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अनुसन्धान-७५(२)
१३ पत्रोनी आनी एकमात्र प्रति निजी संग्रहनी छे. जीर्ण थवा आवी छे, कोई ज पुष्पिका वगेरे नथी, जेथी अनुमान थाय छे के कर्ताए स्वहस्ते लखेली ज प्रति होवी जोईए. एक पानांमां एक अंश खवाईने फाट्यो छे.
श्रीवीतरागाय नमः ॥
दूहा
सिरिनवसारिमंडणो, प्रणमी पासजिणंद । जास चरण-करसें करी, सेवें सुरासुर-इंद ॥१॥ वलि निजगुरु-चरणे नमी, विद्यादाइ जेह । सारद दीजें सारदा, तत्त्वपुजा करणेह ॥२॥ उद्दाम चित्त करी आणिई, मेवाम्रादिक सर्व । तिन तिन वस्तु जघन्यथी, मुणिगुणसमि निगर्व ॥३॥ उकोसय तेह पद समी, थापी अरिहा-पूर । अष्ट प्रकार बीजा वली, मेलीजें भरपूर ॥४॥ बहुविध शास्त्रे तत्त्व छे, कहुं इहां उपादेय । पुजनलायक विश्वनें, बीजां हेय गनेय ॥५॥ ज्ञेय प्रथमथी निपजें, तत्त्व सवे जगमांहि । पण भवि-पुजनजोग जे, भाव धरी मनमांहि ॥६॥ तत्त्वत्रिक त्रणनो इहां, भाषिस लेश विच्यार । अष्टप्रकार करमें धरो, पुज्यपुजादिट्ठ सार ॥७॥ रत्न मणि हेम रजतना, कलस भरी अंभिराम । तत्त्ववरगसम सहु मली, करो अभिषेक उद्दाम ॥८॥ वाजित्रादि वाजतें, स्फार धरी सणगार । आसायण टाली सवे, धूपी जिन-घरबार ॥९॥ जिम असंख्य इंद्रे मिली, भक्ती करी जिनराय । तिम नगर-नारी-संघ मली, पुजो अरिहा-पाय ॥१०॥ नाम 'देव' जग छे बहु, ते पण शत्रुसमेत । श्रीअरिहंत अरिहंत नमो, धूर उपगार उपेत ॥११॥