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________________ १३० धर्मार्थि दूषम समें, दुल(र्लभ साधुने श्राद्ध, नाम-साधु-श्रावक बहु, दृग-रागादि-सबाध सुध धर्मनी वात पिण, धनने रति उपजाय, मिथ्या - मोहित मूढने, मिथ्यात्वे रति थाय जिन-मत- जाण विमल-हिये, तास एक गुरु दुख, धर्म कहीने सेवतो, पाप प्रते जो मुख महाभाग जिनवचन - रत, संवेगी भवभीत, विरला जे सम सक्तिये, व्रत पाले श्रुत-रीत इक धुरि विण सर्वांग पिण, शकट जेम न चलंत, ते धर्म-मंडाण सब, विन समकित न फलंत धर्मतत्व श्रुत आत्महित, अहित न जाणे जेह, अजां पर रोष किम, जिनमत - कुसल करेह जसु वैरी निज आतमा, तसु पर दया न होय, याचक चोर तणो ईहां, उदाहरण जग जोय जे छे राज-धनादिनो, हेतु - भूत - व्यापार, ते अति पाप वणिज तजे, उत्तम भवभीतार मोहित धन स्वजनादिके, लुब्ध सत्त्व करि हीण, पाप भजे व्यापार मे, मध्यम - पेटाधीन अनुसन्धान- ७५ (२) अधम अधम कारण विना, करि अज्ञान - अभिमान, जे उत्श्रुत भाषन करे, धिग् ! धिग् ! तेहनो ज्ञान जीव मरीची वीरनो, उत्श्रुत-लेस - उच्चार, सागर कोडाकोडी जो, भमियो भवकांतार वार वार ए श्रुत-वचन, सांभलि जो तोहेय, सेवे बहु उत्सूत्र - पद, दोस न मांने जेय तसु जिनधर्म किहां नथी, ज्ञान सु-दुख वैराग, कूट - मान पंडित - नटित, नरके खेलत फाग जे बांध्या खल कर्म करि, ते सबही के थाय, हित - उपदेश सुदोषमय, 'बहु मा भण' इण न्याय ११२ ११३ ११४ ११५ ११६ ११७ ११८ ११९ १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५
SR No.520577
Book TitleAnusandhan 2018 11 SrNo 75 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages338
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size22 MB
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