, उत्तम घरि लहिइ; डाहा पंडित नर जुउ विचारी, ए नारी कुण कहिइ, समरथ नारी० २ पंच वर्ण हारि जडावि, सिर राखडी धरावी; सूत्रबाणइ मेर माहा रमती, हिडि(?) सती सील रहावि, समरथ नारी० ३ ए नारी नव हिंडि पाली, देस-देसांतरि जाइ; आहार करंती कहि न दीसि, पण ते दूबली न थाइ, समरथ नारी० ४ आठ नारी दोइ पुरख मलीनइ, ए नारी नीपाइ; सगा-सणेज सहु देखता, बापि बेटी जाइ, समरथ नारी० ५ [माला]
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ऊजलवरणो नाहलो रे, सांवलवरणी नार;
नार न देखे नाहने रे, कंत न देखे नार,
चतुर नर, कहिज्यो अर्थ विचार, आप हियानो हार, चतुर नर, कहिज्यो० १
कंत विहूणी नार हे रे, नार न देखे कंत;
चेहडा (?) वाध्या बिहुं जणा रे, अजेस (?) अगनकुमार, चतुर०
मातपिताथी ऊपना रे, छोरू साठ र च्यार;
मातपिता देवै नही रे, अरधो अरध विचार, चतुर० ३ ते नर-नारी ना मरे रे, जो जावै काल अनंत; चतुर हुवै तो बूझज्यो रे, वलि पूछो गुरु पास, चतुर० ४
३
एक नार अति नानडी, ऊंचेरो माटी जी मोटो; नाह विना नागी फिरै, चैरो नेह ज खोटो, पंडित अरथ विचारिज्यो, कहियो तुल चंदै (?); पंचांमें मत बोलज्यौ, कहियो नव मानै, ऊअट चालै आकुली, वाटै नव चालै; नर आगलि नारी थई, नर आगू न थाई, नारी जि कीधा नर घणा, वली नवलो चाहै; नानौ है तो नाहलो, वलि बीजौ ताकै, नारी जी बांधी नाहसुं, वलि नीसासै जाई; हथ लीय हींडावती, वा कदै न थाकै, मेरविजय कहै मति कहौ, आ नारी छे भूंडी; भरतारनै भोलावती, वा पैसे छे ऊंडी,
पं० १
पं० २
पं० ३
पं० ४
वनमें तो जाई राज, वसतीमें आई,
नारी नाम धराई, म्हारा राज, सुगुण सुग्यानी राज,
अरथ कहीजै....
१
पं० ५
पं० ६
१७१
[दिवस-रात]
[?]
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अनुसन्धान-७५(२)
कुटुंब घणेरो राज, लाखां में लेखो, प्रौढी प्रगटमें देखो, म्हारा० रातदिवस रहै राज, उपासरा मांहि, साधां साथे चाल, म्हारा० भरीय सभामें राज, चरण पसारे, नगन-मगन रहै नारी, म्हारा० । होठां-विहूणी राज, दांतां-विहूणी, मुखडा-विहूणी नारी, म्हारा० जेहने जेहडनो (?) राज, सिर-पांव सोहै, कटिं दल झीणी मन मोहै, म्हारा० उणने तो नहीं राज, सासू ने ससरो, देवर-जेठ नहीं दूसरो, म्हारा० नहीं रे परणी राज, नहीं रे कूआरी, एहवी कुण छे नारी, म्हारा० हरख धरीने राज, कही रे हरीयाली, अरथ कहो नहींतर देसुंगाली, म्हारा०
[ओघा - चरवळानी दांडी]
गूढा – एक घटै एक नीत वधै, घट-वध होवै अकाज;
ना घटै एक ना वध, करो अरथ कविराज. उत्तर : आय घटै, त्रस्ना वध, घटै-वधै मन हमेश;
प्रारब्ध घट-वध न पुरुषकी, सुण हो नृप सुरतेश. अंब फले बहु पत्त करी, महु-ले पत्त खोय; ता पत्तको पानी पीये, तामें का मति होय. [महुडा] एक पुरुष प्रसिद्ध चरण, विण परदेशे हले, मूंह विना ते खाय, शस्त्र विना परदल दले; अग्नि मुख ऊपनो, रातदिवस फिरतो रहे, कवि गंग कहे सुण रायहरी, अरथ कोई विरलो लहे. []
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धुर कारी फागुण वच्चे, थलनो कीजे छेह;
वाट जोउं छं तेहनी, ज्यम बपैयो - मेह. [ का-ग-ल]
माथे फूल ने पेट फल, जोगी जेवी जट; राजकुंवर गृह पाठवो, मोती जेवा घट. [ मकाईनो डूंडो ] काया दीठी जीव विण, मुख विण दीठा दंत; अजीव जीवने हर गयो, मोकलयो मोरा कंत. [कांसको]
एक नारी नवरंगी चंगी, राजाने कुल जाय;
पाणी विना तरती दिठी, मोकलज्यो मोरा नाह. [जलेबी] दो नारी अति सामली, पाणी मांहि वसंत;
ते तुमने देखवा, अलजो अतिही करत. [कीकी] प्रथम आंक अटकलो, पछै नभचंद्र गुणावो, तिण गुण संयुत्त, सोइ ख- वेद हणावो, व्योम - बाणसुं भाग, भली विधि सेती दीजै, शेष रहे जे आंक तिके खट निघन करीजे, इतने वरस प्रतिपो सदा, सामंत सी सब सुख लहे, कवि चंद कहै मनमोजसुं, दुसमण सब दूरै रहो. [ ] पवन बंबुले में पड्यो, चल दल भयो जपात, ऊड्यो जात तस गगनमें, कहे कारण कवि पात. [ पवनदूत शिष लख पठत, पत्रिभूपति काज; ग्रीष्मरुत आय देत दुख, आव वेग सुरराज.
]
समस्या
[ ]
श्याममुखी न मार्जारी, द्विजिह्वा न च सर्पिणी । पञ्चभर्त्री न पांचाली, यो जानाति स पण्डितः ॥ [ कलम ]
चन्द्रबिम्बसमाकारं यस्य नामाक्षरत्रयम् ।
पकारादिकारान्तं यो जानाति स पण्डितः ॥ [ पापड ]
वर्तुलं वृन्तसंयुक्तं सक्षीरं पत्रवर्जितम् ।
पतितं न भूमौ याति जानीहि किमिदं फलम् ॥ [वक्षोज]
नानी खाखर
३७०४३५,
१७३
C/o. जैन देरासर जि. कच्छ, गुजरात
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१७४
एक मराठी स्तवन
सं. - उपा. भुवनचन्द्र
प्रकीर्ण पत्रोमाथी एक मराठीभाषामां रचित स्तवन मळ्युं छे. अप्रगट जणाय छे. कर्तानुं नाम 'वाचक लिखमी' अन्तिम कडीमां आपेलुं छे. लक्ष्मीविजय के लक्ष्मी तिलक - लक्ष्मीकल्लोल जेवुं पूरुं नाम होई शके, परन्तु ए अंगे वधु तपास थई शकी नथी. रचनासमय बसो वर्ष पूर्वेनो प्रथम दृष्टिए जणाय छे. वधारे होय तो ना नहि.
मराठीना शब्दो उकेलवामां क्यांक भूल थई होय एवो संभव छे. कवि मूळ गुजराती हशे, एवं जणाय छे, कारण के अचंभा, चंपावती, मिरगानयनी जेवा शब्दो आ रचनामा देखाय छे.
राजीमतीना निवेदनरूपे स्तवननी शरूआत थई छे, पाछळथी कविना आत्मनिवेदन रूपे पूर्णाहूति थई छे. एकंदरे स्तवन सरलभाषामां होवाथी तेनो भावार्थ समजी शकाय एवो छे.
मराठी शब्दोमां कोई वाचनभूल होय तो ते जणाववा सुज्ञजनोने विनन्ति छे.
*
अनुसन्धान- ७५ ( २ )
नेमिनाथ जिन स्तवन
आइका आइका उगूली माझी साजुनी वो गोष्टी, नेमजीचें दरिसनि झाली मनांमधे तुष्टी; करवाले वरहाड माझा दाट्या (?) वो एत्ती, सोभा वो यांची बरवै काहि सांगुं कित्ती.
मस्तकि वो खूप भरला धरला मेघाडंबरी, वाजित्रांचा नाद वाजिलें गाजिलें ओघि अंबरी; तोरनीं आला नेम निवर्या होति वो अचंभा, पाहती वो महिलां मधे राजीमती रंभा.
पाहा पाहा वो जिनां जीवानांचा दयाला, याचें चरन सरन पाउला आनंद त्रिकाला;
१
२
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१७५
पशूआंचा दुख दाखुनि रथ फेरवीला, नव भवांचा नारीनेह तवां टाकवीला. ३ आइकला दाडला वो हीयां भीतरि पैसला, पाहला तवां माझा स्वामी डोल्यां मधे बैसला; हेज भरि नींजूली (?) मीसे जवरि आला, सुपनांतरि मिलला मालैं परमोद झाला. ४ भुजा वरि भुजा दिली आलीगन केला, जवां जागुनि ऊठली तवां प्रभु गेला; ऐसा वो हठीला माझा दादू ती झाला, कुनांचे पुढे वो सांगू अपराध माला. ५ ज्यादवांजी(ची) जान घेऊति आला नेम नेवर्या, करी वो वरहाइ आइका सुसरा जेठ देवर्या; आतां अइथे बोलले वो बांधव गोविंदा, बहु चांगलै अनखै बोलले गोपी यांचा वृंदा. ६ इतकी वो विग्यप्ती स्वामी अमची तुमी आइका, कास्यानां टाकून दिली राजूलबाइका; उग्रसेन राजेंची ल्योंकी मिरगानयनी, चांगली वो नेवरी यांची देहं चंपावंनी. ७ सीहालकी दंतपंती दाडिमांची कुली, कंबुकंठी आंगुली री वो मूंगाची फली; चंद्राची चंद्रिका हुंती तोंडा रुची बरी, गजवरगति जेसी अमरची कुमरी. ८ सांगेतले नेमजीचो मुगतीचा मरमो, दाखवीले दया दम दानचा वो धरमो; कात्चीवो नेवरीवो कात्चा वो ने हो, कात्चे वो धन गेहु कात्चा वो देहो. ९
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अनुसन्धान-७५(२)
धरमकरमची दाखवीली शिक्षा, जिनांजीचे जवले गेली घेतली वो दीक्षा; गिरनारगिरी वरि बैसले स्वामी, हेत् सिख्या-दिख्या दीली झाले सिवगामी. १० यांचा वो पिता बरवें समुद्रभूपाला, सिवादेवी रानीचा ल्योंक सुखुचा सुगाला; ज्याने जिनगुनस्तुति गानां मधे गावली, त्याने अष्ट सिद्धि नवनिधि रिधि पावली. ११ पहिलै पाहले ज्ञानदृष्टि खाल्ती वो धरती, तर लोक पाहले मागुनि गगना वरती; करती याची मनसूधी सुर-नर सेवो, ऐसा नको पाहला भी देवांचा देवो. १२ । संखचा लंछन स्वाम नेम निरंजना, गिरनार गिरिपती जतिजनरंजना; वाचक लखिमी सांगे तूही माझा नाथा, तू ही ग्यान तू ही ध्यान तू ही सिवसाथा. १३
इति महाराष्ट्रभाषायां श्रीनेमिस्तवनं ।
दीखणी भाषा लख्यते ।
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मिथ्यात्वविरह - सम्यक्त्वकुलकम्
३४ कडीनी आ अज्ञातकर्तृक नानकडी कृतिमां पूर्वार्धमां मिथ्यात्वने लीधे उत्पन्न थता कुविकल्पोनुं वर्णन करीने तेने त्यजवानो उपदेश आपवामां आव्यो छे. त्यारबाद उत्तरार्धमां सम्यक्त्वने लीधे प्रगट थता गुणोनी प्रशंसा करवामां आवी छे. कृतिरचनानो मुख्य उद्देश 'धर्म'ना नामे थती जीव - विराधनात्मक दुष्प्रवृत्तिओने अटकावीने सद्गुणो केळववानी दिशामां प्रयत्न करवानो छे. कृति सरळ भाषामां सरस बोध आपी जाय छे.
सामान्य रीते 'कुलक' प्राकृतभाषामां ज रचातां होय छे. पण अहीं कर्ताओ गुर्जर भाषानी कृतिने पण 'कुलक' एवी संज्ञा आपी छे जे एक विशिष्ट वात जणाय छे. भाषा जोतां १६मी सदीनी आ रचना हशे एम अनुमान थाय छे. कर्तानुं नाम के संवत् के लेखनसंवत् एवं कशुं ज प्रतमां प्राप्त नथी. त्रीजी कडी वांचतां अखानो प्रसिद्ध छप्पो -
गुरु गुरु नाम धरावे सहू, गुरु के घेर बेटा ने हू 1
गुरुने घेर ढांढा ने ढोर, अखो कहे आपे वोळावियां ने आवे चोर"
सविहुं पापहं मूल मिथ्यात,
सं. - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
ए अवश्य याद आवे . ते परथी आ कृति अखानी समकालीन होय एम बने. अखानी असर आना पर हशे ? के आनी असर अखा पर हशे ? नक्की करवुं मुश्केल छे.
*
सयल पुण्य जे करइ उपघात ।
जीव मिथ्यातिइं भूला भमई,
१७७
तव फेरा नवि भाजनं किमहं ॥१॥
जेहं मनि जिणवर - आण न फुरई,
धर्म- बुद्धि नइ पाप ज करइ ।
ऊखल - आंबिलि-चूल्हि - नीसाहि, तेहू पूजई देव-नीठाहि ॥२॥
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अनुसन्धान-७५(२)
'जाख-सेख परमेसर सहू,
___जेहू गुरु तेहनइ घरि वहू। जेहू गुरु तेहनइ धण-ढोरु,
तेह जि वउलावा तेह जि चोरु ॥३॥ वारू माणस करइ विकर्म,
पशु मारइं पोकारई धर्म । विष्णु अनइं मुखि शंकर भणइं,
जीव विणासइं भंडपणइं ॥४॥ माहि कहिइं नइ बाहिरि नाहई,
नइ-नाला भणी धसमसइं। जल ऊलालई लोक-प्रवाहि,
ते किम धोसिइं कसमल माहि ॥५॥ चटपट करइं पखालई अंग,
__ भीतरि मइला बाहरि चंग। जे मल लागा चित्त विनाणि,
ते किम फीटइं गंगा-नाणि ॥६॥ कर्म-विसेषिइं जीव चिहुं गति फिरइ,
पितर तणां तिहां त्रिपण करई। गंगा-तडि जल ऊखेइं,
गूजरातथ्या आंबा पीइं (?) ॥७॥ लिई पाप-घट तिल-गुल-गाइ,
सिब करि भोजन तिहां कराइ । एक भणइं रे मारउ हरउ,
पर-भव तणु भउ काई मनि धरउ ॥८॥
१. यक्ष-शेख २. स्नाने ३. तर्पण
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रवि जेवडउ नायक आथिमई,
तिहां तु सहूइ जासक जिमइ । रवि-कर पाखइ अपवित्र जलू,
ते सिउं लेसिइं ऊपरि चलू ॥९॥ करसणि जीव मरइं तीहं रुहिरि,
ओलि भराई सांसउ म करि । मारी तां विडलां कण विणइ,
अम्हि बूटउं मूरख भणइं ॥१०॥ सूकां त्रिणां चरई वनवासि,
न करई कहिनउ किसउ विणास । तीह मृग ऊपरि आयधः वहइं,
___ अम्ह रहई विवर्जिउं ए इम कहइं ॥११॥ स्त्री लगइ वाधइ ए संसार,
स्त्रीदानिइं किम सुकृत अपार । कामि रंगि भूला इम भमई,
ब्रह्मचर्यनुं नाम न गमई ॥१२॥ मधु अपवित्र ए नही भ्रंति,
__तिणि पामी पंचामृत पंति । विण अथाणा भावइ नही,
सुरा-समुं ते जग-गुरि कही ॥१३॥ न्हातां अणगल नीर न काणि,
नमइं नागनइ मारइं प्राणि । जीव-योनि ह्वे सघली मरई,
दव दीजई किम पुण्यह वरइ ॥१४॥ आप आपणइ पुण्य नइ पापि,
भमइ जीव जूजूआं इ व्यापि । १. अञ्जलि २. तृण ३. आयुध
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अनुसन्धान-७५(२)
बाप मरीनइ बेटु थाइ,
कुणिहि न कहिनउ पिण्डऊ धराई ॥१५॥ 'करपा-हीण जीव दुखिया हुंति,
मनवंछित फल तउ न लहंति । जे लेई पूजई खडसलउं,
कहु किम लहिसइं फल ते भलउं ॥१६॥ एकमनां जे अरिहंत ध्याई,
___अंतराहि तहिं दूरिहिं जाई। अरिहंत भणीइ त्रिभवन-राउ,
____ मोह तणउ जिण फेडिउ ठाउ ॥१७॥ केवलज्ञान अनंतुं फिरइ,
देसण वाणि अमिअ-रस झिरइ । सयलहं जीवहं जे सम-चित्त,
तसु पय वंदउं सदा पवित्त ॥१८॥ चउसठि इंद्र नइ सूरु हु चंद,
तसु पय सेवई मुनिवर-वृंद । त्रिहु छत्रिई त्रिहुं भुवणह राउ,
सिद्धिसिला ते अविचल ठाउ ॥१९॥ अरिहंत देव सुसाधु गुरु जाणि,
जिन-प्रणीत नव तत्त्व वखाणि । रत्न-त्रय जिहिं निश्चल चित्ति,
तीहं तणइ करयलि छइ मुगति ॥२०॥ समकितु-रयण दुलंभं होइ,
___ समकित पाख मुगति म जोइ । समकित माय-बाप संसारि,
धर्म-मूल समकितु आधारि ॥२१॥ १. कृपा २. अन्तराय
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राज-रधि भविभवि पामीइ,
धन-यौवन-मन वीसामीइ । कर्म-विसेषिइं सहू सलंभ,
एक ज जिण-वर-धर्म दुलंभ ॥२२॥ कमलि-पानि जिम दीसइ नीर,
तिम धन-योवन अथिर सरीर । जिम जाता दीसई आगिलां,
तेह जि वाट होसिइं पाछिलां ॥२३।। सुगुरु तणउं सांभलि संकेत,
पाप म करि रे जीव अचेत । कर्म-वसिइं जीव पडिउ विनाणि,
धर्म तणी पुणि होसिइ हाणि ॥२४॥ सधर क्रिया जु चेतसि आप,
तु कांई छूटिसि भवदह पाप।। घणा दिवस आगई नीगम्या,
तरुणपणई मोह-दलि रम्या ॥२५।। आवइ इत्थ जरा तणी धाडि,
__ हिव जीव चीतवि धर्म मुहाडि । गण्या दिवस माहि होसिइ फेड,
सहू को करइ पिआरी केड ॥२६॥ 'द्रोअठमि जुहारइ माइ,
छांटइं छडउ दिवारइं माहि । करइ अणघपउ कथा संभारि,
मूरख खरचइं रतान विवारि ॥२७॥ माय-बाप-घर-बंधव-पूत्र,
ए सहूइ माया नउं सूत्र । वाल्हउं आपह केरउं काजा,
कांइं रे निफटह अजी न लाजा ॥२८॥
१. ध्रुवअष्टमी २. व्यवहारमा ३. नफट
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१८२
फिरिउ अनंती भवनी कोडि,
अजी न फीटइ तुझ ए खोडि ।
नव नव जनसि नवउ तुझ लोभ,
मनसिउं चोरी करिसि केतली,
धर्म तणी कांइं छांडई थोभ ||२९||
एह वात परणामि' नहीं भली ।
कांई साचेरी वाटइं चालि,
ठगविद्या पर मन कांई रंग,
हुसिइ पिया आज कि कालि ॥३०॥
पर-मन-रंजनि वडउ च्छ्इ जंग ।
आपिइं आप ज रंजिसि किमइ,
घणा बोल बोलउं केतला,
१. परिणामे २. प्रयाण
कासवे सरिसिई तुझ तिमइ ॥३१॥
एकेक एहिं च्छई अतिभला ।
आगमग्रन्थ सविहुं ए सार,
जीव- अजीवहं तणउ विचार,
गुरु-मुखरं सांभलि सविवार । परिसाचा लाभ मर्म,
केवलि - भाषित धर्माधर्म ||३३||
अनुसन्धान-७५ ( २ )
समकित सील रखे तउं हारि ||३२||
जत्थे जीव-दया ते धर्म,
जीव-विधिइ लाभइ दुःकर्म ।
एउ विचार जो जोइ अभंग,
अमर - भवनि तीहं अविहड रंग ||३४||
॥ इति मिथ्यात्वविरह - सम्यक्त्वकुलं समाप्तम् ॥
* * *
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सप्टेम्बर - २०१८
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खेटकपुर[खेडा]मंडण भीडभंजन पार्श्वनाथ- स्तवन
सं. - मुनि मुक्तिश्रमणविजय
आ कृतिनी रचना वि.सं. १८५२, आसो सुदि १०, भृगुवार (शुक्रवार)ना दिवसे उपाध्यायश्री उदयरत्नजी म.नी परम्परामां थयेला मुनि राजरत्नजीए करेल छे.
आ कृतिमां कर्ताए खेडाना इतिहासनी साथे पार्श्वप्रभुना छेल्ला गणधर केशीस्वामीनी परम्परामां थयेला पू. रत्नप्रभसूरिनी परम्परा तेमज तेमनाथी थयेल द्विवन्दनीक गच्छनी पण वात करेल छे. सरल अने मनोहर शब्दोमां कर्ताए खेडा केवी रीते वस्युं, तथा श्रीभीडभंजन पार्श्वनाथ प्रभु त्यां केवी रीते पधार्या, तथा आजुबाजुना हरियाला, मातर, अमरावती, खांधली, नांदोली, लिंबासी वगेरे गामोनी पण वात करेल छे.
वि.सं. १७७५मां वाचक श्री उदयरलजीना उपदेशथी नवा देरासर, उपाश्रयनुं निर्माण थयुं अने तेनी प्रतिष्ठा श्रीदानरत्नसूरिजीए करावेली, इत्यादि विशिष्ट इतिहासयुक्त आ कृति बहु ज सरस छे.
__ अन्ते उदयरलजीना वंशमां उत्तम-जिन-क्षमारत्न-राजरत्नजी थयेला छे. एम पोतानी वंशपरम्परा कर्ताए मूकेली छे.
__ श्रीचन्द्रसागरसूरि ज्ञानमन्दिर, खाराकुंआ, उज्जैन प्र.नं. २६६१नी Xerox आशापूरण जैन ज्ञानभण्डार वती बाबुभाई बेडावाळाए आपी, ते बदल तेमनो खूब खूब
आभार.
॥ उपाध्याय-श्रीउदयरलसद्गुरुभ्यो नमः ॥
दूहा सकल-करम-अरी वारवा, सुर-वधु-वंदीत जेह, भीडभंजन प्रभु पासना, पय प्रणमुं धरी नेह ॥१॥ वली वंदुं वागेश्वरी, लही गुरुनो आदेश, वामा सुत खेटकपुरे, गुण व्रणवू लवलेश ॥२॥
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अनुसन्धान- ७५ (२)
ढाल- १
(पंचास जोयण देवकां पोहोलो, वैताढ्य पर्वत जांणों रे : ए देशी जांणवी )
गुर्जर गाजें जीनपद जाल्यम, खेडुं नगर तें कहीइं रे, वैभव-पूर सनुंर ते सोभा, गुरुमुखथी सहुं लही रे ॥१॥ सांभलज्यो भवी भाव धरीनें, भगवंतना गुंण भणीइं रे, अहोनीस ध्यांन प्रभुजीनुं धरतां, मोह - करम- अरी हणीइं रे ॥२॥ सां. कोई न जांणें क्या ए वास्यो, सुरपुर जेहवों सोभतों रे, पास प्रभुने भुवनें मनोहर, लंकापुरी लोपंतो रे ॥३॥ सां. केडवा गणधर केसी कुमारनों, रत्नप्रभसुरीराय रे, न्यात ऐं थापी छें त्रण्य तेणें, श्रीमाल नगरें जाय रे ॥४॥ सां. तास ते पाट-परंपर जांणों, श्री सिद्ध नामे सुरिंदरे, बिवंदणीप्र (क) गच्छें दीपता, नमता जास नरिंदरे ॥५॥ सां. महेंरा जस्या खम्भाती श्रावक, सीद्धसुरीना भावी रे, भीडभंजननुं भुवन तेंणें उद्धर्यु, कलस धजाईं सोहावी रे ॥६॥ सां. खेटक अमरावती खांधलीइं, नांदोली नें लींबासी रे, ऋषभ - शान्ति- पासस- वीर प्रभुनी, थापना कीधी खासी रे ||७|| सां. देउल आलय महेंरा जसाई, हर्ष धरीने कराव्या रे, सीद्धसुरीना उपदेसथी तेणे, पुण्य - खजांना भराव्या रे ॥८॥ सां. भीडभंजननें देहरें खेडामां, नीत नवी पुजा रचावें रे, दीपक धुप ने आरती मंगलीक नाटिक तांन मचावे रे ॥९॥ सां. बहुभेद सत्तर अष्ट प्रकारे, नवपदपुजा थाई रे,
संघ भराई नें आंगी रचाई, पास प्रभु पुजाई रे ॥१०॥ सां.
पोसह पडीकमणां नें वखाणनों, उलट अंग न माई रे, उपध्यांन माल नें बिंब भराई, नव नवा ओच्छव थाई रे ॥११॥ सां. सीद्धसुरी उपदेस प्रकासें, सहु कों सुणें चीत्त लाई रे, भीडभंजन प्रभु पासनें सेवें, मोज ते पावें सवाई रे ॥१२॥ सां. केतों काल गयो इंम करतां, पवनें देउल थयो खंड रे, धर्मनो द्वेषी सुलतांन आव्यो, लोभी पापी प्रचंड रे ॥१३॥ सां.
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परीकरस्युं प्रभु पासनें भुमीमां, भंडार्या सुभ रीतें रे, भावी-वसें उग्यो त्यां पीपल, पुजें सहु मन प्रीतें रे ॥१४॥ सां. श्रीफल-फोफल-दीपक-तंदुलें, स्नात्र करें धरी चाह रे, देखादेखी पीपलों पुजें, लोक गाडरीयों प्रवाह रे ॥१५॥ सां. कालवस्यों गयों ते पीपल, तों पण पीठ पुजाई रे, वीस्तार पास प्रभुथी पांम्यो, अधीक अधीक महीमाई रे ॥१६॥ सां. अनुक्रमें श्रावक एक थयो त्यां, नामें श्री जीनदास रे, सुंहणुं तेहनें सुपीने पछी, प्रगट थया प्रभु पास रे ॥१७॥ सां. परमानंद पांम्या सहुँनें, नवला वाध्या नेह रे, देउलआलो उद्धरीयां तें, श्रीधर साइं गुणगेह रे ॥१८॥ सां. वाध्यां रंग-वधामणां बहुं, खुबी खेटकपूरमांहे रे, सो) अजब प्रभु पास जीणेसर, पुजें सहुं उच्छांहें रे ॥१९॥ सां.
सहुं श्रावक भेगा मली, अमदावादें जाइं, हीररतनसुरी तेडवा, हीइं हरख न मांई ॥१॥ राजनगरथी आवीया, गुरु खेडामां खांति, बेठा दीपें बेंसणे, जांणे दीणयर-कांति ॥२॥
ढाल-२ (रसीयानी देशी जाणवी)
ऐ गुरु वंदो जीहवें आंपणा, हीररतन सुरी नाम कहाय, पाउधार्या उलटें खेटक आव्या, ओच्छव अधीका रे बहुंवीध थाय ॥१॥
भवीयां भावें देव गुरुनें नमो घरों घेर आनंद गुंडी उच्छली, सेरी सेरी रे संघ न माई, मंगलीक वाजा जीतनां वाजीयां, थाई साथीयां गुंहली रे सूत्र वंचाई ॥२॥ भ० आचारज उवझाय तेह ज तकें, चोमासुं करवा रे खेटकपूर आवें, भीडभंजन प्रभु दरिसन देखतां, सहु जन मनमां रे आनंद पावें ॥३॥ भ०
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अनुसन्धान-७५(२)
संवत् सत्तर अढारमा आवीया, पाठक कहीइं रे सीद्धरतन्न, प्रतीबोध्यां सहुने देई देसना, नरनारीना रे हरख्यां मन्न ॥४॥ भ० पटल गरासीया पगी महाजन आदें, सर्व संगातें रें द्रव्य मेलावें, वलती भुवन जोडें पौषधसाला, जयरत्नसूरी रे उद्धार करावें ॥५॥ भ० राज-वीरोध वसें वली सांभलो, संवत् सत्तर रे थयो सडताले, संघ सकल साथै सुखकारणे, प्रभुजी पोहोंता रे हेजे हरीयाले ॥६।। भ० त्यां पण भावें भजे प्रभु पासने, कपुर भणसाली रे ते कहेवायो, अदेसंघ वाघेलो मातरीयो सत्तर संग, प्रभुने पुज्याथी रे बहु सुख पायो ॥७॥ भ० त्रीस वरस वासें प्रभु त्यां वस्यां, बाबी महेंमदखां रे फरी खेडं वासें, नीपजाव्यु नवु देहरुं अपास्यरो, उदयरत्न वाचकें रे मन उल्लासें ।।८॥ भ० जांणीइं संवत् सत्तर पंचोत्तरे, श्रीपुज्य रंगे रे रह्या चोमासुं, प्रभु पधराव्या तेह समें सही, खेटकपुर लेई रे थान्यक खासुं ॥९॥ भ० सत्तर छ्यासीइं दानरतनसुरी, मातरगांमथी रे प्रभु पांच लाव्या, मुगट कुंडल करी ठाठ अतीघणो, भीडभंजननी रे पासे पधराव्या ॥१०॥ भ० मनना मनोरथ आज सफल फल्या, प्रभु गुण गातां रे चढती जगीस, दोषी दुसमन दुर टले सहुं, सास्वता सुख आपे रे जीन चोवीस ॥११॥ भ०
दूहा भक्तिभावथी जे नमे, सुख पामे भरपुर, धरणीधर पदमावती, दुक्ख करे सहु दुर ॥१॥ अरज करे प्रभु आगले, आस्या पुरण थाइं, अविचल सुख वली ते लहे, जो मन राखे ठाई ॥२॥
ढाल-३
(भोला प्राणीडानी - ए देशी) मन्न घणे मलवा आव्यो हुं, भीडभंजन महाराज, तारो सेवक जाणी मुझने, साहेब गरीबनवाज ॥१॥ प्र० प्रभुनुं ध्यान धरुं सुभमती जीनजी आपो, चारीत्रथी चीत्त चुकें साहेब, प्रभुजी पंचम काल, रक्षा करो रीषीराज रुडी पेरे, तमे छो दीनदयाल ॥२॥ प्र०
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लाख चोरासी घरना फेरा, पास प्रभु करो फोक, तुज वीण ते को टालें नहीं, प्रभु लाख मलें जो लोक ॥३॥ प्र० काल ते चक्र कोटिगमे कहीइं, तेहना सुर नर कोडि, तेणें न थाइं स्तुती ताहेरी, कहे छे कवी कर जोडि ॥४॥ प्र० घणुं स्यु कहुं प्रभु छो तमे केवली, जाणो मननी वात, तो पण नीजमती प्रभु गुणरागें, अमरतरु-अवदात ॥५॥ प्र० पास प्रभुनुं दरिसन दीठे, प्रगट्यो पुरव भव प्रेम, षटपद मोह्यो मालती गंधे, तुम मुख देखी हुं तेम ॥६॥ प्र० वामानंदन वंदता मुझने, उपनो आज आनंद, लाग्यो मोह ए वदन-कमलनो, जीम चकोरनें चंद ॥७॥ प्र० घणे दीवसें साजन मलीया, ऐ सुखनो नही पार, धन्य घडी दीन माहरो, जेम मलीयो प्राणाधार ॥८॥ प्र० अलगो न रहुं अधघडी अलवेसर, तुझथी वालेसर वेद, आठ करम अंतराय अरीनें, नाथजी नांखो नीखेद ॥९॥ प्र० दीन जाणीने दया करों साहेब, उतारो भवजलपार, आ संसार असारमाहे एक, अरीहंतनो आधार ॥१०॥ प्र० देव सवे में दीठा प्रभुजी, कोथी न सरीयो अरथ, नीरभय वंछीत सीवसुख आपें, तु साहेब समरथ ॥११॥ प्र० चरण कमलनी सेवना हुं, मांगु छु महाराय, ध्याउं देवगुरु ग्यांनने नवपद, अवर न आवे दाय ॥१२॥ प्र० बुध्य अकल मत्य सुख दुख सर्वे, करम प्रमाणि लहीइ, छोरु कछोरु ने मात पीता तमें, तम आगल अमे कहीइं ॥१३॥ प्र० तप गुण ग्यांन-क्रिया थकी होवें, समताई जस वीस्तार, पण मुरख नर समझें नहीं तें, धरे बहु अहंकार ॥१४॥ प्र० हंसनें वायस बग ठरावें, मुढ तें आप वखांणे, बाह्य अभ्यंतर अंध थईने, वात पोतानी तांणे ॥१५॥ प्र० गुण अवगुण सोनु के पीतल, समझें नही थाइ काजी, मुरख नीलज नीच अज्ञांनी, नींद्या करें जे झाजी ॥१६॥ प्र०
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समझु द्वेषें धर्म वखोंडें, ते पण कहीइं अबुझ, पंडीत चतुर वीचक्षण डाह्या, समझे सास्त्रनुं गुझ ॥१७॥ प्र० माटें प्रभुजी सबुधी, आपों कबुधी टालों,
तुम वचनें सुख में प्राणी, नेह - निजर करी भालो ॥१८॥ प्र० भीडभंजन प्रभु भेटों भवीयां, खेटकपुर मझार, अढारसें बावन आसोमां सुदि दसमी भृगुवार ॥१९॥ प्र० सांभलस्यें भणस्यें जे गणस्यें, तवन तणो भेद जांणी, भगवंत-ध्यांनें भवजल तरस्यें, वरस्यें मुगति-पटरांणी ॥२०॥ प्र० वाचक उदयरतननें वंसें, उत्तम जीन सुख खांणी, खीमारतन सुख-संपत्तिदाई, राजरतन कहें वांणी ॥ २१ ॥ प्र०
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ती श्री भीडभंजन पार्श्वनाथनुं स्तवनं ॥ सर्व गाथा ५७ ॥ लिखीतं श्रेयस्तु छे ॥
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पाठक श्रीराजसोमजी विरचित अट्ठोत्तर सो गुण नवकारवाली स्तवन
सं - आर्य मेहुलप्रभसागर
नवकारवाली जिसे माला, जपमाला आदि भी कहा जाता है, उसके आधारित प्रस्तुत रचना में १०८ मणकों के कारणभूत पञ्च परमेष्ठी के १०८ गुणों का नामोल्लेख किया गया है। पाठक राजसोमजी महाराजने चार ढाल में रचित वर्णनात्मक रचना में पुरानी हिन्दी भाषा में इस कृति का गुम्फन किया है। इस स्तवन की रचना प्रायः विक्रम की अठारहवीं सदी के प्रारम्भ में हुई है।
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग-३ के अनुसार पाठक श्री राजसोमजी खरतरगच्छ के सुप्रसिद्ध महोपाध्याय श्री समयसुन्दरजी के शिष्य वादी श्री हर्षनन्दनजी के प्रशिष्य एवं मुनिश्री जयकीर्तिजी के शिष्य थे । समयनिधान वाचक विरचित सुसढ चोपाई र.सं. १७३१(७) में प्रशस्ति दोहों में श्री राजसोमजी की गुरु परम्परा इस प्रकार ही दी है -
“श्री जिनचंदसूरीसरू रे, सकलचंद तसु सीस । समयसुंदर पाठक सदा रे, जयवंता जगदीस ||७|| पाटोधर तसु परगडा रे, कंदवा-कुद्दाल । हरषनंदन वाचक कही रे, प्रीछई बालगोपाल ||८|| जयकीरत वाचक जयो रे, सीहां सीह सुशिष्य ।
राजसोम पाठक रिघू(धूरि) रे, प्रसिद्ध है तासु प्रशिष्य ॥९॥"
आपने श्रावक आराधना भाषा, पञ्चसन्धि व्याकरण बालावबोध, इरियावही मिथ्यादुष्कृत बालावबोध आदि के साथ स्फुट स्तवनादि कृतियों की रचना की है।
सम्पादन में अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर की प्रति का उपयोग किया गया है। हस्तप्रति क्रमाङ्क ८८९० में दो पत्र हैं । प्रति पत्र में प्रायः तेरह पंक्ति और पैंतीस अक्षर अङ्कित हैं। पत्र के किनारे जीर्णप्रायः होने से जर्जरित है। लेखन सुवाच्य है। प्रशस्ति के अनुसार यह प्रति विक्रम संवत् १८८० के आश्विन कृष्णा तृतीया के दिन विक्रमपुर (बीकानेर अथवा बीकमपुर) में पण्डित धनसुख ने लिखी है।
हस्तप्रति की प्रतिलिपि उपलब्ध करवाने हेतु अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर
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अनुसन्धान-७५(२)
के संचालक श्री विजयचंदजी नाहटा एवं श्री रिषभजी नाहटा को साधुवाद ।
__ हस्तप्रति में छन्दों को ढाल के अनुसार क्रमाङ्क दिये गये है, पर कुछ स्थानों पर छन्दानुसार पंक्ति का सामंजस्य करने हेतु अन्य प्रति में दी गई संख्या के अनुसार छन्द के क्रमाङ्क दिये गये हैं।
'जैन गुर्जर कविओ' में प्रस्तुत कृति का उल्लेख नहीं है । खरतरगच्छ साहित्य कोश में यह कृति क्रमांक ५९३९ पर उल्लिखित है।
नवकारवाली मणीयडा, अट्ठोत्तर सो होइ। पंच परमेष्टि गुणे करी, गूंथी छै गुण जोइ ॥१॥ बारह गुण अरिहंतना, सिद्धां ना गुण आठ । छत्तीस गुण सूरीस ना, पणवीस पाठक पाठ ।।२।। गुण सत्तावीस साधु ना, सरवालै सब जांणि । अट्ठोत्तर सो इम कह्या, विवरौ तास वखाणि ॥३॥
ढाल १
(सेज यात्रा करूं ए एहनी) बैसै सोवन सिहांस ए, छत्रत्रय सिर धार । ए गुण अरिहंतना ए, भवीयण बार उदार ॥ आंकणी ।।
ए गुण अरिहंतना ए० ॥४॥ चामर वींझै देवता ए, ऊपर वृक्ष असोक । देवतणी वागै दुंदुभी ए, नाटक बत्तीस थोक ॥५॥ ए गुण० पुप्फवृष्टि सुरवर रचै ए, भामंडल प्रभु पूठि। अद्भुत रूप अरिहंतनौ ए, विगत मेल नही झूठि ॥६॥ ए गुण० स्वेत रुधिर गोखीरसो ए, सासोस्वास सुगंध । गुण अनंत भगवंतना ए, ए गुण बार प्रबंध ।।७।। ए गुण० सिद्धना गुण अड हिव कहुं ए, ग्यान दर्शन बे अनंत । ए गुण छे सिद्धना ए, भवीयण आठ उदार ।। आंकणी ॥ समकित अनंत अनंत सुखी ए, अनंत वीरज ए अनंत ॥८॥ ए गुण०
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अव्याबाधपणै रहै ए, अगुरुलघु भगवंत । पुनरावर्ति नही जेहनै ए, अड गुण सिद्ध कहंत ।।९।। ए गुण० वीस थया बिहुना मिली ए, अरिहंत सिद्ध उछाह । गुण गुंथ्या ए गणधरु ए, नवकरवाली मांहि ॥१०॥ ए गुण०
ढाल २
(सील कहै जगि हुं वडौ एहनी) छत्तीस गुण ग्रह्या सूरिना, ए नवकरवाली मांहे रे । रूपवंत तेजवंत हुवै, वलि आगम सहु अवगाहै रे ॥११॥ छत्तीस० मीठो बोलै मुख थकी, गुरु सायर जेम गंभीरो रे । बुद्धिवान द्यै देसना, तिम अपरश्राव सुधीरो रे ॥१२॥ छत्तीस० सौम्य प्रकृत हुवै सूरिजी, संग्रहना सील कहीजै रे । अविग्रहै विण न रहै घडी, अवकच्छन सत्य वदीजै रे ॥१३॥ छत्तीस० अचपल सत्य हृदय सदा, ए पडिरूवादिक चवदे रे । खंत्यादिक दस ध्रम जती, वीर विवरो तसु इम प्रवदै रे ॥१४॥ छत्तीस० क्षमावंत मार्दव महा, किण वातनौ ए अहंकारो रे। माया न करै लोभ तजै, तप संजम साचौ उचरै रे ॥१५॥ छत्तीस० सदा रहै सुचि साधुजी, अणदीधो कांइ न लेवै रे । परिग्रह अलगो परिहरै, ब्रह्मचर्य सदा ते सेवै रे ॥१६॥ छत्तीस० ए दस यतीध्रम मेलतां, गुण चौवीस थायै गुरुवा रे ।। बारह भावन भावना, इम छत्तीस गुण गुरु हुवा रे ॥१७॥ छत्तीस० प्रथम अनित नित को नही, ए असरण भावना बीजी रे । सरूप विचारै संसारनो, ए संसार भावना तीजी रे ॥१८॥ छत्तीस० एक जावै आवै एकलो, ए एकत्व भावन भावै रे । जीव थकी छे जूजूया, धन परीयण अन्य कहावै रे ॥१९॥ छत्तीस० देह अशुचि कर पूरीओ, अशुचि करी उतपन्नो रे । छट्ठी ए असुचि भावना, धन परियण छोडै ते धन्नो रे ॥२०॥ छत्तीस० पांच आश्रव दुखदायगा, पंच इंद्री तिम पिण राखै रे । संवर भावन आठमी, मन समाधि मांहि राखै रे ॥२१॥ छत्तीस०
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अनुसन्धान-७५(२)
छत्तीस०
नवमी निर्जर भावना, तप ऊपर निज मन धारौ(धार) रे। दशमी लोकसरूपनी, बोधदुरलंभ इग्यारै रे ॥२२॥ जे निज आतम वसि करी, चालै जे गुरुनी शिक्ष्या रे। धरम आराधन भावना, धन धन जे पालै दिक्षा रे ॥२३॥ अरिहंत सिद्ध सूरीसरू, गुण छप्पन्न भेला होवे रे । गुण पचवीस पाठक तणा, जपमाली इण पर प्रोवे रे ॥२४॥
छत्तीस०
छत्तीस०
ढाल ३ (कृपानाथ मुझ वीनती अवधार एहनी) चवदै परब सीखवी जी, तेम इग्यारह अंग । सूत्र भणावै तिम भणै जी, ए पचवीस गुण चंग ॥२५॥ पाठकना ए गुण माला मांहि, नाम कहूं हिव तेहना जी। आणी अंग उछाहि, पाठकना ए० ॥आंकणी।। उत्पाद पूर्व आग्राहिणी जी, वीर्यप्रवाद वखांणि । अस्तिप्रवाद नै पांचमो जी, ग्यांनप्रवाद तूं जाणि ॥२६॥ पाठकना० सत्यप्रवाद छट्ठौ कह्यो जी, सातमो आत्मप्रवाद । करमप्रवाद ते आठमो जी, प्रत्याख्यान प्रवाद ॥२७॥ पाठकना० विद्याप्रवाद तथा वली जी, कल्याण नाम प्रवाद । प्राणवाय ते बारमो जी, क्रियाविशाल अनाद ॥२८॥ पाठकना ए० लोकबिंदुसार जाणवो जी, चवदमो पूरब एह । अंग इग्यारह हिव कहूं जी, नाम सुणौ धर नेह ॥२९॥ पाठकना ए० आचारांग प्रथम कहूं जी, सूयगडांग नैं ठाणांग। समवायांग नै भगवती जी, न्याता छट्ठो अंग ॥३०॥ पाठकना ए० उपवासग नैं अंतगडदिसा जी, अनुत्तरवाई एम । पण्हावागरणं तथा जी, विपाक सूत्र छै तेम ॥३१॥
पाठकना ए. सरवालै च्यारे मिली जी, इक्यासी गुण होइ । गुण सत्तावीस साधुना जी, अट्ठोत्तर सो होइ ॥३२॥ पाठकना ए०
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ढाल ४
(सेज यात्रा करू ए एहनी) पंच महाव्रत पालिवा ए, दमें वलि इंद्री पंच । कषाय चो टालिवा ए। टालै तीने दंड मनो वच कायना ए, टा(पा)लै सतरे भेद । संजमना साधजी ए॥३३॥ पालै ..............., पालै दस यती ध्रम । निपुण निरबाधजी ए। गुण सत्तावीस साधुना ए, जाणीजै जिनध्रम्म । सूरां (सुगुरु) इम उपदिसै ए ॥३४॥ नवकरवाली मणियडा ए, अट्ठोत्तर सो एह । सुगुरु इम गुंथीया ए। चतुर जोडायौ चउढालीयौ ए, सुंदरदास सुजाण । पाठक राजसोम भणइ ए ॥३५॥
॥ इति श्री अट्ठोत्तर सो गुण नवकारवाली स्तवनम् ॥ ॥ सं. १८८१ रा । मिति आसोज वदि ३ शनिवासरे श्री विक्रमपुरे लि. पं. धनसुख ॥श्रीः।।
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अनुसन्धान-७५(२)
भावप्रभसूरिजी-रचित सुकडि ओरसिया संवाद रास
सं. - साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री
विक्रमनी अढारमी सदीना उत्तरार्धमां थई गयेला पूर्णिमागच्छीय श्री विद्याप्रभसूरि → ललितप्रभसूरि → विनयप्रभसूरि → महिमाप्रभसूरि शिष्य भावप्रभसूरि, जेओश्रीए अनेक रास, चोविशी, वीसी, चोपाई अने अनेक सज्झायो वगेरेनी रचना करी छे जेमांनी वि.सं. १७६९ मां 'श्री हरिबल मच्छीनो रास', वि.सं. १७७५मां 'श्री अंबड रास', त्यारबाद पोताना गुरुनो 'श्री महिमाप्रभसूरि निर्वाण कल्याणक रास' वि.सं. १७७२मां, ते पछी वि.सं. १७९७मां 'श्री सुभद्रासतीनो रास', वि.सं. १७९९मां 'श्री बुद्धि विमला सती रास'नी रचना करी छे. विशेषमां तेमणे सं. १७५४मां पाटण, ढंढेरवाडामां रहीने 'श्रीचन्द्रप्रभसूरि रास'नी रचना करी हती, तेवी पण विगत जाणवा मळे छे.
