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अनुसन्धान-७५(२)
मिथ्यात्वी के विघन-सत, पिण बोलत नही दुष्ट, पडे विघन-लव धर्मिके, तो नाचे अघ-पुष्ट ८४ समदृष्टी के विघन पिण, ओछव सारिख्यो होय, अति ओछव मिथ्यात्वजुत, महा विघ्नमय जोय निज संपत कुं हीलतो, नमे इंद्र पिण तास, जे समकित छंडे नही, पडे मरण की त्रास मोक्षार्थी त्रण जिम तजे, निज जीवित न समत्त, जीवित वलि पिण पामीये, ह(हा)j समकित कत्त? ८७ विभवरहित पिण विभवजुत्त, समकितरत्नसमेत, समकितरहित छते धने, दारिद्री वनप्रेत
८८ पूजा-अवसर श्राद्ध कुं, कोइ दिए धन कोडि, ते असार तजि सार जिन, पूजा रचे निचोडि२५ दर्शनादि-गुणकारणी, कहि जिनवर पूजाय, वलि मिथ्यात्वकरी कही, सा पूजा जिनराय जो जो जिनआज्ञा-सहित, ते हि ज माने जोय, शेष न माने तत्वन्हे, लोकिके विदु सोय आणारहित अधर्म फुट, धरम जिनाज्ञा-तार, ए य तत्त्व जाणी करो, धरम जिनाज्ञा-सार भवभय-रहित सुभट तथा, दुष्ट धीठ नर तेय, छते सुगुरु स्वाधीन जे, सुध धरम न सुणेय सुकुल-धर्म-जाति गुणी, पर न रमे लिय सम्म, पछे विसुद्ध चरण पछे, उपकारे शिव रम्म नीका नारक जेहनो, दुख सुणि भविजणकेय, हरिहर ऋद्धि समृद्धि पिण, तनु-उत्कंठ जणेय धरमदास गणिवर रचित, उपदेशमाल सिद्धांत, श्रमण श्राद्ध माने सवि, पठे पाठवे खांत मान मोह भूते छल्या, अधम केई किरियाय, तेह मालने हीलता, न गणे भवदुख भाय !