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________________ सप्टेम्बर भवियां रे उत्सर्ग ते त्याग कीजिइं रे, द्रव्यथी ना च्यार भाग । भाव उत्सर्ग ति नांसि भण्यो रे, दिझं अभ्यंतर सिवमाग | नि० ॥७॥ भविया रे एकेकें भेद अनेक छें रे, तपना पण बाह्यथी होय । अनंतगुणि सुविशुद्धता रे, तेह अभ्यंतर तपें जोय । नि० ॥८॥ भवियां रे एह अभ्यंतर तप सेवता रे, भरत बाहुबली मुनि थाय । एवि बाह्य तपथी सुं फलें रे, विराधकभाव न जाय । नि० ॥९॥ भवियां रे सेवी सवें तप नांणसुं रे, निरजरिया कर्म अनंत । जीव लहें सिवसंपदा रे, पुजो केसरें ते भगवंत । नि० ||१०|| नहीँ श्रीँ० पूर्ववत् ॥ इति तृतीयतत्त्वत्रिकें द्वितीयपूजा ॥८॥ - २०१८ * दूहा मोक्षफलित एह पुफसें, जैन कलपतरू सार । एहि तत्त्व फल मुखथी, नव जस भेद उदार ॥१॥ अथ ढालः [ सिद्धचक्र वर सेवा कीजें, नरभव लाहो लिजें जी रे ॥ अथवा मारा प्रभु साथें जो प्रीतिकरो तो, नारी संग निवारो जी रे - ए देशी ॥] मोक्षतत्त्व नवविद्ध छे शास्त्रे, सूणजो लेश विचाराजी रे । विद्यमान छें खपुफवत नहि, छें वली दाखणहारा, प्रणमी पुजो जी रे । तत्त्व ए जग आधार, पण नवि दुजोजी रे ||१|| ए आंकणी ॥ एह पण तत्त्व इहां हि ज पावें, अड दोय मार्गणा मांहे जी रे । सिद्धसिला उपर तस वासो, तेहना भेद ए आहि । प्र० ॥२॥ जीवद्रव्य जोतां सहु सिद्धमें, प्रतिप्रदेशें अनंता जी रे । सर्वलोक असंखित भागे, रहिया रेहेसे भदंता प्र० ||३|| सिद्ध फरसा आकाश प्रदेशा, चोफेर एकेक अहिया जी रे । सादि अनादि अनंत अद्धा तां, एक अनंता रहिया । प्र० ||४|| अंतर हीण सिद्ध ते कहीई, इहागमन अभावेंजी रे । सर्वजीवने नंतमें भागें, जोतां सिद्ध सभावें । प्र० ॥५॥ - १५९
SR No.520577
Book TitleAnusandhan 2018 11 SrNo 75 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages338
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size22 MB
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