तेओश्रीनुं विचरण क्षेत्र प्रायः उत्तर गुजरात हशे एम कल्पना करी शकाय. 'हरिबल मच्छी रास' तेओश्रीए रूपपुर गाम (पाटणनी नजीक आवेला चाणस्मानी बाजुमां आवेलुं छे)मां अने बाकीना रास पाटणमां ढंढेरवाडामां रच्यानो उल्लेख 'जैन गूर्जर कविओ'मां छे.
श्रीभावप्रभसूरिजीनी एक अप्रगट रचना 'सुकडि ओरसिया संवाद रास' अहीं प्रस्तुत करी छे.
सामान्यथी वाद के संवाद चेतन-चेतन वच्चे थाय, ज्यारे अहीं कविनी कल्पना जड एवा सुकडि ने ओरसिया वच्चेनी छे. अने ते द्वारा कुलाचारनी रीतिनीतिने वादमां वणीने मजानो संवाद रच्यो छे, जे नर-नारीने जीवन- आचारदर्शन करावी जाय छे.
रासनी मांडणी करतां सूरिजी आ अवसर्पिणीना प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेवना काळमां पहोंची जाय छे.
'ऋषभजिणंद अयोध्यामां पधार्या छे, समवसरण रचायुं छे ने भरत चक्रवर्ती पिताने वंदन करवा आवे छे, देशना सांभली भरतजी प्रभुने पूछे छे संघपति पद एटले शुं? अने प्रभुजी स्वमुखे संघपतिपदनो महिमा वर्णवे छे, ए सांभळी देवेन्द्रनी विनतिथी
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भरतराय संघपति बनी श्रीशत्रुजय महातीर्थनो संघ काढे छे, गिरिराज पहोंची वर्द्धकि रत्न द्वारा शत्रुजयगिरि ऊपर सौ प्रथम मन्दिरो बनावडावे छे ने प्रतिमाजी भरावी अंजन-प्रतिष्ठा उत्सव मंडावे छे. ते महोत्सव समये चक्रवर्ती प्रभुनी पूजा, विधिविधान माटे सुखडनो नानो टूकडो (सुकडि) हाथमां लई ओरसिया उपर एक घसरको करे छे त्यारे सुकडिने ओरसीयानो संग नथी गमतो तेथी चक्रवर्तीने विनति करे छे ने वात वातमां सुकडि अने ओरसिया वच्चे वाद थाय छे, झघडो कही शकाय एवो. ए वादने संवादमय बनावे छे कविश्री भावप्रभसूरिजी, जे प्रस्तुत रचनामां ज जोईशुं.
___ आवी रचना करवानो उल्लास सूरिजीने क्यारे जाग्यो तेनी वात तेओ अन्तिम ढाळमां कहे छे. प्रसिद्ध पाटण नगरमां जयतसी सुत तेजसी दोसीए सहस्रकूट मन्दिर बनाव्युं तेनो प्रतिष्ठा उत्सव श्रीभावप्रभसूरिजीनी निश्रामा कराव्यो. आ अन्तिम ढाळनी १० गाथा बाद, वच्चे ए प्रतिष्ठा प्रसंगनो उल्लेख करती 'रूपक ढाल'नी ७ गाथा नोंधे छे जेमां लखेल छे के 'वि.सं. १७७४ना जेठ सुदि आठमे - सोमवारे स्वगुरु श्रीभावप्रभसूरि पासे दोसी जयतसी पुत्र तेजसीए सहस्रकूट नामर्नु तीरथ करावी प्रतिष्ठा करावी'. प्रस्तुत रासनी पूर्णताए सूरिजी लखे छे के 'प्रतिष्ठाना प्रसंगथी कविहृदयनी उर्मि जागतां भावप्रभसूरिजीए शिवसुखना हेतुभूत जिनस्तुति स्वरूप आ सुकड ओरसियानो संवाद रास वि.सं. १७८३ ना श्रावण सुद ७ ना रविवारे रच्यो'. साथे रास पूर्ण करतां कविश्री एक खुलासो करे छे के रासमां वच्चे जे अनागतकाळना दृष्टान्त कह्या छे ते कालना उपचारथी जाणवा.
प्रस्तुत रास १६ ढाळमां पथरायेल छे. आ रासनी १४ पत्रनी झेरोक्स प्रति पर 'ला. द. भेट सुरक्षा 4960' लखेल छे.
प्रतिलेखनमां लहियानो क्यांक हस्व-दीर्घ अंगे उपयोग ओछो रह्यो छे. क्यांक एक ज शब्दने बे जग्याए अलग लख्या छे ते यथावत् ज राख्या छे. ओरसियामां 'ओ'ना स्थाने घणी वखत 'उ' (उरसियो) लख्यो छे जे सुधारी दरेक स्थाने 'उ'नो 'ओ' करी दीधो छे. एकंदरे अक्षर सुवाच्य छे.
विशेष नोंध : प्रस्तुत रासनी रचनाना निमित्त विशे -
पाटणमा हालमा 'मणियाती पाडामां' श्रीसहस्रकूट मन्दिर घरदेरासर मोजूद छे, नानकडं पण रमणीय पित्तलमय बिम्ब छे, जेना ऊपर महिमाप्रभसूरिजी- नाम वंचाय छे. आ गृहजिनमन्दिरनो वहीवट वर्तमानमां पाटणना नगरशेठ कुटुंब हस्तक छे,
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अनुसन्धान-७५(२)
तेओनी वंशावलीमां मूलपुरुष तरीके तेजसी शेठनो उल्लेख छे. तेमज तेओनी वहीवंचानी नोंधमां लखेल छे के -
___ "श्रीमाली ज्ञातिना नगरसेठ तेजसीए बाप, नाम जेतसी । सहस्रकूट भरावी तेनी प्रतिष्ठा पूनमगच्छना भावप्रभसूरि पासे करावेली ते सेठ पूनमना अनुयायी श्रावक हता अने तेमनी अटक दोशी हती"
आ जोतां नक्की थाय छे के । शक्य छे ए ज घरमन्दिरनो उल्लेख आ रासमां होय या ए ज घरमंदिर सहस्रकूटनी प्रतिष्ठा आ रासनी रचनानुं निमित्त बनी होय. 'जैन गूर्जर कविओ'मां नोंध मळे छे के जयतसीना पुत्र तेजसी श्रेष्ठीए घणुं द्रव्य खरची भावप्रभसूरिने आचार्य पद अपाव्युं छे जेनो उल्लेख महो. यशोविजयजी कृत 'प्रतिमाशतक पर संस्कृत टीका सं. १७९३मां रचाई तेमां अन्ते "जयतसीना पुत्र तेजसी श्रेष्ठीए घj द्रव्य खरची सूरिपद जेने अपाव्युं छे तेवा भावप्रभसूरिए आ वृत्ति पूर्ण करी" एम मळे छे. अने श्रीमहिमाप्रभसूरि निर्वाण कल्याणक रासमां पण छेल्ली ढाळमां दोसी तेजसी शेठनो विशेष उल्लेख छे. अस्तु.
सुकडि ओरसिया संवाद रास
सकल सिद्धि प्रसिद्ध जस, जगगुरु परम प्रकाश श्री नाभेयजिन प्रणमीइ, अंतर चित्त उल्लास ॥१॥ सिद्धसेनादिक कविवरा, परतक्ष सरसति तेज, वाणी कामगवी समा, चित्त धरीइ धरी हेज ॥२॥ श्रीमहिमा गुरुरायनो, पांमी चरण प्रसाद सुकडि-ओरसीया तणो, कहिस्युं सरस संवाद ॥३॥
श्री ऋषभजिणंदनो, सुत श्रीभरत प्रसिद्ध षट खंड भरततणो धणी, चऊद रयण नवनिधि ॥४॥ चओसट्ठि सहस्स अंतेउरी, ऋद्धितणुं नही मान नगरी अयोध्याइं करइ, चक्कवइ राज्य प्रधान ॥५॥
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सप्टेम्बर
-
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ढाल
[१]
वीर वखाणी रांणी चेलणाजी - ए देशी
नयरी अयोध्याइं आवीया जी, तातजी ऋषभजिणंद समवसरण सुभ सुर रचइ जी, सेवता चओसठि इंद ॥१॥ धन दिन जिनजी समोसर्या जी, भरतरं वधामणी दीध तातनइ चरणे आवी नम्यो जी, प्रभुतणी देशन पीध ध० आंकणी देशना अंतई अरिहंतनई जी, पूछता भरत राजान
संघपति पद समझावीइ जी, सुणि तव कहइ भगवान ॥२॥ ० तीर्थंकर पद जिम जगइं जी, संघपति पद तिम जांण भाग्य विना नवि पांमीइ जी, जेहथी सकल कल्याण ||३|| ६० इंद्रपद चक्रिपद जगि भलां जी, शुभतर तेहथी एह
तीर्थंकर नाम गोत्रनई जी, उपजावइ सही तेह ||४|| ध० अरिहंतनइं पणि मांनवा जी, योग्य ए संघपद सार तेनो अधिप वली जे हुइ जी, लोकोत्तर अधिकार ॥५॥ घ० चउविह संघसहितस्युं जी, वासना शुभ वहंत
देवगृह रथ उपरि धरई जी, विविध उच्छवस्युं वहंत ॥६॥ ६० पंचविध दान देतो जगइं जी, ग्रामपुर जिहां जिनगेह
विचित्र पूजा ध्वजरोपणा जी, समकितवासित देह ||७|| ध० शत्रुंजयादिक तीर्थनी जी, जे करइं इणि विधि यात्र संघपति तेहनें भाखीइ जी, पग पग पोषइ सुपात्र ॥८॥ घ० पूजवा योग्य संघपति हुइ जी, सुरवरनई पणि जाण आदि जिणेसर इम कहइ जी, केतलुं कीजइ वखा ॥ ९ ॥ ० सुरपति तव कहइ भरतनई जी, धरि संघपतिपद भूप निजमुख त्रिभुवननायकें जी, जस फल भाख्युं अनुप ॥ १० ॥ घ० संघपतिपद तव धारवा जी, भरतनृप थया उजमाल
धवल दीयां तव सुहवइं जी, रमझम ताल कंसाल ॥११॥ ६० उठ्या देवदेवी सहू जी, संघसहित जिनराय
आखेवास नाख्यां शिरें जी, भरतनई हरख न माय ॥ १२ ॥ घ०
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अनुसन्धान-७५(२)
शक्रई भरत कंठे ठवी जी, दिव्य मनोहर माल भरतरांणी सुभद्रा तणइ जी, कंठि बीजी सुविशाल ॥१३॥ ध० निजमंदिर नृप आवीया जी, तेडीया संघ बहुमान श्रीभावप्रभसूरि कहइ जी, संघपति काज प्रधान ॥१४॥ ध०
. दहा
करइ सजाई संघनी, पांयक छन्नू कोडि वाहन सयल सणगारीयां, दीपइ होडाहोडि ॥१॥
ढाल - [२]
झूबखडानी यात्रालगन ठरावीउं दीधां बहुलां दान भरत नृप संघपति, आंकणी अष्टाह्निक उच्छव कर्या निजपुर चैत्य प्रधान १ भ० शत्रुजयगिरिवर यातरा करवा सहुनइ कोडि भ० । धन भरतई कीधी जिणें संघपतिनी कर जोडि २. भ० हाथ नालेर सोहावीओ आखे तिलक निलाड भ० संघपतिपद जयघोषणा पूरवा संघनी लाड ३. भ० रतनजडाव अंबाडिइं झूल सोवन झलकंत भ० गज उपरि चक्कवइ चढ्या धणण घंट रणकंत ४. भ० सोवनरथ ऊपरि ठविउं निजहर देवहर ताम भ० मनोहर मणि रयणांतणुं दीपतुं तेज उद्दाम ५ भ० छत्रत्रय तेह ऊपरें चामर सार विजाय भ० इणि विधि रथ को आगलिं हर्ष कल्लोल न माय ६ भ० विविध सुखासण पालखी नारि चओसठि हजार भ० झमकतां झांझर पायलां घूघरे रथ झमकार ७ भ० चउविह संघ परिवारस्युं हयगय राज राजान भ० भरत सिधाचल आवीया इणविधि दीध निसान ८ भ० बंदि बिरुद संगीतस्युं वधाव्यो गिरिराज भ० । मोती सोवनफूलडें इणि विधि कीधलां काज ९ भ०
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दीठो गिरि रलीयामणो तीरथथान अनेक भ० श्रीभावप्रभसूरि कहइ पांमीइ पुण्यइं विवेक १० भ०
दूहा
सुरपति भरतने इम कहइ, पुण्य पवित्र अगराज ए सम कोई नही जगि, सेव्यां सिझइ काज १ कांकरइ कांकरइ एहनें, सिधा साधु अनंत यद्यपि तीरथ स्वरूप छइ, महीधर एह महंत २ तउ पणि ईहां करावीइ, श्री जिनना आवास आगलि पडतो काल छइ, जिम जन धरइ विश्वास ३
ढाल - [३]
निंदरडी वइरणि होइ रही - ए देशी वयण सुणी इम शक्रनां, भरतेसर हो तव दीध आदेश कि वारु वर्द्धकि-रतननइं, करि सुंदर हो तुं चैत्य निवेश कि १ श्री सिद्धाचल सेवीइ, शुभ चित्तई हो जिन ध्यान समाव कि शुद्ध स्वरूप गवेषणा, हुइ अनुभव हो रस योग जमाव कि...श्री० आंकणी। आदि उद्धार ए भरतनो, पुण्य पाईउ हो रोप्यो श्रीकार कि परंपरा दुसम लगइं, भवि तारक हो बहुला उधार कि... २ श्री० वर्द्धकीइं विधिस्युं कर्यो, मणिरतनें हो चउमुख प्रासाद कि त्रैलोक्यविभ्रम जेहनू, नाम जगमइ हो टालइ विखवाद कि... ३ श्री० इकवीस एक एक बारणइ, इम मंडप हो चुरासी मान कि मणि तोरण वरमालिका, गोख जाली हो रूडां विज्ञान कि... ४ श्री० मूल गभारइ चिहुं दिशि, करी मूरति हो रतनमय च्यार कि। स्वामि श्रीऋषभजिणंदनी, मुख दीपइ हो तेजें झलकार कि... ५ श्री० बिहुं पासिं पुंडरीकनी, तिहां कीधी हो मूरति सुविशाल कि निरखंतां नयणां वरइ, हुइ दर्शनइ हो दुरित विशराल कि... ६ श्री० जिन कायोसग्ग मूरति करी, नमि-विनमि हो रह्या खडगने खिच कि सेवा करइ वली प्रारथइ, अह्म दीजीइ हो प्रभु देशने विच कि...७ श्री०
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अनुसन्धान-७५(२ )
समोसरण त्रिगडुं कर्यु, मांहि चउमुख हो जिनधर्म कहंत कि आगलि नृप भरतनी, करी मूरति हो कर जोडि रहंत कि... ८ श्री० नाभि अनें मरुदेवानी, करी मूरति हो प्रासाद सहीत कि सुनंदा - सुमंगलानी, निपाई हो मूरति धारी प्रीति कि... ९ श्री० कीधी ब्राह्मी सुंदरी, वली मूरति हो नवाणुं भ्रात कि
वरण लंछन जिनमांनथी, चुवीसी हो थापी विख्यात कि... १० श्री०
इम तीरथनी मालिका, निपाई हो वर्द्धकीइं वेग कि गोमुख अनें चक्केसरी, इत्यादिक हो मूरति अतिरेक कि... ११ श्री० दूहा
भरत नृपति चित्त हरखिया, थया पूरण प्रासाद महाप्रतिष्ठाना हवइ, वाज्या वाजित्रनाद नरवर सुरवर किन्नरा, मिल्या भविकना थाट गान गाइ देवांगना, सुहव करि गहिगाट इम जलथानें आवीया, वधाव्यां नालेर ढोल निसानां वाजतइ, दिगपति बलि ऊदेर रयण कनक रूपातणा, मृन्मय कुंभ अनेक वारि वर पुरुषे भर्यां, विधि विस्तार विवेक जल उच्छवनें इम करी, आण्यां निरमल अंभ स्नात्र साज सघला सजइ, स्नात्रक पुरुष अभ मनोहर मूली ओषधी, मोती रयण प्रवाल तीर्थोदकमाटी शुभा वाला गंध विशाल अगर कपूर केसर सुकडि, वाव्या वली जवार प्रतिष्ठा उपयोगिनी, वस्तु सज्जी सवि सार वरगडूआ सरावलां, नवग्रह नंदावत्त ओषधी अंजन पीसणी, विहि सजाई विचित्त
॥१॥
॥२॥
॥३॥
11811
11411
॥६॥
11611
॥८॥
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ढाल - [४]
गिरिथी नदीयां उतरइ रे लो - ए देशी भरत नरेसर भावस्युं रे लो, नाह्या निरमल नीर रे सुविवेकी लाल । धार्यां निर्मल धोतीयां रे लो, धर्म मारगमांहि धार रे सु० १ आदि प्रतिष्ठा ए भरतनी रे लो, धन शत्रुजयगिरि कीध रे सु० कीरतिथंभ आरोपीओ रे लो, ऋषभपुत्रिं प्रसिद्ध रे सु० आदि० आंकणी जे जेहना अधिकारमें रे लो, सहु स्नात्रक थया सज्ज रे सु० ओरसीइ ते परिवर्या रे लो, घर्षण पीसण कज्ज रे... २ सु० आं० भरत भूपति भलइ भावस्युं रे लो, लेई सुकडि हाथ रे सु० ओरसीया आगलि रह्या रे लो, नरवर सुरवर साथ रे सु० ३ आ० करइ घसरको जेहवइ रे लो, ओरसीयाने अंग रे सु०। सुकडि बोली तेहवइ रे लो, अविरल वाणि उत्तंग रे. सु० ४ आ०
भरत सुणो एक वीनति रे लो० टेक वात विमासीने करो रे, चक्रधर चतुरां राय रे सु० आदीसर अरिहंतनो रे लो, पुत्र तुं मोटो कहिवाय रे सु० ५ भ० ए अणघटती वारता रे लो, किम करीइ राजान रे सु० ओरसीया सम किम घसो रे लो, ए अह्म अंग प्रधान रे सु० ६ भ० तरुवरमांहि शिरोमणी रे लो, अझ अंग परिमल पूर रे सु० वासुं भुवन सुवासस्युं रे लो, एक पवननें पूर रे सु०७ भ० ए ओरसीओ उथमी रे लो, निगुण निपट ए हीण रे सु० पड्यो रहइ ए पांगलो रे लो, मिलतानें करइ क्षीण रे सु० ८ भ० मूढनई इम कहइ मानवी रे लो, प्रत्यक्ष एह पाषाण रे सु० । ए उपमा एहनें घटइ रे लो, हीणइ हीण संधाण रे सु० ९ भ० टांकणइ एहनें कोरीओ रे लो, बहुविध अंगे खात रे सु० । घसइ न परनें घासवइ रे लो, ए दुर्जन साख्यात रे सु० १० भ० बूडाडइ बूडइ जलें रे लो, पडतां करइ संहार रे सु० । खारो लागइ चाटतां रे लो, उपाड्यो बहु भार रे सु० ११ भ० अणमिलतो जोडो जगिं रे लो, हासीनुं हुइ ठाम रे सु० श्रीभावप्रभसूरि कहइ रे लो, करीइ विचारी काम रे सु० १२ भ०
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अनुसन्धान-७५(२)
१
दूहा इंद्र इंद्राणी अपच्छरा, किंनर नरनी कोडि चक्कवइ चंद्रमुखी सहू, सुणी रह्या कर जोडि सहू विमासइ चित्तमे, एतो मोटो वाद जोतां तो जुगतुं कहइ, सुकडि वात सवाद पडिछंदइ प्रासादनइ, अधिकुं जागइ जोर । बोली सुकडि बालिका, सुणो तजीनइ सोर
२
३
ढाल - [५] जब लगें तुझ गुण सांभल्या रे
तब लगें लागो मोह मेरे साहिब - ए देसी रोहण द्रुम शाखा कहइ रे, सांभलज्यो सहू कोय मेरे साजन पांणी दूध पटंतरो हो लाल, राजहंसथी होइ मेरे साजन १ उत्तम संगति गाजीइ हो लाल, लाजीइ निचनइ संग मे० मिल्यां शोभा निज जातिमां हो लाल, अन्य जातिस्यो रंग मे० उ० टेक
ओरसीउ निज नामथी रे, जगमें पमाडइ भ्रांति मे० जूओ रूप रंग एहना हो लाल, काया नें वली कांति मे० २ उ० कपूर केसर आदि घणी रे, वस्तु सुगंध कुटुंब मे० ते पणि अग्गि रहिओ सुणइं हो लाल, कहइ जे चंदन कंब मे० ३ उ० नीच संगति करतां जगई रे, अंतइं हुइ दुखदाय मे० वायस हंसनी वारता हो लाल, जिम जगमें कहिवाय मे० ४ उ० यतः - नाहं काको महाराज, हंसोहं विमले जले
नीचसंगप्रसंगेन, मृत्युरेव न संशयः १ ओछानइ छांहीइ वस्यां रे, आवइ अंगें आल मे० अह्मे सुकडि सुकडि जसी हो लाल, भावीइ मनें भूपाल मे०५ उ० ओछाईओ ओछांतणो रे, दाय न आवइ देव मे० उठो आदि जिणंदने हो लाल, सुपर कीजइ सेव मे० ६ उ०
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२०३ अह्म परिमल अबोटजो रे, तउ चडीइ जिन अंग मे० परिमल जो कुणइं भोगव्यो हो लाल, तउ पूजाइं भंग मे० ७ उ० अझने कुंआरी जो तुझे रे, जिननें भेटावो भूप मेरे साजन फल अतुल तुम्मनें हुइ हो लाल, द्रव्यपूजानुं अनूप मे० ८ उ० संगति अणमिलती जगें रे, वारइ तेह सुजाण मेरे रा० उचित संगति सेवता हो लाल, जगमें जसनी खाणि मे० ९ उ० यतः
दुहा
सज्जननई सज्जन मलइ, बाझइ रूडी प्रीति दुधमांहि मिसरी भली, मेंठी ए जगि रीति १ सज्जन नें दुरजन मिलइ, अवगुण सवि ढंकंत सोना उपरि काच जिम, धरइ पीरोजा कांति २ दुरजननें सज्जन मिलइ, गुण सघलो ही जाय पीतल उपरि माणिक्य जिम, काचगमे वेचाय ३ दुरजननें दुरजन मिलइ, कोइ न आवइ लाग
चम्मक पहाणतणी परें, साहमी ऊठइ आगि ४ पूर्वढाल -
घटइ नही जे वारता रे, ते किम कीजइ मंडाण मे० श्रीभावप्रभसूरि कहइ हो लाल, इणिपरि सुकडि वाणि मे० ९ (१०) उ०
दुहा सुणी ओरसीउ चिंतवइ, अहो गिरिराज सुपुत्र उत्तर ईहां जो नवि करूं, तो न रहइ घरसूत्र १ अणबोल्यां रहितां थकां, जाइ कुलनी माम अकर्मी बेटी होई, खोइ बाप, नाम उपायूँ गिरिवंशनें, हुं सुत छु समरत्थ किम ए सुकडि लाकडी, करइ मुझस्युं भारत्थ ३ श्री शत्रुजयगिरि वडो, सयल तीरथ शिरताज अकर्मी बेटो सुणी, ते पणि पामइ लाज
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अनुसन्धान-७५(२)
न
ओरसीओ रसीउ थई, हीयागडो धरी हाम सुरनर सहू को सांभलइ, तिणिविधि बोल्यो ताम ५ रे कटकी चंदनतणी, म करि ए अभिमान मुझ वयण जव सांभल्यां, त्रूटी जास्यइ तान ६ धरणीपति हाथें धरी, तिणिं तुझ बध्युं गुमान कीडी सोनी(ना)इ चडी, तिणिविधि उठ्युं तान ७ सुंयाली सुकडि जसी, कोइ नही जगमांहि । तुझ मुख दांत न जाणता, एतला दिन तो प्राहि ८
ढाल - [६]
धन धन भी ऋषिराय अनाथी - ए देशी लोकमई तुं नारी कहिवाणी, सांभलि सुकडि वाणी रे उपरि वली अभिमान भराणी, पणि कुहाडइ कपाणी रे १ गर्व न कीजइ सुणि रे गहिली, गर्व सदा दुखदाई रे स्त्रीनी जाति विशेष जांणो, अच्चंकारी दुख पाई रे ग० टेक ॥ श्रीखंड नाम नपुंसक ताहरूं, गीर्वाण भाषा कहीइ रे नटूयानी परिं नाम फेरवीती, किम जगमे जस लहीइ रे २ ग० जिम जिम ताहरूं गायु गायु, तिम तुझ उदकण धायुं रे सुगंध कर्म पूर्वइं कमायुं, ए कारण ईहां पायुं रे ३ ग० वेद नपुंसक सहूथी हीणो, स्त्रीवेदें अति माया रे भोगी नरने तुं भोलाडइ, लही सुगंधा काया रे मायामोसा बहु स्त्री जाति, पापस्थान सत्तरमुं रे जीपq दोहिलुं यति पणि जाणइ, धन जो एहथी विरमुं रे ५ ग० पंडित सरिखा पणि नवि जाणइ, स्त्रिया चरित्र अति मोटं रे जो रूठी तो यमें नं चालइ, तेहस्युं वढवू खोटुं रे ६ ग० कुमारपालने जूयो कामिनीइं, कूड कलंक चडाव्यु रे पंगु संघातें भोग प्रपंच्यो, अगनें देह झंपाव्यु रे ७ ग० नयणे जूठी वयणे झूठी, जूठी संधोसंधि रे तेहनें पोतानी करी मानइ, ते तो कामनइ अंधइं रे
४ ग०
८ग०
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जूठइ हालइ जूठइ चालइ, जूठई जूठं ठेलइ रे जूठां फल जोईतां उतरइ, मृषावाद नइ वेलइ रे । ९ ग० प्रीसंतां घेवर भुंइ पाड्युं, पतिनुं वचन न सांख्यु रे तातुं घी पति उपरि नाख्युं, पति जई यतिव्रत कांडुं रे ९ (१०) ग० यशोधरने नयणावलीई, वडुं खवायुं विष, रे परदेशीने शस्त्र प्रयुंज्युं, सूरिकंताई नख- रे १० (११) ग० एकनें नयणे एकनि वयणे, एकनें लहिजई पाडइ रे एकनें कूपरें भूहि नांकइ, एकनइं जीव ओडाडइ रे ११ (१२) ग० एकस्युं साकर वाणी घोलइ, एकस्युं कर्कस त्राडइ रे एकनें लूखं सूखं प्रीसइ, एकनें सरस जिमाडइ रे १२ (१३) ग० कलंक पोतार्नु परनें नांखइ, जिम पति पाये लगाड्यु रे । पेखो चुलणीनी चातुरीयां, सुत घर अगनि जगाड्यु रे १३ (१४) ग० नूपरपंडितानइ संबंधइ, शशरइ निंद निवरती रे । माउत मारण चोर ओगारण, जूउ रांणी ते करती रे १४ (१५) ग० एकनें हिंचण खाटि हीचोलइ, एकनें न दीइ ढोलइ रे
कागथी बीहुं इम एक बोलइ, जल तरतां बल खोलइ रे १५ (१६) ग० यतः गाथा
दीहे कागाण बीहेसि, रत्तिं तरसि नम्मयं ।
कुतित्थाणि य जाणासि, अच्छीणं ढंकणाणि य १ बहुविध चेष्टा कही न जाय, स्त्रीनी काम विभंगइ रे धन मुनिवर ते मोटा जगमें, जे न पड्या इणि संगे रे १६ (१७) ग० प्रायें जाति कही ए स्त्रीनी, पणि न हुइ सहु सरखी रे जिन जननीनी सोल सतीनी, पुण्यरीत जूउ निरखी रे १७ (१८) ग० नारी नाम आभासा मात्रे, जउ पणि तुं तरु जाति रे । शोभनकटि स्त्री अर्थविशेषइं, धूजइ ब्रह्मव्रत भ्रांति रे १८ (१९) ग० पणि तुं पूजानइ अधिकारे, श्रीजिन अंगें चढती रे तिणि ताहरुं हुं मुख राखुं छु, जू पणि मुझस्युं वढती रे १९ (२०) ग० सुकडिनइ इणि परि समझावइ, ए ओरसीउ रसीउ रे श्रीभावप्रभसूरि इम भाखइ, धन शत्रुजइगिरि वसीउ रे २० (२१) ग०
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अनुसन्धान-७५(२)
हा
अवकर्षक वली इम कहइ, चंदनलता प्रबोध स्याने ताणइ सुंदरी, स्याने करइ तुं क्रोध प्रभु आगलि कोइ उडवइ, चंदन इंधणभार करी पूजा को नवि कहइ, विण पूरण अधिकार २ यद्यपि नैगम नयतणां, भंगतणां सवि ठाम पणि सापेक्षे सत्य छइ, निरपेक्षई नही काम ३ उत्तरकारण ईच्छिइ, तउ सामग्गी सर्व पूजा हुइ प्रभुजीतणी, गोरडी मुंकीइ गर्व ४ टग टग करती टीकडी, चंदननी रहइ छप्प तुं पणि तउ आवी इहां, करी कुहाडइ कप्प ५ तें करी मुझ अवहेलना, ते पणि सांभलि तिम लाकडीइ गिरि भांजस्यइ, तउ जगि रहस्यइ किम ६
ढाल - [७] श्री सीमंधर साहिब सुणीइ भरत खेत्रनी वातो रे - ए देशी धीर गंभीर पुरुषनी वांणी, उच्चारइ सुविशुद्धो रे आदि अंति सुविचारी बोलइ, तेह वखाणइ विबुद्धो रे १
ओरसीउ कहइ इम सुकडिने, सांभलज्यो सह लोको रे टेक निर्गुणनें धणनी उपम, ते पणि जगमें गवाय रे हुं भारीखम किम ते भालूँ, तुं जिम बोली दाये रे २ ओ० उरस् शब्द हृदयनो वाची, तिणि हुं औरसिक कहीइ रे हृदय विहूणां जे जगि ढांढां, ते तुह्म सरिखां लहीइ रे ३ ओ० शैलराजतणा अह्मे बेटा, शैलराज कहाउं रे बाप सरिखा बेटा जगमें, साचुं नाम धराओ रे ___४ ओ० अह्म जेहवो कोई उपगारी, नही जगमांहि जाणो रे कारण विण कोई काम न थाय, ए मनमांहि आणो रे ५ ओ०
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कारज इच्छइ कारण छांडइ, ते मिथ्यामत कहीइ रे मरुदेवीना लाडकडानु, वयण एह सद्यहीइ रे ६ ओ० अह्मे अपूरव छु ब्रह्मचारी, अह्म अंगि जेह लोडाणी रे ते वस्तु जिननें चढइ जो तुं कोन कहइ भोगवाणी रे ७ ओ० तिं तो वात कही सवि ताणी, छीदरी मति महिलानी रे दीर्घ आलोच नही को तुझमई, रहिस्यो आप हारीने रे ८ ओ० मुझ विण भोग लीइ कोइ ताहरो, तो तुं कुंयारी न कहीइ रे जिणपूजाइं काम न आवइ, तिणि मुझ संगम सहीइ रे ९ ओ० केसरादिक सुगंध क्रियाj, जो पणि कुटंब ए ताहरुं रे पणि तुझ कथन ए कोइ न मानइ, मांनइ वयण ए माहरुं रे१० ओ० गंधनी छाकी क्लेसनी माती, क्लेशवल्लभ स्त्री जाति रे
घरनो संप घडीमें भाजइ, जगि वनितानी वाति रे ११ ओ० यतः
स्त्रियां त्रिणइ वल्लहां, कलि कज्जल सिंदूर पुनरपि त्रिण्यइ वल्लहां, दूध जमाई तूर परमानंद आनंद कहइ, सगपण भलो कइ संप रेह पडी गिरि पत्थरई, तउ जड घाली लंप जिहां तें वरस लगें लड्या, जिमणो डाबो हाथ ।
आहार कर्यो नही तिहां लगें, आदीसर जगनाथ पूर्वढाल
जब तई मुझस्युं संप नही तुझ, भेली कोई न विचइ रे तव तं सुगंध क्रियाणुं जूदं, खोटी मति कां खिचइ रे १२ ओ० स्वार्थभंगे सगपण नासइ, नासइ भूतड्या मार रे अन्न विना जिम काया नासइ, प्रीति नासइ चढ्यइ खार रे १३ ओ० देश विणसइ जिम नृप विहूणो, नासइ रंग मन भंगें रे नासइ सुख त्यां क्लेश थयो तव, विण शक्ति नासइ संगे रे १४ ओ० ते तो घर नाळु जांणीजइ, जस घर बाहिर वात रे तिम सुकडि तुं काइ न समझइ, करतां ए अवदात रे १५ ओ०
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अनुसन्धान-७५(२)
यतः गाहा -
एक्कु कुडुल्ली पञ्चहिँ रुद्धी
तहँ पञ्चहँ वि जुअंजुअ बुद्धी। बहिणु एतं घरु कहि किंव नन्दउ
जेत्थु कुटुम्बउँ अप्पण-छन्दउं
पूर्वढाल -
मुझस्युं मेल करइ तव ताहरइ, मेल सुगंधिक साथें रे भरी कचोली परिमल रसस्युं, जिन पूजइ नृप हाथें रे १६ ओ० संप वडो संसारमें कहीइ, संपें सवि सुख लहीइ रे श्रीभावप्रभसूरी कहइ इणिपरि, सुकडि सुगणि सद्दहीइ रे १७ ओ०
दहा
به
سه
वयण सुणी नगसुत तणां, बोली सुकडी साख तुं लिंबोली सारिखो, अझे तो पाकी दाख शिला तुमारी मातृका, गंडशैल तुह्म तात लोढी भगिनी जांणीइ, ए तुह्म कुंटंब विख्यात जेह हठीलोह तुझ तणो, लघुभाई मगशेल पुष्करावृत्त पयोदनी, जिणें सही जलरेलि तो पणि ते हार्यो नही, उठ्यो अंगमरोडि, पुष्करावृत्त नासी गयो, हीणास्युं सी होडि ए उपनय सिद्धांतमां, जे श्रोता इणि ठाम उपदेशक जे तेहना, तेहनी न रहइ मांम तेहवी प्रकृति ताहरी, करइ हठीली वात कुल सारु कोमलपणुं, जीभ जणावइ जाति भासा प्रा(प्र)कृति भूलणी, उझरमइ अन्य गात्र नाम अवकर्षक सत्य ते, कहइ शब्दनां शास्त्र
ه
م
م
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सप्टेम्बर
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ढाल - [८] रहु रहु रहु बालहा - ए देशी
सुकड बोली सुसमां, रहइ रहइ छांनो सेल लाल रे निर्गुण नें गुणवंतनें, करतो तुं सेलभेल ला० ओरसीउ तुं नामथी, पणि नवि जाणइ भेद ला० पंडित ओलई पइसवा, फोगट धरतो उमेद ला० फोकट फूलण बोलडा, नवि निरवाहनी रीत ला० पणि मूरख जांणइ नही, अंघोलमां लघुनीत ला० उहना जिमणी आलसू, प्रकृति खारी लूस ला० घरसूरो मुखपंडीउ, मनमें न माइ सूस ला० लाज विहूणो लंपटी, किहां कइ पामइ कूट ला० भामिनी भाणा उपरिं, घरि आव्यो करइ च्छूट ला० जिहां तहां खाइ पलतूड, लेखावटीउ रीसाल ला० अकर्मी अणखें भर्यो, पांच ए स्त्रीनां काल ला० यतः च्छंदः
जूलीखालो देहरो मालो भोलो ढालो ढीलंगो कीयो कर्म्मो कालो जाणें लीहालो मुख लालाई चूयंगो डीगोडो लालो ठीकर ठालो नही लक्षण नही लावण्णं
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१ सु०
२ सु०
३ सु०
४ सु०
५ सु०
६ सु०
तिणि प्रीतम पाखें नारी आखइ सरस्यइ वरस्यइ साजणं - १ थि कूटाणो होवि रीसाणो भाजइ भांणो आइ थरें
नही गांठ नाणो धाननो दाणो जोतां न होइ कांई परि
ठोठ ढींगालो भडंग भूखालो दई तडिंगालो चावण्णं ति० २ कवित्त काज पाखें कसकसइ देहतो दुखनो दरीउ (ओ) मति हीण मूरख सहूमां चोभरीओ
मिली ते मुंछ नें पूछिउ पडइ न हाथ हीयाथी रे परमेसर प्रगट कर्यो ए दलिद्र कठाथी तंबोल तेल फूलेल तज़िरी टलगावइ रालडे लागड्यो मतां माटी इस्यो गोरी रंगीले खालडे
३
२०९
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अनुसन्धान-७५(२)
पूर्वढाल -
स्यु मुख लेई बोलतो एह सभामें आज ला० । सुखी मुझ साहमो थयो निलज्ज नावइ लाज ला० ७ सु० कटकइ बटकइ त्रटकतो निरस तुं पत्थर पिंड ला० भरतें पखाल्यो हाथस्युं तव थयो लाडनो लिंड ला० ८ सु० होडि करइ तुं माहरी, पामीसि घणी अवहेला ला० तरु जाति मोटी अह्मे, करु उपगारइं केलि ला० ९ सु० जन काजें घटनें ग्रहइ, कोई न झालइ चाक ला० शीतें वस्त्रनें संग्रहइ, कोई न उढइ त्राक ला० १० सु० कारणने स्युं कीजीइ, कार्य सेती काम ला० पटें बंधाइ न पोहिरो, बांधइ गाठइ दाम ला० जउ पणि नैगमनयतणा, प्रस्थादिक दृष्टांत ला० कथन मात्र ते जांणीइ, अंत्य गमइ नीराति ला० १२ सु० तद्भव तारी नवि सक्या, श्रेणिकनें जिनराज ला० स्वोपादांन काचइ छतइ, काचं कारण साज ला० १३ सु० मलकि गाल ए स्युं करइ, स्यु करइ नियति भारत्थ ला० स्युं कर्म स्युं उद्यम करइ, स्वभाव एक समरत्थ ला० १४ सु० श्री मरुदेवी माडली, गज उपरि गई सिद्ध ला० कुण कारण एहनें भज्युं, सहज स्वभाव प्रसिद्ध ला० १५ सु० परमाणु जे अमतणा, परिमल भेट्या सोय ला० स्वोपादान परिणति छतइ, ईच्छइ न कारण कोय ला० १६ सु० सुगंध क्रिया| अह्मतणुं, ते ताहरु नवि थाय ला० सगपणि ते सोनुं सदा, पीतल प्रीति कहाय ला० १७ सु० तुझ हृदयें नवि परिणमइ, सीखामणनी सुवास ला० श्रीभावप्रभसूरि कहइ, सुकडि वयण प्रकाश ला० १८ सु०
यतः
इहा
संगति कीजइ साधुकी, हरइ उरांकी व्याधि ओछी संगति नीचकी, आठां पुर उपाधि
॥१॥
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संगति भई तो कहा भया, रिदय भया कठोर नवनेजा पांणी चढइ, तउइ न भीजइ कोर बीहता इंद्रथी बापडा, रह्या दरियामांहि बूडि दीठां बल डुंगरतणां, हुइ तुं स्यानें हूड
॥२॥
॥३॥
ढाल - रसीयानी - ९मी
सीखामणि तुझनें लागइ नही, ताहरी तो अवली रे रीत ओरसीया अन्य जातिं संगति तुं वांछतो, पणि नवि बाझइ रे प्रीति ओ० ॥१॥ वाद न कीजइ हो विण शक्ति किहां, जिम मंकोडो रे रांक ओ० गुल गुंण भारवहन अभिमानता, कहइ छइ कइडनो लांक ओ० ॥ वा० टेक तरुवरजाति जगें मोटी कही, उपगारीमे रे रेह ओ०
वणसइकाय अनंती जिन कहइ, जेहनो नावइ रे छेह ओ० ॥२॥ वा० अशोकवृक्ष जिनेसर उपरिं, पल्लव पोढी रे छाय ओ०
२११
समवसरण शोभावइ चिहुंदिशि, शोकनिवारण थाय ओ० ||३|| वा० आरामशोभानें शोभा धरी, करी सहवा (का) री रे छाय ओ०
जिन पूजा फल माहात्मथी थयु, एहवुं शास्त्रं गवराय ओ० ॥४॥ वा० महीयल मोटा कलपतरु कह्या, वंछित पूरइ रे वेग ओ० शीतल छाई सहूने सुख करई, धरइ ते जानइ रे तेग ओ० ॥५॥ वा० जंबू आदि दश रुअर भलां, जिहां जिनवरना प्रासाद ओ० ईग्यारसें सित्तेर संख्या थकी, उपजइ दीठां आह्लाद ओ० ||६|| वा० विमल कमलमांहिं कमला वसइ, तरुवरें चितरवास ओ०
घासें जीवें जगि सघलां पशु, विण धन तृणना आवास ओ० ||७|| वा० जिनहर मंदिर मनोहर मालीयां, लक्कड कोट कमाड ओ०
रायण अंब इत्यादिक फल भलां, लोकनां - पूरइ रे लाड ओ० ||८|| वा० चंदन मूरति जीवित स्वामिनी, हासा प्रहासापति कीध ओ०
नृप उदायन वीतभय पाटणइं, जेह पूजाणी प्रसिद्ध ओ० ॥९॥ वा०
नाटक करती दारु पूतली, तिम नाटकीयाना वृंद ओ०
प्रतिमा आगलि भविजन देखतां, रोपइ समकीतनो कंद ओ० ॥ १० ॥ वा०
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अनुसन्धान-७५(२)
फूल सुगंधा पंचवरणतणा, सुंदर गुंथी रे माल ओ० श्री जिनराजनें कंठई थापीइं, टालीइ पापना जाल ओ० ॥११॥ वा० जपमाली सुंदर दारुतणी, जपीइ जिननां रे नाम ओ० विविध प्रकारनी सुंदर उषधी, हुइ प्रतिष्टानइ काम ओ० ॥१२॥ वा० खाट खटोलडी मांची ढोलीया, विविध सुखासण सार पाटि पीठ पाटी नि पाटला, ग्रहइ निरवद्य अणगार ओ० ॥१३॥ वा० डा. वेष शोभावं साधनो, डांगडी गलीयां आधार ओ० धोकै वनफल झूडी खाईइं, चालवू जेह हथीयार ओ० ॥१४॥ वा० वस्त्र अनोपम वणसइकायनां, लोकनी राखइ रे लाज ओ० । व्रत लीधइ पणि जिन खंधई धरइ, संयमइ साधुनइ साज ओ० ॥१५।। वा० ए विण कुण आछादइ इछनई, कुण वली टालइ रे टाढि ओ० तापनइ वारण जलतारण तरु, मुंकि तुं कूडि रे राढि ओ० ॥१६॥ वा० भूख दुख समावइ सुख करई, अन्न अमारी रे जाति ओ० देवदालि रोदंतीथी हुइ, सोवन सिद्धि विख्यात ओ० ॥१७॥ वा० मूलि मनोहर ओषध जेहनां, टांलइ सहुनो रे रोग ओ० शाक पाक पचनविधि काष्ठथी, जेहथी सुखीयो रे लोग ओ० ॥१८|| वा० तेल सुगंधा विणिसइ जातिथी, उत्तम नरने रे भोग ओ० चंदन वास सहूनें वालही, रायरांणीनइ संयोग ओ० ॥१९॥ वा० इम अनेक अमारी जातिथी, लोक लोकोत्तरें योग ओ० श्रीभावप्रभसूरीश्वर इम कहइ, तरु उपगारीआ लोगि ओ० ॥२०॥ वा०
