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धर्मार्थि दूषम समें, दुल(र्लभ साधुने श्राद्ध, नाम-साधु-श्रावक बहु, दृग-रागादि-सबाध सुध धर्मनी वात पिण, धनने रति उपजाय, मिथ्या - मोहित मूढने, मिथ्यात्वे रति थाय जिन-मत- जाण विमल-हिये, तास एक गुरु दुख, धर्म कहीने सेवतो, पाप प्रते जो मुख महाभाग जिनवचन - रत, संवेगी भवभीत, विरला जे सम सक्तिये, व्रत पाले श्रुत-रीत इक धुरि विण सर्वांग पिण, शकट जेम न चलंत, ते धर्म-मंडाण सब, विन समकित न फलंत धर्मतत्व श्रुत आत्महित, अहित न जाणे जेह,
अजां पर रोष किम, जिनमत - कुसल करेह जसु वैरी निज आतमा, तसु पर दया न होय, याचक चोर तणो ईहां, उदाहरण जग जोय जे छे राज-धनादिनो, हेतु - भूत - व्यापार, ते अति पाप वणिज तजे, उत्तम भवभीतार मोहित धन स्वजनादिके, लुब्ध सत्त्व करि हीण, पाप भजे व्यापार मे, मध्यम - पेटाधीन
अनुसन्धान- ७५ (२)
अधम अधम कारण विना, करि अज्ञान - अभिमान, जे उत्श्रुत भाषन करे, धिग् ! धिग् ! तेहनो ज्ञान जीव मरीची वीरनो, उत्श्रुत-लेस - उच्चार, सागर कोडाकोडी जो, भमियो भवकांतार वार वार ए श्रुत-वचन, सांभलि जो तोहेय, सेवे बहु उत्सूत्र - पद, दोस न मांने जेय तसु जिनधर्म किहां नथी, ज्ञान सु-दुख वैराग, कूट - मान पंडित - नटित, नरके खेलत फाग
जे बांध्या खल कर्म करि, ते सबही के थाय, हित - उपदेश सुदोषमय, 'बहु मा भण' इण न्याय
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