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ठवइ बलिं उच्चत्तइ पिढराइ तिहाइ सपच्चवायं जो । दिंतेसु एवमाईसु ओहेण मुणी न गिण्हंति ॥८७॥
अनुसन्धान- ७५ (२)
तथा जे स्त्री विहरावती बलि अग्रभक्त-उपलुं भात थोडिस्यिउं राखती हुइ ते न सूझ । तथा जे स्त्री उच्चत्तइ-भाजन नमाडीनइ विहरावइ । तथा जे स्त्री हुई त्रिधा - त्रिहुं प्रकारे ऊपरि हेठिलि अनइं विचालई काष्ट कंटक गर्विक थिकउ अनर्थ ऊपजतउ जाणीइ, तेहनइ हाथि विहरिडं न सूझइं । एन्हाहार देणहारनउ हाथिर्इं महात्माइं सर्वथा विहरिवउ वर्जिवउं । एह भणी जेहनइ हाथिई विहरी, तेहनइ मेल महात्माइ घणउ चींतविउ जोईइ । एतलई छठउ दायक दोष कहिउ
॥८६॥
हिव सातमउ उन्मिश्रदोष वखाणइ छइ
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जुग्गमजुग्गं च दुवे वि मिस्सिउं देइ जं तमुम्मीसं ।
इह पुण सचित्तमीसं न कप्पमियरम्मि उ विभासा ॥८७॥ (८८)
जुग्ग० I जे वस्तु महात्माहुइं योग्य अथवा अयोग्य कल्पतरं अनइ अकल्पतरं जे हुइ ते बिन्हइ एकठा भेलीनइ दिइ । थोडा भणी अथवा ऊतावलिइं अथवा राग द्वेषनइ भाविई करी एकठा मेलइ, ते उन्मिश्र कहीइ । ईहाई संहृतदोषनी परिइं च्यारि भांगा ऊपजइं । तेहमाहि सचित्तिई करी जे एकठउ - भेलिउं हुइ ते महात्मानइ विहरिउं न सूझइ । अनइ अचित्तिई करी जे भेलिउं हुइ तेहनउ विकल्प जाणिवउ | जीणइं भेलिई आहार शरीरहुई अवगुणकारिउ न थाइ ते कल्पइं । जीणइ भेलिइं अवगुण ऊपजइ ते न कल्पइ । एतलई सातमउ उन्मिश्रदोष कहिउ ॥८७॥
हिव आठमउ अपरिणतदोष वखाणइ छइ
अपरिणयं दव्वं चिअ भावो वा दुण्ह दाणमेगस्स । जो वेगस्स मणो सुद्धं नन्नस्स परिणमियं ॥८८॥ (८९)
अपरि० ॥ अपरिणत बिहुं प्रकारे हुइ । एक द्रव्य आश्री अपरिणत -१, बीजू भाव (आ) श्री अपरिणत २ । तथा द्रव्यआश्री अपरिणत कांई सचित्तादिक वस्तु फासू कीधुं हुई, पुण परिणमिउं न हुइ । अथवा अपरिणत - फासू न हुइ यि सचित्तजि हुइ ते अपरिणत कहीइ । ए पहिलउ भांगउ तथा विहरावणहार