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सप्टेम्बर - २०१८
संखडिभत्तुव्वरिअं चउण्हमुद्दिसइ जंतमुद्दिढ़ ।।
वंजणमीसाइ कडं तमग्गि तवियाइ पुण कम्मं ॥३१॥
संखडि० ॥ संखडि-विवाहादिक महोत्सव, तेहनूं ऊगरिइ भात, पाछिलि जे जे दर्शनी कह्या तेहनइ काजिइ अधिसइ कल्पइ ते 'उद्दिष्ट' कहीइं १ । अथवा कूरादिक भात दध्यादिक व्यंजने करी मिश्र करइ, दही भेलीनइ करंबादिक करइ ते 'कृत' कहीइ २ । तथा जे संखडनउ ऊगरिउं आहार अग्नि करी अथवा लवणादिके करी विशेष संस्करीनइ महात्मा प्रतई दिइ ते कर्मपिंड कहीइ । इम बीजउ भांगउ १२ भेद । अनइ पहिलं भांगउ १ भेदे एवं १३ भेदो औद्देशिकपिंड बीजउ दोष थयउ।
हिव त्रीजउ 'पूतिकर्म' दोष वखाणइ छइ -
उग्गमकोडि-कणेण वि असुइलवेणं च जुत्तमसणाई।
सुद्धं पि होइ पूई तं सुहुमं, बायरं, ति दुहा ॥३२॥
उग्गम० ॥ उद्गमकोटि-आधाकर्मादिक दस दोषे करी जे आहार दुष्ट हुइ, ते आहार न लेवउ । एकइ कण-एकइ सीथ जे शुद्ध आहारमाहि आवी पडइ तेहइ आहार सघुलोई पूति-अपवित्र थाइ । जिम असुचि-विष्टानउ लवइ जे रूडी वस्तुमाहि आवी पडइ ते अपवित्र थाइ । तिम आधाकर्मादिक दस दोष संबंधी आहारमाहिलु कणइ जे माहि आवी पडइ ते 'पूतिकर्मपिंड' कहीइ । ते पूतिकर्मदोष बिहुं प्रकार हुइ । एक सूक्ष्म पूतिकर्म-१ अनइ बीजउ बादरपूतिकर्म - २ ॥३२॥
हिव ए पूतिकर्मनां बिन्हइ भांगा वखाणइ छइ -
सुहुमं, कम्मिय गंधगि, धूव पुष्पेहिं तं पुण न दुटुं ।
दुविहं बायर-मुवगरण, भत्तपाणे, तहिं पढमं ॥३३॥
सुहमं० ॥ जे आधाकर्मा आहारनउ गंध, अथवा धूम, अथवा फल जे अनेरा आहार पूति आइ-आवी लागइ ते सूधइ, आहार पवित्र थाइ ते असूक्ष्मपूतिकर्म कहीइ । पुण ते दुष्ट-विरुउ-असूझतउ न कहीइ । ते महात्मा प्रतइ कल्पइ, इस्युं भाव । तथा बीजउ बादर भांगउ बिहुं प्रकारे हुइ । एक उपगरण-भाजनादिक आश्री, बीजउ भात-पाणी आश्री-२ ।