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अनुसन्धान-७५(२)
जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमा(म)ग्गस्स । सा होइ निज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥१००॥
जा जय० ॥ हिव महात्माहुइं सावधानपणइ जयणा करवी । किवारइ कांई विराधना ऊपजइ संपूणी(ण) सिद्धांतना मार्गना जाण महात्माहुइं विधिइं चालतां हूतां किवारइ कांई विराधनां हुइ । पुण ते विराधनाइ निर्जराफल जाणिवी। कर्मक्षयनउ कारण जाणिवी । जेह भणी ते महात्मानइ अध्यात्मविसोधित निर्मलाई गाढी छइ । अनइ ते महात्मानइं आहारनी विशुद्धि ऊपरि खप घणी छइ । तथा मन एकांति सर्व दोष टालिवा ऊपरि छइ । तेह भणी ते विराधना कर्मक्षयनउ कारण थाइ । जेह भणी सविहुं जीवनइ सविडं स्थानके मन जि चोखउ जोईइ । सूधइ मनइ जि करी प्राहिइ जीव हुई घणउं धर्म हुइ । अत एवोक्तं श्रीदशवैकालिके
"देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो।" तेह भणी महात्मानइ आहारशुद्धि ऊपरि मननी गाढी खप जोईइ ॥१०१।।
(१००) इच्चेयं जिणवल्लहेण गणिणा, जं पिंडनिज्जुत्तीओ, किंचिय(किंची) पिंडविहाणजाणणकए, भव्वाण सव्वाण वि । वुत्तं सुत्तनिउत्त मुद्धमइणा, भत्तीइ सत्तीइ तं सव्वं भव्वममच्छरा सुअहरा बोहंतु सोहंतु आ ॥१०२॥
इच्चेयं० ।। इसी परिइं श्रीजिनवल्लभ इसिइं नामिइ गणि आचार्यिइ जं पिंड० पिंडनियुक्तिइ सिद्धांत, तेह थकउ ऊधरीनइ आहार लेवानी विधि मार्ग जाणिवा काजिइ भव्य जोग्य जे साधु अथवा श्रावकहुई पिंडविशुद्धि प्रकरण वुत्तं - कहीइ बोलिउ । सुत्तनि० - सिद्धांतनइ विषय वापरी निर्मलमति-बुद्धि जेहनी; एन्हीं श्रीजिनवल्लभसूरि आचार्यिइं सिद्धांतनी भक्तिई अनइं आपणी शक्तिई बुद्धिनइं अनुसारिइं ग्रंथ बोलिउ। हिव ए ग्रंथ रुडी परिइ मच्छररहित जे श्रुतधरसिद्धांतना जाण तेह, आपणा शिष्यहुई, बोहंतु०-पिंडविशुद्धिनउ विचार बूझिववउ - जणाविवउ - प्रकासिवउ । तथा ए ग्रंथ सिद्धांतने जाणे मच्छर छांडीनइ, सोहंतु०-सोधिवउ । जेह भणी ए सतितालीस आहारना दोषनउ विचार अत(ति)गहन-गाढउ सूक्ष्म छइ । अनइ सिद्धांतना सूत्र अनंतार्थ छइ । तेह भणी