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सप्टेम्बर - २०१८
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बुद्धिनइ विशेषिइ करी किवारइ निरतउ प्रकासणउ न हुइ तेह भणी सिद्धांतनइ जाण आचार्ये ए ग्रंथ सोधवउ । इम श्रीजिनवल्लभसूरि सिद्धांतना जाणइ निगर्व बोलइ छई । इसू जाणिवउं ।१०३। इति श्रीजिनवल्लभसूरिविरचित पिंडव(वि)सुद्धि-प्रकरणस्यार्थो बालाविबोधरूपः । इति संवत्सरेऽस्मिन् विक्रमार्के रूप५-वसु८-षट्६-चंद्रे१ कार्तिकमासे शुक्लपक्षे तृदशायां दिने लाभपुरमध्ये लिखितमिदं पुस्तकं ताराचंदर्षिणा पाठणार्थं भूयात् ।
श्रेयमस्तु ।। श्री।। श्री।। श्री॥
केटलाक शब्दो
जूजूयां आपहिणी विहिरिंउं प्रीसणउ
वटेवाहू
विहाणा
गाढा
पाटहू वेढउ पालि बिन्हई
जुदाजुद्दां आपे - पोते ज वहोर्यु - ग्रहण कर्यु पीरसवं वटेमागु वहा[-सवार गाढ-प्रबल पाटना-गादीना घेरो घाल्यो पल्ली-चोरोनी वसाहत बन्ने गुप्तचर मर्द ओघथी-सामान्यथी वहोराववानो व्यक्त-साचुं अभिज्ञान-चिह्न शुद्ध-कल्पे तेवू अशुद्ध-न कल्पतुं निक्स-निःशूक निर्दय
मांटी उघतउं विहरवानउ व्यगतूं-व्यगतउं अहिनाण सुझतुं असूझतउं निध्वंस निस्सूग