दहा हिवइ ओरसीइ उम्मही, कर्यो वाणी विस्तार गिरिवर गुफा गजावतो, सिंह समोवड सार जड पणि चडवड बोलणो, घटसरसति साख्यात जाणुं दैवत भावथी, सभा समीक्ष्य विख्यात २ रसीउ ओरसीउ जूड, कसीउ कटिपट्ट बंध हसीउ पणि खसीउ नही, धसीउ वाग् प्रबंध ३ संगति ताहरइ सापनी, सीधदायक कुठार पवन तुझ गंध चोरटो, तु तुझ किम रहइ कार ४
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यतः
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रे सुकडि समझ नही, कां तुं बांधइ कर्म्म जिन आगम सायर समो, न लहइ तुं तस मर्म निज अभिमानें पंडिता, तिणि (तणि) नवि सीझइ काज इम उत्सुत्रनें बोलती, लेस न आवइ लाज सांभलतां श्री संघने, करस्युं एहनि मेड ऊत्रेवडना आदिनुं, काढ्यां मुंकीसि डि कमजा कमल जंबू प्रमुख, कल्पतरु जे कहाय देवदुष्य सुभ वस्त्र जे, ते तो पृथिवीकाय
वणनीरविमाणाइ, वत्थाभरणाइ जाइ सव्वाइं । पुढवीभवाइ सव्वाइं, देवाणं हुंति उवभोगे ॥
ढाल १० नणदलनी
७
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आदि जिणेसर देवनो, साचो छइ सिद्धांत सु० मानुं न वचन मिथ्यात्वनां, भागी छइ मुझ भ्रांति सु०
मन निश्चल करि सांभलो, खोटइ उपजें खीज सु० साच सुगुणने वयणले, रूडइ उपजें रीझ सु० म० आंकणी सु० म्हास्युं जोर न चालस्यइ, वारस्य तुझनें विबुध सु० आलस्य प्रायश्चित्त एहनुं, चालस्यइ मारग शुद्ध सु० सु० हिवइ स्युं थाइ आकुली, वाधस्यइ कारणवाद सु० मत जूठो ताहरो थस्यइ, फलस्यइ जिहां स्याद्वाद सु० ३ सु० चउविह संघ कानें पडी, झाली न रही वात
सु० अति अभिमानें आदर्यां, हीनत जगमें कहात सु० सु० तरुवर जातइ मोटी करी, अवहेलि अन्य जाति सु० सम परिणामें ज नवि रही, पाडूई परनी तांति सु० सु० जगि आधार ए जांणीइ, पोढी पृथिवीकाय सु० जाति अमारी जिन कहइ, बहुविध भेद कहाय सु०
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अनुसन्धान-७५(२)
सु० घनोदधि प्रमुख अछइ, भूमिनइ पणि आधार सु० स्वप्रतिष्टित आकाश छइ, ए तो विशेष विचार सु० ७ सु० जग सघलो जे उपरि जिन, मुरनि(मुनि)वरनो विहार सु० तरु पणि ऊगइ तिहां किणइ, सर्वंसहा सुखकार सु० ८ सु० सोवनगिरि मुख गिरिवरा, जिहां जिनवरनां गेह सु० शास्त्रे संख्या तेहनी, नमतां वाधइ नेह सु० सु० तुं पणि ऊगी परवतें, हुं पणि तेहनो पुत्र सु० हुं भाई तुं भइणिली, एहमां नवि उत्सुत्र सु० सु० सात धातु कनकादिकें, चालइ जग व्यवहार सु० दांमें थाई दीपतो, तेह करइ उपगार सु० सु० गढमढ मंदर मालियां, जिनमूरति सुकमाल सु० स्युं न होइ अम जातिथी, अवस्थायी बहु काल सु० १२ सु० मणिमहोरा हरइ जहिरनें, जेहनी शक्ति अनंत
सु० झवहिर जाति प्रवालीया, मुक्ताफल झलकंत सु० १३ सु० यतः
हस्तिमस्तकदंतौ तु, दंष्ट्रा श्वानवराहयोः
मेघो भुजंगमो वेणु-मत्स्यो मौक्तिकयोनयः १ सु० शाक पाक शुभ तिहां लगें, जिहां लगें माहि लुंण सु० ते पणि मनमां धारवो, ए पणि पृथिवी कइ कुण सु० १४ सु० पाक न हुइ तरु भाजनइ, तरु भूषण नवि होय । सु० भूषण मणि सोवनतणां, जग झगमगतां जोइ सु० १५ सु० पुढवीकाय ए इणीपरें, उपगारी तुं जांणि सु० श्रीभावप्रभसूरि कहइ, तुं एकांत म ताणि सु०
दुहा धूरत धीठ ओरीसडा, सांभलि रे तुं साच स्युं जगमा जोतां थकां, तें आवी रही लाछि जे तें माथु उपाडीउं, मुझस्युं करवा वाद घेटानि परि घुरहों, सर्वि सुण्यो तव साद
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सयल संघ तुझ आगलिं, सहजें आव्यो आज तिणि फूली चलो थयो, किस्युं कर्तुं ते काज निर्धन धन पांमी गणि, जग त्रिणखला समान तिम तुं पणि नाची रह्यो, देखी ए राजान देखी टोलुं लोकनुं, हुइ भुरायो ढोर तिम तुं भूरायो थयो, रह्यो संघ तुझ कोरि हुइ दुर्जन फअरे सदा, लही माननो लेश गाडुं थई रहइ गर्वनुं, मानइ नही उपदेश दुर्जन दाव्यं राखीइं, तउ हुइ श्वान समान जउ माथई चढावी, करइं नवेरां तांन स्युं साहमो थई बोलतो, मुंकी द्यई पाखंड नांख्यो खुंणइ खोतरइं, पडी रहइं जड पिंड सुकड नाम ए अतणुं, रे ओरसीया धारि अर्थ सहित साचुं अछइ, बहु परयाय भंडार सुक्रिया सुकृतिकारिका, शुभ सुतवंती जेह शीलें निरदुषण वहू, सुकडि कहीइ तेह वाचक पूजा प्रशस्य नो, छइ सुशब्दें समास सुकडि शुभ नारी कही, स्युं जड जाणइ विमासि
यतः
अव्याकरणी जनस्त्वंधो, मूकस्तर्कविवर्जितः । साहित्यरहितः पंगु-बधिरः कोशवर्जितः ||
संकट सविदूरेंटल, सति नार्मि निरधारि कुलवहूनी कुलचालिनो, सुणो कहुं अधिकार
ढाल
११ मी
चतुर सनेही मोहनां । ए देशी
कुलवहूनी कुलचालि ए, विनयवती गुणखाणी रे चतुर विचक्षण सारदा, बोलइ मीठी वाणी रे
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१ कु०
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अनुसन्धान-७५(२)
दीइ नही पर पुरुषनें, हाथोहाथें ताली रे लाज तजीने कहि कइस्युं, न करइ वात वेधाली रे २ कु० परम नेहें पर पुरुषस्युं, मिटइ मिट न जोडइ रे आखो दिन घर बारणइ, ऊभी अंग न मोडइ रे ३ कु० रूप न जूइ पुरुषनां, मुख अंग करइडि वलांकइ रे कामदीपइ जोतां जिणि, परस्युं होडि न पांकइ रे ४ कु० पति गामांतर गई छतइ, वेष विशेष न वांछइ रे पति पहिली जिमें नही, पहिली न सूइ मांचइ रे ५ कु० दूतिकर्म जे आचरइ, हीणी जाति नारीनी रे तेहस्युं मिलq नवि करइ, जेह द्यइ मति जारीनी रे ६ कु० अणढांक्यइ अंग आपणइ, जिमतिम किहांइ न बइसइ रे एकलो पुरुष जिहां धरइ, प्रायें तिहां न पइसइ रे ७ कु० पर अजाडी नवि पडइ, स्त्री जाति हुइ शाणी रे कष्ट पडइ पणि आपणुं, राखइ शीलनुं पांणी रे ८ कु० अति आसक्त भोगें नही, पति अनुकुलइ चालइ रे हाथबली हुइ नही, दान गुणिं करी मालइ रे ९ कु० पति वश्य हुइ जो आपणो, तउ परवें व्रत पालइ रे मूल नक्षत्र कुयोग जे, भोगटांणइ संभालइ रे १० कु० लोभाइ नही लालचई, को धइ नांणुं लाखो रे शीलव्रत मुंकइ नही, धरें धरमें अभिलाषो रे ११ कु० चपल नयण चाला तजइ, हिंडती अंग न भाजइ रे वेधक बोल वाले नही, हास्य कर्यां जे लाजइ रे १२ कु० एकांते कोई पुरुषस्युं, न करइ वात न हासी रे । उंचइ मुढइ न बोलती, लोकमें लहइ स्याबासी रे १३ जेठादीक अणजाणतइ, व्रतभंग होइ बिहूनां रे तिणिं पर मांचइ नवि सूइ, निद्राइं जन शूनां रे १४ कु० जे नामें संकट टलइ, सोल सति जगि सारी रे वात कथा करइ तेहनी, शील संबंध उदेरी रे
뻥
뻥
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सप्टेम्बर २०१८
कुल मर्याद लोपइ नही, श्री जिनधर्म आराधई रे श्रीभावप्रभसूरि कहइ, धन शिवमारग साधइ रे
दूहा
इंद्राणी रांणी सहू, सुणी प्रसंसइ सार
सुकडि सुकडि एहवी जगें, कोइ नही सुविचार १ पत्थर साथि लडावतां, स्युं सुकडिनें स्वामि इम स्त्री चक्कवइनें कहइ, ऊठि करो निज काम छांनो न रहइ राक्षसो, वारो तो स्युं थाय जोतां सत्य सुकड कहइ, पहाणें किस्युं सधाय ३ डिन मुंकइ कूबडो, ओरसीउ अगलंच
१६ कु०
पाछो बोलनें वालतो, न करइ ए खल खंच सुकडि पक्ष सहू थई, भली भलेरी नारि पुरुष प्रधान ओरीसडो, पणि किम पामइ हारि भरत कहइ भामिनि सुणो, म करो केहनी पक्ष कारणवादी पणि भलो, छइ ओरीसो दक्ष ललकार्यो जिम सीहलो, फोरइ ततखिण फाल तिम नरपति वयणां सुणी, बोल्यो गिरिवर बाल ७ गर्व कर रे गहिलडी, पांमी गंध पसत्थ
जो जिन अंगे नवि चढी, तु तुंझ जनम अकयत्थ ८ तिणि हुं कारण सत्य छं, स्युं इम कुद्यइ थाय हलूई अति उछांछली, हिणी नारि कहाय सुकडि ते निजनामनां, संभलाव्या परयाय ईम माहीरी पणि नामना, बहु परयाय कहाय ओरसीउ ए नांमनों, जे छइ अर्थ विशेस कहितां पार न पांमइ, पणि कहुं कांईक लेश ढाल १२ मी
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सुणि सुगुण सनेही रे साहिबा । ए देशी
ओरसीउ तेहनें भाखीइ, जेह पुरुस मांहि रेह रे सुपुरुसनी चालि चालतो, विनयी निरदूषण देह रे
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१ ओ० टेक
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अनुसन्धान-७५(२)
जे रसीओ पापनें मारगें, तेहनो संग मुक्यो छोडि रे जे धर्ममारग रसीउ थउ, तेहनें मिलवानी कोडि रे २ ओ० कापुरुषपणुं दूरइ तज्युं, सुपुरुस धराव्युं नाम रे सात व्यसन थकी जे वेगलो, न करइ अकारज काम रे ३ ओ० जे उद्धतपणुं सवि परिहरइ, राखें निज कुलनी लाज रे जे महाजनमां शोभा वधइ रे, तेहवां करइ रूडां काज रे ४ ओ०
ओ कामणगारी कामिनी, ठगारी कपट- ठाण रे तेहनां पासामें नवि पडइ, जांणइ दुखनुं मंडाण रे ५ ओ० परस्त्रीस्युं नयण न जोडतो, परस्त्रीस्युं न करइ हासि रे । परस्त्री हुइ जिहां एकली, बइसी न करइ तिहां लबासि रे ६ ओ० जे परस्त्रीस्युं राता थया, मुंज रावण जेहवा राण रे तेहनां दुख जाणीने करइ, निज स्त्री संतोष सुजाण रे ७ ओ० ओ स्त्री साकरनी सेलडी, हेजालां सुंदर नेत्र रे देखीने मनमें चिंतवइ, सात धातु अशुचिनुं क्षेत्र रे ८ ओ० मोटी स्त्री मानइ थानकें, नाही गणइ बहिन समान रे नारीनां अंग उपांगमें, न करइ नयणां संधान रे ९ ओ०
ओ जगि स्त्री संग दुल्लंघ छइ, तजवा रस जाग्यो योग रे विषयथी मन वाल्युं जिणें, मिथ्यातनो नाठो भोग रे १० ओ०
ओ शीलनी वाडि सोहामणी, पालवा रसीउ निस दीस रे मन वचन कायाथी नवि डगइ, जगमां लीध जगीस रे ११ ओ०
ओ जैन धर्म साचो जगें, तेहनो सेवा रस जांण रे नवतत्त्व सद्दहण नवि तजइ, घटमांहि जिहां लगें प्राण रे १२ ओ०
ओ देव ते अरिहंत मन धरइ, गुरु ते सुसाधु महंत रे जिनभाषित धर्म भलो जगें, नित्य रिदयमांहिं समरंत रे १३ ओ० ओ चैत्य करावइ सुंदरू, ओ पूजें श्री जिनराय रे ओ संघ काढइ तीरथतणा, साहमीवच्छल वरताय रे १४ ओ० ओ पांच प्रकारना दान जे, तात्त्विक पणि रसीओ तास रे धरइ धीरज सत्त्व मुंकइ नही, जन कहइ तेहनें स्याबासि रे १५ ओ०
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सप्टेम्बर - २०१८
ओ समकित सरस चंदन रसें, शांत कीधा च्यार कषाय रे ओ व्रत नियमें विचरइ सदा, तिणि अवरति दूर पलाय रे १६ ओ० ओ श्रावक व्रत पालइ भलां, साचवइ हिंसानां ठाम रे ओ जिनभाषित सप्तक्षेत्रमें, वावरइ वित्त शक्ति उद्दाम रे १७ ओ० यतः
खंडणी पेखणी चुल्ली, जलकुंभी प्रमार्जनी
पंच सूना गृहस्थस्य, तेन स्वर्गं न गच्छति १ ओ कुवचन कोई बोलइ नही, न करइ अकराकर काम रे ओ रयणीभोजननें तजें, न भखइ अभक्षनुं नाम रे १८ ओ० ओ आगम रसना धुंटडा, सांभलि सुहगुरुनइ पासि रे । ओ अनुभवरस मीठो घणुं, लावइ मनमांहिं उल्लासि रे १९ ओ० ओ सहज चिदानंदरस भर्यो, झीलइ अध्यातममांहि रे पुदगलने खेल न राचतो, न पडें परमादें क्याहि रे २० ओ०
ओ श्रावक वली श्राविका, ओ साधु साधवी सार रे । भावप्रभसूरि कहइ धन्य जे, धरइ जैनधर्म हितकार रे २१ ओ०
दूहा कहइ ओरसीउ सांभलो, इम होइ अर्थ अनेक व्यस्त समस्त पद चालना, कविजन लहइ विवेक १ धर्म थकी स्युं हुइ जगें, कुण ग्रह साहमो छांडि कुण अंतस्था अंतनो, ते जिनस्युं लय माडि २ संभवः कुंण जनपद निरसो कह्यो, कुण वसइ स्वर्ग मझार वंध्या वांछइ केहनें, कुण शत्रुजय सार ३ मरुदेवा पुत्र कुण असरीरी भाखीइ, कहीइ केह्वो वाय मोटु पद कुण गृहस्थनें, कहेवो भरत कहाय ४ सिद्धाचल संघपतिः जीव स्वभाव केहवो हुइ, कुण थिर मोटइ देह संसारे स्युं पांमीइ, स्युं करइ डाहो तेह ५ विमलगिरि जाय
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२२०
अनुसन्धान-७५(२)
भरत ओरसीउ भरतनें, मिल्यां सुरनर टुंग समझावो सुकडि प्रतें, हजी न उडइ उंघ पुंणी पर्वत आगलइ, मांडइ निज माहात्म्य । कूप डेडकी किम लहइ, गुरु सरोवर गम्य वयण न मानइ माहरूं, खरी हठीली एह उपदेस्युं अरीहंतनु, हिवइ सुणावो तेह कहइ चक्कवइ कर जोडिनें, चउविह संघ समीप भगवन गणधर भाखीइं, प्रभु अनेकांत प्रदीप श्री गणधर कहइ सांभलो, आदि जिणेसर वांणि । पक्षपातने परीहरी, मुंकी ताणोताणि
ढाल - १३ मी नदी जमुना के तीर उडइ दो पंखीयां - ए देशी आदीश्वर जिन वांणी प्रांणी सांभलो गणधर भाखइ एम मुको मन आंमलो चक्कवइ चउविह संघ सुर्रिद उलटपणइ ओरसीउ सुकडि बइठां सहुइ सुणइ कारण विण कारज निपजई नवि जाणीइ जिनभाषित जाण्या विण कांइ न ताणीइ चक्र दंडादिक विण जो जगि घट निपजइ तो वंझा उयरिं सुपरि सुत संपजइ । कारण कीजइ किहां किणि काल थाइ नहि तो पणि पुनरपि कारणे ते हुइ सही तिणि कारणिं पंच कारण भाख्यां जिनवरई काल स्वभाव नियत कर्म उद्यम सम परइं जिहां हुइ धूम वह्नि तिहां निश्चइ लहो जिहां वह्नि तिहां धूमतणी भजना कहो तिम कारज कारणस्युं करीइ योजना तात्त्विक कारणे कारज होइ निश्चइय जना
३
४
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सप्टेम्बर - २०१८
२२१
पचनविधि क्रिया विण पाक न धाननो बोल्या विना उठंइ(उंठइ) नही स्वर कोइ गामनो
अन्न कवल उद्यम विण नवि आवइ मुखइं विण पुण्ये किम संपत्ति भोगवीइ सुखइं ५ लेपन पूजन दीपन धूपन देवने ते तेहनां कारण कर्या विण नवि बनइ घोला कर्या विण प्रभुनें अंगइ किम चढइ सुकडि ओरसीआ स्युं तो तुं कां वढइ ६ भावपूजा- कारण छइ द्रव्यपूजना उत्थपयतो उत्थपाइ तुं पणि एकमनो जे स्याद्वाद एकांतवादीने भाजतो सातइ नय समुदाय सुधांजन आज तो पहिलो नैगम नय भगवंतें भाखीउ सामान्य में विशेष अर्थ तिणि आखीउ सामान्ये करी सकल घटनें घट कहइ विशेषे आपपणो (आपणो) घट ओलखी ग्रहइ ८ बीजो संग्रह नय सामान्य गजावतो वनस्पतिनी जाति लिंबादि समावतो त्रीजो नय व्यवहार विशेष संभालतो लिंबादिकमां वनस्पतिने घालतो । चउथो नय ऋजुसूत्र संप्रति जे वर्त्ततो तेहज मांनइ अर्थ बीजाथी निवृत्त तो भाव निक्षेप मांनइ बीजा त्रिण अवगणइं लिंग वचनना भेद ते कोइ नवि भणइ पांचमो शब्द नय अनेक पर्यायथी घट कुंभ कलश एक ज वस्तुं ऊठइ तेह थकी छठो समभिरूढ पर्यायिं भिन्न कहइ घट कुंभ कलस जूदा पट परें ते बुद्ध लहइ ११
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२२२
अनुसन्धान-७५(२)
१२
१३
एवंभूत एहवू नाम सप्तम नय वहई निज कारज करतो पर्याय ते सद्दहें शत शत भेद एक एक नयनां जांणीइं सातसें नय प्रनालिका इम वखाणीइं चार द्रव्यार्थिक त्रिण पर्यायार्थिक उत्तरा ज्ञानक क्रिया नय अवतारइ ईहां बुद्धिवरा एक एक नय विरोधि मिथ्यामत भाखीइ समुदायें स्याद्वाद वंछितरस चाखीइ मरुदेवी गयां मुक्ति व्यवहारिं नवि अड्यां राजपंथ नही एह सहज चरणे वद्यां करतां अपूरवकरण कर्मकटके लड्यां तेहज कारण जाणि प्रमादें नवि पड्या तिणि कारणे रचना गंभीर ए नय तणी राखीइ निज ठाम न नाखीइ अवगणी सुणि सुकडि ए परिमल स्वभाव तुह्मतणो पणि ओरसीया अंग प्रगट हुइ अतिघणो प्रधानकारण सुकडि जो पणि तुं अछइ प्रथम ओरसीउ कारण चढइ जिननें पछे मानी सुकडि वात सहू संघ हरखीउ पुण्य पवित्र भवी जिणि जन मत परखीउ सुकडि ओरसीयाने सीस नमावती जे कह्यां वयण अलिक ते सर्व खमावती कहि ओरसीउ सुकडिनें धन तुं जगि जे चढइ जिननइ अंगिं किहा ते अम्म लगें मेल थयो ओरसीया साथें मलपतो धन सुकडि सुवास भरत इम बोलतो श्री भावप्रभसूरिसर भाखइ सांभलो द्रव्य पूजाइं भावपूजामां भवी भलो
१५
१६
१७
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सप्टेम्बर २०१८
दूहा
संघपति भरत ते हर्खीउ, हर्य्यो संघ समस्त धवल मंगल महिला दीइं, वाज्यां वाजित्र शस्त सुकडि ओरसीयां तण, मेल हूओ श्रीकार सुगंध कुटंब सवि हरखीओ, घन केसर घनसार मर्द्देइ ओरसीइ मुदा, चकवइ मुख नरनारि गिरि शत्रुंजय गाजतो, भूषणनें झणकार कनक रयण कचोलडी, भर्या सुगंधि घोल महाप्रतिष्ठा उत्सवइ, हुइ मन छाकमछोल
ढाल
१४ मी
राग महार (मल्हार)
हवइ पांचमी वाडि विचार कि श्रमण सोहामणा रे कि श्रमण सोहामणा रे वह बांधी सुविशाल कि सार शोभा वधी रे कि सार शोभा वधी रे बइठी मांहि वरनारि कि पीसी उषधी रे कि पीसी उषधी रे
-
अंजन कीधुं सज्ज भाजनमें उधर्यु रे
कि भाजनमें उधर्युं रे जे हनुं जे काज कि ते तेणिं कर्तुं रे
कि ते किर्युरे भरत नरेश सुरेश कि सर्व सनाथीया रे
कि सर्व सनाथीया रे
—
१
स्नात्र भणावइ सर्व गाजइ जिम हाथीया रे
कि गाजइ जिम हाथीया रे करइ सवि उचित काज दीइ अधिवासना रे कि दीइ अधिवासना रे
२
४
ऐ देशी
२२३
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२२४
अनुसन्धान-७५(२)
किना
शुभ लग्नें जिनमूरति नयणें अंजना रे
कि नयणे अंजना रे इम ते प्रतिष्टा उच्छव भरतें शुभ परें रे
कि भरतें शुभ परें रे कीधां मंगल काज कि सयल जिनवर धरइ रे
कि सयल जिनवर धरइ रे देव देवी आह्वान विसर्जन सवि कर्यां रे
कि विसर्जन सवि कर्यां रे निर्मल बलि विधान प्रधान उचित वाँ रे
कि प्रधान उचित वर्यां रे ३ भेरी ताल कंसाल मादल वाजइ वली रे
कि मादल वाजइ वली रे मनोहर नाचि मोर मधुर ते सांभली रे
कि मधुर ते सांभली रे वालइ गात्र सुपात्र नाचइ देवांगना रे
कि नाचइ देवांगना रे समकित बीजाधान देखी करइ भविजना रे
कि देखी करइ भविजना रे ४ सयल प्रासादने शृंग अनेक धजा धरी रे
कि अनेक धजा धरी रे लहकइ वायनें जोर कि रणक्कइ घूघरी रे
कि रणक्कइ घूघरी रे घोडा पामइ त्रास सूर्यना ते सुणी रे
कि सूर्यना ते सुणी रे नाखइ उथेडी रथ रथिकनइं अवगणी रे
कि रथिकनई अवगणी रे ५ दीधां पात्रे दान कि संघ संतोषीउ रे
कि संघ संतोषीउ रे
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सप्टेम्बर - २०१८
२२५
धर्मनो मारग इम बहुविधि पोषीउ रे
कि बहुविधि पोषीउ रे श्री भावप्रभसूरीश्वर कहइ भवियण सुणो रे
कि भवियण सुणो रे जे करइ जिननी भक्ति सफल तेहनें गणो रे
कि सफल तेहनें गणो रे
६
दूहा
विधिस्युं कर जोडी कहइ, भावई भरत नरिंद वीनतडी अवधारीइ, जगगुरु आदि जिणंद अल्पमति अह्म सारिखा, तुझ गुण पारावार । कहिवा किम समर्थ हुइ, वाणीनइ विस्तार तो पणि कांइक वीन, निजमतिनइ अणुसार सेवक सद्दहणा थकी, भक्ति वडी संसार ३
ढाल - १५ मी
ईडर आंबा आंबली रे – ए देशी आदि जिणेसर साहिबा रे, जगगुरु परमकृपाल मीठडी मूरति ताहरी रे, अतिशय रंग रसाल जिणेसर साची ताहरी सेव दलमां चाहु देव
बीजी न गमे टेव जि० टेक राग नही तुझमें रती रे, द्वेषनो नहि परजाय । कारण प्रसादजु कोपर्नु रे, तिणि तुझमें न कहाय २ जि० नृपकारज करें सेवका रे, नृप तस पूरइ लाड जगमें रीत छइ एहवी रे, ठाकुर मानइ पाड ___३ जि० पणि जगि जोतां ताहरइ रे, ऊंणुं नही को काज जेह करी सेवक करइ रे, प्रसन्नमुख महाराज ४ जि० निरंजन निरलेपनें रे, भक्ति सफल जिम थाय द्रव्य पूजा अलगी रहइ रे, जोतां नवि ठहराय ५ जि०
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२२६
जे आज्ञा जिनवर तणी रे, भावपूजा ते जाणि
तेनुं कारण भक्ति अछइ रे, भवि संशय मन नांणि ६ जि० अचिन्त चिंतामणि सेवतां रे, हुइ फल वंछित संग तिम जिनवर तुझ भक्तिथी रे, उल्लसइ अनुभव रंग ७ जि० कल्पवृक्षनी छांहडी रे, करइ जगमें उपगार
तिम जिनराज सेवा थकी रे, प्रांणी लहइ निस्तार सफल सेवा तिणि ताहरी रे, जिणि तुझ शुद्ध स्वभाव श्री भावप्रभसूरी कहइ रे, प्रगट अचिंत्य प्रभाव
दूहा
इम भरतें स्तवना करी, जिननी निश्चल चित्त सयल मूरतिनइ आगलिं, करइ उचित स्तुति प्रीति संघपति भरत नरेसरू, पोहता निज आवास
ढाल
अनुसन्धान- ७५ (२)
-
१६ मी
चक्कवइ पदवी भोगवइ, पूरण पुन्य प्रकाश आरीशाना भुवनमें, निरमल पांमइ नाण
अनंत सुख लह (हि) अनुक्रमई, पांमी अविचल ठाण ३
कपूर हुइ अति उजलूं ए देशी ।
-
८ जि०
धन धन शत्रुंजइ गिरिवरू रे, जिहां श्री आदि जिणेश ए सम तीरथ को नही रे, टालइ करम क्लेश सुगुणनर सेवो आदि जिणंद
९ जि०
१
मरुदेवीनो नंद, मुख पुंनिमनो चंद सु० टेक छट्ठ वहीइ गिरिराजनी रे, करीइ नवाणु यात्र तीरथ थानक फरसीइ रे, हुइ निज निरमल गात्र ए गिरिवरनी यातरा रे, मानवनई अवतार द्रव्यपूजा भावपूजाथी रे, निश्चय लहइ निस्तार पुनम पक्ष पटोरू रे, श्री विद्याप्रभ सुरिंद श्री ललितप्रभ तेहनें रे, पाटें हूया मुणिंद
२ सु०
३ सु०
४ सु०
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सप्टेम्बर - २०१८
२२७
तस पट्ट उदयाचल रवी रे, श्री विनयप्रभसूरिस चरण करण गुण आगला रे, जगमां लीध जगीस ५ सु० तस पट्ट रयण भूषण समा रे, महिमाप्रभ सूरिंद जस महि[मा] जगमें घणो रे, धीरज गिरिम गिरीद ६ सु० सकल सिद्धांतवेत्तावरू रे, निर्मल चारित्रवंत वचन अमृतरस वरसता रे, साहि सभामें महंत
७ सु० तस पाटें शिष्य तेहना रे, संप्रति सूरि निज गुरुना सुपसायथी रे, श्री संघ चढतइ सनूर ८ सु० प्रसीद्ध पत्तनमांहि जाणीइ रे, जयतसी सुत श्रीकार दोसी तेजसी दीपता रे, साहुकारां सिरदार ९ सु० सहस्सकोट भरावीउ रे, बिंब हजार चउवीस-(१०२४)
करी प्रतिष्टा उत्सवइं रे, श्री भावप्रभसूरीश १० सु० यतः रूपक ढाल कडखानी सकल सुखकारिणी दोष भयवारिणी,
सरसती भगवती पाय थुणीइ जास सुपसाय कविराय हिवइ वर्णवई,
___ नगर सोभनीकनी कीर्ति सुणीइ १ सु(स) श्री श्रीमाल सुविशाल वंशें वरू,
दोसी तेजसी तेजिं दीपइ नगर सणगार महाजन शिर सेहरी,
वांकडां वयरीयाने जे जीपई २ स० निजपरियागत रीत राखण भणी,
__ असार संसारमा सार जांणी सफल निज जन्म करवा भवी तारवा,
वारवा सयल दुरगति खांणी ३ स० पारसनाथ जगनाथ आदि सहू
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________________
२२८
सहस्स पित्तलमय बिंब वारू सहस्सकोट नाम तीरथ करावीउ
रूप सौवर्ण दीसइ दीदारू सत्तरि चिमोत्तरें ज्येष्ठ सुदि आठमि वार सोभई सहू संघ युक्तइं प्रतिष्ठा करावी घरि घणें महोत्सवें
संघ सन्मान बहु दान याचकभणी
अथ पूर्व ढाल
t
स्वगुरु श्रीभावप्रभसूरि भक्तिं
तप-जप-पुण्यनी रीति पोषी दोसी श्री जयतसी सुत पुत्र सोहामणो दूर गया हिवइ पाप दोषी धन धन मात रामां जिणे जनमीउ पुंनिम गच्छ प्रभावकारी कहइ शांतिदास अरदास सुणो सेठजी सकल जंतु तणो तुं उपगारी
इति रूपकं संपूर्णं ।
-
प्रतिष्ठा जिनवर तणी रे, जेह करावें सार तेज प्रताप तस दीपतो रे, किहांइ न पामें हारिं
अनुसन्धान- ७५ (२)
विघन सयल दूरिं हुई रे, संपदा दीपे गेह रोग सोग नासें तिहां रे, शास्त्रइं भाख्यं एह संवत सत्तर त्रयासीइ रे, श्रावण उज्जवल पक्ष सप्तमी तिथि रवि वासरई रे, सांभलज्यो सहू दक्ष सुकडि ओरसीया तणोरे, सरसो एह संवाद श्री भावप्रभसूरि कर्यो रे, सुणतां लागें सवाद अनागत समयना कह्या रे, ईहां केई दृष्टांत ते उपचार कालनो रे, वाद नहि एकांत
४ स०
५ स०
६ स०
७ स०
११ सु०
१२ सु०
१३ सु०
१४ सु०
१५ सु०
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सप्टेम्बर - २०१८
२२९
प्रतिष्टाना प्रसंगती रे, कवि कल्लोल संकेत श्री भावप्रभसूरि कहइ रे, जिनस्तुति शिवसुख हेतु १६ सु० इति सुकडि ओरसीया संवाद रासः संपूरण(ण)मिति
श्रीरस्तुः ॥
कडी
अर्थ
ढाल ढाल - १ दूहा
शब्दोना अर्थ
शब्द सुकडि ओरसिया भरततणो वासना आखे देवहर अगराज वर्द्धकिरतन
ढाल - १६ ढाल - २
If m n oo w n 5 orar
ढाल - ३ दूहा ढाल -३
ढाल - ४ दूहा
o orrmo w ou
विचकि चुवीसी थाट गहिगाट ऊदेर अंभ वाला वरगडूआ सरावला
सुखडनो टूकडो चंदन घसवानो पथ्थर भरतक्षेत्रनो सुगंध अक्षत देवमंदिर गिरिराज चक्रवर्तीना चौदरत्नमांनुं एक रत्न वहेंचीने चोवीशजिननी मूर्ति समुदाय-ठाठ आनंदकल्लोल (बलि) आपवां जल सुगंधी वाळो (औषधि) श्रेष्ठ घडा जवारा वाववानां माटीनां कोडियां ओछी अक्कलनो-ओथमीर मेळ-जोडाण पडघो चंदनवृक्ष ?
ढाल -४
उथमी संधाण पडिछंद रोहणद्रुम
ढाल - ५ - दूहा ढाल - ५
or mor
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________________
२३०
ढाल - ५
ढाल
ढाल ६
ढाल
ढाल
-
ढाल
६ दूहा
ढाल - ७
- ७ दूहा
-
८ दूहा
८
५
६
३
२
२
३
७
१०
११
१५
१
२
३
७
८
११
११
१
२
२
३
३
३
४
४
४
६
१०
चंदनकंब
ओछानइ
ओछाईओ
भारत्थ
हयागडो
गहिली
अच्चकारी
उदकण
जीपवुं
यो
तुं
प्रयुयुं
ओगारण
अवकर्षक
उडवइ
टगटग
छप्प
ढांढां
लोडाणी
छीदरी
छाकी
माती
नगसुत
गंडशैल
लोढी
मगल
अंघोल
लघुनीत
उह्ना
जिमणो
सूस
पलतूउ
उढइ
अनुसन्धान- ७५ (२)
चंदननी लाकडी
नबळा / हलका
पडछायो- ओछायो
भारत (महाभारत / युद्ध)
हैयामां
घेली / गांडी
विशेष नाम छे.
?
जीतवुं
जुओ
गरम
प्रयोज्यं
उगारनार
ओरसियो
धर / मूकवुं ?
टकटक
छानीमानी / चूप
बळद
आळोटी
छीछरी
छकेली / नशो करेली
भरेली
पर्वतपुत्र
मोटो पर्वत
लोढानी तवी
एक जातनो नानो पथ्थर
स्नान
लघुशंका- पिशाब
ऊना-उष्ण
जेवो
गुमान (?)
?
ओढे
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सप्टेम्बर - २०१८
२३१
त्राक
م م م
पढ़ें
पोहिरो
ढाल - ९ दूहा
उरांकी
م م
आठांपुर हूड कइडनो लांक
ढाल - ९
ه ه ه ه ه
तेग चितरवास उषधी डांडे
रेंटियानो अवयव पट पर पोटलुं? अन्यनी आठे पहोर होड (?) केडनो वळांक (?) श्रेष्ठ टेक (?) चितानां रहेठाण
औषधि डांडो (जैन साधुनुं उपकरण) साधुनो लाकडी चालवाने अशक्त एक प्रकारनी वेल
ه ه
ه ه ه ه ه
साधनो डांगडी गलीयां देवदालि रोदंती विणिसइ
ढाल-१० दूहा
चडवड
वनस्पति कर्कश (करकरो) आबरु / कार्य सूत्र विरुद्ध
कार
ه ه ه ه ه ه
उत्सूत्र मेड उत्रेवड कमजा म्हास्युं
ه
ढाल-१०
मारी आगळ
ज
ه م م س س س
बहेन दूर करे
भइणिली हरइ जहिर झवहिर कुण
झेर
१४
जवेरात कण धूर्त / धूतारा
ढाल-११ - दूहा
धूरत
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२३२
ढाल - ११
ढाल - १२ दूहा
१२ - दूहा
ढाल - १२
ढाल १३ दूहा
ढाल १३
-
१
३
४
५
६
७
१
२
२
३
४
६
८
९
१५
४
8
६
८
८
८
१
९
१०
१८
२
sorr
५
१
लाछि
घूर्यो
चलो
त्रिणखला
भुरायो-भूरायो
फअरे
दाव्युं
नवेरां
तांन
कुलचालि
हिकस्युं
वेधाली
मिंट मिट
वलांकइ
जारीनी
पर आजाडी
हाथबली
उदेरी
अगलंच
खंच
ओरीसो
गहिलडी
पसत्थ
अकयत्थ
ह
मानइ
दुल्लंघ
अकराकर
अंतस्था
डो
टुंग
पुंणी उत्थापयतो
अनुसन्धान-७५ (२)
लाज
घूरक्यो
चावळो ?
घासनुं तणखलुं
गांडो
फरी जाय
दाव / अदावत
नवतर / वुं
रटण
कुलाचार
लहेकi करीने
अनुरागवश थइ
नजर थी नजर
(?)
व्यभिचार करी संताडवानी
बीजानी मायामां
आपमतीली - स्वच्छन्दी
उदीरणा करी
(?)
खचकाट / अटकवुं
ओरसीयो
घेली
वखाणवा लायक
निष्फल-अकृतार्थ
उत्तम
माताने छोडवो दुर्लभ
न करवा लायक
य र ल व
डाह्यो
?
रूनी पूणी उत्थापन करतो
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सप्टेम्बर - २०१८
२३३
ढाल - १४ दूहा ढाल-१४
varor or ars or or
आखीउ प्रनालिका शस्त वहि सनाथीया अधिवासना उथेडी दलमां परजाय सोभनीक परियागत
कर्म्यु प्रणालिका प्रशस्त मंडप? स्नात्रविधिमां ऊभा रहेनार एक विधि उखेडी दिलमां । हृदयमां अवस्था-पर्याय शोभीतुं वंशपरम्परागत
ढाल - १५
ढाल - १६ - रूपकढाल १
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२३४
अनुसन्धान-७५(२)
श्रीसिद्धिविजय-कृत सीमन्धरस्वामी स्तवन
सं. - साध्वी समयप्रज्ञाश्री
परमात्मानी स्तुति-स्तवना अनेक प्रकारे थती होय छे. क्यारेक तेमां कवि प्रभुना माहात्म्य / अतिशयोने आलेखे छे तो क्यारेक प्रभुना अलौकिक गुणोने गातां होय छे. क्यारेक एमां भक्त पोताना दोषो । हीनतानु वर्णन करतो होय छे तो क्यारेक संसारनां पारावार दुःखो वच्चे पोतानी निःसहायदशाने वर्णवीने हवे तुं ज मात्र आधार छे, तुं ज मारो उगारो छे एवी विनवणी पण करता होय छे.
प्रस्तुत स्तवन कृतिमां कविश्रीओ पोतानी दीनताने वर्णवीने दीनदयाळ स्वरूपे श्रीसीमंधरस्वामी भ.ने तारवा माटे विनंति करी छे. तेमां पोताना जीवे अनन्तकाळथी क्यां केवी-केवी रझळपाट करी छे तेनी वात छेक निगोदना भवथी मांडीने शरु करी छे. अने तेनुं वर्णन करता-करतां कविश्रीओ बाल जीवोने नवो बोध मळे ओवी वातोने पण अमां आवरी लीधी छे. जेम के -
प्रारंभे निगोदमां जे अनन्त काळ पसार कर्यो तेमां अनन्तीवार जन्म-मरण करवा पड्या अनी गणनानी वात करी छे.
जैन दर्शन प्रमाणे काळना अक अत्यन्त सूक्ष्म मापने 'समय' कहेवाय छे. अतिसुकोमळ अवां कमळपत्रोने भेगां करीने कोई बळवान मनुष्य तेने सोयथी वीधे त्यारे ओक पत्रने वींधीने सोय बीजा पत्र सुधी पहोंचे तेटलामां असंख्य समय वीती जाय छे. आवा असंख्य समयोनी ओक आवलिका गणाय. आवी २५६ आवलिका - १ क्षुल्लकभव अर्थात् निगोदीयानो १ भव थाय. कोई स्वस्थ मनुष्यनो ओक श्वासोच्छवास थाय अटलामां निगोदनो जीव साडा सत्तर वखत जन्म-मरण करी ले. ओ मुजब १ मुहूर्तमा स्वस्थ माणसना ३७७३ श्वासोच्छवास थाय अने निगोदीयाना ६५,५३६ भवो थई जाय. प्रवर्तमान आ गणनाने कविश्री अहींथी वधु आगळ लई गया छे. अने १ दिवस, १ मास, अने १ वर्षमा निगोदीया जीवने केटली वार जन्म-मरण करवा पडे छे तेनी गणना बतावी छे ते गणितप्रेमी / आंकडाशास्त्रीओने विनोद पमाडे तेवी छे.
त्यांथी आगळ वधता जीव व्यवहारराशिमा प्रवेशे छे त्यां एकेन्द्रियपणे पृथ्वी, पाणी, अग्नि वगेरेना जे भवो करवा पडे छे तेनी वात करे छे. तेमां सूरणकन्द, वज्रकन्द वगेरे जुदी वनस्पतिनां नामो आप्यां छे. जैनदर्शन प्रमाणे ते ३२ अनन्तकाय गणाय छे.
