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अनुसन्धान-७५(२)
बाप मरीनइ बेटु थाइ,
कुणिहि न कहिनउ पिण्डऊ धराई ॥१५॥ 'करपा-हीण जीव दुखिया हुंति,
मनवंछित फल तउ न लहंति । जे लेई पूजई खडसलउं,
कहु किम लहिसइं फल ते भलउं ॥१६॥ एकमनां जे अरिहंत ध्याई,
___अंतराहि तहिं दूरिहिं जाई। अरिहंत भणीइ त्रिभवन-राउ,
____ मोह तणउ जिण फेडिउ ठाउ ॥१७॥ केवलज्ञान अनंतुं फिरइ,
देसण वाणि अमिअ-रस झिरइ । सयलहं जीवहं जे सम-चित्त,
तसु पय वंदउं सदा पवित्त ॥१८॥ चउसठि इंद्र नइ सूरु हु चंद,
तसु पय सेवई मुनिवर-वृंद । त्रिहु छत्रिई त्रिहुं भुवणह राउ,
सिद्धिसिला ते अविचल ठाउ ॥१९॥ अरिहंत देव सुसाधु गुरु जाणि,
जिन-प्रणीत नव तत्त्व वखाणि । रत्न-त्रय जिहिं निश्चल चित्ति,
तीहं तणइ करयलि छइ मुगति ॥२०॥ समकितु-रयण दुलंभं होइ,
___ समकित पाख मुगति म जोइ । समकित माय-बाप संसारि,
धर्म-मूल समकितु आधारि ॥२१॥ १. कृपा २. अन्तराय