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अनुसन्धान-७५(२)
सकल साज घरमांहि जडि जीव यूं बूझ ही, घोर अंधेरी रेन नेन नही सूझ हीं ला. लीजै कहां ढूंढे फिर आव ही, कर दीनो दोय तबे कछू पाव हीं ॥३३॥ परमेसरके जीव प्रीतसूं पूज रे, अतीत अभ्यागत देख न आणी दूज रे गरदमां जहै मरद फेर नही चूस रे, अपनी शक्ति समान मेल कळु मुष रे ॥३४॥ देह दाहिणे हाथ लहै सोई लख रे, तूं जाणे जीन दूर धर्यो हे कख रे सांई अपनो जानि सबनको सींचीयै, माया मुक्ती राखी हाथ क्यों भीचिये ॥३५॥ पोंन हूं न लागे ताहि तहां लेगो वई, रीते हाथ जु जात जगत सब जोवई आ माया बाजिंद चलत कहां साथ रे, वहै तै पांणी वीर पखालौ हाथ रे ॥३६॥ बार्जिद कहे पुकार शिषय सून रे, आडा वां की बेर आय हे पुन्य रे अपनो पेट अग्यांन वडो क्यों कीजिये, सामां हीते कोर ओरकों दीजिये ॥३७॥ धन तो सोहि जाण धणीके अर्थ हे, बाकी माया वीर कहैको गरथ है । ज्युं विलगी त्युं तोरी नेन भरही जोण रे, चढे पाहणकी नांव पार गये कोंण रे ॥३८|| जब होहिं कछु गांठि खोलीके दीजिये, सांई सबमें आप नहीं क्यों कीजिये जा को ता को सूपि क्युं न सुख सोईये, अंत लुणै बाजिंद खेत ज्युं बोईये ।।३९।। अरथ लगावहो राम दाम तूम अपने, विछर मिलण न होय भया सून सुपनै माया चलती वेर कहो कुंण पक्करी, खोखी हांडी हाथ भारो ओक लक्करी ॥४०॥ माया मुक्ती राखी संग्रहै कोणकों, बाजिंद मूठी ओक धूल लगी है पौंनकों गहेरे गाडे दाम काम किहीं आवही, लोग वटाउ वीर खोदकै खावही ॥४१॥ धरम करत बाजिंद वेर क्यों कीजिये, दुनिया वदलै दिन वेगि उठी लीजिये भरी भरी डारो बाथ नाथ के नांव रे, जड काट्यां फल होय कहत सब गांव रे ॥४२॥ गहेरी राखी गोई कहै कही कांमको, ओ माया बाजिंद समरवो रांमको काया नगरया मेल पुकारै दास रे, फूल धूलमें ही धरै निकटै वास रे ॥४३॥ बैठा करो पुन्य दांन बेर क्यों वणत है, दिवस घडी पल जांम सूजों रा गणत है तो मुख पर दे थाप सुजस सब लूट है, जल जालमें परि वीर जीवनही छूट है॥४४॥ जब मूओ ते गओ जेउं ते जायगे, धन संचित दिन रेण कहो कयुं खायगे यों तन हेम ही मांन दुहाई रांमकी, दे ले खरचो खाई धरी कहीं कांमकी ॥४५॥