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सप्टेम्बर - २०१८
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ते पछीनी ढाळमां विकलेन्द्रीपणे, तिर्यंय पंचेन्द्रीपणे पशुयोनिमां तेमज नरकयोनिमां जे पीडा वेठी छे तेने कविओ याद करी छे. आवी घोर यातनामांथी पसार थया पछी जे मनुष्यनो भव मल्यो तेमां जन्मसमयनी वेदनानुं वर्णन कर्यु छे. जीवने मनुष्यनो जन्म तो मल्यो पण ते अनार्यपणे / नीचगोत्रपणे मळवाथी धर्मने बदले जीवने पापमां रस पड्यो ने त्यांथी फरी नरक-तिर्यंचादि दुर्गतिमा रखडवू पड्युं. त्यां पण परमाधामी देवपणे उत्पन्न थनारानी पछीना भवमां अंडगोलिकपणे केवी करुण दशा . थाय छे ते पण वर्णन छे.
आम, अनन्तकाळ सुधी नरक-निगोदादि ८४ लाख जीवयोनिमां फेरा करीकरीने जीवे केवी रीते केवां-केवां दुःखो वेठ्यां छे तेनुं विशद वर्णन आ बधी ढाळोमां करीने कविश्री छेल्ले पोताना जीवे करेला प्रमाद, व्रतभंग, आज्ञाभंगादि विराधनाओनी प्रभु पासे क्षमायाचना करे छे. तेमां पण अंक मजानी मार्मिक वात कही दीधी छे के, अतिमूल्य अवो मनुष्यभव आर्यदेश मल्या पछी पण जो जीव दान-पुण्य सेवापरोपकार वगेरे नथी करतो तो तेनो जन्म पण वनमालतीनी जेम निष्फळ छे. मालती जेवू सुन्दरतम पुष्प जो जंगलमा ऊगे तो ते व्यर्थ ज जाय छे तेम.
आ प्रमाणे कुल ७ ढाळ ने ११३ गाथाना आ श्रीसीमंधरस्वामी भगवानस्तवना वडलीवासी उत्तम श्रावक अमीचंदना अध्ययन निमित्ते, सं. १७१३मां तयरवा नगरमां जगद्गुरु श्रीहीरसूरीश्वरजी म.नी परम्परामां थयेला मुनिश्री सिद्धिविजयजीओ रची छे जे भाविक जीवोनुं मंगल करनारी थाओ.
॥ दूहा ॥ अनंत चउवीसी जिन नमुं, सिद्ध अनंती कोडि । केवलनांणी थीवर सवी, वंदु बे करजोडि ॥१॥ बे कोडी केवलधरा, विहरमांण जिन वीस । सहस कोडी युगल नमुं, साधु सवे निसदीस ॥२॥ आर्या ॥ सकल समीहितकारिणी, शशिवयणी रायहंस-गयगमणी । कवी(वि)जणणी ब्रह्माणी, वयणरसं दिसउ मे देवी ॥३॥ श्री ब्रह्माणी सारदा, सरसती द्यो सुपसाय । सीमंधरजिन वीनवं, सानिध करज्यो माय ॥४॥
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अनुसन्धान-७५(२)
ढाल - नंदनकुं त्रीसला हुलरावे ॥ ए देशी ॥ राग - आशाउरी ॥ श्री सीमंधर साहब मेरा, चाहुं दरिसण तेरा रे। तेरे फरजन हे बहुतेरा, तुं प्रभु साई मेरा रे ॥ श्री० ५ ॥ आंकणी ।। श्री श्रेयांस निरंद विराजें, जस महिमा जग गाजे रे। तस कुल कमल दिणं[द] समोवड, सत्यकीनंदन राजे रे ॥श्री० ॥६॥ पुष्कलवइ विजया विच नयरी, अमरावइ सम जांणो रे । महाविदेहे तुं ऊपनो, पुंडरीकणी अहिठाणो रे ॥ श्री० ॥७॥ दूर देशांतर तुं प्रभु वसीयो, रांणी रुकमणी कंत रे । मुझ संदेह तणा संदोहा, कुंण भाजे भगवंत रे ॥श्री० ॥८॥ जे चउगइ गति आभोआ, जीवाजीव विचार रे। केवलनांणी विण कुण भासे, बहुला ते अधिकार रे ॥श्री० ॥९॥ भवसमुद्रतारण तुं प्रगट्यो, तुं जगबंधव बाप रे । भव-भव जे पातिक में कीधां, ते आलोओ आप रे ॥श्री० ॥१०॥ हुं मूरख मतिहीन न जाणुं, ज्ञांनतणो लवलेश रे।। गुरु उवएस लही कही साचो, निसुणो राव जिनेस रे ॥श्री० ॥११॥
॥ दूहा ॥ रांक तणी परि रडवड्यो, नीधणीओ निरधार । श्री सीमंधर सांमीयां, तुम्ह विण इंण संसार ॥१२॥ आदि निगोदमांहि रुलिओ, अव्यवहारी जीव । काल अनंत तिहां रहिओ, भव अनंत सदीव ॥१३॥
ढाल - उत्सर्पणी अवसर्पणी आरो ॥ ए देशी ॥ श्री सीमंधर साहिब मेरा, विनतडी अवधारो जी। नरिय-निगोदतणा दुःख निरुआ, गिरुआ हीइं विचारो जी ॥श्री० ॥१४॥ दीन-दयाल कृपाल कृपानिधि, करीइं ए ऊपगारो जी । भीम-भवोदधि दुत्तर तारो, मुझने आप उगारो जी ॥श्री० ॥१५॥ पोयण-पान सकोमल मेले, बत्रीस संख्या सोइ जी। बलवंत नर ते सोइ करीनि, मनस्युं विधइ कोइ जी ॥श्री० ॥१६॥
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एक पांन भेदीनि बीजे, जेहवे ते सूइ जाई जी। वर्द्धमांन जिन गोयमने कहे, असंख्य समय तिहां थाय जी ॥श्री० ॥१७॥ असंख्य समय एक आवलि जांणो, क्षुल्लक भव हिवे तेह जी । जे दो शत छप्पन्न आवलीन, जीवत जीवे तेह जी ॥श्री० ॥१८॥ चुंआलिस आउलि साढि, छइंतालीस झाझेरी जी। सासोस्वास एतले एक थाय, आघी वात घणेरी जी ॥श्री० ॥१९॥ सासोस्वासमां जीव निगोदि, करे सतर भव पूरा जी।। साढी चोराणुं आउली उपर, अधिकी जांणो सूरा जी ॥श्री० ॥२०॥ मुहुरत एकनी बे घडी काची, शास्त्र तणे परमाण जी, साडत्रीससे त्रिहोत्तर तेहना, सासोस्वास वखांण जी ॥श्री० ॥२१॥ ते मांहि हवे जीव निगोदि, भव करे केती वार जी, पांसठ सहस ने पंच सयां वली, छत्रीस वार विचार जी ॥श्री० ॥२२॥ एक लाख ने तेर हजार, एकसो नेऊ ऊदार जी, एक दिवसना सासोस्वासा, केवलीने अधिकार जी ॥श्री० ॥२३।। छासठ सहस अॅसी अधिकेरा, उगणीस लाख भलेरा जी, कर्मप्रपंचें एक दिवसमां, जीव करे भवफेरा जी ॥श्री० ॥२४॥ तेत्रीस लाख पंचाणुं सहसा, सात शतक अवधार जी, एक मासना एह ऊसासा, गणित तणे अणुहार जी ॥श्री० ॥२५॥ पंच कोडि निव्यासी लखा, च्यारसें ब्यासी हजार जी एतली वार ए मरी निगोदीउ, एकण मास मझार जी ॥श्री० ॥२६।। च्यार कोडी ने सात ज लक्खा, वलि सहसा अडयाल जी, च्यार शतक अधिका संख्याई, सासोस्वास विसाल जी ॥श्री० ॥२७॥ एक वरसमां सित्त्येर कोडी, लाख सित्योतर वार जी, सहस अठ्यासी आठसें अंके, एह लीइं अवतार जी ॥श्री० ॥२८॥
॥ दूहा ॥ मरणा अवतरणा करी, स्वामी काल अनंत । परावर्त पुद्गल कीया, तेहनो कहुं वृतंत ॥२९॥ जिम केकी गिरिवर रहे, मेहा दूरी वास ।। तिम जिनजी तुम ओलगुं, निसुणो ए अरदास ॥३०॥
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अनुसन्धान-७५(२)
ढाल - चतुर चोमासो पडकमीइं ॥ ए देशी ॥ दश कोडाकोडी सागरे, उत्सर्पणी एक रे। तिम गणो एह अवसर्पणी, मनि धरीय विवेक रे ॥३१॥ सुणि सुणि स्वामी सीमंधरा, धराभूषण ईस रे । चोत्रीश अतिशय परगडा, वाणी गुण छे पांत्रीस रे ॥३२॥ सु० ॥ आंकणी ।। वीस कोडाकोडी बे मिली, कालचक्र इक थाइं रे । एक पुद्गल परावर्त्तमां, अनंत ते जाय रे । सु० ॥३३।। एह निगोदमां हुं वसीओ, प्रभु काल अनंत रे । तेह पुद्गल परावर्त्तमां, कर्या वार अनंत रे ॥ सु० ॥३४॥ खेपवी अकाम निर्झरा, करम चीकणा जेह रे । पुढवी-जल-जलिण-वाउ थयो, पांम्या तेहना देह रे ॥ सु० ॥३५॥ ते एकेकी कायमां, जोणी सात लाख संख रे । सीत-तापादिक में सह्या, कालचक्र असंख रे ॥ सु० ॥३६॥ अनुक्रमिं तिहां थकी नीसरी, थयो काय अनंत रे । बत्रीस नाम छे तेहनां, लह्या ग्रंथ सिद्धांत रे ॥ सु० ॥३७॥ सुरणकंद पहिलु भणुं', वज्रकंद हलद्र रे । अद्रक आद्र कचूरको', सताउरि तजो भाइ रे ॥ सु० ॥३८॥ नीली विराली कुमारिका, स्नुही अमृता जांणि रे । लसण१ ने वंशकारेलडा२, गाजर'३ लूणो१४ वखांण रे ॥ सु० ॥३९॥ लोढा ते कमलकंदाभिधा, गिरिकर्णिका'६ भालि रे । कोमल पत्र ने खरसूआ, लुणा वृक्षनी छालि१९ रे ॥ सु० ॥४०॥ थेग२० ते मोगर जांणीयो, नीलीमोथ२१ भइफोडी रे२२ । पल्लकारे साख(क) विशेष छे, खातां अति घणी खोडी रे । सु० ॥४१॥ खेलूडा२४ अमृत वेलडी२५, मूला२६ म करी अभिलाष रे । ऊगता विदल अंकूरडा, विरूहा२७ इति भाख रे ॥ सु० ॥४२॥ प्रथम समयनो वाच्छु(त्थु)लो२८ गणो तेह सदोष रे । सूरि वाल्होल२९ ने उरांबलि°-कुली करज्यो संतोष रे । सु० ॥४३॥
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आलु" पिंडालू" वली, घणा जीवनो पंड रे । अनंतकाय बत्रीसना, कह्या नांम प्रचंड रे ॥ सु० ॥४४॥
॥ दूहा ॥
इत्यादिक अनेक छे, अनंतकायना भेद ।
बादर एह निगोदमां, हुं पांम्यो निर्वेद ॥ ४५ ॥ सूइ अग्र अनंतमे, भागें हुं बहुवार । वेचाणो निस्संबलो, किण्ही न कीधा सार ॥४६॥
काल असंख तिहां रह्यो, साधारण सरूप । चऊद लाख योनि भम्यो, अइ अइ कर्म विरूप ॥४७॥
ढाल - राग - सामेरी । वंछीत पुरण सुरतरु । ए देशी ॥
श्री सीमंधर स्वामी ए, तिहुयण अंतरजांमी ए, पामीए जे गति कहुं ते आपणी ए ॥४८॥ एक शरीरे एक ए, जीव थयो प्रत्येक ए, छेक ए दुःखनो नवि आव्यो प्रभो ॥ ४९ ॥ छेदन भेदन जे सह्यां, ते मे नवि जाय कह्या, निरवह्या काल असंख तिहां वसीए ॥ ५० ॥ योनि लाख दश फरसीए, तेह वणस्सइं सरसी ए, विरसी ए पुष्प - पत्र - फल वेयणा ए ॥५१॥ वलि विगलिंद्री हुं थयो, काल संख्यातो तिहां रह्यो, सासह्यो दुःख ऊपजतो परवसें ए ॥५२॥ बि-ति-चउ विगलींदी तणी, योनि लाख बि-ब भणी, जगधणी ते पिण मे सह्युं अणुसरी ए ॥५३॥ पूरी पर्याप्त पखे, अंतर्मुहूर्त्तने आउखे, सो दुःखी बहुवार असन्नीओ ए ॥५४॥ कुछित योनि ऊपनो, चउद ठाणमां नीपनो, संपन्नो अनुक्रमि हुं दश प्रांणनो ए ॥ ५५ ॥ त्रिहुं भेदें तिर्यंच ए, जल-थल - खचर प्रपंच ए. संचय मांड्यो तिहां वली पापनो ए ॥५६॥
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अनुसन्धान-७५(२)
मच्छ गलागल कीधा ए, जलचारि पद लीधा ए, सीधा एए(के) काज न आपणां ए ॥५७।। वृश्चिक-सर्प-निकुल हिवे, वाघ-सिंघ-चीतर भवे, तिहां सर्वे सबल मेल्या दुरितना ए ॥५८॥ सीचाणादिक हं थयो, नरगिं जावा अलजीयो, नवि लीयो पाप पुण्यनो आंतरु ए ॥५९॥ पशुय पणे इंम भमीयो ए, योनि लाख वो रमीयो ए, दमीयो ए वधबंधे करी सुहने ॥६०॥ सातभेदें थयो नारकी, निविवेक तिर्यंग थकी, पातकी हुं अपराधी ताहरो ए ॥६॥ दोहिलि दश वेअण सही, काल असंख तिहां रही, हुं सही च्यार लाख योनि भम्यो ए ॥६२॥ जगजीवन जिन सांभलो, दश दृष्टांते दोहिलो, अभि(ति) भलो नरभव काल घणे लह्यो ए ॥६३।। ऊंधे शिर टंगाणो ए, कर्मबंध बंधाणो ए, टांगूं ए गरभवासनो तिहां भलूं ए॥६४॥ उट्ठ कोडी सूइ तापवी, विधं तनुं को मानवी, अनुभवी एहथी अट्ठगुणी व्यथा ए ॥६५॥ अस्सह वेअण वहे ए, धर्म करुं संदेहे ए, गेहेइ ए जोजणस्ये मुझ माडली ए ॥६६।। नीच गोत्र अवतर ए, निसुण्यो धर्म लिगार ए, त्यारे ए सदगुरु सेवा नवि लही ए ॥६७॥ देश अनारज वसीओ ए, पाप तणे रस रसीओ ए, धसीओ ए विरूआ कर्म भणी घणूं ए ॥६८।। कर्मबलि पाछो वलिओ, चउवीस दंडक वली रुलिओ, नवि मिल्यो स्वामी को मुझ तारको ए ॥६९॥
दूहा ऊंच-नीच कुल अवतरिओ, कीधा मध्यम काम । विरति पखे मां हुं थयो, न लह्यो भव विश्राम ॥७०॥
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सप्टेम्बर - २०१८
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मनुष्य-तिरि भव अंतरिं, साते नरक मझार । काल असंख हुई जिहां लगें, हुं गयो एतीवार ॥७१।। मानवभव अति दोहिलो, दोहिलो आरिज देश ।
सद्दहिणा वलि दोहिली, दोहिलो गुरु-उवएस ॥७२॥ ढाल - राग - धन्यासी । सरसती सामिणी माय ॥ ए देशी ॥ सीमंधर जगदीस, पूरो मनह जगीस। सीस नमी रहुं ए, आणा सरव बहु ए ॥७३॥ मेरु महीधर धीर, जलनिधि जिम गंभीर, वीर वको सुण्यो ए, मयण सुभट हण्यो ए ॥७४।। तुं सेवक साधार, गुणगणरयण भंडार, तारक अवतर्यो ए, जयलछी वर्यो ए ॥७५।। तुं मुझ मन तरु कीर, तु हीइडानो हार, कीरत तुम्ह तणी ए, त्रिभुवन अति घणी ए ॥७६।। जिनजी जग विख्यात, सांभल मुझ अवदात, भविं भविं जे हुया ए, विवरुं जुजूआ ए ॥७७॥ पांम्यो आरिज देश, उंच गोत्र सुविशेश, लेस्या नवि रही ए, सामग्री नही ए ॥७८॥ सामग्री वलि लीध, सद्दहिणा मन बद्ध, बुद्धि नांदरिओ ए, आदरी नवि कह्यु ए ॥७९॥ नि करी त्रिकरण शुद्ध, परमादि मन बध, सिद्ध न को लही ए, हार्यो भव सही ए ॥८०॥ पंच प्रमाद प्रसंग, मि कीधा व्रतभंग, अंग भणी हूयौ ए, नरय-निगोदियो ए ॥८१॥ मि लाधो बहुवार, समकित रयण उदार, हारविउ इसिओ ए, दूषण पांचस्यो ए ॥८२॥ कुगुरु-कुदेव-कुधर्म, ऊदाले शिवसर्म, करमिं सांकल्यो ए, तेहस्यूं जइ मिल्यो ए ॥८३॥
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अनुसन्धान-७५(२)
अतिशयवंत महंत, दोषरहित भगवंत, चित्त न सद्दह्यो ए, आलिं भव गयो ए ॥८४॥ पाले पंचाचार, टालि कुव्यापार, सुगुरु न व्यलख्या ए, सुत्रे जे लिख्या ए ॥८५॥ दया मूल जिनधर्म, नवि जांण्या शिवसर्म, नवतत्त्वादिका ए, हेयादिक त्रिका ए ॥८६।। गाडरिऊ परवाह, धर्म करि उछाह, वलि वृंदारको ए, परमाधामीको ए ॥८७।। नारकीया दुःख देइ, पापि पिंड भरेइं, जलमाणस थयो ए, जल अंतर रह्यो ए ॥८८॥ पील्हांणो तिण ठांम, अंडकोलनी काम, घरटा मध्य करी ए, नरघि पांतरी ए ॥८९॥ दुःख पांम्या तिहां भीम, काल छ मासी सीम, परवश माछले ए, भवि इंम पाछलि ए ॥१०॥ हविइं विमानक देव, करतो परस्त्री टेव, सेवा विषय तणी ए, तृष्णा मुझ घणि(णी) ए ॥९१॥ तीव्र मोह परिणांम, वलि एकेंद्री ठांम, आउ असंखनो ए, ते हुं ऊपनो ए ॥९२॥ छु अपराधी देव, ताहरो हुं नितमेव, [...] सेवक चित धरो ए ॥९३॥
ढाल - राग - धन्याश्री । भेट्या रे गिरराज ॥ ए देशी ॥ च्यार लाख योनि भम्यो, लह्यो सुर अवतार । श्री सीमंधर ठाकुर, तिहां विलस्या रे मिं सुख अपार ॥९४|| ठाकुरिया रे अम्ह तारो, भवसायर रे वाल्हा पार ऊतारो ॥ठा०॥ आंकणी ।। चउद लाख मनुष्यना, भोगव्या भेद असेस । लाख चोरासी हं भम्यो, मि काढ्या रे नव नवा तिहां वेस ॥१५॥ दिन जाते योवन गल्युं, न गल्युं ते मनमथ पूर । महिलानी रूपें मोहियो, देखी रातो रे रह्यो हुं झुरि ।।ठा०॥ ९६।।
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सप्टेम्बर - २०१८
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शुभध्यांन अंतर चीतव्या, युवतीना भोगविलास । अमृत फीटी विष थयुं, दृष्टांत ज रे श्रीफल जल तास ॥ठा०॥९७॥ क्रोध-मान-माया तजी, समभावें भावे मन । तजी कंचन-कांमनी, महीमंडल रे मुनि ते धन्न-धन्न ॥ठा०॥९९।। इंम अनंता भव कह्या, चविओ वार अनंत । सुख-दुःख सघला अनुभव्या, भवगणना रे थाको भगवंत ॥ठा०॥९९॥ देव सम गुरु ओलख्या, मे सुण्यो प्रवचन सार । छकायना जीव ओलख्या, वली दुरतिना रे अहिठांण अठार ॥ठा०॥१०॥ सामाचारी संग्रही, सिद्धांतने अणुहार ।। तपगछनी क्रीया करूं, हुं तो मार्नु रे पंचंगी विचार ॥ठा०॥१०१॥ गुण सत्तावीस साधुना, श्रावकना इकवीस । ते सघला मि ओलख्या, अंगि आणवा खप करुं निसदीन ।।ठा०॥१०२।। आणे आरे भरतमां, वर नहिं केवलनाण । पूर्वाचार्य वयणडा, हुं तो मार्नु रे अमीय समाण ॥ठा०॥१०३।। मिथ्यात्व सघलुं परहरु, हुं धरुं समकित झांण । तप जप किरीया आदरूं, ताहरे लेखे रे ताहरे ते प्रमाण ॥ठा०॥१०४॥ इंणिपरि इंणि भवि परिभविं, जे में विरोधी आंण । ते सवि मिच्छा दुक्कडं, सांसहजो रे अपराध सुजाण ।।ठा०॥१०५।। हित न कर्यु केहने कदा, न कर्यो ते दीनोधार । दान पुण्य जिण नवि कर्या, वनमालती रे जिम तसु अवतार ॥ठा०॥१०६।। धण कण कंचण कामिनी, राज रिद्धी अनेक । दुनवि हुइ राजीया, तूठो आपे रे अवचल पद एक ॥ठा०॥१०७॥
ढाल - माइ धन सुपन तुं ॥ ए देशी ॥ धन धन ए संप्रति सीमंधर जिनदेव, सुर नर ने किन्नर अहनिश सारे सेव । गढ त्रिण विचाले समोसरण सुखगेह, छत्रत्रय सोभित चामर अंकित देह ॥१०८।। अकलंक महाबल कलिमल तरु जलपूर, जगनायक जगगुरु जगवच्छल वडनूर । जगलोचन उदयो जगदीपक जगनाथ, जगतिलक समोवड ए शिवपुरनो साथ ॥१०९।।
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अनुसन्धान- ७५ (२)
धन धन नरनारी जे प्रणमे तुम्ह पाय, धन धन ते दीहाडो जिण तुम्ह समरण थाइं । धन धन ते जिहां (हा) जे तुम्ह गुण नित्य गाय, जस कुल अजूआल्यू धन ते माय ने ताय ॥११०॥ वडलीनो वासी व्यवहारी शुभचीत, गल्हा कुल दीवो अमीचंद सुपवीत । संवेगी सूधो कीधो त्याग सचीत, एह तवन रच्युं मे भणवा तेह निमीत ॥ १११॥ संवत सतरसें तेरो शुभमास, सूदि सातम शुक्रिं स्वातियोग शुभतास ।
सूरि विजयप्रभ राज्य चित्त उल्लास, तयरवा मांहिं थूणीओ रही चोमास ||११२॥ कलश तपगच्छ अंबर अरुण उदयो, श्री हीरविजयसूरीश्वरो,
-
निज हस्त दीक्षत सु-पर शिक्षत श्रीशुभविजय कविसरो ।
तस चरण पंकज प्रवर मधुकर, भावविजय बुद्धिसुंदरो, सिद्धिविजय कहे स्वामी संप्रति, भविक जनमंगल करो ॥११३॥
= घणा
बहुतेरा कुमारिका = कुंवारपाठुं अमृता = गळो
वंशकारेलडा = वांस कारेलां
लूणो = लवणक नामे वनस्पति, जेने
बाळवाथी खार पेदा थाय छे.
खरसूआ खरसइयो खेलूडा = खिलोडीकंद (?) सूरिवाल्होल = सुक्करवेल (?) माडली = मा घरटा-अरहट्ट रेंट
नरघि
= ?
=
=
शब्दकोश
*
*
*
पांतरी
को
=
*
?
= वचन
व्यलख्या = ओलख्या
दुरति = दुरित तयरवा =
सु=पर = स्व=पर
तवन = स्तवन
नरिय = नरक अलजियो = थनगन्यो
आरिज - अरिज आर्य निस्संबलो
तेरवा / तेरवाडा (?)
=
= पराधीन
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सप्टेम्बर - २०१८
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श्रीकनकसोम-कृत आषाढभूति-धमाल
सं. - प्रा. अनिला दलाल
मध्यकालीन गुजराती साहित्यकोश-१मां नोंध्या प्रमाणे कवि कनकसोम (ई. १५३९-ई.१६१४) खरतरगच्छना साधु-कवि अने जिनभद्रसूरिनी परम्परामां अमरमाणिक्यना शिष्य छे. तेमणे 'मंगलकलश-चोपाइ / फाग' (ई. १५९३), 'जिनपालितजिनरक्षित-रास' (ई. १५७६), प्रस्तुत रचना 'अषाढभूति धमाल / चरित्र' (ई. १५८२), 'आर्द्रकुमार-चोपाई । धमाल' (ई. १५८८) वगेरे कथात्मक रचनाओ आपी छे. 'श्री पूज्य-भास' (ई. १५७२) जेवी गीतरचना अने नगरकोटना आदीश्वरनुं स्तोत्र (ई. १५७८) ओ कविनी ऐतिहासिक माहिती धरावती कृतिओ छे. तेमनी अन्य रचनाओमां 'नेमि-फाग' (ई. १५७४), 'गुणस्थानक-विवरण-चोपाई' (ई. १५७५) वगेरे छे.
प्रस्तुत कृति प्रमाणमां ढूंकी होवाथी तेमां वर्णनो ओछां होय ते स्वाभाविक छे, छतां बन्ने नटडीओनुं वर्णन यथोचित, हूबहू छे. अलङ्कारोमां उपमा तेमज उत्प्रेक्षानो विनिमय ठीक थयो छे. कथा-निरूपण कृतिनी विशेषता छे.
भाषानी दृष्टिओ क्रियापदोमां 'इ'कारनी प्रधानता जोवा मळे छे. जेमके 'विहरावइ', "चिंतवइ' 'छंडीजइ' 'करीजई' इत्यादि. क्यांक प्रास मेळववा पण आ रीति प्रयोजाई होय. अलबत्त, छेल्ला भागमां 'उ'कार वधारे जणाय छे. भाषा-व्याकरणनो भाग होई शके छे.
साधु आषाढभूति विशेनी कविनी बे कृतिओ मळी छे - (१) आषाढभूति धमाल, (२) आषाढभूति चरित्र. बन्ने कृतिओमां घणी समानता होवा छतां शब्दप्रयोगमां घणे स्थळे फेरफारो मळे छे. प्रस्तुत सम्पादनमां 'धमाल'ने मुख्य राखीने वाचना तैयार करी छे. 'आषाढभूति चरित्र'मांना पाठभेदो टिप्पणीमां नोंध्या छे. केटलाक शब्दोना अर्थ मूक्या छे.
बन्ने हस्तप्रतोनी नकल कोबाना 'श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर'ना ग्रन्थसंग्रहमांथी प्राप्त थई छे. 'धमाल'नी प्रतक्रमाङ्क ४८६८४ अने 'चरित्र'नी प्रतक्रमाङ्क ७८२९७ - एम बे प्रतो त्यांना संग्रहालयमा नोंधायेली छे. बन्ने प्रतिओनी झेरोक्ष नकल आपवा माटे ज्ञानमन्दिरना कार्यवाहकोनो आभार मानुं छु.
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अनुसन्धान-७५(२)
केटलांक शब्दो सामिणि = स्वामिनी
मांडइ = शणगारवू ? सायाणा = स्वजन
धूरति = धूर्त गारा = गौरव
अग्गहि = आग्रह लहुरा = लघु ?
सेहर = मुगट, कोई अलङ्कार कामदुगा = कामदुधा, कामधेनु । जंपइ = बोले पुनग = सर्प, पन्नग
आओसा = आदेश चंचग = सुंदर
असराल = झडपथी कीर = पोपट
जुगति = संगत नकवेसर = नाकनी वाळी
बाली = तरुणी, कन्या विद्रुम = लालरत्न-परवाळु
अहिनाणू = अभिज्ञान विचि = वच्चे [आषाढभूति धमाल, आषाढभूति चरित्र - ओ बे उपरान्त कवि कनकसोमे 'आषाढभूति रास'नी रचना करी छे एम एक लेख परथी प्रतीत थाय छे : (सन्दर्भ : "जैन रास विमर्श" - सं. अभय दोशी - ए पुस्तकमां डॉ. गंगाराम गर्गनो लेख - 'आषाढभूति रास'- मूल्याङ्कन.) जे प्रकाशित छे. 'धमाल' अने 'चरित्र' अप्रगट छे.]
श्री जिनाय नमः राग जयतश्री : डाहरी मिश्री ॥
श्री जिन वदन निवासिनी समरी सारद' माया रे आषाढभूत गुण गावतां सामिणि करउ पसाया रे ..... चतुर सनेही वालमा ३ सवि गुण जाण सायाणा रे आषाढभूति महामुनी देखत चित्त लुभाणा रे..... १.....च० राजगिरी पुरु वर भलइ' इंदपुरी अवतारा रे वन वारी आरामतई सोभत पउलि पगारा रे..... २.....च० राज करइ सिंघरथ तिहां न्यायवंत गुणजाणइ रे
च्यार वरण मानइ सदा आदर करि प्रभु आणा रे..... ३.....च० १. सरसति, २. सामण, ३. मोहना, ४. सयाणा, ५. राजगृही पुरवर भलउ, ६. सोभित पोलि प्रकारा रे, ७. राज्य करे सिंहरथ तिहां.
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पूज पधारे विहरता धर्म्मरुची अणगारा रे समवसर्या उद्यानमइं पंचसया परिवारा रे...... तासु सीस आषाढ मुनी बहु बुधि' लबधि भंडारा रे गुरु आदेश लही करी विहरति नगर मझारा रे...... सुन्दर मन्दिर देखि कई नटुवाकइ घरि जाइ रे धर्म्मलाभ देइ तिहां भोजन देखि सजाइ रे..... विहिरि मोदिक रिषि चिंतवइ ओ हम गुरुकउं होइ रे लबधइं भेख नवा करी मोदिक दूजा लेइ रे......
विद्यागुरुकुं सही थविर रूप करि आवइ रे नटुवी करुण रसभरी ती मोदिक विहरावइ रे...... अ लहुरा" चेला भणी हमहुं चउथा भावइ १२ रे सुन्दर रूप रच्यउ वली लोभई चित्त ललचावइ रे...... मोदिक लेइ रिषि चले करि करि नवला३ लेखा रे लबध करंता गृहणी १४ नयणे मुणिवर देख्या रे ......
नटुवा वंद भावस्युं हम तुम्हार निज दासा रे
लउ सब कुछ जे चाहीयइ १६ पूरी अमारी आसा रे......
२४७
दूइ दिनि मोदिक करली" वली मुनीसर आवइ रे नटुवा घरि भीतर जइ बहु" मोदिक विहरावई .... नटुवइ पुत्री सीखवी मुनिवर मन मोहइ रे हावभाव विभ्रम करी कामदुगा घरि दोहउ रे...... भुवनसुन्दर(री) जयसुन्दरी मनमोहन वरनारी रे जनमनरंजन अवतरी गोरी रति अनुकारी रे......
+
४..... च०
५..... च०
६..... च०
७..... च०
८..... च०
९..... च०
इयहु नटुवा होवहि भला रंजइ लोक अनेका रे
मेलइ लखमी यहु" घणी जइ घरि रहइ विवेका रे..... ११.....च०
१०.....च०
१२.....च०
१३..... च०
१४..... च०
१५.....च०
८. विधि, ९. तई, १०. वहिरावइ रे, ११. लहुडा, १२. भाग आवइ रे, १३. नव नव, १४. गृहपति, १५. अति, १६. चाहियें, १७. मोदक स्ली, १८. वली.
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अनुसन्धान- ७५ (२)
या" सिरि सोहइ राखडी वेणि पुनगमणि जइसी रे अलिकावलि स्यामा दिखई मुख ससि उपमा अइसी रे..... १६.....च० तिलक वण्यउ निलवटि भलउ नईण २१ बांणकी भल्ली रे नयण मधुप मधुपानकुं लीन भये मुहर वेल्ली रे...... कुंडल युगल कपोल मई झलकति तेज सुहाओ रे देखण कामिणि मुख छवी सूरि चंद दोउ आओ रे...... नासां नकवेसर वण्यउ कीर चंच गहि झूला रे विद्रुम अधर अधर दीपइं देखत कवण न भूला रे..... कुच विचि हार व अईसे २४ गिरि विचि गंग प्रवाहा रे नाभिमंडल सागर संगइं जाणउं कि तीरथ लाहा रे......
१७.....च०
१८.....च०
१९.....च०
२०.
.च०
कुच उच संपुट घट दुने विकचिक कमल अनुकारा रे स्याम २५ भमर रस लोभीओ त्यजत न२६ निमिषि लिगारा रे..... २१.....च०
काम नृपति तंबूरवे कई वीणा के तुंबा रे कामकरी कुंभत्थलू कई श्रीफल युग लूंबा रे..... २७
हरिकटि लंकहि जिणी कटि मेखल झंकारा रे भणि सिंघ पाखर चडी मन गयंद जयकारा रे...... पहिरि पटोली मल्हकंती २८ काम धजा फरहाणी ९ रे मानु कि विज्जुल चमकती मेघघटा उल्हराणी रे...... मुनिवर मोर" उछाहती कहती अनुप कहाणी रे करति वीनती सु(मु)सकती ३२ आषाढभूति सुहाणी रे....... ढाल : राग गउडी
सुगुणु सनेही रे मोरे लाल वीनति सुणि तउं कंत रसाला.... १
२२..... च०
२३..... च०
२४..... च०
२५..... च०
१९. जसु, २०. पन्नगमणि, २१. नयन, २२. बहु, २२ . झगमग तेज सवाया रे, २३. चंचुग, २४. वण्यो अइस, २५. चंपा, २६. अहीं 'न' नथी, २७ आ चार पंक्तिओ अहीं नथी. (चरित्रमां ), २८. मुलकती, २९. फरफराणी रे, ३०. जानु कि विजुरी चमकती, ३१. मोह्यो, ३२. मुसकती.
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तुम्ह नवयौवन दीसउ चंगा इणि अवसरि किम संजम रंगा गृह सुख छारि कवण सुख पाया किणि धूरति तुम्ह धंधइ लाया... २६ तुम्हसे नर घरघर किम हांढइ तुम्ह सिरि सेहर सोहइ मांढई अइसे महल भोगवहु आई हमस्युं मुनिवर करहु सगाई..... तुम्ह दीसइ सुन्दर कोमल देहा इणि संजमस्युं तिजहु सनेहा योग कठिन जिह५ रमणि वियोगा यौवन देही भोगवि भोगा..... हम अग्गहिइ२६ करि चउमासा यहु कुटुम्ब प्रभु पूरहु आसा करहु कंत हमस्यु गृहवासा सनमुख देखहु त्यजहु उदासा..... मुनिवर नजरि स्यु३८ मेली दूध माहि मांगें साकर भेली हावभाव करि चरणे लागी लाज कांणि मनकी सब भागी..... आविसु सहीगुरु पूछइ२९ जाइ रचउ विविध तुम्ह लोग सजाइ देइ बोल मुनीस सिधारे सुगुरु वाट जोवइ तिण वारे..... वाट जोवत वछ भलइ पधारे विहरति आओ कांइअ वारे रोसभरी जंपइ मुनिराया इणि भिख्खा हम बहुत सताया..... लेहु पात्र आपणा उपगरणा भोग विना हम जाइ न रहणा नटुवणिस्युं हम प्रीति वणाइ द्यउ आदेस मुझ छन [न] सुहाइ..... ३३ गुरु सिरि धूणि कहइ बछ मेरा हाहा वचन भला नहु तेरा संजम लेइ किम खंडीजइ सील रयण कहि किम छंडीजइ...... वर छंडीजइ प्राण हुतासा ४२चारित छोरि म करि गृहवासा ४२जीपउ मदनभट पवन अभ्यासा छंडीजइ प्रभु विषइ-पिपासा..... ३५
३३. धरि सुख, ३४. चेटक, ३५. तिहा, ३६. आग्रह ईहा, ३७. तुम्ह, ३८. निजर निजर, ३९. पूर्छ, ४०. हम कछु न सुहाइ, ४१. छांडीजे, ४२. पीछइ होवै बहु पछतावा / रतनभरी बूडति जिम नावा
काया सोस करहु उपवासा / करि दृढ कछलेहु वनवासा. आ पछी 'धमाल'मांनी बे पंक्तिओ अहीं आवे छे : जीपउ मदनभट पवन अभ्यासा, छंडीजइ मुनि विषय पिपासा.
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अनुसन्धान-७५(२)
न रुचई सुगुरु वयण उपदेसा गुरुजी हम दीजइ आओसा तिणि कुलि सुरामंस नितु कीजइ ते वरजे हम कह्या करीजइ..... ३६ देखीसुं मद्यपान जब करती, परिहरि पालिसु आज्ञा निरती मुनि आओ नटुवाकइ मंदिरि हरिखति भइ भुवन-जयसुन्दरि......। मद्यमांसभख्खण जउ टालउ तउ हमि रहां वचन प्रतिपालउ देई बोल दुई परणी नारी भोगिक भोग रमई सुखकारी.....
राग - आसावरी कामकेलि रतिहास नादविनोद करई री प्रगट्यउ पुण्यप्रकार लखमी बहुत घरइं री गीतगान ध्रु निदान तान वितान धरई री खेलई फाग वसन्त किन्नर मधुर सरई री..... ३९ अन्न दिवसि नट केवि बहु अभिमान वहइ री ३ हम जीपइ करि वाद सो नट जस लहई री राजाकइ आओस५ तिह आषाढ चले जी ले सामग्गी संगि होवई सुकन भले जी..... अकंतई तिह आणि नारी मद्य पियइं री मूल सभाव न जाइ कहा जतन कीयइ री हिव ते जीपि आषाढ जइ जइ४७ सबद लहइरी सिंघ सबद सुणि कान ८ गजघट केम रहइ री..... ४१ राउ९ पसाउ लहेइ मन्दिर आई रिषा री चीर रहित जु परी जाणे चित्र लिखि री नारी आल झखंति मदिरा नाग भखी री चित विरच्यउ मुनिराय उछी प्रीति लिखी री ..... ४२ हा हा कुण अपराध इणिस्युं प्रीति करी री किम मुझ लोपीकार इनकी जाति बुरी री धिग् धिग् मुझ अन्यान२ जाणत नारि वरी री छंडी संजम रंगि काहे रमणि वरी री.....
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४४
मूंकी चाल्यउ जाम काम विकार तजी री मदिरा तब ऊतरीय नारी निष्पट लजी री कंता क्रोध निवार इक अपराध खमउ री जाइ सही भरतार लागी चरण नमउ री..... करत वीनती नारि नयणे नीर झरइ री वहति नदी असराल पावस जिम उल्हरइ री५ अंचर छारि समारि(?) जाण दे मोन्य६ करउ री देख्यउ तुम्ह आचार हम चितथइ उतरी री..... ओक रसउ पिउ आउ अंगणि वात सुणउ री लालण विरह गमाउ" हम मने८ नेह घणउ री कीरी ऊपरि रोस कंता कहा करउ री मुगधांनइ५९ कुण दोस अंगणि पाव धरउ री...... ४६ लेइसु संजम आज ठगिनी वृथा ठग्यउ री साधिस आतम काज भोग थकी उभग्यउ री लोपी गुरुनी लाज गुरुथी विमुख थयउ री धन धर्मरुचि गुरुराज सुवचन तासु जयउ री..... ४७ हुं अपराधी घोर विषयाकूपि पर्यउ री तजि चिंतामणि सार काचमणि क्ववह्यउरी बाली बोलइ बोल कंता श्रवणि सुणउ रे कोप छारि गुणवंत हम मनि नेह घणउ रे..... हिव हम कवण अधार प्रीतम सार करउ रे६२ तउ वलतउ कहई साधु नारी वचन सुणउ रे सात दिवस धन मेलि संतोषिस घरणी री
मनवचक्रम करि धीर परिहरिस्युं तरुणी री..... ४९ ४३. धरेंरी, ४४. नरसु, ४५. आदेश, ४६. एकांते हित आण, ४७. जय जय, ४८. काम, ४९. राज, ५०. विपरीत, ५१. लिखीरी, ५२. अग्यान, ५३. विराम, ५४. सखी, ५५. ऊलरेंरी, ५६. मौन, ५७. निवार, ५८. तुम्ह, ५९. मुग्धानो, ६०. मन्दिर पाउ धरीरी, ६१. धर्मरुची अणगार, ६२. करोरी.
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अनुसन्धान-७५(२)
ढाल : राग सोरठी लेइ सजाइ सब चल्यउ भूप पासि रिष राज नाटक भरथ संगीत रस जुगति दिखावउ आज.....
अहो हु३ जुगति दिखावउं आज उपगरण अणावउ राज पंचसइ कुमर आणीजई४ आरीसे महल रचीजइ..... सब सजीय वेष सुरंगरेखई६५ राग युगति दिखाइयइ वीणा मृदंग उपंग अमृत ताले चंग वजाइयइ धों धोंकि धपमप सरगम धुनि ततत थै थै उच्चरइ६६ देसी दिखावइ सरस गावइ६७ पात्र नाचइ इणि परई...... ५२ आप भखचउ(भयउ)६८ रिषि राया आभरणे अंग वणाया चक्र-उतपति जिम खण्ड साधई९ तिम वेस दिखावइ अगाधइ....५३
हरिगीत
आयाध (आयुध?) विद्यालबधसाधक महल आरीसा रचे पंचसइ कुमरसरूप सुन्दर ताल मानइं ते नचे१ निज मुद्रिका इक धरणि नाखी तिणि विना सोभइ नहीं आभरण सवि मुनिराय उतारइ कारिची काया सही.....
॥ दूहा ॥ भाव अनित्य सवे सही वलि काया सविसेस.२ अनंत३ असुचि विचारतां सुच्चि नही लवलेस..... ५५ चर्म मंस सोणित पिलित अस्थि सुक्र मलमूत्र संति सलेषम कोथिली काया अतिहि अपूत. काया अपवित्र विचारी भावन भरथइ संचारी०६
चडती पदवी गुणठाणइं मुनि वरिया केवलनाणइ..... ५७ ६३. हिव, ६४. सझीजें, ६५. सुरेख संगई, , ६६. उच्चरें, ६७. गावें, ६८. भरत थयो, ६९. षट खंड साधई, ७०. अगाध, ७१. तान मान नबेरचइं, ७२. सुचिचित्र, ७३. अंतर, ७४. काया अति अपवित्र, ७५. सिंभ, ७६. भावना भरतेस संभारी,
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चउ घातिक कर्म निवारी केवली थयउ सुविचारी सयपंच कुमर प्रतिबोधइ तें पणि चउकर्म निरोधई..... ५८ । पामइ सब केवलनाणू ओ भावना अहिनाणू
करई महिमा सुर नरराया तब वेस लियइ रिषिराया.... ५९ हरिगीत-रिषराय लेइ वेस बइठा भव्यनई८ प्रतिबोधवा
उपदेस आषइ लोक साषई कर्ममल निज सोधवा अनुक्रमइ करीय विहार चारित्र पालि९ मुगतइ गया आषाढभूत चरित्र गावता मणुअ भव सफला किया..... ६० इणि परि भावन भावीजई तप करी दान लि दीजई० जिन सासनना उपगारा ओ मुनिवर थयउ उदारा..... संवत सोलह अठतीसइं दिन विजयदसमि सुजगीसइ कही कनकसोम सुविचारा सब श्रीसंघकउं सुखकारा..... ६२
इति श्री अषाढभूति धमाल समाप्तः.....छ... ॥ श्री ॥
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७७. मुनिराया, ७८. भव्यजन, ७९. पाल व्रत, ८०. वलि दान ज दीजई, ८१. जिन सासनकउं सिणगार
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अनुसन्धान-७५(२)
श्रीपुण्यसागर मुनि रचित 'अंजनासुन्दरी पवनंजय रास' (खण्ड-१)
सं. - प्रा. अनिला दलाल
ई. १७मी सदीना पूर्वार्धमां पीपल गच्छमां थयेला जैन साधु पुण्यसागर लक्ष्मीसागरसूरिनी परम्परामां कर्मसागरसूरिना शिष्य हता. तेमणे रचेली आ कृति 'अंजनासुन्दरी पवनंजय रास' ८ ढाळ अने ६४२ कडीनी छे – (रचना ई. १६३३ - संवत १६८९, श्रावण सुद पांचम.) साधु कविओ आ माहिती कृतिना पहेला खण्डने अन्ते आपी छे (त्रीजा खण्डने अन्ते पण आपी छे). गुजराती मध्यकालीन साहित्यकोश प्रमाणे तेमनी अन्य कृतिओमां 'नयप्रकाश-रास' (र. ई. १६२१), ६ कडी- 'शान्तिनाथ स्तवन' अने ९ कडीनुं 'शंखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन' छे.
