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सप्टेम्बर २०१८
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कृपणको अंग
मांगण आवत देख रहे महि गोई रे, जदपि हे बहु दांम कांम कहै लोई रे भूखां भोजन देय न नंगा कपडा, विण बोया बाजिंद लुणे क्या बप्पडा ||४६|| भले बुरे कों कोय न दमडी देत है, माया वस बाजिंद कृपण को होत है पाहन को सो हीयो कीयो बउ जंन रे, गुणीजन गावो को न रीझे भल्ल रे ॥४७॥ सुपन आपने हाथ न कोई ज चवै, जो पगे घूघरा बांधी विधाता नचवै हाड गुड दकै मांजुन निकसै लोय रे, दान पून्य बाजिंद करै को कोय रे ॥४८॥ कहां लूं खोदे कोय निपट ही दूर है, आ मांणस कैं काम सुतो नही मूर है बैठेही यै हार करै जण आस रे, कृपण माया धरै जाय जल पास रे ॥४९॥ इत उत चलै न चित्त नित्य ढिग रहेत हे, दान पुन्यकी बात मुख नहीं कहत है छाती तरह धंन देखउ सुपनै, मानउ ईंडा पंखही सेवही अपनै ॥५०॥ चूको भारी घात दुहाई रामकी, तलै न जाती वीर दियैही हाथकी
पांहणको सौही यो कीयो अन्य लोय रे, विन बोये बाजिंद लुणै कहौ रोय रे ॥५१॥ मन राखत दिन रेंन मुलक अर मालमें, तो पिण पर्यो बाजिंद काल के गाल में फिर फिर गाढे गहै देख तन सुरंग रे, खालउ लेहै खोस न जैहे संग रे ॥५२॥ चोकी पहेरा देत दिवस अर रात है, जल अंजलि को वीर वेर नहीं जात है हांडी मारके हाथ नही से छूटही, चोर लिये चमकाय कै राजा लूटही ॥५३॥ निशि वासर बाजिंद संचै धन वावरे, सांज परी जब वीर कहां तब तोवरे कीरी कीयै कलेस ब्रथा ही लोय रे, तितर तील चूग गये कहत सब कोय रे ॥५४॥ अहो न विचमांरो रात वात तूम अपने, कृपणको धन माल न देखो सूपनै यूं कठोरकी वसत सुखें को लेत है, बिन मार्ये बाजिंद तरण फल देत है ॥५५॥ जूठी तुही कही सत्त सुण लोय रे, मन गाढो कर रह्यो न मांगे कोय रे करपण अपने हाथ न कोउ देयगे, मिन माथै है सर्प मार कोउ लेयगे ॥५६॥ ईनको योही अर्थ जु कोउ जांणही, दुसरी बातको वीर हिरदे क्यों आंणही मधमाखीयै संच्यो दिन हसि खेलकै, लोक वटाउ लेह धूर मुख मैलके ॥५७॥