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________________ १२४ जेहवे संगे जेहवो, ते नर मध्यम होय, अति धर्मी अति पातकी, ते तो फिरे न कोय अतिसे पापी पाप-रत, रहे सुपर्वे जेम, अनुसन्धान-७५ (२) प्रशंसिये कुगुरुपिण, जसु मोहादिक देख, सुगुरु- परि भविजीव के, थाये भगति विशेष २८ ३४ पाप कुपर्वे धर्मथी, धन्य चले जही तेम लक्ष्मी दो विध एक तो, नर - गुण - धण (न) - क्षयकार, एक दीपावे पुरुष कुं, पाप-पुन्य-अनुसार भाट थया गुरु श्राद्धने, स्तवी लेत दानादि, तत्त्व-अजाणद्ध ए बूडे, दुसमसमये प्राि मिच्छप्रवाहे रत घणा, लोक स्तोक संबुद्ध, गारवि रस- लंपट गुरु, गोपे धर्म विसुद्ध अरिहंत देव सुगुरु गुरु, नाम मात्र सवि कहत, ताके सुभग सुरूप कुं, पुण्यहीण नही लहत सुद्ध जिनाज्ञारत हुवे, केई खलने शिरसूल, जेहने ते शिरसूल फुन्, ते गुरु सठ-अनुकूल गुरु अकार्य हा ! नहि घ (ध) णी, करिये कहा पुकार ?, सुगुरु श्राद्ध जिनवचन कह (हा ) ?, कहा अकार्य असार ? ३५ साप देख नासे कुई, लोक कहे कछु नाहि, कुगुरु साथी जे नसे, मूढ कहे खलताही एक मरण कुं साप दे, कुगुरु मरण अनंत, श्रेष्ठ साप ग्रहवुं तदा, कुगुरु सेव नहि संत ! जिण - आज्ञाथी रहितने, गुरु कहि जो शिर नाय', गडर"-प्रवाहे जण छल्यो, तो सु करिये भाव (य)? लोक अदाक्षणि(क्षिण) कोई जो, मागे रूटिया ११ - भाग, कुगुरु-‍ - संग - त्यागन - विषे, दाक्षणता धिग ! राग नाखे नरके मुग्ध जन, जे देखाडि मुनिवेष, ते हताश खल धीठने, कहिये किसुं विशेष ? ३८ ३९ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३६ ३७ ४० ४१
SR No.520577
Book TitleAnusandhan 2018 11 SrNo 75 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages338
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size22 MB
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