संशोधन-लिप्यन्तर करवा माटे आ रासनी झेरोक्स हस्तप्रत, क्रमांक १३७१८, मने श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबामांथी प्राप्त थई छे. पुष्पिकानी माहितीना आधारे तेनुं लेखन संवत १७१५ मागसर सुद अष्टमीना दिवसे थयेलुं छे. कोबा केन्द्रमांथी ज कृतिनी बीजी हस्तप्रत क्रमाङ्क ००३२३, पण मळी छे, जेनुं लेखन १७९२मां थयेलुं छे. ओ साथे राखी हती; अमां लहियाओ पोतानी समज प्रमाणे घणा फेरफार कर्या होय अq लाग्युं छे, पाठभेद घणा ज थई जाय. केन्द्र परथी जाणवा मळ्या प्रमाणे रचना अ-प्रकाशित छे.
इतिहास तेमज लोककथा पर आधारित आ रचना कथात्मक छे. राससाहित्यमां जेम भिन्न भिन्न कथाघटको (motifs) प्रयोजायेला जोवा मळे छे तेम प्रस्तुत कृतिमां पत्नीना चारित्र्य पर शंका अने परिणामे सती स्त्रीने सहेवा पडतां कष्टो - ए घटक लेवामां आव्युं छे. पछीथी सतीनुं पति साथे मिलन थाय छे. कविनो आशय चरित्र आलेखी शीलनो महिमा करवानो छे. समग्र कृतिना कथानकने त्रण खण्डमां विभाजित कर्यु छे. पहेलां खण्डमां १८१ कडी, बीजामा २२२ अने त्रीजामा २३५. (आम ६३८ थाय छे) आरम्भमां श्री गौतम गणधरने वन्दना करी सरस्वतीदेवीनी स्तुति करे छे, गुरुगुणनी प्रशस्ति करे छे. आटली वन्दना पछी कवि मूळ कथा भणी वळे छे.
वार्ता एक सीधी रेखामां (linear) आगळ वधे छे, अने अन्त सुधी ओ ज पद्धतिने वळगी रहे छे. मध्यकालीन साहित्यमां घणीये वार अन्य वार्ताओ वच्चे वच्चे गुंथाय छे, अq अहीं नथी. अलबत्त, बोधप्रधान अने धर्मविषयक उपदेश तेम ज
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विधानो थतां रहे छे पण रसानुभूति- सातत्य जळवाई रहे छे. प्रवाही अने वेगवंती शैलीमां कथा गति करे छे.
प्रह्लादनराय अने राणी पद्मावतीना पुत्र पवनंजयने ऋषभदत्त साथे अन्तरङ्ग मैत्री स्थपाय छे, अञ्जनपुरनी राजपुत्री अञ्जनासुन्दरी साथे पवनञ्जयना लग्न थाय छे. ऋषभदत्तनी साथे ऊभा रहेला पवनञ्जये अञ्जनानी तेनी दासी साथेनी वात सांभळी अने तेना मनमा अञ्जनाना चारित्र्य पर सन्देहे जागे छे. अञ्जनाना कोई अन्तरायकर्मना उदयथी तेनो पति तेनो त्याग करी दे छे. बीजा खण्डनी शरुआतमां लङ्काधिप रावण साथे, वरुणनी सामेना युद्धमा जती वखते पवनञ्जय अञ्जनानी उपेक्षा करी नीकली जाय छे, पण मार्गमां रोकायेलो पवनञ्जय चक्रवाकचक्रवाकीनो विरहालाप सांभळे छे अने ऋषभदत्तनी परोक्ष टिप्पणीथी अञ्जनाने मळवा ओक रात माटे घेर आवे छे, अने पाछो चाली जाय छे. सगर्भा पत्नीना शील पर सासु-ससरा शंका लावी तेने दासी साथे वनमां मोकली दे छे. अनेक आपत्तिओ वच्चे शीलवंती नारी झझूमे छे. दासी चम्पकमालानी अनन्य सहाय मळे छे, हनुमन्तना जन्मवर्णनथी बीजो खण्ड पूरो थाय छे. त्रीजा खण्डना आरम्भमां अंजनाने गिरिगुफामा रहेतां तपस्वी मुनिना दर्शन थाय छे. मुनिश्री कर्मराजाना उदयनी अने संयमधर्मनी देशना आपी तेने तेना पूर्वभवनां कर्मोनी वात करे छे. अंजना व्रत-जप-तप-आराधनामां मग्न ज रहेती होय छे. त्यां तेना मामा यात्रा करीने पाछा वाळां अंजनाने वनमां जुओ छे अने त्रणेने - अञ्जना, हनुमन्त, चम्पकमालाने – पोताने घेर लई जाय छे. पवनसुत हनुमन्त बळवान छे तेने निहाळी अञ्जना आश्वस्त रहे छे. युद्धमांथी पाछा फरेला पवनञ्जयने बनेली घटनानी जाण थतां अत्यन्त दुःख थाय छे. चारेतरफ तपास करावतां मामाने त्यांथी अञ्जना मळतां बन्नेनुं मिलन थाय छे. समय जतां वैराग्य पामी बन्ने चारित्र अङ्गीकार करे छे. कथामां शीलना गौरवनी स्थापनाने केन्द्रित करवामां आवी छे.
रचना दुहा, चोपाई अने भिन्न भिन्न देशीओमां, रागोमां प्रयोजेला ढाळोमां करवामां आवी छे. भाषा सरळ छे, तेमां राजस्थानी / मारवाडी भाषानी असर विशेष वरताय छे. उपमा के दृष्टान्त जेवां अलङ्कारो, तेमज अन्त्यानुप्रास-यमक सहज रीते योजे छे. कविले छन्दोनो विनियोग को नथी. घणे स्थळे कडीना अर्धचरणना आवर्तनथी संरचना बने छे. अकंदरे रचनारीतिमां सादगी अनुभवाय छे.
वर्णनोनी समृद्धि ते कृतिनी विशेषता बने छे. प्रह्लादनपुर नामना ओक गिरि पासेना नगरनुं वर्णन, अञ्जनानी सुन्दरतानुं वर्णन अने तेना पिता अञ्जनकेतना नवल विमाननुं वर्णन कर्यु छे. पवनञ्जय / अञ्जनाना लग्न समये साजन-महाजननां झीणवटभर्यां वर्णनो मळे छे. वरराजानी माह्यरामां जवा सुधीनी विधिनुं वर्णन ओक साधु कवि
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अनुसन्धान-७५(२)
पासेथी मळतां आश्चर्य थाय ओवी अमनी निरीक्षण शक्ति जोवा मळे छे. अञ्जनानी उपेक्षा – त्याग ज - अने तेथी उद्भवेली तेनां अन्तरनी वेदना सादी पण हृदयस्पर्शी रीतिथी निरुपाई छे ! बीजा खण्डमां लङ्काना अधिपति राजा रावण अने पछी युद्ध माटे शस्त्रो वगेरेनां वर्णन खूब चोक्कसाई निर्देशे छे. पवनञ्जय अवगणीने युद्धमा जतां अञ्जना अने तेनी दासी वच्चेना संवादमां उपमा, दृष्टान्त अने रूपक अलङ्कारोनो उचित विनियोग छे. अञ्जनानी गर्भावस्था दरमियाननी तेना देहाकृति अने गति-विधिनुं वर्णन आबेहूब कर्यु छे ! वन- वर्णन अने अतिसंतप्त, विरहथी व्यथित, छतां समताधारी अञ्जनानुं चित्र नजर समक्ष आवे ओ रीते निरूपायुं छे - आस्वाद्य बने छे.
____ काव्यात्मकतानी दृष्टिले कृति आगळ पडती छे के नोंधपात्र छे एम कही शकातुं नथी. परन्तु सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति, तत्कालीन समाजसन्दर्भ अने लोकाचारना निरूपणनी दृष्टि रचना विशेष ध्यान खेंचे छ; अमां अनुं मूल्य छे. भावनिरूपणमां पण कविनी प्रतिभानो परिचय मळे छे. जैनधर्मनी सैद्धान्तिक तेम ज तात्त्विक लाक्षणिकताओने कथाना प्रवाह अने वर्णनोनी वच्चे वच्चे समुचितपणे वणी लीधी छे ते कविनी उपलब्धि छे!
एक विशेषता ए छे के घणी ढाळोना जे राग के देशी लख्या छे, तेनो निर्देश जे ते ढाळनी छेल्ली कडीमा नाम लईने कविए कर्यो छे. आq भाग्ये ज बीजे जोवा मळे.
अञ्जनासुन्दरी पवनञ्जय रास - खण्ड-१ श्री गौतम गणधर प्रमुख अकादश अभिराम मन वंछित सुख संपजइ नित समरंतां नाम 'प्रथम उद्यम मई मांडीउ मति दीसइ अति मंद तिण कारणि पहिला नमउं श्री गणधर सुखकंद सरसति पद पंकज सदा पूनुं बे कर जोडि कहण कथा उजम घणउ, मा तम आंणे खोडि सेवकनइं सांनिधि करी देये अविरल वाणि जिम वेगउ सिधिं चढई काई म राखिसि काणि वली प्रणमुं सद्गुरु वडा जिणथी थयो सनाथ
पाप पडल पाछा कर्यां सूत्र शास्त्र दे हाथ १. कर्तानी आ पहेली ज रचना होवानो अहीं संकेत मळे छे.
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सप्टेम्बर
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जग माहि मोटउ अछइं सदगुरु नउ उपगार जाई मानई नही साचा तेह गमार मन सुधि सहु प्रणमी करी करस्युं सती वखाण सुणिज्य कमना थई जिम होवइ जनम प्रमाण पवनंजय राजा तणी अंजना सुंदरि नारि सुकथा सुणतां थको होस्यई अल्प संसार सती शिरोमणि अंजना सील विभूषण देह नाम जपंतां प्रहसमई आपई रिधि अछेहु तिणरउ सखर संबंध छइ, मीठउ साकर डाख रस लेज्यो भवियण हमे भाखई कवियण भाख कि (जि)म तिणि सूधउ मन करी, कीधां सील यतन्न सावधान सहु थायज्यो सांभलवा सुवचन्न
१०
११
ढाळ १ : चोपई,
७
-
८
राग-रामगिरी
१२
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देवतणा जोअण ओक लाख, जंबूदीपना प्रवचन भाख तासु परिधिरउ सुविचार तिणि लाख नइ सोल हजार. बिसय सतावीस जोयण मान अडवीस धणुसय अधिक प्रमाण तीन कोस सार्धांगुल तेर अह वात मांहिं फार न फेर भरत क्षेत्र तसु भीतर भणुउ पण सय छवीस जोअण गिणउ तिणि विचि वेअढगिरि अभिराम विद्याधर वसवारउ ठाम उचपणइ जोअण पंचवीस, बिमणो पहिलपणइ सुजगीस साव रूपानो ते झलहलइ, जोवा जीव घणु टलवलइ ते गिरि पासइ नगर सुचंग नाम पह्लादनपुर अतिचंग पाखलि फिरतो प्रौढ दुरंग दुर्जननो तिहां न चलई ढंग झलकई कोसीसारी उलि चिहुं दिशि दीसइ पोढी पोलि सूदी हाट श्रेणि विस्तार फांदिल साह करई व्यापार छोहबंध ऊंचा आवास जाणे सूरिज बिंब प्रकास छयल घणा सुख रस भोगवई सरखो काल सदा जो गवई.
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सोभई सखरा जैन प्रसाद दंडकलसधज घंटानाद सतरभेद पूजा मंडाण बइठी निरखे राणो राणी. ठामि ठामि बहु सत्राकार निरधन लोक लहइ आधार सूधा श्रावक दीन दयाल साचा धर्म तणा प्रतिपाल महानुभाव घणा महातमा जिणरउ निर्मल छइ आतमा आप तरइ परनइ तारवइ पंचाचार सदा चालवइ. वसई वरण अढार सुखी न करइ को किणनई तिहां दुखी दीठई मारगि चालई सह परघल पुण्य करई ते बहु वणिक तणी चोरासी न्याति वरणी वरण तणी बहु भाति तिण करि नगरी सोभई घणुं सरग तणी उपमा गणुं मोटउ दीसइ अति मंडाण जोअण बार तणुं परिमाण पालई राज पल्हादनराय अरिअण करेउ काल कहाय राजनीतस्युं पालई राज देसवतांमई सबली लाज न्यायघंट बंधावी बारि आ(सा?)री विण को न कहई मारी. २५ कबरीबंध लहई स्त्रीतणी बीजो को न पडइ बंधणी देवल ऊपरि दंड ज होय राजा दंड न जाणइ कोय पटराणी तसु पदमावती सील गुणे करी सीता सती अपछर रंभारी अणुहारी आपवसई कीधो भरतार अस्त्री तिणरउ जनम प्रमाण जिणरउ प्रीउ न लोपइ आण चालइ चतुरपणइ चमकती कुलरी रीति न लोपइ रती सासु सुसरस्युं हित धरइ जेठ देवरनइं देख्यां ठरइ नणदल आवइ हरख अपार ते कुलवंती कहीइ नारि पद्मावती अहवी पटराणी प्रसव्यो पुत्र रयणरी खाणि । लीला लहिर तणो भण्डार दीसइ रूपइ देवकुमार ३० पवनंजय प्रगट्यो अभिराम दिन दिन दीपइ अधिको वान मंत्री सुत छई ऋषभदत्त तिणस्युं रंगरमइ इंकचित्त ३१ पहिली रामगिरी ओ ढाल सांभळता घरि मंगलमालि सहु को श्रावक सुणिज्यो मिली आगलि वात मीठी छई वली ३२
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ढाळ - २ : अलबेलारी, राग - काफी अक दिन राय सभा सजी रे लाल
बेठउ उलट आणि सुणि राजा रे आयु नर देसाउरी रे लाल
बोलइ मधुरी वाणि सुणि राजा रे... ३३ वात अपूरव माहरी रे लाल
हुं बोलुं थिर थाइ ... सु कहतां रीझइ आतमा रे लाल
सविकइ आवइ दाय... सु ३४ अंजनपुर अति रूअडुं रे लाल
इंद्रपुरी साक्षात्... सु० राज करइ तिहां राजीउ रे लाल
अंजनकेत विख्यात... सु तेज प्रतापइ आकरुं रे लाल
अरि नाठां घर छाडि... सु देस तणी माया तजी रे लाल
वेठि ग्रही मठ मांडि... सु पटराणी तसु रूअडि रे लाल
अंजनावती तसु नाम... सु सील सोभा गई आगली रे लाल
सकल गुणे अभिराम... सु । तिणरी कूखइ ऊपनी रे लाल
कुमरी ओक रत्न... सु नामइ अंजनासुंदरी रे लाल
करइ तसु कोडि जतन्न... सु ३८ पाय कनकमइ काठवा रे लाल
हीरा नखरी पंति... सु जंघा रंभा सारखी रे लाल
विपरीत गति सोभंत... सु ३९
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मृगपति लाजी वन गयु रे लाल
__ पेखी कटितट लंक ... सु घण थणजुगल सोहामणो रे लाल
कोई न दीसइ वंक ... सु दोई भुजा दीसई दीपती रे लाल
जिहा पंकज नालि ... सु ऊभी सोभइ आंगणइ रे लाल
लखमी आवी चालि ... सु रवि सशि कुंडल झलहलइ रे लाल
दर्पण शोभा गाल ... सु दंत सकोमल ऊजला रे लाल ।
अधर प्रवाली लाल ... सु नकवेसर नीचउ लली रे लाल
__ सेवई अधर रसांग... सु तिमिर हणइ अति ऊजली रे लाल
निलवटि अर्धमृगांग... सु नयण कमलरी उपमा रे लाल
भुं भमरी कहवाइ ... सु श्याम वेणी ढलकती रही रे लाल
कटि तटिस्युं लपटाइ ... सु जौवनभर जोरइ चढी रे लाल .
वचन अमीरस बिंद ... सु. मुख मटको देखी करी रे लाल
खीणपणउ लहइ चंद ... सु कामिणरी चौसठि कला रे लाल
तिणि सीखी ततकाल ... सु समकित सुधा श्राविका रे लाल
जीवदया प्रतिपाल ... सु
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देवगुरुरी बहु रागणि रे लाल
सील आचार
सु
गुण बहुला जीभइ करी रे लाल कहिता नावइ पार.... यौवन वनपति मउरीयो रे लाल परिमल गत परदेश ते कन्या मांगण भणी रे लाल
...
निहुरा करइ नरेश ते कुमरी तइ कारणइ रे लाल राय मेल्हइ पट चित्र ते कोई मन मान्यो नही रे लाल तिणि मुंतइ मूंक्यो अत्र कुमर अमूलक सांभळ्यो रे लाल पवनंजय नाम जास
...
...
सु
देश प्रदेशे सांभळी रे लाल जिरी कीरति खास तिणरउ रूप लिखी करी रे लाल मुझई चित्रा जिम हुं जाउं उतावलो रे लाल सीझइनु (तु) सारां काम राजा आणंद पामीउ रे लाल
...
सुणि तस वचन रसाल राग काफी मई रूअडी रे लाल अलबेलारी ढाल
सु
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सु
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सु
सु
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दूहा
डेरो आप्यो दूतनइ सखर तलाइ खाट आगत सागत बहु करी मोटा सगपण माट
चीतारउ डावीउ वारु जासु विन्यान कुमर रूप तिणि चीतर्यो रुडइ राखी चित्त ध्यान ५४
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अनुसन्धान-७५(२)
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पछइ तेड्यो दूतनर दीधउ कागल तेह वलतउ कुमर देखाडीउ रूपकला गुण गेह चाल्यो दूत उतावलो चुप धरी अतिसार । कुशलई खेमई अनुक्रमइ पुहतो नगर मझार राजभुवन जाइ करी कीधो चरण प्रणाम हर्ष धरी राय आगलिं मूक्यो पट चित्राम ततखिण ते निज करि ग्रही निरखइ रूप सुजाण कुमर कला देखी करी राजा थयो हराण औ औ जगमां अहवो नहीं को देवकुमार किरतारइ सइहथि घड्यो भूलो नही लगार तुरत सभाथी ऊठीउं गयो अंतेउरमांहि राणिनइ देखाडीउ कुमरी पासइ साहि निरखई राणी हरखस्युं मिल्यो जमाई चंग सोना केरी मुद्रडी जडीई ऊपरि नंग सामी ओ सगपण विना हवइ घडी जे जाइ ते सघली अक्यारथी वरस समाणी थाइ कहइ राजा ओ नातरंउ थास्यइं भलउं मंडाण । जात्र नंदीसर जाइस्यां करिस्यां तेणइ ठाण विद्याधर मिलस्यइ घणा जिनवर यात्र निमित्त राय प्रह्लादन आवस्यई होस्यइ हर्ष विचित्र
६५
ढाळ - ३ : मधुकरनी, राग - धन्यासी राय अंजनकेत चालियो, जिनवर करण भगति, साजण चउरंग सेना सजी करी विद्याधररी सगति... सा... ६६ जगपति भेटण चालिउ आणी हरख अपार... सा सिवसुख केरइ कारणइं प्राणीनइ हितकार... सा ६७ साथ कुटुंब सहु को चल्यो घण आणंद घमंड... सा नवल विमान रचाविया पहिला नइ परचंड... सा ६८
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फटिक रयणमइ ऊजला जाणे रवि प्रतिबिंब...सा जोतां तृपति न पांमीइं नयण करइ विलंब... केई विमाणे चित्र कीयां कुंजर हय मयमत्त...सा संबर सूकर रोझडां ईहामृग सुविचित्र... सा चकवाचकवी जोडलां सारस हंस चकोर... सा सुक पंखी नई सारिका छयी उडान मोर... सा विद्याधर विद्याधरी नारी नई भरतार... सा गाढ आलिंगण दे रह्यां बोलइ नही लगार... सा ते ऊपर धजा फरहरई नभस्यउं मंडई वाद... सा रण रण रणकई घूघरी मीठउ झीणउ साद... सा ७३ जाय इणिपरि राजा चालीउ मोटउ करि मंडाण... सा भेरि नफेरी थरहरइं बाजई ढोल निसाण... सा ७४ गयणंगणि उचा वहई लंघई दीप समुद्र ... सा जोतखी देखी खलभलई मतउफ्रेठ करई रुद्र(?)... सा ७५ राय गयो दीप आठमइ जिहां श्री जैन विहार... सा। मूलनायक जिन सासता ऋषभादिक प्रभु च्यार... सा ७६ नयणे निरख्या जगधणी वागा मंगल नूर... सा राग धन्यासी ईय करी मधुकर ढाल सनूर... सा ७७
दूहा
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विद्याधर आव्या तिहां ठामि ठामि जेह राय प्रह्लादन कटकस्युं आयो कटको ठेह सहू को मलीया देहरई जिहां श्री त्रिभुवन राय सतरभेद पूजा रचई भगति करई मन भाय तिहां पवनंजय कुमर पिणि तात समिप बइठ निरखे अंजनकेतु नृप लोचन अमी पईठ... अंजना पिणि आवी सिंहा भगवंत पूजणा हेत दीठी राय प्रह्लादनई चिंतण लागो चेत...
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अनुसन्धान-७५(२)
८७
ओ कुमरी जउं थाईस्यइं मुझ कुमररी बेलि तउ वणसींची अंगणइ मुझ फली नागरवेलि ८२ अरिहंत पूजीनई गया सहू डेरइ राजान अंजनराइ मेल्हियां सगपण करण प्रधान... कुमरीनइ ओ कुमरनी दीसइ सरिखि जोडि करो सगाइ आपणइ अह अम्हारइ कोड... राय प्रह्लादन हरखीउं सांभळि वाणी तास जाणि उखरलउ सोवतां लही तलाइं खास... राय भणइ मंत्री प्रति ओक ही जुगति वात मनगमता पासा ढल्या सखर मिल्या संघात... प्रीति अम्हारइ मनि कही वली तुम्हारउ रंग। तउ दूधइ साकर मिली पीतां मनि उच्छरंग... वात प्रमाण करी अह्मे जाय जणावउ राय लगन जोवाडउ ढूकडउ ढील न करणी जाय... ८८ मंत्रि डेरइ आविनइ सघलो कह्यो वृत्तांत तव सहु नर ते दिने भोजन द्यई अकांत... गणक बोलावी पूछीउ सरखइ लगनइं जीक तेणे कह्यो दिन तीसरइ आज थकी सुश्रीक... थाप करी सूधा तिहाँ गाजंतां नीसाण आव्या मंदिर आपणइ ते बइठा राजान... राय पल्हादन हिव करइ व्याह तणो मंडाण सजन संतोषी घणुं युगति चलावई जान...
ढाळ - ४ : राग - सोहलानी सखी मोरी जान चढइ आडंबरई
चालउ जोवण जाइं सहीयां सखी मोरी राजभुवन सिणगारीआ
गोरी मंगल गाइं हे सहीया... ९३
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सखीआं मोरी जान चढई आडंबरई... (आंकणी) सखीयां मोरी ताता तुरी पलांणीआ
सोवन जडित पल्हाण हे सखी मोरी बांधां मोती झूबखा
___ पाहुरे चढाया खांण हे... स... ९४ सखी मोरी सांस सांडुस्या मदफरई
मयमत्ता मातंग हे... स... सखी मोरी अंबाडी उपरि भली,
लाल कथीपारंग हे... स... सखी मोरी काठी करहा मजाविया
गल दइ घूघरमाल है... स... सखी मोरी मन मांना भुंइं हालतां ।
थाकत लागइ ताल हे... स... सखी मोरी प्रज्ञप्ती विद्या बलइ
रचीयां सखर विमांन हे... सखी मोरी ते उपरि धज सोभती
पंचवरण धज वान हे... स... ९७ सखी मोरी छयल छबीला राजवी
खेलावई तोषारहई... स... सखी मोरी सीस सुरंगी पाघडी
कंठ एकाउलि हार हे... स... सखी मोरी केसरीआ वागा वण्या
शिर धरई चांपावेलि हे... स सखी मोरी चूआ चंपेलि लाईआ
मोगरेल केवडे लहइ... स... सखी मोरी उठी पीतांबर पांभडी
कसबो ही गरकब हे... स सखी मोरी हालइ गलीओ मलपता
देसो तोरी दाब हे... स - १००
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सखी मोरी अलंग बिरुद माथई वहई
सूरवीर दातार हे... स.. सखी मोरी अहवा अणुअर जानीया
सारीखा सुविचार हे...स सखी मोरी वरघोडई चढि चालीउ
पूंठि बहू परिवार हे... स सखी मोरी सोहव गावई सोहला
नाटिक पडई अपार हे...स सखी मोरी धुरइ नीसांण सुहमणां
नफेरी चहचाट हे... स सखी मोरी सहिर सकल सिणगारीया
___ मिलीयां माणस थाट हे... स सखी मोरी पुर बाहिर डेरा दिया
___ ऊतरिआ सहू जाय हे... स सखी मोरी नरनारी अनुक्रम तिहां
आवी ओकत्र थाय हे... स सखी मोरी चोथी ढाल सुहामणी
सुणतां वाधई नेह हे... स सखी मोरी वली विशेष मीठी घj...
अणपरण्यांनई ओह हे... स सखी मोरी जान चलई आडंबरई...
दूहा जान चढी उतावली दम गाली क्षण अक जाणे रतिरस लेणनई चाल्यो मयण सुठेक. कुमरी वर तरुमालती यौवन मास वसंत कीरति कुसुम सुवास अति मधुकर महंत. वाटघाट लंघी करी कुशलेखेमई राय अंजनपुर जई ऊतर्या आणंद अंग न माय.
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गयो वधाउ आगलइं वागा जंगी ढोल थाल भरी द्यई तेहनई मोती रयण अमोल. सामहीउ सबलो कर्यो परसारउ परगढ(१) सखर उतारा आपीआ मंदिर पास निकट्ट उठ(छ)व अंजनकेतु नृप मंडावई विस्तार गीत गान मंगल करइ वरतई जय जयकार माहिरा मंडप मांडिया चंदन थंभ विलास उपरि मुखमल चंदूआ हेठि दलीचा लाल... फूल पगर पधरावीआ धूपघटी सुभवास अगर कपूर ऊखेवीया महिकई परिमल वास. ११३ सखर नीपाई रसवती मीठाई बहमोल तीखां चरका सालणां राई वडारा घोल. नुतरीयां जांनी सहू जिमाडई भरपूर नवल वेहिणा गाईआ सहीरअरि मिली सनूर. ११५
ढाळ - ५ : सोहलारी, राग - खम्भाईती सोवन पाट मंडावीउ रे वरनइ नहवण करावई रे पंच मात मिलि कामिनि रे पीठीरा गीत गावई रे ११६ वरराजा तोरण चढई रे वधावई वर बालो रे
गज मोतीडे भरी थालो रे... आंकणी० सत सहस लख पाकस्युं रे मर्दन द्यई सुविचारो गंधोदक कुंडी भरी रे अंग पखालई उदारो रे. ११७ अंग विलेपन आचरई रे मृगमद जबादिक पूरो रे । सूंधो सखरउ महमहई रे पसरइ परिमल पूरो रे. ११८ वागा पहिर्या सोभता रे भयरव सालू अटाणो रे आभरण पहिर्यां अति भलां रे देहितणई सुप्रमाणो रे. ११९ सोवन खूप पूरावीयो रे मस्तक मुगट सुरंगो रे । अश्व पूंठि चडि चालीयो रे वाजई वाजिंत्र चंगो रे. १२०
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रे
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ऊभवीयो सिर ऊपरि रे मेघाडंबर छत्रो रे बिहु पासई चमर ढलई रे आगलि नाचई पात्रो रे कलश जवारा सिर धरी रे पदमनी आगलि चालई रे याचक जय जय उचरई माता हीयडई माल्हइ रे सरणाईआं सोहला रे मधुर मधुर सादई आलापई रे राई रंज्यउ कुंअरू रे मन मानी मोज आपई रे. गखमाहि गोरडी रे मन माहि करई विचारो रे मांग्यो देजे माधवा रे परभवि अ भरतारो रे. ईणि परि आवई मलपति रे चावल तिलक वधायो सासू लूंण ऊतारीयो रे धवल मंगल करी गायो रे. पाय तलि सराव भंजाविआ रे लज्जा भागी तेहो रे माय बाप सहु जण पेखतां रे स्त्रीसुं धरवड नेहो रे. वर जाई वटो माहरइ रे ततक्षण कुमरी आवई रे सहिर सरिसी परिवरी रे गजगति गेलि हरावई रे वर पासई कन्या ठवी रे वरमाला पहिरावई रे वरकन्या करि एकठा रे वेदी हाथ मेलावई रे . कर मेल्हामण कुमरनई रे दीधा अर्थ भंडारो रे हाथी घोडा अति घणा रे दासीरा परिवारो रे. चउरीमाहि बेसारीया रे वर कन्या मनरंगो रे बिहूर बिहडा बाधीया रे ते बांधी प्रीति अभंगो रे चोई फेरई कामिनी रे वरनई वांसइ थापई रे चोथो मंगल वरती रे पांचांरी साखी आपई रे ढाल सोहलारी पांचमी रे परण्या पवन कुमारो रे पुण्य थकी कवियण कहि रे लहीई लील उदारो रे. १३२
दू ईम वीवाह कीयो भलो खरच्या द्रव्य अनेक जाचक जण संतोषीया दांन - मांन सुविवेक... हसी रमी सहु को तिहां जांनीवांसई जाई निद्राभर सूता सहू आणंद हरख अपार.
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हिव पवनंजय मित्रस्युं सजि करी सघलो साज महोल भणी पगला करई कामिकेलिरई काजि १३५ वागउ पहिर्यो नवलखो खडग लीउ निज हाथ आवि उभो रह्यो गोखडई ऋषभदत्त छई साथि १३६ छपि छाना रहि बे जणा वात सुणई एक चित्त अंतराय पडिस्याई ईहां पूरव कर्म विचित्त. १३७
ढाळ - ६ : नणदलरी, राग-सारिंग ईणि अवसरि चंपकमाला दासी अम कहती हे बहिनी भाग वडो आज ताहरउ मनगमतउ लह्यो कंत हे बहिनी.. १३८ प्रीति पूरव पुण्य पामीयई नहीं को अवर उपाय हे ब. मंत्र-मूली अहवी नही जिणि प्रीउडो वसि थाई हे. आंकणी० १३९ सुणि बाई तुझ कारणइं चित्र पट आया अनेक हे... ब. ते कोई मन मांन्यो नही, पणि सांभलि सुविवेक हे... ब. १४० देवदत्त नाम कुमारनो पट आयो ईक सार हो... ब. राय प्रति मंत्री कहई ओ रूप अधिक उदार हे...ब. पणि सामी कह्यो निमित्तीइं वरस अढारमई अह हे... ब. मोक्ष जास्यई दीक्षा लही भव तणो आंणी छेह हे... ब. १४२ ते संबंध रह्या तिहां मिल्यो पवनंजय नाह हे... ब. तिणि प्रीति स्युं कींजीइं जिणि हुई अधविचि दाह हे... ब. १४३ जिणस्युं जलपी जीवडो रहिइं रंग विलाय हे... ब. ते माणस किम विसरई वरकलउ थल थाइं हे... ब. सुणि बहिनी अंजना कहइ तइ कह्यो साच विचार हे... ब.. पणि अमृत थोडं भलुं कि कीजइ विषभार हे... ब. १४५ तावड बहुलउ तन दहई अलपतउ हीयण ठांह हे... ब. थोडा पणि गोहुं भला कूरी कुकस पाहि हे... ब. १४६ भईस अक दोही भली नही ठाली पंचास हे... ब. दूध तणो टबको भलो स्युं कीजई मण छासि हे... ब.
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अनुसन्धान-७५(२)
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थडी माला अका भली स्यउं भली छांयडी बोक हे... ब. पंडितस्युं बिघडी भली, मूरख जमारउ फोक हे... ब. तिणि कारण सांभळ सखी, देवदत्त नाम कुमार हे... ब. चरमशरीरी ते हुतउ पुण्य तणउं भंडार हे... ब. बोल ईस्या कुमरइ सुण्या लागा मरम प्रहार हे... ब. क्रोध चढ्यो अति आकरो इणरो करस्युं संहार हे... ब. गर्व करई ओ बापडी मन मांहे न समाई हे... ब. लाखे लाधी वाहणी पणि पहिरेवी पाइं हे... ब. खडग काढी धायो जिस्यई छेदी नांखं सीस हे... ब. मित्र धाई बांहि ग्रही हां, प्रभु, म करउं रीस हे... ब. मुकि मुकि तउ मति ग्रहई रे मारि करुं शत खंड हे... ब. आज पछई का अहवी वाणि न बोलइ रंड हे... ब. १५३ सुणि सामी मंत्री कहई ओ मोटउ अन्याय हे... ब. स्त्री हत्या किम कीजई कुलनई लंछन थाई हे... ब. ससुरा मंदिर आवीआ लाज तणउ अ ठाम हे... ब. रात निराली जण सूता ओ नही उत्तम काम हे... ब. टाढे वचने वारीयो पाछा चाल्या बे मित्र हे... ब. आया डेरई आपणइ तिहां थीनी ठिर चित्त हे... ब. १५६ ढाल छठी नणदल तणी राग सारंग अमूलि हे... ब. पुण्य सागर कहई मत कहो अणविमास्यउ बोल हे... ब. १५७
दूहा रात विहाणी दिन हूउ परगटीयो परभात मावीत्रे रजनी तणी जाणी सघळी वात.. जान चढई हिवइ घर भणी कुमरी लीधी साथि सुसरो वरनई चालतां घणी समापइं आथि. कुमरई क्युं लीधो नही हृदय धर्यो घण रोस । अंजना मनि झांकी धरी कर्म चढावई दोस. १६० कर्म तणी गति दोहिली कर्मई दुरगति होइ हासा मिस रे बापडी कर्म म बी(बा?)धउ कोइ. १६१
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सप्टेम्बर - २०१८
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जानी मानी सवि तणा जीव हुआ दिलगीर घर भणी चाल्या सहू वडवागिया वजीर. मारग लंघी आविया पुर उपवन सहू कोय गयो वधाउ आगलइ हरखी सघलो लोय. १६३ सामहीयास्यु परवरी महीलइ करइ प्रवेस छांडी अंजनासुंदरी प्रीति नहि लवलेस. १६४
ढाळ - ७ : मोरीयानी, राग - धन्यासी मन विलखाणी अंजना सती करम चढावई दोस किम दुख विण खमीइ बूझीयई प्राणीया छोड द्यइ सोस...
१६५ मन आंकणी० प्रेम छडी रह्यो आंतरइं नवि धरइ निजर संतोष अहनिसि अति करतउ रहइ पाछिला वयरनो पोष. १६६ मन० मनुषके लाखस्युं पर भर्यो वलि भर्या द्रव्य भंडार ते सवि नारिनइ पीउ विना सुनडा पड्या रे ढंढार. १६७ मन० रूप गुण तेज चित्त चातुरी पहिरीआ विविध शृंगार कंत विण क्षीण दीसई तिके दिन शिलास्युं झबकार. १६८ मन० कंत माली वनिता लता प्रीति जल तन भर्यो (?) कूप सींच्या विण किम नीसरई नव नवपल्लव रूप १६९ मन० विरह दाधी देही कमलनी दीसती वदन विछाय कंत छाया विना कयुं थीई जी हरित वरणी तसु काय. १७० मुखि गई वाणी प्रीत्यालूइ जी घट थकी सहू गयो प्रेम पति विना आमणदूमणी जी यूथ भ्रष्टी मृगी जेम. १७१ तिणि समई आवि दासी कहइं जी म धरि बाई मनई दुख प्रीति दृढ राखीउं धरम स्युं जी जेहथी पामीइ सुख. हटकी लीजई हीयो आपणो जी कारिमउ ओ सहु नेह सुपनमांहि लही संपदा जी जागीया निष्फल तेह. १७३ ईम सुणी निय मन वालीउ जी राखीउ धरमसु रंग देव पूजा दया अणुसरइ जी परिहरइ पापरउ संग.
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अनुसन्धान-७५(२)
ढाल पूरी थई सातमी जी प्रथम पूरउ थयो खंड अंजना पवनकुमारनई जी प्रीति होस्यई परचंड. १७५ गच्छ सवेमांहि शिरोमणी जी श्रीवडगच्छ सुविशाल शांतिआचारय सुंदरु जी वादी यांच्छि सूद(?) वेताल. १७६ तिणि गच्छि पीपल थापीउ जी आठ शाखा विस्तार वृक्ष पीपल तलई थापना जी प्रगट हूई सुखकार. ते गच्छि गिरुअडि गहिगहि जी नयर साचौर मझारि श्रीसंघ रंग वधामणां जी नव नव जय जय कार पाटपति जग पुडि जाणाई जी लक्ष्मीसागरसूरि वाचक कर्मसागर वरु जी निलवटि निरुपम नूर. ते गुरुचरण पसाउ लइ जी खंड पूरुं थयुं अह वाचक पुण्यसागर कहि जी धन्य पालई व्रत जेह. १८०
इति अंजनासुन्दरी पवनंजयकुमर संबंधे पुरवर्णन पवनंजयकुमरजन्म ऋषभदत्त सह मैत्रीस्थापना प्रह्लादननृपसभामां दूत चित्रपटग्रहणाय समागमन नृपाग्रे अंजनासुन्दरी पवनंजयकुमार विवाह, मीलन तदनंतर स्वस्वगृहागमन, विवाह
महोच्छववर्णन, अंजनासुंदरीपरिहारवर्णनो नाम प्रथम खण्ड सम्पूर्ण. (१८१)
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शब्दार्थ
नई – ने, अने खोडि = खोड क्षति, खामी प्रहसमइ = प्रभाते अछेह = खूब (तिण)-रउ = (ते)-नो सखर = सरस जोअण = जोजन वेअढ = वैताढ्य पहिलयण = पहोळाई उलि = हार, श्रेणी छयल = रसिक लोको सूधा = शुद्ध अरिअण = शत्रु काठवा = (?) निलवटि = ललाट निहुरा = नखरा (हा-ना) सइहथि = पोताना हाथे अक्यारथी = अर्थ विनानुं नातरउ = संबंध पिणि = पण पाहुरे = स्वजनो, महेमानो खांण = भोजन पांभडी = पामरी चंदूआ = चंदरवो दलीचा = गलीचा खूप = माथा परनुं आभूषण
गोरडी = सुंदर स्त्री गेलि = क्रीडा महोल = महेल तावड = ताप (तडको) बोक = कोस, डोल ? मुकिमुकि = मुक्त ? हसा मिस रे = हसवा रूपे, बहाना रूपे ढंढार = हाडपिंजर दाधी = दाझवू दूमणी = दुःखी छोहबंध = छोकाम करेल (धाबावाळां) फांदिल = फांद (मोटा पेट)वाळा मउरियो = म्होर्यो-खील्यो मुंतइ = महेता(?) विन्यान = विज्ञान जोतखी = (?) मतउफ्रेठ = (?) बेलि = साथी तुरी = घोडा गरकब = (?) अणुअर = अणवर जानीया = जानैया मुखमल = मखमल सहिर = सखी-सहियर वडवागिया = वाणीचतुर
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अनुसन्धान-७५(२)
'बाजिंद विलास' - ओक वैराग्यबोधनी रचना
सं. - निरंजन राज्यगुरु
___ घणां वर्षो पहेलां पू. आचार्यश्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी म.सा.ने मळवा वढवाण गयेलो त्यारे अमणे पोतानी पासे सचवायेला केटलांक हस्तप्रतोनी झेरोक्स नकलोनां पानांओ आपेलां. अमांथी 'अनुसन्धान ना २००५ ना अंक ३२मां उदयरत्नजी कृत 'जोगमायानो सलोको' प्रकाशित थयेलो. त्यारबाद खम्भातथी पण केटलांक झेरोक्स नकलोनां पानांओ मने आपेलां अने अमांथी 'गूढार्थ दुहाओ अने अन्य सामग्री' नामे लेख २०१०ना अंक ५०/२मां प्रकाशित थयो. हजु केटलांक छूटां पत्रोनी झेरोक्स नकलो सचवाई छे अमांथी ७५मा अंक माटे आ छे नानकडी वानगी. 'बाजिंद विलास' के 'बाजिंद शतक' नामे ओळखावायेली आ रचनानी बे हस्तप्रतोनी झेरोक्स नकल परथी आ सम्पादन तैयार कर्यु छे. बन्ने हस्तप्रत नकलो चार-चार पृष्ठोनी ज छे. ओक नकलमां पूर्ण रचना छे ज्यारे बीजी नकलमां ८३ कडी सुधी ज आ रचना लखायेली छे. जेनी शरुआत अहीं आपेली वीसमी कडीथी थई छे, अटले के आगळनी ओगणीस कडी आ अपूर्ण हस्तप्रतमां नथी. पाठ बहुधा अक ज छे, पाठान्तरो नोंधी शकाय अवा कोई ज फेरफारो नथी. बन्नेमां दरेक कडीनी बीजी पंक्तिना प्रथम चरण पछी 'परि हां', 'हरि हां' शब्द गान माटे लयवर्धक लटकणियां तरीके प्रयोजायो छे जे अहीं सम्पादनमांथी काढी नांख्यो छे. समरणको अंग, कालको अंग, उपदेशको अंग, कृपणको अंग, चांणकको अंग, विसवासको अंग, साधको अंग अने पतिव्रताको अंग. अम आठ विभागोमां आ शतक वहेंचायेलुं छे. 'जैन गूर्जर कविओ' - भाग ६ पृ. ५२१ उपर आ सर्जकनी रचना 'चन्द्रायणा दुहा' नामे ३६ कडीओ नोंधाई छे जेनी सामे मुद्रितनी निशानी छे, पण अमां दर्शावेला आदि-अन्त जुदा छे. मारी पासे सचवायेली अन्य हस्तप्रतभण्डारोनी सूचिओमांथी 'बाजिंद-बाजंद-वाजंद-वाजिंद' शब्द नथी मळ्यो. हा, आपणां प्राचीन भजनोमां बल्ख बुखारानो अक शाह के जेमनुं ऊंट मरण पामतां वैराग्य जाग्यो अने फकीरी लई लीधेली ओ वात मळे छे. ('राजस्थानी साहित्यना इतिहासनी रूपरेखा' पृ. १३६ मुजब वाजिंद ओक पठाण हतो अने दादुनो शिष्य हतो, अनां १३५ जेटलां 'चान्द्रायणो' के 'अरिल्ल-अरेला' महत्त्वनां छे ओवी विगत मळे छे. आ रचनाना सर्जकनी अन्य रचनाओ तपासनो विषय छे.)
मानवीनु जीवन अक समस्या छे. अक तरफ विषयोनुं सुख, सौन्दर्य अने सामर्थ्य होय छे तो बीजी तरफ परब्रह्म परमात्मा तरफ भक्तिनी लागणी. ओक तरफ छे सांसारिक उपभोगोनी दुनिया तो बीजी तरफ छे अध्यात्मनी अजायबी. ओक तरफ
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क्षणिक क्षणभंगुर जीवननो भ्रामक आनन्द होय छे. तो बीजी तरफ अनन्त अश्वर्यवान परमात्मा साथै अनुसन्धान केळवी सदैव परमानन्दमां लीन थई जवानी झंखना. पण... ज्यां सुधी मानवी साचां अने खोटां सुख वच्चेनो सूक्ष्म भेद जाणी शकतो नथी त्यां सुधी आम तेम अथडाया करे छे. संसारना दरियाकिनारे भटक्या करे छे. ओ सामे पार क्यांथी पहोंची शके ? तृष्णा, मोह, भोगविलास अने आसक्तिओमांथी मुक्त थई जवं ओ सहेलुं नथी. ओ तो गुरुनी कृपा अने साचा संतनी शीखामण मळी होय तो ज शक्य बने. अने अ ज कारणे आपणा संतोओ जगतना अनित्य कठोर वास्तविकताभर्या मानव जीवननी साची ओळख करावता रहीने परमात्मा प्रत्ये अपार श्रद्धा अने आध्यात्मिक प्रेम प्रगटाववा भारे मथामण करी छे. पोतानी वाणीमां मानवजीवनमां व्यापी रहेला ठाठमाठ, गर्व, पाखंडी आचारो, नात-जातना वाडा, अत्याचारो, अने दम्भ जेवां अनिष्टो प्रत्ये व्यंग दर्शावी, पापनी अने अधर्मनी अन्ते शी दशा थाय छे ओना द्रष्टान्तो आपी संतोओ नामस्मरणना महिमानुं वर्णन कर्तुं छे.
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अथ बाजिंद विलास / बाजिंद शतक
(अडिल चन्द्रायणा)
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॥ अथ समरणको अंग ॥
और कौर सब छांडि धणीकों ध्याइओ, मुक्ति करै पल मांही नभै जल ल्याईये बैस दासके पास हाथ ले जपनी, चालत हे कही काम भया निधि अपनी ॥१॥ रे जनम जात है बादि याद करि पीवकों, मुसकल सब आसांन होयगी जीवकों जाके रिदे में रांम रेन दिन रहेत हे, मुक्ति मांझ नहीं फेर साध सब कहत है ||२|| राम नांमकी बूटि फळी हे जीवको, निसवासर बाजिंद समर ले पीवको, ईन्ह वात पर सिध कहत सब गांवरे, अधम अजात मेल तर्यो ओक रांम के नांवरे ॥३॥ गाफिल रहे वो वीरकूं हो कयुं वणत हे, अमांनसके सास सो जुंरा गणत हे जागि लागि हरिनांई कहां लगी सोई हे, चक्की के मुख मांहि पर्यो सो मेंदा होत हे ॥४॥ आज सो तो नही काल्ही कहेत हो उजको, भावे वैरी जाण जीवमें मुजको देखत आपणी द्रिष्ट खता कहां खात हे, लोहा को सो ताव वध्यौ ही जात हे ॥५॥ भूल्यो माया मोह मौत न सूझही, सूत दारा धन धाम आपनो बूझही हरिको नाम अज्ञान हिरदे नही आणही, दीवा सो बूझी जाद भमावै मांही ॥६॥
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अनुसन्धान-७५(२)
रट्यो दिवस अरु रेण आपणे पीवको, माया मोह जंजालन मेलउ जीवको कुटंव बंध घर धंध नी कोउ तेर हे, बादर केसी छांह जात नहीं बेर हे ॥७॥ घडी घडी घरीयाल पुकार कहत हे, बहोत गइ हे आव अलप ही रहत हे सोवे कहां अचेत जागी जप पीव रे, चले आज के कालि वटाउ जीव रे ॥८॥ जल अंजलिको जात कहो कहा वैर हे, देखो सोच विचार वात ईहि फेर हे, मेंज कह्यो दस वेर खेल हे घाव री, जीते भावै हारी रजा अब राव री ॥९॥ परतखि देखु हे नेण श्रवणउं सुणत हे, उसर बोयो बीज कहांसु लुणत हे चरण कमल चित देह नेह तजी ओर सुं, तोरे वेणै न वीर श्याम शिरमोरसुं ॥१०॥ तणतें हरका होई कहा जग जी जीयै, तजी वा सुरसरी नीर कूप जल पीजिये करी वाही को याद आस तजी औरकी, जिण बाजिंद विचार कहां हे ठौरकी ॥११॥ काल छांडी गही मूल मांन शीख मोहे रे, विना रामके नाम भला नहीं तोहे रे जो हमको न पत्याय बोल कहो गांममें, जप तप तिरथ व्रत सबें ओक नांममें ॥१२॥ गीत कवित गुण छंद प्रबंध खाणीयै, तिणमें हरिको नाम निरंतर आणीयै जीण बाजिंद विचित्र डरावै कोण सों, सब सालणको स्वाद लग्यो ओकलोंण सों ॥१३॥ अबध नांउ पाषांण ठिो हे लोह रे, राम कहत कलमांज न बूडो कोह रे क्रमसो केतीक बात विलहे जायगे, हसति के असवार न कूकर खायगे ॥१४॥ ज्यूं ज्यूं कूड कपट हो गोविंद गाईये, राम नाम के लेत पाप कहां पाईये मन वच क्रम बाजिंद कहे यूं लागी रे, पकरी जांण अजाण ई फावे आगी रे ॥१५॥ ओक ही नाम अनंत काउ जो लिजिये, जनम जनमके पाप चनौति दीजिये। रंच कंचन गि अग्नि आन धरी अंबहे, कोवी तरी कपास जायै जर बरहे ॥१६॥
॥कालको अंग ॥ अति हि काचो काम लखे नहीं कोय रे, आये बैठे उठ जाय भया सब लोय रे पवन ही तें हल वल्ल रंक कहा रावकी, गुडी उडी असमान शक्तिया वावकी ॥१७॥ कीये बोहोत उपाय करूं जो जी जीये, माया के रस धाय रैण दिन पीजिये परतखी देखउ आप ओरउ कहत हे, काचे वासण वीर नीर कहां रहत हे ॥१८॥ मुख उतरके दांत गओ है लोई रे, सिरउ उपर केस रहे कहुं कोई रे लाठी काठी पकरी धरण पग मांडही, या तनकी नर आस अजूं नहीं छोडही ॥१९॥
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आव बंधी बाजिंद ओक ही भालसै, लोही हाड अर मांस लपेटे खालसैं चूपरे तेल फूलेलके आ देह चांमकी, मरदे गरद होई जोई दुहाई रामकी ॥२०॥ खीर खांड अर घीव जीवको देत हे, पान फूलकी वास रेण दिन लेत हे उर लावे जु कुंज सुणै उन रोज रे, गेंवर गयें गडंत चरन नहीं खोज रे ॥२१॥ कहां ते विक्रम भोज तपंतै तेज रे, कहां चमर ढलंते शिष सुखासन सेज रे विनउ मिंदर माल कैरोडी लखवे, लेटे जाई मसांण विठाओ खकवे ॥२२॥ जुं रा जीवके ख्याल रहे क्युं जगमें, बाजिंद वटाउ लोग पनही पगमें राजा राणा राय छत्रपति लोई रे, जोगी जंगम सेष देख दिन दोई रे ॥२३।। परगट बोलै कुछ न करही सरंम रे, माल मुलक बाजिंद कोन की हरम रे मरण मांई नहीं फेर जीवणकी बात हे, हाथी घोरे उंट कूटहे जात हे ॥२४॥ परे कालको जाल जीव कुण कामको, तजिके माया मोह रटै क्युं न रामको मोटा मुदगर हाथ साथ जमदूत हे, तात मात भयाबंध कोणको सूत हे ।।२५।। स्वारथ अपने काज मिले दिन दोई रे, और निवहे वीर आण मन कोई रे पंखी लागे वाट सूक गओ नीर रे, धूल उडे बाजिंद तालकी तीर रे ॥२६॥ सायर सूके जबही कंवल कुमलाईगे, हंस वटाउ वीर सो तो उडी जाईगे साहिब अपणो समरी विलंब क्यों कीजिये, निहचै मरिवो मित्र कोटि जौ जी जीये ॥२७॥ में जु कह्यो बाजिंद वेर दश वीसरे करहै खंड विखंड हाथ पग शिष रे जरा बुरी बलाई न छोडे जीवको, रू टमूरि मत जाई पकर रहे पीवको ॥२८॥ काल फिरत हे माल रेंन दिन लोई रे, हणे रंक अर राव गणे नहीं कोई रे अहै दुनिया बाजिंद बाटकी डूब हे, पांणी पहेलो पालि बंधै तो खूब हे ॥२९॥ सूआ राम संभाल कछै ठा ताकमें, दिवस च्यारका रंग मिलेगा खाकमें सांई वेग संभालिकै जमसुं राडि है, जमके हाथ गिलोल पडघा पाडि है ॥३०॥
॥ उपदेशको अंग ॥ दे कछु दाहिणे हाथ नाथ के नाम रे, विलै न जैहै वीर रहैगो ठांम रे सफल सोई बाजिंद समरीयै पीवकों, आडे वांकी बेर आयहै जीवकों ॥३१॥ खैर सरीखी खूबन दूजी वस्त हे, मेले वासण मांही कहा मकेसूज हे । तू जाणे नहीं जाय रहेगी ठाम रे, माया दे बाजिद धणीके नाम रे ॥३२॥
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अनुसन्धान-७५(२)
सकल साज घरमांहि जडि जीव यूं बूझ ही, घोर अंधेरी रेन नेन नही सूझ हीं ला. लीजै कहां ढूंढे फिर आव ही, कर दीनो दोय तबे कछू पाव हीं ॥३३॥ परमेसरके जीव प्रीतसूं पूज रे, अतीत अभ्यागत देख न आणी दूज रे गरदमां जहै मरद फेर नही चूस रे, अपनी शक्ति समान मेल कळु मुष रे ॥३४॥ देह दाहिणे हाथ लहै सोई लख रे, तूं जाणे जीन दूर धर्यो हे कख रे सांई अपनो जानि सबनको सींचीयै, माया मुक्ती राखी हाथ क्यों भीचिये ॥३५॥ पोंन हूं न लागे ताहि तहां लेगो वई, रीते हाथ जु जात जगत सब जोवई आ माया बाजिंद चलत कहां साथ रे, वहै तै पांणी वीर पखालौ हाथ रे ॥३६॥ बार्जिद कहे पुकार शिषय सून रे, आडा वां की बेर आय हे पुन्य रे अपनो पेट अग्यांन वडो क्यों कीजिये, सामां हीते कोर ओरकों दीजिये ॥३७॥ धन तो सोहि जाण धणीके अर्थ हे, बाकी माया वीर कहैको गरथ है । ज्युं विलगी त्युं तोरी नेन भरही जोण रे, चढे पाहणकी नांव पार गये कोंण रे ॥३८|| जब होहिं कछु गांठि खोलीके दीजिये, सांई सबमें आप नहीं क्यों कीजिये जा को ता को सूपि क्युं न सुख सोईये, अंत लुणै बाजिंद खेत ज्युं बोईये ।।३९।। अरथ लगावहो राम दाम तूम अपने, विछर मिलण न होय भया सून सुपनै माया चलती वेर कहो कुंण पक्करी, खोखी हांडी हाथ भारो ओक लक्करी ॥४०॥ माया मुक्ती राखी संग्रहै कोणकों, बाजिंद मूठी ओक धूल लगी है पौंनकों गहेरे गाडे दाम काम किहीं आवही, लोग वटाउ वीर खोदकै खावही ॥४१॥ धरम करत बाजिंद वेर क्यों कीजिये, दुनिया वदलै दिन वेगि उठी लीजिये भरी भरी डारो बाथ नाथ के नांव रे, जड काट्यां फल होय कहत सब गांव रे ॥४२॥ गहेरी राखी गोई कहै कही कांमको, ओ माया बाजिंद समरवो रांमको काया नगरया मेल पुकारै दास रे, फूल धूलमें ही धरै निकटै वास रे ॥४३॥ बैठा करो पुन्य दांन बेर क्यों वणत है, दिवस घडी पल जांम सूजों रा गणत है तो मुख पर दे थाप सुजस सब लूट है, जल जालमें परि वीर जीवनही छूट है॥४४॥ जब मूओ ते गओ जेउं ते जायगे, धन संचित दिन रेण कहो कयुं खायगे यों तन हेम ही मांन दुहाई रांमकी, दे ले खरचो खाई धरी कहीं कांमकी ॥४५॥
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कृपणको अंग
मांगण आवत देख रहे महि गोई रे, जदपि हे बहु दांम कांम कहै लोई रे भूखां भोजन देय न नंगा कपडा, विण बोया बाजिंद लुणे क्या बप्पडा ||४६|| भले बुरे कों कोय न दमडी देत है, माया वस बाजिंद कृपण को होत है पाहन को सो हीयो कीयो बउ जंन रे, गुणीजन गावो को न रीझे भल्ल रे ॥४७॥ सुपन आपने हाथ न कोई ज चवै, जो पगे घूघरा बांधी विधाता नचवै हाड गुड दकै मांजुन निकसै लोय रे, दान पून्य बाजिंद करै को कोय रे ॥४८॥ कहां लूं खोदे कोय निपट ही दूर है, आ मांणस कैं काम सुतो नही मूर है बैठेही यै हार करै जण आस रे, कृपण माया धरै जाय जल पास रे ॥४९॥ इत उत चलै न चित्त नित्य ढिग रहेत हे, दान पुन्यकी बात मुख नहीं कहत है छाती तरह धंन देखउ सुपनै, मानउ ईंडा पंखही सेवही अपनै ॥५०॥ चूको भारी घात दुहाई रामकी, तलै न जाती वीर दियैही हाथकी
पांहणको सौही यो कीयो अन्य लोय रे, विन बोये बाजिंद लुणै कहौ रोय रे ॥५१॥ मन राखत दिन रेंन मुलक अर मालमें, तो पिण पर्यो बाजिंद काल के गाल में फिर फिर गाढे गहै देख तन सुरंग रे, खालउ लेहै खोस न जैहे संग रे ॥५२॥ चोकी पहेरा देत दिवस अर रात है, जल अंजलि को वीर वेर नहीं जात है हांडी मारके हाथ नही से छूटही, चोर लिये चमकाय कै राजा लूटही ॥५३॥ निशि वासर बाजिंद संचै धन वावरे, सांज परी जब वीर कहां तब तोवरे कीरी कीयै कलेस ब्रथा ही लोय रे, तितर तील चूग गये कहत सब कोय रे ॥५४॥ अहो न विचमांरो रात वात तूम अपने, कृपणको धन माल न देखो सूपनै यूं कठोरकी वसत सुखें को लेत है, बिन मार्ये बाजिंद तरण फल देत है ॥५५॥ जूठी तुही कही सत्त सुण लोय रे, मन गाढो कर रह्यो न मांगे कोय रे करपण अपने हाथ न कोउ देयगे, मिन माथै है सर्प मार कोउ लेयगे ॥५६॥ ईनको योही अर्थ जु कोउ जांणही, दुसरी बातको वीर हिरदे क्यों आंणही मधमाखीयै संच्यो दिन हसि खेलकै, लोक वटाउ लेह धूर मुख मैलके ॥५७॥
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अनुसन्धान-७५(२)
॥अथ चांणकको अंग ॥ कहा करही उपदेश अग्यांनी जीवको, भयो जनमकी झोल भजै नहीं पीवको मुष्ट भली बाजिंद दुहाई रांमकी, अंधेको आरसी दई कीही कांमकी ॥५८॥ कहा जुग जुगकी जूठत हांसू उ देत है, मनसूं आवत रांम विषै सुण हेत है नख शिख कारे जैन नेणउ जोय रे, काग ही कहा पुकार चुगावै कोय रे ॥५९।। या है मेरी शीख मांने क्यों न कीजिये, राम नाम के मोज व्रथा कहां दीजिये अमृत फल बाजिंद चैनही मूढकों, कूकर कूर सभाव कहै गहै हाडकों ॥६०॥ परो मोधत पई सांजु तो ही या जनकों, देखो सोच विचार रहीको मनको बाजिंद निरमल वस्तू वृथा कहां खोईये, कौवा होय न श्वेत दूध सुं धोईये ॥६॥ कहा सुणावत साध कथा उं रामकी, नाथ गहै को साथ चाह धंन धामकी सूध न होये वीर सही रत अंग रे, कूकर को पखारे [...] गंग रे ॥६२॥ जो कोई सुरता होय ताही कछु बोलीयै, गाहग विना बाजिंद वसत क्यों खोलीये जाणै सकल जिहांन प्रकृति हे मूढकी, गृध न जाणै वास भणवा फूलकी ॥६३।। काहे को बाजिंद कहुं शीख दीजिये, काज सरै नहीं कोय कलेश क्यों कीजिये कान आंगरी मेल पुकारे दास रे, दूर न होये मूर विषैकी वास रे ॥६॥ पाहण कोरा रह्या वरसतै मेह रे, घाल धरी बाजिंद दुष्टता देह रे उसे अचकै आई मूढ गहै रोवई, सरप है दूध पीवाई वृथा नहीं खोवइ ॥६५।। अब क्युं आवै हाथ बहो है मूलको, पुत्र कलत्र धन धाम ध्यान हे धूलको कोट कहो कोई कोंन एक नहीं बूझही, धू धू अंधे धौं सरे न को सूझही ॥६६॥ पाहण पर गई रेख रेंन दिन धोईयै, छाला परवा हाथ मँड गहै रोईये जा को जिसो सभाव जायगे जीव सुं, निंबळ मीठो होय [नहि] सींचो गुड घीव सुं॥६७॥ ताकि ताकि वाहै तीर भया ते जनकों, वृथा गवावै बांण लग्यो को मनको फूटो वासण जैन नेंन नही जोवही, टका टांक को नीर वृथानूं खोवही ॥६८।।
॥ विसवासको अंग ॥ हिरदै न राखो वीर कलपना कोय रे, राई घटै न वधै रच्यो सो होय रे सपत द्वीप नव खंड जो धावहीं, लिख्यो किसमतकी कोर यो हि पुनि पावहीं ॥६९॥ जो कछू लिख्या लिलाट सो ही पर पावही, काहे को बाजिंद अंत कउ जावही कूप मांझ भर लेउ समंदकी तीर रे, ठांम प्रमाणे सही आय है नीर रे ॥७०।।
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सप्टेम्बर - २०१८ विनही मांगै वीर सबनको देत है, तूं काहेको वीर उनीसों कहत है देह वचन बाजिंद बूरो हे लोय रे, आ मांणस क्रोध भरहै तनही तोय रे ॥७१॥ जो जीय है कछु ग्यांन पकर रहें मनको, निपट हलको होई जा चित्त जिण जनकों प्रीति सहित बाजिंद रांम जो बोलि है, रोटी लीयां हाथ नाथ संग डोली है ॥७२।। रजक न राखै राम सबनको पूरहै, तू काहेको बाजिंद वृथा कहं जूर है जनम सफल कर लेह गोविंदही गायक, जा को ता को पास रहैगो आयकै ॥७३।। हाथ न छै तब पाय चल्या कहां जात है, रजक आपणै वीर रेंन दिन खात है रोटीको बाजिंद कहां तूं रोवही, अजगरको दीयै नेन न कोउ जोवही ॥७४॥ खोली खजिनो देह अपनो लोय रे, बूरे भले बाजिंद गिणै नहीं कोय रे साहिबके सब समान हंस कहा बगके, लागी ओकही चाव जीव सब जगके ॥७५।। काम कलपना वीर हिरदा तें धोईओ, गहिकै पांच पचीस सुख कर सोई जल थळ महिके जीव स्याह कहा श्वेत हे, चांच समाने चूग सबनको देत हे ॥७६।।
॥ साधको अंग ॥ ओक रांमको नाम लीजिये नित्त रे, दूजे जन बाजिंद चढे नहीं चित्त रे बैठे धोवा हाथ आपने जीवकों, दास आय तजी आंन भजै क्यों न पीवकों ।।७७।। कहा वरनूं बाजिंद वडाई जिनकी, काम कलपना दूर गई हे मनकी अष्ट सिद्धि नव निधि फिरत है साथ रे, दूनिया रंग पतंग गहै को हाथ रे ॥७८|| जगके जे ते जीव सो निजर न आवही, विना आपनै ईश शिशको नांवई सा धरहे शिर टेक प्रभूके पैरसूं, दास पास दीवान बंधे कयुं ओरसूं ॥७९॥ अविनाशीकी ओट रहैत रेंन दिनमें, विना प्रभूके पाय जाय नहीं ईक खिनमें जगके जे ते जीव जरत है धूपमें, दीपक ले दोउ हाथ परत है कूपमें ।।८०॥ साध सो साहिब पास उ नितें दूर है, हंस बगां ते वीर मिलै नहीं मर रै जीव अपनो बाजिंद गोद ले मेलिये, सोवत सिंघ जगाय ससा ज्युं खेलीये ॥८१।। पूंन्य कोद कों जाय पाप तें भग्गहै, कउआ कुं मति नसाय नाथ तें लग्ग है कहां वरनूं बाजिंद वडे अण वंसके, मान सरोवर तीर चुगत हे हंसके ॥८२।। भगत जुगतमें वीर जाणीयै हैन रे, सास सरद मुख जरद निरमल नेन रे दूरमति गई अब दूर निकट नहीं आवही, सा घर हे मुख मोंडके गोविंद गावही ॥८३॥
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अनुसन्धान-७५(२)
कुंजर कीरि आदि सबनसूं हेत है, हिरदै उपज्यो ग्यांन दुःख क्युं देत है मुख होत मीठ अने सो बोलहीं, अन साधनके साथ नाथ ज्यों डोलहीं ॥८४॥ राजा राणा राव रहैत है लोय रे, नाम ले यारी साध गम नहीं कोय रे तहां न वसे बाजिंद दुहाई रांमकी, वींद विना जुवरात कहो किण कामकी ॥८५॥ सारी खेसुं साथ हाथ हाथ कहां औरतूं, बाजिंद भूख कयुं जाय चूनकी कोरसूं साधन कै भूख आय जु अंन्न सिंचई, दिन है रहै दिखाय दुनिसुं भिंचई ॥८६।। साधां सेती वेर लगे तो लाईये, जो घर रहो वैडूर अंधेरे हि आईये। जे जिन मूरख जांण जीवतो नां डरै, सब कारय सिध होय कृपा जो वै करे ।।८७।।
॥ पतिव्रताको अंग ॥ छांडि अपणो पीव जीव दियै औरकों, प्रापति हे पुनि जाय बुरी ही ठोरकों बेगाना बाजिंद पगन सुं पेलियै, हार जीत दोउ खूब खसम सौं खेलिये ॥८८॥ आवेंगे किहां काम पराई पोरके, मोती जरबर जाव न लीजै औरके पर पाईये बाजिंद चूवै किन नाथको, पांनाडीको चीर नाथके हाथको ॥८९|| कररां हाथ कमांण साधही तीर रे, दास रहै दरबार रैन दिन वीर रे जीवणहारो कोय भया अंत भालकी, मंद सोही तूं जाण गरद है गैलकी ॥९०॥ जूठ पगन सूंठेल सांच कर गहत है, दास पीयके पास रैंन दिन रहत है बंधे और ही ठौर कहावे रांमके, सती विना जुं सूड कहो किन कांमके ॥९१।। गहेवौ छांडो नाथ हाथ अह लोय रे, विना पीव जो जीव सरै नहीं कोय रे चरन कंवलके ध्यान रेंन दिन धरंगे, और फौर बाजिंद कहो क्यों करंगे ॥९२।। ते पाछी बाजिंद जगतमें और है, जे न निबाहो नेह बंधे बहो ठोर है कंवल कहो कहां जाय नीरको छांडिकै, जीवण मरण जूं साथ रहो पग मांडिकै॥९३।। भूखे भोजन देह उघारे कप्पडा, खाय खसमके लोण जाये कहां बप्पडा भली बूरी बाजिंद सबही सहेंगे, दरगाहको जे गुलाम गरद होय रहेंगे ॥९॥ दूर न जाये मूर रहै पग झाडिकै, तन तें हारको होय धणीकुं छांडिकै काल वजावहै गाल आपणे दाससुं, हाथ विकावै नाथ जाय कयुं पाससुं ॥९५।। पीव अपने कीयो जास्यु गाढी पक्करी, गरबै नतो गुमांन लगै कन लक्करी नाथ हाथकी मार मांहि माहि खायगे, खानांजाद गुलांम कहो कहां जायगे ॥९६।।
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हरिठा उरतूं प्रीति रति जोरहीं, बुरी परी जो पीठ दीठकों झोरही जनम जनमके दास जाय कहां भाग रे, अति अग्निको ज्यों सिरावै आग रे ॥९७॥ अकै तो तब ओक न दूजा जांणही, कररी पकर कमांन तीरकू ताणही जो जीव जाय तो जाय डरै नहीं नाथसं, भंवर बंध्यो बाजिंद फूलकी बाससू॥९८॥ घनि घनि कनिक है सकै क्यों बोलकै, जांणे सकल जिहांन लिये है मोलकै जद्यपिजीन बाजिंद खसम बहो गोदही, तदपि पीवके पांव जीवनही छोडहीं ॥१९॥
और ठोर क्यों जाय सनेही रांमके, देख्या फटक पिठोर जगत कहां कांमके। जिती कदे ई दीठा न सीस परि ओढही, पीव अपणके पांव जीव क्यों छोडही ॥१००॥ दर गहै वडी दीवांण आईयै छेह जी, जे सिर करवत देई तो कीजै नेह जी दर तें दूर न होय दरका हैरके, जांन राई जगदीश नवाजै कैरके ॥१०१॥
॥ इति बाजिंद शतक ॥ लि. शामळानंद ॥ वटपत्र पत्तने ॥
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केशवदास कृत
- राजुल बारहमासा
नेम -
अनुसन्धान- ७५ (२)
सं. - निरंजन राज्यगुरु
जैन गुर्जर कविओ - संवर्धित आवृत्ति भाग ५, पृ. २१ उपर खरतरगच्छनी जिनभद्र शाखाना लावण्यरत्नशिष्य केशवदास उर्फे कुशलसागरनी 'केशव बावनी / मातृका बावनी', 'शीतकारके सवैया' अने 'वीरभाण उदयभाण रास' नोंधायेला छे. अहीं अपायेल कृति शक्यतः अप्रकाशित होवा सम्भव छे. जे वि.सं. १७३४मां श्रावण शुक्ल नवमीना दिवसे रचायेली छे. लावण्यविजयसूरि ज्ञानमन्दिर बोटादमां सचवायेली हस्तप्रतनी पू. आचार्य श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी म.सा. तरफथी सांपडेली झेरोक्स नकलमांथी आ सम्पादन कर्तुं छे.
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घन घोर घटा उमटी विकटा भ्रुगुटा द्रग देखत ही सूख पायो, विजुरी चमकंत सूकंत शही फूंनि भू रमणी उर हार बनायो; भर मोर झिंगोर करे वनमें घनमें रति चोर को ते जश वायो, सुख मास भयो भर यौवन श्रावण राजुल के मन नेम सुहायो १
सरसागर नीर निवाण भरे सुधरी धर धीरत कीरतीयां,
भर डंबर हि सुख अंबर गाजत लाजत सागर की छतियां; ईह भाद्र मास लगे सुख प्यास सदा पिउं ध्यान धरे सतीयां, हम आस निराश करो मत यादव राजुल नारि कहे बतीयां. आसु में आस फरे सबहि जब नेंमहि जाल मिले रंगणारे, ज्युं सीप चाहत हे जल बुंदकुं नेमकी चाह करे सुं पियारे; पुनिम चंद झरे नित अमृत राजुल नारी लगे सब खारे, चंदकुं देख हसे ईक पोयण नेम सुं चंद सबे सुख कारे. कातिग मास फरी धन रास के आस निवास को वास कर्यो हे, हार शृंगार बनाय मनाय सुं कामिन कंत सौ प्रेम गह्यो हे;
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आई दीवारी कहे नर नारीके राजुर प्यारीको अंग दह्यो है, केशवबंधव हेत करो कछु राजसुता घन दुःख सह्यो हे.
मास मगसर वास धरे सुधरे तनुं तेज सनेज सवायो, उपत चिर अनंग समी प्रभ दिप तरंग सही सुख पायो; लाल प्रवाल जड्यो अंग राजुल प्रीतको संगत कुं चित लायो, सितको मास भयो प्रगट्यो अब नेम विना कछु दाय न आयो. ५
प्रगट्यो पोष मास भई ईकलाश जगी मन आस सदे जनकी, अती लाल कथी पजरी सबसे जस हे जय ल्यंगदनी गुनकी; सुख तेल फुलेलकी खोल रचै विरचे सब पीर सही तनकी, ईह भोगीय मास भयो नेम झुरण राजुल वात कही मनकी.
माह सौं मोह जग्यो सुं जग्यो हम नेम सुं प्रेम लग्यो मन मांहे, पीरत काम घटा विरहाजुर राजुर नेम देवे दुख काहें; राजसुता करजोर कहे आली वेदन मेंणकी में न सहाहे, नेम उलास मिले ईस मास जौ आस फरे मेरी अंग उबाहे.
फागण राग रमे नरनागर जागर कीड सबे मन भावे, लाल गुलाल अबिर उडारत चंग मृदंग सुरंग जवावे; ताल कंसाल रसाल सदा डफ बाजत, पूष्प विरेप मलावे, होरी खेलत हे सब यादव राजुल नारी कछु न सुहावे.
मास वसंत भयो प्रगट्यो अब फुल सफुल करी वनराई, सार गुंजार करे वन भुंग धरी मन रंग सतेज सवायी; अंग सुरंग बनाय विभुषण कामीण प्रीतम के चित आयी, तको चेत करो यदु साहीब राजुल प्रीत करो चित लाई.
मास वैशाख भई बड शाख लगे अंब मोर बन्यो भर जोबन, कोकील शोर करे सुघरी मकरी गिर देख मोहे सब को जन; खेलत लोक सबेहिं हसी पीया कोक पढें रत अंगको सोवन, लाज न आवत हे यदुनंदन जांनहुं नेम भयो है विगोवन.
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अनुसन्धान-७५(२)
राजर नारी करे जेठ बीनत मीनत सो तम नेम मनावो. वेगुन ही मोकुं छोर गयो उस दोसर को मिस मोहिं बतावो; नेम निठोर कीउ चीत चोर करी घन सोर सबे फफडावो, राजुर प्रेम सुनावत नेमकुं हार शृंगार सवै गुण गावो. आस फरी ईस मास आसाढ गई सब राढ भयो सुखपूरण, सारंगनेंणी सूणी सुख चाहत नाह मनावहे हो दूखचूरण; भू रमणी सस तेहन कै वश आई करे घन संगमउरण, ज्योतिसरुपी सदा शिव मंदिर राजुर नेम लह्यो सुखपूरण. १२
कलश गुरु के सुपसाउ लही सुभ भावउ बनाय कह्यो ईह बारह मासा, उग्रसेन सुता नमि जो गुण गावत वंछित सी कतही सब आसा; सुध मास सराउण नौस निवासर सौंत सतर चोतीस उल्हासा, सुख लावन्यरत्न सदा सुप्रसादहीं केशवदास कुं लील विलासा. १३
ईति नेम राजुल बार मासा संपूर्ण
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चतुरसागर - कृत
मदनकुमार रास
सं. - किरीटकुमार के. शाह
शीलव्रतनुं माहात्म्य दर्शावती 'मदनकुमार रास' नामे आ रचना मुनि चतुरसागरजीए सं. १७७२मां बनावेली छे. पोतानी गुरुपरम्परा वर्णवतां तेमणे अन्तिम कलशनी ढाळमां जणाव्युं छे के प्रभुवीरनी पंचावनमी पाटे थयेला श्रीलक्ष्मीसागरसूरिना शिष्य श्रीविद्यासागर, तेमना वा. धर्मसागर, तेमना पद्मसागर, तेमना कुशलसागर, तेमना उत्तमसागरना शिष्य चतुरसागरजीए आ रास रच्यो छे.
२१ ढाळमां पथरायेलो आ रास कथानायक मदनकुमारनी शीलदृढतानुं वर्णन करे छे. ३६० कडी प्रमाण रास छे. तेनी एक प्रति सं. १७८० मां रवनगरे चतुरसागरना शिष्य लालसागर शिष्य विशेषसागरे लखी छे, तेना परथी लिप्यन्तर करीने अत्रे प्रस्तुत कल छे. प्रति अशुद्ध छे, अथवा तो ते समयनी बोलचालनी भाषामां लखाई जणाय छे. प्रतिनी जेरोक्स नकल आपवा माटे आ. श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर - कोबानो आभारी छु.
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आ रास सं. १७७२मां पाटणवर देशे सीओरी गामे कर्ताए रच्यो छे. 'उपदेशकोश' नामक पुरातन ग्रन्थना आधारे आ रास रचायो छे.
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नामें नवनिधि संपजें, मरुदेवी मात मल्हार, प्रणमूं तेह भावें सदा, तुं वल्लभ जूग आधार... गौतम आदें गणधर वली, भेटीस बे कर जोडि, मुख्य पटोधर वीरनो, भ्रात ईग्यार तणि छे जोडि. गजगामिनी हंसवाहनि, सारद थई प्रसन्न, वचन रस आपई मातजी, सांभलतां मन होई प्रसन्न. उत्तमसागर गुरु सोभता, गुण गीरुआ गुरुराज, पदयूगल तेहना सेवथी, पामीजई ज्ञाननो राज. ओ च्यारे मूझ उपरें, महिर थई महाराज, ज्ञानवेल विस्तारयो, प्रमाण चढइं मुझ काज.
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अनुसन्धान-७५(२)
कास्यप-सुत-उदइं सदा, ओ च्यारे प्रणमीजिइं नित्यमेव, कहिस्युं रास अति सूंदरुं, शील अधिकार सूविशेस. ६ शीलें सूख संपति मलें, शीलें पामें राज, शील सेवो तुम्हे भविजनो, सारो वंछित काज. ७ शील थकी जे सूख लह्यो, मदनकुमर जयसूंदरी नार, तेहनो जस जग विसार्यो, कीरति वाध्यो अपार. ८ मदनकुमार मित्र अति भलो, देवदत्त कायथ विख्यात, प्रीत तो अहनि ओह खरी, वाधे माम अख्यात.
ढाल - १ जंबूद्वीप में भरत अति भलो, लाख जोयण अपारो रे, तेह मध्ये भरत अति भलो, पांचसां जोयण विस्तारो रे... १ जंबू० छवीस जोयण छ कला वली, तेहमां छ खंड अति दीपें रे, वि, वैताढ्य आव्यो वली, त्रण त्रण खंड विहछि आपे रे... २ जंबू० छत्रीस सहस्स देसह जाणजो, साढापंचवीस आरिज जाणो रे, वैताढ्य पर जिन बिंब रे नहिं, तिहां सवि म्लेछ पिछाणो रे.. ३ जंबू० वैताढ्यअरा त्रण्य खंड छ, तेह दक्षणार्द्ध भरत विचारो रे, तिहां मध्यखंड जिन जीनमीआ, लेई संयम काज सूधारो रे... ४ जंबू० अपूर देस पूरव दीशि, सिमेतसिखर छि ज(त)में जाणो रे, वीस तिर्थंकर सिवपुर लह्या, ते जिनवांदि छि(चि)तमें आणो रे. ५ जंबू० अनेक देस पूरव देशे तो, पिण मगध वखाणों रे, तिण दिसमें पूरपत्तन्न बहु, राजगृहि दील आणों रे..
६ जंबू० स्वर्गपूरी लंका थकी, तेहथी अति जीपें रे, सहु नगरीमें अति सुंदरुं, चोरासि बाजार अति दीपइं रे... ७ जंबू० तिहां विवहारी उत्तम वसें, पालें निज नित धर्मो रे, को केहनि नंद्या नवि करें, छांडि विकथा मर्मो रे...
८ जंबू० जैन श्रावक यति तिहां ये, उपदेश सूधारस वाणि रे, चतुरसागर कहें सही, पहिलि ढाल अह वखाणि रे... ९ जंबू०
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दुहा
राजग्रही रलीआमणि, अधिपति श्रेणिक नरेस, ख्या(क्षा)यक समकितनो धणि, तिर्थंकर पद लहेस... १ भंभसार सूत अती सुंदरु, नामें अभयकुमार, मंत्रीसर पिण जाणयो, च्यार बुद्धीनो भरतार... बहुली राणि तेहनें, गणतां नावें पार, रति परें ओपें चेलणसू, नीजरस्युं रायनूं मान... दैगंधीक परि सूख भोगवे, मोहन खेलें निसदिस, प्रजा उपरि हित घणो, न करें प्रजानें रीस... ओक दिन सभा बेठा थका, वनपालक आव्यो ताम, वीर जिणंद समोसरा, उद्यान राजग्रही गांम... वनपालक दीधी वधामणी, तेहनें आपें लाख पसाय, चतुरंगि सेना सज करी, वंदन चाल्यो राय... श्रेणिक नृपवर सिंहलो, कहें भेटिस हर्षे आज, कर्णकचोला पावन करूं, तरवा भवोदधी पाज... त्रिगडु रच्यू छै तिहां किण, त्रिण प्रदक्षण देह, पांच अभिगमन साचवी बेसें, निर्विकथा निकता जेह... ८ मधुरि भाषा उपदिशें, बेंठी परषदा बार, धर्म करो तुमे प्राणिया, जिम उघडे मुक्तिना द्वार... ९
ढाल ये उपदेस मधुरी भाषा, बेंठी परषद आगे हो, दुल्लभ मानव अवतार, धर्म करो तुम्हें रागें हो... घे० १ तन धन यौवन अथीर, संसार सूहिणा परि प्रेम हो, आयु डाभ अणि जलबिंदु, चित छेतो नर चढो नमें(?) हो. ये० २ च्यार प्रकारें धर्म प्रकासई, दान शीयल तप भावन हो, तो पिण नववाडि शीयल वखाणु, धर्मे शील प्रधान हो. ये० ३ तव गौतम फीर फीरनें पू0, सांभलवा मन कोडि हो, नववाडि केहनें कहीइं, श्रेणीक सूणी बे कर जोडि हो. ये० ४
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अनुसन्धान-७५(२)
वसती सूध तिहां किण वशइं, स्त्री पसू पंडग पलगा हो, पहिलि वाडि अह कहेंवाणि, पाप तेहथी रहें अलगा हो. ये० ५ बीजी वाडि हवें ते जाणो, स्त्री विकथा परिहरिइं हो, देखी स्वरुप चित नवी चलीइं, जिणवर आणा शिर वहीइं हो. ये० ६ त्रीजीनो हवें अर्थ विचारो, बे जण अक सिज्झा नवि बेंसई हो, ब्रह्मचारि इंद्री नवी जोवे, वाडि चोथी कही असी हो. घे० ७ पांचमी वाडें वासो न करें, निसूणो परिअछि अंतरि हो, छट्ठिनो अधिकार जाणो, पूव्व क्रिडा निषेधोभ्यंतर हो. ये० ८ सातमी न करई सरस आहार, जेहथी दीपइं काम विकार ज हो, आठमीइं अति उंणा रहइंq, लेखें करवो आहार ज हो. ये० ९ नावण धोवण तन सिणगार, वाड कहि नोमि असि विचार हो, योवनवाणि अर्थ प्रकासई, बुझबुझ चित्त विचार हो. ये० १० शीलें उर्यो मदनकुमार, बोल्लई इंम त्रिसलानंदन हो, चतुरसागर कहें बीजी ढालें, शील पालें जे नर वंदन हो. ये० ११
दुहा भंभसार राजा तिहां, पूड़ें बैं कर जोड, मदनकुमर कुण थओ, कहो प्रभु मूझ मन कोड... १ कवण ज्ञाति कवण नर, कवण गाम कुंण देस, शील पाल्यु किण विधई, प्रबंध कहो लवलेस... सिद्धारथ सूत उपदिशें, कृपा करी जगनाथ, छांडि प्रमाद तुम्हे सूणौ, निद्रा विकथा साथ... कासिदेस वाणारसी, नगरी अति अभिराम, कोसिशां मंदिर झिगमिगे, उछो कोटि लही आराम... ४ पवन छत्रीसी तिहां किण, वसई वसे उच निच ज्ञाति, कुलमर्याद नवी चलें, न करे केहनि वाति... ५
ढाल - ३ रंग रमतो राजीओ - ए देशी कासि वणारसी अधिपति, अधिपति अजीतसेन राजान, नरेसर सांभलो, चालें न्याय कदाग्रही, कदाग्रही बुद्धिसार जेहने प्रधान. न०
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लस अw 9
इंणी नगरीमें ईभ्य बहु वसें, वसे सहु ईभ्य में सिकदार, नामें धनदेव सेठजी, सेठजी धनें धणंद अवतार. न० कोडि गमें धन पोते धणि, धणि थल जल वाटना व्यापार, सरल सभावी दातारि घj, घणुं निर्बलने आधार. न० उंचा गृह प्रासाद तोलें, तोलें जाणि देवविमान, वाणोतर दास दासी बहु, बहु मोटो सेठ राय, मान. न० पून्यइं परिघल संपदा भोगवें, भोगवें पून्यई यसोदा नारि, रुपें इंद्राणि विद्याधरि, विद्याधरि शीलें सिता अवतार. न० पतिव्रता नारि घj, घणुं लज्जा दयालू गुणधाम, साधु साधवी स्यूं रागणि, रागणि वोहरावी जिमई ठांम. न० ६ संसारीक सूख विलसतां, विलसतां उदर वस्यो आधान, पुरे मासे जनमीओ, पुत्र आव्यो निधान. न० वाधो ओच्छव अति घणो, घणो कंकुमना हाथा देवराय, गीत ग्यान नाटिक बहु, बहु सांझि वलि देवराय. न० पंच घाव स्यूं वाधे सही, सही नाम धर्यु मदनकुमार, पंच वरसनो जब थयो, थयो भणे निसालिं कुमार. न० नीसाले भण्यो गण्यो, गण्यो यति पासें वलिय आचार, द्वादशव्रत श्रावकनां कह्यां, कह्यां सीख्यो पच्चखाण विचार. न० १० त्रीजी ढाल रलियामणि, रलियामणि कुमर थयो उछरंग, चतुरसागरजी इंम कहें, कहें पून्ये सिवसूख रंग. न० ११
दुहा भणिगणि पोपट थयो, चउद विद्यानो सूजाण; गाहा गूढा गीत गूण, संगीत कलानो जाण... अन्य कुमर वली तीहां, उठिवा लामा जाम, ताम कुमर प्रतें विनवें, ल्यो सूखडी हीत काम... तव कुमर तिहां किण वदें, प्रणमी सिर नमेंह, प्रभु द्यो हितसुखडी, लेस्यूं प्रमाण करेह... तव गुरुजी फीर उचरें, जेह जिणथी हरखाय, ते मुज मुखथी उचरो, यथासकथी(ती) लेवाय... ४
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अनुसन्धान-७५(२)
कुणेक रात्रिभोजन तणुं, कुणे(क) नलोतरीनूं जाण, आठीम चौदसनू व्रत धयूँ, हितवच्छल दिलमें आण...५
ढाल - ४, नयण सलूणां नंदनां रे लो - ए देशी । सहु व्रत लीधा व(प)छि रे लो, गुरुजी कुयर साहमू हसी रे लो; मदन ल्यो हितसुखडी रे लो, जेहथी जाई दुरगति भूखडी रे लो. १ चिंतवे कुयर मनभ्यंतरे रे लो, जेथी जस विस्तरें रे लो, परनारि संगम नवी रे लो, ओहमां दूषण खराखरु रे लो. २ आदरु परणितिका रे लो, वात वलू अन्य नवी भेटवी रे लो; लघू भगनी, वृध मावडी रे लो, बुद्धि लाव्यो मन आवडी रे लो. ३ सहु निसालिया गया पछि रे, गुरुजी आगलि वदे ईस्यु रे लो; परदारानूं व्रत उचरावीस्यो रे लो, लघु वेशे किम पालस्यो रे. ४ परदारा पच्चखाण लही रे लो, चाल्यो कुयर घर वही रे लो; बालक सूं रमतो फिरें रे लो, नित्ये गोठिया तें करें रे लो. ५ मेवा द्राख मिश्रानिका रे लो, दुहे गाहे रिझावतां रे लो; सह वस कीधो सहिरमा रे लो, देखी कुयर आणंद में रे लो. ६ प्रस्तावें कुयर गृह आवतां रे लो, मित्रनें सीख देतो गृह मेलतां रे लो; पहिर्यो सूंदर वाघो बन्यो रे लो, रुप ते जाणे इंद्रनो रे लो. ७ सोनाना सिरपेछ , रे लो, या(वा)लम योवन वेस छे रे लो; काने मोती कोटि हार छे रे लो, हाथमां छडी जडाव छे रे लो. ८ छ्या (चूआ) तेल परिमलें रे लो, मधुरी वाणि नवि बोलें अलि रे लो; मूख जाणाई जिस्यो चंद्रमा रे लो, मलपतो आवे गृह जिमवा रे लो. ९ इंण अवसर मंत्रीसूता रे लो, गोखि उभी सहेर जोवतां रे लो; आवतां मदनने हेरीयो रे लो, जिम मृगपति मृगनें घेरीओ रे लो. १० कुंयर तव गोखि तले रे लो, उद्धती कुंअरि तिण सलें रे लो; चोथी ढालें खूसालमां रे लो, चतूरसागर कहस्यें वात रंगमां रे लो. १०
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खूखारो कुमरी करें, गोखि तले आव्यो जाम, ओछे वदन आवलोकतां, जयसुंदरी दिठी ताम...
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के इंद्राणि कें अपशिरा, कें विद्याधरणि कहेवाय, कें अ नागिकुमारिका, हारी लंकी उभी आय... च्यारे निजर भेली थी, बें जण माहोमाहिं, ओक ओकनें छि( चित वस्यों, मीन स्युं पाणि माहिं... ३ कुमरी कुमर प्रतें विनवें, अंगज केहनो कहिवाय, कुमर तिहां कि आंखीओ, धनदेव यसोदा मूझ माय... ४ वात करी च्यालो जिसे, कुमरी ब (क) हें सूण संति, यामनी याम गया पाछी, आवज्यो बेंसस्यूं गोठि एकांत ...
ढाल ५, वीण बाजें रे - ए देशी ।
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वीचड्यो कुंयर तिहां थकी रे, कुंयर स्यूं कुंयरी लग्ग, रुपमोही रे. पाणि स्यूं सबरस मिले रे, लूणि पाणि विलग्ग... १ रुपमोही रे. चिंतें कुयरी चीत स्यूं रे, प्रहर वतावी जाम... रुप०
किम चढस्यें इणि मालिनं रे, निछरी आवें तांम... रुप०
रुप०
बुद्धि उपनि रुयडी रे, कहें सखीने ताम... रुप० सूत्र नीसरणी ल्यावीइं रे, एकांति जइने तेम... रुप० तेल फूलेल फूलडां रे, छ(चु) आ वलि चंपेल... रुप० पान बीडा मिश्रानिका रे, खेलूं कुमर स्यूं खेल... रुप० ल्यावी एकांते जइ रे, मेलि कुमरी पासे... सोलें श्रृंगार पहिरीयो रे, तिलक कस्तूरि सुवास ... रुप० सिय्या पथरीवी तिहां रे, फूल तणा महकार... रुप० मृगली जोवइं वाटडी रे, आवें मदनकुमार... रुप० मित्र स्युं रमवा गयो रे, खेलें वाडि मझार... रुप० प्रहर रात्रि वागि जिस्ये रे, चिंतई चित विचार. रुप० कुअर उठ्यो तिहां किणें रे, सिख देई मित्रनें जेह... रुप० योवन मयगल मलपतो रे, चाल्यो जाणे एकांति... रुप० एकांते जई ऊभो रह्यो रे, सान करी वली तेथ... रुप० डो(दो) र निसरणि मिली तिहां रे, पाव धरो प्रभु अथ... रुप०
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अनुसन्धान-७५ ( २ )
मंदिरमें आव्यो जिस रे, उभो ओकण थान... रुप बेंसो अणिई पलिंगडे रे, करस्यूं बे जण तांन... रुप० पून्यें करो तुम्हे सज्जनां रे, पून्यें रुडी नारि... चतुरसागर कहें सदा रे, पांचमी ढाल छें सार... रुप०
रुप
-
१०
दू
कुयर बेंठो सेझई जई, जयसुंदरी उभी हजुर,
पान बीडी मिश्रान्तिका, वलि मिंठा मोदक सूरि ... तेल चंपेल लगावती, कंठ धरे कुसुमनो हार, लविंग सोपारी आपती, बोलावें मदनकुमार... बोलावी मधुरी लवें, योवनमद भरपूर, जिण दिठें छ(च)लें [...], कुमरी चढतें नूरि... वदनें हसति बोलति, छिं (चि) ते काम वीकार, आलस मोडें अधर जडस्यें, जणवें नेत्र विकार... तनु संकासें छि( चि)त उल्लसें, देखी भ्रमर सूजाण, करणि मन गयंद परि वाधें, कमल स्युं मधुकर जाण... ५ ६, गोयम नाणी हो कहे सुण प्राणि म्हारा लाल कुंयरी जंपे हो विसवावीस ज म्हारा लाल,
ढाळ
चो (छो) गाला साहब हो, तुं छैइ सज, म्हारा लाल, तो परि वारी हो, जाउ वली हुं छु दासी, म्हारा लाल, साछी (ची) जाणो हो, रुखें जाणो हासी, म्हारा लाल... १ पून्य पसा (इं) हो, सरखी जोडि. म०, बोलें कुमरि हो, थोडी थोडी म० पाय पखालु हो, जाउं बलीहारि. म०, दासि तुमारि हो, भवभव तारी म० २ अंग संकोसी (ची) हो, आगल बेंठी, म. आलस मोडि हो, वातें पेंठी म. हावभाव करति हो, निजर नीहालें, म. संगे रमस्यें हो, प्रेम ज पालें. म० ३ नारि रिझी हो, स्यूं नवी आपें, म. परनर अगलि हो, काया थपें म. नारि खीजी हो, केहनें कामें नावें, म. बोलावी हुंति हो, फिर नवी बतलावें. म० ४ जेह स्यूं राजी हो, करें घणुं मनोहारि, म. मनस्यूं भडकी हो, करें खुआरी म० ओ जाति अनेरी हो, दीसे अटारि, म. मूहनी मीठी हो, कपट पटारि म० ५
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ए देशी ।
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जेह स्यूं राति हो, दिनराति ध्याति, म. विचिं कोई अन्य बोलावें हो, तेह सूंठाति म० विषय आठ गूणो हो, नरथी जाणो म० चोगलि लज्जा हो, ते चित आणो म०६ सांन बतावे हो, मूख नवी कहती, म० काम विलासी हो, मन गहगहती, म० नाम धरावे हो, ओ तो अबला, म० काम ज करती हो, ते ते सबला म० ७ ओ धात अनेरी हो, केहनें कामें नावें, म० मन मान्या विटल हो, तेह स्यूं खावें, म० नारि पार ज हो, नवि पामो, म० हरीहर ब्रह्मा हो, ते सिर नाम्या. म० ८ कुंअर कुंयरी हो, वात ज करतां, म० दुहे गाहे हो, बे जण रीझवता, म० अंतरजामी हो, के प्रभु तुठा, म० साहिब मिलतां हो, दुधे वुठा. म० ९ कटीलंकालि हो, भमर निहालें, म० हसति रमति हो, दे तालोटि, म० संगमथी अलगो हो, वाते वलगो, म० अर्द्ध यामनि हो, घडीआलो वागो, म० १० तुरत ज उठ्यो हो, कुंयर आवें, म० प्रभुनी सेवा हो, ते सुख पावें, म० छठ्ठी ढालें ते हो, कहे जिन दाखी, म० चतुरसागर हो, वात ज साखी. म० ११
दूहा कुमरी कुमरनें वीनवें, वासो करो मूझ गेह, प्रीत ज वाधे अति घणी, जिम बप्पेंया मेह... ईहां रहतां सरें नहिं, दूईवाई मूझ वात, जईस्यूं घर हरष ज भणि, लोक करें मूझ वात... प्रभू सिधावो सिध करो, पूरो मननि खांत, राजि पधारवू ईहां किणे, करवा गोठि अकांति... ३ कुंयर घर भणि चालिओ, सूवा आव्यो मदनकुमार, बीजें दिन वली आवीयो, माननी करें घणी मनूहार... ४ पांच सात दिन आवतां, कुमरी न सर्यो को काज, कें पुरुषमांहि नहिं कें, प्रकासता आवे लाज... ५
___ ढाळ - ७, सूणि भोग पूरंदर - ए देशी। कुमरी चिंते चितें चित्त स्यूं सूणि भोगपुरंदर, किम चढसें काज प्रमाण कें लज्जा आवे अति घणी, सूणि भोग पुरंदर, वेधक नहिंय अजाण... १ के पुरुष माहिं नहिं ओ सही, सू० साहसीक नर ओह, अहनो लेउं पटतरो, सू० सोगठ पासा रमल करेह... २
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हलवी जिभ हवें तिहा, सू. चितें नारि ओम ., दोटि सोगठि मारिवा, सू. वचनें वचन कहेवाय... ३ दिन सातमें वली आविओ, सू. कुमरी सूं जाझो नेह, जयसुंदरी चित्त कुंयर वसो, सूं. कमलणि सुं मधुकर जेह... ४ आ(हा)वभाव करें घj, सू. आवी बेठो सेझ, मृगमद फूंले पूजति, सू. निजर निहालें हेज... आवो प्रभू रमई सोगठे, सू. कुमर रमवा बेंठो, तेह ढींचण गुडा लगावति, सू. पासा दावें रमतां जेह... ६ हसे रमे मरकलडो मेलती, सू. वचन कहती तिहां बालि, दृढ चित्त कुअर तणो, सू. तो पिण नवी वदें पाछो वालि... ७ चंद्रवदनी मोहि घणु, सू. इम षट मासह थाय, पिण कुयर नवी चल्यो, सू. जो डोले मेरु वाय... ईण अवसर वाणारसी अधीपति, सू. अजितसेन महाराय, एक दिन बेंठो मालिई, सू. जइ जोउं चरितह जाय... कुण प्रसंसा करे माहरी, सू. छानो रजनी मझार, पहोर राति गया पछी, सू. ओढि राति पछेडी तिवार... १० चतुरसागर प्रसंसै सदा, सू. ढाल सातमीमां गुण गाय, अहनो गुण ईहा विस्तरसैं, सू. कुयर दिन चढते वानी... ११
दूहा नगरीमांहे रंतां थका, आवें मंत्री मंदिर पास, नर दीठो कोईक आवतां, निठरो उभो खूणे खास... १ आव्यो कुयर सान ज करेंइ, जिहां निसरणि मेली ताम, राजा छानो हेरतां, तुरंत बोलावी ल्ये वाम... राजा चित्तें छि(चित स्यूं, ओ नर कुण कहवाय, आवेला परघर फिरें, चोर के जार कहवाय... णीसरणी लीधी नहीं, माहिलो न जाण्यो भेद, आवतां पण जाण्यो नहीं, रा(रो)उपजस्येइ खेद... ४ पाछलथी राजा चढ्यो, ओलवें जई उभो थंभ, दीप ज्योति झगमगें, राय थओ मन अचंभ...
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ढाल - ८, कुसल देस सिणगार अयोध्या ॐ पूरी रे - ए देशी । गोखिमां राजा एकांति एकांति बेंठो जई रे, थंभनि छाया पाछालि जिहा किण छ रही रे... राय छि(चिं)ते चित्त मझार नगरी में अन्याय करें रे, याम नियाम गया पछि परघरि ते फिरें रे... जोउं हुं लंपटना चरित केहन छै घर सही रे, युं हवें सीखामण सार उगमते रवी वही रे... कुमर जई बेठो एकांति हिंडोला खाटैमें रे, तलाई पथरी सखरी ओसीसां पाटमें रे... राजा छितेई रुदय मझार केइं कोई इंद्र अवतर्यो रे, के अहनि अह ज नारि ऋषे अहनें वर्यो रे... राजा मनमांहिं संदेह वर(खबर) न का पडे रे, जोउं हुं वात विचार आगल खबर किसि रडे रे... पांन बीडी बें च्यार कुमरि आगली धरई रे, कंठ ठवें कुसमनो हार बोलें अनोपम चातुरी रे... राजा आरोगो पकूवान छु प्रब्भू चाकर रावली रे, बोले कोकिल किलरव करति दोली फिरें कुंयर पाछलि रे... ८ ललि ललि बोलें नारि उदारि कहो कहेनें नवि गमे रे, भूख्या भोजन आवि मिल्ये कहो कुण नवी जिमई रे... ९ जिमि रमी आंगणि उछाह सोगठि रमता आयने रे, बे जण बेठा विचार लाल जलिवा बिछायनइं रे... ढाल अनोपम सुंदर आठमी छै ओ कही रे, कहस्य चतुरसागग(र) वात रसाल हवें सही रे...
दहा रुदयें छिते भूपती वडो, कोईक नर धुतार, आव्यो जाणी मूझ प्रते, संगम स्यूं नवी भेटें लगार... १ ईलापति सिं(चिं)तें ईस्युं, चडहो लागो एह, बीजें दिन वली आवीस्यें एकांति खबर करवी तेह... २
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ग(गु)ना विना किम किहिइं, नहीं उत्तम एह आचार, लउं अह पटंतरो, परखु अह कुमार... मध्यराति गया पछि, खेलतां उठ्यो तुरत, राजा मोवडि उतर्यो, तेह स्यूं छानो रहो धुरत... इंम बीजे दिन वली, जोइं चरित अपार धुरतमां सिकदार छ, फाल्यो न जाइं कुमार... ५
ढाल - ९, धरि आवोजी आंबो मोरी ओ - ए देशी । हां जी राजा नित्य प्रतें आवें जोवाजी कुमरनो पार, लोक कोई जाणें नहीं नवी जाणेजी कुमरी कुमार... १
यो(जो)जोजी वात हुइजी का हेरंतां राजाने वली नवी दीठोजी कोई अन्याय षटमास इंणि परि वही गया काढिजी भ्रांत अपाय. यो... २ एकांति रहतां थकां ओ यो(जो)डि भिलि मिली चंग, दंत जाणि कंचन रेखा ओपेंजी अधर प्रवालीनो रंग. यो... ३ पगि झाझिरि सोना तणा वली गूघरीनो झमका(का)र, कंचूक रतने जडो कंठ ठव्यो नवसरो हार. यो... ४ योग्य वस्त्र पहिर्या वलि झीणी ओढणी नवरंग लाल, कटिमेखल खलकें घणुं चालती गज परि चाल. यो... ५ एकांतिजी किम रहें ओ मुझ मनी अचरीज थाय, केंरी देखी दाढ्यौ गलैं खावानें तत्पर थाय. यो... हिया आगलि नारि नवी छले जेहथी मुनि जन न हे ठाम, योगि वयरागि अवधूता तेहनें पिण व्यापें काम. यो... ७ इंद्र चंद्र नागिद्रजी के ते पिण स्त्री दास कहवाय, अंतर नहि कुयर वि, पोयण तनू कोमल काय. यो... ८ भाग्य होइं तो पामीइं जेहनें अहवी घरि नार, सिहलंकी पंकजमूखी इंद्राणि जिसि अवतार. यो... ९ बोलें वचल(न) मुधरु लवें एकांतिजी बोलाव्यानो लाग, दिठे तन मन वेधे सही जिम वेधे मोरली नाग...
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धन्य कुमरनें काजें जे पालें शीयल प्रसंड, चतुरसागर कहें नोमी ढालमां पालोजी नरनारि शीयल अखंड ११
दूहा भूपति मनि चिंते इस्युं, धन्य कुमरनो अवतार, वस्तु पोतें आयत्व अखें, नवी भेटि अह नारि... १ के माहिं वेधक नहीं, पुरुषमां नहिं लवलेस, के कोई अतुलीबली, के पूरुषोत्तम कहिइं विशेस... २ ईलामां मारग चलें, बहु वरसें वली मेह, ते सवी एह परभावथी, वड उत्त(म) कहइं अह... ३ शीलरत भाजें नही, ए नवी जाणे को वात, एहना गूण प्रगट करूं, विस्तारुं जग जस विख्यात... ४ प्रथम छोछो एहथी करूं, वली आपू शिर दोस, पछे एह वली शीलप्रभावथी, होस्यें घणु निरदोस... ५
ढाल - १०, यादुपति जित्यो हो के हो के - ए देशी । कुंअर तिहांथी उठ्यो हो, कुंअर तिहांथी उठ्यो हो, कुअर तिहांथी घरि आवें हो, सीख मागि जयसुंदरी हो, तिस्ये तुरत उत्तरइं राजान, आवी खूणे उभो रहो ओ, केडें कुमर प्रधान... १ कुं० तुरत राजा झाली कहें हो, कुण नर तुं कहवाय, परघर कीम पेंठो हतो ओ, स्यें मिसें इयां जवाय... २ कु० पूछतां कुवर इंम भणे हो, लंडांमां हुं सिकदार, आ वेलाई तुम ग्र(म)ह चढ्यो हो, तेमां हस्यें वछ(व्यश)न बे चार... ३ कुं० कुमरी जंपे उर थकी ओ, नहिं ऐहमां वांक लगीर, आपूं कुंडल हीरला ओ, वली आपूं नवसर हार... ४ कुं० उत्तम नर अवलोकतां हो, गुनह नही लवलेस, मुंको मोटा राजीआ कुयर कुयरीनो जायें क्लेश... ५ कुं० कुअरने लेई नीसर्यो ओ, नवी मेलइं राजान, सांप्रति कोई ताहरें हो, मूकु लेई जमान... ६ कुं०
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जातां आरक्षक मिलो हो, कोटवालने सपें तेह, हाजर जमान लीधा पछि ओ, मूक्यो खरो करी जेह... ७ कुं० कोटवाला सूंपी राजा छानो रहइ ओ, स्यूं करस्य ततखेव, रुषे लांच ल्ये ओकने ओ, पोतानो स्वारथ करें ओव... ८ कुं० कोटवाल पूछे ते प्रते ओ, कोई मूकावें तुझ, मातपिता सूखी घणुंओ, तेह मूकावें मुझ... ९ कुं० धनिदेव पिता जगावीओ हो, कुंअर कीधो हजूर, श्याम चोरीइं पकड्यो सही ओ, राय मगावें नवी करवो दूर... १० कुं० सेठे जाण्यो खोटो सही ओ, राख्यानो नहिं आग, ओ मुझथी अलगो घणुंओ, नहिं इहां अहनो लाग... ११ कुं० चतुरसागर कहें सदा हो, दशमी ढाले जेह, धन नर जग वखांणीइं ओ, करें पर उपगार तेह... १२ कुं०
दूहा मातपिता अलगा रह्या दुख वेला नहि कोय संपति वेला सवि म्हेलें भर्ये सरोवर सहु कोय... कोटवाल तेह प्रते वदें ताहरें 3 वलि कोई, कुयर कहें बहुला मित्र ॐ हस्यै जमान वली सोय... कुमर कहें जिहा आवतां मित्र पूछे विरतांत, कहें वृत्तांत सांभली खसें जिम तरुथी पंच्छी उड जात... ३ सज्जन जे बहुला हता मुख कहता 'कह्यो अम काज', • गोठि कुतुहल विविध परिं, काज सिर नाव्या को काज... ४
सो सज्जन ओक लाख मित, ताली मित अनेक, जिण स्यूं जई वीपत कटी(ही)ई सो लाखन में एक... ५
ढाल - ११, पहिली भावना ईण परिं भावई रे - ए देशी । कुंअर इंण पर चित चितवें रे, जोज्यो कर्मनी गति जोय, संपत्ति वेला सहु अछे रे, दुःख वेला नहिं कोय... १ कुंअर
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दिनप्रति करता मूझ चाकरी रे, खावा रमवा वली जेह, वाते डुगर डोलावता रे, उखाणो मलीओ साछो अह... २ कुंअर राम लखमण तातें काढिया रे, ना'णी पुत्रनी लाज, अगस्ति ऋषी उदधी उपरि कोपिया रे, कृष्ण इंदु सगा नाव्या को काज...
३ कुंअर तव कोटवाल फिर उचरें रे, ताहरें छे वली कोय, कुअर कहें आ वारमें रे, मूझ काजें नावें कोय... ४ कुंअर वलि संभारसुं रुडि परें रे, संदेह रहस्ये मन सोय, काम सर्या केडे फूलस्ये रे, हृदय बीमारी जोय... ५ कुंअर संभारतां तिहां संभार्यो रे, कायथ सुत संभों तेह, वरस वमासि मिलतां थकां रे, निजरनि प्रित थई जेह... ६ कुंअर मिलतां कहें तो काज सरे रे, कहेंयो मुझ वली काम, कोटवाल लेई चालिओ रे, देवदत्त तेणे आव्यो धाम... ७ कुंअर कोटवाल आवी जगावीओ रे, उठो देवदत्त कुमार, ततखिण ते आवी उभो रह्यो रे, बे जण मीलीअ कुंमार. ८ कुंअर देवदत्त पूछे आ वारमें रे, किम पधार्या साहस धीर, कोटवाल कहें सांभलो रे, श्याम चोरी पाल्यो वीर... ९ कुंअर बाहदर लेवा आवीओ रे, मूकावो मूंकां तुझ पास, राय मगावें तइं ये आणवो रे, नाठो मागस्यें तुझ पास... १० कुंअर ईलामांहे ऐहवा नर दीसही रे, आ वारमां आवें काज, चतुरसागर कहें प्रसंसीओ रे, इग्यारमी ढाल चैं सिरताज.. ११ कुंअर
दूहा कोटवालने कायथ कहें सिधावो हर्षसु गेह, काम काज हाजर सही म म आणयो संदेह... कोटवाल रुडी परें सूंपी चाल्यो तेह, कुंयरनें कहे चिंता म करो लाधे माणस अवस्था अह... २ राजन तुम सिधावीइं पूरो मननी हाम, मनमान्या पछि आवयो सारो वंछित काम... ३
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अनुसन्धान-७५(२) कुमर कुमर प्रतें कहे जई बोलावो नारि, मदन कहे मिली आवस्यूं विस्मय थयो राय तिवारी... ४ धन्य धन्य देवदत्तने मोकलो मूक्यो कुमार
खून प्रभातें पूछस्मैं भय नवी आणे कुमार... ५ ढाल-१२, प्रणमी रे गोरे जा रे नंदने सारद लागू पाय - ए देशी ।
कुमर तिहांथी आवतो भावतो मलपतो सीह, राजा के. रे सही चालीओ बलीओ छिद्र जोवा आवें अबीह... १ सुंदरी झूरे रे ऐकली विकल थयी घणु जेह, विण खाधा पीधा सहिं खोटो दोस चढ्यो वली अह... जयसुंदरी गोरी झूरे रे, नयणे खरंता रे नीर, जाणे तुठो मोतिहार रे निछोवा योग्य थया छे चीर... कुमर तिहां उपर सिधावीओ हरखी कुमरीं मनमाहिं, सज्या वली रे जई तिहां बेठो पेठो छांनो राजा वली जोवा आय... ४ जोषा प्रतिं कुयर कहें रे, सांभली तु मुझ वाणि, प्रभातें राजा तेडस्य देवदत्त थयो रे जमान... कुंण जाणे 3 रे दैवगति तुझनें कहेवो प्रबंध, हियामांथी म वीसारयो आवतां वरस थयो रे प्र(सं)बंध... ६ अबला बोलें रे वली वली नेह गेहली रे होय, मुझ कारण दुख पावस्यो अंतराय भोग करम छ रे जोय... ७ अता दिन मूझ आस्या हती सरस्थे रे माहरो रे काज, के तुम्हें मर्दाई रे मां नहें के कहतां आवे रे लाज... नारि न कहें रे मूख थकी नयणे बतावें रे सान, आज कहुं हुं मूह प्रकाशि रे काय मूको अवसाण... पंच तणी रे हुं सांखी दोषी परणु मुझ नारि अवर भगनी वृद्ध माडली ओ माहरें छै निरधार...
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कमरी कहें सामीणो कुण जाणें कल्यनी वात, परणो इहां कलस माडिनें सिरावें स (च) ढावो वात... कुमर कहें सूणी सूंदरी सांप्रति राय करें जो घात, तो पिण खूणें (नें) नवी आदरु जो जाई वही युग सात... बाकी हुं ईहां नवी चलूं पछिम उगें सूर,
उतात मुझ कस्यें घणुं तो परणुं चढते नूर... प्रभातें राजा तेडस्यें करस्यें तुम्ह अपराधि, तुम विरहें किम जीवस्यूं करस्यूं तुम्हारो साथि... कहें राजा तेडस्यें मिलस्यें लोक हजार, तेह वामें दरिसण आपजे सुंदरि नही तुझ समान...
ढाळ
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१३, नृप कहें नाटिकीया प्रतें हो - ए देशी ।
सीख करी कुंअर चालें पडें अपूठा पाव रे, कुंयर सांभलो
कुमरी कहें ईभ्यिनंदन प्रते कायगमो आव्यो दाव रे ... कुयर सांभलो १ वारी जाउं ताहरा नामनें गोद बीछावी कहय गुलाम रे, कुयर. कोमल वचन प्रकासती चाले गज जिम अलाम रे. कुंअर. कुंयर चरित जाणीनें नृप चिंतें मनमाहां रे, कुंअर. साहसीख पूरष जाणिनें आवें दया मनमाहि रे, कुंअर. कायथ घर कुंअर आवीओ अबला मेल्ही निरास रे, कुंअर . वाहिला मित्र किम आविया रह्या नहिं मास छ मास रे. कुंअर. राय कबहिक तेडस्यें करूं जावा पतिहां जाय रे, कुंअर. तुझ वती झगडू सही, नावें बांधवने वा (दा) य रे. कुंअर. रजनी अरो-परो भयो ताढिं थयो कुमर ज श्रांत रे, कुंअर. स्त्रीने कहें समीप सूअ लेईनई जिम पामें कुयर शांत रे. कुंअर. नारि आधो लेईनई सुतो भेलो जाई रे, कुंअर. गलबाजी आघो घालिने लेंछें मूझ माय रे. कुंअर.
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निसुणि राय निसर्यो अहनि प्रीत स्यबास रे, कुंअर. श्याम चोरीथी पकडी ते पिण सुंप्यो स्त्रीने विसारें रे. कुंअर. ८ भूपती विस्मय पामीओ घर आव्यो गृह काज रे, कुंअर. कोटवालने राय प्रेरीओ चोर भूमी शुद्ध करो आज रे. कुंअर. ९ तिहां सिंघासण मंडावयो उपरि डेरा मोटा लाल रे, कुंअर. सभा सहु जडि बेंसे तिम बाचायो झलीछा सेत्रुजी पाले(?) रे. कुंअर. १० तेरमि ढालें वृतांत जाणिनें भवीजन छाडो कषाय रे, कुंअर. चतुरसागर कहें तिम करो शील प्रति करो सखाय रे. कुंअर. ११
- दूहा राय हुकमथी सवी कर्यो नगरथी रचना एकांति, सभा आगल दोय सूली धरी तेहथी लोक थयो भयभ्रात... १ आरक्षक रायनें विनवें स्यूं करो प्रभू पसाय, निसाई तुझनें सूपीओ जई चोरने तिहां ल्यावि... हाक दडबड करये घणी हाथ म अडये लिगार, डोर चिंछालो (सिंचालो) ईम करी राय छाल्यो शिकार... ३ कोटवाल आवी कहें सूप्यो रात्री मझार, राय इंम तुम उपदिसें झाल्यो चोर चाल्यो दरबार... चालो देवदत्त कहें साद नहिं रात्रिनो लवलेस, संताड्यो बोहीर धर्यो रायनो छे ओ आदेश...
ढाल - १४, वालमीया अलगारा हो में - ए देशी । कोटवाल कहे चालो जे होइ तुम्ह अन्याई, कहें ततखीण देवदत्त उठीनें परखी कहेतुं नहिं भाई, साछु बोलो... १ तुझ वयण सुणिने कहुं छु भाई, साछु बोलो. ए आंकणि. उत्तम नर(रे)सर में वात विछाले आव्यो, तुझ लेजइ स्युं तिहां किजें निशाचर स्युं छै दावो. साछु बोलो... २ झघड करें देवदत्त तिहां किण रात्रि झलाणो हुं तेतो, पकडि करंता कुयर जाग्यो, गुनह को म्हें छे अतो. साछु... ३
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मदनकुमार कहें बांधव करो तुम्हो लीला, तुम्हारो काम नहिं छे इहां किण, भोगवस्ये खूनीयई केला. साछु... ४ । ओक अकनें तरस्यें सनेही, गायें जिम घन मोरा, परस्पर ओक ओक माथे लेवें, कहें वालेसर नही काम ज तोरा. साछु...५ दोनू घ(झ)गड करता आरक्षक लिख्यो नवी जाइं, दोनू आगल करीने चालें भरिय सभाम्हें आवे. साछु... पूरी जन प्रबल मिलिओ जोवा मिलिओ राणो राण, तेणे अवसर राजा चढीओ आवें मांडि थई अजाण. साछु... अधीपति सिंघासण राजें मंत्री समीप विराजें सर्ग सभा बूवीपीठमां आणि इंद्र थकी अधिकी छाजें. साछु... ८ अजाण थयीनें पू0 नागर जन किम मिलिओ सवेरो, श्याम चोरी झल्याणो कुयर आगलि उभो भलेरो. साछु... नयण निहालि जोवें राजा दोयण उभा सूरा, उठिता जिम करि कहें इंम खूनीय छु प्रभु तोरा. साछु... क्रूर निजर करी अवलोकें कोमां से सहि तक्षीरी(?), चतुरसागर कहें चउदमी ढालें कुमर ज चरम शरीरी. साछु... ११
दूहा
अजितसेन विचक्षण थको वेधक लहें विचार, सूली तिहां तैयार ज करें कहें लोक थास्यें हाहाकार... १ वप्रत्रइनी रचना करे नरभ्यंतर हाथोहाथा जोडि, मध्य अश्व बाध्या गज परघि बाध्याथी नावें मध्यको दोड... २ माणस लाख गमे मिल्यूं मध्य बाह्य जिहां तीहां न जवाय,
खेतरवा भूमि बांधी करी आकलिन करी पू, राय... मदन कहें स्यूं पूछीइं गुन कर्यो , आज, मन मांने सो कीजीइं छमाउ ओ छु महाराज... कुअर विछे देवदत्त ज कहें गहन कर्या म्हें हजार, मदन तणों वंक जरा नथी ईम झगड करें घडी विचार... ५
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अनुसन्धान-७५(२)
ढाल - १५, अरिहंत सूग्यानी साहब मेरा वे - ए देशी । ईंण अवसर जयसुंदरी प्रभूसूं करे अरदास, विगर खूनी खून चढीओ कुमरनें पुठि राखो जई पास के... १ कुंअरी मनस्यूं छिते बे(छ) बाहमें लालक बांण के, कुयरी चालें बे कानें मोती दिछे लाल के, हाथमें बरछी झलकें
____ ए आंकणि १ कुसंभल पाग सिर परि बांधी कीलंगी स्यूं कसबि बंध, मोटें पन्ने कसबी वागो पहियो रुडें भिडाव्यो छे बंध के... छुटा केस केसूंधा परिमल धुमति चाति दृढ कराय, विपरीत अश्व पलाण मंडावी चढी कुमरी चलाय के... हलूई हलूई घोडो खोलावती माननि मदमतवाली, हाथमें बरसी तोलावती मेलई घोडो वाग उलालि के... हयगय नर जिहां बहु मलिया किणहि माहि न जवाय, दखिणी पवनें बादल उडाडत तिम वल्लभ स्यूं मिल्यो धाय के... ५ आवत देखी कहें को ठकुरालो के कोई देवासि नर होय, निजर देखीत अलगा रहवें मूजरो करीवि छै जोय के... अभ्यंतरु परषदमें आवे तुरत उतरें त्याहिं, कुमरनें त्रण्य प्रदिक्षणा देई करें सलाम त्याहि के... त्रण्य वार ताजीम करीनें तुरत थई असवार, ज्युं आव्यो त्युं अस्व चलायो न करी ढील लिगार के... ८ ठिकाणे तिहां जइनें पहोती पहिरें पूरव वेश, परषदमें राय सहु निरखें कोणे को प्रवेश के... अजांण थई राय पाछलि मेलें दोय चलावे, घोडा जेह जिहां होइं तिहांथी बोलाय ल्यावो के. न मेलो अह के. १० पनरमि ढाल भली परिं दाखि पून्य करो सहाय, कुंयर कलंक ईहां उतरस्य चतुरसागर सुख थाय के... ११
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कुमरि घोडो बांधतां परो रें आव्या असवार, राय तुम्हनें बोलावतां न करो ढिल लगार... कुमरी जाण्यो खोटो सही नवी उगरई आज, मांडि विलखां करे थकें विणस्ये कुमर कुमरीनो काज... २ जे गति कुमरनी हस्ये ते गति कुमरी होय, लोकमा बदनामि थई नवी खोवू भव दोय... यमराणो रूठो स्युं करें मरण थकी अधीक स्यूं लेह, राजा खीज्यो स्यूं करें सच नवि छाडूं जेह... स्नान मज्जन पोतें करें पहिरी सोल श्रृंगार,
तिहांथी कुमरी चालती कहो मायनें विचार... ढाल - १६, आदिसर अवीधारीइं तु छै मोटो देव प्रभुजी - ए देशी ।
पांच सात सखी लेई आवें कुमरी सभामें, प्रभुजी. देवगुरु समरण करी संभारें धर्म इंणें काम. प्रभुजी. कुमरी आवें मन मोजस्यूं - ए आंकणी० पगि लाखिणि मोजडि झांझनो झमकार. प्रभुजी. नरनारि देखी कहेइं अतो हस्ये नागिकुमारी. प्रभुजी. नगरलोक जोवा रह्यो कामनि मोहनवेल. प्रभुजी.. राय पूछ केहनी नंदनि पूछंतां न करो ढील. प्रभुजी. मंत्रीसर तव ओलखी आ स्यूं घरनो विचार, प्रभु. मंत्रीसर झांखो थयो राजा पूछे वारो वार. प्रभुजी. हांसी सहु करता हता जब मांहिं नाव्यो रेलो, प्रभु. परनर नंद्या करें श्रणा पोतें नहिंय नरालो. प्रभुजी. अधीपती खीजें अति घणू थईय लाल गूलाल. प्रभु. ताहरा घरमां नित्ये सदा स्यूं छै ताहरा घरनो विचार. प्रभुजी. ६ कुमर प्रतें वली नृप कहें बेंमां कुण रे अन्याई. प्रभु. मदन कहें रातिं मूझ झल्यो जिम जाणो तिम करो धाई. प्रभुजी. ७
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अनुसन्धान- ७५ (२ )
मदन कहें सूली मूझ आपिदं देवदत्तनुं नहिं ईहां कांम. प्रभु. निरालो मूझ माटें घगडें मूको अहनें घर धाम प्रभुजी. बूपति राते लोयणे देवदत्त कहें करो मूझ कोप. प्रभु. मदननें सिख भली परिं आपिई सूली आपो मूझ स्यूं कोप. प्रभुजी. ९ साछु बोलो बालको तेहनें पारणावुं नारि, प्रभु.
मदन कहें देवनें परणावीइं द्यो मूझ सूली वांक विचार. प्रभुजी. १० मदननें कन्या आपिंइं रीसें देवदत्तनें सूली दीजेई, प्रभु. सोलमी ढाल चतुर इंम भणि खरो नेह ओनो कहीजें. प्रभुजी.
दूहा राजा प्रजा स्यूं सही समझि न पडें काय, मोह किम मार अपावीइं मार्ये साछु बोलाय... कोटवाल हाक करें घणी देखाडें कोरडा तास, His बहामण करें पोहचाडू कुंयर सर्गावास... आरक्षक प्रति सान ज करें बिहावज्यो अत्यंत, राजामहिं सूनीजर स्यूं जोवेरि खेल्यो ओहनो अंत... अवस्ता देखी बालक प्रति झूरें लोक हज्जार, सांई तुम्हें उगारयो जो होइं पोतें पून्यउदार... मदन कहें सूली आपिई परणावो देवा कुमार, कहें देव देव सूली योग्य छै परणावो मदनकुमार...
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कुमर आदि त्रण्य उपाडि सूली नजीक मंगावें हो, लोक घणुं तिहां आसू रेडे मंत्री ओसियालो नवी बोलावें हो.... देवकुमर नर अवतारुं कुंण जाणें वात अ साछी हो, कुंणें दीठो कुंणनें झाल्यो वात हुंति मूलथी काछि हो. अ... ३
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ढाल - १७, भगवंत भासें सललीत वाणि - ए देशी । अजितसेन राजा चित छिंतें, नवी बोलो काय साछु हो, सूली आणि तेंयार ज कीधी कुमार कुमरी कीम सूली राछो हो... १
सूली आणि०
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धन्यकुमारनें काजें ना' सल नवी घालें हो. जरा वांक अहमां न मीलें पणिआलो नर सहमें आलें हो. अ.... ४ राजा मानमें अतीहि झूरे पुरुषोत्तम अहनें किम दुःख दीजें हो, ओह नरना यतन करी जे अहनां चरणामृत लीजें हो. ओ.... ५ राजा तेडी खोलें बेसारें मदनने सत जाणो को अन्याई हो, सोना बावजन पर निकलंकी खबर करी छ मास लागें जाई हो.. अ. ६ विविध प्रकारे पटंतर लीधो नवी छुको नर क्याहिं हो, धन्य अहना धैर्य पणाने धन्य यशोदा माई हो. अ... फूल वृष्टि करें गगनथी देवा जेहनें शील कमी नहिं कोई हो, पंचसबदा राय वजडावें वाजें निसाणे घाई हो. अ. अहनि किरति प्रगट करवा मांड फंद करी लियो झालि हो,. कोई वात अपर न जाणई वशूधामें वात ओ साची हो. अ. चवरी मंडावी कुयर परणावें लगल(न) ततखिण लिधां हो, मंत्रीसर मन आनंद पाम्यो मातपिता खूसि किधा हो. अ. राय पूत्र करी परणावें ओ सवि शीयलनो महिमा जाणो हो, चतुरसागर सतरमी ढालें जंपे कुयर विश्वास सहु आणे हो. अ. ११
दूहा अति मंडाण ओछव करी जयसुंदरि परणो कुमारि, पांचसें गाम राई आपिआ वली गजरथ घोडा अपार... १ वली दास दासी तिहां सूपीआ सूप्यो अरथ भंडार, मंत्री वली विशेषे आपतो गणतां नावें पार... २ पंच दिवस बाहिर रहिं जमाड्यो जान मांडवो गांम, सज्जन जिन संतोषिया वरती जगमें आम... राजा देवदत्तनें आपें गाम पंसास, मित्र आहवा जग वखाणिई जगमें पाली वाच... ४ अंबाडि उपरि बेंसीने दंपती आवें नगर मझार माथें छत्र चामर ढलें गुणिजन कीति करें सफार... ५
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अनुसन्धान-७५(२)
ढाल-१८, चूडले रे योवन झल रहिओ - ए देशी । हयगयरथ परिवर्यो आवें मलपतो कुमार, हो लाल. राय मंत्री पाछल थकी साथनो गणतां नावें पार. हो लाल...
वडवखति कुंयर भलो - ए आकणि० सहेर सहु सीणगारिओ सिणगारा सहु बाजार, हो लाल. गोखि गोखि जोवा रहि पहिरी गोरी सिणगार. हो लाल... केई वधावें फुलडे केई वधावें मोती थाल, हो लाल. जयसुंदरी सम माननी पाम्यो सरुप भरतार. हो लाल... नारि आसिस वें घणी वर कन्या छि(चि)र नंद, हो लाल. याचक जन बिरुदावली जीवयो जीहां लगें रवी चंद. हो लाल... ४ मातपिताना पग नमी लीधो कंठ लगाय, हो लाल. अम्हें तुझथि भला न थाय सात प्रिया तारि कुल आय. हो लाल... ५ कुयर कहें सूण्यो तातजी म करो चिंता ओ वात, हो लाल. पुव्व कलंक चढाव्यो हस्ये तेहथी उदय आव्यो राति. हो लाल... ६ सात भूमीठं आवास आपिओं राय आप्युं रहवा काज, हो लाल. मंत्रीसर पिण आदर करें सूखें चलावें राज. हो लाल... खांई पीई खात स्यूं नारि, स्युं आय बन्यो तांन, हो लाल. छु(चु)आ तेल फूलस्युं करें रागगान. हो लाल... दौगंधीक परि सूख भोगवें योगवें रुकमणि जिम कान, हो लाल. पंचेंद्रीना विषय रस लेतो ल्ये नित्य राजानूं नाम मान. हो लाल... ९ शील थकी रे सूख संपदा शीलें लहिइं सूत राज, हो लाल. अरि करि सवी भय टलें तरीइं संसारनी पाज. हो लाल... ओ सवी जाणज्यो साछु शीयल धरो चितमांहि, हो लाल. चतुरसागर इहां कहें ढाल अढारमी उच्छाहि. हो लाल...
अजितसेन राज्य करतां थकां वृद्ध थयो अभिराम, जोग्य को सूत तेहनें नहिं आप्यू राज्य मदन ताम... १ राय मंत्री सुवृत लीई पालें निरतिचार, मातपीता कुंयरना वली ते पिण ल्यें संयम भार... २
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राज प्रमुख आदि करी पहोता स्वर्ग मझार, पाछिल कुंयर राज करें तिहां आण मनावी सार... पडोसि राय वस कर्या किधा सीमाडाना भूप,
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जिम समझे तिम करें अन्यथा देखाडें स्वरुप... कें आवी प्रणमें सही कें आवी आपें सिरदंड, कें आवी चाकरी करें इंम आण मनावी अखंड... ढाल - १९, आज वधावो गछपति मोतियां - ए देशी । आज वधावो वांणारसी अधीपति जीती आव्यो देश रे सर्व, आण मनावी मदन राजवी नवी जाणें अन्यायनो मर्म ... आज वधावो वाणारसी अधीपति - ए आंकणी० पहिरि ओढि स्त्री वधावती साहमे ले साम्ही आय, थाल भरी भरी लाल वधावती मदन तणा गुण गाय... सिंघासण आसण ठवी रे, स(छ) त्रीस राजकुली भराय, मदनरायनि कीरति विस्तरी [रे], मारग चलावें रे न्याय... देसमें अमार पालवतो रे, न करे को जीव हिंस, देवदत्तने मंत्री करी थापिओ रे, सेवे नहि पापनो अंस... पटराणि थापी जयसुंदरि रे, स ( राणी अन्य) बहु कहवाय, अनुक्रमें सूत दोय जनमीया रे, जयसुंदर वडो कहवाय... लघू सूत रुपसुंदर जाणयो रे, अनुक्रमें निसालें आय, भणिय यौवन वय आवीआ रे, मातपिता तव परिणाय... रुप लक्षण कुअर सोभता रे, अभिनव कांमनो अवतार, देखी नरनारि मोहें घणुं रे, अकलवडा अवतार... दांनसाला गामगाम मंडावता रे, दीन दुखी लहें रे आधार, संघ जैन प्रतिष्ठा वधारतो रे, पोसह पडिकमणें तैयार .... सहस वरस पंचवीस थया रे, छित चारीत्रस्यूं रे राग,
हवें मुनि सुव्रत पधारिया रे, अकमनो धर्मस्यूं राग.... वनपालक द्यइ वधामणी रे, सहसगमे साधुनो परिवार, भविजणनें हितवच्छल भणि रे, हरिवंस कुल अवतार;
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यादववंस सिणगार... १०
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अनुसन्धान-७५(२)
वांदवा राय मदन चालिओ रे, चतुरंग सैन्य परिवार ओगणिसमी ढाल जाणज्यो रे, चतुर कहें ओ जिन मुझ आदार... ११
दूहा त्रण्य प्रदक्षण देईने वांदे वीसमां जिणंद, तादृस जायग योईनें बेंसें मदन नरिंद... बें उपदेस जिणेसरु उपगारने हित काज, मानवभव दुर्लभ लही करो धर्मना काज... चंछल यौवन अथीर धन दिसें प्रेम स्वप्न समान, को केहनो सगो नहिं स्वारथ विना न यें आदर-मान... ३ सहजें जे व्यैराग्य दिश्या हती जिन वचनांमृत जलधार, सेलडी सभावें मधुरता वृष्टि वलि स्वादनो नहिं पार... स्वामी मूझ दीख समर्पियई जिन कहें पूछ्यानो विवहार, महानूभाव ढील नवी किजिई थापी आव्यो राज्ये राजकुमार...५
ढाल-२०, मूनि जिन मारग चालतां - ए देशी । राजा घर भणि चालतो तेडि कमरनें काजे, जयसूंदर वृद्धि जाणिनें जोग्य थापें निज राज्ये
राय मदन दिखाव रें... ए आंकणि । रुपसुंदर युवराज थापीओ आज्ञा मांगि तेहो पासें, मुनि सुव्रत पासें जई करी देवदत्त मित्र उल्लासें... २ राय० इंम जयसुंदरी दिख्या वरें नर अट्ठोतर संघातें, सूत महोच्छव करें घणो लेई दीक्षा चाल्या साथे... ३ राय० जयसूंदर सूत रुपसुंदरु मात पिता वोली घर आवें, देखि अठाण सांभारें खिणखिण पीता चित्तमें आवें... थीवर पासें भणि-गणि आवश्यक षट आदथी मांडी, तप जप क्रीया आकरी संसारनी माया छांडी...
५ राय० छट्ठ अट्ठम पासखमण जिकें मासखमण चोमासी, विहार करें अति आकरो आतापना लेता न करें विमासी ६ राय०
४राय०
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निरस अहार पोतें करें साथूओ सूद्ध सोधी ल्यावें, कायाने बाडूं देवा भणि खाता मनमें समता ल्याउ... ७राय० गुर पासई आगन्या मीगीनई उपगार करता आवें, अनुक्रमें कासी वांणारसी सांभली पूत्र वांदवा आवें.... ८ राय० राय सैन्यस्यूं परवर्यो बेंठा परषदा आगें, गुरु उपदेस दिई तिहां सांभली उछरें वृत रागें... ९ राय० ओक दिन शुक्लध्यान धरता थकां उपनो केवलज्ञान देव महोच्छव तिहां करें मदन पोहता निरवाण... १० राय० सहस वरस दिक्षा पालिई भय सघलो निवार्यो, चतुरसागर ईहां अम वदें वीसमी ढालें मदन संभारो... ११ राय०
देवदत्त जयसूंदरि पहोंतां अनूत्तर विमान, खेत्र विदेहमां अवतरी अकावतारि सिद्धि विमान... १ मदनकुमार बुझ्यो सही बे भव साध्या काज, ओ भव कीरति विस्तरी परभव पाम्यो शीवपूर राज... २ इंम जिन देशना उपदिसें वीर कहें श्रेणिक राय, मदनपरि शील शुद्ध आदरें तेहनें बे भव न थाय... ३ तहति करी वांदी वीरनें श्रेणिक पुछे परषदस्यूं वार, केई चोथू वृत उचरें आलोअण द्वादशवृत द्वार... ४ वीर तिहांथी सिद्धि करें चोवीसमो जिनराज,
आप आपणे स्थानिकें पोहता पछी करें धर्मनां काज... ५ ढाल-२१, राग : धन्यासी, में गाया रे पास तणा गुण गाय - ए देशी । में गाया गाया रे मदन साधू तणा गुण गाया, जे नरनारि शील पालस्य तेहनें शिवपूर थाय, श्री जिनवरना वच्चन सद्दहस्ये ते नर उत्तम करी गवाया रे...
म्हें मदन साधु तणा गुण गाया - ए आंकणि० धनदेव सेठ तणो ओह नंदन मदन सूत महाराय, तास चरित ओह वखाण्यो श्री ऋषभदेव चरण पसाया रे...
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अनुसन्धान-७५(२)
वीसमां तीर्थंकर वारें थयो तिवार पछी जिन च्यार कहवाय, उपदेसकोस ग्रंथ वीचारी तेहथी ओ रास उपायो रे... काईक कवि चतुराई केलवतां ओछो अधिक करी निपाया मिथ्या दुकृत मूझ मन होयो श्री संघनि साख सूणीया रे.... रास ओ सूधा असूध ज कीधो लेई पंडित शुध करयो, विगर बुद्धि रचनाकी वाधे सूजस तिम करयो रे... संवत सतर बहोतेरा वरषे मृगशिर शुदि त्रीज भृगुवार रछाया, तपागच्छे श्री विजयप्रभ पाटें श्री विजयरत्नसूरी सवाया रे... तस गच्छमाहिं पूर्व पंचावनमें पाटें श्री लक्ष्मीसागरसूरी राया रे, तेहनि परंपरा चोथें पाटें श्री विद्यासागर उवझाया रे... तेहने पाटें शिष्य अनोपम छाजें श्री धर्मसागर पाठक करी गाया रे, श्री हीरविजयसूरीना आदेशथी कल्पकिरणावली करी ग्रंथ निपाया रे... ८ सिस पद्मसागर विबूध बुध राजें जित्या दिगंबर प्रति सूरीह राया रे, तस चरणांबूज सेवक अंतेवासी श्री कुशलसागर उवझाया रे... ९ तेहनें पाटे दिवांकर अनोपम विबुध उत्तमसागर गुरुराया रे, जेहनी किरति जगविख्यात सेवे सूरनर राणा राया रे... तस पद सेवक ,ग समान के कवि चतुरसागर गुण गाया रे, रास राग धरी सांभलस्यें तस घर मंगल आया रे... पाटणवारें बहुलां गाम ज तो पिण मुख्य छे सीओरी सवाई, भटेसरीआ जिहां राज्य करें छे तिहां धर्मी श्रावक सूखदाई रे... १२ सीओरीना संघ आग्रहथी रास करी म्हें अह निपायो रे, जिहां लगें गगनें इंदु रवी प्रत तिहां लगें थीर चौपाई थाय रे... १३ कवि चतुरसागर इंणि परि जंपें ढाल एकवीस करी कहवाई, भणि गणि सांभलें जे नर कहेस्ये तस घर नवनिधी ऋद्धि थाय रे... १४ ॥ इति मदनकुमर रास संपूर्ण ॥
Clo. A-15, अमीझरा एपा.,
नारायणनगर रोड, शान्तिवन, पालडी, अमदावाद-३८०००७ मो. ९५३७१६४५९ * * *
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मुनिश्री वृद्धिचन्द्रजी कृत ढुंढक चर्चा
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सं. शी.
आ रचनाना कर्ता मुनि वृद्धिचन्द्रजी मूळे पंजाबना रामनगरना वतनी हता, नामे कृपाराम, धर्मे जैन अने वणिक् । तेमणे दिल्हीमां मुनि बूटेरायजी पासे स्थानकवासी जैन दीक्षा लीधेली । आ जैन सम्प्रदाय मूर्ति अने मूर्तिपूजाना विरोधमांथी ४-५ सैका अगाऊ उद्भवेलो सम्प्रदाय छे। ते वर्गना साधुओ मोढे मुखवस्त्र बांधी राखे छे । पोताना आवा मतने अनुकूल होय एटलां ज आगमोने तेओ आगम तरीके स्वीकारे छे, शेष ग्रन्थोने नकारे छे । ते लोको 'बावीस सम्प्रदाय' तरीके ओळखाय छे ।
कालक्रमे आगमो अने शास्त्रोना बारीक अवगाहनथी आ गुरु-शिष्यने प्रतीति थई के मूर्ति-पूजानो निषेध तथा मुखवस्त्र बांधवुं - बन्ने बाबतो अशास्त्रीय छे, अने मूळ जैन धर्मना मार्गथी विरुद्ध छे । मूर्ति-पूजा शास्त्र सम्मत होवानो निश्चय थतां ज तेमणे स्थानक-मार्गनो त्याग कर्यो, अने कालक्रमे तपागच्छनी सुविहित संवेगमार्गनी सामाचारी अपनावी लीधी। आ वीसमी सदीना आरम्भे घटेली ऐतिहासिक घटना छे ।
आ पछी चालेला वाद-विवादो अने खण्डन - मण्डननी प्रक्रियामां मूर्तिनिषेधको ने तेमना मतनी असत्यता जणावतो एक चर्चाग्रन्थ श्रीवृद्धिचन्द्रजीए लख्यो हतो, अत्रे सम्पादित करवामां आव्यो छे । आ ग्रन्थ तेमणे पंजाबनी खडी हिन्दी बोलीमां लख्यो छे, अने सं. १९०९मां ते लख्यो छे । सम्भवतः ए अरसामां ज तेमणे धर्म-क्रान्तिनो झंडो लहेरावेलो |
चर्चा अत्यन्त रोचक छे अने स्तरीय छे। छाछरी वातो के भाषा नथी, शास्त्राधारित दलीलो तथा प्रश्नो ज छे । हा, विरोधीओनी जाली दलीलो बदल तेमने आडे हाथे जरूर लीधा छे । एकबे वातो जोईए ।
१. तेओ विरोधीओने पूछे छे : 'तमने एवं ते कयुं विशिष्ट ज्ञान थयुं छे के तमे ३२ सूत्रने साचां मानो अने बाकीनां सूत्रोने जूठां गणो ?।'
जवाब : 'अमारी श्रद्धाने अनुरूप वातो ३२मां ज छे, एटले एटलांने ज मानीए छीए' ।
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अनुसन्धान-७५(२)
सवाल : 'तो तो तमे जैनमती न गणाव, मनोमती-आपमती ज गणाशो ! पोताने फाव्युं ते मानवू, न फावे ते नहि - ए ज तो मनोमती !!
वळी, तमे स्वीकारेला ३२ सूत्रोमां तो 'नन्दीसूत्र' पण आवे छे. तेमां तो आ ४५ आगमोनां नामो पण छे, तो पण तमे तेनो निषेध करो छो ?। अने जो 'नन्दीसूत्र' ना वचनने उत्थापो तो तो नन्दीसूत्रना पण तमे उत्थापक थई जशो ! तो तमे देखीता मृषावादी ठर्या !!
२. मूर्तिलोपको शास्त्रकथित दृष्टान्तनो आग्रह राखे, ते अंगे पूछे छे : 'कोई बाईनो पति मरी जाय पछी तेनुं माटी पूतळु बनावीने तेनी पासे राखे तो तेथी तेना पतिनुं काम सरे खरुं? तो मूर्ति थकी भगवान, काम केम सरे?' - आ दृष्टान्त तमे मूर्ति-निषेध माटे आपो छो ते ३२ पैकी कया आगममां आवे छे ? ते तो बतावो ! - आम, मनःकल्पित दृष्टान्त दर्शावीने तमे प्ररूपणा करो छो ते तो प्रत्यक्ष मृषा-भाषण
छे!!
आवी अनेक सैद्धान्तिक अने तार्किक वातो आलेखीने अहीं मूर्ति-लोपकोने तेमना कुतर्कोनो जवाब आपवामां आव्यो छे, जे घणो बोधक अने उपकारक छ ।
ज्यारे आ सत्पुरुषोए, वर्षों सुधी स्थानक-दीक्षा पाळवा पछी, घणा घणा मनोमन्थनने अन्ते सत्य समजायुं त्यारे, ते दीक्षा छोडी अने ते ज प्रदेशमां ते ज समाज वच्चे रहीने सत्यनी प्ररूपणा करवा मांडी, त्यारे तेमना पर अनेक जीवलेण उपद्रवो थया हता, अने वारंवार शास्त्रार्थ ने वाद-विवादो करवा पड्या हता । ते सन्दर्भमां आ 'चर्चा'ने मूलववानी छे । वळी, आजे पण केटलाक झनूनी, जूनवाणी अने कट्टरपन्थीओ मूर्ति-पूजाना निषेध माटे कमर कसीने प्रयत्नशील जोवा-जाणवा मळे छे, तेमना गलत प्रचारनी सामे आ 'चर्चा' खूब उपयोगी अने प्रतिकार- बळ आपनारी छ ।
आ ग्रन्थ कर्ताए स्वहस्ते लखेल प्रतिरूपे भावनगरना शेठ डोसाभाई अभेचंद जैन संघनी पेढीना ग्रन्थभण्डारमा छे । क्र. ४५६/१२. तेनी फोटो नकल त्यांना कार्यवाहकोए ४३ वर्ष पूर्वे आपेली, ते परथी आ सम्पादन करेल छ । ते संघनो आभारी छु । मूल प्रतिनी सुवाच्य सरस नकल साध्वी समयप्रज्ञाश्रीए करी आपी छ ।
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कुमती उथापण चरचा लिख्यते ॥
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मनोमती झूठी प्ररूपणा [क] है । तिणकौ मत दूर करणैकुं जैनमती कहै है । ढुंढियो कहै, 'हुं बत्तीस आगम मानु, और आगम न मानुं ।' सो प्रत्यक्ष मृषावादी है, जिनआज्ञाकौ उत्थापक है । इन कालेँ वर्त्तमांन पैतालीस आगम जो न मांनैं, तिरौं बत्तीस भी न मांन्या । फेर जो चउद पूर्वधारी श्रुतकेवली युगप्रधान गुरु श्री भद्रबाहुस्वामीकृत निर्युक्तिप्रमुख ग्रंथ न मानें, तिर्णै बत्तीस भी न मांन्या । उसकुं पूछणा, 'तुझकुं कैसा ज्ञान उपज्या जिणसैं ते बत्तीस साचा जाण्या ?, और झूठा जाण्या ?' तब ऊ कहै, 'म्हारी सरधासु बत्तीस मिलै, सो मानुं और न मानुं ।' तब उसकुं कहणा, 'तैं मनोमती है। जैनमती ही ज नही । तेरी संगति करणैवाला बापडा असमझ जीव घणुं संसारमै रडबडैगा । तै कहता है मै बत्तीस मानुं । बत्तीसामांहै तो नंदीसूत्र भी गिण्या है । अरु नंदीसूत्रमांहें प्रायें पैतालीसांका भी नाम लिख्या है । सो तै उत्थाप्या । तब नंदीसूत्र भी उत्थाप्यौ । तब बत्तीस तैं कहां मांन्या?। तैं प्रत्यक्ष मृषावादी ठहर्या कै सत्यवादी ठहर्या ? । फेर नंदीसूत्रमांहे चउद पूर्वधारी श्रुतकेवलीका वचन सुत्र कह्या । मानवा योग्य कह्या । अरु तें निर्युक्ति प्रमुख श्रुतकेवलीका वचन प्रायें सब उत्थाप्या तब तैं नंदीश्रु (सूत्र कहां मांन्यौ !' तथा श्रीभगवतीसुत्रै २५ में शतकें ३ उद्देशें
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सुत्तत्थो खलु पढमो बीओ निज्जुत्ति मि (मी) सिओ भणिओ । तइयो य निरवसेसो एस विही होई अणुओगे ॥१॥
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इत्यादि कह्यौ है | अरु नंदी अनुयोगद्वार मैं पिण ए पाठ है । तिहां निर्युक्ति प्रमुख सब उत्थाप्या । तब तैं भगवती, अनुयोगद्वार भी उत्थाप्या । इस वास्तैं तैं कहता है, मैं बत्तीस मानु सो बात मिथ्या है। जो बत्तीस मानैंगा सौ वै पैतालीसेई मांनेगा, अरु निर्युक्ति प्रमुख भी मानेंगा । ए वातमे संदेह नही । निश्चय कर जाणा । समकित होय सो समदृष्टियें विचारजिज्यो ।
तथा ढुंढियो कहै, 'प्रतिमामें भगवांनपणौ कहां है ? कि पूज्या ?' इसको उत्तर लिखै हैं। ‘“प्रतिमाजीमें साक्षात् भगवानपणौ नही है । परं भगवांनकी थापना है । च्यार निक्षेपा अनुयोगद्वार प्रमुख सुत्रमें कह्या है । नाम निक्षेपौ - १, थापना निक्षेपौ-२, द्रव्य निक्षेपौ - ३, भाव निक्षेपो - ४ । तथा ठाणांगादि सुत्रमांहे
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दसभेदे सत्य कयौं है। तिहां थापना सत्य पिण गिण्यो है। तीर्थंकरदेव गणधरदेव जिणकुं सत्य कहै तिणकु तै झूठ ठहिरानै । जैसो ऊणुंसें वधतां ज्ञान तेरेमें कहांसें प्रगट्या ? । तथा नाम निक्षेपौ ते मार्ने अरु थापना निक्षेपो न मानें ! थापनामै भगवानपणौ नही तौ नाममें भगवानपणौ कहां से आव्यौ ?। थापना उत्थापी तौ नाम भी मानणा तुझकुं योग्य नही है। तब तैं चउवीसा(स)त्थो किस वास्तै गुणता है ?। 'आधी रांड आधी सुहाग' - ए वालौ साग तैं भी आदर्यो । मत खेंचकरकै संसार समुद्र मैं क्यूं बूडता हैं ?। और असमझ जीवांकुं क्युं बोडै है?।
समदृष्टि कर भगवान की वाणी हृदयमें तो श्रीदसवैकालिक प्रमुख सुत्रमे कह्यौ है; "चित्रलिखि जिहां स्त्री होय तिहा पिण साधूकुं न रहणा' । उत्य स्त्रीमें तो स्त्रीपणौ कोई नही । साधूकुं उपसर्ग भी नही करती है। तो भगवानजी उहां रहणा क्यु वरज्या?। इसका परमार्थ ए है, उत्य स्त्रीकुं भी देख्यां विकार ऊपजे तिणमैं वरज्या है। जो उसाकुं देख्यां विकार उपजै हे; तौ भगवानकी प्रतिमा निरविकार महांसौम्य शांत मुद्रायें विराजमान सो देख्या हलूकर्मी जीवांकुं शांत भाव क्युं न ऊपजै? । प्रायें उपजै ही। जतनसें नाम जप्यां भगवान जैसै याद आवैते है, वैसै जिनप्रतिमा देख्यां भगवानको स्वरूप विशेषपणे याद आवै है। तिनसें जिनप्रतिमा भव्य जीवकुं महा उपगारको कारण है । इस वास्तै ही ज सुत्रां में ठाम ठांम 'जिनप्रतिमा जिन सारखी' कही है। सुत्रांकौ पाठ आगै लिखेंगे।"
परं; ढुंढियो कहै; "मैं बत्तीस आगम में और न मानु" । तिनकु पूछणा, "किणही स्त्रीकै भर्तार मर गयो । मट्टीको भर्तार बणायकै पास रख्या काम न सरै ? इत्यादिक दृष्टांत तें प्ररूपे हैं। सो बत्तीसामांहिलै किण सुत्रमें है? । सो हमारे ताई नाम बताय । अरु हमनें चित्रलिखित स्त्रीका दृष्टांत कह्या है, सो तो दसवैकालिक प्रमुख सुत्रनें(में) प्रगट है ते कह्या । जो दृष्टांत सो सुत्रामें नही है तै मन उठाया प्ररूपै है । तब तो तैं प्रत्यक्ष मृषावादी हैं । क्युं झूठी मन उठाई वात प्ररूपकै बापडां भौलां जीवांकुं दुर्गतिमें पाडै है ?। तथा तैं कहता हैं, आगे प्रतिमा किणे पूजी? श्री भगवतीसुत्रमांहे - 'तुंगिया नगरीके श्रावक साधुवंदनकुं गए तव ष्णान (स्नान) करी भगवानकी पूजा करकै पीछे गए' । भगवतीजी सुत्रमांहे 'हाया कयबलिकम्मा' - असो प्रगट पाठ है । बलिकर्म नाम पूजाको है । कदाचित् तें कहेंगा, उणें कुलदेवी पूजी । सो वात संभवै नही । उणें समकित उचर्यो तबही ज
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अन्य देवी-देवता प्रमुख सबकी पूजाकौ पच्चक्खाण कियौ है । देव-देवी कुं पूजते है सहायकै वास्तौ, उवै तिणहीकौ सहाय नही चाहते हैं । सुत्रमें 'असहिज' सो पाठ है।
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तथा उपासकदसा-सातमें अंगमें आनंदश्रावक समकित उचर्यो । तिहां अन्यमतीग्रही अरिहंत प्रतिमा वांदवी पूजवी निषेधी । तव अन्यमती न ग्रही जिनप्रतिमा वांदवा पूजवा योग्य ठहरी । औरौं उववाई उपांगमें अंबड श्रावककौ अलावौ पिण जाणौ । तथा रायपसेणीसुत्रमें सुद्ध समकिती एकावतारी सुरियाभदेव जिनप्रतिमां जल चंदन फूल धूप प्रमुखसे पूजी । उसका फल हित, सुख, मोक्ष सुत्रमे वखाण्या। औसै जीवाभिगमसुत्रमें विजयदेव पूजा करी
तथा द्रूपदी श्रीज्ञातासुत्रजीमें जिनप्रतिमा पूजी । जो अज्ञानी कदाग्रही द्रूपदीकुं मिथ्याती कहै, सो आप मिथ्याती है । भगवानके वचने द्रूपदी प्रगट समकितवंत थी । सुत्रमें प्रगट पांठ है। पूजा करकै नमोत्थुणं इत्यादिक शक्रस्तव कह्यौ । मिथ्याती होय तौ भावसें विधिपूर्वक जिनपूजा किस वास्तै करे ? 1 नमोत्थुणं किस वास्तै कहै ? | अन्यदेव पूजौ, अन्य देवकौ स्तुति करै ? तथा परण्यां पछै नारदऋषि देखणैकुं आया तव नारदकुं असंजत-अविरती जानकै वंदना - नमस्कार न कियौ । औसा सुत्रवचन उत्थापकर शुद्ध समकितवंत द्रूपदी श्राविकाकुं आपणौ मिथ्यामत थापणैकुं आपणै मुखसैं मिथ्यात्विणी ठहराय दैवै । औसा दुष्ट महापापी पाखंडियांकौ मुख देख्यां पाप लागै । औसा पाप्यांका वचन जे प्राणी अंगीकार करै तिणां बापडांका बहुत बुरा हाल होगा। घणा नरक निगोदका दुःख पावैंगें । उणां जीवां उपर बहुत करूणा आवती है।
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तथा उत्थापक कहै; 'साधु लब्धि फोरवै नही ।' सो मृषावादी है । जिनकल्पी साधु नही फोरवै । थिवरकल्पी साधु कोई कारणें लब्धि फोरवै, सो अधिकार श्री भगवतीसुत्रमें ठाम ठाम है। भगवान श्री महावीरस्वामीजी कल्पातीत थे । उणां भी दयाकै कारण लब्धि फोरवी सीतलेस्या मुंकी गोशालैनैं जलतैकुं बचायौ । ए अधिकार श्रीभगवतीजी सुत्रकै पनरमैं शतकें गोशालेकै अधिकारैं प्रगट पाठ है । तथा उहा ही ज कह्या है, सुमंगल साधुकुं गोशालैका जीव विमलवाहनराजा हुयकै उपसर्ग करैगा । तव साधु क्षमा करेंगे। फेर दूजी वेर उपसर्ग करै तव साधु ज्ञानोपयोगसें गोशालैका जीव जाण कैहैगे, अरे ! गोसाला !
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तेंने श्रीमहावीरस्वामीजीके दोय शिष्य तेजोलेश्यासें जलाए, तथा महावीरस्वामी सन्मुख तेजोलेस्या मुंकी । सौ उवै महाक्षमावंत थे। अपराध सह्या । परं मेरे (कुं) नही सह्या जाय । में तपतेजसें जलायकै भस्म कर दूंगा । इतना कह्यां पीछे फेर उपसर्ग करैगा । तव साधु तेजोलेस्यासें रथादि सहित राजाकुं बाल भस्म करेंगे । आप एकावतारीपणे सर्वार्थसिद्धविमान उपजैगे। जैसा श्रीभगवतीसुत्रमें १५ शतके पाठ है।
तथा श्रीभगवतीसुत्रजीकै बारमें शतकें नवमै उदेसें साधुकै वैक्रियलब्धि फोरवणेको अधिकार है । सो पाठ लिखत है -
_ 'भवियदव्वदेवाणं भंते ! किं एगत्तं पहू विउव्वित्तए ? पुहुत्तं पि पभू विउव्वित्तए ? । एगो० एगत्तंपि पभू विउव्वित्तए । पुहत्तंपि पभू विउव्वित्तए । एगत्तं विउव्वमाणे एगिदियरूवं जाव पंचिदियरूवं वा । पुहत्तं विउव्वमाणे एगिदियरूवाणि वा जाव पंचिंदियरूवाणि वा। ताई संखिज्जाणि वा असंखिज्जाणि वा, संबद्धाणि वा असंबद्धाणि वा, सरिसाणि वा असरिसाणि वा विउव्वित्तए । विउव्वित्ता तओ पच्छा अप्पणो जहिच्छियाई कज्जाइं करेति । एवं नरदेवावि धम्मदेवावि । देवाहिदेवाणं पुच्छा । गो० एगत्तंपि पभू विउव्वित्तए पुहत्तंपि प(भू) विउ(व्वि)त्तए नो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा । विउव्वंत्ति वा विउव्विस्संति वा। भावदेवाणं पुच्छा, जहा भवियदव्वदेवाणं ।' इत्यादि ।
. इहां पिन साधु वैक्रियलब्धि फोरवी मन चाह्या काम करै । ए प्रगट पाठ है। तथा भगवतीसूत्रमें जंघाचारण विद्याचारण साधूकै प्रगट लब्धि फोरणैको पाठ है। जैसे पन्नवना उपंगमें साधू आहारकलब्धि फोरवै । एक भवे २ वार सर्व भवें ४ वार जैसा प्रगट पाठ है। तिणसें साधु लब्धि [न] फोरवै जैसी वात कहै, सो बहुत झूठा है । कारण फोरवै । भगवांन पधारै तब देवता त्रिगडो रचै, ए अधिकार आवश्यकमें विस्तारसैं है । सो पाठ लिखें है :
'जत्थ अपुव्वोसरणं, जत्थ व देवो महिड्डिओ एति । वाउदयपुप्फवद्दलपागारतियं च अभिओगा ॥१॥ मणि-कणग-रयणचित्तं भूमीभागं समंतओ सुरेहिं । आजोयणंतरेणं, करेंति देवा विचित्तं तु ॥२॥
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वेंटत्थाई सुरेहिं जलथलयं दिव्वकुसुमनीहारिं । पयरंति समन्तेणं दसद्धवन्नं कुसुमवासं ॥३॥ मणिकणगरयणचित्तं चउद्दिसि तोरणे विउव्वंति । सच्छत्तसालभंजिय-मयरद्धयचिंघसंठाणे ॥४॥ तिण्णि य पायारवरे रयणविचित्ते तहिं सुरगणिंदा । मणिकंचणकविसीसग,-विभूसिए ते विउव्वेंति ॥५॥ अब्भंतर-मज्झ-बहि, विमाणजोइभवणाहिवकयाउ। पागारा तिण्णि भवे रयणे-कणगे य रयणे य ॥६॥ इत्यादि आयाहिण पुव्वमुहो तिदिसि पडिरूवगा उ देवकया ।
जेट्ठगणी अण्णो वा दाहिणपुव्वे अदूरंमि ॥ इत्यादिक पाठ जाणिवौ।
श्री महावीरस्वामीजीकै सातमै पाठे(टैं) श्री भद्रबाहुस्वामी श्रुतकेवली चउदैद्दे पूर्वधारी दशाश्रुतस्कंध, व्यवहार, बृहत्कल्पप्रमुख सुत्रकर्ता आचार्यै आवश्यक-नियुक्तिमें ए त्रिगडैको अधिकार प्रगटपणै कह्यौ है । बत्तीससुत्र मानेगा सो ए भी मानेंगा । बत्तीसांमें नियुक्ति सकारी है । सो पाठ प्रथम लिख्यौ है। तथा श्री महावीरस्वामी एक रातिमैं अडतालीस कोस विहार करी मज्झिमाया पावापुरी आए । इसकौ पाठ आवश्यकनियुक्तिसुत्रमैं तौ इतनो है -
उप्पण्णंमि अणंते नटुंमि य छाउमत्थिए नाणे । राईए संपत्तो महसेणवणंमि उज्जाणे ॥१॥ अमरनररायमहिओ पत्तो धम्मवरचक्कवट्टित्तं ।
बीयंपि समोसरणं पावाए मज्झिमाए उ॥२॥ इसकै अर्थमे लिख्यौ है । ततो द्वादशयोजनेषु मध्यमापुरी इत्यादि । तिणसैं बारै योजनका अडतालीस कोस भया । चूंभिक गांमसें पावापुरी ४८ स कोस है। पूर्व देसमें प्रसिद्ध है। इस वातमैं संदेह नहीं है। पावापुरी क्षत्रियकुंडग्राम कुम्मारगाम प्रमुख सब ठिकाणा प्राय देख आए है ।२। साधु लब्धि फोरवै सो अधिकार भगवतीजी प्रमुख बहुत शास्त्रांमें है। सो पाठ पहिली पानांमे लिख्यौ है ।३। तथा श्री महावीरस्वामी छद्मस्थपणैमैं मूलगा मौनपणै कोई रह्या नही । बहुत तौ मौनपण रह्या है। जरूर काम पड्यां दोय च्यारवार बोल्या भी है। श्री
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आचारांगसुत्रे प्रथम श्रुतखंधै नवमें अध्ययने श्रीमहावीरस्वामीजीकी छद्मस्थ्यावस्था अधिकारें 'अबहुवाई' जैसो पाठ है। अबहुभाषीत्यर्थः ।४।
जिनमंदिर जिनप्रतिमा करायां का बहुडा लाभ है। थोडा दोष शास्त्रमें कह्या है। श्रीमहानिशीथ सुत्रका पाठ लिखै है -
काऊण जिणाययणेहिं मंडियं सव्वमेइणीपीठं ।
दाणाइ चउक्केणं सड्ढो गच्छिज्ज अच्चुअं जाव ॥१॥ इत्यादि तथा आवश्यकनियुक्तिमें भी बंदनाध्ययनें कह्यौ है । -
अकसिणपवत्तयाणं विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणुकरणे दव्वय एक्कव दिटुंतो ॥१॥
एस त्ति जिनगृहनिर्माणादिद्रव्यपूजाविधिरित्यर्थः । आवश्यकनियुक्तिमें तथा चूर्णिमें वग्गुरसेश्री महावीरस्वामीजी विद्यमान थकां श्रीमल्लिनाथजीको देहरौ पड गयो थो, उसको जीर्णोद्धार करायौ । प्रतिमाजी पूज्या । एक दिन पुरमतालनगर (बा)हिर वीरस्वामी छद्मस्थपणे काउसग्ग रह्या । ईशानेन्द्र बांदण आयो । वग्गुरसेठ बगीचैमै जिनपूजा करण जातौ थौ । भगवानकी खबर नही पडी । पास हुय नीकल्यौ । तव ईशानेंद्र कह्यौ, 'अहो ! वग्गुर ! तुझकुं प्रत्यक्ष तीर्थंकर दिखाउं । प्रथम ईणांकी भक्ति महिमा करकै पछै प्रतिमाजी पूजजे ।' जैसा इंद्रका वचन सुणकै प्रथम वीरस्वामीजीकी महिमा करकै पीछे प्रतिमाजी पूज्या । तिणकौ पाठ संक्षेप लिखे हैं -
तत्तो य पुरिमताले वग्गुर ईसाण अच्चए पडिमा ।
मल्लिजिणाण य पडिमा उण्णाए तंतु बहुमुठ्ठी ॥१॥
इसकौ अर्थ चूर्णिकार श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणे(?) विस्तारसें कियो है। तिणकौ भावार्थ तौ इहा लिख दीयो है। पाठ बहुत है, तिणसै नही लिख्यौ है । तथा आवश्यकनियुक्तिमैं अष्टापदतीर्थ उपर भरतचक्रवर्ति २४ भगवानको करायौ, भाया का धुंभ कराया, जैसो अधिकार है । सो पाठ लिखै है -
थूभसय भाउआणं चाउवीसं च जिणहरे कासीं। सव्वजिणाणं पडिमा वण्णपमाणेहिं नियएहिं ॥१॥
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आयंसघरपवेसो भरहे पडणं च अंगुलीयस्स ।
साणं तुम्मुयणं संवेगो नाण दिक्खा य ॥२॥ इत्यादि ॥
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तथा श्रीगौतमस्वामी अष्टापदपर्वत चड्या, जिनप्रतिमा वांदी । पनरैसै तीन तापस प्रतिबोध्या । ए अधिकार दसवैकालिकनिर्युक्तिप्रमुख सुत्रांमें है । उहांको संक्षेपें पाठ लिखे हे -
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सोऊण तं भगवओ गच्छइ तहिं गोयमो पहियकित्ती ।
आरुहई अ नगवरं पडिमाओ वंदइ जिणाणं ॥ १ ॥ इत्यादि । श्री भगवतीसुत्रमें 'चिरपरिचिओसि गोयमा' इत्यादिक पाठमै पिण ए अधिकार सूचव्यौ है । टीकाकारजी खोलकै लिख्यौ है । सो अधिकार बहुत 1 है I तसैं नही लिख्यौ है ।
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तथा जिनप्रतिमा जिनसारखीको अधिकार ठाम ठाम है, सो लिखे है - रायपसेणीसुत्र मध्ये सुरियाभदेवता एकावतारी समकिती श्रावक जिनप्रतिमा पूजी तिहां 'धूवं दाऊण जिनवराणं' असो पाठ है । गणधरदेवजी जिनप्रतिमाकुं जिनवर कहि बोलाया तब जिनप्रतिमा जिन सरिखी हुई नही ?, विचार जोज्यो । तथा ऊवाईसुत्र मध्ये तीर्थंकर वांद्याकौ फल- 'हियाए सुहाए खमाए निस्सेयस्साए आणुगामिअत्ताए भविस्सई' औसो कह्यो है । यो ही ज फल रायप्पसेणी मध्ये प्रतिमा पूज्याकौ कह्यौ । तब जिनप्रतिमा जिनसारखी क्युं नही ? | तथा ज्ञातासुत्रमध्ये द्रूपदीके अधिकारैं 'जेणेंव जिणघरै तेणेव उवागच्छइ' - असो पाठ है । इसको अर्थ विचारज्यौ । जिन कहियै तीर्थंकर, तिणांकौ घर कहियै मंदिर अर्थात् देहरौ तिहां जायै । उस मंदिरमै भगवान तौ नही बैठे है, प्रतिमाजी है । तिणकुं सुत्रकारजी जिनघर कह्यौ । जिनप्रतिमा जिनसारखी न हुवै तो जिणहर क्युं कहै ? मृषावाददोष लागै ।
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तथा भगवतीसुत्रमध्ये चमरेन्द्रकै अधिकारैं तीन शरना कह्या । अरिहंतजीका - १, अरिहंतप्रतिमाजीका - २, भावितात्मा साधूजी का - ३ । अरु आसातना २ ही । अरिहंतजीकी - १ अरु साधूजी - २ । जिनप्रतिमा जिनसारखी है । तिणसें जिनप्रतिमाकी आसातना सो जिनकी आसातना है । इस वास्तै २ गिणी है । श्रीभगवतीसुत्रकै संक्षेपैं पाठ लिखे है ।
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किंनिस्साए णं भंते ! असु(र) कुमारा देवा उड्डुं उप्पयंति० जाव सोहम्मो कप्पो ?, गोयमा ! असुरकुमार देवा० इत्यादि, नण्णत्थ अरिहंते वा - १, अरिहंतचेइयाणि वा - २, अणगारे वा भावियप्पणो - ३, निस्साए उइढं उप्पयंति० जाव सोहम्मो कप्पो । त महादुक्खं खलु तहा-रूवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए त्ति कट्टु ॥
इत्यादिक पाठ जाणणा उ ।
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तथा केवलज्ञानीजी केवल उपज्या पछै पिण आहार करै । उत्कृष्टा नव वरस ऊणा कोडाकोडिपूर्व केवलज्ञानी जीवै । आहार विगर इतनौ काल औदारिकशरीर कैसे चलै ? वेदनीकर्मको उदै हैई ज । तैजसंसरीर आहार पचावणैवालौ हैई ज | आहारकी तृष्णा कोई है नही, क्षुध्या वेदनी उपसमावणैकुं आहार लेते है | ज्ञानगुण अनंत प्रगट्यौ है । सो आतमाको गुण है । सरीर नवो कोई हुवो नही | पुद्गलरूप है । इस वास्तै केवलज्ञानी आहार करते है । अणसण संथारौ करैके तव आहारकौ सर्वथा त्याग करै सो सुत्रांमैं ठाम ठाम अधिकार है। तीर्थंकर महाराज केवलज्ञांन उपज्यां पछै आहार तौ करै परं, आप लैणेकुं न जाय। आहारके दूषण टालणैकु महाउपयोगी चउदपूर्वधारी प्रमुख साधू आहार ल्याय देवै। श्री भगवतीसुत्रमें पनरमें शतकै सींहै अणगार श्रीमहावीरस्वामिजीकुं रेवतीश्राविकाकै घरसैं बीजोरापाक ल्याय दियो है, इत्यादिक अधिकार प्रसिद्ध है ।
सामान्यकेवलीकै शिष्य उपयोगी हुवै तो सो आहार ल्याय देवै । नही तो, आपही ल्यावै । तथा शिष्यकुं केवल उपज्यौ हुवैं गुरुकुं खबर न हुवै तौ गुरु न जांणै तां लगै केवली शिष्य गुरुकुं आहार ल्याय देवै । जेसें पुष्पचूला आर्या अन्नकासुत आचार्यांकु आहार दियौ । इहां महानिसीथकी साख लिखी है । तथा आवश्यक निर्युक्ति दसवैकालिकनिर्युक्तिकी साख लिखी है । सो बत्तीससुत्रांक अनुसारै लिखी है । नंदीसुत्रमें माहानिशीथ गिण्यौ है । तथा नियुक्ति चूर्णि भगवतीजी प्रमुख में गिण्या है | तिणसैं बत्तीस मांनैगा, सो इणकुं भी मांनैगा । अरु इणांकुं न मानैं अरु कहै मैं बत्तीस मांनता हुं, सो प्रत्यक्ष मृषावादी है । जिनसासनकौ चोर है। उसकी संगति करेंगे, सो बापडा बहुत भवसमुद्रमैं बूडैं ।
ते तथा शत्रुंजय विमलाचलतीर्थ ऊपर थावच्चापुत्रजी शुकजी हजार
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हजार परिवारसे मुक्ति गया। सेलगजी ५०० साधु साथे अरु पांच पांडव प्रमुख मुक्ति गए । इत्यादिक अधिकार ज्ञातासुत्रप्रमुखसे प्रगट पाठ है। शेजै महातममैं विस्तारसैं है। सो जाणोगे । तथा अनुयोगद्वारसुत्र मध्ये भावश्रुते निश्चे निक्षेपाधिकारें 'महिय पूइय' शब्दें करी समवसरणमें विराजमान भावजिन सुर असुर नर विद्याधरे भावें तथा द्रव्य पूज्या कह्या है । सो पाठ लिखें है । ‘से किं तं लोगुत्तरियं नोआगमओ भावसुयं ? - जं इमं अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पन्न[ना]ण दंसणधरेहि तीयपडुप्पन्नमणागय जाणएहिं तेलोक्कमहियेहिं [सव्वन्नूहि] सव्वदरिसीहिं पणीयं दुवालसंगं गणिपिडगमित्यादि ।' इसको अर्थ विस्तारें टीकासें जाणज्यो । तथा खंधेकजीके अधिकारै 'हियाए सुहाए' इत्यादि पाठ सुरियाभके पूजाफलपाठसैं मिलाय कैजो । ढुंढियौ इह भवको फल कहै है सो महामूर्ख दीसै है। उ दृष्टांत इहा कुछ भी मिलै नही । धनसें तौ इहभवका फल हित-सुखादिक प्रगट दीसै है। अरु पूजासें सूरियाभदेवताकुं इहभवको फल हित-सुखादि कह्या हुवो फेर ढुंढियाके मतसे देखीजे तब तौं पूजाका फल हित-सुखादिक संभवै ई कोई नही। पूजाकुं तो पापरूप कहै है । पापसें हित-सुख कहा से होगा? । इस वास्तै इहभवका फल कहे सो वात सर्वथा झूठी कहै है । अरु भगवानकै मतसे देखीजै तव पूजासें इहभवमांहें सुद्ध परिणामकै जोगसें शुभकर्मको बंध, अशुभकर्मकी निर्जरा यह फल है । सो हित-सुख्यादिकको कारण है । परभवमांहै सुखकीबोधिबीजकी प्राप्ति परागे मोक्षनी प्राप्ति फल है। निःश्रेयसं नाम मोक्षक ही ज। शास्त्रमें ओर अर्थ नही । खंधैजीके अधिकारे धनको दृष्टांत कह्यौ है । तिहां पिण मोक्षको अर्थ है।
मोक्षका निक्षेपांके अधिकारें द्रव्यमोक्ष-१ भावमोक्ष-२ कह्या है। तिहां द्रव्यमोक्ष ऋण-भोक्षादिक जाणवो । भावमोक्ष सर्वकर्मक्षय रूप जाणो । तिहां खंधैजीके अधिकारे गृहस्थकुं धनसें मोक्ष कह्यो है । सुरियाभकुं पूजासें भवांतरे भावमोक्ष कह्यौ है। इस तरै सर्व जगग(ह) मोक्षको अर्थ जाणज्यो।
फेर कुमती कहै, "सुरियाभकै अधिकारै पेच्च शब्द न कह्यौ तिणसे हुं इहभवको अर्थ करूं छु ।" तिणकुं जैसा कहणा, पेच्चा शब्दको निश्चय कोई नही। कहा ई होय कहां ई न होय । जो ते निश्चय कहेगो तो ठाणांगसुत्रमांहे तीर्जें ठांणे चउथे उदेसे साधूके पंचमहाव्रतादि पालणेका फल 'हिएओ सुहाए' इत्यादिक
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अनुसन्धान-७५(२)
कह्या है तिहा पिच्चा शब्द है नही, तो उहांभी इहभवको फल होगो । परभवका नही होगा । ए वात प्रतक्ष-विरुद्ध है । इस वास्तै विद्यमान तीर्थंकर वंदन पूजनादिकका फल तथा पंचमहाव्रतपालणका फल सुत्रमें 'हिआ सुहाए' - इत्यादि कह्या हैं । सोई फल सुरियाभ अधिकारें जाणवा । पिण धनका दृष्टांत कहै सो खोटा है। मिलै कोई नही।
तथा जैन अनेकांत मार्ग है । कोईक नयसे मिलावां तौ यौ भी दृष्टांत मि[ल] जाय । फेर कहता है, जिहां 'पुव्वं पच्छा' पाठ छै, तिहां इहभवनो ही ज अर्थ छै, परभवनों न ही, सो वात झूठी है। श्रीआचारांगसुत्रे ४ अध्ययनें ४ उदेशें - 'जस्स नत्थि पुरो पच्छा' जैसो पाठ है। तहां पूर्वभव पछलाभव को अर्थ कह्यौ
है।
संवत १९०९ मिति पोस शुदि १३ को संपूर्णम् लिखतं वृधिचंद्रने ॥ श्री श्री १०८ स्वामीजी सिरोमणि तपोधन श्रीबूटेरायजीके प्रसादेन ॥
श्रीरस्तू । कल्पानमस्तू ॥ श्री। श्री। श्री। श्री ॥
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